सहीफ़ा सज्जादिया की उंचासवीं दुआ
1145 हिजरी में लिखी गई अहमद नयरेज़ी की लिपि में लिखी गई सहीफ़ा सज्जादिया की पांडुलिपि | |
| विषय | दुश्मनों की साज़िशों और छल से सुरक्षित रहने की दुआ |
|---|---|
| प्रभावी/अप्रभावी | प्रभावी |
| किस से नक़्ल हुई | इमाम सज्जाद (अ) |
| कथावाचक | मुतवक्किल बिन हारुन |
| शिया स्रोत | सहीफ़ा सज्जादिया |
सहीफ़ा सज्जादिया की उंचासवीं दुआ (अरबीःالدعاء التاسع والأربعون من الصحيفة السجادية ) इमाम सज्जाद (अ) द्वारा दुश्मनों की बुराई और धोखे (मक्र व फ़रेब) से बचने के लिए पढ़ी गई दुआओं में से एक है। इस दुआ में अल्लाह की ज़ात को शत्रुओं और शैतान से मनुष्य के सच्चे आश्रय के रूप में परिचित कराया गया है। इमाम सज्जाद (अ) ने दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के समाधान का श्रेय भी ईश्वर को दिया।
उंचासवीं दुआ की विभिन्न व्याख्याएँ है, सहीफ़ा सज्जादिया की व्याख्याओ मे शुहूद व शनाखत फ़ारसी भाषा मे व्याख्या है जो हसन ममदूही किरमानशाही द्वारा लिखित है और अरबी भाषा मे किताब रियाज़ उस सालेकीन फ़ी शरह सहीफ़ा सय्यद उस साजेदीन है जो सय्यद अली खान मदनी द्वारा लिखित है।
शिक्षाएँ
सहीफ़ा सज्जादिया की उंचासवीं दुआ को इमाम सज्जाद (अ) दुशमनो की बुराई और धोखे (मक्र व फरेब) से सुरक्षित रहने के लिए पढ़ते थे।[१] इस दुआ की शिक्षाएँ इस प्रकार हैं:
- अपने बंदो के दोषों को ढकने और उनके पापों को क्षमा करने के लिए अल्लाह की हम्द व सना।
- पाप बर्बादी और विनाश की घाटियों का प्रवेश द्वार है।
- अल्लाह ही मनुष्य का सच्चा आश्रय है।
- अजाबे इलाही से बचने का एक मात्र ज़रीया तौहीद है।
- ईश्वर की सजा और यातना से बचकर उसकी दया की ओर भागना
- सालेह बंदो पर अल्लाह की खास इनायत है
- इस्लामी शिक्षाओं के प्रकाश में निराशा और आशाहीनता का उन्मूलन
- ईश्वर दुर्भाग्य को दूर करने वाला है।
- खींची हुई तलवारों वाले शत्रुओं की बुराई से बचने के लिए परमेश्वर की शरण में जाओ।
- शत्रुओं की शत्रुता के प्रति परमेश्वर की जागरूकता
- ईश्वर की दया की छाया में शत्रुओं की बुराई और उनकी योजनाओं से मुक्ति
- मांगने से पहले अल्ल्लाह विश्वासियों की सहायता करने वाला है
- शत्रुओं के पाखंड और चापलूसी से बचने के लिए ईश्वर की शरण में जाना
- शत्रु उन जालों में फँस जाते हैं जो वे विश्वासियों के लिए बिछाते हैं।
- ईमान वालों से दुश्मनी रखने के कारण ईर्ष्यालु लोग दुःख और शोक में फंस जाते हैं।
- ईश्वर की दया में शरण लेकर दूसरों के भय और उत्पीड़न से सुरक्षित रहना
- ईश्वर के बारे में अच्छे विचारों की प्राप्ति और ईश्वर द्वारा गरीबी और अभाव की क्षतिपूर्ति
- ईश्वरीय आशीर्वाद की प्रचुरता के साथ बंदगी के कर्तव्यों में कमियों को स्वीकार करना
