दुआ क़बूल होना
- यह लेख दुआ क़बूल होने के बारे में है। दुआ की अवधारणा के बारे में अधिक जानने के लिए दुआ वाला लेख देखें।
दुआ क़बूल होना (अरबीःاستجابة الدعاء) का अर्थ परमेश्वर के सेवकों के अनुरोध का उत्तर देना और उसे स्वीकार करना है। क़ुरआन मे परमात्मा ने अपने सेवकों से दुआ क़बूल करने का वादा किया है; हालाँकि कभी-कभी विभिन्न कारणो (जैसे कि बंदो की मस्लहत इत्यादि) की वजह से दुआ क़बूल होने में देरी होती है। नहज अल-बलाग़ा में इमाम हसन (अ) को इमाम अली (अ) के पत्र मे दुआ क़बूल होने मे देरी के लिए तीन मस्लहतो का उल्लेख किया गया है: कभी-कभी किसी व्यक्ति के इरादे और नियत मे कोई समस्या होती है, कभी-कभी परमात्मा किसी व्यक्ति को एक बड़ा इनाम देने का इरादा रखता है और कभी-कभी परमेश्वर अपने बंदे को किसी और समय मे कुछ बेहतर देने का इरादा रखता है।
मुस्तजाब अल दावा उस व्यक्ति को कहा जाता है जिसकी दुआ क़बूल होती है। हदीसों मे अपने बच्चों के लिए माता-पिता की दुआ, ज़ालिम के खिलाफ मज़लूम की दुआ, इमाम और आदिल नेता की अपने लोगो के हक मे दुआ, और एक आस्तिक की अपने मोमिन भाई के लिए दुआ उन दुआओ मे से हैं जो अस्वीकार नही की जाती।
आयतो और रिवायतो मे दुआ का क़बूल होने के लिए कुछ शर्ते बताई गई है, जैसे कि दुआ करते समय दिल और ज़बान के इरादे का मेल खाना, ईश्वर के अलावा किसी और चीज से आशा न करना और परमेश्वर की मारफत़ रखना इत्यादि। इसके अलावा, कुछ व्यवहार जैसे पाप, हराम खाना, और अम्र बिल मारूफ और नही अनिल मुनकर का त्यागना इत्यादि दुआ क़बूल होने मे बाधा जाना जाता है।
दुआ क़बूल होना किसी विशिष्ट समय और स्थान तक सीमित नहीं है; हालाँकि, रिवायतो के अनुसार, कुछ समय पर दुआ करना, जैसे अरफ़ा के दिन और शब़े-क़द्र, साथ ही कुछ स्थानों पर, जैसे काबा, पैग़म्बर (स) और इमामो की क़ब्रो के आसपास विशेष रूप से इमाम हुसैन (अ) के गुंबद के नीचे दुआ जल्दी क़बूल होती है।
ईश्वरीय वादा
दुआ क़बूल होना का अर्थ परमेश्वर के सेवकों के अनुरोध का उत्तर देना और उसे स्वीकार करना है।[१] परमेश्वर ने अपने सेवको (बंदो) से क़ुरआन की कई आयतो मे उनकी दुआओ के क़बूल करने का वादा किया है।[२] मुजीब शब्द परमेश्वर के नामो मे से एक है जिसका अर्थ (सेवको) बंदो की दुआओ को क़बूल (स्वीकार) करने वाले के है।[३]
अल्लामा तबातबाई के अनुसार, दुआओ का क़बूल होना मानव जीवन में एक निरंतर बात है।[४] हालाँकि, दुआओ का क़बूल करने का वादा लक्ष्यों को प्राप्त करने के मानवीय प्रयासों को प्रतिस्थापित और बाहरी साधनों को त्यागने और उसके जीवन के प्राकृतिक मार्ग को बाधित करने की ओर नहीं ले जाना चाहिए।[५]
कारण एवं शर्तें
