इमाम सज्जाद (अ) की दुआ ए अरफ़ा
- इमाम हुसैन (अ) की दुआ ए अरफ़ा से भ्रमित न हों।
अन्य नाम | इमाम सज्जाद (अ) की दुआ ए अरफ़ा |
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विषय | ईश्वर का ज्ञान, पैग़म्बर (स) पर सलवात, इमामों का ज्ञान और ईश्वर से विभिन्न अनुरोध |
प्रभावी/अप्रभावी | प्रभावी |
किस से नक़्ल हुई | इमाम सज्जाद (अ) |
कथावाचक | मुतावक्किल बिन हारुन |
शिया स्रोत | सहीफ़ा सज्जादिया |
विशेष समय | अरफ़ा का दिन |
इमाम सज्जाद (अ) की दुआ ए अरफ़ा (अरबीः دعاء الإمام السجاد يوم عرفة), जो कि सहीफ़ा सज्जादीया की सैंतालीसवीं दुआ है, इमाम सज्जाद (अ) की प्रसिद्ध प्रार्थनाओं में से एक है, जो अरफ़ा के दिन पढ़ी जाती है। यह दुआ सहीफ़ा सज्जादीया की सबसे लंबी दुआ है, और इसमें भगवान के नामों और गुणों की अभिव्यक्ति, पैगंबर ए इस्लाम (स), अहले-बैत (अ) और शियो के लिए दुआ और सलवात जैसे विषय शामिल हैं। कुछ नैतिक गुणों और आत्मा की बुराइयों पर चर्चा की गई है। इस दुआ में इमाम सज्जाद (अ) ने अहले-बैत (अ) की स्थिति की मान्यता, उनके आदेशों का पालन करना, विलायत से तमस्सुक अर्थात विलायत से जुड़े रहना और शियों की विशेषताओं के रूप में अहले-बेत (अ) के शासन की प्रतीक्षा करना पेश किया है।
इस दुआ की शिक्षाओं को ईश्वरलोजी, पैग़म्बर (स) और उनके परिवार पर सलवात, इमामोलोजी, गलतियों की स्वीकारोक्ति और आवश्यकताओ के लिए अनुरोध के कई अंक्षों में बांटा गया है।
नजवाए आरेफ़ान व इरफ़ाने अरफ़ा नामक किताबो मे सैंतालीसवीं दुआ का वर्णन और व्याख्या की गई है। इसके अलावा, इस दुआ का वर्णन और व्याख्या शरहाए सहीफ़ा सज्जादीया, दयारे आशेक़ान हुसैन अंसरीयान की रचना और शोहूद वा शनाख़्त नामक किताब हसन ममदूही किरमान शाही द्वारा लिखित फ़ारसी भाषा मे और सय्यद अली ख़ान मदनी द्वारा लिखित रियाज अल सालेकीन अरबी भाषा मे शरह की गई है।
शिक्षाऐं
सैंतालीसवीं दुआ, जिसे इमाम सज्जाद (अ) की दुआ अरफ़ा से जाना जाता है, सहीफ़ा सज्जादीया की दुआओ मे से एक है, जो अरफ़ा के दिन पढ़ी जाती है। इस दुआ में इमाम ज़ैनुल-आबेदीन (अ) ने कई विषयों को संबोधित किया:
- एकेश्वरवाद (तौहीद), ईश्वर के नाम और गुण, तथा ईश्वर की स्तुति (हम्दे खुदा);
- हज़रत मुहम्मद (स) के लिए दुआ;
- इमाम मासूम (अ) के लिए दुआ;
- मासूमो के अनुयायियों के लिए दुआ;
- पाप और पापाचार;
- ईश्वर से क्षमा करने की विंती;
- पश्चाताप के तरीको को व्यक्त करना;
- शैतान और उसका प्रलोभन;
- मृत्यु और पुनरुत्थान का परिप्रेक्ष्य;
- नैतिकता के गुण और मानव आत्मा की बुराइयां।[१]
ममदूही किरमानशाही के अनुसार सहीफ़ा सज्जादीया में इमाम सज्जाद (अ) की सबसे लंबी दुआ दुआ ए अरफ़ा है। और यह ईश्वर के साथ धर्मी सेवक के रहस्यमय रिश्ते से अधिक संबंधित है।[२]
दुआ ए अरफ़ा की शिक्षाओ को कई मुख्य आधारो मे वर्गीकृत किया गया हैः
ईश्वरोलोजी
- स्तुति (हम्द) और धन्यवाद ईश्वर के लिए है, जो संसार का स्वामी, प्रबंधक और निर्माता है
- समस्त अस्तित्व पर ईश्वर की शक्ति और घेरा
- ईश्वर की एकता,महानता एवं बुज़ुर्गी को स्वीकारना
- दैवीय प्रतिशोध का सख्त और गंभीर होना
- ईश्वर की दया, धार्मिकता और बुद्धि पर जोर
- परेमशवर का सुनना और देखना
- ईश्वर का शाश्वत अस्तित्व (ईश्वर का पहला और अंतिम अस्तित्व)
- परमेश्वर महिमा और ऐश्वर्य का स्वामी है
- ईश्वर सभी प्राणियों की रचना करने वाला है
- विश्व का अपने सर्वोत्तम रूप में निर्माण
- परमेश्वर के साथ साझीदार न होना
- ईश्वर का शत्रुओं का न होना।
- सर्वशक्तिमान ईश्वर के समक्ष विनम्रता, समर्पण और समस्त अस्तित्व का समर्पण
- ईश्वर का निर्णय न्याय और निष्पक्षता पर आधारित है
- सृष्टि की युक्ति का अद्भुत क्रम
- ईश्वर के सार को समझने में मानवीय बुद्धि की अक्षमता
- ईश्वर की अतुलनीयता और उसके सामने शक्ति की कमी को स्वीकार करना
- सत्य को असत्य से अलग करने में दैवीय मानकों की स्पष्टता
- ईश्वरीय कृपा और ज्ञान
- प्राणियों के प्रति ईश्वर की व्यापक क्षमा
- मनुष्य का मार्गदर्शन ईश्वर के हाथों में है
- ईश्वर के समक्ष सभी प्राणियों की विनम्रता
- सभी प्राणियों के विरुद्ध ईश्वर की अजेयता
- भगवान की दृढ़ इच्छा और वाणी
- ईश्वरीय विधान (मशयते इलाही) की निश्चितता
- ईश्वर और दूसरों की स्तुति (हम्द) और धन्यवाद (सेपास) के बीच अंतर
- ईश्वर का शुक्र करके उसके निकट आना
- ईश्वर की शाश्वत और सर्वव्यापी स्तुति, अर्श और कुर्सी के बराबर स्तुतति, मर्ज़ी और संतोष के साथ के साथ हम्द, नेमत के साथ स्तुति (हम्द), इरादे की ईमानदारी के साथ स्तुति और...[३]
मुहम्मद (स) और उनके परिवार के लिए दुआ
इमाम सज्जाद (अ) की दुआ ए अरफ़ा के दूसरे भाग में पैगंबर (स) के लिए दुआ और उन पर सलवात से संबोधित किया गया है।
- मुहम्मद (स) और उनके अहले-बैत (अ) पर दुरूद और सलवात,
- पैगंबर (स) और उनके परिवार पर सलवात का फ़लसफ़ा: कृतज्ञता और प्रशंसा, पैगंबर (स) की स्मृति और नाम को पुनर्जीवित करना और उदाहरण स्थापित करना।
- पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पद का परिचय
- धर्म के संरक्षक और पृथ्वी पर ईश्वर के उत्तराधिकारियों के रूप में पैगंबर (स) के अहले-बैत और ईश्वर के बंदो पर हुज्जत इलाही है।
- पैगंबर (स) का परिवार ईश्वर तक पहुंचने का साधन और स्वर्ग तक पहुंचने का रास्ता है
- पैगंबर और उनके परिवार पर अनंत और दुरूद की कामना
- पैगंबर (स) पर दुरूद: संतुष्टि, शाश्वत और व्यापक आशीर्वाद के साथ-साथ बढ़ता हुआ दुरूद बेशुमार और अगणनीय है।[४]
इमामोलोजी
इमाम सज्जाद (अ) की दुआ ए अरफ़ा के तीसरे भाग मे अहले-बैत (अ) की स्थिति का वर्णन करते हैं और शियो के लिए भी दुआ करते हैं और उनकी विशेषताओं को व्यक्त करते हैं।
- पैगंबर (स) के अहले-बैत कि तौसीफ़: ईश्वर के आदेश के निष्पादक, ईश्वर के ज्ञान के कोषाध्यक्ष, धर्म के संरक्षक, पृथ्वी पर ईश्वर के उत्तराधिकारी, बंदो पर हुज्जत ( सेवकों के लिए प्रमाण), ईश्वर के मार्गदर्शन का एक साधन, पाप और गंदगी से शुद्ध, लोगों और ईमान वालो के लिए आश्रय, परमेश्वर की सुंदरता के उदाहरण।
- अहले-बैत (अ) का विस्तृत ज्ञान
- पैगंबर (स) और उनके परिवार पर अनंत आशीर्वाद और शांति हो
- अहले-बैत (अ) के पद का परिचय: सच्चाई को खोजने के लिए मशालें जलाना, ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने का मार्ग और शरणार्थियों के लिए शरण
- अहले-बैत (अ) के आदेशों का पालन करने का दायित्व[५]
- इमाम सृष्टि का उद्देश्य हैं
- किसी भी समय एक मासूम इमाम के होने की आवश्यकता
- इमाम के माध्यम से किसी भी समय ईश्वर के धर्म की पुष्टि
- दिव्य देवदूतों और स्वर्गदूतों के साथ मासूमीन का समर्थन करना
- इमाम मासूम (अ) के नेमत के लिए ईश्वर की स्तुति और धन्यवाद (हम्द और सेपास) करें।
- इमाम मासूम (अ) के लिए सत्ता का विस्तार और सरकार स्थापित करने की आवश्यकता
- मासूम इमाम (अ) के माध्यम से सज़ा, ईश्वरीय कानूनों और परंपराओं को स्थापित करने के अनुरोध में।
- धर्म की जिन निशानियों को अत्याचारियों ने नष्ट कर दिया था, उन्हें पुनर्जीवित करने की चाह
- लोगों को ईश्वर की ओर मार्गदर्शन करने के लिए इमामों के विभिन्न उपकरण
- इमाम (अ) की आज्ञा मानने और उनके अधीन होने तथा उनकी संतुष्टि के लिए प्रयास करने की चाहत
- इमाम (अ) के दोस्तों और अनुयायियों के लिए दुरूद का आग्रह
- इमाम मासूम (अ) की आज्ञा मानना और उनकी मदद करना ईश्वर और पैगंबर (स) के करीब पहुंचने का तरीका है।
- अहले-बैत (अ) के दोस्तों और अनुयायियों पर दुरूद।
- अहले-बैत (अ) के शियो की विशेषताएं: अहले-बैत की स्थिति को स्वीकार करना, उनके आदेशों का पालन करना, आपकी विलायत से तमस्सुक करना, अहले-बैत के शासन की प्रतीक्षा करना।
- अहले-बैत के शियो के लिए दुआ: धर्मपरायण (मुत्तक़ी) लोगों के बीच रहना, ईश्वर का उनकी पश्चाताप स्वीकार करना और सुरक्षित स्थान पर रहना।[६]
ग़लती की स्वीकृति
इस खंड में, इमाम मानव आत्मा की असामान्यताओं के बारे में बात करते हैं और ईश्वर से क्षमा मांगते हैं।
- अरफ़ा के दिन (सम्मान और गरिमा वाला दिन और नौकरों पर दैवीय दया की एक विस्तृत तालिका) के गुणों का जिक्र करते है
- दैवीय दया पाने के लिए अपनी स्थिति के बारे में शिकायत
- ईश्वरीय मार्गदर्शन एवं निर्देशन में रहने की प्रार्थना
- आत्म-ज्ञान, ज्ञान प्रणाली के सबसे महत्वपूर्ण तत्वों में से एक है
- परमेश्वर की आज्ञाओ से अवज्ञा और बंदो की मुख़ालेफ़त
- दण्ड से बचने के लिए ईश्वर की दया का आश्रय लेना
- क्षमा और ईश्वरीय क्षमा मांगना
- अराफा के दिन एक बड़ा ईश्वरीय इनाम माँगना
- ईश्वर की एकता को स्वीकार करते हुए उसके करीब जाना
- हुसने ज़न और प्रभु से निकटता की तलाश
- ईश्वर के सामने मनुष्य की दरिद्रता को स्वीकार करना
- पापियों के प्रति ईश्वर की दया और क्षमा तथा उनके दण्ड में शीघ्रता न करना
- अपराध, त्रुटि और पापो के सभी प्रकार (छिपा हुआ पाप, जानबूझकर किया गया पाप) से स्वीकारोक्ति
- ईश्वर के स्मरण के प्रति लोगों का ध्यान और उपेक्षा का अंत: पाखंड, अज्ञानता का प्रसार और ईश्वर के साथ संबंध कमजोर होना
- स्वयं के विरुद्ध अपराध स्वीकार करना
- ईश्वर से दूरी, ईश्वर की आज्ञाओं को हल्के में लेने का परिणाम
- ईश्वर के मार्ग से भटकने का निश्चित परिणाम विनाश है
- मनुष्य विपत्तियों और लंबे समय तक पीड़ा में फंसा हुआ प्राणी है
- लोगों को उनके हाल पर छोड़ने का ख़तरा
- मनुष्यों को गुमराह करने के लिए शैतान की विभिन्न योजनाएँ।[७]
आवश्यकताओं के लिए अनुरोध
दुआ के अंतिम भाग में, इमाम सज्जाद (अ) अपने रिश्तेदारों को ईश्वर की क़सम देते हैं और अपके अनुरोध को व्यक्त करते हैं। इनमें से कुछ अनुरोध इस प्रकार हैं:
- ईश्वर की विशेष विलायत में रखे जाने का आग्रह