- अल्लाह की नेमतो और कृपा की प्रचुरता के बावजूद सेवकों की अवज्ञा
- परमेश्वर को धन्यवाद कि उसने अपने सेवकों को दण्ड देने में जल्दबाजी नहीं की।
- गलतियों को स्वीकार करना परमेश्वर की इबादत में विनम्रता का एक उदाहरण है।
- आत्म-जागरूकता वह कारक है जो विनाश से बचाता है।
- निराशा असामान्यताओं का कारण बनती है
- दुश्मन को जानने की जरूरत
- नेमतो की प्रचुरता और कृतज्ञता की कमी को स्वीकार करना
- पैग़म्बर मुहम्मद (स) के मक़ाम और इमाम अली (अ) की विलायत के प्रकाश में ईश्वर के करीब आना और दुश्मनों की बुराई से शरण लेना
- ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के मार्ग का आहान करना[२]
व्याख्याएँ
सहीफ़ा सज्जादिया की उंचासवीं दुआ की भी व्याख्या दूसरी दुआओ की तरह की गई है। यह दुआ हसन ममदूही किरमानशाही की शुहुद व शनाख्त,[३] और सय्यद अहमद फ़हरी की किताब शरह व तरजुमा सहीफ़ा सज्जादिया[४] मे फ़ारसी भाषा मे व्याख्या की गई है।
सहीफ़ा सज्जादिया की उंचासवीं दुआ सय्यद अली खान मदनी की किताब रियाज़ उस सालेकीन[५] मुहम्मद जवाद मुग़्निया की फी ज़िलाल अल-सहीफ़ा सज्जादिया,[६] मुहम्मद बिन मुहम्मद दाराबी की रियाज़ उल आरेफ़ीन[७] और सय्यद मुहम्मद हुसैन फ़ज़लुल्लाह की आफ़ाक़ अल रूह[८] मे इसका वर्णन अरबी में किया गया है। इस दुआ के शब्दों को फ़ैज़ काशानी द्वारा तालीक़ा अला अल-सहीफ़ा सज्जादिया[९] और इज़्ज़ुद्दीन जज़ाएरी द्वारा शरह अल-सहीफ़ा अल-सज्जादिया जैसी शाब्दिक टिप्पणियों में भी उल्लेक किया गया है।[१०]
उंचासवीं दुआ का पाठ और अनुवाद
وَ كَانَ مِنْ دُعَائِهِ عَلَيْهِ السَّلَامُ فِي دِفَاعِ كَيْدِ الْأَعْدَاءِ، وَ رَدِّ بَأْسِهِمْ
إِلَهِي هَدَيْتَنِي فَلَهَوْتُ، وَ وَعَظْتَ فَقَسَوْتُ، وَ أَبْلَيْتَ الْجَمِيلَ فَعَصَيْتُ، ثُمَّ عَرَفْتُ مَا أَصْدَرْتَ إِذْ عَرَّفْتَنِيهِ، فَاسْتَغْفَرْتُ فَأَقَلْتَ، فَعُدْتُ فَسَتَرْتَ، فَلَكَ- إِلَهِي- الْحَمْدُ.
تَقَحَّمْتُ أَوْدِيَةَ الْهَلَاكِ، وَ حَلَلْتُ شِعَابَ تَلَفٍ، تَعَرَّضْتُ فِيهَا لِسَطَوَاتِكَ وَ بِحُلُولِهَا عُقُوبَاتِكَ.
وَ وَسِيلَتِي إِلَيْكَ التَّوْحِيدُ، وَ ذَرِيعَتِي أَنِّي لَمْ أُشْرِكْ بِكَ شَيْئاً، وَ لَمْ أَتَّخِذْ مَعَكَ إِلَهاً، وَ قَدْ فَرَرْتُ إِلَيْكَ بِنَفْسِي، وَ إِلَيْكَ مَفَرُّ الْمُسيءِ، وَ مَفْزَعُ الْمُضَيِّعِ لِحَظِّ نَفْسِهِ الْمُلْتَجِئِ.
فَكَمْ مِنْ عَدُوٍّ انْتَضَى عَلَيَّ سَيْفَ عَدَاوَتِهِ، وَ شَحَذَ لِي ظُبَةَ مُدْيَتِهِ، وَ أَرْهَفَ لِي شَبَا حَدِّهِ، وَ دَافَ لِي قَوَاتِلَ سُمُومِهِ، وَ سَدَّدَ نَحْوِي صَوَائِبَ سِهَامِهِ، وَ لَمْ تَنَمْ عَنِّي عَيْنُ حِرَاسَتِهِ، وَ أَضْمَرَ أَنْ يَسُومَنِي الْمَكْرُوهَ، وَ يُجَرِّعَنِي زُعَاقَ مَرَارَتِهِ.
