शबे-क़द्र
शबे-क़द्र (अरबी: لَیلَة القَدر) या लैला तुल-क़द्र अर्थात भाग्य की रात मुस्लमानो मे साल की सर्वाधिक फ़ज़ीलत रखने वाली रात है। क़ुरआन और हदीस के प्रकाशन मे यह रात्रि हज़ार महीने से अफ़ज़ल और श्रेष्ठ है। मुस्लमानो के अनुसार इस रात क़ुरान दफ़्ई (सम्पूर्ण क़ुरान) हज़रत मुहम्मद (स) के क़ल्ब (हृदय) पर उतरा है। इसके अलावा यह रात रहमतो के नज़ूल, पापो की क्षमा और पृथ्वी पर स्वर्गदूतो के आगमन की रात है। कुछ शिया हदीसो के अनुसार इस रात लोगो के एक साल के मुक़द्देरात इमाम ज़माना (अ.त.) की सेवा मे प्रस्तुत किए जाते है। अल्लाह ने क़ुरान के सूरा ए क़द्र और सूरा ए दुख़ान दोनो मे शबे-क़द्र का उल्लेख किया है।
शबे-क़द्र कौन सी रात है इस संबंध मे कोई सटीक जानकारी नही है, लेकिन बहुत सी हदीसो के अनुसार यह बात निश्चित है कि शबे-क़द्र रमज़ान के पवित्र महीने की रात है और अधिकांश रमज़ान के पवित्र महीने की उन्नीस, इक्कीस या तेइसवीं रात पर संभावना जताते है। जबकि शिया मुस्लमान 23वीं और सुन्नी मुसलमान 27वीं रमज़ान को शबे क़द्र होने पर ज़ोर देते है। कुछ रिवायतों के आधार पर शबे-क़द्र शाबान (इस्लामी कैलेंडर के आठवे) महीने की पंद्रहवी रात है।
शिया मुस्लमान चौदह मासूमों का अनुसरण करते हुए इन तीनो रातो को शब बेदारी अर्थात रतजगा करके इबादत करते हुए बिताते है। शिया स्रोतो मे शबे-क़द्र के आमाल (कर्म) के शीर्षक से कुछ मख़्सूस आमाल जिनमे मासूर और ग़ैर मासूर दुआए, नमाज़े और दूसरे रीति रीवाज जैसे क़ुरान सर पर उठाना इत्यादि सम्मिलित है। इसके अलावा रमज़ान की उन्नीसवी और इक्कीसवीं की रात्रि हज़रत अली (अ) के घायल और शहीद होने की याद मे अज़ादारी और मजलिसे भी शबे-क़द्र के आमाल मे आती है।
नामकरण
"शबे क़द्र" को इस नाम से पुकारे जाने के बारे में कई संभावनाएँ बताई गई हैं:
- कुछ विद्वानों, जैसे अल्लामा तबातबाई, के अनुसार, चूँकि इस रात में इंसानों की तक़दीर और साल भर की घटनाओं का निर्धारण होता है, इसे "शब-ए-क़द्र" कहा जाता है।[१] आयतुल्लाह मक़ारिम शिराज़ी ने इस विचार को हदीसों के अनुकूल और अधिक प्रसिद्ध व बेहतर माना है।[२]
- इमाम ख़ुमैनी ने इस नामकरण के बारे में तीन संभावनाएँ बताई गई हैं: पहली: इस रात को "लैलतुल-क़द्र" इसलिए कहा गया क्योंकि यह सम्मानित है। क़ुरआन जो सम्मानित है को एक सम्मानित फ़रिश्ते जिब्राईल द्वारा एक सम्मानित पैग़म्बर मुहम्मद (स) पर उतारा गया, जो एक सम्मानित उम्मत के लिए था इसीलिए इसे लैलतुल क़द्र कहा जाता है। दूसरी: इस रात में लोगों के रोज़ी-रोज़गार और मामलों का निर्धारण होता है, इसलिए इसे "शब-ए-क़द्र" कहते हैं। तीसरी: इस रात में फ़रिश्तों की इतनी अधिक संख्या होती है कि धरती तंग हो जाती है (अरबी में "क़द्र" का एक अर्थ "तंगी" भी है)।[३] इमाम ख़ुमैनी ने दूसरे दृष्टिकोण को अधिक उचित माना और कहा कि शायद यह रात "क़द्र" वाली इसलिए बनाई गई क्योंकि यह पैग़म्बर-ए-ख़ातम का मिलाप और एक सच्चे आशिक़ का महबूब तक पहुँचने की रात है।[४]