- कर्त्तव्य पालन में असफलता के कारण मुआख़ेज़ा न करने का अनुरोध
- ईश्वर द्वारा आरोपित न किये जाने का अनुरोध
- गफ़लत की निद्रा से जगाने का अनुरोध
- दिलों को पुनर्जीवित करने वाले ईश्वर से मुनाजात
- भय और विलाप के कारण भगवान से विंती करना
- पैगंबर (स) और उनके अहले-बैत की मध्यस्थता के माध्यम से क्षमा मांगना
- भगवान से संरक्षकता माँगना
- वफ़ा करने वालो के इनाम का अनुरोध
- दैवीय सीमाओं के उल्लंघन के प्रभाव से मुक्ति की माँग करना
- ईश्वर के करीब रहना सर्वोच्च सुखों में से एक है
- एक सभ्य जीवन और सुखी मृत्यु की कामना
- अज्ञानियों को जगाने का अनुरोध
- परोपकार के मार्ग पर चलने का अनुरोध
- कर्मों के बंधन और नेमत के नुकसान से छुटकारा पाने की चाहत
- पाप की कुरूपता को हृदय से समझना का अनुरोध
- रात-दिन दुआएं मांगना और उसकी रौशनी में खुद को सजाना
- पापों के प्रदूषण से पवित्रता माँगना
- दैवीय प्रकोप से बचने का अनुरोध
- मुकदमे, राजद्रोह और विपत्तियों से मुक्ति की प्रार्थना करना
- लंबी जिंदगी के साये में दिल की क्रूरता में न फंसने की गुजारिश
- शत्रुओं के दोष से मुक्ति की मांग
- शैतान और अहंकार से दूर रहने की इच्छा
- परेशानियों से मुक्ति की मांग
- भगवान की दया से निराश न हों
- ग़लती कवरेज और घोटाले के लिए अनुरोध
- स्वास्थ्य और कल्याण के लिए अनुरोध
- अच्छी नियत ही सही कार्य की कसौटी है
- जीविका के लिए अनुरोध
- मानव हृदय से संसार का मोह मिटा देने का आग्रह
- मक़ामे इसमत माँगना और ईश्वर से राज़ और नियाज़ करना
- अच्छे इरादे और अच्छी वाणी और अच्छे व्यवहार से लाभ पाने की इच्छा
- अच्छे कार्य करने में सफलता की मांग
- नेमत मे वृद्धि के लिए ईश्वर का धन्यवाद करें
- हयात तय्यबा की गुजारिश
- लोगों के बीच सम्मान और भगवान के सामने अपमान माँगना
- फितना और बुराइयों से मुक्ति के लिए दुआ
- दुआएं मांगना और लापरवाही से बचना
- खौफ़ और रजा के मक़ाम का अनुरोध
- रात्रि जीवन की सफलता की मांग
- अवज्ञा और दण्ड से ईश्वर की शरण का अनुरोध
- ईश्वर के द्वार पर पश्चाताप एक लाभदायक व्यवसाय है
- ईश्वर की क्षमा और दया तथा स्वर्ग के आशीर्वाद से लाभ उठाने का अनुरोध
- चुने हुए लोगों के स्वर्ग में शुद्धतम औलीया ए इलाही के करीब होने की चाहत
- दूसरों के प्रति द्वेष से बचने की जरूरत
- उत्तम आशीर्वाद की माँग
- संशय से दूरी और प्रतिरक्षा की चाहत में
- बिना किसी संदेह के शांत हृदय के लिए प्रार्थना करना
- पवित्रता और शांति और सर्वांगीण स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करना
- दूसरों की आवश्यकता न दिखाकर प्रतिष्ठा की रक्षा करना
- ग़लत काम करने वालों की संगति न करने का अनुरोध
- हज और उमरा करना ईश्वर की प्रसन्नता का एक कारण है
- ईश्वर की शरण ही जीवन में शांति का एकमात्र उपाय है।[८]
व्याख्याएं
सहीफ़ा सज्जादीया की सैंतालीसवीं दुआ की शरह इस प्रकार हैः दयारे आशेक़ान नामक पुस्तक मे हुसैन अंसारीयान,[९] मुहम्मद हसन ममदूही किरमान शाही की शोहूद और शनाख़्त नामक पुस्तक[१०] और सय्यद अहमद फ़हरी[११] की फ़ारसी भाषा में सहीफ़ा सज्जादीया का अनुवाद और शरह मौजूद है।
यह दुआ नजवाए आरेफ़ान नामक किताब मे सय्यद अहमद सज्जादी द्वारा सहीफा सज्जादीया की सैंतालीसवी दुआ (दुआ ए अरफ़ा) की स्वतंत्र रूप से व्याख्या की गई है।[१२] और क़ादिर फ़ाज़ली द्वारा इरफ़ाने अरफ़ा किताब मे इमाम हुसैन (अ) की दुआ ए अरफ़ा और इमाम सज्जाद (अ) की दुआ ए अरफ़ा का विषयगत फारसी भाषा मे वर्णन किया गया है।[१३]
सय्यद अली खान मदनी ने रियाज़ अल सालेकीन,[१४] मुहम्मद जवाद मुग़निया ने फ़ी ज़ेलाल अल सहीफ़ा अल सज्जादीया,[१५] मुहम्मद बिन मुहम्मद दाराबी ने रियाज़ अल आरेफ़ीन,[१६] सय्यद मुहम्मद हुसैन फज़लुल्लाह द्वारा आफ़ाक़ अल-रूह,[१७] मे सहीफ़ा सज्जादीया की सैंतालीसवी दुआ का अरभी भाषा मे वर्णन किया गया है। इस दुआ के शब्दों को फ़ैज़ काशानी की रचना तालीक़ात अलस सहीफ़तिस सज्जादीया[१८] और इज़्ज़ुद्दीन जज़ाएरी द्वारा लिखित शरह अल-साहिफ़ा अल-सज्जादीया शाब्दिक टिप्पणियों मे भी समझाया गया है।[१९]
पाठ और अनुवाद
दुआ का अनुवाद | दुआ का पाठ |
यह अराफा के दिन इमाम सज्जाद (अ) की दुआ है (1) | (۱) وَ كَانَ مِنْ دُعَائِهِ عَلَیهِ السَّلَامُ فِی یوْمِ عَرَفَةَ |
ईश्वर का धन्यवाद, जो संसार का स्वामी और प्रबंधक है। (2) परमेश्वर! तेरा विशेष धन्यवाद; हे आकाश और पृथ्वी के रचयिता! हे महानता, अनुग्रह और प्रेम के स्वामी! हे सभी स्वामियों के मालिक और हे हर देवता के देवता और हर प्राणी के निर्माता और हर चीज के उत्तराधिकारी! उसके समान कुछ भी नहीं है, और ज्ञान उससे छिपा नहीं है, और वह हर चीज़ को घेरे हुए है, और वह हर चीज़ का संरक्षक है। (3) | الْحَمْدُ للهِ رَبِّ الْعالَمِینَ (۲) اللهُمَّ لَكَ الْحَمْدُ بَدِیعَ السَّمَاوَاتِ وَ الْأَرْضِ، ذَا الْجَلَالِ وَ الْإِكْرَامِ، رَبَّ الْأَرْبَابِ، وَ إِلَهَ كُلِّ مَأْلُوهٍ، وَ خَالِقَ كُلِّ مَخْلُوقٍ، وَ وَارِثَ كُلِّ شَیءٍ، لَیسَ كَمِثْلِهِ شَیءٌ، وَ لَا یعْزُبُ عَنْهُ عِلْمُ شَیءٍ، وَ هُوَ بِكُلِّ شَیءٍ مُحِیطٌ، وَ هُوَ عَلَی كُلِّ شَیءٍ رَقِیبٌ. (۳) |
तू ऐसा परमेश्वर है जिसके अलावा कोई परमेश्वर नही बल्कि तू अद्वितीय, व्यक्तिगत और अकेले हैं। (4) और तू ही परमेश्वर है जिसके अलावा कोई परमेश्वर नही, आदरणीय और प्रतिष्ठित, महान और प्रतापी, महान और अहंकारी है। (5) और तू ही ऐसा परमेश्वर है जिसके अलावा कोई परमेश्वर नही हैं, पद में ऊँचा और प्रतिशोध लेने में कठोर है। (6) और तू ही ऐसा परमेश्वर है जिसके अलावा कोई परमेश्वर नही हैं, दयालु, बुद्धिमान और धर्मी है। (7) और तू ही ऐसा परमेश्वर है जिसके अलावा कोई परमेश्वर नही हैं, सुनता, देखता, सनातन और जानता है। (8) और तू ही ऐसा परमेश्वर है जिसके अलावा कोई परमेश्वर नही हैं, परन्तु तू ही है, जो परम सम्माननीय और परम सनातन है। (9) और तू ही वह ईश्वर है, जिसके आलाव कोई ईश्वर नहीं, परन्तु तू ही है, सब से पहला, और सबके बाद। (10) और तू ही वह ईश्वर है, जिसके आलाव कोई ईश्वर नहीं, एक ही समय में उसकी उच्चता के करीब और एक ही समय में उसकी निकटता के रूप में उच्च। (11) और तू ही वह ईश्वर है, जिसके आलाव कोई ईश्वर नहीं, परन्तु तू ही है, जो सुन्दरता, महिमा और स्तुति का स्वामी है। (12) और तू ही वह ईश्वर है, जिसके आलाव कोई ईश्वर नहीं, जिसने बिना किसी स्रोत और उत्पत्ति के सब कुछ बनाया, और जो कुछ आपने आकार दिया वह बिना किसी नमूने के बनाया, और किसी योजना को अपनाए बिना प्राणियों को बनाया। (13) | أَنْتَ اللهُ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنْتَ، الْأَحَدُ الْمُتَوَحِّدُ الْفَرْدُ الْمُتَفَرِّدُ (۴) وَ أَنْتَ اللهُ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنْتَ، الْكَرِیمُ الْمُتَكَرِّمُ، الْعَظِیمُ الْمُتَعَظِّمُ، الْكَبِیرُ الْمُتَكَبِّرُ (۵) وَ أَنْتَ اللهُ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنْتَ، الْعَلِی الْمُتَعَالِ، الشَّدِیدُ الْمِحَالِ (۶) وَ أَنْتَ اللهُ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنْتَ، الرَّحْمَنُ الرَّحِیمُ، الْعَلِیمُ الْحَكِیمُ. (۷) وَ أَنْتَ اللهُ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنْتَ، السَّمِیعُ الْبَصِیرُ، الْقَدِیمُ الْخَبِیرُ (۸) وَ أَنْتَ اللهُ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنْتَ، الْكَرِیمُ الْأَكْرَمُ، الدَّائِمُ الْأَدْوَمُ، (۹) وَ أَنْتَ اللهُ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنْتَ، الْأَوَّلُ قَبْلَ كُلِّ أَحَدٍ، وَ الْآخِرُ بَعْدَ كُلِّ عَدَدٍ (۱۰) وَ أَنْتَ اللهُ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنْتَ، الدَّانِی فِی عُلُوِّهِ، وَ الْعَالِی فِی دُنُوِّهِ (۱۱) وَ أَنْتَ اللهُ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنْتَ، ذُو الْبَهَاءِ وَ الْمَجْدِ، وَ الْكِبْرِیاءِ وَ الْحَمْدِ (۱۲) وَ أَنْتَ اللهُ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنْتَ، الَّذِی أَنْشَأْتَ الْأَشْیاءَ مِنْ غَیرِ سِنْخٍ، وَ صَوَّرْتَ مَا صَوَّرْتَ مِنْ غَیرِ مِثَالٍ، وَ ابْتَدَعْتَ الْمُبْتَدَعَاتِ بِلَا احْتِذَاءٍ. (۱۳) |
तूने हर चीज़ को सर्वोत्तम स्थिति में मापा; और तू ने सब कुछ सब विशेषताओं के अनुसार बनाया; और अपना काम स्वयं व्यवस्थित किया। (14) प्राणी बनाने में किसी की सहायता नहीं ली और मंत्रिस्तरीय कार्ड में आपका समर्थन नहीं किया; और सृष्टि के विषय में तेरी कोई समानता न थी। (15) | أَنْتَ الَّذِی قَدَّرْتَ كُلَّ شَیءٍ تَقْدِیراً، وَ یسَّرْتَ كُلَّ شَیءٍ تَیسِیراً، وَ دَبَّرْتَ مَا دُونَكَ تَدْبِیراً (۱۴) أَنْتَ الَّذِی لَمْ یُعِنْكَ عَلَی خَلْقِكَ شَرِیكٌ، وَ لَمْ یُوَازِرْكَ فِی أَمْرِكَ وَزِیرٌ، وَ لَمْ یكُنْ لَكَ مُشَاهِدٌ وَ لَا نَظِیرٌ. (۱۵) |
तू जिसने चाहा; सो जो कुछ तू ने चाहा, वह निश्चित और अन्तिम हो गया, और तू ने निर्णय कर दिया; और जो निर्णय तू ने किया वह न्याय पर आधारित था; और तू ने आज्ञा दी; और जो कुछ तू ने ठहराया वह न्याय पर आधारित था। (16) | أَنْتَ الَّذِی أَرَدْتَ فَكَانَ حَتْماً مَا أَرَدْتَ، وَ قَضَیتَ فَكَانَ عَدْلًا مَا قَضَیتَ، وَ حَكَمْتَ فَكَانَ نِصْفاً مَا حَكَمْتَ. (۱۶) |
तू ही वह है जो कोई भी तेरे स्थान पर कब्ज़ा नहीं करता, और न तेरे राज्य के विरुद्ध राज्य खड़ा कर सकता है, और न तर्क-वितर्क और कथन से तुझे निर्बल कर सकता है। (17) | أَنْتَ الَّذِی لَا یحْوِیكَ مَكَانٌ، وَ لَمْ یقُمْ لِسُلْطَانِكَ سُلْطَانٌ، وَ لَمْ یعْیكَ بُرْهَانٌ وَ لَا بَیانٌ. (۱۷) |
