इमाम अली की शहादत
इमाम अली (अ) की शहादत, (फ़ारसी: شهادت امام علی(ع)) पहली चंद्र शताब्दी की घटनाओं में से एक है जिसका शियों के हालात पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। अली (अ.स.) की शहादत शियों की हत्या और उत्पीड़न और इमाम अली (अ.स.) की सेना के पतन का कारण बनी। इमाम की शहादत के साथ, कूफ़ा के लोगों के बीच विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियाँ, असहमति और शिकायतें स्पष्ट हो गईं। इमाम की शहादत के बाद अली (अ.स.) के कुछ साथियों ने कूफ़ा की सेना की तुलना उस झुंड से की जिसने अपना चरवाहा खो दिया है और हर तरफ से भेड़ियों द्वारा उनका शिकार किया जा रहा है।
हज समारोह के बाद ख़ारिजियों का एक समूह इकट्ठा हुआ और मुसलमानों की स्थितियों के बारे में शिकायत की। अंत में, तीन लोगों ने अली (अ), मुआविया और अम्र बिन आस को मारने की क़सम खाई। इब्ने मुल्जिम ने अली (अ) को मारने की क़सम खाई। रमज़ान की 19वीं रात को इमाम अली (अ) अपनी बेटी उम्मे कुलसूम के यहाँ मेहमान थे। वह सुबह की नमाज़ से पहले मस्जिद में चले गये। उन्होंने इब्ने मुल्जिम समेत मस्जिद में सो रहे लोगों को नमाज़ के लिए जगाया और मेहराब में खड़े होकर नमाज़ अदा करने लगे।
इब्न मुल्जिम ने सज्दा करते समय या सजदे से उठते समय इमाम के सिर पर तलवार से वार किया। इमाम को घर ले जाया गया और असीर बिन अम्र नाम के एक कुशल डॉक्टर ने इमाम की जांच की। असीर ताबेईन में से एक थे और जब उसने देखा कि मस्तिष्क पर आघात लगा है तो उसने इमाम से वसीयत करने को कहा। क्योंकि वह लंबे समय तक जीवित नहीं रह पायेगें। अपनी शहादत से पहले इमाम बार बार बेहोश हो जा रहे थे। वह नमाज़ बैठकर पढ़ रहे थे और उन्होने अपने बच्चों के नाम कई वसीयतें की थी।
इमाम अली (अ.स.) को इमाम हसन (अ.स.), इमाम हुसैन (अ.स.), मुहम्मद हनफ़िया और अब्दुल्लाह बिन जाफ़र ने ग़ुस्ल दिया। इमाम हसन (अ.स.) ने इमाम के पार्थिव शरीर पर जनाज़े की नमाज़ पढ़ाई। उन्हें रात में को दफ़्न कर दिया गया। इमाम अली (अ.स.) के दफ़्न के स्थान को ख़वारिज और बनी उमय्या की शत्रुता में क़ब्र खोदने से बचाने के लिए छिपा कर रखा गया था यहाँ तक कि इमाम सादिक़ (अ.स.) ने बनी अब्बास के शासन के दौरान क़ब्र के स्थान को स्पष्ट करते हुए बता दिया।
इमाम अली (अ) की शहादत का शियों की स्थिति पर प्रभाव
इमाम अली (अ) 40 हिजरी में रमज़ान में शहीद हुए।[१] इमाम की शहादत उस समय हुई थी जब बहुत सी समस्याएं पाई जाती थीं; सैनिक इमाम की बात पूरी तरह से नहीं मानते थे और उनका साथ देने में ढिलाई बरतते थे। दूसरी ओर, मुआविया की कमान के तहत सीरियाई सेना ने बहुत ताक़त हासिल कर ली थी।[२] इस अवधि के दौरान, स्थिति को जानते हुए, मुआविया ने इमाम अली (अ) सरकार के विभिन्न क्षेत्रों पर हमला करना और अली (अ) के शिया अनुयायियों को क़त्ल करना और लूट मार करना शुरु कर दिया था।[३]
इमाम अली (अ.स.) सीरिया की ओर बढ़ने और मुआविया से लड़ने के लिए एक सेना तैयार कर रहे थे, जब उन पर इब्न मुल्जिम ने हमला किया।[४] इमाम अली (अ.स.) की शहादत ने कूफ़ा की सेना के बीच दरार पैदा कर दी; ऐसे में नौफ़ बकाली अली (अ.स.) के साथियों में से एक बयान करते हैं कि फ़ौजें सीरिया की तरफ़ बढ़ने की तैयारी कर रही थीं कि अली (अ.स.) पर इब्ने मुल्जिम ने हमला कर दिया और फ़ौजें कूफ़ा लौट गईं। नौफ़ ने इमाम अली (अ.स.) की सेना की स्थिति की तुलना उस झुंड से की जिसने अपना चरवाहा खो दिया है और भेड़िये हर तरफ से उन पर हमले कर रहे हैं।[५]