- मक़ारिम शिराज़ी के भी तीन कारण प्रस्तुत किए हैं: इस रात को जागने वालों का सम्मानित होना। इस रात की बहुत बड़ी शराफ़त (महिमा)। इसी रात में क़ुरआन का नाज़िल होना।[५]
"क़द्र" का अर्थ: "क़द्र" का मतलब है नाप-तोल, तक़दीर या नसीब।[६] इस रात को "लीलतुल-अज़मत" (महान रात) और "लीलतुश-शरफ़" (सम्मान की रात) जैसे नामों से भी याद किया जाता है।[७]
स्थिति और महत्व
शबे-क़द्र इस्लामी संस्कृति में वर्ष की सबसे महत्वपूर्ण रात है।[८] पैग़म्बर (स) की हदीस के अनुसार, शबे-क़द्र मुसलमानों के लिए भगवान के उपहारों में से एक ऐसा उपहार है जिससे पहली वाली क़ौमे वंछित थी।[९] क़ुरान करीम मे शबे-क़द्र से संबंधित एक पूरा सूरा जिसे (सूरा ए क़द्र) कहा जाता है।[१०] इस सूरे मे शबे-क़द्र के महत्व को हज़ार महीने से अधिक बताया गया है।[११] सूरा ए दुख़ान की पहली से लेकर छटी आयत तक शबे-क़द्र के महत्व और उसमे घटित घनाओ का वर्णन हुआ है।[१२]
इमाम सादिक़ (अ) से एक हदीस मे आया है कि बेहतरीन महीना रमज़ान और रमज़ान का दिल शबे-क़द्र है।[१३] इसी प्रकार पैगंबर अकरम (स) ने एक हदीस मे शबे-क़द्र को तमाम रातो का सरदार बताया है।[१४] हदीसी ग्रंथो और धर्मशास्त्रो के अनुसार इन रातो के दिन भी खुद इन रातो की भांति फ़ज़ीलत और अज़मत वाले है।[१५] कुछ हदीसो मे है कि शबे-क़द्र का रहस्य हज़रत फ़ातेमा (अ) है।[१६] और जो कोई आपकी कद़्र और मंज़िलत तक पहुंच गया वह ऐसा है जैसे उसने शबे-क़द्र की कद़्र और मंज़िलत पा लिया।[१७] इमाम अली (अ) की शहादत जैसी बड़ी घटना का इस महीने के अंतिम दस दिनो मे घटने से शिया मुस्लमानों के विश्वासो मे इन रातो के महत्व मे वृदधि हुई है और शिया मुस्लमान इन रातो के आमाल के साथ-साथ हज़रत अली (अ) की शहादत की याद मनाते हुए शब-बेदारी करते है।[१८]
कुछ हदीसों में आया है कि फ़ातिमा (स) ही शब-ए-क़द्र का रहस्य हैं।[१९] और जिसने भी फ़ातिमा (स) को पूरी तरह से पहचान लिया, उसने शब-ए-क़द्र को पा लिया।[२०]
क़ुरान का नाज़िल होना
सूरा ए क़द्र की पहली और सूरा ए दुख़ान की तीसरी आयत के अनुसार क़ुरान शबे-क़द्र मे नाज़िल हुआ है।[२१] मुहम्मद अब्दोह इस बात पर यक़ीन रखते है कि क़ुरान धीरे-धीरे रमज़ान मे नाज़िल हुआ है;[२२] लेकिन अधिकांश टीकाकारो के अनुसार शबे-क़द्र मे सम्पूर्ण कुरान लौहे महफ़ूज़ से बैत उल-मामूर या पैगंबर अकरम (स) के क़ल्ब पर नाज़िल हुआ है जिसे क़ुरान का नुज़ूले दफ़्ई या नुज़ूले इजमाली कहा जाता है।[२३] लेकिन कुछ के अनुसार रज़मान के महीने में कु़रआन का नुज़ूल तदरीजी (थोड़ा थोड़ा) हुआ है।[२४]
भाग्य का निर्धारण
