सहीफ़ा सज्जादिया की पैंतालीसीं दुआ
शाबान 1102 में अब्दुल्लाह यज़्दी द्वारा लिखित साहिफ़ा सज्जादिया की पांडुलिपि | |
अन्य नाम | भलाई का आग्रह करने की दुआ |
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विषय | रमज़ान के महीने को अलविदा करते समय पढ़ी जाने वाली दुआ, रमज़ान के महीने की विशेषताएँ, ईश्वर के प्रति आभार |
प्रभावी/अप्रभावी | प्रभावी |
किस से नक़्ल हुई | इमाम सज्जाद (अ) |
कथावाचक | मुतवक्किल बिन हारुन |
शिया स्रोत | सहीफ़ा सज्जादिया |
सहीफ़ा सज्जादियी की पैंतालीसवीं दुआ (अरबीःالدعاء الخامس والأربعون من الصحيفة السجادية) इमाम सज्जाद (अ) की प्रसिद्ध दुआओ मे से एक है, जिसे आप रमज़ान के महीने को करते समय पढ़ते थे। इस दुआ में इमाम सज्जाद (अ) न केवल मनुष्यों पर ईश्वर के नेमत और सेवकों की आवश्यकता की कमी का उल्लेख करते हैं, बल्कि ईश्वर को उनके उपहारों के लिए धन्यवाद भी देते हैं। इस दुआ में हज़रत ज़ैनुल अबेदीन (अ) रमज़ान के महीने की फ़ज़ीलतो को सूचीबद्ध करते हुए उसे अलविदा कहते हैं और ईश्वर से अगले साल भी रमज़ान को सार्थक बनाने की दुआ करते हैं। ईद-उल-फित्र को पश्चाताप की आवश्यकता और दूसरों के लिए दुआ, साथ ही मुहम्मद (स) और उनके परिवार के लिए दुआ, इस दुआ के अन्य विषय हैं।
इस दुआ की व्याख्या का उल्लेख भी सहीफ़ा सज्जादिया की व्याख्याओ मे किया गया है जैसे फ़ारसी में हुसैन अंसारियान द्वारा लिखित दयारे अशेक़ान और हसन ममदूही किरमानशाही द्वारा लिखित शुहुद व शनाख़्त , और अरबी में सय्यद अली ख़ान मदनी द्वारा लिखित पुस्तक रियाज़ अल-सालेकीन मे किया गया है।
शिक्षाएँ
सहीफ़ा सज्जादिया की पैंतालीसवीं दुआ उन दुआओं में से एक है जिसे इमाम सज्जाद (अ) रमज़ान के महीने को विदा करते समय पढ़ते थे। ममदूही किरमानशाही के अनुसार इस दुआ की व्याख्या में, इमाम सज्जाद (अ) ने पैंतालीसवीं दुआ में भावनात्मक अभिव्यक्तियों के साथ इस महीने को विदा कहा। यह इस महीने के कुछ फ़ज़ीलतो और इसमें आस्तिक के कर्तव्यों का भी वर्णन करते है, ताकि यह अगले वर्ष रमज़ान के एक मार्गदर्शक के रूप में काम कर सके।[१] इस दुआ की शिक्षाएँ इस प्रकार हैं:
- अपने सेवकों को दिए गए आशीर्वाद के बदले परमेश्वर द्वरा अज्र न लेना
- अल्लाह को अपने बंदो की कोई आवश्यकता नहीं है
- अल्लाह को अपने सेवकों को नेअमते देने पर कोई पछतावा नहीं है (अल्लाह के यहा पछतावा नहीं है)
- ईश्वर की ज़ात, नाम, गुणो का अनंत होना
- ईश्वर द्वारा बंदों को उनके कर्मों के अनुसार पुरस्कार देना
- ईश्वर का दण्ड उसके न्याय (न्यायपूर्ण दण्ड) के समान ही है।
- परमेश्वर की कृपा से सेवकों के पापों की क्षमा
- परमेश्वर का अपने सेवकों को बिना किसी दायित्व के आशीर्वाद प्रदान करना
- कृतज्ञ सेवकों के प्रति परमेश्वर की कृपा
- सेवकों के पापों को ढकना
- अपने सेवकों के विरोध के प्रति परमेश्वर का धैर्य
- सेवकों के लिए ईश्वरीय क्षमा हेतु पश्चाताप के द्वार का खुला रहना
- परमेश्वर का अपने सेवकों को सच्चे पश्चाताप के लिए बुलावा
- जो व्यक्ति क्षमा के क्षेत्र में प्रवेश करने में लापरवाही बरतता है, उसके लिए कोई बहाना नहीं है।
- क़यामत के दिन पापियों और ईमान वालों की स्थिति
- ईश्वर के साथ लाभदायक सौदा (अच्छे कर्मों के लिए दस गुना पुरस्कार और पापों के लिए उतनी ही सजा)
- विकास और उत्कृष्टता मनुष्य की शक्ति में है।
- ईश्वरीय योजना का मानव स्वभाव के साथ संरेखण
- दुआ करना एक प्रकार की इबादत है और दुआ को छोड़ देना अहंकार है।
- ईश्वरीय आशीर्वाद के लिए सच्चे सेवकों का आभार
- हमें चुने हुए धर्म की ओर मार्गदर्शन करने के लिए ईश्वर को धन्यवाद
- अहंकार दुआ से दूर होने का कारण है।
- क़ुरआन की भाषा लोगों को ईश्वर की ओर आमंत्रित करने का सबसे अच्छा तरीका है।
- अलौकिक रहस्यों को जानने का एकमात्र साधन रहस्योद्घाटन है।
- ईश्वरीय कृपा और अनुग्रह ही ईश्वर की स्तुति का कारण है।
- चुने हुए धर्म और उसे प्रसन्न करने वाले धर्म के लिए ईश्वर का मार्गदर्शन
- क़ुरआन का नाज़िल होना और ईश्वरीय प्रकाश के आशीर्वाद के कारण रमजान के महीने की वर्ष के अन्य सभी समयों से श्रेष्ठता है।
- रमज़ान के महीने में मुसलमानों की अन्य देशों पर श्रेष्ठता
- रमज़ान के पवित्र महीने में दुनिया के लिए सबसे अच्छे लाभ
- रमज़ान के महीने की कठिन और दुखद विदाई
- रमज़ान सबसे प्यारा साथी है (रमज़ान के साथ होने का सुखद एहसास)
- रमजान इच्छाओं और जरूरतों को पूरा करने का महीना है।
- रमज़ान ईश्वर का सबसे महान महीना और ईश्वर के संतों का पर्व है।
- रमज़ान एक ऐसा समय है जब दिल एक दूसरे के प्रति नरम हो जाते हैं।
- पाप के प्रभाव को दूर करने और सामाजिक संबंधों को गहरा करने में रमजान का प्रभाव
- रमज़ान शैतान से लड़ने में सहायक है (रोज़ा शैतान पर विजय पाने का सर्वोत्तम साधन है)
- रमज़ान अनेक पापों की क्षमा का महीना है।
- यात्रा और आचरण में आने वाली बाधाओं को दूर करने में रमजान का प्रभाव
- ईमानवालों के दिलों में रमज़ान के महीने की महानता
- रमज़ान के गुज़रने पर मानवीय दुःख
- शब ए क़द्र हज़ार महीनों से बेहतर है।
- रमज़ान की खूबियों से लाभ उठाने के लिए दुआ करना
- रमज़ान के पवित्र महीने की रात में ईश्वरीय सफलता के लिए दुआ करना
- रमज़ान के दौरान हुई गलतियों और चूकों के लिए ईश्वर से माफ़ी मांगना
- रमज़ान के बकाया की एक छोटी राशि का भुगतान करने की बात स्वीकार करना
- अगले वर्ष रमजान के महीने को समझने और ईश्वर के योग्य पूजा और रमजान के महीने के योग्य आज्ञाकारिता करने के लिए प्रार्थना करता हूं।
- रमज़ान के नुकसान की भरपाई के लिए दुआ करना
- अच्छे कर्मों का श्रेय ईश्वर को और कमियों का श्रेय मनुष्य को देना