فَنَظَرْتَ- يَا إِلَهِي- إِلَى ضَعْفِي عَنِ احْتِمَالِ الْفَوَادِحِ، وَ عَجْزِي عَنِ الِانْتِصَارِ مِمَّنْ قَصَدَنِي بِمُحَارَبَتِهِ، وَ وَحْدَتِي فِي كَثِيرِ عَدَدِ مَنْ نَاوَانِي، وَ أَرْصَدَ لِي بِالْبَلَاءِ فِيمَا لَمْ أُعْمِلْ فِيهِ فِكْرِي.
فَابْتَدَأْتَنِي بِنَصْرِكَ، وَ شَدَدْتَ أَزْرِي بِقُوَّتِكَ، ثُمَّ فَلَلْتَ لِي حَدَّهُ، وَ صَيَّرْتَهُ مِنْ بَعْدِ جَمْعٍ عَدِيدٍ وَحْدَهُ، وَ أَعْلَيْتَ كَعْبِي عَلَيْهِ، وَ جَعَلْتَ مَا سَدَّدَهُ مَرْدُوداً عَلَيْهِ، فَرَدَدْتَهُ لَمْ يَشْفِ غَيْظَهُ، وَ لَمْ يَسْكُنْ غَلِيلُهُ، قَدْ عَضَّ عَلَى شَوَاهُ وَ أَدْبَرَ مُوَلِّياً قَدْ أَخْلَفَتْ سَرَايَاهُ.
وَ كَمْ مِنْ بَاغٍ بَغَانِي بِمَكَايِدِهِ، وَ نَصَبَ لِي شَرَكَ مَصَايِدِهِ، وَ وَكَّلَ بِي تَفَقُّدَ رِعَايَتِهِ، وَ أَضْبَأَ إِلَيَّ إِضْبَاءَ السَّبُعِ لِطَرِيدَتِهِ انْتِظَاراً لِانْتِهَازِ الْفُرْصَةِ لِفَرِيسَتِهِ، وَ هُوَ يُظْهِرُ لِي بَشَاشَةَ الْمَلَقِ، وَ يَنْظُرُنِي عَلَى شِدَّةِ الْحَنَقِ.
فَلَمَّا رَأَيْتَ- يَا إِلَهِي تَبَاركْتَ وَ تَعَالَيْتَ- دَغَلَ سَرِيرَتِهِ، وَ قُبْحَ مَا انْطَوَى عَلَيهِ، أَرْكَسْتَهُ لِأُمِّ رَأْسِهِ فِي زُبْيَتِهِ، وَ رَدَدْتَهُ فِي مَهْوَى حُفْرَتِهِ، فَانْقَمَعَ بَعْدَ اسْتِطَالَتِهِ ذَلِيلًا فِي رِبَقِ حِبَالَتِهِ الَّتِي كَانَ يُقَدِّرُ أَنْ يَرَانِي فِيهَا، وَ قَدْ كَادَ أَنْ يَحُلَّ بِي لَوْ لَا رَحْمَتُكَ مَا حَلَّ بِسَاحَتِهِ.
وَ كَمْ مِنْ حَاسِدٍ قَدْ شَرِقَ بِي بِغُصَّتِهِ، وَ شَجِيَ مِنِّي بِغَيْظِهِ، وَ سَلَقَنِي بِحَدِّ لِسَانِهِ، وَ وَحَرَنِي بِقَرْفِ عُيُوبِهِ، وَ جَعَلَ عِرْضِي غَرَضاً لِمَرَامِيهِ، وَ قَلَّدَنِي خِلَالًا لَمْ تَزَلْ فِيهِ، وَ وَحَرَنِي بِكَيْدِهِ، وَ قَصَدَنِي بِمَكِيدَتِهِ.
