रोज़ा
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कुछ अमली व फ़िक़ही अहकाम |
फ़ुरू ए दीन |
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रोज़ा (अरबी: صوم) सुबह की अज़ान से लेकर मग़रिब की अज़ान तक खाने-पीने और कुछ अन्य कार्यों से परहेज़ करने को कहते हैं, जो ईश्वर के आदेश का पालन करने के उद्देश्य से किया जाता है। रोज़ा इस्लाम के फ़ुरूअ ए दीन (धार्मिक कर्तव्यों) में से एक है और यह सबसे महत्वपूर्ण इबादतों में से तथा इस्लाम के पाँच स्तंभों में से एक है। इस्लाम से पहले के धर्मों में भी रोज़े का प्रचलन था। फ़िक़्ह (इस्लामी न्यायशास्त्र) के अनुसार, रोज़ा चार प्रकार का होता है: वाजिब (अनिवार्य), मुस्तहब (सुझावित), मकरूह (नापसंदिदा) और हराम (निषिद्ध)। रमज़ान के महीने का रोज़ा वाजिब रोज़ों में से एक है।
धार्मिक स्रोतों में रोज़े के कई नैतिक और आध्यात्मिक प्रभाव बताए गए हैं। इनमें तक़्वा (ईश्वर-भय) प्राप्त करना, नर्क की आग से सुरक्षा, पापों का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित), शरीर का ज़कात, और शैतान से दूरी शामिल हैं। इसके अलावा, यह भी कहा जाता है कि रोज़ा रखने के शारीरिक और मानसिक लाभ होते हैं, जैसे कि चिंता और अवसाद में कमी, आत्म-सम्मान में वृद्धि, और दिल और रक्त वाहिकाओं की बीमारियों से बचाव।
रोज़े को तोड़ने वाली चीज़ें (मुब्तिलात ए रोज़ा), जिनसे बचना ज़रूरी है, वे इस प्रकार हैं: खाना और पीना, यौन संबंध बनाना, ईश्वर, पैग़म्बर (स) और इमामों (अ) पर झूठ बोलना, गाढ़ी धूल को गले तक पहुँचाना, जनाबत, हैज़ (मासिक धर्म) और निफास (प्रसव के बाद की अवधि) की हालत में रहना, हस्तमैथुन करना, पूरे सिर को पानी में डुबोना, जानबूझकर उल्टी करना। जिस व्यक्ति पर रोज़ा रखना वाजिब (अनिवार्य) है, अगर वह जानबूझकर इनमें से किसी भी चीज़ को करता है, तो उसे रोज़े की क़ज़ा (बाद में रखना) और कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) दोनों अदा करने होंगे।
रोज़े का स्थान और प्रभाव
रोज़ा तुलूअ ए फ़ज्र (सुबह की अज़ान) से लेकर मग़रिब (सूर्यास्त) तक खाने पीने जैसे कुछ विशेष कार्यों से परहेज़ करने को कहा जाता है, और यह ईश्वर की नज़दीकी (क़स्दे क़ुर्बत) के इरादे से किया जाता है।[१] हालांकि, शिया न्यायविद् अली मिश्कीनी ने रोज़े को रोज़े की अमान्यताओं से बचने के लिए स्वयं को तैयार करने के रूप में परिभाषित किया है।[२] शिया मुफ़स्सिर (कुरआन के व्याख्याकार) सय्यद मुहम्मद हुसैन तबातबाई के अनुसार, इस्लाम रोज़े में केवल खानेपीने से परहेज़ करने को ही पर्याप्त नहीं मानता, बल्कि यह आदेश देता है कि रोज़ेदार हर उस चीज़ से दूर रहे जो गुनाह की ओर ले जाती है या उसे नफ्सानी ख़्वाहिशात और वसवसों (शैतानी प्रलोभन) की ओर ले जाती है।[३] सय्यद मुहम्मद काज़िम यज़्दी ने अपनी किताब "उर्वातुल वुस्क़ा" में रमज़ान के महीने में रोज़े के वाजिब होने को दीन के ज़रूरी मामलों में से एक बताया है और रमज़ान के रोज़े के वाजिब होने का इनकार करने वाले को मुर्तद (धर्मत्यागी) कहा है, जिसका क़त्ल वाजिब है।[४]