इमाम बाक़िर (अ) सुरा ए दुख़ान की आयत न 4 की व्याख्या मे फ़रमाते है कि आने वाले साल मे प्रत्येक मनुष्य के भाग्या का निर्धारण शबे-क़द्र मे किया जाता है।[२५] इसीलिए कुछ हदीसो मे शबे-क़द्र को साल का आरम्भ कहा गया है।[२६] अल्लामा तबातबाई के अनुसार क़द्र का अर्थ भाग्य और निर्धारण है और अल्लाह तआला मनुष्यो के जीवन, मृत्यु, आजिवीका, सआदत और शक़ावत इसी रात मे निर्धारित करता है।[२७] कुछ हदीसो के अनुसार इमाम अली (अ) और अहले-बैत (अ) की विलायत भी इसी रात को निर्धारित हुई है।[२८]
पापो की क्षमा
इस्लामी स्रोतो के आधार पर शबे-क़द्र अल्लाह की विशेष रहमत के नुज़ूल, पापो की क्षमा, शैतान को ज़ंजीरो मे जकड़ने और मोमेनीन के लिए स्वर्ग के द्वारो को खोलने की रात है।[२९] पैगंबर अकरम (अ) की हदीस मे है कि जो भी शबे-क़द्र को जागते हुए बिताने के साथ-साथ मोमेनीन और क़यामत पर भी विश्वास रखता हो तो उसके सभी को क्षमा कर दिया जाएगा।[३०]
स्वर्गदूतो का आगमन
सूरा ए क़द्र की आयत के प्रकाशन मे शबे-क़द्र को स्वर्गदूत और आत्मा का नुज़ूल होता है।[३१] और कुछ हदीसो के अनुसार स्वर्गदूत और आत्मा एक साल के भाग्य को पहुचाने के लिए समय के इमाम के यहां उपस्थित होते है और जो कुछ निर्धारित हुआ है उन्हे इमाम की सेवा मे प्रस्तुत करते है।[३२] इमाम बाक़िर (अ) फ़रमाते हैः शबे-क़द्र को स्वर्गदूत हमारी परिक्रमा करते है इस प्रकार हमे शबे-क़द्र का ज्ञान होता है।[३३] कुछ दूसरी रिवायतो मे शियो के लिए इसी मुद्दे के माध्यम से शियो की हक़्क़ानीयत और आइम्मा ए मासूमीन (अ) की इमामत पर इसतिदलाल करने की शिफ़ारिश हुई है। और वह इस प्रकार कि हर ज़माने मे किसी इमाम का होना आवश्यक है जिस तर इस साल के भाग्य पहुंचाए जाते है।[३४]
शबे-क़द्र का निर्धारण
शबे-क़द्र कौन सी रात है? इस संबंध मे मतभेद पाया जाता है।

शियों का दृष्टिकोण
कुछ मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) जैसे अल्लामा तबातबाई के अनुसार, सूर ए क़द्र और सूर ए दोख़ान की आयतों के ज़ाहिरी अर्थों के आधार पर, शबे क़द्र केवल वह रात नहीं है जिसमें पैग़म्बर (स) के ज़माने में क़ुरआन नाज़िल हुआ था, बल्कि यह हर साल दोहराई जाने वाली रात है।[३५] इस बात की पुष्टि कई हदीसें[३६] जिन्हें मुतवातिर माना गया है भी करती हैं।[३७] अल्लामा तबातबाई के अनुसार, हदीसें इस बात पर एकमत हैं कि शब-ए-क़द्र हर साल आती है।[३८]
क़ुरआन के अनुसार, शबे क़द्र रमज़ान महीने में होती है।[३९] लेकिन, इसकी सही तारीख़ क़ुरआन में स्पष्ट रूप से नहीं बताई गई है।[४०] कई हदीसें भी इस बात पर ज़ोर देती हैं कि शबे क़द्र रमज़ान के महीने में ही आती है।[४१]