तू जो सब कुछ गिनता, और हर एक वस्तु के लिये समय ठहराता, और सब कुछ भली भाँति नापता है। (18) | أَنْتَ الَّذِی أَحْصَیتَ كُلَّ شَیءٍ عَدَداً، وَ جَعَلْتَ لِكُلِّ شَیءٍ أَمَداً، وَ قَدَّرْتَ كُلَّ شَیءٍ تَقْدِیراً. (۱۸) |
लोगो के विचार तेरे सार की गहराई तक पहुंचने से कम है, और समझने में असमर्थ है कि तू कैसा हैं, और तू कहा है तुझे आंखो से नही देख सकते। (19) | أَنْتَ الَّذِی قَصُرَتِ الْأَوْهَامُ عَنْ ذَاتِیتِكَ، وَ عَجَزَتِ الْأَفْهَامُ عَنْ كَیفِیتِكَ، وَ لَمْ تُدْرِكِ الْأَبْصَارُ مَوْضِعَ أَینِیتِكَ. (۱۹) |
तू ही है जिसका आरम्भ और अंत नही है ताकि सीमित हो और तू प्राणियों के समान नहीं हैं जो अस्तित्व में न आने के बाद अस्तित्व में आए; और तेरे कोई संतान नही है ताकि तुझे जना हुआ कहा जाए; (20) | أَنْتَ الَّذِی لَا تُحَدُّ فَتَكُونَ مَحْدُوداً، وَ لَمْ تُمَثَّلْ فَتَكُونَ مَوْجُوداً، وَ لَمْ تَلِدْ فَتَكُونَ مَوْلُوداً. (۲۰) |
तू वह है कि तेरा कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है कि तुझ से टकराए, और न तेरा कोई जीवनसाथी है कि तुझ पर ग़ालिब आए और न तेरा कोई मिस्ल और नज़ीर है जो तुझ से बराबरी करे। (21) | أَنْتَ الَّذِی لَا ضِدَّ مَعَكَ فَیعَانِدَكَ، وَ لَا عِدْلَ لَكَ فَیكَاثِرَكَ، وَ لَا نِدَّ لَكَ فَیعَارِضَكَ. (۲۱) |
तो वह है जिसने ब्रह्मांड का निर्माण किया, दुनिया का निर्माण किया और इसकी नींव स्थापित की और इसे बिना किसी पदार्थ और मूल के अस्तित्व में लाया और जो कुछ बनाया उसे अपने सुंदर उद्योग का एक मॉडल बनाया। (22) | أَنْتَ الَّذِی ابْتَدَأَ، وَ اخْتَرَعَ، وَ اسْتَحْدَثَ، وَ ابْتَدَعَ، وَ أَحْسَنَ صُنْعَ مَا صَنَعَ. (۲۲) |
अतः यह हर दोष से मुक्त है। आपकी महिमा कितनी महान है और सभी स्थानों में तेरा पाया कितने ऊंचा और तेरी हक़ और बातिल मे अंतर करने वाली पुस्तक सच्चाई को कितना उजागर करने वाली है। (23) | سُبْحَانَكَ! مَا أَجَلَّ شَأْنَكَ، وَ أَسْنَی فِی الْأَمَاكِنِ مَكَانَكَ، وَ أَصْدَعَ بِالْحَقِّ فُرْقَانَكَ! (۲۳) |
हे कृपालू और दयालु भगवान, तू कितानी कृपा करने वाला है। हे दयालु, तू कितनी दया करने वाला है! हे बुद्धिमान, तू कितना ज्ञानी है! (24) | سُبْحَانَكَ! مِنْ لَطِیفٍ مَا أَلْطَفَكَ، وَ رَءُوفٍ مَا أَرْأَفَكَ، وَ حَكِیمٍ مَا أَعْرَفَكَ! (۲۴) |
हे शक्ति के स्वामी, तू शुद्ध है! तू कितना अधिक शक्तिमान और मजबूत है? हे करीम, कितना ऊँचा है, तू सुंदरता, अच्छाई, सम्मान और महानता, गरिमा और महिमा, हम्स और प्रशंसा का मालिक है। (25) | سُبْحَانَكَ! مِنْ مَلِیكٍ مَا أَمْنَعَكَ، وَ جَوَادٍ مَا أَوْسَعَكَ، وَ رَفِیعٍ مَا أَرْفَعَكَ! ذُو الْبَهَاءِ وَ الْمَجْدِ وَ الْكِبْرِیاءِ وَ الْحَمْدِ. (۲۵) |
तू धन्य हैं, तूने भलाई के लिए अपना हाथ बढ़ाया है। तुझ से ही मार्गदर्शन का ज्ञान प्राप्त हुआ है। इसलिए जो कोई तुझे दीन या दुनिया के लिए पुकारेगा वही तुझे पा लेगा। (26) | سُبْحَانَكَ! بَسَطْتَ بِالْخَیرَاتِ یدَكَ، وَ عُرِفَتِ الْهِدَایةُ مِنْ عِنْدِكَ، فَمَنِ الْتَمَسَكَ لِدِینٍ أَوْ دُنْیا وَجَدَكَ! (۲۶) |
तू मुनज़्ज़ा और पाक है। जो भी तेरे ज्ञान में है वह तेरे सामने नमन किए हुए है और जो कुछ अर्श के नीचे है वह तेरी महिमा के सामने झुक रहा है और सभी प्राणियों ने आज्ञाकारिता का जुआ अपनी गर्दन पर डाल लिया है। (27) | سُبْحَانَكَ! خَضَعَ لَكَ مَنْ جَرَی فِی عِلْمِكَ، وَ خَشَعَ لِعَظَمَتِكَ مَا دُونَ عَرْشِكَ، وَ انْقَادَ لِلتَّسْلِیمِ لَكَ كُلُّ خَلْقِكَ! (۲۷) |
तेरी ज़ात शुद्ध है कि तुझे न तो इंद्रियों द्वारा जाना जा सकता है, न ही तुझे टटोला या छुआ जा सकता है, न ही कोई तेरे साथ छल कर सकता है, न ही तुझे दूर ले जाया जा सकता है, न ही तेरे साथ विवाद हो सकता है, न ही प्रतिस्पर्धा हो सकती है। न तो तेरे साथ बहस की जा सकती है और न ही तुझे धोखा दिया जा सकता है और न फ़रेब दिया जा सकता है। (28) | سُبْحَانَكَ! لَا تُحَسُّ وَ لَا تُجَسُّ وَ لَا تُمَسُّ وَ لَا تُكَادُ وَ لَا تُمَاطُ وَ لَا تُنَازَعُ وَ لَا تُجَارَی وَ لَا تُمَارَی وَ لَا تُخَادَعُ وَ لَا تُمَاكَرُ! (۲۸) |
तेरा स्वभाव पवित्र है, तेरा मार्ग सीधा और सुगम है, तेरी आज्ञा शतप्रतिशत बिल्कुल सही है और तू जीवित और स्वतंत्र है। (29) तू पाक है। तेरी बाते हिकमत वाली है, तेरा निर्णय अंतिम है और तेरा इरादा निश्चित है। (30) तू पाक हैं, ना तो कोई तेरी इच्छा (मशीयत) रद्द कर सकता है और ना कोई तेरे शब्दों को बदल सकता है। (31) तू पाक हैं, हे चमकते चिन्हों वाले, हे आकाशो के निर्माता और आध्यात्मिक चीजों के निर्माता। (32) | سُبْحَانَكَ! سَبِیلُكَ جَدَدٌ. وَ أَمْرُكَ رَشَدٌ، وَ أَنْتَ حَی صَمَدٌ. (۲۹) سُبْحَانَكَ! قَولُكَ حُكْمٌ، وَ قَضَاؤُكَ حَتْمٌ، وَ إِرَادَتُكَ عَزْمٌ! (۳۰) سُبْحَانَكَ! لَا رَادَّ لِمَشِیتِكَ، وَ لَا مُبَدِّلَ لِكَلِمَاتِكَ!. (۳۱) سُبْحَانَكَ! بَاهِرَ الْآیاتِ، فَاطِرَ السَّمَاوَاتِ، بَارِئَ النَّسَمَاتِ! (۳۲) |
सारी प्रशंसा तेरी है। ऐसी प्रशंसाएं जिनकी शाश्वतता तेरी शाश्वतता और केवल तुझ से ही जुड़ी हुई है। (33) वह प्रशंसा जो तेरे उपकारों से सदैव बनी रहती है (34) और केवल तेरे ही प्रशंसा है, जो तेरी कृपा और दया के बराबर हो (35) और तेरे ही लिए प्रशंसा है, जो तेरी प्रसन्नता (रज़ामंदी) से बढ़ जाए (36) और तेरी ही प्रशंसा और धन्यवाद है, जिसमें हर प्रशंसा करने वाले की प्रशंसा पर आधारित हो और जिसके मुक़ाबिल हर आभारी व्यक्ति (शुक्र करने वाला इंसान) पीछे रह जाए। (37) ऐसी प्रशंसा जो तेरे अलावा किसी के लिए योग्य ना हो और ना तेरे अलावा किसी के लिए निकटता का स्रोत बने। (38) ऐसी प्रशंसा जो पहली प्रशंसा की निरंतरता का कारण बने और उसके माध्यम से अंतिम प्रशंसा की निरंतरता का आह्वान किया जाए, (39) ऐसी प्रशंसा जो समय के चक्र के साथ बढ़ती रहे और क्रमिक योगों से कई गुना बढ़ती रहे। (40) ऐसी प्रशंसा कि अभिभावक देवदूत इसकी गणना से नम्र हो जाए। ऐसी प्रशंसा जो कर्मों के लेखक ने तेरी पुस्तक में जो लिखी है उससे भी बढ़कर हो। (41) ऐसी तारीफ जो तेरे अर्श और तेरी ऊंची कुर्सी के वजन के बराबर हो। (42) ऐसी तारीफ जिसका अज्र और सवाब तेरी ओर से परिपूर्ण है और जिसके प्रतिफल में सभी सवाब शामिल हो। (43) ऐसी प्रशंसा जिसका बाहरी स्वरूप भीतरी हृदय के अनुरूप हो और भीतरी ईमानदारी इरादे के अनुरूप हो। (44) ऐसी तारीफ कि किसी भी प्राणी ने तेरी ऐसी तारीफ ना की हो और तेरे अतिरिक्त कोई भी इसकी महानता एवं श्रेष्ठता से परिचित ना हो। (45) ऐसी प्रशंसा कि जो कोई इसे भरपूर करने का प्रयास करे उसे (तेरी ओर से) सहायता मिले और जो इसे पूरा करने का प्रयास करे, उसे तौफीक और समर्थन प्राप्त हो। (46) ऐसी प्रशंसा जिसमें तेरे द्वारा पहले से बनाए गए सभी प्रकार की प्रशंसा शामिल हो और इसमें वे प्रकार भी शामिल हो जिन्हें तू बाद में बनाएंगा। (47) ऐसी तारीफ कि इससे बढ़कर कोई तारीफ तेरी नियत के करीब ना हो और जो व्यक्ति इस प्रकार की तारीफ करे उससे बढ़कर कोई तारीफ करने वाला ना हो। (48) ऐसी तारीफ जो तेरी कृपा और दया से तेरी प्रचुरता के कारण आशीर्वादो (नेमतो) में वृद्धि का कारण बने और तेरी अपनी प्रसन्नता और दयालुता से उसमें वृद्धि की श्रृंखला बनाए रखे। (49) ऐसी तारीफ जो तेरी बुज़ुर्गी ए ज़ात (ऐश्वर्य) और महिमा के योग्य है। (50) | لَكَ الْحَمْدُ حَمْداً یدُومُ بِدَوَامِكَ (۳۳) وَ لَكَ الْحَمْدُ حَمْداً خَالِداً بِنِعْمَتِكَ. (۳۴) وَ لَكَ الْحَمْدُ حَمْداً یوَازِی صُنْعَكَ (۳۵) وَ لَكَ الْحَمْدُ حَمْداً یزِیدُ عَلَی رِضَاكَ. (۳۶) وَ لَكَ الْحَمْدُ حَمْداً مَعَ حَمْدِ كُلِّ حَامِدٍ، وَ شُكْراً یقْصُرُ عَنْهُ شُكْرُ كُلِّ شَاكِرٍ (۳۷) حَمْداً لَا ینْبَغِی إِلَّا لَكَ، وَ لَا یتَقَرَّبُ بِهِ إِلَّا إِلَیكَ (۳۸) حَمْداً یسْتَدَامُ بِهِ الْأَوَّلُ، وَ یسْتَدْعَی بِهِ دَوَامُ الْآخِرِ. (۳۹) حَمْداً یتَضَاعَفُ عَلَی كُرُورِ الْأَزْمِنَةِ، وَ یتَزَایدُ أَضْعَافاً مُتَرَادِفَةً. (۴۰) حَمْداً یعْجِزُ عَنْ إِحْصَائِهِ الْحَفَظَةُ، وَ یزِیدُ عَلَی مَا أَحْصَتْهُ فِی كِتَابِكَ الْكَتَبَةُ (۴۱) حَمْداً یوازِنُ عَرْشَكَ الْمَجِیدَ وَ یعَادِلُ كُرْسِیكَ الرَّفِیعَ. (۴۲) حَمْداً یكْمُلُ لَدَیكَ ثَوَابُهُ، وَ یسْتَغْرِقُ كُلَّ جَزَاءٍ جَزَاؤُهُ (۴۳) حَمْداً ظَاهِرُهُ وَفْقٌ لِبَاطِنِهِ، وَ بَاطِنُهُ وَفْقٌ لِصِدْقِ النِّیةِ (۴۴) حَمْداً لَمْ یحْمَدْكَ خَلْقٌ مِثْلَهُ، وَ لَا یعْرِفُ أَحَدٌ سِوَاكَ فَضْلَهُ (۴۵) حَمْداً یعَانُ مَنِ اجْتَهَدَ فِی تَعْدِیدِهِ، وَ یؤَیدُ مَنْ أَغْرَقَ نَزْعاً فِی تَوْفِیتِهِ. (۴۶) حَمْداً یجْمَعُ مَا خَلَقْتَ مِنَ الْحَمْدِ، وَ ینْتَظِمُ مَا أَنْتَ خَالِقُهُ مِنْ بَعْدُ. (۴۷) حَمْداً لَا حَمْدَ أَقْرَبُ إِلَی قَوْلِكَ مِنْهُ، وَ لَا أَحْمَدَ مِمَّنْ یحْمَدُكَ بِهِ. (۴۸) حَمْداً یوجِبُ بِكَرَمِكَ الْمَزِیدَ بِوُفُورِهِ، وَ تَصِلُهُ بِمَزِیدٍ بَعْدَ مَزِیدٍ طَوْلًا مِنْكَ (۴۹) حَمْداً یجِبُ لِكَرَمِ وَجْهِكَ، وَ یقَابِلُ عِزَّ جَلَالِكَ. (۵۰) |
पालनहार! मुहम्मद और उनके परिवार को सभी आशीर्वादों में से सर्वश्रेष्ठ और श्रेष्ठ दया प्रदान कर, मुहम्मद जो चुने गए, सम्मानित, पोषित और करीबी हैं, और उन पर अपनी सबसे उत्तम आशीर्वाद और अपने लाभकारी आशीर्वाद और उन पर क़ुपा और दया कर। (51) | رَبِّ صَلِّ عَلَی مُحَمَّدٍ وَ آلِ مُحَمَّدٍ، الْمُنْتَجَبِ الْمُصْطَفَی الْمُكَرَّمِ الْمُقَرَّبِ، أَفْضَلَ صَلَوَاتِكَ، وَ بَارِكْ عَلَیهِ أَتَمَّ بَرَكَاتِكَ، وَ تَرَحَّمْ عَلَیهِ أَمْتَعَ رَحَمَاتِكَ. (۵۱) |