- परमेश्वर के प्रिय पश्चातापियों में शामिल होने का अनुरोध।
- रमज़ान में सबसे खुश लोगों में शामिल होने की दुआ करना
- उच्च मानवीय स्थिति प्राप्त करने के लिए जीवन की पूंजी का उपयोग करने की आवश्यकता
- रमज़ान के महीने का हक़ पूरा करने वाले के लिए एक अच्छी दुआ।
- अपराधियों के लिए रमजान का लंबा महीना
- मोमिनों के दिलों में रमज़ान के महीने का खौफ
- रमज़ान के महीने के दिनों का कोई मुकाबला नहीं है।
- रमज़ान के आने से पहले ही इसकी लोकप्रियता और ख़त्म होने से पहले ही इसका दुख
- रमजान के महीने की बरकतों से बुराई का नाश और अच्छाई का स्वागत
- इस महीने में रोज़ा रखने वाले और इस महीने की मासिक मजदूरी देने वाले व्यक्ति के समान सवाब की माँग करना।
- ईश्वर से भय और आशा का स्थान मांगना
- हमें जो दण्ड दिया जाता है उसके भय से मुक्ति पाने के लिए तथा हमें जो पुरस्कार देने का वादा किया गया है उसकी लालसा से मुक्ति पाने के लिए दुआ करना
- दुआ यह समझने के लिए है कि हम परमेश्वर से क्या मांगते हैं, उससे हमें क्या खुशी मिलती है, तथा हम उससे क्या शरण मांगते हैं, उससे हमें क्या दुःख होता है।
- ईद-उल-फ़ित्र को पश्चाताप की आवश्यकता, जिसके बाद पाप की ओर कोई वापसी नहीं होती
- ईद-उल-फ़ित्र, विश्वासियों के लिए खुशी का दिन
- भगवान पर विश्वास रखना
- सभी पिताओं, माताओं और इस्लामी धर्म के लोगों के लिए दुआ करना
- पैगम्बर (स) पर उसी तरह से दुरूद भेजना जिस तरह से करीबी फ़रिश्तों पर दुरूद भेजा जाता हैं
- पैगम्बर और उनके परिवार पर आशीर्वाद का आह्वान करना और उनके आशीर्वाद और लाभों से लाभ उठाना
- पैगम्बर और उनके परिवार पर आशीर्वाद के प्रकाश में दुआओ का उत्तर देने की दुआ करना।
- सलावत पैग़म्बर (स) के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति और उनकी शिक्षाओं को पुनर्जीवित करने का एक तरीका है।[२]
व्याख्याएँ
सहीफ़ा सज्जादिया की पैंतालीसवीं दुआ की भी व्याख्या दूसरी दुआओ की तरह की गई है। यह दुआ हुसैन अंसारियान की पुस्तक दयारे आशेकान,[३] हसन ममदूही किरमानशाही की शुहुद व शनाख्त,[४] और सय्यद अहमद फ़हरी की किताब शरह व तरजुमा सहीफ़ा सज्जादिया[५] मे फ़ारसी भाषा मे व्याख्या की गई है।
इस दुआ और रमज़ान के महीने की स्वागत वाली दुआ के साथ, अली करीमी जहरमी[६] द्वारा लिखित सीमा ए रमज़ान और सरोशे रमज़ान (रमज़ान की शुरुआत और अंत में इमाम सज्जाद की दुआ की शरह) किताबो में वर्णित है। सय्यद रज़ा बाक़िरयान मुवाहिद और अली बाक़री फ़र ने सरोश रमज़ान नामक किताब मे व्याख्या की है। इन दोनो किताबो मे रमज़ान के महीने के विभिन्न पहलुओं, ईद-उल-फ़ित्र की कुछ खूबियों और उस महीने से बाहर निकलने के तौर-तरीकों की जाँच की गई हैं।[७]
सहीफ़ा सज्जादिया की पैंतालीसवीं दुआ सय्यद अली खान मदनी की किताब रियाज़ अल सालेकीन[८] मुहम्मद जवाद मुग्निया की फी ज़िलाल अल-सहीफ़ा सज्जादिया,[९] मुहम्मद बिन मुहम्मद दाराबी की रियाज़ उल आरेफ़ीन[१०] और सय्यद मुहम्मद हुसैन फ़ज़लुल्लाह की आफ़ाक़ अल रूह[११] मे इसका वर्णन अरबी में किया गया है। इस दुआ के शब्दों को फ़ैज़ काशानी द्वारा तालीक़ा अला अल-सहीफ़ा सज्जादिया[१२] और इज़्ज़ुद्दीन जज़ाएरी द्वारा शरह अल-सहीफ़ा अल-सज्जादिया जैसी शाब्दिक टिप्पणियों में भी उल्लेक किया गया है।[१३]
पैतालीसवीं दुआ का पाठ और अनुवाद
وَ كَانَ مِنْ دُعَائِهِ عَلَيْهِ السَّلَامُ فِی وَدَاعِ شَهْرِ رَمَضَانَ
اللَّهُمَّ يَا مَنْ لَا يَرْغَبُ فِي الْجَزَاءِ
وَ يَا مَنْ لَا يَنْدَمُ عَلَى الْعَطَاءِ
وَ يَا مَنْ لَا يُكَافِئُ عَبْدَهُ عَلَى السَّوَاءِ.
مِنَّتُكَ ابْتِدَاءٌ، وَ عَفْوُكَ تَفَضُّلٌ، وَ عُقُوبَتُكَ عَدْلٌ، وَ قَضَاؤُكَ خِيَرَةٌ
إِنْ أَعْطَيْتَ لَمْ تَشُبْ عَطَاءَكَ بِمَنٍّ، وَ إِنْ مَنَعْتَ لَمْ يَكُنْ مَنْعُكَ تَعَدِّياً.
تَشْكُرُ مَنْ شَكَرَكَ وَ أَنْتَ أَلْهَمْتَهُ شُكْرَكَ
وَ تُكَافِئُ مَنْ حَمِدَكَ وَ أَنْتَ عَلَّمْتَهُ حَمْدَكَ.
تَسْتُرُ عَلَى مَنْ لَوْ شِئْتَ فَضَحْتَهُ، وَ تَجُودُ عَلَى مَنْ لَوْ شِئْتَ مَنَعْتَهُ، وَ كِلَاهُمَا أَهْلٌ مِنْكَ لِلْفَضِيحَةِ وَ الْمَنْعِ غَيْرَ أَنَّكَ بَنَيْتَ أَفْعَالَكَ عَلَى التَّفَضُّلِ، وَ أَجْرَيْتَ قُدْرَتَكَ عَلَى التَّجَاوُزِ
وَ تَلَقَّيْتَ مَنْ عَصَاكَ بِالْحِلْمِ، وَ أَمْهَلْتَ مَنْ قَصَدَ لِنَفْسِهِ بِالظُّلْمِ، تَسْتَنْظِرُهُمْ بِأَنَاتِكَ إِلَى الْإِنَابَةِ، وَ تَتْرُكُ مُعَاجَلَتَهُمْ إِلَى التَّوْبَةِ لِكَيْلَا يَهْلِكَ عَلَيْكَ هَالِكُهُمْ، وَ لَا يَشْقَى بِنِعْمَتِكَ شَقِيُّهُمْ إِلَّا عَنْ طُولِ الْإِعْذَارِ إِلَيْهِ، وَ بَعْدَ تَرَادُفِ الْحُجَّةِ عَلَيْهِ، كَرَماً مِنْ عَفْوِكَ يَا كَرِيمُ، وَ عَائِدَةً مِنْ عَطْفِكَ يَا حَلِيمُ.
أَنْتَ الَّذِي فَتَحْتَ لِعِبَادِكَ بَاباً إِلَى عَفْوِكَ، وَ سَمَّيْتَهُ التَّوْبَةَ، وَ جَعَلْتَ عَلَى ذَلِكَ الْبَابِ دَلِيلًا مِنْ وَحْيِكَ لِئَلَّا يَضِلُّوا عَنْهُ، فَقُلْتَ- تَبَارَكَ اسْمُكَ-: «تُوبُوا إِلَى اللَّهِ تَوْبَةً نَصُوحاً عَسى رَبُّكُمْ أَنْ يُكَفِّرَ عَنْكُمْ سَيِّئاتِكُمْ وَ يُدْخِلَكُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِنْ تَحْتِهَا الْأَنْهارُ
يَوْمَ لا يُخْزِي اللَّهُ النَّبِيَّ وَ الَّذِينَ آمَنُوا مَعَهُ، نُورُهُمْ يَسْعى بَيْنَ أَيْدِيهِمْ وَ بِأَيْمانِهِمْ، يَقُولُونَ: رَبَّنا أَتْمِمْ لَنا نُورَنا، وَ اغْفِرْ لَنا، إِنَّكَ عَلى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ» فَمَا عُذْرُ مَنْ أَغْفَلَ دُخُولَ ذَلِكَ الْمَنْزِلِ بَعْدَ فَتْحِ الْبَابِ وَ إِقَامَةِ الدَّلِيلِ!