अल्लामा मजलिसी के अनुसार, इमामिया विद्वानों की राय में शबे क़द्र रमज़ान की 19वीं, 21वीं या 23वीं रात तक सीमित है, और इस बारे में कई हदीसें भी मौजूद हैं।[४२] अल्लामा तबातबाई के अनुसार, अहले बैत (अ) की हदीसें इस बात पर सहमत हैं कि शबे क़द्र 19वीं, 21वीं या 23वीं रमज़ान में से कोई एक रात है।[४३] शेख़ सदूक़ ने कहा है कि हमारे उस्तादों शिया विद्वानों का इज्मा है कि शबे क़द्र 23वीं रमज़ान की रात है।[४४] कुछ हदीसों में भी 23वीं रात को ही शबे क़द्र बताया गया है।[४५] कुछ हदीसों के अनुसार: 19वीं रात: इसमें तक़दीर लिखी जाती है। 21वीं रात: इसमें इब्राम (अंतिम पुष्टि) होती है। 23वीं रात: इसमें अंतिम मुहर लगाई जाती है।[४६] कुछ रिवायतों में 27वीं रमज़ान[४७] और शबे निस्फ़े शाबान[४८] को भी शबे क़द्र होने की संभावना बताई गई है।
रमज़ान की 23वीं रात को "शबे जुहनी" भी कहा जाता है। इसका कारण यह है कि इमाम बाक़िर (अ) या इमाम सादिक़ (अ) से एक रिवायत मिलती है कि अब्दुल्लाह बिन उनैस अंसारी (जुहनी नाम से मशहूर) ने पैग़म्बर (स) से पूछा: "मेरा घर मदीना से दूर है, मुझे कोई एक रात बताइए ताकि मैं उसमें इबादत के लिए आ सकूँ।" तो पैग़म्बर (स) ने 23वीं रमज़ान की रात को चुनने का हुक्म दिया।[४९] इस घटना के बाद, इस रात को "शबे जुहनी" कहा जाने लगा और यह नाम शबे क़द्र के लिए प्रसिद्ध हो गया।[५०] यहाँ तक कि इमामों के साथियों ने भी "शबे जुहनी" के बारे में पूछा करते थे।[५१] मुहम्मद तक़ी मजलिसी के अनुसार, शबे जुहनी जैसी हदीसों के आधार पर, शेख़ सदूक़ और अधिकांश शिया विद्वान 23वीं रात को ही शबे क़द्र मानते हैं।[५२]
सुन्नीयो का दृष्टिकोण
ज़्यादातर अहले सुन्नत, एक नबवी हदीस के आधार मानते हैं कि शबे क़द्र रमज़ान के आख़िरी दस रातों में से कोई एक है।[५३] अल्लामा तबातबाई के अनुसार, अहले सुन्नत में 27वीं रमज़ान की रात को शबे क़द्र मानना प्रसिद्ध है।[५४] कुछ अहले सुन्नत का मानना है कि शबे क़द्र केवल पैग़म्बर (स) के ज़माने में हर साल आती थी, लेकिन उनके बाद अब कोई शबे क़द्र नहीं है।[५५] कुछ अन्य कहते हैं कि शबे क़द्र हर साल एक निश्चित रात नहीं है, बल्कि यह हर साल एक अनजान रात होती है।[५६] कुछ विद्वानों का विचार है कि शबे क़द्र बेअसत के साल (पैग़म्बरी के शुरुआती साल) में रमज़ान में थी, लेकिन बाद के सालों में यह दूसरे महीनों में भी हो सकती है।[५७] तबरसी ने अपनी तफ़सीर "मजमा उल-बयान" में लिखा है कि ज़्यादातर विद्वानों का इज्मा (सहमति) है कि शबे क़द्र रमज़ान के महीने में ही आती है।[५८]
उफ़ुक़ का अंतर और शबे क़द्र का निर्धारण
प्रत्येक साल केवल एक रात शबे-क़द्र है।[५९] लेकिन विभिन्न देशो के उफ़ुक (क्षितिज) मे अंतर (जैसे ईरान और सऊदी अरब का उफ़ुक़) के कारण विभिन्न देशो मे रमज़ान के पवित्र महीने के शुरूआत मे भी अंतर देखने को मिलता है जिसके परिणाम स्वरूप रमज़ान की जिस रात को भी शबे-क़द्र बताया जाए उसमे भी मतभेद देखने को मिलता है।