रोज़े को सबसे फ़ज़ीलत (पुण्य) वाली इबादतों में से एक,[५] इस्लाम के पाँच स्तंभों में से एक,[६] जिहाद का एक रूप,[७] और इसे छोड़ने को ईमान से बाहर निकलने का कारण माना गया है।[८]
रोज़े के वाजिब होने का कारण
शिया क़ुरआन के व्याख्याकार तबातबाई और मक़ारिम शिराज़ी आयत में "لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ" (ताकि तुम तक़्वा प्राप्त करो) के वाक्य का उल्लेख करते हुए रोज़े का उद्देश्य तक़्वा (ईश्वरभय) प्राप्त करना बताते हैं।[९] किताब "एलल अल शराया" में एक रिवायत के अनुसार, रोज़े के वाजिब होने का कारण समाज के अमीर लोगों को भूख की कठिनाई और तकलीफ़ का एहसास दिलाना है, ताकि वे गरीबों पर दया करें।[१०]
एक अन्य हदीस में यह बताया गया है कि जब हज़रत आदम (अ) ने मनाही किए गए पेड़ (शजर ए मम्नूआ) से खाया, तो उसका प्रभाव उनके पेट में 30 दिनों तक रहा। इसलिए, ईश्वर ने उनकी संतानों पर 30 दिन के रोज़े वाजिब किए।[११] इमाम रज़ा (अ) से एक हदीस में रोज़े के वाजिब होने का कारण क़यामत के दिन की याद दिलाना और उसकी कठिनाइयों पर ध्यान केंद्रित करना बताया गया है।[१२] कुछ लोग रोज़े के वाजिब होने का एक और कारण शरीर की सेहत को बताते हैं और इसे हदीस सूमू तसेह्हू "صوموا تصحوا" (रोज़ा रखो, स्वस्थ रहो) के साथ जोड़ते हैं, जो पैग़म्बर (स) से मनसूब (संबंधित) है।[१३]
रोज़े का व्यक्तिगत और सामाजिक प्रभाव
मासूमीन (अ) से वर्णित हदीसों में रोज़े के कई प्रभाव और परिणाम बताए गए हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
अब्दुल्लाह जवादी आमोली ने तफ़्सीर तस्नीम में कहा है कि रोज़ा व्यक्ति और समाज में अनुशासन, कंटेंटमेंट (संतोष) और गुनाहों व ज़िंदगी की मुश्किलों के खिलाफ सब्र (धैर्य) की भावना को मज़बूत करता है।[२४] इसके अलावा, मीडिया में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, ईरान में रमज़ान के महीने में सामाजिक अपराधों की संख्या में कमी आती है।[२५]
साथ ही, मेडिकल शोध के अनुसार, रोज़ा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है।[२६] इम्यून सिस्टम पर सकारात्मक प्रभाव, चिंता और अवसाद में कमी, मानसिक स्वास्थ्य, आत्मसम्मान में वृद्धि, और दिल और रक्त वाहिकाओं की बीमारियों से बचाव, रोज़े के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव के रूप में बताए गए हैं।[२७]
रोज़े का इतिहास