पालनहार! मुहम्मद और उनके परिवार पर इतनी अधिक रहमत नाजिल कर कि कोई भी रहमत उससे अधिक न हो सके, और उन पर ऐसी बढ़ती रहमत नाज़िल कर कि जिस से अधिक कोई रहमत बढ़ने वाली ना हो, और उन पर ऐसी पसंदीदा रहमत नाज़िल कर जिससे बढ़कर कोई रहमत ना हो। (52) | رَبِّ صَلِّ عَلَی مُحَمَّدٍ وَ آلِهِ، صَلَاةً زَاكِیةً لَا تَكُونُ صَلَاةٌ أَزْكَی مِنْهَا، وَ صَلِّ عَلَیهِ صَلَاةً نَامِیةً لَا تَكُونُ صَلَاةٌ أَنْمَی مِنْهَا، وَ صَلِّ عَلَیهِ صَلَاةً رَاضِیةً لَا تَكُونُ صَلَاةٌ فَوْقَهَا. (۵۲) |
प्रभु! मुहम्मद और उनके परिवार पर ऐसी रहमत नाज़िल कर जो उन्हें प्रसन्न करे और उनकी खुशी से अधिक हो, और उन पर ऐसी रहमत नाज़िल कर कि तू उनके लिए उसके अलवा किसी रहमत को पसंद ना करे, और ना उनके अलावा किसी को इस रहमत के योग्य समझे। (53) | رَبِّ صَلِّ عَلَی مُحَمَّدٍ وَ آلِهِ، صَلَاةً تُرْضِیهِ وَ تَزِیدُ عَلَی رِضَاهُ، وَ صَلِّ عَلَیهِ صَلَاةً تُرْضِیكَ و تَزِیدُ عَلَی رِضَاكَ لَهُ وَ صَلِّ عَلَیهِ صَلَاةً لَا تَرْضَی لَهُ إِلَّا بِهَا، وَ لَا تَرَی غَیرَهُ لَهَا أَهْلًا. (۵۳) |
प्रभु! मुहम्मद और उनकी संतान पर ऐसी रहमत नाज़िल कर कि तेरी ओर से जिस प्रसंन्नता के वो पात्र हैं उससे बढ़ जाए और उसका संबंध तेरे अस्तित्व और निरंतरता से जुड़ा रहे और उसकी शृंखला कहीं भी समाप्त न हो, जिस प्रकार तेरे शब्द समाप्त नहीं होगें। (54) | رَبِّ صَلِّ عَلَی مُحَمَّدٍ وَ آلِهِ صَلَاةً تُجَاوِزُ رِضْوَانَكَ، وَ یتَّصِلُ اتِّصَالُهَا بِبَقَائِكَ، وَ لَا ینْفَدُ كَمَا لَا تَنْفَدُ كَلِمَاتُكَ. (۵۴) |
प्रभु! मुहम्मद और उनके परिवार पर ऐसी रहमत नाज़िल कर जिसमे तेरे स्वर्गदूतों, पैगंबरों, दूतों और आज्ञा मानने वालों का दुरूद और रहमत शामिल हो, और तेरे सेवकों मे से जिन्नों, मनुष्यों और तेरे आह्वान को स्वीकार करने वालों के दुरूद और सलाम पर आधारित हो और तेरे सभी प्रकार के प्राणी जिन्हें तूने बनाया और दुनिया में अस्तित्व में लाया सभी की दया पर हावी हो। (55) | رَبِّ صَلِّ عَلَی مُحَمَّدٍ وَ آلِهِ، صَلَاةً تَنْتَظِمُ صَلَوَاتِ مَلَائِكَتِكَ وَ أَنْبِیائِكَ وَ رُسُلِكَ وَ أَهْلِ طَاعَتِكَ، وَ تَشْتَمِلُ عَلَی صَلَوَاتِ عِبَادِكَ مِنْ جِنِّكَ وَ إِنْسِكَ وَ أَهْلِ إِجَابَتِكَ، وَ تَجْتَمِعُ عَلَی صَلَاةِ كُلِّ مَنْ ذَرَأْتَ وَ بَرَأْتَ مِنْ أَصْنَافِ خَلْقِكَ. (۵۵) |
भगवान! पवित्र पैगंबर और उनके परिवार पर ऐसी रहमत नाजिल कर जिसमें सभी अतीत और भविष्य की नेमते शामिल हों। उन पर और उनके परिवारों पर ऐसी रहमत नाज़िल कर जो तेरे निकट और तेरे अलावा दूसरों के निकट पसंद दीदा हो, और उन रहमतो के साथ ऐसी रहमतो को दुगना कर दे और उन्हे समय बीतने के साथ साथ कई गुणा करके इतना बढ़ाता जा कि जिनकी तेरे अलावा कोई गणना ना कर सके। (56) | رَبِّ صَلِّ عَلَیهِ وَ آلِهِ، صَلَاةً تُحِیطُ بِكُلِّ صَلَاةٍ سَالِفَةٍ وَ مُسْتَأْنَفَةٍ، وَ صَلِّ عَلَیهِ وَ عَلَی آلِهِ، صَلَاةً مَرْضِیةً لَكَ وَ لِمَنْ دُونَكَ، وَ تُنْشِئُ مَعَ ذَلِكَ صَلَوَاتٍ تُضَاعِفُ مَعَهَا تِلْكَ الصَّلَوَاتِ عِنْدَهَا، وَ تَزِیدُهَا عَلَی كُرُورِ الْأَیامِ زِیادَةً فِی تَضَاعِیفَ لَا یعُدُّهَا غَیرُكَ. (۵۶) |
प्रभु! उनके परिवार वालो पर रहमत नाज़िल कर जिन्हे तूने अम्र (दीन और शरीयत) के लिए चुना है। अपने ज्ञान के ख़ज़ानादार और अपने धर्म का संरक्षक और धरती पर अपना ख़लीफ़ा और उत्तराधिकारी तथा बंदो पर अपनी हुज्जत बनाया और जिन्हे अपने इरादा (अज़ली) से हर प्रकार की अशुद्धता व प्रदूषण से पवित्र और साफ रखा और जिन्हे अपने तक पहुंचने का वसीला और स्वर्ग तक आने का मार्ग क़रार दिया। (57) | رَبِّ صَلِّ عَلَی أَطَایبِ أَهْلِ بَیتِهِ الَّذِینَ اخْتَرْتَهُمْ لِأَمْرِكَ، وَ جَعَلْتَهُمْ خَزَنَةَ عِلْمِكَ، وَ حَفَظَةَ دِینِكَ، وَ خُلَفَاءَكَ فِی أَرْضِكَ، وَ حُجَجَكَ عَلَی عِبَادِكَ، وَ طَهَّرْتَهُمْ مِنَ الرِّجْسِ وَ الدَّنَسِ تَطْهِیراً بِإِرَادَتِكَ، وَ جَعَلْتَهُمُ الْوَسِیلَةَ إِلَیكَ، وَ الْمَسْلَكَ إِلَی جَنَّتِكَ (۵۷) |
प्रभु! मुहम्मद और उनके परिवार पर ऐसी रहमत नाज़िल कर जिसके माध्यम से तू उनके लिए अपनी बखशिश व करामत अधिक और उनके लिए इनामात पूर्ण करे और अपने उपहार और लाभ मे से उन्हे अधिक हिस्सा बख्शे। (58) | رَبِّ صَلِّ عَلَی مُحَمَّدٍ وَ آلِهِ، صَلَاةً تُجْزِلُ لَهُمْ بِهَا مِنْ نِحَلِكَ وَ كَرَامَتِكَ، وَ تُكْمِلُ لَهُمُ الْأَشْیاءَ مِنْ عَطَایاكَ وَ نَوَافِلِكَ، وَ تُوَفِّرُ عَلَیهِمُ الْحَظَّ مِنْ عَوَائِدِكَ وَ فَوَائِدِكَ. (۵۸) |
प्रभु! मुहम्मद और उनके अहले-बैत पर ऐसी रहमत नाजिल कर कि न उसकी कोई शुरुआत हो, न इस अवधि का कोई अंत हो और न ही उसका कोई अंतिम किनारा हो। (59) इन पर ऐसी रहमत नाज़िल कर जो कि तेरे अर्श और अर्श के नीचे जो कुछ है, उसके बराबर हो, और इतनी मात्रा में हो कि वह आकाश और आकाश के ऊपर जो कुछ है, और पृथ्वी और जो कुछ पृथ्वी के नीचे है, सब भरा जाए। और उनके भीतर की संख्या के बराबर हो। ऐसी रहमत हो जो उन्हे तेरे निकटता के उच्चतम स्तर पर ले आए तेरे और उनके लिए खुशी का स्रोत बने और अपनी ऐसी दूसरी रहमतो से सदैव जुड़ी रहे। (60) | رَبِّ صَلِّ عَلَیهِ وَ عَلَیهِمْ صَلَاةً لَا أَمَدَ فِی أَوَّلِهَا، وَ لَا غَایةَ لِأَمَدِهَا، وَ لَا نِهَایةَ لِآخِرِهَا. (۵۹) رَبِّ صَلِّ عَلَیهِمْ زِنَةَ عَرْشِكَ وَ مَا دُونَهُ، وَ مِلْءَ سَمَاوَاتِكَ وَ مَا فَوْقَهُنَّ، وَ عَدَدَ أَرَضِیكَ وَ مَا تَحْتَهُنَّ وَ مَا بَینَهُنَّ، صَلَاةً تُقَرِّبُهُمْ مِنْكَ زُلْفَی، وَ تَكُونُ لَكَ وَ لَهُمْ رِضًی، وَ مُتَّصِلَةً بِنَظَائِرِهِنَّ أَبَداً. (۶۰) |
प्रभु! तूने हर युग में एक इमाम द्वारा अपने धर्म का समर्थन किया है जिसे तूने अपने बंदो के लिए एक संकेत के रूप में घोषित किया है और शहरों में मार्गदर्शन के टॉवर बनाकर स्थापित किया है, जबकि तूने अपनी आज्ञाकारिता को उसकी आज्ञाकारिता से जोड़ा है जिसे अपनी खुशी और संतुष्टि के लिए स्रोत घोषित किया, जिसका पालन करना अनिवार्य कर दिया। जिसकी अवज्ञा करने से डराया, जिसकी आज्ञाओं के पालन करने का आदेश दिया, और जिसको रोकने पर बाज रहने का आदेश दिया और यह कि कोई आगे बढ़ने वाला अस उससे आगे ना बढ़े और कोई उस से पीछे रह जाने वाला उससे पीछे न रहे। वह शरण चाहने वालों के लिए सुरक्षा, विश्वासियों के लिए आश्रय, आश्रितों के लिए मजबूत समर्थन और पूरी दुनिया की सुंदरता है। (61) | بارالٰہا ! تونے ہر زمانہ میں ایک ایسے امام کے ذریعہ اپنے دین کی تائید فرمائی ہے جسے تو نے اپنے بندوں کے لیے نشان راہ قرار دیا اور شہروں میں منار ہدایت بناکراللهُمَّ إِنَّكَ أَیّدْتَ دِینَكَ فِی كُلِّ أَوَانٍ بِإِمَامٍ أَقَمْتَهُ عَلَماً لِعِبَادِكَ، وَ مَنَاراً فِی بِلَادِكَ بَعْدَ أَنْ وَصَلْتَ حَبْلَهُ بِحَبْلِكَ، وَ جَعَلْتَهُ الذَّرِیعَةَ إِلَی رِضْوَانِكَ، وَ افْتَرَضْتَ طَاعَتَهُ، وَ حَذَّرْتَ مَعْصِیتَهُ، وَ أَمَرْتَ بِامْتِثَالِ أَوَامِرِهِ، وَ الِانْتِهَاءِ عِنْدَ نَهْیهِ، وَ أَلَّا یتَقَدَّمَهُ مُتَقَدِّمٌ، وَ لَا یتَأَخَّرَ عَنْهُ مُتَأَخِّرٌ فَهُوَ عِصْمَةُ اللائِذِینَ، وَ كَهْفُ الْمُؤْمِنِینَ وَ عُرْوَةُ الْمُتَمَسِّكِینَ، وَ بَهَاءُ الْعَالَمِینَ. (۶۱) |
परमेश्वर! उसके अभिभावक और नेता ने जो पुरस्कार उसे दिया है, उसके प्रति हमारे हृदय में कृतज्ञता की भावना पैदा कर और उसे अपनी ओर से ऐसा प्रभुत्व प्रदान कर जो उसकी हर तरह से मदद करे और उसके लिए सफलता और समृद्धि का मार्ग आसान बना दे। इसे और अपने मजबूत समर्थन से इसका समर्थन कर। उसकी पीठ और बांह को मजबूत बना, और अपने सतर्क ध्यान से उसकी रक्षा कर और अपनी देखभाल के साथ उसका समर्थन कर, और अपने स्वर्गदूतों के साथ उसकी मदद कर और उसे अपनी विजयी सेना के साथ और उसके माध्यम से मजबूत कर।(62) अपनी पुस्तक के तरीके और नियमों को स्थापित कर और तुम्हारे रसूल के नियम और तरीके (भगवान उस पर कृपा कर और उसे अपनी ओर से दया प्रदान कर) और उनके माध्यम से धर्म के उन निशानों को पुनर्जीवित कर जिन्हें ज़ालिमों ने मिटा दिया है और उन पर अत्याचार किया है। और ज़ुल्म और जौर के ज़ंग को अपनी शरीयत से दूर और अपने मार्ग की कठिनाइयो को दूर कर दे और जो लोग तेरे रास्ते से मूह मोड लिए है उन्हे खत्म और जो तेरे सीधे मार्ग मे कजी पैदा करते है उन्हे नष्ट कर दे। (63) | اللهُمَّ فَأَوْزِعْ لِوَلِیكَ شُكْرَ مَا أَنْعَمْتَ بِهِ عَلَیهِ، وَ أَوْزِعْنَا مِثْلَهُ فِیهِ، وَ آتِهِ مِنْ لَدُنْكَ سُلْطاناً نَصِیراً، وَ افْتَحْ لَهُ فَتْحاً یسِیراً، وَ أَعِنْهُ بِرُكْنِكَ الْأَعَزِّ، وَ اشْدُدْ أَزْرَهُ، وَ قَوِّ عَضُدَهُ، وَ رَاعِهِ بِعَینِكَ، وَ احْمِهِ بِحِفْظِكَ وَ انْصُرْهُ بِمَلَائِكَتِكَ، وَ امْدُدْهُ بِجُنْدِكَ الْأَغْلَبِ. (۶۲) وَ أَقِمْ بِهِ كِتَابَكَ وَ حُدُودَكَ وَ شَرَائِعَكَ وَ سُنَنَ رَسُولِكَ،- صَلَوَاتُكَ اللهُمَّ عَلَیهِ وَ آلِهِ-، وَ أَحْی بِهِ مَا أَمَاتَهُ الظَّالِمُونَ مِنْ مَعَالِمِ دِینِكَ، وَ اجْلُ بِهِ صَدَاءَ الْجَوْرِ عَنْ طَرِیقَتِكَ، وَ أَبِنْ بِهِ الضَّرَّاءَ مِنْ سَبِیلِكَ، وَ أَزِلْ بِهِ النَّاكِبِینَ عَنْ صِرَاطِكَ، وَ امْحَقْ بِهِ بُغَاةَ قَصْدِكَ عِوَجاً (۶۳) |
और उसे अपने मित्रों के प्रति नम्र और सहिष्णु बना और शत्रुओं के प्रति उसके हाथ खोल और उसकी ओर से हमें अनुग्रह और दया और करुणा और दयालुता प्रदान कर और उसकी बातें सुन। और जो उसकी आज्ञा का पालन करता है और उसकी प्रसन्नता के लिए प्रयास करता है, और सहायता करता है वह अपने दुश्मनों के खिलाफ अपने समर्थन और बचाव में है, और इस माध्यम से तू और तेरे रसूल (हे ख़ुदा उन पर तेरा दुरूद और सलाम हो) के करीब आने वाले प्रेमी की घोषणा कर। (64) | وَ أَلِنْ جَانِبَهُ لِأَوْلِیائِكَ، وَ ابْسُطْ یدَهُ عَلَی أَعْدَائِكَ، وَ هَبْ لَنَا رَأْفَتَهُ، وَ رَحْمَتَهُ وَ تَعَطُّفَهُ وَ تَحَنُّنَهُ، وَ اجْعَلْنَا لَهُ سَامِعِینَ مُطِیعِینَ، وَ فِی رِضَاهُ سَاعِینَ، وَ إِلَی نُصْرَتِهِ وَ الْمُدَافَعَةِ عَنْهُ مُكْنِفِینَ، وَ إِلَیكَ وَ إِلَی رَسُولِكَ- صَلَوَاتُكَ اللهُمَّ عَلَیهِ وَ آلِهِ- بِذَلِكَ مُتَقَرِّبِینَ. (۶۴) |