وَ أَنْتَ الَّذِي زِدْتَ فِي السَّوْمِ عَلَى نَفْسِكَ لِعِبَادِكَ، تُرِيدُ رِبْحَهُمْ فِي مُتَاجَرَتِهِمْ لَكَ، وَ فَوْزَهُمْ بِالْوِفَادَةِ عَلَيْكَ، وَ الزِّيَادَةِ مِنْكَ، فَقُلْتَ- تَبَارَكَ اسْمُكَ وَ تَعَالَيْتَ-: «مَنْ جاءَ بِالْحَسَنَةِ فَلَهُ عَشْرُ أَمْثالِها، وَ مَنْ جاءَ بِالسَّيِّئَةِ فَلا يُجْزى إِلَّا مِثْلَها».
وَ قُلْتَ: «مَثَلُ الَّذِينَ يُنْفِقُونَ أَمْوالَهُمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ كَمَثَلِ حَبَّةٍ أَنْبَتَتْ سَبْعَ سَنابِلَ فِي كُلِّ سُنْبُلَةٍ مِائَةُ حَبَّةٍ، وَ اللَّهُ يُضاعِفُ لِمَنْ يَشاءُ» وَ قُلْتَ: «مَنْ ذَا الَّذِي يُقْرِضُ اللَّهَ قَرْضاً حَسَناً فَيُضاعِفَهُ لَهُ أَضْعافاً كَثِيرَةً» وَ مَا أَنْزَلْتَ مِنْ نَظَائِرِهِنَّ فِي الْقُرْآنِ مِنْ تَضَاعِيفِ الْحَسَنَاتِ.
وَ أَنْتَ الَّذِي دَلَلْتَهُمْ بِقَوْلِكَ مِنْ غَيْبِكَ وَ تَرْغِيبِكَ الَّذِي فِيهِ حَظُّهُمْ عَلَى مَا لَوْ سَتَرْتَهُ عَنْهُمْ لَمْ تُدْرِكْهُ أَبْصَارُهُمْ، وَ لَمْ تَعِهِ أَسْمَاعُهُمْ، وَ لَمْ تَلْحَقْهُ أَوْهَامُهُمْ، فَقُلْتَ: «فَاذْكُرُونِي أَذْكُرْكُمْ، وَ اشْكُرُوا لِي وَ لا تَكْفُرُونِ»وَ قُلْتَ: «لَئِنْ شَكَرْتُمْ لَأَزِيدَنَّكُمْ، وَ لَئِنْ كَفَرْتُمْ إِنَّ عَذابِي لَشَدِيدٌ».
وَ قُلْتَ: «ادْعُونِي أَسْتَجِبْ لَكُمْ، إِنَّ الَّذِينَ يَسْتَكْبِرُونَ عَنْ عِبادَتِي سَيَدْخُلُونَ جَهَنَّمَ داخِرِينَ»، فَسَمَّيْتَ دُعَاءَكَ عِبَادَةً، وَ تَرْكَهُ اسْتِكْبَاراً، وَ تَوَعَّدْتَ عَلَى تَرْكِهِ دُخُولَ جَهَنَّمَ دَاخِرِينَ.
فَذَكَرُوكَ بِمَنِّكَ، وَ شَكَرُوكَ بِفَضْلِكَ، وَ دَعَوْكَ بِأَمْرِكَ، وَ تَصَدَّقُوا لَكَ طَلَباً لِمَزِيدِكَ، وَ فِيهَا كَانَتْ نَجَاتُهُمْ مِنْ غَضَبِكَ، وَ فَوْزُهُمْ بِرِضَاكَ.
وَ لَوْ دَلَّ مَخْلُوقٌ مَخْلُوقاً مِنْ نَفْسِهِ عَلَى مِثْلِ الَّذِي دَلَلْتَ عَلَيْهِ عِبَادَكَ مِنْكَ كَانَ مَوْصُوفاً بِالْإِحْسَانِ، وَ مَنْعُوتاً بِالامْتِنَانِ، وَ مَحْمُوداً بِكُلِّ لِسَانٍ، فَلَكَ الْحَمْدُ مَا وُجِدَ فِي حَمْدِكَ مَذْهَبٌ، وَ مَا بَقِيَ لِلْحَمْدِ لَفْظٌ تُحْمَدُ بِهِ، وَ مَعْنًى يَنْصَرِفُ إِلَيْهِ.
يَا مَنْ تَحَمَّدَ إِلَى عِبَادِهِ بِالْإِحْسَانِ وَ الْفَضْلِ، وَ غَمَرَهُمْ بِالْمَنِّ وَ الطَّوْلِ، مَا أَفْشَى فِينَا نِعْمَتَكَ، وَ أَسْبَغَ عَلَيْنَا مِنَّتَكَ، وَ أَخَصَّنَا بِبِرِّكَ!
هَدَيْتَنَا لِدِينِكَ الَّذِي اصْطَفَيْتَ، وَ مِلَّتِكَ الَّتِي ارْتَضَيْتَ، وَ سَبِيلِكَ الَّذِي سَهَّلْتَ، وَ بَصَّرْتَنَا الزُّلْفَةَ لَدَيْكَ، وَ الْوُصُولَ إِلَى كَرَامَتِكَ
اللَّهُمَّ وَ أَنْتَ جَعَلْتَ مِنْ صَفَايَا تِلْكَ الْوَظَائِفِ، وَ خَصَائِصِ تِلْكَ الْفُرُوضِ شَهْرَ رَمَضَانَ الَّذِي اخْتَصَصْتَهُ مِنْ سَائِرِ الشُّهُورِ، وَ تَخَيَّرْتَهُ مِنْ جَمِيعِ الْأَزْمِنَةِ وَ الدُّهُورِ، وَ آثَرْتَهُ عَلَى كُلِّ أَوْقَاتِ السَّنَةِ بِمَا أَنْزَلْتَ فِيهِ مِنَ الْقُرْآنِ وَ النُّورِ، وَ ضَاعَفْتَ فِيهِ مِنَ الْإِيمَانِ، وَ فَرَضْتَ فِيهِ مِنَ الصِّيَامِ، وَ رَغَّبْتَ فِيهِ مِنَ الْقِيَامِ، وَ أَجْلَلْتَ فِيهِ مِنْ لَيْلَةِ الْقَدْرِ الَّتِي هِيَ خَيْرٌ مِنْ أَلْفِ شَهْرٍ.
ثُمَّ آثَرْتَنَا بِهِ عَلَى سَائِرِ الْأُمَمِ، وَ اصْطَفَيْتَنَا بِفَضْلِهِ دُونَ أَهْلِ الْمِلَلِ، فَصُمْنَا بِأَمْرِكَ نَهَارَهُ، وَ قُمْنَا بِعَوْنِكَ لَيْلَهُ، مُتَعَرِّضِينَ بِصِيَامِهِ وَ قِيَامِهِ لِمَا عَرَّضْتَنَا لَهُ مِنْ رَحْمَتِكَ، وَ تَسَبَّبْنَا إِلَيْهِ مِنْ مَثُوبَتِكَ، وَ أَنْتَ الْمَلِيءُ بِمَا رُغِبَ فِيهِ إِلَيْكَ، الْجَوَادُ بِمَا سُئِلْتَ مِنْ فَضْلِكَ، الْقَرِيبُ إِلَى مَنْ حَاوَلَ قُرْبَكَ.
وَ قَدْ أَقَامَ فِينَا هَذَا الشَّهْرُ مُقَامَ حَمْدٍ، وَ صَحِبَنَا صُحْبَةَ مَبْرُورٍ، وَ أَرْبَحَنَا أَفْضَلَ أَرْبَاحِ الْعَالَمِينَ، ثُمَّ قَدْ فَارَقَنَا عِنْدَ تَمَامِ وَقْتِهِ، وَ انْقِطَاعِ مُدَّتِهِ، وَ وَفَاءِ عَدَدِهِ.
