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इमाम हुसैन अलैहिस सलाम

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इमाम हुसैन अलैहिस सलाम
शियों के तीसरे इमाम
इमाम हुसैन(अ) की ज़रीह
इमाम हुसैन(अ) की ज़रीह
नामहुसैन
वंशबनी हाशिमकु़रैश
उपाधिअबा अब्दिल्लाह • अबू शोहदा • अबुल अहरार • अबुल मुजाहेदीन
उपनामसैय्यदुश शोहदासारल्लाह • मिस्बाहुल हुदा • क़तीलुल अबरात...
जन्मदिन3 शाबान वर्ष 4 हिजरी
जन्मस्थलमदीना
निवास की जगहमदीना, कूफ़ा
शहादत10 मुहर्रम (आशूरा) वर्ष 61 हिजरी
हत्याराशिम्र बिन ज़िल-जोशन और एक रिवायत के अुसार सेनान बिन अनस नख़ई
शहादत का स्थानकर्बला
दफ़न स्थानकर्बला
कब्रइमाम हुसैन(अ) का हरम
आयु57 वर्ष
माता-पिताइमाम अली (अ)हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स)
जीवन साथीशहरबानो • रुबाब • लैला • उम्मे इस्हाक़
संतानइमाम सज्जादअली अकबरअली असग़रसकीनाफ़ातिमा • जाफ़र
इमामत की शुरुआत28 सफ़र, 50 हिजरी
पहलेइमाम हसन मुज्तबा अलैहिस सलाम
बादइमाम सज्जाद अलैहिस सलाम
इमामत की अवधिलगभग 11 वर्ष (50 हिजरी से 61 हिजरी के आरम्भ तक)
भूमिकासाहबी, पैग़म्बरे इस्लाम के दूसरे पोते
फ़ज़ाइलपंजतन मे से एक • असहाबे किसामुबाहेले में पैग़म्बर के साथआयत इतआममवद्दत की आयतसूर ए फ़ज्रततहीर की आयतहुसैन मिन्नी वा अना मिन हुसैन
युद्धों में भागीदारीजमल की लड़ाईसिफ़्फ़ीन की लड़ाईइमाम हुसैन (अ) का आंदोलन
घटनाएँपैग़म्बर (स) की वफ़ातहज़रत फ़ातिमा (स) की शहादतउस्मान का हत्याकांडइमाम अली (अ) का शासनइमाम अली की शहादतकर्बला की घटना
विरोधीयज़ीद बिन मुआविया
प्रसिध साथीअब्बास बिन अलीमुस्लिम बिन अक़ीलमीसमे तम्मारमुस्लिम बिन औसजाकर्बला के शहीदऔर...
समकालीन शासकमुआवियायज़ीद
प्रसिद्ध हदीसेंमीना में उपदेशआशूरा के दिन का उपदेशमुहम्मद हनफ़िया को वसीयतख़ुतबा ख़ुत्त अल मौतबसरा के नामी लोगों को पत्र...
ज़ियारत नामाज़ियारते आशूराज़ियारते वारेसाज़ियारत नाहिया मुक़द्देसाऔर...
संबंधित कार्यअस्रे आशूर पेंटींगरोज़े वाक़ेआ (फ़िल्म)मोख़्तारनामा (टीवी श्रृंखला)
संबंधित धर्ममुहर्रम का शोकअरबाईन हुसैनीज़ियारते अरबईनअरबाईन वॉकतुवैरीज शोक
आश्रिततव्वाबीन का क़याममुख़्तार का क़यामआशूरा की विकृतियोंअधूरा हजतुरबत
इमाम अलीइमाम हसन मुज्तबाइमाम हुसैनइमाम सज्जादइमाम मुहम्मद बाक़िरइमाम जाफ़र सादिक़इमाम मूसा काज़िमइमाम अली रज़ाइमाम मुहम्मद तक़ीइमाम अली नक़ीइमाम हसन असकरीइमाम महदी


हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब (अ) (अरबी: الإمام الحسين بن علي بن أبي طالب عليه السلام) (4.61 हिजरी), जो शियों में इमाम हुसैन (अ), अबा अब्दिल्लाह और सय्यदुश शोहदा के नाम से भी प्रसिद्ध हैं, शियों के तीसरे इमाम हैं जिन्हे 10 मुहर्रम (आशूरा के दिन) कर्बला के मैदान में शहीद किया गया। आप इमाम अली (अ) और हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) के दूसरे बेटे और पैग़ंबर (स) के नवासे हैं। आपने अपने भाई के बाद लगभग 11 साल तक इमामत के पद को संभाला।

शिया और सुन्नी ऐतेहासिक स्रोत के अनुसार पैग़ंबर (स) ने आपके जन्म के समय आपकी शहादत की घोषणा की और आपका नाम हुसैन रखा। पैगंबर (स) हसनैन (इमाम हसन (अ) व इमाम हुसैन (अ)) से बहुत प्रेम करते थे। और इनसे प्रेम करने कि सलाह देते थे। आप (अ) असहाबे किसा में से एक हैं, मुबाहेला में भी उपस्थित थे और पैगंबर (स) के अहले बैत (अ) में से हैं जिनके सम्मान में आय ए ततहीर नाज़िल हुई है। इमाम (अ) के गुणों (फ़ज़ीलत) से संबंधित अनेक रिवायात पैगंबर (स) से वर्णित हुई हैं जैसे: हसन और हुसैन स्वर्ग के जवानों के सरदार हैं और हुसैन मार्ग दर्शन (हिदायत) के दीपक (चिराग़) और निजात की कश्ती हैं। हदीसी स्रोतों और ज़ियारतनामों में इमाम हुसैन (अ) के लिए कई उपनाम बयान किये गए हैं, जिनमें सारल्लाह, सय्यदुश शोहदा, क़तीलुल अबरात और ख़ामिसे अस्हाबे किसा जैसे प्रसिद्ध उपनाम शामिल हैं।"

पैगंबर (स) के स्वर्गवास के बाद के तीस वर्षों में आपके जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध हैं। आप अमीरुल मोमिनीन (अ) के शासक काल (ख़िलाफ़त) में उनके साथ थे और उस काल के युद्धों में आपने भाग लिया। इमाम हसन (अ) के शासक काल में आप उनके साथ रहे और इमाम हसन (अ) की मुआविया से सुलह का समर्थन किया। इमाम हसन (अ) की शहादत से मुआविया की मृत्यु तक उसी वचन पर बाक़ी रहे और कूफ़ा के कुछ शियों ने जब आपको बनी उमय्या के ख़िलाफ़ आंदोलन और शियों का नेतृत्व संभालने का अनुरोध किया तो उन्होंने उन्हें मुआविया की मृत्यु तक धैर्य रखने की सलाह दी।

हुसैन बिन अली (अ) की इमामत और मुआविया का शासक दोनो का समय एक था। कुछ ऐतेहासिक स्रोतों से यह जानकारी मिलती है कि आपके मुआविया के कुछ कार्यों पर कड़ी कारवाई की है। ख़ास तौर से हुज्र इब्ने अदी की हत्या पर मुआविया को फटकार भरा पत्र लिखा और जब यज़ीद को उत्तराधिकारी बनाया तो आपने उसकी बयअत से इंकार किया मुआविया और कुछ अन्य लोगों से इस कार्य की निंदा की और यज़ीद को अयोग्य व्यक्ति घोषित किया और पद (ख़िलाफ़त) का योग्य ख़ुद को घोषित किया। मेना में इमाम हुसैन (अ) का ख़ुतबा भी बनी उमय्या के ख़िलाफ़ आपके राजनीतिक रूख को समझाता है। इसके बावजूद मुआविया तीनों ख़लिफ़ाओं की तरह ज़ाहिरी तौर पर इमाम हुसैन (अ) का सम्मान करता था।

मुआविया की मृत्यु के बाद इमाम हुसैन (अ) ने यज़ीद की बैअत को शरीअत के विपरीत घोषित किया और यज़ीद की बैअत ना करने पर यज़ीद की तरफ़ से हत्या की धमकी मिलने पर 28 रजब 60 हिजरी को मदीना से मक्का गए। मक्का में चार महीने रहे और इसी दौरान कूफ़ा के लोगों की तरफ़ से शासन संभालने के लिए लिखे गए अनेक पत्रों के कारण मुस्लिम इब्ने अक़ील (अ) को कूफ़ा भेजा। मुस्लिम इब्ने अक़ील (अ) की तरफ़ से कूफ़ा वालों के समर्थन के बाद, 8 ज़िल हिज्जा को कूफ़ा वालों की बेवफ़ाई और मुस्लिम की शहादत का समाचार सुनने से पहले कूफ़ा की तरफ़ रवाना हुए।

जब कूफ़ा के गवर्नर उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद को इमाम हुसैन (अ) की यात्रा की ख़बर मिली तो उसने आप की तरफ़ एक सेना भेजी और हुर इब्ने यज़ीद के सैनिकों ने जब इमाम (अ) का रास्ता रोका तो मजबूर होकर आपने कर्बला की तरफ़ यात्रा की। आशूर के दिन इमाम (अ) और उमरे साद की सेना के बीच युद्ध हुआ जिस में इमाम हुसैन (अ) और आपके साथीयों में 72 लोग शहीद हुए और शहादत के बाद इमाम सज्जाद (अ) जो उस समय बीमार थे, समेत महिलाओं और बच्चों को बंदी बना कर कूफ़ा और शाम ले गए। इमाम (अ) और उनके साथियों के जनाज़े 11 या 13 मुहर्रम को बनी असद क़बीले के कुछ लोगों ने कर्बला मे दफ़्न किये।