ऐ अल्लाह, उनके दोस्तों पर भी दया कर, जो उनके पद और स्थिति को पहचानते हैं, उसके तरीकों और धर्म का पालन करते हैं, उनके नक्शेकदम पर चलते हैं, धर्म से उससे जुड़े होते हैं, और उनकी दोस्ती और विलायत से जुड़े रहते हैं। उनकी इमामत के अनुयायी, उनके आज्ञापालन में कार्य करने के लिए उत्सुक, उनके शासन काल की प्रतीक्षा मे है। ऐसी रहमत जो धन्य, शुद्ध और बढ़ने वाली है, और जो हर सुबह और शाम नाजिल होने वाली हो, और उनपर और उनकी आत्माओं (अरवाह) को शांति प्रदान करती है, और उनके कार्यों को ज्ञान और तक़वे पर स्थापित कर, और उनकी परिस्थितियों को बेहतर बना। इनकी तौबा स्वीकार कर वास्तव में, तू बहुत पश्चाताप को स्वीकार करने वाला, दयालु और क्षमा करने वाला हैं, और हमें अपनी दया के माध्यम से उनके साथ दार अल-सलाम (स्वर्ग) में जगह प्रदान करे। हे सब दयालुओ से परम दयालु! (65) पालनहार! अरफ़ा का यह दिन वह दिन है जब तूने सम्मान, इज़्ज़त और गौरव प्रदान किया है, जिसमें अपनी दया फैलाई है और अपनी क्षमा और दया से एहसान किया। अपने उपहारों को कई गुना बढ़ा दिया और उसके द्वारा अपने सेवकों पर कृपा की है। (66) | اللهُمَّ وَ صَلِّ عَلَی أَوْلِیائِهِمُ الْمُعْتَرِفِینَ بِمَقَامِهِمُ، الْمُتَّبِعِینَ مَنْهَجَهُمُ، الْمُقْتَفِینَ آثَارَهُمُ، الْمُسْتَمْسِكِینَ بِعُرْوَتِهِمُ، الْمُتَمَسِّكِینَ بِوِلَایتِهِمُ، الْمُؤْتَمِّینَ بِإِمَامَتِهِمُ، الْمُسَلِّمِینَ لِأَمْرِهِمُ، الْمُجْتَهِدِینَ فِی طَاعَتِهِمُ، الْمُنْتَظِرِینَ أَیامَهُمُ، الْمَادِّینَ إِلَیهِمْ أَعْینَهُمُ، الصَّلَوَاتِ الْمُبَارَكَاتِ الزَّاكِیاتِ النَّامِیاتِ الْغَادِیاتِ الرَّائِحَاتِ. (۶۵) وَ سَلِّمْ عَلَیهِمْ وَ عَلَی أَرْوَاحِهِمْ، وَ اجْمَعْ عَلَی التَّقْوَی أَمْرَهُمْ، وَ أَصْلِحْ لَهُمْ شُئُونَهُمْ، وَ تُبْ عَلَیهِمْ، إِنَّكَ أَنْتَ التَّوَّابُ الرَّحِیمُ، وَ خَیرُ الْغافِرِینَ، وَ اجْعَلْنَا مَعَهُمْ فِی دَارِ السَّلَامِ بِرَحْمَتِكَ، یا أَرْحَمَ الرَّاحِمِینَ. (۶۶) |
हे अल्लाह! मैं तेरा वो बंदा हूं जिस पर तूने उसकी रचना से पहले और बाद में कृपा की है। इस तरह से कि उसे उन लोगों में घोषित किया गया जिन्हें तूने अपने धर्म का मार्गदर्शन किया, अपने हक़ को अदा करने के लिए तौफ़ीक़ बख्शी जिनकी अपने रेसमान के माध्यम से रक्षा की, जिन्हें अपनी मंडली (जमाअत) में शामिल किया, और अपने दोस्तों की दोस्ती और दुश्मनो की दुश्मनी का मार्गदर्शन किया। (67) | اللهُمَّ هَذَا یوْمُ عَرَفَةَ یوْمٌ شَرَّفْتَهُ وَ كَرَّمْتَهُ وَ عَظَّمْتَهُ، نَشَرْتَ فِیهِ رَحْمَتَكَ، وَ مَنَنْتَ فِیهِ بِعَفْوِكَ، وَ أَجْزَلْتَ فِیهِ عَطِیتَكَ، وَ تَفَضَّلْتَ بِهِ عَلَی عِبَادِكَ. (۶۷) |
इन सबके बावजूद तू ने उसे आदेश दिया, तो उसने तेरी आज्ञा का उल्लंघन किया, और यदि तू ने उसे रोका, तो वह बाज़ न आया, और उसने तेरी आज्ञा के विरुद्ध वर्जित काम किया। यह तेरे विरूद्ध शत्रुता और अहंकार के कारण नहीं था, बल्कि स्वयं की इच्छा (ख़ाहिशे नफ़्स) ने उसे ऐसे काम करने के लिए आमंत्रित किया था जिन्हें करने से तूने रोका था और चेताया था, और तेरे दुश्मन और उसके दुश्मन (शापित शैतान) ने इन कार्यों में उसकी मदद की थी। इसलिए, आपकी धमकी से अवगत होने के बावजूद, उसने तुझ से क्षमा की आशा करते हुए और तेरी क्षमा पर भरोसा करते हुए, पाप की ओर कदम बढ़ाया। हालाँकि, तेरे द्वारा उस पर किए गए उपकारों के कारण, वह सभी बंदो में से सबसे योग्य था कि उसे ना करता। (68) | اللهُمَّ وَ أَنَا عَبْدُكَ الَّذِی أَنْعَمْتَ عَلَیهِ قَبْلَ خَلْقِكَ لَهُ وَ بَعْدَ خَلْقِكَ إِیاهُ، فَجَعَلْتَهُ مِمَّنْ هَدَیتَهُ لِدِینِكَ، وَ وَفَّقْتَهُ لِحَقِّكَ، وَ عَصَمْتَهُ بِحَبْلِكَ، وَ أَدْخَلْتَهُ فِی حِزْبِكَ، وَ أَرْشَدْتَهُ لِمُوَالاةِ أَوْلِیائِكَ، وَ مُعَادَاةِ أَعْدَائِكَ. (۶۸) |
अच्छा तो फिर मैं तेरे सामने पूर्ण रूप से अपमानित, पूरी तहर से असहाय कांपता और डरा हुआ ख़डा हूं। उन महान पापों का जिनका बोझ अपने सर उठा लिया है और उन बड़ी गलतियो का जिनमे लिप्त हुआ हूं स्वीकार करता हूं तेरी दया में शरण लेना और विश्वास करना कि जो कोई ((तेरी पीड़ा से) मुझे शरण नहीं दे सकता और कोई बचाने वाला (तेरे क्रोध से) मुझे बचा नही सकता। (69) | ثُمَّ أَمَرْتَهُ فَلَمْ یأْتَمِرْ، وَ زَجَرْتَهُ فَلَمْ ینْزَجِرْ، وَ نَهَیتَهُ عَنْ مَعْصِیتِكَ، فَخَالَفَ أَمْرَكَ إِلَی نَهْیكَ، لَا مُعَانَدَةً لَكَ، وَ لَا اسْتِكْبَاراً عَلَیكَ، بَلْ دَعَاهُ هَوَاهُ إِلَی مَا زَیلْتَهُ وَ إِلَی مَا حَذَّرْتَهُ، وَ أَعَانَهُ عَلَی ذَلِكَ عَدُوُّكَ وَ عَدُوُّهُ، فَأَقْدَمَ عَلَیهِ عَارِفاً بِوَعِیدِكَ، رَاجِیاً لِعَفْوِكَ، وَاثِقاً بِتَجَاوُزِكَ، وَ كَانَ أَحَقَّ عِبَادِكَ مَعَ مَا مَنَنْتَ عَلَیهِ أَلَّا یفْعَلَ. (۶۹) |
इसलिए (पाप की इस स्वीकारोक्ति और पश्चाताप की अभिव्यक्ति के बाद) मुझे वैसे ही ढँक दो जैसे कि तू पापियों को ढँक देता है और मुझे क्षमा कर दो जैसे तू उन लोगों को क्षमा कर देता है जिन्होंने स्वयं को तुझ से और तेरे सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। लेकिन इस क्षमा और से मुझ पर कृपा करो, जिसके साथ तू उस क्षमा के साथ जिस क्षमा से तू अपने उम्मीदवार का पक्ष लेता हैं, (70) और आज मेरे लिए ऐसे भाग्य की घोषणा कर कि तेरी सहमति का एक हिस्सा मुझे दिया जा सके। मुझे उन लोगों से खाली हाथ न लौटा जो उपहार (पुरस्कार और इनाम) के साथ लौटते है। (71) हालाँकि मैंने वो अच्छे कर्म जो उन्होने आगे भेजे है मैने आगे नही भेजे, लेकिन मैंने तेरी एकता का विश्वास प्रस्तुत किया है और तेरा कोई प्रतिद्वंद्वी, साथी और समकक्ष नहीं है, और उन्हीं दरवाजों के माध्यम से, जिनके माध्यम से तूने मुझे आने की आज्ञा दी है आया हूं। और ऐसी चीज़ के माध्यम के बिना कोई तुझ से निकट नही हो सकता, निकटता चाही है। (72) | وَ هَا أَنَا ذَا بَینَ یدَیكَ صَاغِراً ذَلِیلًا خَاضِعاً خَاشِعاً خَائِفاً، مُعْتَرِفاً بِعَظِیمٍ مِنَ الذُّنُوبِ تَحَمَّلْتُهُ، وَ جَلِیلٍ مِنَ الْخَطَایا اجْتَرَمْتُهُ، مُسْتَجِیراً بِصَفْحِكَ، لَائِذاً بِرَحْمَتِكَ، مُوقِناً أَنَّهُ لَا یجِیرُنِی مِنْكَ مُجِیرٌ، وَ لَا یمْنَعُنِی مِنْكَ مَانِعٌ. (۷۰) فَعُدْ عَلَی بِمَا تَعُودُ بِهِ عَلَی مَنِ اقْتَرَفَ مِنْ تَغَمُّدِكَ، وَ جُدْ عَلَی بِمَا تَجُودُ بِهِ عَلَی مَنْ أَلْقَی بِیدِهِ إِلَیكَ مِنْ عَفْوِكَ، وَ امْنُنْ عَلَیَّ بِمَا لَا یَتَعَاظَمُكَ أَنْ تَمُنَّ بِهِ عَلَی مَنْ أَمَّلَكَ مِنْ غُفْرَانِكَ، (۷۱) وَ اجْعَلْ لِی فِی هَذَا الْیوْمِ نَصِیباً أَنَالُ بِهِ حَظّاً مِنْ رِضْوَانِكَ، وَ لَا تَرُدَّنِی صِفْراً مِمَّا ینْقَلِبُ بِهِ الْمُتَعَبِّدُونَ لَكَ مِنْ عِبَادِكَ (۷۲) |
फिर तेरी ओर रुजू और पलटना, तेरी उपस्थिति में नम्रता और विनम्रता, और तुझ से नेक गुमान, तेरी दया पर भरोसा करने के साथ-साथ निकटता की तलाश की गई है, और इसके साथ ऐसी आशा भी जुड़ी है जैसे कि तुझ से आशा लगाने वाली उससे वंचित नही रहता है। (73) और तुझ से इसी तरह पूछा है जिस प्रकार कोई निकम्मा, अपमानित, हारा हुआ, डरा हुआ और शरण मांगने वाला व्यक्ति शरण मांगता है, और इस स्थिति के बावजूद मेरा यह प्रश्न भय, असहायता, शरण की तलाश और सुरक्षा की तलाश में है ना कि अहंकारियों के अहंकार से श्रेष्ठता का दावा करने, न आज्ञाकारी के (अपनी इबादत में) गर्व और आत्मविश्वास के आधार पर इतराने और ना ही सिफारिश करने वालो की सिफारिश पर ऊंचाइयां दिखाते हुए, (74) | وَ إِنِّی وَ إِنْ لَمْ أُقَدِّمْ مَا قَدَّمُوهُ مِنَ الصَّالِحَاتِ فَقَدْ قَدَّمْتُ تَوْحِیدَكَ وَ نَفْی الْأَضْدَادِ وَ الْأَنْدَادِ وَ الْأَشْبَاهِ عَنْكَ، وَ أَتَیتُكَ مِنَ الْأَبْوَابِ الَّتِی أَمَرْتَ أَنْ تُؤْتَی مِنْهَا، وَ تَقَرَّبْتُ إِلَیكَ بِمَا لَا یقْرُبُ أَحَدٌ مِنْكَ إِلَّا بالتَّقَرُّبِ بِهِ. (۷۳) ثُمَّ أَتْبَعْتُ ذَلِكَ بِالْإِنَابَةِ إِلَیكَ، وَ التَّذَلُّلِ وَ الِاسْتِكَانَةِ لَكَ، وَ حُسْنِ الظَّنِّ بِكَ، وَ الثِّقَةِ بِمَا عِنْدَكَ، وَ شَفَعْتُهُ بِرَجَائِكَ الَّذِی قَلَّ مَا یخِیبُ عَلَیهِ رَاجِیكَ. (۷۴) |
और मैं इस स्वीकृति के साथ, हीन हूं सभी हीन लोगों के लिए एत चींटी की तरह, बल्कि उससे भी नीचे। हे वह जो पापियों को दंड देने में जल्दबाजी नहीं करता और विद्रोहियों को (अपनी नेमतो से) नहीं रोकता। हे वह जो अपराधियों को क्षमा करता है और पापियों को मोहलत देकर परोपकार करता है, (75) मैं पापपूर्ण पाप का स्वीकारकर्ता, और उल्लंघनकर्ता हूं। (76) | وَ سَأَلْتُكَ مَسْأَلَةَ الْحَقِیرِ الذَّلِیلِ الْبَائِسِ الْفَقِیرِ الْخَائِفِ الْمُسْتَجِیرِ، وَ مَعَ ذَلِكَ خِیفَةً وَ تَضَرُّعاً وَ تَعَوُّذاً وَ تَلَوُّذاً، لَا مُسْتَطِیلًا بِتَكَبُّرِ الْمُتَكَبِّرِینَ، وَ لَا مُتَعَالِیاً بِدَالَّةِ الْمُطِیعِینَ، وَ لَا مُسْتَطِیلًا بِشَفَاعَةِ الشَّافِعِینَ. (۷۵) وَ أَنَا بَعْدُ أَقَلُّ الْأَقَلِّینَ، وَ أَذَلُّ الْأَذَلِّینَ، وَ مِثْلُ الذَّرَّةِ أَوْ دُونَهَا، فَیا مَنْ لَمْ یعَاجِلِ الْمُسِیئِینَ، وَ لَا ینْدَهُ الْمُتْرَفِینَ، وَ یا مَنْ یمُنُّ بِإِقَالَةِ الْعَاثِرِینَ، وَ یتَفَضَّلُ بِإِنْظَارِ الْخَاطِئِینَ. (۷۶) |