فَنَادَيْتُكَ- يَا إِلَهِي- مُسْتَغِيثاً بِكَ، وَاثِقاً بِسُرْعَةِ إِجَابَتِكَ، عَالِماً أَنَّهُ لَا يُضْطَهَدُ مَنْ أَوَى إِلَى ظِلِّ كَنَفِكَ، وَ لَا يَفْزَعُ مَنْ لَجَأَ إِلَى مَعْقِلِ انْتِصَارِكَ، فَحَصَّنْتَنِي مِنْ بَأْسِهِ بِقُدْرَتِكَ.
وَ كَمْ مِنْ سَحَائِبِ مَكْرُوهٍ جَلَّيْتَهَا عَنِّي، وَ سَحَائِبِ نِعَمٍ أَمْطَرْتَهَا عَلَيَّ، وَ جَدَاوِلِ رَحْمَةٍ نَشَرْتَهَا، وَ عَافِيَةٍ أَلْبَسْتَهَا، وَ أَعْيُنِ أَحْدَاثٍ طَمَسْتَهَا، وَ غَوَاشِي كُرُبَاتٍ كَشَفْتَهَا.
وَ كَمْ مِنْ ظَنٍّ حَسَنٍ حَقَّقْتَ، وَ عَدَمٍ جَبَرْتَ، وَ صَرْعَةٍ أَنْعَشْتَ، وَ مَسْكَنَةٍ حَوَّلْتَ.
كُلُّ ذَلِكَ إِنْعَاماً وَ تَطَوُّلًا مِنْكَ، وَ فِي جَمِيعِهِ انْهِمَاكاً مِنِّي عَلَى مَعَاصِيكَ، لَمْ تَمْنَعْكَ إِسَاءَتِي عَنْ إِتْمَامِ إِحْسَانِكَ، وَ لَا حَجَرَنِي ذَلِكَ عَنِ ارْتِكَابِ مَسَاخِطِكَ، لَا تُسْأَلُ عَمَّا تَفْعَلُ.
وَ لَقَدْ سُئِلْتَ فَأَعْطَيْتَ، وَ لَمْ تُسْأَلْ فَابْتَدَأْتَ، وَ اسْتُمِيحَ فَضْلُكَ فَمَا أَكْدَيْتَ، أَبَيْتَ- يَا مَوْلَايَ- إِلَّا إِحْسَاناً وَ امْتِنَاناً وَ تَطَوُّلًا وَ إِنْعَاماً، وَ أَبَيْتُ إِلَّا تَقَحُّماً لِحُرُمَاتِكَ، وَ تَعَدِّياً لِحُدُودِكَ، وَ غَفْلَةً عَنْ وَعِيدِكَ، فَلَكَ الْحَمْدُ- إِلَهِي- مِنْ مُقْتَدِرٍ لَا يُغْلَبُ، وَ ذِي أَنَاةٍ لَا يَعْجَلُ.
هَذَا مَقَامُ مَنِ اعْتَرَفَ بِسُبُوغِ النِّعَمِ، وَ قَابَلَهَا بِالتَّقْصِيرِ، وَ شَهِدَ عَلَى نَفْسِهِ بِالتَّضْيِيعِ.
اللَّهُمَّ فَإِنِّي أَتَقَرَّبُ إِلَيْكَ بِالْمُحَمَّدِيَّةِ الرَّفِيعَةِ، وَ الْعَلَوِيَّةِ الْبَيْضَاءِ، وَ أَتَوَجَّهُ إِلَيْكَ بِهِمَا أَنْ تُعِيذَنِي مِنْ شَرِّ كَذَا وَ كَذَا، فَإِنَّ ذَلِكَ لَا يَضِيقُ عَلَيْكَ فِي وُجْدِكَ، وَ لَا يَتَكَأَّدُكَ فِي قُدْرَتِكَ وَ أَنْتَ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ
فَهَبْ لِي- يَا إِلَهِي- مِنْ رَحْمَتِكَ وَ دَوَامِ تَوْفِيقِكَ مَا أَتَّخِذُهُ سُلَّماً أَعْرُجُ بِهِ إِلَى رِضْوَانِكَ، وَ آمَنُ بِهِ مِنْ عِقَابِكَ، يَا أَرْحَمَ الرَّاحِمِينَ.