इमाम हुसैन (अ) की मदीना से कर्बला की यात्रा के अनेक सिद्धांत पाए जाते हैं: एक सिद्धांत के अनुसार आप हुकूमत स्थापित करना चाहते थे जबकि कुछ का मानना है कि यह यात्रा केवल अपनी जान बचाने के लिए थी। हुसैन बिन अली (अ) की शहादत का मुसलमानों, विशेषकर शियों पर बहुत प्रभाव पड़ा और वह कई आंदोलनों के लिए एक आदर्श बन गई। अपने इमामों की पैरवी करते हुए शिया इमाम हुसैन के लिए शोक (अज़ादारी) का आयोजन करते हैं और विशेष रूप से मुहर्रम और सफ़र के महीनों के दौरान उनका शोक मनाते हैं। मासूमीन (अ) की रिवायात में इमाम हुसैन (अ) की तीर्थयात्रा पर ज़ोर दिया गया है। और उनका रौज़ा शियों के लिए तीर्थस्थल है।

जिस तरह हुसैन इब्ने अली (अ) का शियों में तीसरे इमाम और सय्यदुश शोहदा होने के रूप में बड़ा स्थान (मक़ाम) है। इसी तरह, अहले सुन्नत भी पैगंबर (स) की हदीसों में वर्णित उनके गुणों (फ़ज़ीलतों) और यज़ीद से मुक़ाबले में उनकी दृढ़ता (इस्तेक़ामत) और आंदोलन के कारण, आपका सम्मान करते हैं।

इमाम हुसैन के कथनों और कार्यों का संग्रह, हदीसों, दुआओं, पत्रों, कविताओं और उपदेशों के रूप में, मौसूआ कलेमात अल इमाम अल हुसैन और मुसनद अल इमाम अश शहीद जैसी पुस्तकों में संकलित किया गया है, और इसके अलावा, आपके व्यक्तित्व और जीवन पर, विश्वकोश (Encyclopedia), जीवनियां, मक़तल और विश्लेषणात्मक इतिहास के रूप में बहुत सी रचनाएं लिखी गई हैं।

स्थिति

इमाम हुसैन (अ) के जीवन का कालक्रम
3 या 5 शाबान जन्म[]
4 हिजरी
7 हिजरी असहाबे केसा[] के लिए आय ए ततहीर का नुज़ूल
24 ज़िलहज्जा 9 हिजरी मुबाहेला[] में उपस्थिति
ज़िलहज्जा 35 हिजरी इमाम अली (अ)[] की बैअत के बाद लोगों के लिए उपदेश दिया
जमादी अल आख़िर 36 हिजरी जमल[] के युद्ध में उपस्थिति
सफ़र 37 हिजरी सिफ़्फ़ीन[] के युद्ध में उपस्थिति
सफ़र 38 हिजरी नहरवान[] के युद्ध में उपस्थिति
41 हिजरी कूफ़ा से मदीना[] वापसी
28 सफ़र 50 हिजरी इमाम हसन (अ)[] की शहादत व इमाम हुसैन (अ) की इमामत का आरम्भ
51, 52 या 53[१०] हिजरी हुज्र बिन अदि और उनके साथीयों की हत्या के लिए मुआविया को एक विरोध पत्र लिखना
58 हिजरी मेना[११] में उपदेश
26 रजब 60 हिजरी यज़ीद[१२] की बैअत के लिए दारुल अमारा में बुलाना
28 रजब 60 हिजरी मदीना से मक्का[१३] की ओर निकलना
3 शाबान 60 हिजरी मक्का[१४] में आगमन
10 से 14 रमज़ान 60 हिजरी कूफ़ीयों[१५] से पत्रों का प्राप्त करना
15 रमज़ान 60 हिजरी मुस्लिम को अपना प्रतिनिधि बनाकर कूफ़ा[१६] भेजा
8 जिलहज्जा 60 हिजरी मक्का से कूफ़ा[१७] की ओर निकलना
2 मुहर्रम 61 हिजरी कर्बला[१८] में आगमन
9 मुहर्रम 61 हिजरी उमर साद का युद्ध की घोषणा और इमाम (अ)[१९] का समय मांगना
10 मुहर्रम 61 हिजरी आशूरा की घटना और इमाम हुसैन और उनके साथीयों की शहादत[२०]

हुसैन बिन अली (अ) शियों के तीसरे इमाम, शियों के पहले इमाम के बेटे और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के नवासे हैं।[२१] इस्लामिक स्रोतों में इनके गुणों (फ़ज़ीलत) से संबंधित अनेक हदीसें वर्णित हैं और शिया इनके लिए विशेष स्थान का मानते हैं, इमाम हुसैन (अ) का अहले सुन्नत के यहाँ भी विशेष स्थान है।

हदीस और ऐतिहासिक स्रोतों में

शिया और सुन्नी रिवायत के अनुसार हुसैन बिन अली (अ) असहाबे किसा में से एक थे।[२२] मुबाहेला में भी आप भागीदार थे[२३] और अपने भाई के साथ आय ए मुबाहेला में अबनाअना (ابناءَنا) के उदाहरण हैं।[२४] इसी प्रकार आय ए ततहीर जो अहले बैत (अ) के सम्मान में नाज़िल हुई[२५] उसमें भी आप भागीदार हैं।

इमाम हसन (अ) की शहादत के पश्चात भले ही बनी हाशिम में बहुत से लोग इमाम हुसैन (अ) से आयु में बड़े थे लेकिन आप सबसे शरीफ़ थे: याक़ूबी के वर्णन के अनुसार मुआविया ने इमाम हसन (अ) का शहादत के बाद इब्ने अब्बास से कहा: आप अपनी क़ौम में सबसे बड़े हैं तो इब्ने अब्बास ने उत्तर में कहा: जब तक हुसैन जीवित हैं मैं बुज़ुर्ग नही हूं।[२६] इसी तरह बनी हाशिम में बहुत बैठक हुईं सारी बैठकों में हुसैन बिन अली को योग्य माना गया।[२७] वर्णित किया गया है कि अम्र बिन आस का मानना था कि आसमान वाले ज़मीन वालों में से सब से अधिक प्रेम इमाम हुसैन (अ) से करते हैं।[२८]

शिया सभ्यता और संस्कृति में

वर्ष 61 हिजरी में आशूरा के दिन आपकी शहादत कारण बनी के आपकी शख़्सियत शियों और यहां तक कि गैर-शियों की नज़रों में हक़ तलबी, वीरता और शहादत का उदाहरण बन गई।[२९] इस घटना ने कम से कम इस तथ्य के संदर्भ में कि यह पैगंबर (स) के खानदान का पहला अपमान और खुला हमला था, इस ने शिया इतिहास और संस्कृति पर एक गहरा निशान छोड़ा,[३०] और इमाम हुसैन (अ) का यह क़याम (आंदोलन), अत्याचार के खिलाफ़ एक आंदोलन, तलवार पर खून की जीत, अच्छे कार्य की तरफ़ बुलाना और बुराई के निषेध, (अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर) और बलिदान का प्रतीक है।[३१]

इमाम हुसैन (अ) की शहादत का प्रभाव ऐसा था कि कुछ लोगों ने सोचा कि शिया धर्म का गठन उनकी शहादत के बाद हुआ।[३२] इस्लाम के पूरे इतिहास में, जितने भी आंदोलन हुए है इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन के आधार पर और ला सारातिल हुसैन (یا لثارات الحسین) के नारों के साथ हुए हैं।[३३]

मुहर्रम और सफ़र के महीनों, का शिया संस्कृति में एक विशेष स्थान है और विशेष रूप से तासुआ (9 मुहर्रम ), आशूरा और अरबईन हुसैनी के दिनों में इस अवसर को मनाने के लिए विभिन्न अनुष्ठान आयोजित किए जाते हैं।[३४] शिया धर्मगुरुओं और बुज़ुर्ग़ाने दीन का अनुसरण करते हुए पानी पीते समय इमाम हुसैन (अ) की प्यास को याद करते हैं और उन्हें सलाम करते हैं।[३५]

अहले सुन्नत की दृष्टि में

सुन्नियों की विश्वसनीय पुस्तकों में इमाम हुसैन (अ) के गुणों के बारे में कई हदीसों का वर्णन किया गया है।[३६] गुणों (फ़ज़ीलत) की रिवायत के अलावा, अल्लाह की मार्ग पर अपनी जान व माल का बलिदान, कारण बना कि मुसलमानों की मान्यताएं भी आपके प्रति मज़बूत हो गई हैं।[३७]

इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन (क़याम) से संबंधित अहले सुन्नत के यहां दो मत पाए जाते हैं: एक समूह इसे महत्वहीन मानता है, जबकि दूसरा समूह इसकी प्रशंसा और महिमा करता है। विरोधियों में से एक अबू बकर इब्ने अरबी है, जो इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन को महत्वहीन मानते हुए कहता है कि लोग पैग़म्बर (स) की हदीस (जो लोग उम्मत में फूट (इख़्तिलाफ़) फैलाते हैं उनसे युद्ध करने के बारे में) सुन कर हुसैन (अ) से युद्ध करने गए।[३८] इब्ने तैमिया भी कहता है कि हुसैन बिन अली (अ) ने केवल स्थिति में सुधार नही किया, बल्कि बुराई और भ्रष्टाचार को भी जन्म दिया।[३९]

इब्ने ख़्लदून ने इब्ने अरबी की बातों की काट करते हुए कहा है कि ज़ालिम और अत्याचारियों से लड़ने के लिए न्यायपूर्ण (आदिल) इमाम का होना अनिवार्य है और हुसैन (अ) अपने ज़माने के न्यायपूर्ण व्यक्ति थे और इस युद्ध के योग्य थे।[४०] एक अन्य स्थान पर कहते हैं कि: जब यज़ीद का अपराध (फ़िस्क़) प्रकट हो गया तो हुसैन (अ) ने उसके ख़िलाफ़ आंदोलन को ख़ुद पर अनिवार्य जाना क्योंकि वह खुद को इस कार्य के योग्य समझते थे।[४१] आलूसी ने रूहुल मानी में इब्ने अरबी पर बद दुआ करते हुए इस बात को झूठ और सब से बड़ी तोहमत मानी है।[४२]