[६०] इस मामले मे धर्मशास्त्रियो का कहना है कि विभिन्न देशो के उफ़ुक़ मे अतंर का पाया जाना शबे-क़द्र की संख्या पर कोई प्रभाव नही डालता और प्रत्येक देश के नागरिको को चाहिए कि वो शबे-क़द्र और दूसरे दिन जैसे ईद उल-फित्र और ईद उज-अज़्हा इत्यादि को अपने देश के उफ़ुक़ के अनुसार मनाऐं।[६१] आयतुल्लाहिल उज़्मा मकारिम शिराज़ी फ़रमाते है कि रात की हक़ीक़त भूमि के आधे भाग का दूसरे आधे भाग पर पड़ने वाली छाया है, और यह छाया भूमि की चाल के साथ 24 घंटो मे अपना एक चक्कर पूरा करती है। इस आधार पर संभावना है कि शबे-क़द्र, पृथ्वी की अपने ध्रुव की परिक्रमा पूरा करने की अवधि हो अर्थात वह अधंकार है जो 24 घंटो को अपनी चपेट मे ले लेती है। बस शबे-क़द्र एक देश से आरम्भ होती है और 24 घंटो की अवधि मे पृथ्वी का हर भाग शबे-क़द्र को पा लेता है।[६२]
मासूमीन की सीरत
इमाम अली (अ) ने हदीस मे पैगंबर अकरम (स) से बयान किया है कि पैगंबर (स) रमज़ान के अंतिम दस दिनो मे अपना बिस्तर इकठ्ठा करते थे और एतेकाफ़ के लिए मस्जिद प्रस्थान करते थे और इसके बावजूद के मस्जिद अल-नबी के ऊपर छत भी नही थी वर्षो के दिनो मे भी मस्जिद को नही छोड़ते थे।[६३] इसी प्रकार यह भी आया है कि पैगंबर अकरम (स) शबे-क़द्र की रातो को जागा करते थे और जिन लोगो को नींद आती थी उनके चेहरो पर पानी छिड़कते थे।[६४]
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ) का यह तरीक़ा था कि शबे-क़द्र को सुबह तक इबादत की हाल मे बिताती थी और अपने बच्चो तथा घर वालो को भी जागने और इबादत करने का आग्रह करती थी और दिन के समय सुलाने और कम खाने के माध्यम से रात को नींद से मुकाबला करने का प्रयास करती थी।[६५] चौदह मासूमीन (अ) शबे-क़द्र की रातो को मस्जिद मे शब-बेदारी करना नही छोड़ते थे।[६६] एक हदीस मे आया है कि एक बार शबे-क़द्र के दिनो मे इमाम सादिक़ (अ) बीमार थे उसके बावजूद आप (अ) ने मस्जिद मे जाकर इबादत करने की ख्वाहिश की।[६७]
शबे-क़द्र के आमाल
शबे-क़द्र के आमाल | |
मुश्तरक आमाल |
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उन्नीसवीं रात |
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इक्कीसवीं रात |
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तेइसवीं रात |
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रीति रिवाज
शिया मुस्लमान हर साल रमज़ान की 19वी, 21वी और 23वी रात को मस्जिदो, इमाम बारगाहो, आइम्मा ए मासूमीन या इमाम ज़ादो के मज़ारो मे शबे-क़द्र के आमाल अंजाम देते है और इन रातो को सुबह तक शब-बेदारी और इबादत मे बिताते है।[६८] विद्वानो के वाज़ और नसीहत पर आधारित भाषण, नमाज़े जमाअत और सामूहिक रूप से भिन्न-भिन्न प्रकार की दुआए जैसे दुआ ए इफ़्तेताह, दुआ ए अबू-हम्ज़ा सुमाली, दुआ ए जोशने कबीर इत्यादि का पढ़ना और क़ुरआन सरो पर उठाना इन रातो के विशेष रीति रिवाजो मे से है।[६९] इसके अलावा रोज़ेदारो को इफ़्तारी और सहरी देना, अपने मृतको के लिए नज़्र और नियाज़ देना, गरीबो और ज़रूरतमंदो की आवश्यकता पूरी करना और कैदीयो को आज़ाद कराना जैसे काम भी इन रातो मे अंजाम दिए जाते है।[७०] रमज़ान के पवित्र महीने मे ही शियो के पहले इमाम हज़रत अली (अ) की शहादत भी हुई इसलिए अज़ादारी का भी इन रातो मे आयोजन होता है।[७१]