सूर ए बक़रा की आयत 183 के अनुसार, इस्लाम से पहले के धर्मों में भी रोज़े का प्रचलन था।[२८] तौरेत (यहूदी धर्मग्रंथ)[२९] और इंजील (ईसाई धर्मग्रंथ)[३०] में पिछली समुदायों के रोज़े रखने के बारे में जानकारी दी गई है। तौरेत में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि हज़रत मूसा (अ) ने अल्वाह प्राप्त करने से पहले 40 दिन और रात के रोज़े रखे थे।[३१] क़ुरआन में हज़रत ज़करिया (अ)[३२] और हज़रत मरियम (स)[३३] के रोज़े रखने का उल्लेख है, और हदीसों[३४] में भी इस्लाम से पहले के धर्मों में रोज़े के बारे में बताया गया है। इसके अलावा, यह भी कहा जाता है कि मिस्रवासियों, यूनानियों, रोमनों और प्राचीन भारतीयों जैसे अन्य समुदायों में भी रोज़े का प्रचलन था।[३५]
इस्लामी स्रोतों के अनुसार, रमज़ान के महीने का रोज़ा दूसरी शाबान[३६] या 28 शाबान, दूसरे हिजरी वर्ष में, क़िबला बदलने के 13 दिन बाद वाजिब (अनिवार्य) किया गया था।[३७] यह आदेश और इससे संबंधित कुछ अहकाम क़ुरआन में दिए गए हैं।[३८] रोज़े के हुक्म के शुरुआती दिनों में, रोज़ेदारों को इफ़्तार के बाद केवल सोने से पहले तक खाने की अनुमति थी, और पूरे रमज़ान के दौरान यौन संबंध हराम थे, लेकिन कुछ समय बाद इन दोनों हुक्मों को मंसूख़ (रद्द) कर दिया गया।[३९]
रोज़े के प्रकार
वाजिब (अनिवार्य) रोज़े | |
हराम (निषिद्ध) रोज़े |
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मकरूह (नापसंदिदा) रोज़े |
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मुस्तहब (सुझावित) रोज़े | साल के सभी दिन (मुस्तहब, मकरूह और हराम रोज़ों को छोड़कर) हालांकि, कुछ दिनों में रोज़ा रखने की विशेष सिफारिश की गई है; जैसे: हर चंद्र महीने में तीन दिन का रोज़ा ( महीने का पहला गुरुवार, दसवें दिन के बाद का पहला बुधवार लेकिन 20वें दिन से पहले, महीने का आख़िरी गुरुवार), रजब और शाबान के महीने का रोज़ा, ईदे ग़दीर के दिन का रोज़ा, मब्अस के दिन का रोज़ा, पैग़म्बर (स) के जन्मदिन का दिन का रोज़ा, दहवुल अर्ज़ (धरती के फैलने का दिन) का रोज़ा, रोज़े अरफा (9 ज़िलहिज्जा) को रोज़ा अगर यह दुआ पढ़ने में कमज़ोरी का कारण न बने, मुबाहिला के दिन का रोज़ा, हर गुरुवार और शुक्रवार का रोज़ा, नवरोज़ (ईरानी नव वर्ष) के दिन का रोज़ा, जमादी अल अव्वल की 15वीं तारीख़ का रोज़ा।[४५] |
रोज़े के अहकाम (नियम)
रोज़ा तोड़ने वाली चीज़ें
- मुख्य लेख: मुब्तिलात ए रोज़ा
फ़िक़्ह (इस्लामी न्यायशास्त्र) के अनुसार, रोज़े के दौरान कुछ काम करना मना है:
- खाना और पीना
- यौन संबंध बनाना
- अल्लाह, पैग़म्बर (स) और मासूम इमामों (अ) पर झूठ बोलना
- गाढ़ी धूल को गले तक पहुँचाना
- जनाबत, हैज़ (मासिक धर्म) और निफास (प्रसव के बाद की अवधि) की हालत में सुबह की अज़ान तक रहना
- इस्तिमना (हस्तमैथुन)
- तरल पदार्थों के साथ इमाला (एनिमा लगाना)
- पूरे सिर को पानी में डुबोना
- जानबूझकर उल्टी करना
- रोज़ा तोड़ने या रोज़ा तोड़ने वाली किसी चीज़ को करने की नीयत करना।[४६]
मकरूहाते रोज़ा (रोज़े में नापसंदिदा काम)