दुश्मन के मक्र व फ़रेब से सुरक्षित रहने की दुआ
ऐ मेरे पालनहार ! तूने मुझे मार्ग दिखाया, परन्तु मैं असावधान रहा। तूने मुझे सलाह दी, लेकिन मेरे कठोर हृदय के कारण मुझ पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तूने मुझे अच्छे नेमते दी, परन्तु मैंने अवज्ञा की। फिर जब तूने मुझे उन पापों से अवगत कराया जिनसे तूने मुझे दूर रखा था, तो मैंने उन्हें पहचान लिया और पश्चाताप किया तथा क्षमा मांगी, जिसके लिए तूने मुझे क्षमा कर दिया। और फिर पापो मे लिप्त हुआ तो तूने पर्दा पोशी से काम लिया। हे मेरे पाल हार ! तेरे ही लिए हम्द व सना है।
मैं हलाकत की घाटियों में फँस गया था और विनाश और बर्बादी की घाटियों में उतर गया था। मुझे इन घातक घाटियों में तेरे कठोर व्यवहार तथा वहां प्रवेश करने पर दी गई सजाओं का सामना करना पड़ा।
तेरी बारगाह मे मेरा वसीला तेरी एकता और एकरूपता की स्वीकारोक्ति है, और मेरा एकमात्र अभिप्राय यह है कि मैंने तेरे साथ किसी भी चीज़ को साझी नहीं बनाया है और तेरे साथ किसी को भी ख़ुदा नहीं माना है। और मैं अपनी जान को लिए तेरी दया और क्षमा की शरण चाहता हूँ, और एक पापी तेरी ओर भागता है, और एक प्रार्थी जिसने अपना भाग्य खो दिया है वह तेरी शरण चाहता है।
कितने ही शत्रु थे जिन्होंने मुझ पर शत्रुता की तलवार चलाई, मेरे लिए अपने चाकुओं की धार तेज की, अपनी कठोरता और कठोरता की बाड़ को तेज किया, मेरे लिए पानी में घातक जहर मिलाया, और मुझे निशाने पर रखने के लिए अपने धनुषों पर तीर चढ़ाएं? और उनकी आंखों ने मुझ पर से कभी ध्यान न हटाया, वरना वे अपने मन में मेरी हानि की युक्ति करते रहे, और मुझे कड़वे फलों के समान कड़वे दुख देते रहे।
तो हे मेरे पालन हार ! इन दुखों और पीड़ाओं को सहन करने में मेरी कमजोरी, मेरे विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार लोगों से बदला लेने में मेरी विनम्रता, और असंख्य शत्रुओं और मुझे नुकसान पहुंचाने की घात में बैठे लोगों के सामने मेरा अकेलापन, ये सब तेरी दृष्टि में थे, जिनके प्रति मैं असावधान और उदासीन था।
तूने मेरी सहायता करने में पहल की है और अपनी शक्ति और सामर्थ्य से मेरी पीठ को मजबूत किया है। फिर उसने उसका भाला तोड़ दिया और उसके बहुत से साथियों को तितर-बितर करके उसे अकेला छोड़ दिया, और मुझे उसके ऊपर प्रभुत्व प्रदान किया और उसके धनुष पर जो तीर लगाए थे, उन्हें उसे लौटा दिया। अतः इस अवस्था में तूने उसे वापस लौटा दिया, जिससे वह न तो अपना क्रोध शांत कर सका, न ही अपने हृदय की गर्मी को शांत कर सका। उसने अपनी फसलें काट लीं और पीठ फेरकर चला गया, और उसकी सेना ने भी उसे धोखा दिया।
और कितने ही अत्याचारी थे जो अपनी धूर्तता और छल से मुझ पर अत्याचार करते थे, और मेरे शिकार के लिये जाल बिछाते थे, और मुझ पर खोजी निगाहें गड़ाए रखते थे। और वे घात में बैठ गए, जैसे कोई जंगली जानवर अपने शिकार की ताक में रहता है, और वे मेरे सामने प्रसन्न मुख से आते और मेरी ओर अत्यंत द्वेषपूर्ण दृष्टि से देखते।
अतः हे परम परमेश्वर, जब तूने उनके बुरे आन्तरिक और बुरे स्वभाव को देखा, तो तूने उन्हें उनके ही गड्ढे में उलट दिया और उनकी ही खाई की गहराई में फेंक दिया। और उनके अहंकार और घमंड को प्रदर्शित करके मैं स्वयं अपमानित होकर उनके जाल में फंस गया। और सच तो यह है कि यदि तेरी दया न होती तो यह असम्भव न होता कि जो विपत्ति और संकट उन पर पड़ा, वह मुझ पर भी पड़ता।