मोनोग्राफ़ी
शबे क़द्र की फ़ज़ीलत (महिमा), इसके आमाल (इबादतें) और अहमियत (महत्व) पर कई स्वतंत्र किताबें लिखी और प्रकाशित की गई हैं।[७२] उनमें से कुछ प्रमुख हैं:
- "शबे क़द्र" लेखक: सय्यद मुहम्मद बहिश्ती, प्रकाशक: बुक़आ, तेहरान, संस्करण: पहला संस्करण, 1383 हिजरी शम्सी (2004 ई.)।
- "शब-हाये बे-क़रारी: गुफ़्तारहाए पैरामूने शब-हाये क़द्र" लेखक: सय्यद मुहम्मद बनी-हाशमी, प्रकाशक: मुनीर प्रकाशन, संस्करण: पहला संस्करण, 1387 हिजरी शम्सी (2008 ई.)।
- "शब-ए-क़द्र: क़ल्बे माहे रमज़ान" लेखक: नासिर बाक़ेरी बेदहिंदी, प्रकाशक: बुस्ताने किताब, क़ुम, संस्करण: दूसरा संस्करण, 1375 हिजरी शम्सी (1996 ई.)।[७३]
- "पज़ोहेशी दरबारे शबे क़द्र" लेखक: सय्यद मुर्तज़ा हुसैनी, प्रकाशक: फरहंगे क़ुरआन, संस्करण: पहला संस्करण, 1387 हिजरी शम्सी (2008 ई.)।
सम्बंधित लेख
फ़ुटनोट
- ↑ तबातबाई, तफ़सीरे अल-मीज़ान, भाग 20, पेज 331, मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, भाग 27, पेज 187
- ↑ मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, भाग 27, पेज 188।
- ↑ इमाम ख़ुमैनी, आदाब अल सलात, 1394 शम्सी, पृष्ठ 324।
- ↑ इमाम ख़ुमैनी, आदाब अल सलात, 1394 शम्सी, पृष्ठ 326।
- ↑ मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, भाग 27, पेज 188।
- ↑ शाकिर, शबी बरतर अज़ हज़ार माह, पृष्ठ 48।
- ↑ मजीदी ख़ामने, शबहाए क़द्र दर ईरान, पेज 1
- ↑ तुरबति, हमराह बा मासूमान दर शबे-क़द्र, पेज 33
- ↑ मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, भाग 27, पेज 190
- ↑ मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, पेज 178
- ↑ सूरा ए क़द्र, आयत न. 2
- ↑ सूरा ए दुख़ान, आयत न. 1-6
- ↑ हुवैज़ी, तफ़सीरे नूर उस-सक़लैन, भाग 5, पेज 915
- ↑ मजलिसी, बिहार उल-अनवार, भाग 4, पेज 54
- ↑ शेख़ तूसी, अल-तहज़ीब, भाग 4, हदीस 101, पेज 331
- ↑ मजलिसी, बिहार उल-अनवार, भाग 25, पेज 97, बे नक़्ल अज़ः आबेदीन ज़ादेह, इमाम व शबे-क़द्र, पेज 64
- ↑ हसन जादेह, ममद उल-हेमम, बे नक़्ल अज़ः मुतल्लिबी वा सादेक़ी, शबे-क़द्र दर निगाहे मुफ़स्सेरान, पेज 23
- ↑ मजीदी, ख़ामने, शबहाए क़द्र दर ईरान, पेज 19
- ↑ कुलैनी, अल काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 479। कूफ़ी, तफ़सीरे फ़ोरात कूफ़ी, 1410 हिजरी, पृष्ठ 851। मजलिसी, बिहारुल अनवारस, 1403 हिजरी, खंड 25, पृष्ठ 97।
- ↑ कूफ़ी, तफ़सीरे फ़ोरात कूफ़ी, 1410 हिजरी, पृष्ठ 851।