अब्बास महमूद अक़्क़ाद ने अपनी किताब अबूश शोहदा अल हुसैन बिन अली में लिखा है: यज़ीद के शासक में हालात इस स्थान पर पहुँच गए थे कि शहादत के अलावा कोई उपाय नही था।[४३] और उसका मानना है कि ऐसे आंदोलन वही लोग कर सकते हैं जिनका जन्म ही ऐसे कार्य के लिए हुआ है उनके आंदोलन और उनके कार्य की तुलना दूसरों से नहीं करनी चाहिए क्योंकि इनकी सोच और समझ दूसरों से विपरीत होती है।[४४] अहले सुन्नत लेखक ताहा हुसैन का कहना है कि हुसैन (अ) का यज़ीद की बैअत से इंकार का कारण दुश्मनी और ज़िद नहीं थी वह जानते थे कि अगर यज़ीद की बैअत कि तो वे अपने विवेक और दीन के साथ विश्वासघात करेंगे क्योंकि यज़ीद की बैअत उनकी निगाह में पाप था।[४५] उमर फ़रोख कहता है कि ज़ुल्म और अत्याचार के ख़िलाफ़ खामोश होना किसी भी परिस्थिति मे जाएज़ नहीं है और आज के मुस्लमानों की आवश्यकता है कि हमारे बीच एक हुसैनी आंदोलन हो और हमें सही मार्ग की रक्षा करने के लिए हमारा मार्गदर्शन करें।[४६]

यज़ीद पर इमाम हुसैन (अ) के हत्यारे होने के नाते लानत करने के संबंधित अहले सुन्नत में दो मत पाए जाते हैं और अहले सुन्नत के अनेक विद्वान यज़ीद पर लानत को सही मानते हैं बल्कि यज़ीद पर लानत को वाजिब मानते हैं।

नाम, वंश, उपाधि, उपनाम

मुख्य लेख: इमाम हुसैन (अ) के उपनाम और उपाधियों की सूची

शिया और सुन्नी किताबों में वर्णित है कि पैग़म्बर (स) ने आपका नाम हुसैन (अ) रखा।[४७] हदीसों के अनुसार यह नामकरण अल्लाह के आदेश पर था।[४८] हसन और हुसैन के नाम इस्लाम से पहले अरब में प्रचलित नहीं थे।[४९] शब्बर और शूबैर (या शब्बीर)[५०] हज़रत हारून के बच्चो के नाम थे।[५१]

इस के अलावा भी इस नाम को रखने के और भी कारण बताए गए हैं जैसे: इमाम अली (अ) ने शुरू में आपका नाम हर्ब या जाफ़र रखा परन्तु पैगंबर (स) ने आपके लिए हुसैन नाम चुना।[५२] कुछ ने इसको गढ़ी हुई बात कहते हुए इसके ख़िफ़ाल दलीलें पेश की हैं।[५३]

इमाम हुसैन (अ), इमाम अली (अ) व हज़रत फ़ातिमा (स) के बेटे और हज़रत मुहम्मद (स) के नवासे हैं, आप क़ुरैश जनजाति के बनी हाशिम वंश से हैं। इमाम हसन मुज्तबा (अ) हज़रत अब्बास (अ) और मुहम्मद हनफ़िया आप के भाई और हज़रत ज़ैनब (स) और उम्मे कुलसूम आपकी बहनें हैं।[५४]

इमाम हुसैन (अ) की उपाधि अबू अब्दिल्लाह है।[५५] अबू अली, अबू शोहदा, अबुल अहरार, अबुल मुजाहेदीन भी आपकी उपाधियाँ हैं।[५६]

हुसैन बिन अली (अ) के बहुत सारे उपनाम हैं जिनमें अधिकांश उपनाम आप और आपके भाई इमाम हसन (अ) के बीच सामान्य हैं जैसे: सय्यदा शबाबे अहलिल जन्नत,आप के कुछ उपनान निम्नलिखित है: ज़की, तय्यब, वफ़ी, सय्यद, मुबारक नाफ़े, अद्दलील अला ज़ातिल्लाह, अत्ताबे ले मर्ज़ातिल्लाह,[५७] इब्ने तलहा शाफ़ेई ने (ज़की) उपनाम को दूसरे उपनामों से ज़्यादा प्रसिद्ध और (सय्यद ए शबाबे अहलिल जन्ना) के उपनाम को सब से अहम क़रार दिया है।[५८]

कुछ हदीसों में आपको शहीद या सय्यदुश शोहदा के उपनाम से याद किया गया है।[५९] सारल्लाह और क़तीलुल अबरात के उपनाम भी कुछ ज़ियारत ग्रंथों में वर्णित किये गए हैं।[६०]

पैगंबर (स) की एक हदीस जिसे शिया और अहले सुन्नत के अधिकांश स्रोतों में नक़्ल किया है इस में (हुसैन सिब्तुम मिनल असबात) वर्णित हुआ है[६१] इस हदीस में सिब्त का अर्थ वही है जैसे क़ुरआन की कुछ आयतों में वर्णित हुआ है। हदीस और आयात में सिब्त का अर्थ इमाम और वह पवित्र व्यक्ति है जिसे अल्लाह ने चुना (इंतेख़ाब) है और वो अम्बिया के वंश से है।[६२]


जीवनी

रसूले ख़ुदा (स) ने फ़रमाया:

हुसैनो मिन्नी व अना मिनहो अहब्बल्लाहो मन अहब्बा हुसैना (अनुवाद: हुसैन मुझ से है और मैं हुसैन से हूँ, जो हुसैन से प्रेम करेगा अल्लाह उससे प्रेम करेगा।)

अंसाबुल अशराफ़,खंड 3, पृष्ठ 142, तबक़ातुल कुबरा, खंड 10, पृष्ठ 385

हुसैन बिन अली (अ) का मदीना में हुआ। प्रसिद्ध मत के अनुसार आपका जन्म वर्ष 4 हिजरी में हुआ।[६३] कुछ अन्य के अनुसार आपका जन्म वर्ष 3 हिजरी में हुआ।[६४]

प्रसिद्ध मत के अनुसार आपका जन्म 3 शाबान को हुआ[६५] परन्तू शेख़ मुफ़ीद ने अपनी किताब अल इरशाद में आपकी जन्म तिथि 5 शाबान लिखी है।[६६]

शिया और सुन्नी स्रोतों में वर्णित हुआ है कि आपके जन्म के समय पैग़ंबर (स) रोए थे और आपकी शहादत का सूचना दी।[६७] किताब अल काफ़ी की एक हदीस के अनुसार हुसैन (अ) ने अपनी माँ या किसी अन्य महिला का दूध नहीं पिया।[६८]

कहा गया है कि उम्मुल फ़ज़्ल, अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब की पत्नी ने ख़्वाब देखा कि पैगंबर (स) के बदन से मांस का एक टुकड़ा उस (उम्मुल फ़ज़्ल) की गोद में रखा गया। पैगंबर (स) ने ख़्वाब की ताबीर बताई कि फ़ातिमा के यहाँ एक पुत्र का जन्म होगा और तुम उसकी दाया होगी। जब इमाम हुसैन (अ) का जन्म हुआ तो उम्मुल फ़ज़्ल ने दूध पिलाने की ज़िम्मेदारी ली।[६९] कुछ स्रोतों में अब्दुल्लाह बिन यक़तर की माँ का नाम भी इमाम हुसैन (अ) की दाया में लिखा गया है। लेकिन इमाम हुसैन (अ) ने इन दोनों में से किसी महिला का दूध नहीं पिया।[७०]

अहले सुन्नत के बात स्रोतों में आया है कि पैग़ंबर (स) अपने परिवार में सब से अधिक प्रेम हसन (अ) और हुसैन (अ) से करते थे।[७१] और प्रेम इनता अधिक था कि अगर कभी मस्जिद में उपदेश (ख़ुतबा) देते समय हसन और हुसैन मस्जिद में आ जाते तो पैगंबर (स) उपदेश को अधूरा छोड़ देते और मिम्बर से उतर कर उन्हें गोद ले लेते थे।[७२] पैगंबर (स) से वर्णित है कि आपने फ़रमाया कि इन दोनों के प्रेम ने मुझे दूसरी किसी के प्रेम से बेनेयाज़ कर दिया।[७३]

हुसैन (अ) बाक़ी असहाबे केसा के साथ मुबाहेला की घटना में भी भागीदार थे[७४] और पैगंबर (स) के स्वर्गवास के समय आपकी आयु 7 वर्ष थी। इसीलिए आपको असहाब के सबसे निचले हिस्से (तब्क़े) में गिना गया है।[७५]

हरम ए इमाम हुसैन (अ) में लिखी पैगंबर (स) की हदीस

तीन ख़लिफ़ाओं के शासक काल में

इमाम हुसैन (अ) ने अपने जीवन के तक़रीबन 25 वर्ष तीन ख़लिफ़ाओं (अबू बक्र, उमर, उस्मान) के शासक में गुज़ारे। हालाँकि, इस अवधि के दौरान शियों के तीसरे इमाम के जीवन के विवरण के बारे में अधिक जानकारी नहीं है, जो कि इमाम अली (अ) और उनके बच्चों के राजनीतिक अलगाव के कारण हो सकता है।[७६]

नक़्ल हुआ है कि उमर के शासक के शुरुआत में, एक दिन इमाम हुसैन (अ) ने मस्जिद में प्रवेश किया देखा कि उमर पैग़म्बर (स) के मिम्बर से उपदेश दे रहे हैं, इमाम हुसैन (अ) ने उमर से कहा: मेरे पिता के मिम्बर से नीचे उतरो और अपने पिता के मिम्बर पर बैठो, उमर ने उत्तर दिया मेरे पिता के पास मिम्बर नहीं था।[७७] ऐतिहासिक स्रोतों में वर्णित है कि द्वितीय ख़लीफ़ा इमाम हुसैन (अ) का बहुत सम्मान करते थे।[७८]