मैं वही हूं जिसने बहादुरी से तेरे खिलाफ़ आगे बढ़ा। (77) मैं ही वो हूं जिसने जानबूझ कर पाप किये। (78) मैं वही हूं जिसने (अपने पापों को) तेरे सेवकों (बंदो) से छिपाया और खुलेआम तेरी अवहेलना की। (79) मैं वही हूं जो तेरे दासों से डरता था, (80) और तुझ से निडर रहता था। (81) मैं वह हूं जो न तेरे डर से परेशान हुआ और न तेरी सजा से डरा। (82) मैं स्वयं अपने आप में दोषियों के हाथों बंधक हूं।(82) मैं बेशर्म हूं (84) और मेरी परेशानी और पीड़ा लंबी है। (85) जो कुछ तू ने प्राणियों में से चुना है उसके हक का वास्ता देता हूं। उसके हक का वास्ता देता हूं जिसे तूने अपने लिए पसंद किया, उसके हक़ का वास्ता देता हूं जिसे तूने ब्राह्माण मे चुना और उसे अहकाम के प्रचार के लिए चुना, उसके हक़ का वास्ता देता हूं जिसकी आज्ञाकारिता को अपनी आज्ञाकारिता के साथ जोड़ा और जिसकी अवज्ञा को अपनी अवज्ञा घोषित किया। उसके हक़ का वास्ता देता हूं जिसकी मुहब्बत को अपनी मुहब्बत मिलाया औस जिसकी शत्रुता को अपनी शत्रुता घोषित किया। (86) आज मुझे इस दया से ढँक दे जो पापों को त्याग कर तुझ से नाला व फरयाद करे और तौबा करके तेरी शरण ले और जिस प्रकार अपने आज्ञाकारीयो और निटकता रखने वालो की सरपस्ती करता है उसी प्रकार मेरी सरपस्ती कर (87) और जिस प्रकार उन लोगो पर जिन्होने तेरी वादे को वफ़ा किया, तेरी खातिर सव्य को कष्टो मे डाला और तेरी प्रसन्नता के लिए कठिनाईयो को सहन किया, खुदा तनो तन्हा परोपकार करता है इसी प्रकार मुझ पर भी तनो तन्हा परोपकार कर। (88)तेरे अधिकारों मे लापरवाही करने, तेरी सीमाओं का उल्लंघन करने, और तेरे आदेशो की अवहेलना करने पर मेरा मुआख़ेज़ा ना कर (89) | أَنَا الْمُسِیءُ الْمُعْتَرِفُ الْخَاطِئُ الْعَاثِرُ. (۷۷) أَنَا الَّذِی أَقْدَمَ عَلَیكَ مُجْتَرِئاً. (۷۸) أَنَا الَّذِی عَصَاكَ مُتَعَمِّداً. (۷۹) أَنَا الَّذِی اسْتَخْفَی مِنْ عِبَادِكَ وَ بَارَزَكَ. (۸۰) أَنَا الَّذِی هَابَ عِبَادَكَ وَ أَمِنَكَ. (۸۱) أَنَا الَّذِی لَمْ یرْهَبْ سَطْوَتَكَ، وَ لَمْ یخَفْ بَأْسَكَ. (۸۲) أَنَا الْجَانِی عَلَی نَفْسِهِ (۸۳) أَنَا الْمُرْتَهَنُ بِبَلِیّتِهِ. (۸۴) أَنَا القَلِیلُ الْحَیاءِ. (۸۵) أَنَا الطَّوِیلُ الْعَنَاءِ. (۸۶) بِحَقِّ مَنِ انْتَجَبْتَ مِنْ خَلْقِكَ، وَ بِمَنِ اصْطَفَیتَهُ لِنَفْسِكَ، بِحَقِّ مَنِ اخْتَرْتَ مِنْ بَرِیتِكَ، وَ مَنِ اجْتَبَیتَ لِشَأْنِكَ، بِحَقِّ مَنْ وَصَلْتَ طَاعَتَهُ بِطَاعَتِكَ، وَ مَنْ جَعَلْتَ مَعْصِیتَهُ كَمَعْصِیتِكَ، بِحَقِّ مَنْ قَرَنْتَ مُوَالاتَهُ بِمُوَالاتِكَ، وَ مَنْ نُطْتَ مُعَادَاتَهُ بِمُعَادَاتِكَ، تَغَمَّدْنِی فِی یوْمِی هَذَا بِمَا تَتَغَمَّدُ بِهِ مَنْ جَارَ إِلَیكَ مُتَنَصِّلًا، وَ عَاذَ بِاسْتِغْفَارِكَ تَائِباً. (۸۷) وَ تَوَلَّنِی بِمَا تَتَوَلَّی بِهِ أَهْلَ طَاعَتِكَ وَ الزُّلْفَی لَدَیكَ وَ الْمَكَانَةِ مِنْكَ. (۸۸) وَ تَوَحَّدْنِی بِمَا تَتَوَحَّدُ بِهِ مَنْ وَفَی بِعَهْدِكَ، وَ أَتْعَبَ نَفْسَهُ فِی ذَاتِكَ، وَ أَجْهَدَهَا فِی مَرْضَاتِكَ. (۸۹) |
और मुझे उस व्यक्ति की मोहलत देने की भांति मोहलत देकर धीरे धीरे अपने अज़ाब का हकदार ना बना जिसने अपनी अच्छाई मुझ से रोक लिया और यह समझता है कि वही नेमत प्रदान करने वाला है यहा तक कि तुझे भी इन नेमतो के प्रदान करने मे भागीदार न समझा हो। (90) मुझे लापरवाहों की नींद, गरीबों के सपनों और बदनसीबों की लापरवाही से अवगत कर दे (91) | وَ لَا تُؤَاخِذْنِی بِتَفْرِیطِی فِی جَنْبِكَ، وَ تَعَدِّی طَوْرِی فِی حُدُودِكَ، وَ مُجَاوَزَةِ أَحْكَامِكَ. (۹۰) وَ لَا تَسْتَدْرِجْنِی بِإِمْلَائِكَ لِی اسْتِدْرَاجَ مَنْ مَنَعَنِی خَیرَ مَا عِنْدَهُ وَ لَمْ یشْرَكْكَ فِی حُلُولِ نِعْمَتِهِ بِی. (۹۱) |
और मेरे दिल को उस रास्ते पर लगा जिस पर तूने आज्ञाकारीयो का मार्गदर्शन किया है, और मुझे उस इबादत की ओर झुका जिसका तूने आदेश दिया है। और उन चीजों को निर्देशित कर जिनके माध्यम से लापरवाहो को मुक्ति दी है। (92) और जो बाते तेरी उपस्थिति से दूर कर दें और मेरे और तेरे भाग्य में बाधा डालती हैं और तुझे तेरे उद्देश्य और लक्ष्य से रोकती हैं उनसे रक्षा कर, (93) | وَ نَبِّهْنِی مِنْ رَقْدَةِ الْغَافِلِینَ، وَ سِنَةِ الْمُسْرِفِینَ، وَ نَعْسَةِ الْمَخْذُولِینَ (۹۲) وَ خُذْ بِقَلْبِی إِلَی مَا اسْتَعْمَلْتَ بِهِ الْقَانِتِینَ، وَ اسْتَعْبَدْتَ بِهِ الْمُتَعَبِّدِینَ، وَ اسْتَنْقَذْتَ بِهِ الْمُتَهَاوِنِینَ. (۹۳) |
और अच्छे कर्मों की ओर बढ़ने मे मार्गदर्शन कर जैसा कि तूने आदेश दिया है और उनके आपकी इच्छानुसार उत्सुक इच्छा, मेरे लिए इसे आसान बना। (94) और जो लोग तेरे अज़ाब और वादे को हल्का समझते हैं जिनको तू नष्ट कर देगा, मुझे उनके साथ न करना, (95) | وَ أَعِذْنِی مِمَّا یُبَاعِدُنِی عَنْكَ، وَ یَحُولُ بَینِی وَ بَینَ حَظِّی مِنْكَ، وَ یصُدُّنِی عَمَّا أُحَاوِلُ لَدَیكَ (۹۴) وَ سَهِّلْ لِی مَسْلَكَ الْخَیرَاتِ إِلَیكَ، وَ الْمُسَابَقَةَ إِلَیهَا مِنْ حَیثُ أَمَرْتَ، وَ الْمُشَاحَّةَ فِیهَا عَلَی مَا أَرَدْتَ. (۹۵) |
और जिन्हें शत्रुता पर तैयार होने के कारण नष्ट करेगा, उनके साथ मुझे नष्ट न करना, (96) और अपनी सीधी राहों से भटक जाने वालो के जुमरे मे कि जिन्हे तू बरबाद करेगा, मुझे बरबाद ना करना (97) और फ़ितना व फ़साद के भवर से मुझे बचा और मुझे प्रलोभन के मुंह से छुड़ा ले और मोहलत के जमाने के (बुरे कर्मो) की पकड़ से पनाह दे (98) और उस शुत्रु के बीच जो मुझे बहकाए और उस खाहिशे नफ़्स के बीच जो मुझे तबाह व बरबाद करे और स ऐब व नक़्स के बीच जो मुझे घेर ले, बाधा बन जा। (99) और जैसे उस व्यक्ति से कि जिस पर विमुख होने के बाद तू राज़ी नही होता मुहं मोड़ लेता है उसी प्रकार मुझ से मुख ना मोड़ना (100) | وَ لَا تَمْحَقْنِی فِیمَن تَمْحَقُ مِنَ الْمُسْتَخِفِّینَ بِمَا أَوْعَدْتَ (۹۶) وَ لَا تُهْلِكْنِی مَعَ مَنْ تُهْلِكُ مِنَ الْمُتَعَرِّضِینَ لِمَقْتِكَ (۹۷) وَ لَا تُتَبِّرْنِی فِیمَنْ تُتَبِّرُ مِنَ الْمُنْحَرِفِینَ عَنْ سُبُلِكَ (۹۸) وَ نَجِّنِی مِنْ غَمَرَاتِ الْفِتْنَةِ، وَ خَلِّصْنِی مِنْ لَهَوَاتِ الْبَلْوَی، وَ أَجِرْنِی مِنْ أَخْذِ الْإِمْلَاءِ. (۹۹) وَ حُلْ بَینِی وَ بَینَ عَدُوٍّ یضِلُّنِی، وَ هَوًی یوبِقُنِی، وَ مَنْقَصَةٍ تَرْهَقُنِی (۱۰۰) |
और जो आशाए तुझ से जुड़ी है उनमे मुझे असहाय न कर कि तेरी दया से निराशा मुझ पर हावी हो जाए (101) और मुझे इतनी नेमते भी प्रदान ना कर कि जिनको उठाने (सहन करने) की शक्ति नही रखता कि तू मुहब्बत से मुझ वह बार लाद दे कि जो मुझे दबा दे। (102) और मुझे अपने हाथ से न छोड़ जैसे वह उसे बिना किसी लाभ के छोड़ता है, और न तुझे उससे कोई मतलब हो, न उसके लिए पश्चाताप हो, (103) | وَ لَا تُعْرِضْ عَنِّی إِعْرَاضَ مَنْ لَا تَرْضَی عَنْهُ بَعْدَ غَضَبِكَ (۱۰۱) وَ لَا تُؤْیسْنِی مِنَ الْأَمَلِ فِیكَ فَیغْلِبَ عَلَی الْقُنُوطُ مِنْ رَحْمَتِكَ (۱۰۲) وَ لَا تَمْنَحْنِی بِمَا لَا طَاقَةَ لِی بِهِ فَتَبْهَظَنِی مِمَّا تُحَمِّلُنِیهِ مِنْ فَضْلِ مَحَبَّتِكَ. (۱۰۳) |
और मुझे भी इस प्रकार न फेंक जैसे उसे फेंक देता है जो तेरी दृष्टि से गिर चुका हो। और तेरी ओर से लज्जा और निरादर की छाया छाई हो, बल्कि गिरने वालो के गिरने से और टेढ़े लोगों के भय से, और फ़रेब खुर्दा लोगो की फिसलन से, और नाश होनेवालों के विनाश मे गिरने से मेरा हाथ पकड़ ले। (104) अपने बंदो और कनीज़ो के विभिन्न वर्गों को जिन चीजो मे घेरा है उससे मुझे विनाश और शांति और सुरक्षा प्रदान करें। (105) और जिनको तूने आशीर्वाद दिया है, जिनसे तू प्रसन्न है, जिन्हें तूने प्रशंसनीय जीवन दिया है और जो सुख और सफलता से मरे हैं, मुझे उनका पद प्रदान कर। (106) | وَ لَا تُرْسِلْنِی مِنْ یدِكَ إِرْسَالَ مَنْ لَا خَیرَ فِیهِ، وَ لَا حَاجَةَ بِكَ إِلَیهِ، وَ لَا إِنَابَةَ لَهُ (۱۰۴) وَ لَا تَرْمِ بِی رَمْی مَنْ سَقَطَ مِنْ عَینِ رِعَایتِكَ، وَ مَنِ اشْتَمَلَ عَلَیهِ الْخِزْی مِنْ عِنْدِكَ، بَلْ خُذْ بِیدِی مِنْ سَقْطَةِ الْمُتَرَدِّینَ، وَ وَهْلَةِ الْمُتَعَسِّفِینَ، وَ زَلَّةِ الْمَغْرُورِینَ، وَ وَرْطَةِ الْهَالِكِینَ. (۱۰۵) وَ عَافِنِی مِمَّا ابْتَلَیتَ بِهِ طَبَقَاتِ عَبِیدِكَ وَ إِمَائِكَ، وَ بَلِّغْنِی مَبَالِغَ مَنْ عَنَیتَ بِهِ، وَ أَنْعَمْتَ عَلَیهِ، وَ رَضِیتَ عَنْهُ، فَأَعَشْتَهُ حَمِیداً، وَ تَوَفَّیتَهُ سَعِیداً (۱۰۶) |
और वो चीज़े जो अच्छे कर्मो को नष्ट और आशीर्वाद को हटा दे उनसे मेरे लिए दूरी इस तरह जरूरी कर दे जैसे कि गर्दन मे पड़ा हुआ तौक और बड़े पापो तथा अपमानजनक पापों से अलगाव (107) और घृणा को मेरे दिल के लिए उसी तरह आवश्यक बना दे जिस प्रकार शरीर से चिपके हुए वस्त्र (108) और मुझे संसार में उलझा कर जिसे तेरी सहायता के बिना प्राप्त नहीं कर सकता, उन कार्यों से जिनके अलावा तुझे कोई अन्य चीज़ मुझसे प्रसन्न नहीं कर सकती, रोक ना दे। (109) | وَ طَوِّقْنِی طَوْقَ الْإِقْلَاعِ عَمَّا یحْبِطُ الْحَسَنَاتِ، وَ یذْهَبُ بِالْبَرَكَاتِ (۱۰۷) وَ أَشْعِرْ قَلْبِی الِازْدِجَارَ عَنْ قَبَائِحِ السَّیئَاتِ، وَ فَوَاضِحِ الْحَوْبَاتِ. (۱۰۸) وَ لَا تَشْغَلْنِی بِمَا لَا أُدْرِكُهُ إِلَّا بِكَ عَمَّا لَا یرْضِیكَ عَنِّی غَیرُهُ (۱۰۹) |
और इस तुच्छ दुनिया का प्यार, जो मुझे तेरी शाश्वत खुशी की ओर जाने से रोकता है, और मुझे तेरी ओर वसीला मांगने से, और तेरे करीब जाने से रोकने वाला है, (110) और मेरे लिए, दिन-रात तेरी प्रार्थना करने के लिए एकांत को सुखद बना दे। (111) इसे मेरे दिल से निकाल दे और मुझे बेदाग रानी प्रदान कर, जो मुझे तेरे भय के करीब, मोहर्रेमात से अलग और बड़े पापो के बंधनो से मुक्त कर दे। (112) | وَ انْزِعْ مِنْ قَلْبِی حُبَّ دُنْیا دَنِیةٍ تَنْهَی عَمَّا عِنْدَكَ، وَ تَصُدُّ عَنِ ابْتِغَاءِ الْوَسِیلَةِ إِلَیكَ، وَ تُذْهِلُ عَنِ التَّقَرُّبِ مِنْكَ. (۱۱۰) وَ زَینْ لِی التَّفَرُّدَ بِمُنَاجَاتِكَ بِاللیلِ وَ النَّهَارِ (۱۱۱) وَ هَبْ لِی عِصْمَةً تُدْنِینِی مِنْ خَشْیتِكَ، وَ تَقْطَعُنِی عَنْ رُكُوبِ مَحَارِمِكَ، وَ تَفُكَّنِی مِنْ أَسْرِ الْعَظَائِمِ. (۱۱۲) |