इमाम अली (अ.स.) की शहादत के बाद, कूफ़ा के लोगों ने इमाम हसन (अ.स.) के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा की; लेकिन कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार, कूफ़ा की वास्तविकता लोगों के बीच विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियों, मतभेदों और नफ़रत की अभिव्यक्ति के अलावा कुछ नहीं थी। इस कारण से, इमाम हसन (अ.स.) की सेना में सीरिया की सेना का सामना करने की क्षमता नहीं थी।[६] शिया इतिहासकार आयतुल्लाह सुबहानी का मानना है कि इमाम अली (अ.स.) की शहादत इस्लामी समाज के लिये एक गंभीर झटका थी। और जो शियों की हत्या, उन पर हमले और उत्पीड़न की शुरुआत का कारण बनी।[७] इमाम की शहादत के साथ और इमाम हसन के शासन की छोटी अवधि के बाद, उमय्या युग शुरू हुआ, जो सबसे शिया के लिये सबसे कठिन समय था।[८] मुआविया के सत्ता संभालने के बाद शियों की स्थिति बेहद कठिन हो गई; इब्न अबी अल-हदीद लिखते हैं कि जहां भी शिया थे, उन्हें या तो मार दिया जाता था, या उनके हाथ और पैर काट दिए जाते थे, या उनकी संपत्ति लूट ली जाती थी और उन्हें कैद कर लिया जाता था।[९]
शिया रमज़ान की 21वीं रात को जो शायद क़द्र की रात है[१०] इमाम अली (अ.स.) की शहादत पर शोक मनाते हैं।[११] ईरान के कुछ क्षेत्रों में, इस रात को क़म्बर के नाम से ताज़िया और हज़रत अली (अ) नामक ताज़िया उठाया जाता है।[१२] इसके अलावा, कुछ शिया इस रात को नज़्र व नियाज़, इफ़तारी और सहरी बांटते हैं।[१३] इस ज़िक्र को एक सौ बार दोहराना "अल्लाहुम्मा अल-अन क़तलता अमीर अल-मुमिनीन" «اللّهمَّ العَن قَتلَةَ اَميرالمُومِنين» जिसका अर्थ है, हे भगवान, अली (अ) के हत्यारों पर शाप दें। यह रमज़ान की 19वीं और 21वीं तारीख़ के कार्यों में से है।[१४]
क्या इमाम अली को उनकी शहादत के बारे में पता था?
मुख्य लेख: इमामों को उनकी शहादत का ज्ञान
कुछ कथनों के अनुसार, इमाम अली को अपनी शहादत का विवरण पता था, जैसे कि यह कब और कैसे होगी।[१५] शियों की चार पुस्तकों में से एक, अल-काफी में, इस शीर्षक के साथ एक खंड है कि इमामों को पता है कि कब उनका स्वर्गवास होगा।[१६] शेख़ मुफ़ीद, अल्लामा हिल्ली और सय्यद मुर्तज़ा ने भी अपनी किताबों में इस मुद्दे के बारे में बात की है।[१७] शिया धर्मशास्त्री शेख़ मुफ़ीद (मृत्यु: 413 हिजरी) के अनुसार, इस बारे में हदीसें बहुत अधिक (मुतवातिर) हैं।[१८] उन्होंने इस मुद्दे का उत्तर दिया है कि यदि सारे इमाम और उनमें से इमाम अली, अपनी शहादत का समय जानते थे तो उन्होंने अपने जीवन की रक्षा क्यों नहीं की, तो उन्होंने दो संभावनाएं जताईं हैं:
- शायद शहादत के समय और स्थान तथा उनके हत्यारे के बारे में भी उन्हें विस्तृत जानकारी नहीं थी।
- यदि उन्हें उनकी शहादत का विवरण पता था तो शायद उनकी ज़िम्मेदारी धैर्य के काम लेना थी।[१९]
एक अन्य शिया धर्मशास्त्री सय्यद मुर्तज़ा (मृत्यु: 436 हिजरी) ने भी कहा है कि इमाम अली (अ) अपनी शहादत और क़ातिल के बारे में जानते थे; परन्तु उन्हें शहादत का समय मालूम नहीं था; क्योंकि अगर उन्हे पता होता तो उन्हे हत्या से बचना चाहिए था।[२०]