उस्मान के शासक काल में जब अबूज़र को रबज़ा की ओर निर्वासित किया तो लोगों को मना किया कि कोई उनकी सहायता न करे, इमाम हुसैन (अ) ने अपने पिता और अपने भाई और कुछ अन्य लोगों के साथ मिलकर ख़लीफ़ा के आदेश का उल्लंघन करते हुए उनकी सहायता की।[७९]

अहले सुन्नत स्रोतों में वर्णित किया गया है कि इमाम हसन (अ) और इमाम हुसैन (अ) ने अफ़्रीकिया युद्ध 26 हिजरी[८०] और तबरिस्तान युद्ध 29 हिजरी या 30 हिजरी[८१] में योगदान दिया है। परन्तु ऐसे किसी भी युद्ध में हसनैन (अ) के सहयोग को शिया स्रोतों में वर्णित नहीं किया गया है। बहुत से ऐतिहासिक स्रोतों ने वर्णित किया है कि इस तरह का युद्ध नही हुआ बल्कि युद्ध के बदले समझौता हो गया था।[८२]

हसनैन के इन युद्धों में सहयोग देने के बारे में जो समाचार वर्णन किये गए है उस समाचार के सर्मथक और विरोधी पाए जाते हैं: जैसे जाफ़र मुर्तज़ा आमोली ने इस हदीस के वर्णन के मार्ग (सनद) पर और हदीस के सारांश पर विरोध किया है और युद्ध के तरीक़ो से इमामो के मुख़ालिफ़ होने को, और सिफ़्फ़ीन के युद्ध में हसनैन को आज्ञा न देने को, दलील बनाते हुए, इस समाचार को गढ़ा हुआ समाचार घोषित करते हैं।[८३]

इमाम सादिक़ (अ):

जो पानी पीकर हुसैन और उनके परिवार को याद करे और उनके क़ातिलों पर लानत करे तो खुदा उसके लिए एक लाख नेकियां लिखता है और उसके लाख गुनाहों को मिटा देता है और उसका मक़ाम को एक लाख गुना ऊंचा कर देता है और क़यामत के दिन वह मुतमइन दिल के साथ महशूर होगा।

कुलैनी, अल काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 6, पृष्ठ 391, इब्ने क़ुलवैह, कामिल अल ज़ेयारात, 1356 शम्सी, पृष्ठ 106

कुछ ऐतिहासिक समाचारों के अनुसार, उस्मान के शासक के अंतिम समय कुछ लोगों ने उस्मान के विरोध में आंदोलन किया और उस्मान की हत्या करने के लिए उस्मान के घर की ओर बढ़े हाँलाकि इमाम हसन (अ) और इमाम हुसैन (अ) उस्मान के काम से ख़ुश नहीं थे, लेकिन इमाम अली (अ) के आदेश पर उस्मान के घर की रक्षा की।[८४] इस समाचार का समर्थक और विरोधी दोनो ने वर्णन किया है।[८५] सय्यद जाफ़र मुर्तज़ा कहते हैं कि ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर जैसा कि इमाम अली (अ) का उस्मान के कार्यों का विरोधी होना, और इस रिवायत के विरोध में कई रिवायत का पाया जाना, को दलील बनाते हुए हसनैन का उस्मान के घर की रक्षा करने को रद्द करते हैं।[८६]सय्यद मुर्तज़ा, इमाम अली के आदेश अनुसार हसनैन का उस्मान के घर की रक्षा करने हेतू, भेजे जाने का, विरोध करते हुए कहते हैं कि उस्मान के घर जाने का कारण, उस्मान के परिवार तक भोजन पहुचाना था। उस्मान के शासक (ख़िलाफ़त) की रक्षा नहीं थी क्योंकि उस्मान अपने कार्यों के कारण शासक का योग्य नहीं था बल्कि उस्मान से शासक (ख़िलाफ़त) छिनना अनिवार्य था।[८७]

यह भी देखें: उस्मान का हत्याकांड

इमाम अली (अ) के शासन काल में

कुछ समाचार के अनुसार, लोगों का इमाम अली (अ) की बैअत करने के पश्चात इमाम हुसैन (अ) ने उपदेश दिया।[८८] जमल के युद्ध में इमाम अली (अ) के बाऐं ओर की सेना के कमांडर थे।[८९] सिफ़्फ़ीन के युद्ध में लोगों को युद्ध के प्रति प्रेरिण करने के लिए उपदेश दिया।[९०] कुछ स्रोतों के अनुसार इमाम अली (अ) के दाऐं ओर के सेना के कमांडर थे।[९१] वर्णन किया गया है कि सिफ़्फ़ीन के युद्ध में शामीयों की सेना से पानी छिनने के कार्य में भी भागीदार थे। जिसके पश्चात इमाम अली (अ) ने कहा था कि यह पहली विजय थी जो इमाम हुसैन (अ) की बरकत के कारण मिली।[९२] सिफ़्फ़ीन के युद्ध से सम्बंधित समाचार के अनुसार, इमाम अली (अ) हसनैन को युद्ध पर नहीं भेजना चाहते थे और इसका कारण पैगंबर (स) के वंश की रक्षा थी।[९३] कुछ स्रोतों में वर्णन के अनुसार, इमाम हुसैन (अ) नहरवान के युद्ध में भी भागीदार थे।[९४]

बहुत से स्रोतों में वर्णन किया गया है कि इमाम हुसैन (अ) इमाम अली (अ) की शहादत के समय उनके पास थे।[९५] और इमाम अली (अ) के कफ़न और दफ़्न के कार्यक्रम में भी उपस्थित थे।[९६] परन्तु किताब अल काफ़ी और अन्साबुल अशराफ़ में वर्णित हदीसों के अनुसार इमाम हुसैन (अ) अपने पिता के ज़ख़्मी होने के समय उपस्थित नहीं थे बल्कि आप आपने पिता (इमाम अली (अ)) के आदेश पर किसी कार्य के कारण मदाएन गऐ हुए थे और पत्र के माध्यम से इस घटना से आगाह हुए और कूफ़ा वापस पलट आऐ।[९७]

इमाम हसन (अ) के शासन काल में

ऐतिहासिक स्रोतों में इमाम हुसैन (अ) का अपने भाई के प्रति विनम्रता और सम्मान से सम्बंधित समाचार को वर्णित किया गया है। नक़्ल हुआ है कि अगर किसी सभा में इमाम हसन (अ) उपस्थित होते थे तो वह अपने भाई के सम्मान में कुछ नहीं बोलते थे।[९८] इमाम अली (अ) की शहादत के बाद ख़्वारिज में से कुछ, शामीयों से युद्ध का आग्रह कर रहे थे। उन्होंने इमाम हसन (अ) की बैअत नहीं की बल्कि इमाम हुसैन (अ) के पास आऐ ताकि इमाम हुसैन (अ) की बैअत करें, परन्तु इमाम हुसैन (अ) ने कहा: (मैं ख़ुदा की शरण लेता हूँ जब तक हसन जीवित हैं आप सबकी बैअत स्वीकार नहीं करूंगा।)[९९]

इमाम हसन (अ) और मुआविया की सुलह की घटना में, विरोधी शियों के विपरीत अपने भाई से सहमत थे।[१००] और नक़्ल हुआ है कि आपने कहा कि: इमाम हसन (अ) मेरे भी इमाम हैं।[१०१] कुछ समाचारों के अनुसार इमाम हसन (अ) और मुआविया के सुलह होने के पश्चात, इमाम हसन (अ) के तरह इमाम हुसैन (अ) ने भी मुआविया की बैअत की[१०२] यहाँ तक कि इमाम हसन (अ) की शहादत के पश्चात भी आप अपने वचन पर बाक़ी रहे।[१०३] इसके विपरीत कुछ ऐसे समाचार भी हैं जिनमें वर्णन हुआ है कि इमाम हुसैन (अ) ने बैअत नहीं की थी।[१०४] क़ुछ स्रोतों में वर्णित समाचार के अनुसार इमाम हुसैन (अ) इस सुलह से असंतुष्ट थे और इमाम हसन (अ) को सौगंध भी दी थी कि मुआविया के झूठ को न मानें।[१०५] कुछ मोहक़्क़ेक़ीन ने इस समाचार को अन्य हदीसों के असंगत माना है[१०६] जैसे: वो शिया लोग जो सुलह के विरोधी थे जमा हुए और इमाम हुसैन (अ) से मुआविया पर हमला करने को कहा तो इमाम हुसैन (अ) ने उन्हें उत्तर दिया कि " हम ने वचन दिया है और हम अपना वचन नहीं तोड़ेंगे।[१०७] अन्य रिवायत में वर्णित है कि इमाम ने कहा: जब तक मुआविया जीवित है धैर्य रखो जब उसकी मृत्यु हो जाएगी तो विचार करेंगे।[१०८] यहाँ तक कि शियों ने इमाम हसन (अ) की शहादत के बाद भी इमाम हुसैन (अ) को आंदोलन करने को कहा लेकिन इमाम हुसैन (अ) ने मुआविया के जीवित रहने तक हर आंदोलन से मना कर दिया।[१०९] इमाम हुसैन (अ) सन् 41 हिजरी में (मुआविया और इमाम हसन (अ) की सुलह के बाद) अपने भाई के साथ कूफ़ा से मदीना पलट आऐ।[११०]

पत्नियां और बच्चे

इमाम हुसैन (अ) के बच्चों की संख़्या के मारे में भिन्न मत पाए जाते हैं: कुछ स्रोतों में इनकी संख्या चार बेटे और 2 बेटीयाँ,[१११] कुछ अन्य ने छह बेटे और तीन बेटीयाँ लिखी हैं।[११२]