और कितने ही ईर्ष्यालु लोग थे, जो मेरे कारण शोक और क्रोध की पकड़ में फँस गए, और वे अपने तीखे शब्दों से मुझे पीड़ा देते रहे, और वे मुझ पर अपने दोषों का आरोप मंढ कर मुझे क्रोधित करते रहे, और उन्होंने मेरी प्रतिष्ठा को अपने बाणों का निशाना बनाया, और उन्होंने उन बुरी आदतों को, जिनमें वे स्वयं सदैव लिप्त थे, मेरे सिर पर डाल दिया, और वे अपने छल से मुझे परेशान करते रहे और अपने विश्वासघात से मुझे दबाते रहे।
इसलिए मैंने तेरी शरण में आने और तेरी त्वरित प्रतिक्रिया पर भरोसा करते हुए तुझे पुकारा, क्योंकि मैं जानता हूँ कि जो कोई तेरी शरण में आएगा, वह पराजित नहीं होगा, और जो कोई तेरे प्रतिशोध की दृढ़ शरण में आएगा, वह परेशान नहीं होगा। अतः तूने अपनी शक्ति से मुझे उनकी क्रूरता और दुष्टता से बचाया।
और कितने ही संकटों के बादल (जो मेरे जीवन के क्षितिज पर छाये हुए थे) तूने हटा दिये हैं, और कितनी ही दया की नदियाँ बहा दी हैं, और कितने ही स्वास्थ्य और खुशहाली के वस्त्र पहना दिये हैं, और कितने ही दुःख और दुर्भाग्य की आँखों (जो मुझ पर नज़र रख रही थीं) को तूने प्रकाशहीन कर दिया है, और कितने ही दुःखों के काले परदे (मेरे हृदय से) हटा दिये हैं।
और तूने कितनी ही अच्छी बातों को सच कर दिखाया और कितनी ही निर्धनता को दूर किया और कितनी ही बाधाओं को दूर किया और कितनी निर्धनता को धन से बदल दिया।
(हे अल्लाह!) यह सब तेरी ही देन और कृपा है और इन सब घटनाओं के बावजूद मैं तेरे पापों में पूरी तरह लीन रहा। (परन्तु) मेरे बुरे कर्मों ने तुझे अपना उपकार पूरा करने से नहीं रोका, और न तेरी कृपा और अनुग्रह ने मुझे उन कामों को करने से रोका जो तुझे अप्रसन्न करते हैं, और जो कुछ तू करता है, उसके विषय में तुझसे कोई प्रश्न नहीं किया जा सकता।
तेरी ज़ात की क़सम! जब भी तुझ से मांगा गया, तूने दिया और जब तुझ से नहीं मांगा गया, तूने अपनी इच्छा से दिया। और जब तेरी कृपा और दया के लिए झोली बिछाई गई तो तूने कंजूसी नहीं की। हे मेरे प्रभु और स्वामी! तूने कभी भी दया, क्षमा, अनुग्रह और पुरस्कार से इनकार नहीं किया। और मैं तेरे निषिद्ध क्षेत्रों में भटकता रहा, तेरी सीमाओं और आदेशों का उल्लंघन करता रहा और तेरी धमकियों और फटकारों पर कभी ध्यान नहीं दिया। हे परम परमेश्वर! तेरी ही हम्द है जिसके पास ऐसी शक्ति है जिसे पराजित नहीं किया जा सकता। और एक धैर्यवान व्यक्ति है जो जल्दबाजी नहीं करता।
यह उस व्यक्ति की स्थिति है जिसने तेरी नेमतों की प्रचुरता को स्वीकार किया है और उनके सामने उनकी उपेक्षा की है और अपनी ही हानि की गवाही दी है।
हे मेरे पालन हार ! मैं मुहम्मद (स) के उच्च पद और अली (अ) के उज्ज्वल पद के द्वारा तेरी निकटता चाहता हूँ, और मैं उन दोनों के द्वारा तेरी ओर रुख करता हूँ, ताकि तू मुझे उन चीज़ों की बुराई से पनाह दे जिनसे पनाह मांगी जाती है, क्योंकि यह तेरी प्रचुरता और विशालता के मुकाबले कठिन है, और तेरी शक्ति के समक्ष कोई कार्य कठिन नहीं है, और तू हर चीज़ पर सक्षम है।
अतः मुझे अपनी दया और शाश्वत सफलता का लाभ प्रदान कर, जिसे मैं तेरी प्रसन्नता के स्तर तक चढ़ने के लिए एक सीढ़ी के रूप में उपयोग कर सकूं और इस प्रकार तेरी सजा से सुरक्षित रह सकूं। हे दयालुओं में सर्वाधिक दयालु!