और मुझे पापों के संदूषण से पवित्रता प्रदान कर और मेरे ऊपर से अधर्म की गंदगी को दूर कर दे और मुझे अपनी आफ़ीयत के वस्त्र पहना और मुझे अपनी सुरक्षा के लबादे से ढँक दे और मुझे अपने प्रचुर आशीर्वाद और उपहारों की श्रृंखला निरंतर जारी रख। (113) और अपनी तोफी के मार्ग के मार्गदर्शन से मुझे मजबूत कर और पवित्र मन, पसंदीदा वाणी और अच्छे चरित्र की श्रृंखला मे मेरी सहायता कर और अपनी ताकत-शक्ति के बजाय मुझे मेरी ताक़त शक्ति के हवाले ना कर। (114) | وَ هَبْ لِی التَّطْهِیرَ مِنْ دَنَسِ الْعِصْیانِ، وَ أَذْهِبْ عَنِّی دَرَنَ الْخَطَایا، وَ سَرْبِلْنِی بِسِرْبَالِ عَافِیتِكَ، وَ رَدِّنِی رِدَاءَ مُعَافَاتِكَ، وَ جَلِّلْنِی سَوَابِغَ نَعْمَائِكَ، وَ ظَاهِرْ لَدَی فَضْلَكَ وَ طَوْلَكَ (۱۱۳) وَ أَیدْنِی بِتَوْفِیقِكَ وَ تَسْدِیدِكَ، وَ أَعِنِّی عَلَی صَالِحِ النِّیةِ، وَ مَرْضِی الْقَوْلِ، وَ مُسْتَحْسَنِ الْعَمَلِ، وَ لَا تَكِلْنِی إِلَی حَوْلِی وَ قُوَّتِی دُونَ حَوْلِكَ وَ قُوَّتِكَ. (۱۱۴) |
और जिस दिन मुझे अपने पास बुलाए, उस दिन मुझे मेरे मित्रों के सामने अपमानित न करना, और अपनी याद को मेरे हृदय से विस्मृत न होने देना, और मुझ पर से अपना उपकार न छीनना। बल्कि जब मैं तेरे आशीर्वाद से अनजान हूं, सहव और लापरवाही की दुनिया मे हूं, मेरे लिए अदा ए शुक्र अनिवार्य कर दे और मेरे हृदय मे यह बात डाल दे कि जो नेमते तूने प्रदान की है उनपर हम्द और तौसीफ और जो अहसासात मुझ पर किए है उनको स्वीकार करूं। (115) | وَ لَا تُخْزِنِی یوْمَ تَبْعَثُنِی لِلِقَائِكَ، وَ لَا تَفْضَحْنِی بَینَ یدَی أَوْلِیائِكَ، وَ لَا تُنْسِنِی ذِكْرَكَ، وَ لَا تُذْهِبْ عَنِّی شُكْرَكَ، بَلْ أَلْزِمْنِیهِ فِی أَحْوَالِ السَّهْوِ عِنْدَ غَفَلَاتِ الْجَاهِلِینَ لِآلْائِكَ، وَ أَوْزِعْنِی أَنْ أُثْنِی بِمَا أَوْلَیتَنِیهِ، وَ أَعْتَرِفَ بِمَا أَسْدَیتَهُ إِلَی. (۱۱۵) |
और मेरा ध्यान उन सब से अधिक अपनी ओर आकर्षित कर, जो ध्यान देते हैं, और मेरी स्तुति को सभी स्तुति करने वालो से ऊपर रख (116) और जब मुझे तेरी आवश्यकता हो तो मुझे अपनी सहायता से वंचित ना करना और जिन कामों को तेरे सामने प्रस्तुत किया हैं, उनको मेरी लिए मृत्यु का कारण ना बनाना। और जिस आचरण और चरित्र के कारण तूने अवज्ञाकारियो का अपमान किया है उस प्रकार मुझे अपमानित ना करना। इसलिए कि मै तेरा आज्ञाकारी हूं, और इस बात से भलि भांति अवगत हूं कि हुज्जत और बुरहान तेरे ही लिए है। और तू ही कृपा और क्षमा का अधिक दंड देने वाला और दयालुता से लाभान्वित करने वाला हैं और तुझ से डरा जाए और वह क्षमा के साथ कार्य करने में सक्षम है और इसका अधिक हकदार है दंड देने की अपेक्षा क्षमा कर दे तथा प्रचार की अपेक्षा छिपाना तेरे दृष्टिकोण के अधिक निकट है। (117) | وَ اجْعَلْ رَغْبَتِی إِلَیكَ فَوْقَ رَغْبَةِ الرَّاغِبِینَ، وَ حَمْدِی إِیاكَ فَوْقَ حَمْدِ الْحَامِدِینَ (۱۱۶) وَ لَا تَخْذُلْنِی عِنْدَ فَاقَتِی إِلَیكَ، وَ لَا تُهْلِكْنِی بِمَا. أَسْدَیتُهُ إِلَیكَ، وَ لَا تَجْبَهْنِی بِمَا جَبَهْتَ بِهِ الْمُعَانِدِینَ لَكَ، فَإِنِّی لَكَ مُسَلِّمٌ، أَعْلَمُ أَنَّ الْحُجَّةَ لَكَ، وَ أَنَّكَ أَوْلَی بِالْفَضْلِ، وَ أَعْوَدُ بِالْإِحْسَانِ، وَ أَهْلُ التَّقْوی، وَ أَهْلُ الْمَغْفِرَةِ، وَ أَنَّكَ بِأَنْ تَعْفُوَ أَوْلَی مِنْكَ بِأَنْ تُعَاقِبَ، وَ أَنَّكَ بِأَنْ تَسْتُرَ أَقْرَبُ مِنْكَ إِلَی أَنْ تَشْهَرَ. (۱۱۷) |
फिर मुझे ऐसा पवित्र जीवन दो जिसमें जो चीजें मैं चाहता हूं उनमें शामिल हो और जो चीजें मुझे नापसंद हैं उनसे परहेज हो। इसी प्रकार कि मैं वह ना करूँ जो तुझे पसन्द न हो और जो काम करने को मना करे उसे ना करूँ, और मुझे एक ऐसे मनुष्य की मृत्यु दे जिसकी रोशनी उसके सामने और उसके दाहिनी ओर चलती हो। (118) | فَأَحْینِی حَیاةً طَیبَةً تَنْتَظِمُ بِمَا أُرِیدُ، وَ تَبْلُغُ مَا أُحِبُّ مِنْ حَیثُ لَا آتِی مَا تَكْرَهُ، وَ لَا أَرْتَكِبُ مَا نَهَیتَ عَنْهُ، وَ أَمِتْنِی مِیتَةَ مَنْ یسْعَی نُورُهُ بَینَ یدَیهِ وَ عَنْ یمِینِهِ. (۱۱۸) |
और मुझे अपने सामने नम्र और लोगों की दृष्टि में प्रतिष्ठित कर दे, और जब तुझ से एकांत मे बात करू तो मुझे पस्त और गिरा हुआ और अपने बंदो मे ऊंचा कर, और जो लोग मुझ से बे नयाज़ हो उस से मुझे बे नियाज़ कर दे और मेरी दरिद्र्ता और विरोध को अपनी ओर बढ़ा दे (119) और दुश्मनो की हंसी, बलाओ के विर्द और अपमान से शरण दे, और मेरे उन पापो के बारे मे कि जिन से तू अवगत है उस व्यक्ति की तरह मेरी पर्दा पोशी कर कि अगर उसका आदेश आड़े ना होता तो वह सख्त पकड़ पर सक्षम होता और अगर उसकी रौशनी मे मेरी नम्रता ना होती तो वह पापो पर मुआख़ेज़ा करता। (120) | وَ ذَلِّلْنِی بَینَ یدَیكَ، وَ أَعِزَّنِی عِنْدَ خَلْقِكَ، وَ ضَعْنِی إِذَا خَلَوْتُ بِكَ، وَ ارْفَعْنِی بَینَ عِبَادِكَ، وَ أَغْنِنِی عَمَّنْ هُوَ غَنِی عَنِّی، وَ زِدْنِی إِلَیكَ فَاقَةً وَ فَقْراً. (۱۱۹) وَ أَعِذْنِی مِنْ شَمَاتَةِ الْأَعْدَاءِ، وَ مِنْ حُلُولِ الْبَلَاءِ، وَ مِنَ الذُّلِّ وَ الْعَنَاءِ، تَغَمَّدْنِی فِیمَا اطَّلَعْتَ عَلَیهِ مِنِّی بِمَا یتَغَمَّدُ بِهِ الْقَادِرُ عَلَی الْبَطْشِ لَوْ لَا حِلْمُهُ، وَ الْآخِذُ عَلَی الْجَرِیرَةِ لَوْ لَا أَنَاتُهُ (۱۲۰) |
और जब किसी गिरोह को तू मुसीबत में गिरफ़्तार या किसी बला में डालना चाहे, तो उसी स्थिति मे तुझ से शरण लेता हूं इस मुसीबत से बचा और जब के तूने मुझे इस दुनिया में अपमानित स्थिति में नहीं रखा, तो इसी तरह से आख़ेरत मे भी अपमान की जगह पर मत खड़ा करना। (121) | وَ إِذَا أَرَدْتَ بِقَوْمٍ فِتْنَةً أَوْ سُوءاً فَنَجِّنِی مِنْهَا لِوَاذاً بِكَ، وَ إِذْ لَمْ تُقِمْنِی مَقَامَ فَضِیحَةٍ فِی دُنْیاكَ فَلَا تُقِمْنِی مِثْلَهُ فِی آخِرَتِكَ (۱۲۱) |
और मेरे लिए दुनिया की नेअमतों को आख़िरत की नेअमतों से तथा पुराने फ़ायदों को आधुनिक फ़ायदों के साथ जोड़ दे, और मुझे इतनी मोहलत न दे कि उसके परिणामस्वरूप मेरा दिल कठोर हो जाए, और मुझे ऐसी मुसीबत मे मत डाल जिस से मेरे मान-सम्मान खत्म हो जाए और ऐसी ज़िल्लत से दोचार ना कर जिस से मेरी इज़्ज़त और रूतबा घट जाए और ऐसे ऐब मे गिरफ्तार ना कर जिस से मेरी गरीमा को ठेस पहुंचे और मुझे इतना भयभीत ना कर कि मै निराश हो जाऊं और ऐसा खौफ़ ना दिला कि मै परेशान हो जाऊं। (122) | وَ اشْفَعْ لِی أَوَائِلَ مِنَنِكَ بِأَوَاخِرِهَا، وَ قَدِیمَ فَوَائِدِكَ بِحَوَادِثِهَا، وَ لَا تَمْدُدْ لِی مَدّاً یقْسُو مَعَهُ قَلْبِی، وَ لَا تَقْرَعْنِی قَارِعَةً یذْهَبُ لَهَا بَهَائِی، وَ لَا تَسُمْنِی خَسِیسَةً یصْغُرُ لَهَا قَدْرِی وَ لَا نَقِیصَةً یجْهَلُ مِنْ أَجْلِهَا مَكَانِی. (۱۲۲) |
मेरे डर को अपने वादे और फिटकार पर और मेरे अंदीशे को तेरे उज़र तमाम करने और डराने मे निर्भर कर दे और मेरे ख़ौफ व हिरास को (कुरान की) आयतें पढ़ते समय स्पष्ट कर दे। (123) | وَ لَا تَرُعْنِی رَوْعَةً أُبْلِسُ بِهَا، وَ لَا خِیفَةً أُوجِسُ دُونَهَا، اجْعَلْ هَیبَتِی فِی وَعِیدِكَ، وَ حَذَرِی مِنْ إِعْذَارِكَ وَ إِنْذَارِكَ، وَ رَهْبَتِی عِنْد تِلَاوَةِ آیاتِكَ. (۱۲۳) |
और मुझे अपनी इबादत के लिए जगाए रखना, एकांत और तनहाई में मुनाजात के लिए जागने, सबसे अलग रह कर तुझ मे ध्यान करने तेरे सामने अपनी जरूरतों को सामने पेश करने, नरक की आग से मुक्ति के लिए बार-बार विनती करने और तेरी उस पीड़ा से जिस मे नरक के लोग गिरफ्तार है पनाह मांगने के वसीले से मेरी रातो को आबाद कर। (124) और मुझे अपराध में पथभ्रष्ट न कर, और मुझे कुछ समय तक लापरवाही में पड़े रहने न दे, और मुझे उपदेश लेने वालों के लिये सीख , और देखनेवालों के लिये परीक्षा और गुमराही का कारण न बना। मुझे उन लोगों में से न बना जिन्हें तू (उनके मकर के बदले में) ठुकरा देगा और मेरे बजाय किसी और को (इनाम और माफ़ी के लिए) मत चुन। मेरा नाम और मेरा शरीर मत बदल और मुझे प्राणियों के सामने हास्यास्पद और अपनी उपस्थिति में उपहास करने वाला मत बना। मुझे केवल उन्ही चीज़ो का पाबंद बना जिस से तेरी प्रसन्नता बंधी हो और मुझे केवल (तेरे शत्रुओं से) प्रतिशोध लेने के कष्ट से मुक्त कर। (125) | وَ اعْمُرْ لَیلِی بِإِیقَاظِی فِیهِ لِعِبَادَتِكَ، وَ تَفَرُّدِی بِالتَّهَجُّدِ لَكَ، وَ تَجَرُّدِی بِسُكُونِی إِلَیكَ، وَ إِنْزَالِ حَوَائِجِی بِكَ، وَ مُنَازَلَتِی إِیاكَ فِی فَكَاكِ رَقَبَتِی مِنْ نَارِكَ، وَ إِجَارَتِی مِمَّا فِیهِ أَهْلُهَا مِنْ عَذَابِكَ. (۱۲۴) وَ لَا تَذَرْنِی فِی طُغْیانِی عَامِهاً، وَ لَا فِی غَمْرَتِی سَاهِیاً حَتَّی حِینٍ، وَ لَا تَجْعَلْنِی عِظَةً لِمَنِ اتَّعَظَ، وَ لَا نَكَالًا لِمَنِ اعْتَبَرَ، وَ لَا فِتْنَةً لِمَنْ نَظَرَ، وَ لَا تَمْكُرْ بِی فِیمَنْ تَمْكُرُ بِهِ، وَ لَا تَسْتَبْدِلْ بِی غَیرِی، وَ لَا تُغَیرْ لِی اسْماً، وَ لَا تُبَدِّلْ لِی جِسْماً، وَ لَا تَتَّخِذْنِی هُزُواً لِخَلْقِكَ، وَ لَا سُخْرِیاً لَكَ، وَ لَا تَبَعاً إِلَّا لِمَرْضَاتِكَ، وَ لَا مُمْتَهَناً إِلَّا بِالانْتِقَامِ لَكَ. (۱۲۵) |
और मुझे अपनी क्षमा और दया की लज़्ज़त और रहमत, और जन्नत नईम की शीरीनी से परिचित करा और अपनी वसअत व तवनगरी के बावजूद ऐसी फ़रागत से अवगत करा जिसमें मैं तेरे पसंदीदा कार्य और ऐसे प्रयास कर सकूं और मुझे अवसर दें जिससे तेरी निकट आने का कारण बने और मुझे अपने उपहारों से एक नया उपहार प्रदान कर। (126) | وَ أَوْجِدْنِی بَرْدَ عَفْوِكَ، وَ حَلَاوَةَ رَحْمَتِكَ وَ رَوْحِكَ وَ رَیحَانِكَ، وَ جَنَّةِ نَعِیمِكَ، وَ أَذِقْنِی طَعْمَ الْفَرَاغِ لِمَا تُحِبُّ بِسَعَةٍ مِنْ سَعَتِكَ، وَ الِاجْتِهَادِ فِیمَا یزْلِفُ لَدَیكَ وَ عِنْدَكَ، وَ أَتْحِفْنِی بِتُحْفَةٍ مِنْ تُحَفَاتِكَ. (۱۲۶) |