आयतो और रिवायतो मे दुआ क़बूल होना कुछ शर्तों को पूरा करने और इसके लिए साधन तैयार करने पर आधारित है। उनमें से कुछ हैं:
- दुआ मे दिल और जबान का एक होना: कुरआन मे दुआ क़बूल होने को इस शर्त के साथ एक निश्चित और यक़ीनी चीज़ माना गया है कि बंदा (सेवक) सच्चे दिल और ज़बान के साथ परमेश्वर से दुआ करें।[६] अल्लामा तबातबाई परमेश्वर से दुआ करने का अर्थ दुआ करते समय दिल और ज़बान का एक होना मानते है।[७] इमाम अली (अ) से उद्धृत किया गया है कि परमेश्वर उस दुआ को क़बूल नही कता जो लापरवाही भरे दिल से की गई हो।[८]
- ईश्वर के अलावा अन्य से आशा न रखना: बाहरी और काल्पनिक कारणों से मुह मोड़कर ईमानदारी के साथ परमेश्वर से दुआ करना, क्योकि सूर ए बक़रा की आयत न 186 मे केवल परमेश्वर से मांगने का हुकम दिया गया है।[९]
- ईश्वर की मारफ़त के साथ दुआ करना: इमाम सादिक (अ) की रिवायत के अनुसार एक समूह के जवाब में जिसने अनुत्तरित प्रार्थना (दुआ क़बूल न होने) के बारे में पूछा, उन्होंने कहा कि जिससे दुआ की जा रही है उसके बारे में ज्ञान और जानकारी की कमी दुआ के क़बूल न होने का कारण है।[१०]
- खुज़ूअ और ख़ुशूअ: सूर ए आराफ़ की आयत न 55 मे विश्वासियों से विनम्र और नम्र तरीके से परमेश्वर से दुआ करने का आदेश दिया गया है। इमाम सादिक (अ) ने दुआ क़बूल होने के समय मे से एक समय उसको मानते है जिसमे कोई व्यक्ति आंसू भरी आँखों, कांपते शरीर और टूटे हुए दिल के साथ परमात्मा के सामने खड़ा होता है।[११]
- नेक कर्मों के साथ दुआ करना: दुआ क़बूल होने के लिए नेक कर्म करने और विशेष रूप से दान देने का आदेश दिया गया है।[१२] क़ुरआन मे अल्लाह तआला ने ईमान लाने वालो और नेक कर्म करने वाले को दुआ क़बूल करने का वादा किया है।[१३]
- मोमिनों के समूह मे दुआ करना: इमाम सादिक़ (अ) की रिवायत मे है परमेश्वर से दुआ करने वाले चालीस मोमिनों का कोई समूह ऐसा नहीं है जिनकी दुआ को परमात्मा अस्वीकार करे और स्वंय इमाम भी कठिनाईयो के समय अपने परिवार को एकत्रित करके दुआ करते थे और वो लोग आमीन कहते थे।[१४]
- दुआ करने मे आगे बढ़ना: परेशानियों और कठिनाइयों के आने से पहले दुआ करना, अर्थात आराम और स्वास्थ्य के समय दुआ करने के प्रभाव हैं जैसे: दुआ क़बूल होना, आपदाओं को रोकना, कठिनाइयों के दौरान जरूरतों को पूरा करना इत्यादि, इमाम सादिक (अ) की रिवायत के अनुसार जो कोई विपत्ति से पीड़ित होने से पहले दुआ करता है, उसकी दुआ उस समय क़बूल होती है जब वह पीड़ित होगा, और फ़रिश्ते उसकी आवाज़ सुनते है और कहते है कि यह तो एक परिचित आवाज़ है, और उसकी दुआ अस्वीकार नहीं होगी, और जो कोई दुआ करने मे आगे नही बढ़ता (और केवल पीड़ित होने पर) दुआ करता है उसकी दुआ क़बूल नही होती और जब वह दुआ करता है तो फ़रिश्ते कहते हैं: यह आवाज़ अपरिचित है और हम इसे नहीं पहचानते हैं।[१५] [नोट १] इमाम सादिक (अ) की एक दूसरी रिवायत में कहा गया है कि जो व्यक्ति आराम मे बहुत अधिक दुआ नही करता केवल मुसीबत मे दुआ करता है, तो उससे कहा जाएगा, "आज से पहले कहां थे?" (أَيْنَ كُنْتَ قَبْلَ الْيَوْمِ ऐना कुन्ता कब्ला अल यौम)[१६]