फ़ुटनोट
- ↑ ममदूही, शुहूद व शनाख़त, 1388 शम्सी, भाग 4, पेज 275
- ↑ ममदूही, शुहूद व शनाख़त, 1388 शम्सी, भाग 4, पेज 275-292 शरह फ़राज़हाए दुआ चहलो नहुम अज़ साइट इरफ़ान
- ↑ ममदूही, शुहूद व शनाख़त, 1388 शम्सी, भाग 4, पेज 269-292
- ↑ फ़हरि, शरह व तफसीर सहीफ़ा सज्जादिया, 1388 शम्सी, भाग 3, पेज 525-529
- ↑ मदनी शिराज़ी, रियाज़ उस सालेकीन, 1435 हिजरी, भाग 7, पेज 243-296
- ↑ मुग़्निया, फ़ी ज़िलाल अल सहीफ़ा, 1428 हिजरी , पेज 625-635
- ↑ दाराबी, रियाज़ उल आरेफ़ीन, 1379 शम्सी, पेज 681-698
- ↑ फ़ज़्लुल्लाह, आफ़ाक़ अल रूह, 1420 शम्सी, भाग 2, पेज 573-591
- ↑ फ़ैज़ काशानी, तालीक़ात अलस सहीफ़ा अल-सज्जादिया, 1407 हिजरी, पेज 99-101
- ↑ जज़ाएरी, शरह अल-सहीफ़ा अल-सज्जादिया, 1402 हिजरी, पेज 278-284
स्रोत
- जज़ाएरी, इज़्ज़ुद्दीन, शरह अल-सहीफ़ा अल-सज्जादिया, बैरूत, दार उत तआरुफ लिलमतबूआत, 1402 हिजरी
- दाराबी, मुहम्मद बिन मुहम्मद, रियाज़ अल आरेफ़ीन फ़ी शरह अल सहीफ़ा सज्जादिया, शोधः हुसैन दरगाही, तेहरान, नशर उस्वा, 1379 शम्सी
- फ़ज़्लुल्लाह, सय्यद मुहम्मद हुसैन, आफ़ाक़ अल-रूह, बैरूत, दार उल मालिक, 1420 हिजरी
- फ़हरि, सय्यद अहमद, शरह व तरजुमा सहीफ़ा सज्जादिया, तेहरान, उस्वा, 1388 शम्सी
- फ़ैज़ काशानी, मुहम्मद बिन मुर्तज़ा, तालीक़ात अलस सहीफ़ा अल-सज्जादिया, तेहरान, मोअस्सेसा अल बुहूस वत तहक़ीक़ात अल सक़ाफ़ीया, 1407 हिजरी
- मदनी शिराज़ी, सय्यद अली ख़ान, रियाज उस-सालेकीन फ़ी शरह सहीफ़ा तुस साजेदीन, क़ुम, मोअस्सेसा अल-नश्र उल-इस्लामी, 1435 हिजरी
- मुग़्निया, मुहम्मद जवाद, फ़ी ज़िलाल अल-सहीफ़ा सज्जादिया, क़ुम, दार उल किताब उल इस्लामी, 1428 हिजरी
- ममदूही किरमानशाही, हसन, शुहूद व शनाख़्त, तरजुमा व शरह सहीफ़ा सज्जादिया, मुकद्मा आयतुल्लाह जवादी आमोली, क़ुम, बूस्तान किताब, 1388 शम्सी