फ़क़ीहों (धर्मशास्त्रियों) के अनुसार, रोज़े के दौरान कुछ काम करना मकरूह है; जैसे: पत्नी को छूना, चूमना या उसके साथ मज़ाक करना, सुरमा लगाना, कोई भी काम जो कमज़ोरी का कारण बने, फूलों को सूंघना, कपड़े को गीला करना, कोई भी काम जो मुँह से खून निकलने का कारण बने, जैसे दाँत निकालना, किसी उचित कारण के पानी को मुँह में घुमाना (मज़मज़ा करना)।[४७]
जिन लोगों को रोज़ा नहीं रखना चाहिए
रमज़ान का रोज़ा हर मुकल्लफ़ (धार्मिक रूप से ज़िम्मेदार) व्यक्ति पर वाजिब (अनिवार्य) है, लेकिन निम्नलिखित लोगों को छूट है:
- वह व्यक्ति जो बुढ़ापे के कारण रोज़ा नहीं रख सकता, या जिसके लिए रोज़ा रखना बहुत मुश्किल है। हालांकि, दूसरे मामले में उसे हर दिन के बदले एक मुद्द (लगभग 750 ग्राम) खाना गरीब को देना होगा।[४८]
- वह बीमार व्यक्ति जिसे बहुत प्यास लगती है और वह प्यास बर्दाश्त नहीं कर सकता, या जिसके लिए प्यास बर्दाश्त करना बहुत मुश्किल है। हालांकि, दूसरे मामले में उसे हर दिन के बदले एक मुद्द खाना गरीब को देना होगा।[४९]
- गर्भवती या दूध पिलाने वाली महिला जिसका दूध कम है, और रोज़ा बच्चे या खुद उसके लिए नुक़सानदेह है। हालांकि, उसे हर दिन के बदले एक मुद्द खाना गरीब को देना होगा और बाद में रोज़े का क़ज़ा (बाद में रोज़ा रखना) करना होगा।[५०]
- वह व्यक्ति जो शारीरिक कमज़ोरी के कारण रोज़ा नहीं रख सकता, या जिसके लिए रोज़ा नुक़सानदेह है। हालांकि, उस पर रोज़े का क़ज़ा वाजिब है, और अगर वह अगले रमज़ान तक क़ज़ा नहीं कर सकता, तो उसे हर दिन के बदले एक मुद्द खाना गरीब को देना होगा।[५१]
- मुसाफ़िर (यात्री) जो अपने गंतव्य पर दस दिन से कम रुकेगा।[५२] हालांकि, कसीर उस सफ़र (जो लगातार सफ़र करते हैं) और जैसे ड्राइवर जिनका काम सफ़र करना है, इस हुक्म से मुस्तसना (अपवाद) हैं।[५३]
इफ़्तार या रोज़ा खोलना
इफ़्तार को रोज़ा तोड़ने या खोलने के रूप में जाना जाता है।[५४] शिया फ़क़ीहों (धर्मशास्त्रियों) के अनुसार, रोज़ेदार को मग़रिबे शरई (सूर्यास्त के बाद) तक इफ़्तार नहीं करना चाहिए।[५५] हदीसों के अनुसार, इफ़्तार के समय दुआ पढ़ना और सूरह ए क़द्र की तिलावत करना मुस्तहब है।[५६] साथ ही, पानी, दूध और खजूर से रोज़ा खोलना भी मुस्तहब है।[५७] रिवायतों के अनुसार, रोज़ेदार को इफ़्तार कराना बहुत फ़ज़ीलत (पुण्य) वाला काम है।[५८] ख़ुत्बा ए शाबानिया में पैग़म्बर (स) से मनसूब (संबंधित) है कि रमज़ान के महीने में एक मोमिन को इफ़्तार कराने का सवाब एक गुलाम आज़ाद करने के बराबर है और यह पापों की माफ़ी का कारण बनता है।[५९]
क़ज़ा और रोज़े का कफ़्फ़ारा
- मुख्य लेख: रोज़ा का कफ़्फ़ारा
- जिस व्यक्ति पर रमज़ान का रोज़ा वाजिब (अनिवार्य) था और उसने रोज़ा नहीं रखा, उसे उसका क़ज़ा (बाद में रोज़ा रखना) करना चाहिए।[६०] रोज़े का क़ज़ा करना तुरंत वाजिब नहीं है, लेकिन इसे अगले रमज़ान से पहले पूरा कर लेना चाहिए।[६१]
- जिस व्यक्ति ने बीमारी के कारण रमज़ान में रोज़ा नहीं रखा और अगले रमज़ान तक भी रोज़ा रखने में असमर्थ रहा, उस पर रोज़े की क़ज़ा वाजिब नहीं है, लेकिन उसे हर दिन के बदले एक मुद्द (लगभग 750 ग्राम) गेहूँ गरीब को देना होगा।[६२]