فَنَحْنُ مُوَدِّعُوهُ وِدَاعَ مَنْ عَزَّ فِرَاقُهُ عَلَيْنَا، وَ غَمَّنَا وَ أَوْحَشَنَا انْصِرَافُهُ عَنَّا، وَ لَزِمَنَا لَهُ الذِّمَامُ الْمَحْفُوظُ، وَ الْحُرْمَةُ الْمَرْعِيَّةُ، وَ الْحَقُّ الْمَقْضِيُّ، فَنَحْنُ قَائِلُونَ: السَّلَامُ عَلَيْكَ يَا شَهْرَ اللَّهِ الْأَكْبَرَ، وَ يَا عِيدَ أَوْلِيَائِهِ.
السَّلَامُ عَلَيْكَ يَا أَكْرَمَ مَصْحُوبٍ مِنَ الْأَوْقَاتِ، وَ يَا خَيْرَ شَهْرٍ فِي الْأَيَّامِ وَ السَّاعَاتِ.
السَّلَامُ عَلَيْكَ مِنْ شَهْرٍ قَرُبَتْ فِيهِ الْآمَالُ، وَ نُشِرَتْ فِيهِ الْأَعْمَالُ.
السَّلَامُ عَلَيْكَ مِنْ قَرِينٍ جَلَّ قَدْرُهُ مَوْجُوداً، وَ أَفْجَعَ فَقْدُهُ مَفْقُوداً، وَ مَرْجُوٍّ آلَمَ فِرَاقُهُ.
السَّلَامُ عَلَيْكَ مِنْ أَلِيفٍ آنَسَ مُقْبِلًا فَسَرَّ، وَ أَوْحَشَ مُنْقَضِياً فَمَضَّ
السَّلَامُ عَلَيْكَ مِنْ مُجَاوِرٍ رَقَّتْ فِيهِ الْقُلُوبُ، وَ قَلَّتْ فِيهِ الذُّنُوبُ.
السَّلَامُ عَلَيْكَ مِنْ نَاصِرٍ أَعَانَ عَلَى الشَّيْطَانِ، وَ صَاحِبٍ سَهَّلَ سُبُلَ الْإِحْسَانِ
السَّلَامُ عَلَيْكَ مَا أَكْثَرَ عُتَقَاءَ اللَّهِ فِيكَ، وَ مَا أَسْعَدَ مَنْ رَعَى حُرْمَتَكَ بِكَ!
السَّلَامُ عَلَيْكَ مَا كَانَ أَمْحَاكَ لِلذُّنُوبِ، وَ أَسْتَرَكَ لِأَنْوَاعِ الْعُيُوبِ!
السَّلَامُ عَلَيْكَ مَا كَانَ أَطْوَلَكَ عَلَى الْمُجْرِمِينَ، وَ أَهْيَبَكَ فِي صُدُورِ الْمُؤْمِنِينَ!
السَّلَامُ عَلَيْكَ مِنْ شَهْرٍ لَا تُنَافِسُهُ الْأَيَّامُ.
السَّلَامُ عَلَيْكَ مِنْ شَهْرٍ هُوَ مِنْ كُلِّ أَمْرٍ سَلَامٌ
السَّلَامُ عَلَيْكَ غَيْرَ كَرِيهِ الْمُصَاحَبَةِ، وَ لَا ذَمِيمِ الْمُلَابَسَةِ
السَّلَامُ عَلَيْكَ كَمَا وَفَدْتَ عَلَيْنَا بِالْبَرَكَاتِ، وَ غَسَلْتَ عَنَّا دَنَسَ الْخَطِيئَاتِ
السَّلَامُ عَلَيْكَ غَيْرَ مُوَدَّعٍ بَرَماً وَ لَا مَتْرُوكٍ صِيَامُهُ سَأَماً.
السَّلَامُ عَلَيْكَ مِنْ مَطْلُوبٍ قَبْلَ وَقْتِهِ، وَ مَحْزُونٍ عَلَيْهِ قَبْلَ فَوْتِهِ.
السَّلَامُ عَلَيْكَ كَمْ مِنْ سُوءٍ صُرِفَ بِكَ عَنَّا، وَ كَمْ مِنْ خَيْرٍ أُفِيضَ بِكَ عَلَيْنَا
السَّلَامُ عَلَيْكَ وَ عَلَى لَيْلَةِ الْقَدْرِ الَّتِي هِيَ خَيْرٌ مِنْ أَلْفِ شَهْرٍ
السَّلَامُ عَلَيْكَ مَا كَانَ أَحْرَصَنَا بِالْأَمْسِ عَلَيْكَ، وَ أَشَدَّ شَوْقَنَا غَداً إِلَيْكَ.
السَّلَامُ عَلَيْكَ وَ عَلَى فَضْلِكَ الَّذِي حُرِمْنَاهُ، وَ عَلَى مَاضٍ مِنْ بَرَكَاتِكَ سُلِبْنَاهُ.
اللَّهُمَّ إِنَّا أَهْلُ هَذَا الشَّهْرِ الَّذِي شَرَّفْتَنَا بِهِ، وَ وَفَّقْتَنَا بِمَنِّكَ لَهُ حِينَ جَهِلَ الْأَشْقِيَاءُ وَقْتَهُ، وَ حُرِمُوا لِشَقَائِهِمْ فَضْلَهُ.
أَنْتَ وَلِيُّ مَا آثَرْتَنَا بِهِ مِنْ مَعْرِفَتِهِ، وَ هَدَيْتَنَا لَهُ مِنْ سُنَّتِهِ، وَ قَدْ تَوَلَّيْنَا بِتَوْفِيقِكَ صِيَامَهُ وَ قِيَامَهُ عَلَى تَقْصِيرٍ، وَ أَدَّيْنَا فِيهِ قَلِيلًا مِنْ كَثِيرٍ.
اللَّهُمَّ فَلَكَ الْحَمْدُ إِقْرَاراً بِالْإِسَاءَةِ، وَ اعْتِرَافاً بِالْإِضَاعَةِ، وَ لَكَ مِنْ قُلُوبِنَا عَقْدُ النَّدَمِ، وَ مِنْ أَلْسِنَتِنَا صِدْقُ الِاعْتِذَارِ، فَأْجُرْنَا عَلَى مَا أَصَابَنَا فِيهِ مِنَ التَّفْرِيطِ أَجْراً نَسْتَدْرِكُ بِهِ الْفَضْلَ الْمَرْغُوبَ فِيهِ، وَ نَعْتَاضُ بِهِ مِنْ أَنْوَاعِ الذُّخْرِ الْمَحْرُوصِ عَلَيْهِ.
وَ أَوْجِبْ لَنَا عُذْرَكَ عَلَى مَا قَصَّرْنَا فِيهِ مِنْ حَقِّكَ، وَ ابْلُغْ بِأَعْمَارِنَا مَا بَيْنَ أَيْدِينَا مِنْ شَهْرِ رَمَضَانَ الْمُقْبِلِ، فَإِذَا بَلَّغْتَنَاهُ فَأَعِنِّا عَلَى تَنَاوُلِ مَا أَنْتَ أَهْلُهُ مِنَ الْعِبَادَةِ، وَ أَدِّنَا إِلَى الْقِيَامِ بِمَا يَسْتَحِقُّهُ مِنَ الطَّاعَةِ، وَ أَجْرِ لَنَا مِنْ صَالِحِ الْعَمَلِ مَا يَكُونُ دَرَكاً لِحَقِّكَ فِي الشَّهْرَيْنِ مِنْ شُهُورِ الدَّهْرِ.