पत्नी वंश बच्चे विवरण
शहर बानो सासानी बादशाह यज़दगुर्द की बेटी इमाम सज्जाद (अ) शियों के चौथे इमाम समकालीन शोधकर्ताओं को शहर बानो की वंशावली पर संदेह है।[११३] कुछ स्रोतों में, उन्हें सिंदिया, ग़ज़ाला और शाह ज़नान के रूप में जाना जाता है।
रबाब अम्र अल क़ैस बिन अदि की बेटी सुकैनाअब्दुल्लाह[११४] रूबाब कर्बला में उपस्थित थी और क़ैदीयों के साथ शाम गई.[११५] अधिकांश स्रोतों में वर्णित है कि अब्दुल्लाह शहादत के समय शिशु थे[११६] और समकालीन शिया उन्हें अली असग़र के नाम से जानते हैं।
लैला अबी मुर्रा बिन उर्वा बिन मसऊद सक़फ़ी की बेटी[११७] अली अकबर (अ)[११८] अली अकबर कर्बला की घटना में शहीद हुए[११९]
उम्मे इस्हाक़ उम्मे इस्हाक़ फ़ातिमा इमाम हुसैन (अ) की बड़ी बेटी [१२०] उम्मे इस्हाक़ इमाम हसन मुज्तबा की पत्नी थी और इमाम हसन (अ) की शहादत के बाद इमाम हुसैन से विवाह किया[१२१]
सुलाफ़ा या मलूमा[१२२] क़ुज़ाआ क़बीले से जाफ़र[१२३] इमाम के जीवनकाल में जाफ़र की मृत्यु हो गई और कोई वंशज नहीं रहा[१२४]

लोबाबुल अंसाब[१२५] किताब में छठी शताब्दी के स्रोतों से वर्णन किया गया है कि रुक़य्या नाम की बेटी, और किताब कामिल बहाई सातवीं शताब्दी के स्रोतों से वर्णन किया गया है कि इमाम हुसैन (अ) की चार साल की बेटी थी जिसकी मृत्यु शाम में हुई।[१२६] इसी तरह कुछ अन्य स्रोतों में, अली असग़र, शहर बानों के बेटे, मुहम्मद, रुबाब के बेटे, और ज़ैनब को भी इमाम हुसैन (अ) के बच्चों में स्वीकारा गया है।[१२७] इब्ने तलहा शाफ़ेई ने अपनी किताब मतालिब अस सऊल फ़ी मनाक़िबे आले रसूल में इमाम हुसैन (अ) के बच्चों की संख्या दस बताई है।[१२८]

इमामत का दाैर

हुसैन बिन अली (अ) की इमामत की शुरुआत मुआविया के शासन के दस वर्ष सामान्य थी। मुआविया ने इमाम हसन (अ) से सुलह करने के बाद 41 हिजरी[१२९] में शासन संभाला और उमवी खिलाफ़त की स्थापना की। सुन्नी सूत्रों ने उसे एक चतुर और सहिष्णु व्यक्ति कहा है।[१३०] वह ज़ाहिरन तो दीन का दिखावा करता था और यहां तक ​​​​कि अपने खिलाफ़त को स्थापित करने के लिए कुछ धार्मिक सिद्धांतों का इस्तेमाल किया, और इस तथ्य के बावजूद कि उसने बल और राजनीतिक चालों का उपयोग करके सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया[१३१] अपनी ख़िलाफ़त को, ईश्वर की ओर से दी हुई खिलाफ़त और ईश्वर का निर्णय मातना था।[१३२] मुआविया ने खुद को सीरिया के लोगों के सामने, पैगंबर के अनुयायी, ईश्वर के नेक बंदों, और धर्म और उसके नियमों के रक्षकों में से एक के रूप में पेश किया।[१३३] ऐतिहासिक स्रोतों में यह कहा गया है कि मुआविया ने खिलाफ़त को एक राजशाही में बदल दिया[१३४] और उसने खुले तौर पर कहा कि उसे लोगों की धार्मिकता से कोई लेना-देना नहीं है।[१३५]

मुआविया के शासन के दौरान अनेक मुद्दों में से एक, कुछ लोगों के बीच शिया विश्वासों (एतेक़ादात) का अस्तित्व था, खासकर इराक़ में। शिया मुआविया के दुश्मन थे, ठीक वैसे ही जैसे ख़्वारिज भी उसके दुश्मन थे, लेकिन खारिजियों के पास शियों के जैसे ज़्यादा लोकप्रिय आधार नहीं थे, शियों को इमाम अली (अ) और अहले बैत के प्रभाव के कारण मज़बूत समर्थन प्राप्त था। इसलिए, मुआविया और उसके एजेंटों ने शिया आंदोलन से या तो एक समझौता पद्धति या गंभीर सख्ती के साथ निपटा। मुआविया के सबसे महत्वपूर्ण तरीकों में से एक लोगों के बीच इमाम अली (अ) के लिए नफ़रत पैदा करना था, इस हद तक कि मुआविया के दौर में इमाम अली (अ) को कोसना और बुरा भला कहा जाता था और यह पारंपरिक तरीके से उमय्या के दौर में जारी रहा।[१३६]

अपनी सत्ता की नींव मज़बूत करने के बाद, मुआविया ने शियों पर दमन और दबाव की नीति शुरू की और अपने एजेंटों को अली (अ) के प्रेमियों के नाम दीवान से हटाने और बैतुल माल से उनकी आय काटने को कहा और उनकी हर बात और को स्वीकार करने से मना किया।[१३७] इसी तरह लोगों को भी धमकाया और डराया जो इमाम अली (अ) के गुणों (फ़जाएल) का ब्यान करते थे, इस हद तक कि कथाकारों (मुहद्देसीन) ने इमाम अली (अ) को "कुरैश का एक आदमी" और "पैगंबर के साथियों में से एक" और "अबू ज़ैनब" के रूप में संदर्भित किया।[१३८]

इमामत की दलीलें

मुख्य लेख: अल हसन वल हुसैन इमामान क़ामा अव क़अदा

50 हिजरी में अपने भाई की शहादत के बाद, इमाम हुसैन (अ) इमाम बने और 61 हिजरी की शुरुआत तक शियों के इमाम थे।[१३९] शिया विद्वानों ने इमामों की इमामत को साबित करने के लिए सामान्य दलीलें प्रस्तुत की है,[१४०] इसके अलावा शिया विद्वानों ने विशेष दलीलों से प्रत्येक इमाम के इमामत के लिए भी तर्क दिया है। शेख़ मुफ़ीद ने अपनी किताब अल इरशाद में हुसैन बिन अली (अ) के इमामत की कुछ हदीसों का उल्लेख किया है।[१४१] जैसे पैगंबर (स) ने फ़रमाया: (اِبنای هذانِ امامان قاما او قَعَدا) इब्नाइ हाज़ाने इमामाने क़ामा अव क़ादा ( अनुवाद: मेरे दोनों बच्चे (हसन व हुसैन) इमाम हैं चाहे खडे हो या बैठे हों)। इसी तरह इमाम अली (अ) ने अपनी शहादत के समय इमाम हसन (अ) की इमामत के बाद इमाम हुसैन (अ) की इमामत की ताकीद की,[१४२] और इसी तरह इमाम हसन (अ) ने अपने शहादत के समय, मुहम्मद बिन हनफ़िया को, अपने बाद इमाम हुसैन (अ) के इमाम हुने की ख़बर दी।[१४३] शेख़ मुफ़ीद ने इन हदीसों के माध्यम से इमाम हुसैन (अ) की इमामत को साबित और निश्चित (कतई) माना है। उनके अनुसार, इमाम हुसैन (अ) का बा तक़वा होना और इमाम हसन (अ)की सुलह मेंं किये वादे के कारण, मुआविया की मृत्यु तक लोगों को अपने पास आमंत्रित नहीं किया, लेकिन मुआविया की मृत्यु के बाद, उन्होंने अपना मक़ाम और अपनी जाएगाह उन लोगों के लिए जो आगाह नहीं थे, उन्होंने स्पष्ट की।[१४४]

सूत्रों में कहा गया है कि 60 हिजरी में मदीना छोड़ने से पहले, इमाम हुसैन (अ) ने अपनी कुछ वसीयत और इमामत की जमा राशि का कुछ हिस्सा पैग़ंबर (स) की पत्नी उम्मे सलमा के पास छोड़ दी थी[१४५] और कुछ हिस्सा अपनी शहादत से पहले मुहर्रम के महीने में सन् 61 हिजरी में अपनी सबसे बड़ी बेटी फ़ातिमा[१४६] को दिया ताकि वह उन्हें इमाम सज्जाद (अ) के हवाले कर दें।

इमाम हसन (अ) की सुलह का पालन

मुआविया के शासनकाल के दौरान, इमाम हुसैन (अ) उस सुलह के प्रति वफ़ादार रहे[१४७] जो उनके भाई ने मुआविया के साथ की थी। और कुछ शियों के पत्र के जवाब में, जिन्होंने उनके नेतृत्व को स्वीकार करते हुए उमय्या के खिलाफ़ उठने की घोषणा की, इमाम ने उनके उत्तर में लिखा: मेरा राय ऐसी नहीं है। जब तक मुआविया ज़िंदा है ऐसा कोई क़दम न उठाऐं और अपने घरों में छिपे रहें और ऐसे काम करने से बचे जिससे शक हो। यदि वह मर जाता है और मैं जीवित रहता हूं, तो मैं अपनी राय तुम्हें लिखूंगा।[१४८]

मुआविया की कार्यों के खिलाफ मोर्चा संभालना

यज़ीद के प्रति बैअत करने के मुआविया के आह्वान पर इमाम हुसैन की प्रतिक्रिया:

"यज़ीद ने अपनी सोच और विचारधारा को स्पष्ट कर दिया है। तुम भी उसके लिए वही चाहो जो वह स्वयं चाहता है: कुत्तों को लड़ाना, कबूतरों को उड़ाना, गायिका दासियों के साथ मनोरंजन में लिप्त रहना और अन्य प्रकार की अय्याशियाँ... [हे मुआविया!] इस काम से रुक जाओ! तुम्हें क्या लाभ होगा कि तुम अल्लाह से उस गुनाह के बोझ के साथ मिलो, जो तुम पहले ही इन लोगों (की गलतियों) के बोझ से दबे हुए हो?"