- जिस व्यक्ति ने जानबूझकर और बिना किसी शरई उज़्र (धार्मिक कारण) के अपना वाजिब रोज़ा नहीं रखा, उस पर क़ज़ा के अलावा कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) भी वाजिब है।[६३] इसका कफ़्फ़ारा 60 गरीबों को खाना खिलाना या दो महीने के रोज़े रखना है, जिनमें से 31 दिन लगातार रोज़े रखने होंगे।[६४]
- अगर बिना किसी उज़्र (कारण) के रोज़े का क़ज़ा अगले रमज़ान तक टाल दिया जाए, तो उस पर कफ़्फ़ारा ए ताख़ीर (देरी का प्रायश्चित) भी लागू होगा, जो हर रोज़े के बदले एक मुद्द (लगभग 750 ग्राम) खाना गरीब को देना होगा।[६५]
- अगर रमज़ान का रोज़ा किसी हराम काम (जैसे शराब पीना या ज़िना करना) से टूट जाए, तो कफ़्फ़ारा ए जमअ (दोहरा प्रायश्चित) लागू होगा; यानी हर रोज़े के लिए 60 दिन के रोज़े रखने होंगे और 60 गरीबों को खाना खिलाना होगा।[६६] हालांकि, सय्यद अली हुसैनी सिस्तानी ने कफ़्फ़ारा ए जमअ को इह्तियात मुस्तहब (सुझावित सावधानी) माना है।[६७]
सार्वजनिक रूप से रोज़ा तोड़ने का हराम होना
- मुख्य लेख: जानबूझकर रोज़ा तोड़ना
इस्लामी फ़िक़्ह (न्यायशास्त्र) के अनुसार, रमज़ान के महीने में सार्वजनिक रूप से रोज़ा तोड़ना हराम (निषिद्ध) है और इसके लिए तअज़ीर (सज़ा) का प्रावधान है।[६८]
रोज़े के स्तर (दर्जे)
रोज़े के तीन स्तर बताए गए हैं: रोज़ा ए आम, रोज़ा ए ख़ास और रोज़ा ए ख़ास उल ख़ास।[६९]
- रोज़ा ए आम: यह खानेपीने से परहेज़ करना, यौन इच्छाओं से दूर रहना और रोज़े के बाहरी आदाब (नियम) का पालन करना है।[७०]
- रोज़ा ए ख़ास: यह कान, आँख, ज़बान, हाथ, पैर और शरीर के अन्य अंगों को गुनाहों से बचाना है।[७१]
- रोज़ा ए ख़ास उल ख़ास: यह दुनियावी चिंताओं और लक्ष्यों से दूर रहना है, सिवाय उन दुनियावी कामों के जो दीन (धर्म) के लिए ज़रूरी हों।[७२]
इमाम अली (अ) के कथनों में भी रोज़ा ए बदन (खानेपीने से परहेज़), रोज़ा ए नफ़्स (गुनाहों से अपने आप को बचाना और दिल को बुराइयों से खाली करना) और रोज़ा ए क़ल्ब (दिल का रोज़ा) का उल्लेख किया गया है।[७३]
हदीसों में, रोज़ा ए हक़ीक़ी (सच्चा रोज़ा) को हर उस चीज़ से परहेज़ करना बताया गया है जो ईश्वर को पसंद नहीं है।[७४] साथ ही, ऐसे रोज़े का उल्लेख किया गया है जिसमें आँख, कान, बाल और त्वचा भी रोज़ेदार हों।[७५] इसके अलावा, रोज़ा ए क़ल्ब (दिल का रोज़ा) को रोज़ा ए ज़बान (ज़बान का रोज़ा) से बेहतर और रोज़ा ए ज़बान को रोज़ा ए शिकम (पेट का रोज़ा) से बेहतर बताया गया है।[७६]
मोनोग्राफ़ी
रोज़े के बारे में कई स्वतंत्र किताबें लिखी गई हैं, जिनमें से ज़्यादातर में इसके अहकाम पर चर्चा की गई है। इनमें से कुछ प्रमुख किताबें इस प्रकार हैं:
- अस सौम फ़ी अश शरीअत अल इस्लामिया अल ग़र्रा, लेखक: जाफ़र सुब्हानी, प्रकाशक: मोअस्ससा ए इमाम सादिक़ (अ)।
- नूरे मलकूते रोज़ा, लेखक: सय्यद मुहम्मद हुसैन हुसैनी तेहरानी, प्रकाशक: मकतब ए वही।