اللَّهُمَّ وَ مَا أَلْمَمْنَا بِهِ فِي شَهْرِنَا هَذَا مِنْ لَمَمٍ أَوْ إِثْمٍ، أَوْ وَاقَعْنَا فِيهِ مِنْ ذَنْبٍ، وَ اكْتَسَبْنَا فِيهِ مِنْ خَطِيئَةٍ عَلَى تَعَمُّدٍ مِنَّا، أَوْ عَلَى نِسْيَانٍ ظَلَمْنَا فِيهِ أَنْفُسَنَا، أَوِ انْتَهَكْنَا بِهِ حُرْمَةً مِنْ غَيْرِنَا، فَصَلِّ عَلَى مُحَمَّدٍ وَ آلِهِ، وَ اسْتُرْنَا بِسِتْرِكَ، وَ اعْفُ عَنَّا بِعَفْوِكَ، وَ لَا تَنْصِبْنَا فِيهِ لِأَعْيُنِ الشَّامِتِينَ، وَ لَا تَبْسُطْ عَلَيْنَا فِيهِ أَلْسُنَ الطَّاعِنِينَ، وَ اسْتَعْمِلْنَا بِمَا يَكُونُ حِطَّةً وَ كَفَّارَةً لِمَا أَنْكَرْتَ مِنَّا فِيهِ بِرَأْفَتِكَ الَّتِي لَا تَنْفَدُ، وَ فَضْلِكَ الَّذِي لَا يَنْقُصُ.
اللَّهُمَّ صَلِّ عَلَى مُحَمَّدٍ وَ آلِهِ، وَ اجْبُرْ مُصِيبَتَنَا بِشَهْرِنَا، وَ بَارِكْ لَنَا فِي يَوْمِ عِيدِنَا وَ فِطْرِنَا، وَ اجْعَلْهُ مِنْ خَيْرِ يَوْمٍ مَرَّ عَلَيْنَا أَجْلَبِهِ لِعَفْوٍ، وَ أَمْحَاهُ لِذَنْبٍ، وَ اغْفِرْ لَنَا مَا خَفِيَ مِنْ ذُنُوبِنَا وَ مَا عَلَنَ.
اللَّهُمَّ اسْلَخْنَا بِانْسِلَاخِ هَذَا الشَّهْرِ مِنْ خَطَايَانَا، وَ أَخْرِجْنَا بِخُرُوجِهِ مِنْ سَيِّئَاتِنَا، وَ اجْعَلْنَا مِنْ أَسْعَدِ أَهْلِهِ بِهِ، وَ أَجْزَلِهِمْ قِسْماً فِيهِ، وَ أَوْفَرِهِمْ حَظّاً مِنْهُ.
اللَّهُمَّ وَ مَنْ رَعَى هَذَا الشَّهْرَ حَقَّ رِعَايَتِهِ، وَ حَفِظَ حُرْمَتَهُ حَقَّ حِفْظِهَا، وَ قَامَ بِحُدُودِهِ حَقَّ قِيَامِهَا، وَ اتَّقَى ذُنُوبَهُ حَقَّ تُقَاتِهَا، أَوْ تَقَرَّبَ إِلَيْكَ بِقُرْبَةٍ أَوْجَبَتْ رِضَاكَ لَهُ، وَ عَطَفَتْ رَحْمَتَكَ عَلَيْهِ، فَهَبْ لَنَا مِثْلَهُ مِنْ وُجْدِكَ، وَ أَعْطِنَا أَضْعَافَهُ مِنْ فَضْلِكَ، فَإِنَّ فَضْلَكَ لَا يَغِيضُ، وَ إِنَّ خَزَائِنَكَ لَا تَنْقُصُ بَلْ تَفِيضُ، وَ إِنَّ مَعَادِنَ إِحْسَانِكَ لَا تَفْنَى، وَ إِنَّ عَطَاءَكَ لَلْعَطَاءُ الْمُهَنَّا.
اللَّهُمَّ صَلِّ عَلَى مُحَمَّدٍ وَ آلِهِ، وَ اكْتُبْ لَنَا مِثْلَ أُجُورِ مَنْ صَامَهُ، أَوْ تَعَبَّدَ لَكَ فِيهِ إِلَى يَوْمِ الْقِيَامَةِ.
اللَّهُمَّ إِنَّا نَتُوبُ إِلَيْكَ فِي يَوْمِ فِطْرِنَا الَّذِي جَعَلْتَهُ لِلْمُؤْمِنِينَ عِيداً وَ سُرُوراً، وَ لِأَهْلِ مِلَّتِكَ مَجْمَعاً وَ مُحْتَشَداً مِنْ كُلِّ ذَنْبٍ أَذْنَبْنَاهُ، أَوْ سُوءٍ أَسْلَفْنَاهُ، أَوْ خَاطِرِ شَرٍّ أَضْمَرْنَاهُ، تَوْبَةَ مَنْ لَا يَنْطَوِي عَلَى رُجُوعٍ إِلَى ذَنْبٍ، وَ لَا يَعُودُ بَعْدَهَا فِي خَطِيئَةٍ، تَوْبَةً نَصُوحاً خَلَصَتْ مِنَ الشَّكِّ وَ الِارْتِيَابِ، فَتَقَبَّلْهَا مِنَّا، وَ ارْضَ عَنَّا، وَ ثَبِّتْنَا عَلَيْهَا.
اللَّهُمَّ ارْزُقْنَا خَوْفَ عِقَابِ الْوَعِيدِ، وَ شَوْقَ ثَوَابِ الْمَوْعُودِ حَتَّى نَجِدَ لَذَّةَ مَا نَدْعُوكَ بِهِ، وَ كَأْبَةَ مَا نَسْتَجِيرُكَ مِنْهُ.
अल्लाहुम्मा उरज़ुक़ना ख़ौफ़ा ऐक़ाबिल वईदे, व शौक़ा सवाबिल मौऊदे हत्ता नजेदा लज़्ज़ता मा नदऊका बेहि, व कआबता मा नस्तजीरोका मिन्हो
وَ اجْعَلْنَا عِنْدَكَ مِنَ التَّوَّابِينَ الَّذِينَ أَوْجَبْتَ لَهُمْ مَحَبَّتَكَ، وَ قَبِلْتَ مِنْهُمْ مُرَاجَعَةَ طَاعَتِكَ، يَا أَعْدَلَ الْعَادِلِينَ.
اللَّهُمَّ تَجَاوَزْ عَنْ آبَائِنَا وَ أُمَّهَاتِنَا وَ أَهْلِ دِينِنَا جَمِيعاً مَنْ سَلَفَ مِنْهُمْ وَ مَنْ غَبَرَ إِلَى يَوْمِ الْقِيَامَةِ.
اللَّهُمَّ صَلِّ عَلَى مُحَمَّدٍ نَبِيِّنَا وَ آلِهِ كَمَا صَلَّيْتَ عَلَى مَلَائِكَتِكَ الْمُقَرَّبِينَ، وَ صَلِّ عَلَيْهِ وَ آلِهِ كَمَا صَلَّيْتَ عَلَى أَنْبِيَائِكَ الْمُرْسَلِينَ، وَ صَلِّ عَلَيْهِ وَ آلِهِ كَمَا صَلَّيْتَ عَلَى عِبَادِكَ الصَّالِحِينَ، وَ أَفْضَلَ مِنْ ذَلِكَ يَا رَبَّ الْعَالَمِينَ، صَلَاةً تَبْلُغُنَا بَرَكَتُهَا، وَ يَنَالُنَا نَفْعُهَا، وَ يُسْتَجَابُ لَهَا دُعَاؤُنَا، إِنَّكَ أَكْرَمُ مَنْ رُغِبَ إِلَيْهِ، وَ أَكْفَى مَنْ تُوُكِّلَ عَلَيْهِ، وَ أَعْطَى مَنْ سُئِلَ مِنْ فَضْلِهِ، وَ أَنْتَ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ.