- ↑ शाकिर, शबी ए बरतर अज़ हज़ार माह, पेज 50
- ↑ अंसारी, नुज़ूले इजमाली ए क़ुरान, पेज 227
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- ↑ आबेदीन ज़ादेह, इम्तियाज़ात वा आदाबे शबे-क़द्र, पेज 85
- ↑ तबातबाई, तफ़सीरे अल-मीज़ान, भाग 20, पेज 561
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- ↑ काशानी, तफ़सीरे मिन्ह जुस-सादेक़ीन, भाग 10, पेज 308
- ↑ सूरा ए क़द्र, आयत न 4
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- ↑ वफ़ा, शबे-क़द्र अज़ मनज़रे कुरान, पेज 87
- ↑ आबेदीन ज़ादेह, इमाम वा शबे-क़द्र, पेज 62
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 शम्सी, खंड 20, पृष्ठ 331। मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, 1375 शम्सी, खंड 27, पृष्ठ 190।
- ↑ हुर्रे आमोली, वसाएल अल शिया, आले अल बैत, खंड 10, पृष्ठ 356।
- ↑ मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, 1375 शम्सी, खंड 27, पृष्ठ 190।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 शम्सी, खंड 20, पृष्ठ 334।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 शम्सी, खंड 20, पृष्ठ 334। मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, 1375 शम्सी, खंड 27, पृष्ठ 188।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 शम्सी, खंड 20, पृष्ठ 334।
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- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 शम्सी, खंड 20, पृष्ठ 334।
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- ↑ कुलैनी, अल काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 159 और 160।
- ↑ काशानी, मनहज अल सादेक़ीन, 1336 शम्सी, खंड 10, पृष्ठ 307 और 308।
- ↑ काशानी, मनहज अल सादेक़ीन, 1336 शम्सी, खंड 10, पृष्ठ 307 और 271।
- ↑ सदूक़, मन ला यहज़रोहुल फ़क़ीह, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 160
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- ↑ कुलैनी, अल काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 156। शेख़ सदूक़, मन ला यहज़रोहुल फ़क़ीह, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 160।
- ↑ मजलिसी, लवामेअ साहेब क़रानी, 1404 हिजरी, खंड 6, पृष्ठ 599।
- ↑ सियूती, अल दुर अल मंसूर, 1420 हिजरी, खंड 8, पृष्ठ 571।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 शम्सी, खंड 20, पृष्ठ 334।
- ↑ अल-क़ासेमी, तफ़सीर उल-क़ासेमी, भाग 17, पेज 217
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- ↑ इब्न उल-मिफ़्ताह, अब्दुल्लाह, शरहुल अज़्हार, भाग 1, पेज 57
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स्रोत
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