- अहकामे रोज़ा, लेखक: मुहम्मद हुसैन फ़लाहज़ादेह, प्रकाशक: अमीर कबीर।
- अहकाम, असरार और फ़वाइदे रोज़ा, लेखक: मुहीउद्दीन मस्तो, यह किताब शाफ़ेई मज़हब के नज़रिए से रोज़े के अहकाम पर लिखी गई है और इसके फ़ायदों और ऐतिहासिक पहलुओं पर भी चर्चा करती है।
- रोज़ा, मी तवानद ज़िंदगीअत रा नजात बेदहद, लेखक: हर्बर्ट एम. शेल्टन, अनुवाद: माशाअल्लाह फ़रुख़ंदा, प्रकाशक: नस्ल ए नवांदिश।
- अहकाम ए रोज़ा: शराइत ए रोज़ा, मुफ़्तिराते रोज़ा, क़ज़ा और कफ़्फ़ारा, पेजोहिशकदा ए बाक़िर उल उलूम (अ), दो खंडों में।
- रोज़ा दरमाने बीमारी हाय ए रूह व जिस्म, लेखक: हुसैन मूसवी राद, प्रकाशक: दफ़्तरे इंतिशाराते इस्लामी।
फ़ुटनोट
- ↑ मिश्कीनी, मुस्तलेहात अल फ़िक़्ह, 1392 शम्सी, पृष्ठ 363।
- ↑ मिश्कीनी, मुस्तलेहात अल फ़िक़्ह, 1392 शम्सी, पृष्ठ 363।
- ↑ तबातबाई, तआलीम ए इस्लाम, 1387 शम्सी, पृष्ठ 272।
- ↑ यज़्दी, अल उर्वातुल वुस्क़ा, 1421 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 521।
- ↑ नजफ़ी, जवाहिर अल कलाम, 1404 हिजरी, खंड 16, पृष्ठ 181।
- ↑ कुलैनी, अल काफ़ी, 1407 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1824 और खंड 4, पृष्ठ 62।
- ↑ मजलिसी, बिहार अल अनवार, 1403 हिजरी, खंड 93, पृष्ठ 257, हदीस 14।
- ↑ सदूक़, मन ला यहज़रहुल फ़क़ीह, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 118, हदीस 1892।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1417 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 8; मक़ारिम शिराज़ी, तफ़्सीर नमूना, 1374 शम्सी, खंड 1, पृष्ठ 623624।
- ↑ सदूक़, एलल अश शराया, अल मकतबा अल हैदरिया, खंड 2, पृष्ठ 378।
- ↑ सदूक़, एलल अश शराया, अल मकतबा अल हैदरिया, खंड 2, पृष्ठ 378।
- ↑ उयून अख़्बार अल रज़ा, 1378 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 116।
- ↑ सूरी लकी, "फ़लसफ़ा ए वुजूब ए रोज़ा", पृष्ठ 3233।
- ↑ नहज उल बलाग़ा, तस्हीह: सुब्ही सालेह, हिकमत 252, पृष्ठ 512।
- ↑ सदूक़, मन ला यहज़रहुल फ़क़ीह, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 75, हदीस 1774।
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- ↑ कुलैनी, अल काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 510।
- ↑ रावंदी, अल दआवात, 1366 शम्सी, खंड 1, पृष्ठ 27।
- ↑ पायंदा, नहज उल फ़साहा, 1387 शम्सी, पृष्ठ 547, हदीस 1854।
- ↑ तबरसी, मक़ारिम अल अख़्लाक़, 1412 हिजरी, पृष्ठ 51।
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- ↑ सदूक़, मन ला यहज़रहुल फ़क़ीह, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 75, हदीस 1773।
- ↑ नूरी, मुस्तदरक अल वसाइल, 1408 हिजरी, खंड 7, पृष्ठ 400।
- ↑ जवादी आमोली, तफ़्सीर ए तस्नीम, 1389 शम्सी, खंड 9, पृष्ठ 288।
- ↑ "काहिशे 5 ता 33 दर सदी जराएम दर माहे रमज़ान", पायगाह ए ख़बरी आफ़ताब।