इब्ने क़ुतैबा, अल-इमामा वल सियासा, 1410 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 209।

हालांकि इमाम हुसैन (अ) ने मुआविया के शासनकाल में उसके खिलाफ़ कुछ नहीं किया, लेकिन एक इतिहासकार रसूल जाफ़रियान के अनुसार, इमाम (अ) और मुआविया के बीच के सम्बंध और उनके बीच हुई बातचीत से पता चलता है कि इमाम हुसैन (अ) राजनीतिक रूप से, उन्होंने मुआविया की निश्चित वैधता (मशरुईयत कतई) को स्वीकार नहीं किया और इसे प्रस्तुत (तस्लीम) नहीं किया।[१४९] हुसैन बिन अली (अ) और मुआविया के बीच जिन अनगिनत पत्रों का आदान-प्रदान हुआ, उनमें से एक हैं। बहर हाल, ऐतिहासिक समाचारों से यह प्रतीत होता है कि मुआविया भी तीन ख़लीफ़ाओं की तरह, बाहरी तौर पर हुसैन बिन अली (अ) का सम्मान करता था और उन्हें महान मानता था।[१५०] और उसने अपने एजेंटों को आदेश दिया था कि रसूलुल्लाह (स) के बेटे की रुकावट न बनें और उनका अपमान करने से बचें।[१५१] मुआविया ने अपने बेटे यज़ीद को वसीयत के दौरान हुसैन (अ) के मक़ाम व मंजिलत पर भी ज़ोर दिया और उन्हें लोगों के बीच सबसे लोकप्रिय व्यक्ति माना[१५२] और उसने हुसैन (अ) के हारने पर उन्हें बख्शने का आदेश दिया, क्योंकि उसका बड़ा अधिकार (हक़) है।[१५३]

  • इमाम अली (अ) के साथियों के मारे जाने का विरोध

मुआविया का हुज्र बिन अदि, अम्र बिन हमेक़ खाेज़ाई और अब्दुल्लाह बिन यहया हज़रमी जैसे लोगों को क़त्ल करवाना उन मामलों में से है जिसके कारण इमाम हुसैन (अ) का कड़ा विरोध हुआ।[१५४] और कई स्रोतों की रिपोर्टों के अनुसार, इमाम (अ) ने मुआविया को एक पत्र लिखा और इमाम अली (अ) के साथियों की हत्या की निंदा की, और मुआविया के कुछ अनुचित कार्यों को सूचीबद्ध करते हुए, उन्होंने उनकी आलोचना की और कहा: "मैं अपने लिए और अपने धर्म के लिए तुम्हारे साथ युद्ध (जिहाद) से बेहतर कुछ नहीं जानता" और इसी पत्र में लिखते हैं:"मैं इस उम्मत पर सब से बड़ा फ़ितना तेरा शासन (हुकूमत) है"[१५५]

यह भी वर्णित है कि जब हज यात्रा के दौरान मुआविया,[१५६] इमाम हुसैन (अ) से मिला, तो उनसे इमाम (अ) कहा: क्या तुमने सुना है कि हमने हुज्र और उसके साथियों और तुम्हारे पिता के शियों के साथ क्या किया? इमाम (अ) ने कहा: क्या किया? मुआविया ने कहा: हमने उन्हें मार डाला, उन्हें ढक दिया, उन पर नमाज़ पढ़ी और उन्हें दफ़्न कर दिया, हुसैन बिन अली (अ) ने कहा: लेकिन अगर हम तुम्हारे साथियों को क़त्ल कर दें, तो हम उन्हें कफ़न नहीं देगें, हम उन पर नमाज़ नहीं पढ़ेगें, और हम उन्हें दफ़्न भी नहीं करेंगे।[१५७]

  • यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी बनाने पर आपत्ति

56 हिजरी में, सुलह समझौते के प्रावधानों के खिलाफ़ (किसी को युवराज और उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त नहीं करने के बारे में), मुआविया ने लोगों को अपने उत्तराधिकारी के रूप में यज़ीद के प्रति निष्ठा (बैअत) की शपथ लेने के लिए बुलाया।[१५८] लेकिन इमाम हुसैन (अ) सहित कुछ हस्तियों ने निष्ठा (बैअत) की शपथ लेने से इनकार कर दिया।[१५९] मुआविया मदीना गया ताकि इस शहर के बुज़ुर्गों को यज़ीद की हुकूमत और उत्तराधिकारी का हामी और तरफ़दार बना सके।[१६०] इमाम हुसैन (अ) ने उस सभा में मुआविया की निंदा की जिसमें मुआविया, इब्ने अब्बास और कुछ दरबारी और उमय्या परिवार मौजूद थे, और यज़ीद के स्वभाव का हवाला देते हुए, उन्होंने मुआविया को अपने उत्तराधिकारी की कोशिश करने से चेतावनी दी और अपनी मक़ाम और अधिकार (हक़) पर ज़ोर देते हुए, उन्होंने मुआविया के यज़ीद की बैअत और दोस्ती के तर्कों का खंडन किया।[१६१]

इसके अलावा, एक अन्य सभा में जहां आम जनता मौजूद थी, इमाम हुसैन (अ) ने यज़ीद की योग्यता के बारे में मुआविया के शब्दों के जवाब में खुद को व्यक्तिगत और पारिवारिक लेहाज़ से ख़ुद को खिलाफ़त के अधिक योग्य माना और यज़ीद को एक शराबी और हवा व हवस के पुजारी व्यक्ति के रूप में पेश किया।[१६२]

  • मेना में इमाम हुसैन का उपदेश
मूल लेख: मेना में इमाम हुसैन (अ) का उपेदश
इमाम हुसैन (अ) का मेना में दिए गए ख़ुत्बे का अंश:

"यदि तुम अत्याचारों पर सब्र करते और अल्लाह के रास्ते में माल व जान की क़ुर्बानी देते, तो अल्लाह के काम तुम्हारे हाथ में होते... लेकिन तुमने ज़ालिमों को अपने मुक़ाम पर बिठा दिया और अल्लाह के अम्र (काम) को उनके हवाले कर दिया... मौत का डर और दुनिया की मोहब्बत ने ही ज़ालिमों को इस काम पर क़ाबिल बना दिया।"

तोहफ़ुल-उक़ूल, पृष्ठ 168।

मुआविया की मृत्यु से दो साल पहले सन् 58 हिजरी में, इमाम हुसैन (अ) ने मेना में एक विरोध उपदेश दिया।[१६३] इस समय, शियों पर मुआविया का दबाव अपने चरम पर पहुंच गया था।[१६४] इमाम हुसैन (अ) ने ٖइस उपदेश में अमीरुल मोमेनिन (अ) और अहले बैत (अ) की महानता (फ़ज़ीलतों) की गणना करते हुए और अम्र बिल मारूफ़ व नहीं अज़ मुन्कर और इस इस्लामी कर्तव्य के महत्व पर ज़ोर देते हुए, विद्वानों के कर्तव्य और अत्याचारियों के खिलाफ़ खड़े होने की ज़रूरत और विद्वानों की चुप्पी अत्याचारियों के खिलाफ़, के बारे में बयान किया।

यज़ीद के ख़िलाफ़त की प्रतिक्रिया

15 रजब 60 हिजरी को मुआविया की मृत्यु के बाद, यज़ीद सत्ता में आया[१६५] और कुछ रईसों से जिन्होंने उसकी बैअत नहीं की थी जिनमें इमाम हुसैन (अ) भी थे, इससे ज़ोर व ज़बरदस्ती से बैअत लेने को कहा।[१६६] लेकिन हुसैन (अ) ने निष्ठा की प्रतिज्ञा करने से इनकार कर दिया।[१६७] और अपने परिवार और साथियों के साथ 28 रजब को मदीना से मक्का के लिए रवाना हुए।[१६८]

मक्का में, मक्का और उमरा तीर्थयात्रियों द्वारा उनका स्वागत किया गया था।[१६९] और वह इस शहर में चार महीने से अधिक समय तक रहे[१७०] (शाबान की तीसरी तारीख से लेकर ज़िल-हिज्जा की 8वीं तारीख तक)।इस समय के दौरान, कूफ़ा के शिया, जिन्हें अपने तीसरे इमाम (अ) के बैअत न करने के बारे में ख़बर मिल चुकी थी, इमाम (अ) को पत्र लिखा और उन्हें कूफ़ा आने के लिए आमंत्रित किया।[१७१] कूफ़ा के लोगों की सहानुभूति और उनके आह्वान की गंभीरता सुनिश्चित करने के लिए, हुसैन बिन अली (अ) ने मुस्लिम बिन अक़ील को वहाँँ के हालात से बा ख़बर करने के लिए कूफ़ा भेजा। लोगों के स्वागत और निष्ठा को देखने के बाद, मुस्लिम ने इमाम हुसैन (अ) को कूफ़ा बुलाया,[१७२] इमाम हुसैन (अ) अपने परिवार और साथियों के साथ, ज़िल हिज्जा की 8 तारीख को मक्का से कूफ़ा के लिए रवाना हुए।[१७३]

कुछ समाचार के अनुसार, इमाम हुसैन (अ) को मक्का में उन्हें मारने की साज़िश के अस्तित्व के बारे में पता चला तो इमाम (अ) मक्का की पवित्रता को बनाए रखने के लिए इस शहर को छोड़कर इराक़ चले गए।[१७४]

कर्बला की घटना

मूल लेख़: कर्बला की घटना
इमाम हुसैन (अ) ने फ़रमाया:

व अलल इस्लामे अस सलाम इज़ क़द बोलेअतिल उम्मतो बेराइन मिस्ला यज़ीद( अनुवाद: अगर उम्मत पर यज़ीद जैसा शासक हुकूमत करने लगे, तो इस्लाम का फ़ातिहा पढ़ा जा चुका है।)