और मेरे अखरवी व्यापार को लाभदायक और मेरी बाज़गश्त को हानिरहित बना और मुझे अपने स्थिति और पद से भयभीत कर और मुझे अपनी मुलाकात के लिए तरसा और मुझे ऐसी सच्चे पश्चाताप का अवसर प्रदान कर जिसके साथ मेरे छोटे और बड़े पाप नहीं रहें। और खुले तथा ढके पापो को मिटा दे। (127) | وَ اجْعَلْ تِجَارَتِی رَابِحَةً، وَ كَرَّتِی غَیرَ خَاسِرَةٍ، وَ أَخِفْنِی مَقَامَكَ، وَ شَوِّقْنِی لِقَاءَكَ، وَ تُبْ عَلَی تَوْبَةً نَصُوحاً لَا تُبْقِ مَعَهَا ذُنُوباً صَغِیرَةً وَ لَا كَبِیرَةً، وَ لَا تَذَرْ مَعَهَا عَلَانِیةً وَ لَا سَرِیرَةً. (۱۲۷) |
और मेरे दिल से ईमान वालों के लिए कीना और बुग़्ज़ (द्वेष) को निकाल दे और मेरे दिल को अवज्ञाकारियों और विनम्र लोगों के लिए दयालु बना दे, और मेरे लिए तू ऐसा हो जा जैसा धर्मियों के लिए है, और मुझे पवित्र लोगों (परहेजगार लोगो) के आभूषणों से सुशोभित कर। और भविष्य मे आने वालो मे मेरी याद और आने वाली पीढ़ियों में मेरा ज़िक्र दिन-प्रतिदिन बढ़ता रहे और साबेक़ूनल अव्वलून के पद और स्थान तक मुझे पहुंचा दे और मुझ पर भरपूर आशीर्वाद पूरा कर। (128) | وَ انْزِعِ الْغِلَّ مِنْ صَدْرِی لِلْمُؤْمِنِینَ، وَ اعْطِفْ بِقَلْبِی عَلَی الْخَاشِعِینَ، وَ كُنْ لِی كَمَا تَكُونُ لِلصَّالِحِینَ، وَ حَلِّنِی حِلْیةَ الْمُتَّقِینَ، وَ اجْعَلْ لِی لِسانَ صِدْقٍ فِی الْغَابِرِینَ، وَ ذِكْراً نَامِیاً فِی الْآخِرِینَ، وَ وَافِ بِی عَرْصَةَ الْأَوَّلِینَ. (۱۲۸) |
और इसके फायदों का सिलसिला जारी रख, मेरे हाथों को अपनी कृपा से भर दे और अपनी बहुमूल्य कृपा को मेरी ओर बढ़ा दे और स्वर्ग में जिसे तूने अपने चुने हुए बंदो के लिए सजाया है मुझे अपने पवित्र मित्रों का पड़ोसी बना और उन स्थानों में जो तूने अपने दोस्तों के लिए तैयार किए हैं। मुझे बढ़िया और उत्तम उपहार प्रदान कर। (129) | وَ تَمِّمْ سُبُوغَ نِعْمَتِكَ، عَلَی، وَ ظَاهِرْ كَرَامَاتِهَا لَدَی، امْلَأْ مِنْ فَوَائِدِكَ یدِی، وَ سُقْ كَرَائِمَ مَوَاهِبِكَ إِلَی، وَ جَاوِرْ بِی الْأَطْیبِینَ مِنْ أَوْلِیائِكَ فِی الْجِنَانِ الَّتِی زَینْتَهَا لِأَصْفِیائِكَ، وَ جَلِّلْنِی شَرَائِفَ نِحَلِكَ فِی الْمَقَامَاتِ الْمُعَدَّةِ لِأَحِبَّائِكَ. (۱۲۹) |
और मेरे लिए वह विश्राम-स्थल जहा मै सन्तुष्ट रहूं और वह ठिकाना जहाँ मैं ठहरू और अपनी आँखों को ठण्डा कर सकूँ, उसे अपने निकट करार दे और मुझे मेरे बड़े-बड़े पापों के अनुसार मुझे सज़ा न देना, और जिस दिन दिलों के रहस्यों का परीक्षण किया जाएगा, मुझे हलाक ना करना, मुझ से सभी संदेह दूर कर दे और मेरे लिए हर दिशा से सच्चाई तक पहुंचने का रास्ता बना और मेरे लिए अपनी उदारता और क्षमा के हिस्से और अपनी कृपा से भलाई और दयालुता को बढ़ा दे। प्रचुर आशीर्वाद प्रदान कर। (130) | وَ اجْعَلْ لِی عِنْدَكَ مَقِیلًا آوِی إِلَیهِ مُطْمَئِنّاً، وَ مَثَابَةً أَتَبَوَّؤُهَا، وَ أَقَرُّ عَیناً، وَ لَا تُقَایسْنِی بِعَظِیمَاتِ الْجَرَائِرِ، وَ لَا تُهْلِكْنِی یوْمَ تُبْلَی السَّرائِرُ، وَ أَزِلْ عَنِّی كُلَّ شَكٍّ وَ شُبْهَةٍ، وَ اجْعَلْ لِی فِی الْحَقِّ طَرِیقاً مِنْ كُلِّ رَحْمَةٍ، وَ أَجْزِلْ لِی قِسَمَ الْمَوَاهِبِ مِنْ نَوَالِكَ، وَ وَفِّرْ عَلَی حُظُوظَ الْإِحْسَانِ مِنْ إِفْضَالِكَ. (۱۳۰) |
और जो कुछ तेरे पास है, उस से मेरा मन सन्तुष्ट रहे, और मेरा ध्यान तेरे कामों की ओर एक मन रहे, और जो काम तू अपने खास दासों से लेता है, वह मुझ से ले ले। और जब बुद्धि उपेक्षा में पड़ जाए, तो मेरे हृदय को आज्ञाकारिता की लालसा से भर दे और मेरे लिए देखभाल, पवित्रता, आराम, सुरक्षा, स्वास्थ्य, उदारता, संतुष्टि और कल्याण इकट्ठा कर। (131) और पापों के मिश्रण से मेरे सद्गुणों को नष्ट न कर और परीक्षा के मार्ग में होने वाले भ्रष्टाचारों के कारण मेरे अकेलेपन को नष्ट न कर, और मेरे मान-सम्मान की रक्षा कर और दुनिया के किसी भी व्यक्ति के सामने हाथ फैलाने से मुझे रोक। जो चीज़ें दुष्टों के पास हैं उनकी तलाश और चाहत से, और मुझे ज़ालिमों का समर्थक न बना, और किताब की (आज्ञाओं) को रद्द करने के लिए मुझे समर्थक और सहायक न बना, और मेरी देखभाल कर इस तरह कि मुझे इसके बारे में पता भी नहीं चले ऐसी देखभाल जिसके द्वारा मैं विनाश से बच सकूं। (132) | وَ اجْعَلْ قَلْبِی وَاثِقاً بِمَا عِنْدَكَ، وَ هَمِّی مُسْتَفْرَغاً لِمَا هُوَ لَكَ، وَ اسْتَعْمِلْنِی بِمَا تَسْتَعْمِلُ بِهِ خَالِصَتَكَ، وَ أَشْرِبْ قَلْبِی عِنْدَ ذُهُولِ الْعُقُولِ طَاعَتَكَ، وَ اجْمَعْ لِی الْغِنَی وَ الْعَفَافَ وَ الدَّعَةَ وَ الْمُعَافَاةَ وَ الصِّحَّةَ وَ السَّعَةَ وَ الطُّمَأْنِینَةَ وَ الْعَافِیةَ. (۱۳۱) وَ لَا تُحْبِطْ حَسَنَاتِی بِمَا یشُوبُهَا مِنْ مَعْصِیتِكَ، وَ لَا خَلَوَاتِی بِمَا یعْرِضُ لِی مِنْ نَزَغَاتِ فِتْنَتِكَ، وَ صُنْ وَجْهِی عَنِ الطَّلَبِ إِلَی أَحَدٍ مِنَ الْعَالَمِینَ، وَ ذُبَّنِی عَنِ الْتِمَاسِ مَا عِنْدَ الْفَاسِقِینَ. (۱۳۲) |
और मेरे लिए तौबा और रहमत, ख़ुशी और तसल्ली और भरपूर जीविका के दरवाज़े खोल दे। क्योंकि मैं उन लोगों में से हूं जो तेरे लिए तरसते हैं और मुझ पर तेरे उपकारों को पूरा करते हैं क्योंकि तू इनाम देने और माफ करने वालों में सबसे अच्छा है। (133) | وَ لَا تَجْعَلْنِی لِلظَّالِمِینَ ظَهِیراً، وَ لَا لَهُمْ عَلَی مَحْوِ كِتَابِكَ یداً وَ نَصِیراً، وَ حُطْنِی مِنْ حَیثُ لَا أَعْلَمُ حِیاطَةً تَقِینِی بِهَا، وَ افْتَحْ لِی أَبْوَابَ تَوْبَتِكَ وَ رَحْمَتِكَ وَ رَأْفَتِكَ وَ رِزْقِكَ الْوَاسِعِ، إِنِّی إِلَیكَ مِنَ الرَّاغِبِینَ، وَ أَتْمِمْ لِی إِنْعَامَكَ، إِنَّكَ خَیرُ الْمُنْعِمِینَ (۱۳۳) |
और अपना शेष जीवन हज और उमरा और तेरी प्रसन्नता की खोज में लगा दूं, हे सारी दुनिया के पालनहार! अल्लाह मुहम्मद और उनके शुद्ध पवित्र परिवार पर हमेशा हमेशा दुरूद और सलाम हो। | وَ اجْعَلْ بَاقِی عُمُرِی فِی الْحَجِّ وَ الْعُمْرَةِ ابْتِغَاءَ وَجْهِكَ، یا رَبَّ الْعَالَمِینَ، وَ صَلَّی اللهُ عَلَی مُحَمَّدٍ وَ آلِهِ الطَّیبِینَ الطَّاهِرِینَ، وَ السَّلَامُ عَلَیهِ وَ عَلَیهِمْ أَبَدَ الْآبِدِینَ. |
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फ़ुटनोट
- ↑ अंसारीयान, दयारे आशेक़ान, 1373 शम्सी, भाग 7, पेज 539-540
- ↑ ममदूही किरमानशाही, शोहूद वा शनाख़्त, 1388 शम्सी, भाग 4, पेज 69
- ↑ ममदूही किरमानशाही, शोहूद वा शनाख़्त, 1388 शम्सी, भाग 4, पेज 69-98; शरह फ़राज़हाए दुआ ए चहलो हफ़्तुम अज़ साइट इरफ़ान
- ↑ ममदूही किरमानशाही, शोहूद वा शनाख़्त, 1388 शम्सी, भाग 4, पेज 98-105; शरह फ़राज़हाए दुआ ए चहलो हफ़्तुम अज़ साइट इरफ़ान
- ↑ आराबी, चरा इमाम सज्जाद (अ) वे मुबारेज़ाते सियासी नपरदाख़्त?
- ↑ ममदूही किरमानशाही, शोहूद वा शनाख़्त, 1388 शम्सी, भाग 4, पेज 105-121; शरह फ़राज़हाए दुआ ए चहलो हफ़्तुम अज़ साइट इरफ़ान
- ↑ ममदूही किरमानशाही, शोहूद वा शनाख़्त, 1388 शम्सी, भाग 4, पेज 121-164; शरह फ़राज़हाए दुआ ए चहलो हफ़्तुम अज़ साइट इरफ़ान
- ↑ ममदूही किरमानशाही, शोहूद वा शनाख़्त, 1388 शम्सी, भाग 4, पेज 164-214; शरह फ़राज़हाए दुआ ए चहलो हफ़्तुम अज़ साइट इरफ़ान
- ↑ अंसारीयान, दयारे आशेक़ान, 1373 शम्सी, भाग 7, पेज 517-555
- ↑ ममदूही किरमानशाही, शोहूद वा शनाख़्त, 1388 शम्सी, भाग 4, पेज 67-216
- ↑ फहरी, शरह वा तफ़सीर सहीफा सज्जादीया, 1388 शम्सी, भाग 3, पेज 399-492
- ↑ किताबनामा नज्वाए आरेफ़ाने असर सय्यद अहमद सज्जादी
- ↑ किताबनामा नज्वाए आरेफ़ाने असर क़ादिर फ़ाज़ेली
- ↑ मदनी शिराज़ी, रियाज अल सालेकीन, 1435 हिजरी, भाग 6, पेज 253-422 भाग 7, पेज 3-158
- ↑ मुग़नीया, फ़ी ज़ेलाल अल सहीफ़ा, 1428 हिजरी, पेज 551-609
- ↑ दाराबी, रियाज अल आरेफ़ीनन, 1379 शम्सी, पेज 589-660
- ↑ फ़ज़्लुल्लाह, आफ़ाक़ अल रूह, 1420 हिजरी, भाग 2, पेज 463-544
- ↑ फ़ैज़ काशानी, तालीक़ात अला अल सहीफ़ा अल सज्जादीया, 1407 हिजरी, पेज 92-98
- ↑ जज़ाएरी, शरह अल सहीफा अल सज्जादीया, 1402 हिजरी, पेज 242-269
स्रोत
- अर्दशीरी लाजीमी, निगाही बे दुआ ए अरफ़ा इमाम सज्जाद अलैहिस सलाम, मजल्ला इशारात, क्रमांक 156, पाईज 1393 हिजरी
- आराबी, ग़ुलाम हुसैन, चरा इमाम सज्जाद (अ) बे मुबारेज़ाते सियासी नपरदाख़्त? माहनामे कौसर, क्रमांक 34
- अंसारीयान, हुसैन, दयार आशेक़ान, तफसीर जामे सहीफ़ा सज्जादीया, तेहरान, पयाम ए आज़ादी, 1372 शम्सी
- जज़ाएरी, इज़्ज़ुद्दीन, शरह अल सहीफ़ा अल सज्जादीया, बैरूत, दार अल तआरुफ़ लिल मतबूआत, 1402 हिजरी
- दाराबी, मुहम्मद बिन मुहम्मद, रियाज़ अल आरेफ़ीन फ़ी शरह अल सहीफ़ा अल सज्जादीया, शोधः हुसैन दरगाही, तेहरान, नशर उस्वा, 1379 शम्सी
- फ़ज़्लुल्लाह, सय्यद मुहम्मद हुसैन, आफाक़ अल रूह, बैरूत, दार अल मालिक, 1420 हिजरी
- फहरी, सय्यद अहमद, शरह वा तरजुमा सहीफा सज्जादीया, तेहरान, उस्वा, 1388 शम्सी
- फ़ैज़ काशानी, मुहम्मद बिन मुर्तज़ा, तालीक़ात अलस सहीफ़ा अल सज्जादीया, तेहरान, मोअस्सेसा अल बुहूस वत तहक़ीक़ातिस सक़ाफ़ीया, 1407 हिजरी
- मदनी शिराज़ी, सय्यद अली ख़ान, रियाज़ अल सालेकीन फ़ी शरह सहीफा सय्यद अल साजेदीन, क़ुम, मोअस्सेसा अल नशर अल इस्लामी, 1435 हिजरी
- मुग़नीया, मुहम्मद जवाद, फ़ी ज़ेलाल अल सहीफ़ा अल सज्जादीया, क़ुम, दार अल किताब अल इस्लामी, 1428 हिजरी
- ममदूही किरमानशाही, हसन, शोहूद व शनाख्त, तरजुमा वा शरह सहीफा सज्जादीया, मुक़द्दमा आयतुल्लाहिल उज़्मा जवादी आमोली, क़ुम, बूस्ताने किताब, 1388 शम्सी