- ↑ रज़ाई, "रोज़ादारी व सलामत अज़ निगाह ए पिज़िश्की", पायगाह ए इत्तिला रसानी ए हौज़ा।
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- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 7 और 8।
- ↑ सफ़र ए ख़ुरूज (बाइबिल), अध्याय 34, आयत 28; किताब ए दोव्वुम समूईल, अध्याय 12, आयत 16; किताब ए दोव्वुम तवारीख़, अध्याय 20, आयत 3।
- ↑ इंजील ए लूक़ा, अध्याय 2, आयत 37; अध्याय 4, आयत 2; और अध्याय 5, आयत 34।
- ↑ सफ़र ए तस्निया (बाइबिल), अध्याय 9, आयत 9।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 7।
- ↑ सूर ए मरियम, आयत 26।
- ↑ मजलिसी, बिहार अल अनवार, 1403 हिजरी, खंड 13, पृष्ठ 427 और खंड 17, पृष्ठ 292।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 7।
- ↑ क़ुम्मी, वक़ाए अल अय्याम, 1389 शम्सी, पृष्ठ 495।
- ↑ याक़ूबी, तारीख़ ए याक़ूबी, दार सादिर, खंड 2, पृष्ठ 42।
- ↑ सूर ए बक़रा, आयत 183185 और 187।
- ↑ तबरसी, जवामे अल जामेअ, जामेअ मुदर्रेसीन, खंड 1, पृष्ठ 106; हुर्रे आमिली, वसाइल अल शिया, 1409 हिजरी, खंड 7, पृष्ठ 81।
- ↑ तबातबाई यज़्दी, अल उर्वातुल वुस्क़ा, 1420 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 658।
- ↑ नराक़ी, तज़किरा अल अहबाब, 1383 शम्सी, पृष्ठ 104।
- ↑ तबातबाई यज़्दी, अल उर्वातुल वुस्क़ा, 1420 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 661663।
- ↑ नराक़ी, तज़किरा अल अहबाब, 1383 शम्सी, पृष्ठ 104।
- ↑ तबातबाई यज़्दी, अल उर्वातुल वुस्क़ा, 1420 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 660661।
- ↑ तबातबाई यज़्दी, अल उर्वातुल वुस्क़ा, 1420 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 658660।
- ↑ तबातबाई यज़्दी, अल उर्वातुल वुस्क़ा, 1419 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 541577; इमाम ख़ुमैनी, तौज़ीह अल मसाइल, 1424 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 891।
- ↑ मोअस्ससा ए दाइरा अल मआरिफ़ ए फ़िक़्ह ए इस्लामी, फ़र्हंग ए फ़िक़्ह ए फ़ारसी, 1385 शम्सी, खंड 4, पृष्ठ 171 और 172।
- ↑ इमाम ख़ुमैनी, तौज़ीह अल मसाइल (मोहश्शा), 1424 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 955, मसअला 1725।
- ↑ इमाम ख़ुमैनी, तौज़ीह अल मसाइल (मोहश्शा), 1424 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 956, मसअला 1727।
- ↑ इमाम ख़ुमैनी, तौज़ीह अल मसाइल (मोहश्शा), 1424 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 957958, मसअला 1728 और 1729।
- ↑ इमाम ख़ुमैनी, इस्तिफ़्ताआत, खंड 1, पृष्ठ 333, सवाल 88; "नज़र ए मराजे ए उज़्मा ए तक़लीद पैरामून ए रोज़ादारी बा ज़ोफ़ ए जिस्मानी", बरगुज़ारी ए रस्मी ए हौज़ा।
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स्रोत
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