- आराम के दौरान बहुत दुआ करना: इमाम सादिक (अ) की एक रिवायत के अनुसार जो कोई व्यक्ति यह चाहता है कि कठिनाइयों में उसकी प्रार्थनाओं का उत्तर दिया जाए, उसे आराम के दौरान बहुत दुआ करनी चाहिए।[१७]
इसके अलावा माफ़ी मांगने के साथ दुआ करना[१८] और अहले-बैत (अ)[१९] से तवस्सुल करते समय दुआ करना दुआ क़बूल होने की अन्य शर्तो और साधन है।
- दुआ करते समय थकन का एहसास न करनाः इमाम रज़ा (अ) ने इमाम बाक़िर (अ) से उद्धृत किया कि आस्था रखने वाले व्यक्ति के लिए समृद्धि और आराम के साथ-साथ कठिनाई और गंभीरता के समय में दुआ करना उचित है। तब इमाम रज़ा (अ) ने कहा: तो, दुआ करने से मत थको।[२०]
- सच बोलना, हलाल की तलाश और सिले रहम उन चीज़ों में से हैं जिनकी हदीसों मे दुआ करने वाले को सिफ़ारिश की गई है। [नोट २][२१]
- इबादत: दुआ ए कुमैल मे बंदो की इबादत को गारंटीकृत दुआ क़बूल होन के लिए शर्तों में से एक माना जाता है। इमाम अली (अ) दुआ के अंतिम भाग मे फ़रमाते हैं: "फ़इन्नका क़ज़यता अला इबादिक बेइबादतेका व अमरतहुम बेदुआएका व ज़िन्ता लहुम अल इजाबा" (अनुवादः हे परमात्मा! तूने वास्तव मे अपने बंदो (सेवको) को अपनी इबादत करने का आदेश दिया और तूने उन्हे उनकी दुआ क़बूल करने की गारंटी दी है।[२२]
समय और स्थान
दुआ क़बूल होना किसी विशेष समय और स्थान तक सीमित नहीं है, बल्कि दुआ क़बूल होने के लिए कुछ समय और स्थान की शिफारिश की गई है; हदीसो मे शबे-क़द्र, नीमए शाबान, रजब की 27 तारीख, ईद-उल-फित्र, अरफ़ा का दिन, ईद उल-अज़्हा, मुहर्रम का पहला दिन, भोर और अज़ान के समय, शबे जुमा (बृहस्पतिवार रात्रि), वर्षा के समय, वाजिब नमाज़ो के बाद, खाना ए काबा देखने के क्षण और रजब, शाबान और रमज़ान के विशेष महीने है जिनमे दुआ अधिक क़बूल होती है।[२३]
इसके अलावा रिवायतो मे मक्का शहर, मस्जिद अल हराम, काबा, हजर असवद, रुकने यमानी और हजर इस्माईल, अरफात के रेगिस्तान मे, पैग़म्बर (स) की कब्र के आसपास, पैग़म्बर (स) के रौज़े, शियो के इमामो के हरम मे विशेष कर इमाम हुसैन (अ) के गुंबद के नीचे[२४] मस्जिद सहला और मस्जिद कूफ़ा उन स्थानों में से है जिनके लिए कहा जाता है कि यहां पर अधिक दुआ क़बूल होती है।[२५]
बाधाएं
आयतों और रिवायतो में दुआ क़बूल होने मे कुछ बाधाएँ है, उनमे से कुछ इस प्रकार हैं:
- पाप: इमाम बाक़िर (अ) की रिवायत के अनुसार, पाप को दुआ क़बूल न होने का सबसे महत्वपूर्ण कारक के रूप में पेश किया गया है।[२६] इमाम सज्जाद (अ) धार्मिक भाइयों के प्रति बुरे इरादे और पाखंड को, वाजिब नमाज़ो की अदायगी मे देरी, अपशब्द कहना और दान (सदक़ा) न देने को दुआ क़बूल न होने के कारक मानते है।[२७] इसके अलावा रिवायतो के अनुसार, उत्पीड़न एवं अत्याचार,[२८] माता-पिता की अवज्ञा, कतऐ रहम,[२९] अहद (वाचा) तोड़ना[३०] और चुग़ली करना[३१] इत्यादि भी दुआ क़बूल होने मे बाधाएँ हैं। दुआ ए कुमैल मे परमात्मा से इन पापों को क्षमा करने के लिए प्रार्थना की जाती है जिनके कारण दुआ क़बूल नही होती।[३२]
- हराम लुक़्मा: रिवयतो के अनुसार, हराम कमाना और हराम खाना चालीस दिनों तक मनुष्य की दुआ क़बूल होने मे बाधा डालता है।[३३] हदीसे क़ुदसी मे परमात्मा ने हराम खाने वाले के अलावा सभी की दुआ क़बूल करने का वचन दिया है।[३४]
- केवल कठिनाइयो के समय दुआ करना: रिवायतो के अनुसार, जो व्यक्ति चाहता है कि उसकी दुआ कठिनाइयों मे क़बूल की जाए तो उसे सुविधा और खुशी के दिनो मे ईश्वर और दुआ करना नहीं भूलना चाहिए।[३५]
- अहले बैत (अ) की विलायत में संदेह: एक रिवायत के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति के दिल मे अहले-बैत (अ) की विलायत के प्रति संदेह है तो वह चाहे अपने पूरे जीवन भर दुआ करता रहे उसकी दुआ क़बूल नही होगी।[३६]
- विश्वासघात और बेवफाई: एक व्यक्ति के जवाब में जिसने दुआ क़बूल न होने के बारे मे इमाम अली (अ) से प्रश्न किया, इमाम अली (अ) ने आठ स्थानों पर लोगों के दिलों में विश्वासघात और बेवफाई को दुआ क़बूल न होने मे बाधा के रूप में पेश किया। ईश्वर को जानने अर्थात उसकी मारफ़त रखते हुए उसके अधिकार को पूरा न करना, इस्लाम के पैग़म्बर (स) पर ईमान लाने के बावजूद उनके जीवन के तरीके (उनती सुन्नत) का पालन न करना, क़ुरआन का पाठ करना और उस पर अमल न करना, बात चीत करने मे नरक से तो डरते हुए व्यवहारित रूप से उसकी ओर बढ़ना, बात-चीत मे स्वर्ग की इच्छा करते हुए व्यवहारिक रूप से उससे बचना, परमात्मा की दी हुई नेमतो (आशिर्वादो) का प्रयोग करते हुए उसके प्रति कृतघ्न होना, लोगों के दोषों को तो देखे और स्वयं के दोषों की अनदेखी करे, और ज़बान (भाषा) से तो शैतान से शत्रुता जाहिर करे और व्यवहार में उससे मित्रता करना दिलो के साथ विश्वासघात है जिसे इमाम अली (अ) दुआ क़बूल न होने मे बाधा मानते हैं।[३७]
इसके अलावा अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुनकर को छोड़ना[३८] और नमाज़ को हल्का समझना[३९] दुआ क़बूल होने मे बाधा माना जाता है।
- बिना प्रयास के दुआ और कर्तव्य पर ध्यान:
हालाँकि दुआ ईश्वर को पुकारना और ईश्वर से मांगना है, लेकिन इसका मतलब किसी के कर्तव्य की उपेक्षा करना और किसी की इच्छाओं को पूरा करने के लिए उचित और आवश्यक उपकरणो का उपयोग करना नहीं है। मूल रूप से दुआ हरकत के साथ होनी चाहिए, अन्यथा दुआ शांति और उपेक्षा है और कर्तव्य से बचना है इससे कभी उम्मीद नहीं की जा सकती। कुछ हदीसों में उन लोगों के बारे में बताया गया है जो ईश्वर द्वारा उपलब्ध कराए गए साधनों पर ध्यान दिए बिना अपनी समस्याओं को हल करना चाहते हैं। ऐसी दुआओ के उदाहरण हदीसों में उल्लिखित हैं, जो इस प्रकार हैं:
- जिस व्यक्ति को परमेश्वर ने धन-दौलत से नवाजा है और वह अपनी संपत्ति फिजूलखर्ची और अनुचित स्थान पर खर्च करके बर्बाद कर देता है, लेकिन वह ईश्वर से जीविका (रोज़ी) मांगता है।
- एक आदमी जो अपनी पत्नी के बुरे स्वभाव और उसकी लगातार प्रताड़ना से तंग आकर भगवान से प्रार्थना करता है कि वह उसे उस औरत से मुक्त कर दे, भले ही भगवान ने उसके सामने तलाक का रास्ता तय कर दिया हो।
- जो व्यक्ति अपने पड़ोसी के लगातार उत्पीड़न की शिकायत करता है, वह इसके लिए उसे कोसता है, जबकि वह अपना घर बेचकर उपयुक्त स्थान पर घर ले सकता है।
- ऐसा व्यक्ति जो घर पर बैठा रहता है, कोई काम नहीं करता और भगवान से जीविका मांगता है, जबकि भगवान ने उसके सामने जीविका के साधन रखे हैं।
- ऐसा व्यक्ति जिसने किसी और को पैसा उधार दिया हो और देनदार उससे इनकार करता हो। फिर वह भगवान से अपनी संपत्ति वापस करने के लिए दुआ करता है, इस स्थिति में भगवान ने उसे गवाह बनाने का निर्देश दिया था।[४०] दो बिंदुओ पर ध्यान दिया जाना चाहिए पहला यह कि ये केवल उन मामलों के उदाहरण हैं जहां लोग दुआ का अर्थ यह सोचते है कि दुआ अर्थात काम, प्रयास, गंभीरता और योजना बनाने की छुट्टी है, केवल प्रार्थना के माध्यम से अपने मामलों को व्यवस्थित करना चाहते हैं। अर्थात यह सोचते है कि कुछ करने की ज़रूरत नही है केवल दुआ करो सब हो जाएगा। दूसरा यह है कि जो उल्लेख किया गया है इन रिवायतों में सिर्फ इस बात पर ध्यान देना है कि हर समस्या का समाधान होता है, न कि जिस किसी को अपनी पत्नी से समस्या है उसे तलाक के विकल्प के बारे में ही सोचना चाहिए या किसी को अपने पड़ोसी से समस्या है तो उसे अपना निवास स्थान बदलने के बारे मे सोचना चाहिए।
दुआ क़बूल होने मे देरी की बुद्धिमत्ता
अल्लामा तबातबाई के अनुसार, शर्तों का पालन करके दुआ का क़बूल होना और बाधाओं को दूर करना ईश्वर की निश्चित और यक़ीनी सुन्नतो मे से एक है।[४१] लेकिन कभी-कभी, हितों और बुद्धिमत्ता के कारण, दुआ क़बूल होने मे देरी होती है।[४२] इनमें से कुछ बुद्धिमत्ताएं इस प्रकार हैं:
- दुआ क़बूल होने की बुद्धिमत्ता बंदे के हित मे न होना: कभी-कभी कोई व्यक्ति परमेश्वर से ऐसी चीज़ या अनुरोध करता है जो उसके हित में नहीं होती है, इसलिए परमेश्वर उस दुआ को क़बूल करने मे देरी करता हैं या क़बूल नहीं करता। क़ुरआन में, मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहा गया है कि कभी-कभी आपको कोई ऐसी चीज़ पसंद आती है जो आपके लिए हानिकारक होती है या आप किसी ऐसी चीज़ से नफरत करते हैं जो आपके लिए फायदेमंद होती है, जबकि ईश्वर आपके सर्वोत्तम हित को आपसे बेहतर जानता है।[४३] इमाम अली (अ) भी अपने बेटे इमाम हसन (अ) को संबोधित करते हुए फ़रमाते हैं: बहुत सी चीज़ें है जो तुम चाहते हो, लेकिन उनमे तुम्हारे धर्म और तुम्हारी दुनिया का विनाश है।[४४]
- नहज अल-बलाग़ा मे इमाम हसन (अ) के नाम इमाम अली (अ) के पत्र मे दुआ क़बूल होने मे देरी की तीन बुद्धिमत्ताओ का उल्लेख किया गया है: कभी-कभी किसी व्यक्ति के इरादे और नियत में कोई समस्या (मुश्किल) होती है, कभी-कभी परमेश्वर उस व्यक्ति को दुआ क़बूल होने से अधिक सवाब देने का इरादा रखता है और कभी-कभी परमेश्वर उससे बेहतर कोई चीज़ किसी दूसरे अवसर पर से देना चाहता है।[४५] इमाम सज्जाद (अ) से भी नक़्ल हुआ है: "एक आस्तिक की दुआ के तीन लाभों मे से एक है : या तो यह उसके लिए बचा लिया गया है अर्थात उसके लिए आख़ेरत के लिए जमा कर लिया गया है, या यह दुआ इस दुनिया मे क़बूल होती है, या यह दुआ एक ऐसी विपत्ति और मुश्किल को उससे दूर करती है जो उस पर आने वाली थी।"[४६]
मुस्तजाब अल दावा
- मुख्य लेख: मुस्तजाब अल दावा
मुस्तजाब अल दावा उस व्यक्ति को कहा जाता है जिसकी दुआ क़बूल होती है या उसकी प्रार्थना आकर्षक होती है।[४७] हदीसों मे अपने बच्चों के लिए माता-पिता की दुआ, ज़ालिम के खिलाफ मज़लूम की दुआ, इमाम और आदिल नेता की अपने लोगो के हक मे दुआ, और एक आस्तिक की अपने मोमिन भाई के लिए दुआ उन दुआओ मे से हैं जो अस्वीकार नही की जाती।[४८]
इमाम हसन (अ) की रिवायत में यह भी उल्लेख किया गया है कि यदि कोई अपने दिल से सावधान रहता है कि वह उन चीजों में प्रवेश न करे जो ईश्वर को प्रसन्न नहीं करती हैं, तो मैं गारंटी देता हूं कि वह मुस्तजाब अल दावा होगा।[४९]
फ़ुटनोट
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नोट
- ↑ مَنْ تَقَدَّمَ فِي الدُّعَاءِ اسْتُجِيبَ لَهُ إِذَا نَزَلَ بِهِ الْبَلَاءُ وَ قَالَتِ الْمَلَائِكَةُ صَوْتٌ مَعْرُوفٌ وَ لَمْ يُحْجَبْ عَنِ السَّمَاءِ وَ مَنْ لَمْ يَتَقَدَّمْ فِي الدُّعَاءِ لَمْ يُسْتَجَبْ لَهُ إِذَا نَزَلَ بِهِ الْبَلَاءُ وَ قَالَتِ الْمَلَائِكَةُ إِنَّ ذَا الصَّوْتَ لَا نَعْرِفُهُ. मन तक़द्दमा फ़िद दुआइस तोजीबा लहू इज़ा नज़ला बेहिल बलाओ व क़ालतिल मलाएकतो सौतुन मारूफ़ुन वलम योहजब अनिस्समाए व मन लम यतक़द्दम फ़िद दुआए लम युस्तजिब लहू इज़ा नज़ला बेहिल बलाओ व क़ालतिल मलाएकतो इन्ना ज़स सौता ला नअरेफ़ोहू