इब्ने आसम कूफ़ी, अल फ़ोतूह, खंड 5, पृष्ठ 17

कर्बला की घटना, जिसके कारण हुसैन बिन अली (अ) और उनके साथियों की शहादत हुई, उनकी जीवनी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। कुछ समाचार के अनुसार, इमाम हुसैन (अ) को इराक़ जाने से पहले उनकी शहादत के बारे में पता था। यह घटना तब हुई जब उन्होंने यज़ीद के प्रति निष्ठा (बैअत) से इनकार कर दिया। हुसैन (अ) अपने परिवार और दोस्तों के साथ कूफ़ियों के निमंत्रण पर इस शहर में आए थे। ज़ू हस्म नामक क्षेत्र में, इमाम हुसैन (अ) का हुर बिन यज़ीद रेयाही की सेना से सामना हुआ और उन्हेंं अपनी दिशा बदलनी पड़ी।[१७५]

अधिकांश स्रोतों के अनुसार, इमाम हुसैन (अ) दूसरी मुहर्रम को कर्बला पहुंचे,[१७६] और अगले दिन, उमर बिन साद की कमान के तहत कूफ़ा के लोगों में से 4,000 लोगों की एक सेना ने कर्बला में प्रवेश किया।[१७७] ऐतिहासिक रिपोर्टों के अनुसार, हुसैन बिन अली (अ) और उमरे साद के बीच कई बार बातचीत हुई थी।[१७८] लेकिन इब्ने ज़ियाद, या तो इमाम हुसैन (अ) यज़ीद की बैअत चाहता था या युद्ध।[१७९]

इमाम हुसैन (अ) ने अपने क़याम के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए फ़रमाया::

«اَللّهُمَّ إِنَّکَ تَعْلَمُ إِنَّهُ لَمْ یَکُنْ مَا کَانَ مِنَّا تَنافُساً فِی سُلْطان، وَ لا التماساً مِنْ فُضُولِ الْحُطامِ، وَ لکِنْ لِنَرَىَ الْمَعالِمَ مِنْ دِینِکَ، وَ نُظْهِرَ الاِصْلاحَ فِی بِلادِکَ، وَ یَأْمَنَ الْمَظْلُومُونَ مِنْ عِبادِکَ، وَ یُعْمَلُ بِفَرَائِضِکَ وَ سُنَّتِکَ وَ أَحْکامِکَ» "अल्लाहुम्मा इन्नका तअलमो इन्नहु लम यकुन मा काना मिन्ना तनाफ़ोसन फ़ी सुल्तान, वला इल्तेमासन मिन फ़ुज़ूले अल होतामे, वलाकिन लेनरया अल मआलिमा मिन दीनेका, व नुज़हेरा अल इस्लाहा फ़ी बेलादेका, व यअमनल मज़लूमूना मिन इबादेका, व योअमलो बे फ़राएज़ेका व सुन्नतेका व अहकामेका"

अनुवाद: "ऐ अल्लाह! निस्संदेह तू जानता है कि हमारी यह कोशिश न तो सत्ता प्राप्ति की होड़ है और न ही धन-दौलत जुटाने की चाहत। बल्कि हमारा उद्देश्य तेरे दीन के निशानों (सिद्धांतों) को जीवित करना, तेरे देशों में सुधार लाना, तेरे मज़लूम बंदों को सुरक्षा प्रदान करना और तेरे फराइज़ (अनिवार्य आदेशों), सुन्नत (परंपराओं) व अहकाम (नियमों) को लागू करवाना है।"

हर्रानी, तोहफ़ुल-उक़ूल, पृष्ठ 239।

तासूआ (9 मुहर्रम) की शाम को उमर साद की सेना युद्ध के लिए तैयार थी लेकिन इमाम हुसैन (अ) ने उस रात ईश्वर से प्रार्थना (इबादत) करने के लिए विश्राम लिया।[१८०] आशूरा की रात को, इमाम (अ) ने अपने साथियों से बात की और उनसे बैअत (निष्ठा) उठा ली और उन्हें जाने को कहा। लेकिन उन्होंने इमाम (अ) की वफ़ादारी और समर्थन पर ज़ोर दिया।[१८१]

आशूरा की सुबह युद्ध शुरू हुआ और दोपहर तक हुसैन (अ) के कई साथी शहीद हो गए।[१८२] युद्ध के दौरान, कूफ़ा सेना के कमांडरों में से एक, हुर बिन यज़ीद, इमाम हुसैन (अ) के सेना में शामिल हो गए।[१८३] साथियों के मारे जाने के बाद इमाम (अ) के रिश्तेदार मैदान में गए, उनमें सबसे पहले अली अकबर थे[१८४] और वह भी एक के बाद एक शहीद होते गए। फिर हुसैन बिन अली (अ) ख़ुद मैदान में गए और 10 मुहर्रम की शाम को शहीद हो गए, और शिम्र बिन ज़िल जौशन[१८५] और एक नक़्ल के अनुसार सेनान बिन अनस[१८६] ने इमाम(अ) के सर को क़लम किया। हुसैन बिन अली (अ) के सर को उसी दिन इब्ने ज़ियाद के पास भेजा गया था।[१८७]

उमरे साद ने इब्ने ज़ियाद के आदेश के निष्पादन में, कुछ घोड़ों को हुसैन (अ) के शरीर पर दौड़ाने और उनकी हड्डियों को कुचलने का आदेश दिया।[१८८] महिलाओं, बच्चों और इमाम सज्जाद (अ) जो उन दिनों बीमार थे, को बंदी बना लिया गया और कूफ़ा और फिर शाम भेज दिया गया।[१८९] इमाम हुसैन (अ) और उनके 72 साथियों[१९०] के शरीर को 11 वीं[१९१] या 13 वीं मुहर्रम को बनी असद के एक समूह द्वारा और एक नक़्ल के अनुसार इमाम सज्जाद (अ) की उपस्थिति में शहादत के एक ही स्थान पर दफ़नाया गया था।[१९२]

इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन का लक्ष्य

मूल लेख: इमाम हुसैन (अ) का क़याम

इमाम हुसैन के यज़ीद के खिलाफ विद्रोह के उद्देश्य के बारे में विभिन्न दृष्टिकोण सामने आए हैं। कुछ आशूरा शोधकर्ताओं के अनुसार, इमाम हुसैन (अ) का कर्बला के विद्रोह का मुख्य उद्देश्य सत्य की स्थापना, अच्छाई का आदेश देना, बुराई से रोकना, सुन्नत को पुनर्जीवित करना और बिदअत (नवाचार) को समाप्त करना था।[१९३] आयतुल्लाह खामेनेई का मानना है कि इमाम हुसैन (अ) का उद्देश्य इस्लामी समाज को सही रास्ते पर लौटाना और बड़े पैमाने पर विचलन से लड़ना था, और उनका मानना है कि इस उद्देश्य का परिणाम सरकार बनाना या शहादत था, जबकि कुछ लोग इन दोनों को इमाम हुसैन का उद्देश्य मानते हैं।[१९४] इमाम हुसैन ने अपने भाई मुहम्मद इब्ने हनफ़िया को अपनी वसीयत में स्पष्ट रूप से अपने विद्रोह का कारण अच्छाई का आदेश देना, बुराई से रोकना और पैगंबर मुहम्मद (स) और इमाम अली (अ) के तरीके को पुनर्जीवित करना बताया है।[१९५] हालांकि, मुहम्मद इस्फंदियारी के अनुसार, सबसे प्रसिद्ध सिद्धांत के अनुसार, हुसैन इब्ने अली (अ) का विद्रोह का उद्देश्य शहादत था। लुत्फुल्लाह साफी, मुर्तज़ा मुतह्हरी, सय्यद मोहसिन अमीन जैसे लोग इस दृष्टिकोण के समर्थक हैं।[१९६] एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार, इमाम हुसैन ने सरकार बनाने के लिए विद्रोह किया था।[१९७] सहती सरदरूदी के अनुसार, शेख मुफीद, शेख तूसी, सय्यद इब्ने ताऊस और अल्लामा मजलिसी जैसे लोग इस दृष्टिकोण के विरोधी हैं।[१९८] कुछ लोग, जैसे शेख अली पनाह इश्तिहारदी, ने तीसरे शिया इमाम के आंदोलन को विद्रोह और लड़ाई के इरादे से नहीं, बल्कि केवल अपनी जान बचाने के लिए माना है।[१९९]

इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन के परिणाम

इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन के परिणामस्वरूप कई समूहों में जागृति आई और उनकी शहादत के तुरंत बाद ही क्रांतिकारी और विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए, जो कई सालों तक जारी रहे। पहला विरोध अब्दुल्लाह बिन अफ़ीफ़[२००] का इब्ने ज़ियाद के साथ टकराव था। तव्वाबीन का क़याम,[२०१] मुख़्तार का क़याम,[२०२] ज़ैद बिन अली का क़याम[२०३] और यहया बिन ज़ैद का क़याम[२०४] भी इसी श्रेणी में आते हैं। इसी तरह, अबू मुस्लिम ख़ुरासानी के नेतृत्व में उमवियों के ख़िलाफ़ काले कुर्ते (कपड़े) वालों के क़याम में भी "या लसारातिल हुसैन" (है हुसैन के बदले की पुकार) का नारा इस्तेमाल किया गया,[२०५] जिसके परिणामस्वरूप उमवियों का पतन हुआ।[स्रोत अपेक्षित] ईरान की इस्लामी क्रांति भी इमाम हुसैन (अ) के क़याम से प्रेरित थी और इमाम ख़ुमैनी के अनुसार, "अगर ये मजलिस-ए वअज़ (उपदेश सभाएँ), ख़ुत्बा (भाषण), अज़ादारी (शोक सभाएँ) और सोगवारी के इज्तिमा (सभाएँ) न होतीं, तो हमारा देश कामयाब नहीं होता। सभी ने इमाम हुसैन (अ) के झंडे तले क़याम किया।"[२०६] सामान्य संस्कृति के क्षेत्र में भी मुसलमान और यहाँ तक कि अन्य धर्मों के अनुयायी, हुसैन बिन अली (अ) को बलिदान, अत्याचार के प्रति सहनशीलता, स्वतंत्रता की चाह, मूल्यों की रक्षा और सत्य की खोज का प्रतीक और आदर्श मानते हैं।[२०७]