रमज़ान के महीने को अलविदा कहने के लिए हज़रत की दुआ
हे परमेश्वर! ऐ वह जो (अपने उपकारों का) अज्र नहीं चाहता;
हे वह जो देने और क्षमा करने से नहीं पछताता;
ऐ वह जो अपने बन्दों को (उनके कर्मों का) बिना नाप-तोल के बदला नहीं देता; [बल्कि, इनाम सेवक के कार्यों से बड़ा है।]
आपकी नेमतें बिना किसी पूर्व हक़दारी के हैं, और तेरी माफ़ी एक एहसान और दयालुता है, तेरी सज़ा शुद्ध न्याय है, और तेरा फ़ैसला भलाई और कल्याण से भरा है।
अतः यदि तू देता है, तो वह अपने देने को वचन की पूर्ति से कलंकित नहीं करता, और यदि वह रोक लेता है, तो यह अन्याय या अधिकता के कारण नहीं है।
जो कोई तेरा आभार मानता है, तू उसे उसके आभार का प्रतिफल देता है। फिर भी तूने उसके हृदय में कृतज्ञता भर दी है।
और जो तेरी प्रशंसा करे उसे बदला दे, जबकि तूने ही उसे प्रशंसा करना सिखाया है।
और वह ऐसे व्यक्ति पर्दा पोशी करता है अगर चाहे तो उसे अपमानित कर दे। और वह उस व्यक्ति को देता है जिसे यदि वह चाहता तो न देता। यद्यपि वे दोनों ही तेरे दरबार में अपमानित और वंचित होने के योग्य थे, फिर भी तूने अपने कार्यों को अनुग्रह और दयालुता पर आधारित किया और अपने अधिकार की अनदेखी के मार्ग पर रखा।
और तूने उन लोगों पर धैर्य दिखाया जिन्होंने तेरी अवज्ञा की। और जो व्यक्ति अपने ऊपर अत्याचार करना चाहे और तू उसे मोहलत दे दे, तो तू उसे अपनी सहनशीलता से मोहलत दे दे यहाँ तक कि वह पलट आए और तू उसे दण्ड देने में जल्दी नहीं करता यहाँ तक कि वह तौबा कर ले, ताकि जो व्यक्ति तेरी इच्छा के विरुद्ध नष्ट हो जाए वह नष्ट न हो जाए और जो व्यक्ति तेरे अनुग्रह से दुःखी हो जाए वह दुःखी न हो, परन्तु जब तक उसके पास पूरा बहाना और प्रमाण न हो। हे दयावान! यह (प्रमाण की पूर्णता) तेरी क्षमा और अनुग्रह है, और हे परम सहनशील! तेरी दया और दया का अनुग्रह है।
तू ही है जिसने अपने बन्दों के लिए क्षमा और मगफिरत का द्वार खोल दिया और उसका नाम तौबा रखा और तूने अपनी आयत को इस द्वार की ओर संकेत करने के लिए मार्गदर्शक बनाया, ताकि वे उससे भटक न जाएं। अतः हे धन्य! तूने फ़रमाया: सच्चे हृदय से अल्लाह की ओर तौबा करो। आशा है कि तुम्हारा रब तुम्हारे पापों को दूर कर देगा और तुम्हें ऐसे बाग़ों में प्रवेश देगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी।
जिस दिन अल्लाह अपने रसूल को और उन लोगों को जो उसके साथ ईमान लाए हैं, अपमानित न करेगा, परन्तु उनका प्रकाश उनके आगे-आगे और उनके दाहिनी ओर दौड़ता रहेगा और वे कहेंगे, "हमारे रब! हमारे लिये हमारा प्रकाश सिद्ध कर और हमें क्षमा कर। क्योंकि तू सभी चीजों में सक्षम हैं, अब जब दरवाजा खुल गया है और एक मार्गदर्शक नियुक्त किया गया है, तो इस घर में प्रवेश करने की उपेक्षा करने वाले किसी के लिए क्या बहाना हो सकता है?
तू ही वह है जिसने अपने बन्दों के लिए उच्च विनिमय दर का दायित्व अपने ऊपर ले लिया है और तूने चाहा है कि वे तेरे साथ जो व्यापार करें उससे लाभ उठाएँ और तेरी ओर बढ़ने में सफल हों और अधिक लाभ कमाएँ। इस प्रकार तूने, हे प्रभु, फ़रमाया है: जो कोई मेरे पास कोई अच्छा काम लेकर आएगा, उसे उसका दस गुना सवाब मिलेगा और जो कोई बुरा काम करेगा, उसे उतना ही सज़ा मिलेगी जितनी पहले थी।
और तेरा कहना है: जो लोग अल्लाह के मार्ग में अपना माल ख़र्च करते हैं, उनकी मिसाल उस बीज के समान है जिसमें से सात बालियाँ निकलती हैं, और प्रत्येक बाली में सौ दाने होते हैं, और अल्लाह जिसके लिए चाहता है उसे बढ़ा देता है। और तेरा कथन है... कौन है जो अल्लाह को अच्छा ऋण दे, कि वह उसे उसके लिए कई गुना बढ़ा दे? और इसी प्रकार की अन्य आयतें भी हैं जो तूने पवित्र क़ुरआन में अवतरित की हैं, जिनमें नेकियों में वृद्धि का वादा है।
और तू ही है जिसने उन्हें मार्गदर्शन दिया, उस मार्गदर्शन के द्वारा जो उनके लिए लाभदायक था, उन बातों की ओर जिन्हें यदि तूने उनसे छिपा दिया होता तो न उनकी आँखें देख पातीं, न उनके कान सुन पाते, न उनका मन उन तक पहुँच पाता। इस प्रकार तूने कहा, "मेरी याद करो, तो मैं तुमसे असावधान नहीं रहूँगा।" और मेरे प्रति कृतज्ञता दिखाओ और कृतघ्न न बनो। और तू कह दे, "यदि तू मेरा आभार मानेगा तो मैं तुझे और अधिक दूँगा, किन्तु यदि तू कृतघ्न हुआ तो जान ले कि मेरी सज़ा बहुत कठोर है।"
और तेरा कहना है कि, "मुझसे दुआ मांगो मैं तुम्हें उत्तर दूंगा।" जो लोग घमंड के कारण मेरी इबादत से विमुख हो जाते हैं, वे शीघ्र ही अपमानित होकर नरक में प्रवेश करेंगे। तो तूने दुआ को इबादत कहा, उसका परित्याग करना अहंकार बताया, तथा उसे परित्याग करने पर अपमानित होकर नरक में जाने से डराया!
अतः उन्होंने तेरी नेमतों के कारण तुझे याद किया। वे तेरे अनुग्रह और दया का धन्यवाद करते थे और तेरे आदेश से तुझे पुकारते थे और तेरे मार्ग में दान देते थे, ताकि अधिक लाभ प्राप्त हो सके। और तेरा यह मार्गदर्शन उनके लिए तेरे प्रकोप से बचने का और तेरी प्रसन्नता प्राप्त करने का मार्ग बन गया।
और जिन चीज़ों की ओर तूने अपने बन्दों को मार्ग दिखाया है, अगर कोई प्राणी किसी दूसरे प्राणी को उन्हीं चीज़ों की ओर मार्ग दिखाता तो वह प्रशंसनीय होता। फिर प्रशंसा तेरी ही है जब तक तेरी प्रशंसा करने का कोई तरीक़ा है और जब तक प्रशंसा के वे शब्द बचे हैं जिनसे तेरी प्रशंसा की जा सके और प्रशंसा के वे अर्थ बचे हैं जिनसे तेरी प्रशंसा की जा सके। हे वे अर्थ जो तेरी प्रशंसा में बदल सकते हैं, बाक़ी रहें।
ऐ वह जिसने अपने बन्दों की प्रशंसा अपनी कृपा और अनुग्रह से अर्जित की और उन्हें अपनी कृपाओं और क्षमा से आच्छादित कर दिया। तेरी नेमत हम पर कितनी स्पष्ट हैं, तेरे पुरस्कार कितने प्रचुर हैं, और तेरी उदारता और कृपा से हम कितने सौभाग्यशाली हैं!