- ↑ الامام الرضا(ع):...وعليك بالصدق وطلب الحلال ، وصلة الرحم अल इमाम अल रज़ा (अ) ... व अलैका बिस सिद्क़े व तलबिल हलाले, वस सिलतिर रहमे
स्रोत
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- इब्न शैयबा हर्रानी, हसन बिन अली, तोहफ़ अल उक़ूल, संशोधक अली अकबर ग़फ़्फ़ारी, क़ुम, जामे अल मुदर्रेसीन, 1404 हिजरी
- इब्न मंज़ूर, मुहम्मद बिन मुकर्रम, लेसान अल अरब, बैरुत, दार अल फ़िक्र, 1414 हिजरी
- इब्न फ़हद हिल्ली, अहमद बिन मुहम्मद, इद्दत अल दाई व नेजाह अल साई, संशोधनकर्ताः अहमद मुवाहेदी क़ुम्मी, तेहरान, दार अल कुतुब अल इस्लामीया, 1407 हिजरी
- अश्अरी, क़ुम्मी, अहमद बिन मुहम्मद बिन ईसा, अल नवादिर, क़ुम, मोअस्सेसा इमाम हादी, 1408 हिजरी
- तिरमिज़ी, मुहम्मद बिन ईसा, सुनन अल तिरमिज़ी व होवा अल जामे अल सहीह, भगा 3, व 5, चाप अब्दुर रहमान मुहम्मद उस्मानुफ़ बैरुत, 1403 हिजरी
- हुर्रे आमोली, मुहम्मद बिन हसन, वसाइल अल शिया, क़ुम, मोअस्सेसा आले अलबैत (अ), 1409 हिजरी
- दहख़ुदा, लुगत नामा तेहरान, इंतेशारात दानिश गाह तेहारन, 1377 शम्सी
- सदूक़, मुहम्मद बिन अली, अल आमाली, क़ुम, नश्र मोअस्सेसा बेसत, 1417 हिजरी
- सदूक़, मुहम्मद बिन अली, मआनी अल अख़बार, संशोधनकर्ता अली अकबर ग़फ़्फ़ारी, क़ुम, दफ्तर इंतेशारात इस्लामी, 1403 हिजरी
- तबातबाई, सय्यद मुहम्मद हुसैन, अल मीज़ान फ़ी तफसीर अल क़ुरआन, बैरुत, मोअस्सेसा अल आलमी लिल मतबूआत, 1390 हिजरी
- तूसी, मुहम्मद बिन हसन, तहज़ीब अल अहकाम, चाप हसन मूसवी ख़िरसान, बैरूत, 1401 हिजरी
- तूसी, मुहम्मद बिन हसन, मिस्बाह अल मुजतहिद, बैरुत, मोअस्सेसा फ़िक़्ह अल शिया, 1411 हिजरी
- फ़ख़्रे राज़ी, मुहम्मद बिन उमर, अल तफ़सीर अल कबीर, बैरुत, दार एहया अल तुरास अल अरबी, 1420 हिजरी
- क़ाज़ी नौमान, नौमान बिन मुहम्मद, दआइम अल इस्लाम व ज़िक अल हलाल वल हराम व अल क़ज़ाया वल अहकाम, चाप आसिफ़ बिन अली असगर फ़ैज़ी, काहिरा, 1963-1965 ईस्वी, चाप उफसत, क़ुम
- क़राती, मोहसिन, तफसीर नूर, तेहरान, मरकज़ फ़रहंगी दरस हाए अज़ क़ुरआन, 1388 शम्सी
- कुलैनी, मुहम्मद बिन याक़ूब, अल काफ़ी, तेहरान, दार अल कुतुब अल इस्लामीया, 1407 हिजरी
- मुत्तक़ी हिंदी, अली बिन हेसामुद्दीन, कंज़ उल उम्माल फ़ी सुनन अल अक़वाल व अल अफ़आल, चाप बिकरी हयानी व सफ़वत सक़्क़ा, बैरुत, 1409 हिजरी
- मजलिसी, मुहम्मद बाक़िर, बिहार उल अनवार, बैरुत, दार एहया अल तुरास अल अरबी, 1403 हिजरी
- मकारिम शिराज़ी, नासिर, तफसीर नमूना, तेहरान, दार अल कुतुब अल इस्लामीया, 1371 शम्सी