महानता व विशेषताऐं

मुख्य लेख: अहले बैत (अ), असहाबे किसा, मुबाहेला और आय ए ततहीर
  • ज़ाहिरी औसाफ़

अधिकांश हदीसी, ऐतिहासिक और रेजाली स्रोतों में, पैग़म्बर (स) और इमाम हुसैन (अ) की समानता का उल्लेख किया गया है[२०८] और एक नक़्ल के अनुसार उन्हें पैग़ंबर (स) से सबसे अधिक समान व्यक्ति माना जाता है।[२०९] और इमाम हुसैन (अ) के बारे में कहा गया है कि ख़ज़ का लेबास और अम्मामा पहनते थे[२१०] और अपने बालों और दाढ़ी पर ख़ेज़ाब भी करते थे।[२११]

हरम ए इमाम हुसैन (अ) के एक द्वार पर लिखा (अस्सलामो अलैका या सय्यद शबाबे अहलिल जन्ना)
  • पैगंबर (स) की ज़बानी

पैगंबर (स) की कई रिवायत इमाम हुसैन (अ) की फ़ज़ीलत में वर्णित हुई हैं जैसे:

  • शहादत की भविष्यवाणी

हुसैन बिन अली (अ) की शहादत की भविष्यवाणी के बारे में कई रिवायत पाई जाती हैं।[२१५] जैसे पैगंबर (स) से वर्णित हदीसे लौह में इसका उल्लेख है। ख़ुदा ने हुसैन को शहादत से नवाज़ा और उन्हें बेहतरीन शहीद बनाया।[२१६] अल्लामा मजलिसी ने बिहारुल अनवार किताब के खंड 44 के अध्याय 30 में, वर्णन किया है कि अल्लाह ने हज़रत आदम, हज़रत नूह, हज़रत इब्राहीम, हज़रत ज़करिया और हज़रत मुहम्मद (स) सहित अपने कुछ नबियों को हुसैन (अ) की शहादत की खबर दी। और इन अम्बिया ने इमाम हुसैन (अ) पर गिरया भी किया।[२१७] यह भी वर्णित है कि अमीरुल मोमेनीन (अ) सिफ़्फ़ीन के रास्ते में, जब वह कर्बला पहुंचे, तो उन्होंने अपनी उंगली से एक जगह की ओर इशारा किया और कहा: यह वह जगह है जहां उनका (इमाम हुसैन (अ)) का खून बहाया जाएगा।[२१८] शेख़ सदूक़ ने अपनी किताब अमाली में वर्णन किया है कि हज़रत ने कर्बला की भूमि की कुछ मिट्टी ली और उसे सूंघा और कहा: तुम एक अद्भुत मिट्टी हो, और तुम्हारे समूह बिना गिनती के स्वर्ग में प्रवेश करेंगे।[२१९]

  • चमत्कार (एजाज़ व करामात)

कुछ रिवायतों में, इमाम हुसैन (अ) की विशिष्ट विशेषताओं को सूचीबद्ध किया गया है, जैसे कि यह तथ्य कि उन्होंने पैग़ंबर (स) की उंगली से चमत्कारिक रूप से दूध पिया[२२०] और फ़ितरुस नाम के टूटे पंख वाले फ़रिश्ते को उनके आशीर्वाद से नेजात मिली। उसके बाद, फ़ितरुस को तीर्थयात्रियों को सलाम पहुंचाने का कार्य सौंपा गया।[२२१] हदीसों में यह भी उल्लेख किया गया है कि ईश्वर ने हुसैन (अ) की तुर्बत में शेफ़ा और उनकी क़ब्र के पास (क़ुब्बे के नीचे) की हुई दुआ का क़बूल होना क़रार दिया है।[२२२] अल ख़्साइस अल हुसैनिया किताब में इमाम हुसैन (अ) की 300 विशेषताओं को सूचीबद्ध किया है।[२२३]

  • नैतिक विशेषताएं

वह ग़रीबों के साथ बैठा करते और उनके निमंत्रण को स्वीकार किया करते और उनके साथ खाया खाते और उन्हें अपने घर बुलाया करते और जो भी घर में होता उन्हें दे दिया करते।[२२४] एक दिन किसी ज़रूरतमंद ने उनसे मदद मांगी। इमाम नमाज़ पढ़ रहे थे इमाम ने नमाज़ जल्दी ख़त्म की और जो कुछ उनके पास था उसे दे दिया।[२२५]

इमाम (अ) अपने ग़ुलामों और कनीज़ों को उनके अच्छे व्यवहार के बदले में मुक्त (आज़ाद) कर देते थे। ऐसा कहा गया है कि उन्होंने एक ग़ुलाम कनीज़ को मुक्त (आज़ाद) किया, जिसे मुआविया ने बहुत सारी संपत्ति और कपड़ों के साथ उपहार के रूप में भेजा था, जिसके बदले उसने (कनीज़) ने क़ुरआन की आयतें और दुनिया के अंत और मनुष्यों की मृत्यु के बारे में एक कविता पढ़ीं, तो इमाम (अ) ने उसे धन दे कर मुक्त कर दिया।[२२६] इसी तरह, एक दिन एक कनीज़ ने उन्हें फूलों का गुलदस्ता भेंट किया। आप ने उस कनीज़ को मुक्त कर दिया। लोगों ने कहा कि आपने उसे सिर्फ फूलों के गुलदस्ते के बदले मुक्त किया? इमाम हुसैन (अ) ने आयत का हवाला देते हुए कहा: «و اذا حیّیتم بتحیّة فحیّوا بأحسن منها أو ردّوها»[२२७] अनुवाद: जब तुम्हें नमस्कार (अच्छा कार्य) किया जाए तो उससे अच्छा उत्तर दो। या (कम से कम) उसी तरह उत्तर दो। उन्होंने कहा: अल्लाह ने हमें इस तरह शिष्टाचार (अदब) सिखाया है।[२२८] इमाम हुसैन (अ) बहुत दयावान थे और अपनी उदारता के लिए जाने जाते थे।[२२९] लेकिन लोगों की सहायता में, इमाम हसन (अ) के सम्मान की खातिर कोशिश करते अपने भाई की तुलना में दूसरों की थोड़ी कम मदद करें।[२३०] सूत्रों में बताया गया है कि वह 25 बार पैदल ही हज पर गए थे।[२३१]

शोक और तीर्थ

मूल लेख: मुहर्रम की अज़ादारी

शिया (और कभी-कभी ग़ैर-शिया) मुहर्रम के महीने में इमाम हुसैन (अ) और कर्बला के शहीदों का शोक मनाते हैं। शियों के यहां इस शोक के लिए अनुष्ठान हैं, जिनमें से सबसे आम नौहा पढ़ना, मातम करना, ताज़िया उठाना, शबीह बनाना, और ज़ियारतें पढ़ना जैसे ज़ियारते आशूरा, ज़ियारते वारेसा और ज़ियारत नाहिया मुक़द्देसा का अकेले और सामूहिक तौर से पढ़ना।[२३२]


आशूरा के बाद से ही इमाम हुसैन (अ) के लिए शोक मनाना शुरू हो गया था।[२३३] एक रिवायत के अनुसार शाम में कर्बला के बंदियों ने बनी हाशिम की महिलाओं ने काले कपड़े पहन कर कई दिनों तक शोक मनाया।[२३४] शिया सरकारों के सत्ता में आने के बाद और शियों से दबाव हटा लिए जाने के बाद शोक आधिकारिक हो गया।[२३५]

ऐतिहासिक और हदीस समाचार के अनुसार, शिया इमामों ने हुसैन बिन अली (अ) के शोक में शोक और रोने को विशेष महत्व दिया है और शियों को ऐसा करने और आशूरा के शोक के कार्य के हमेशा करने पर ज़ोर दिया है।[२३६]

  • ज़ियारते इमाम हुसैन (अ)
मूल लेख: ज़ियारते इमाम हुसैन (अ)

मासूमीन की हदीसों में इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारत पर बहुत ज़ोर दिया गया है और इसे सर्वोच्च और सबसे पुण्य कार्यों में से एक माना जाता है[२३७] और हदीसों के एक समूह के अनुसार, इसका पुण्य (सवाब) हज और उमराह के बराबर है।[२३८]

ज़ियारतों की व्यापक पुस्तकों में, कई पूर्ण तीर्थ (ज़ियारते मुतलेका) जो किसी भी समय पढ़ी जा सकती हैं[२३९] और कई विशेष ज़ियारत जो विशिष्ट समय पर पढ़ी जाती हैं।[२४०] इमाम हुसैन (अ) के लिए एकत्र की गई हैं। ज़ियारते आशूरा , ज़ियारते वारेसा, ज़ियारत नाहिया मुक़द्देसा, इन ज़ियारतों में सब से प्रसिद्ध हैं।

अरबईने हुसैनी

मूल लेख: अरबईने हुसैनी, ज़ियारते अरबईन, अरबाईन की यात्रा

इमाम हुसैन (अ) की शहादत के चालीस दिन बाद, अरबाईने हुसैनी या अरबाईन दिवस कहा जाता है, बहुत सारे शिया, इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारत के लिए उनके हरम जाते हैं। ऐतिहासिक नक़्ल के अनुसार जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी, इस दिन इमाम हुसैन (अ) की क़ब्र पर जाने वाले पहले तीर्थयात्री थे।[२४१]