तूने हमें उस धर्म की ओर मार्गदर्शित किया जिसे तूने चुना है, जिस मार्ग को तूने चुना है, और जिस मार्ग को तूने हमारे लिए सुगम बनाया है, और हमें अपनी निकटता प्राप्त करने, सम्मान और महानता प्राप्त करने की समझ प्रदान की है।
हे परमेश्वर! तूने रमज़ान के महीने को उन ख़ास फ़र्ज़ों और ख़ास ज़िम्मेदारियों में से बनाया है, जिसे तूने दूसरे महीनों से अलग किया है और हर दौर और ज़माने से चुना है। तूने उसमें क़ुरआन और नूर नाज़िल किया और ईमान को बढ़ावा दिया और उसे साल के दूसरे वक़्तों से बेहतर बनाया। तूने उसमें रोज़ा फ़र्ज़ किया और नमाज़ को प्राथमिकता दी और उसमें शब ए क़द्र को अज़ीम बनाया, जो हज़ार महीनों से बेहतर है।
फिर इस महीने के कारण तूने हमें अन्य सभी जातियों पर वरीयता दी और इसकी फ़ज़ीलत के कारण हमें अन्य जातियों पर चुना। अतः तेरे आदेश से हमने उसके दिनों में रोज़ा रखा और तेरी सहायता से उसकी रातें इबादत में बिताईं। इस अवस्था में हम इस रोज़े और दुआ के माध्यम से तेरी दया की कामना कर रहे थे, जिसे तूने हमें प्रदान किया है, और इसे अपने पुरस्कार और सवाब का साधन बनाया है। और जो कुछ तुझसे माँगा जाए, उसे देने की सामर्थ्य तू ही रखता है और जो कुछ तेरे अनुग्रह से माँगा जाए, उसे देनेवाला तू ही है। जो कोई तेरे समीप आना चाहे, तू उसके समीप है।
इस महीने ने हमारे बीच बहुत अच्छे दिन गुज़ारे, संगति का अधिकार अच्छी तरह पूरा किया और हमें दुनिया की बेहतरीन नेमतों से समृद्ध किया। फिर, जब उसका समय पूरा हो गया, अवधि बीत गई, और गिनती पूरी हो गई, तो वह हमें छोड़कर चला गया।
अब हम उसे उसी तरह विदा करते हैं जैसे हम उस व्यक्ति को विदा करते हैं जिसका वियोग हमारे लिए कष्टकर है, जिसका जाना हमारे लिए दुख और भय का कारण है, और जिसका अहद और वादा, सम्मान और पवित्रता और उसके हक़ से मुक्ति अत्यंत आवश्यक है। अतः हम कहते हैं: सलामती हो तुम पर, ऐ अल्लाह के सबसे महान महीने, ऐ अल्लाह के दोस्तों के त्योहार।
सलाम हो तुझ पर, हे समय के सर्वोत्तम साथी और दिनों और घंटों के सर्वोत्तम महीने!
सलाम हो तुझ पर! ऐ महीने जिसमें उम्मीदें पूरी होती हैं और आमाल बहुत होते हैं।
तुझ पर सलाम । हे वह साथी जिसकी उपस्थिति महान मूल्य और गरिमा की है, और जिसका अभाव महान दुःख का कारण है, और हे वह आशा और इच्छा का स्रोत, जिसका वियोग दुःखदायी है।
तुझ पर सलाम। हे वह साथी जो स्नेह और वात्सल्य का सामान लेकर आया था, तू हर्ष का कारण बना और जब वह लौट गया तो तू भय को बढ़ाकर दुःखी बना गयायीं।
तुझ पर सलामती हो। हे पड़ोसी, जिसके हृदय में कोमलता आ गई है और जिसके कारण उसके पाप कम हो गए हैं!
सलाम हो तुझ पर, ऐ मददगार, तूने शैतान के मुक़ाबले में मदद की और सहारा दिया, ऐ साथी, तूने अच्छे कामों का रास्ता तैयार किया।
सलाम हो तुझ पर! (ऐ रमज़ान के महीने) तुझ में अल्लाह के कितने ही बन्दे आज़ाद हुए और कितने ख़ुशक़िस्मत हैं वो लोग जिन्होंने तेरी पवित्रता और सम्मान का सम्मान किया।
सलाम है तुझ पर, कि तू गुनाहों को मिटा देता है और हर तरह की बुराई को छिपा लेता है।
सलाम हो तुझ पर। तू फिर पापियों के लिए यह कितना लम्बा समय है और विश्वासियों के हृदय में कितना भय है।
सलाम हो तुझ पर, ऐ महीने, जिसके बराबर कोई दिन नहीं आ सकता।
सलामती हो तुझ पर! ऐ महीने, जो हर मामले से शान्ति प्रदान करता है।
सलाम हो तुझ पर! ऐ वह व्यक्ति जिसका संग न तो अच्छा है और न ही बुरा।
सलाम हो तुझ पर, क्योंकि तू हमारे पास बरकत लेकर आया और गुनाहों के दाग धो डाले।
सलाम हो तुझ पर! जिसे, दिल की तकलीफ़ के विदा नहीं किया। और ना ही थकान के कारण रोज़ो को छोड़ा।
सलाम हो तुझ पर। हे वह जिसके आगमन की प्रतीक्षा थी और जिसके अंत से हृदय पहले ही दुःखी हो गया है।
सलाम हो तुझ पर, तुरे कारण हमसे कितनी ही बुराइयाँ दूर हो गई और हमारे लिए कितनी ही भलाई के स्रोत बह निकले।
सलाम हो तुझ पर। ऐ रमज़ान के महीने! तुझ पर और शब ए क़द्र जो हज़ार महीनों से बेहतर है।
सलाम हो तुझ पर। कल तक हम तेरे प्रति कितने समर्पित थे, और आने वाले कल में हमारा जुनून कितना बढ़ गया है।
सलाम हो तुझ पर। ऐ मुबारक महीने, तुझ पर और तेरी नेकियों पर शांति हो जिनसे हम वंचित रह गए हैं और तेरी पिछली नेमतों पर भी जो हमारे हाथों से निकल गईं।
ऐ अल्लाह! हम इस महीने के प्रति समर्पित हैं, जिसके कारण तूने हमें सम्मानित किया और अपनी कृपा और अनुग्रह से हमें इसकी वास्तविक प्रकृति को पहचानने में सक्षम बनाया, जबकि बदकिस्मत लोग इसके समय (और इसके मूल्य) से अनजान थे और अपने दुर्भाग्य के कारण इसकी कृपा से वंचित थे।
और तू ही वली, प्रभुत्वशाली है, जिसने हमें अपने सत्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए चुन लिया और अपने आदेशों की ओर हमारा मार्गदर्शन किया। निस्संदेह, तेरे अनुग्रह से हमने तुझे आदेशों की ओर मार्ग दिखाया है। वास्तव में, तेरी कृपा से, हमने इस महीने में रोजे रखे और दुआ की है। लेकिन वे इसे किसी कमी के साथ और कुछ गलतियों के साथ अंजाम नहीं दे सके।
ऐ अल्लाह! हम अपने बुरे कर्मों और अपनी लापरवाही को स्वीकार करते हुए तेरी स्तुति करते हैं। अब, यदि तेरे लिए कुछ है, तो वह हमारे दिलों की सच्ची शर्म और हमारी ज़बानों की सच्ची माफ़ी है। इसलिए, हमारे इस अभाव और कमी के बावजूद जो हमारे साथ हुआ है, हमें ऐसा पुरस्कार प्रदान कर कि हम इसके माध्यम से वांछित उत्कृष्टता और खुशी प्राप्त कर सकें और बदले में वे विभिन्न पुरस्कार प्राप्त कर सकें जिनकी हमने इच्छा की है।
और हमने तेरे प्रति जो कमियाँ की हैं, उनके लिए हमारा बहाना स्वीकार कर ले और हमारे भावी जीवन को आने वाले रमज़ान के महीने से जोड़ दे, फिर जब तू उस तक पहुँच जाए, तो हमें अपनी योग्य इबादत करने में सहायता कर और हमें उस आज्ञाकारिता पर चलने की शक्ति दे जो उस महीने के योग्य है, और हमारे लिए ऐसे अच्छे कर्म जारी रख जो जीवन के महीनों में, एक के बाद एक, रमज़ान के महीने में तेरे हक़ को पूरा करने का साधन बन जाएँ।
ऐ अल्लाह! हमने इस महीने में कोई छोटा या बड़ा पाप किया हो, या किसी पाप से कलंकित होकर कोई गलती की हो, जानबूझकर या अनजाने में अपने साथ गलत किया हो या किसी दूसरे की पवित्रता का उल्लंघन किया हो। अतः मुहम्मद और उनके परिवार पर दुरूद भेज और हमें अपने परदे से ढाँप दे और हमें अपनी क्षमा से क्षमा कर दे और इस पाप के कारण उपहास करने वालों की आँखें हम पर न पड़ने दे और निंदा करने वालों की ज़बानें हम पर न खुलने दे और अपनी असीम दया और निरन्तर बढ़ती हुई दया से हमें ऐसे कर्म करने की शक्ति दे जो इस महीने में हमारे लिए तेरी नापसंदगी को दूर कर दें और उसकी भरपाई कर दें।
ऐ अल्लाह! मुहम्मद और उनके परिवार पर दुरूद भेज और इस महीने के चले जाने पर जो चिंता हम पर आई है उसे दूर कर दे और ईद के दिन और रोज़ा खोलने के दिन को हमारे लिए बरकत वाला बना दे और इसे हमारे पिछले दिनों में सबसे बेहतरीन दिन बना दे, एक ऐसा दिन जो क्षमा को समाहित करता है और पापों को मिटा देता है और हमारे प्रकट और छिपे हुए पापों को क्षमा कर दे।
ऐ अल्लाह! इस महीने के विदा होने पर हमें गुनाहों से अलग कर दे और इसके विदा होने पर हमें बुराइयों से मुक्त कर दे और हमें इस महीने को बिताने वालों में सबसे अधिक भाग्यशाली, सौभाग्यशाली और लाभदायक बना दे।
हे परमेश्वर! जिसने इस महीने को वैसे ही मनाया जैसा इसे मनाया जाना चाहिए, उसने इसका उचित सम्मान किया तथा इसके आदेशों का पूर्णतः पालन किया। उसने पापों से परहेज किया है जैसा कि उसे उनसे बचना चाहिए था, और तेरे समीप आने की नीयत से एक अच्छा कर्म किया है, जिससे तेरी प्रसन्नता उसके लिए आवश्यक हो गई है और तेरी दया उस पर आ गई है। अतः जैसा कि तूने उसे प्रदान किया है, वैसे ही हमें भी अपनी असीम सम्पदा प्रदान करें, तथा अपनी कृपा और उदारता को कई गुना अधिक प्रदान करें। क्योंकि तेरे भण्डार घटते नहीं, वरन बढ़ते ही जाते हैं, और तेरे उपकारों के भण्डार नाश नहीं होते, और तेरा क्षमा करना और देना सब प्रकार से आनन्ददायक है।
हे परमात्मा! मुहम्मद और उनके परिवार पर दुरूद भेज और हमें उन लोगों के समान सवाब प्रदान कर जो इस महीने में रोज़ा रखते हैं या क़यामत के दिन तक तेरी इबादत करते हैं।
ऐ अल्लाह! इस फ़ित्र के दिन, जिसे तूने ईमान वालों के लिए जश्न और खुशी का दिन और इस्लाम के लोगों के लिए जमावड़े और सहयोग का दिन बनाया है, हम अपने हर गुनाह से, हर बुराई से जो हमने पहले की है और हर उस बुरी नीयत से तौबा करते हैं जो हमने अपने दिलों में पाल रखी है, जैसे कोई इंसान फिर से गुनाहों की तरफ़ लौटने का इरादा नहीं रखता और न ही तौबा करने के बाद कोई गलती करता है। ऐसी सच्ची तौबा हर तरह के शक और संदेह से मुक्त होती है, इसलिए हमारी तौबा को क़बूल कर, हम से राज़ी हो जा और हमें उसमें मज़बूत बना।
हे परमेश्वर! हमें हमारे पापों के दण्ड का भय और उस प्रतिफल की इच्छा प्रदान कर जिसका वादा तूने हमसे किया है, ताकि हम उस प्रतिफल की खुशी को पूरी तरह जान सकें जिसे हम तुझे चाहते हैं और उस दण्ड की पीड़ा और वेदना को जिससे हम शरण चाहते हैं।
और हमें उन लोगों में शामिल कर जो तेरी ओर तौबा कर लें, जिनपर तूने अपनी मुहब्बत अनिवार्य कर दी और जिनसे आज्ञाकारिता की वापसी स्वीकार कर ली। हे धर्मियों में सबसे अधिक धर्मी!
ऐ अल्लाह! हमारे माता-पिता और हमारे सभी धार्मिक और जातीय लोगों को क्षमा कर, चाहे वे मर चुके हों या न्याय के दिन तक आने वाले हों।
ऐ अल्लाह! हमारे पैगम्बर मुहम्मद और उनके परिवार पर दुरूद भेज जिस तरह तूने अपने करीबी फ़रिश्तों पर दुरूद भेजा है, और उन पर और उनके परिवार पर दुरूद भेज जिस तरह तूने अपने रसूलों पर दुरूद भेजा है, और उन पर और उनके परिवार पर दुरूद भेज जिस तरह तूने अपने नेक बंदों पर दुरूद भेजा है, और उससे भी बढ़कर, ऐ सारे जहानों के पालनहार! ऐसा दुरूद भेज जो हम तक पहुंचे, हमें लाभ पहुंचाए, और हमारी दुआओं में स्वीकार की जाए। क्योंकि तू उन लोगों से अधिक उदार है जिनकी ओर हम रुख करते हैं, और उन लोगों से अधिक आत्मनिर्भर है जिन पर भरोसा किया जाता है, और उन लोगों से अधिक उदार है जिनसे तेरा अनुग्रह मांगा जाता है, और तू हर चीज़ पर सक्षम और शक्तिशाली है।
संबंधित लेख
फ़ुटनोट
- ↑ ममदूही, शुहूद व शनाख़त, 1388 शम्सी, भाग 3, पेज 435
- ↑ अंसारियान, दयारे आशेक़ान, 1373 शम्सी, भाग 7, पेज 482-496 ममदूही, शुहूद व शनाख़त, 1388 शम्सी, भाग 3, पेज 435-535 तरजुमा व शरह दुआ ए चहलो पंजुम सहीफ़ा सज्जादिया, साइट इरफ़ान
- ↑ अंसारीयान, दयारे आशेक़ान, 1373 शम्सी, भाग 7, पेज 472-496
- ↑ ममदूही, किताब शुहूद व शनाख़्त, 1388 शम्सी, भाग 3, पेज 425-535
- ↑ फ़हरि, शरह व तफसीर सहीफ़ा सज्जादिया, 1388 शम्सी, भाग 3, पेज 301-336
- ↑ मोअर्रफ़ी किताब सीमा ए रमज़ान
- ↑ मोअर्रफ़ी किताब सीमा ए रमज़ान
- ↑ मदनी शिराज़ी, रियाज़ उस सालेकीन, 1435 हिजरी, भाग 6, पेज 95-198
- ↑ मुग़्निया, फ़ी ज़िलाल अल सहीफ़ा, 1428 हिजरी , पेज 515-538
- ↑ दाराबी, रियाज़ उल आरेफ़ीन, 1379 शम्सी, पेज 555-574
- ↑ फ़ज़्लुल्लाह, आफ़ाक़ अल रूह, 1420 शम्सी, भाग 2, पेज 389-432
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स्रोत
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- दाराबी, मुहम्मद बिन मुहम्मद, रियाज़ अल आरेफ़ीन फ़ी शरह अल सहीफ़ा सज्जादिया, शोधः हुसैन दरगाही, तेहरान, नशर उस्वा, 1379 शम्सी
- फ़ज़्लुल्लाह, सय्यद मुहम्मद हुसैन, आफ़ाक़ अल-रूह, बैरूत, दार उल मालिक, 1420 हिजरी
- फ़हरि, सय्यद अहमद, शरह व तरजुमा सहीफ़ा सज्जादिया, तेहरान, उस्वा, 1388 शम्सी
- फ़ैज़ काशानी, मुहम्मद बिन मुर्तज़ा, तालीक़ात अलस सहीफ़ा अल-सज्जादिया, तेहरान, मोअस्सेसा अल बुहूस वत तहक़ीक़ात अल सक़ाफ़ीया, 1407 हिजरी
- मदनी शिराज़ी, सय्यद अली ख़ान, रियाज उस-सालेकीन फ़ी शरह सहीफ़ा तुस साजेदीन, क़ुम, मोअस्सेसा अल-नश्र उल-इस्लामी, 1435 हिजरी
- मुग़्निया, मुहम्मद जवाद, फ़ी ज़िलाल अल-सहीफ़ा सज्जादिया, क़ुम, दार उल किताब उल इस्लामी, 1428 हिजरी
- ममदूही किरमानशाही, हसन, शुहूद व शनाख़्त, तरजुमा व शरह सहीफ़ा सज्जादिया, मुकद्मा आयतुल्लाह जवादी आमोली, क़ुम, बूस्तान किताब, 1388 शम्सी