लेख "इमाम का शहादत का ज्ञान और अचूकता के साथ इसकी असंगति का संदेह" के लेखक के अनुसार, ऐसे मामलों में जहां इमाम शहादत के लिए सहमत हुए हैं, उन्होंने स्वयं को संरक्षित करने के दायित्व के फैसले का विरोध नहीं किया है। इस लेखक के अनुसार, इमामों का ज्ञान पारंपरिक तरीकों से हासिल नहीं किया गया था। इस कारण से, ऐसा ज्ञान संभव है कि उसे पूरा करने का दायित्व ना लाता हो, और यह मानते हुए कि यह एक दायित्व वाला कार्य है, शायद इमामों के पास एक विशेष दायित्व था और उन्होंने इसे समाज के कल्याण की दिशा आदि ... में पूरा किया।[२१] इमाम रज़ा (अ.स.) से उल्लेख किया गया है कि 19वीं रमज़ान की रात को, इमाम अली ने भी ईश्वरीय नियति के प्रति समर्पण स्वीकार कर लिया।[२२] मुल्ला सालेह माज़ांदरानी उसूले काफ़ी के टिप्पणीकारों में से एक, अमीर अल-मोमिनीन (अ.स.) के बारे में इमाम रज़ा (अ.स.) के कथन के इस अंश (خُيِّر فيها بين البقاء و اللقاء فاختار اللقاء ليمضى تقدير اللّه تعالى) (ख़ुय्येरा फ़ीहा बैनल बक़ाए वल लेक़ा फ़ख़तारा अल लेक़ा लेयमज़ी तक़दीरल्लाहि तआला) की व्याख्या में लिखते हैं कि इमाम अली (अ.स.) ने ईश्वर की नियति को पूरा करने के लिए इस दुनिया में रहने और ईश्वर से मिलने के बीच रमज़ान के महीने की 19वीं रात को ईश्वर से मिलने का विकल्प चुना, और यदि यह ईश्वर की इच्छा से और उसकी सहमति से है, तो यह न केवल अनुमेय है बल्कि अनिवार्य भी है, क्योंकि इमाम हुसैन (अ) ने भी ऐसा किया था और हम दुश्मन के खिलाफ़ जिहाद के दौरान भी ऐसा ही करते हैं।[२३]
इमाम अली की शहादत में क़ोताम की भूमिका
ऐतिहासिक रिपोर्टों के अनुसार, क़ोताम बिन्त शजना ने इमाम अली (अ) की शहादत में भूमिका निभाई है। इब्ने मुल्जिम के शादी के प्रस्ताव के जवाब में, उसने अपना महर एक हज़ार दिरहम, एक दासी, एक ग़ुलाम और अली (अ.स.) की हत्या रखा।[२४] इब्न मुल्जिम ने इन शर्तों को स्वीकार कर लिया और क़ोताम से शादी कर ली।[२५] और क़ोताम का बाप[२६] और उसके भाई[२७] नहरवान युद्ध में मारे गए थे।
39 हिजरी में हज समारोह के दौरान इमाम अली के प्रतिनिधि और मुआविया के प्रतिनिधि के बीच विवाद पैदा हो गया। हज समारोह के बाद, ख़वारिज का एक समूह मक्का में इकट्ठा हुआ और उन्होने कहा कि उन लोगो ने काबा की पवित्रता का सम्मान नहीं किया।[२८] उन्होंने मुसलमानों की स्थितियों के बारे में शिकायत की और नहरवान युद्ध में मारे गये अपने मृतकों का उल्लेख किया।[२९] अंत में तीन लोगों ने अली (अ.स.), मुआविया और अम्र बिन आस को मारने की प्रतिज्ञा की। इब्न मुल्जिम मोरादी ने अली (स.) को मारने की क़सम खाई।[३०] इब्न मुल्जिम ने शाबान की 20 तारीख़ को 40 हिजरी में कूफ़ा में प्रवेश किया[३१] और वहां वह क़ोताम से परिचित हुआ।[३२]
इमाम अली (अ) का हमले में ज़ख़्मी होना
रमज़ान की 19वीं रात को, इमाम अली (अ) इफ़तार के लिए अपनी बेटी उम्मे कुलसूम के मेहमान थे।[३३] शिया इतिहासकार रसूल जाफ़रियान लिखते हैं कि अहले-बैत (अ) और सुन्नियों के माध्यम से बहुत सी हदीसों में ज़ख़्मी होने की रात इमाम की विशेष मानसिक स्थिति का उल्लेख किया गया हैं।[३४] किताब अल-कामिल[३५] में सुन्नी इतिहासकार इब्न असीर के उल्लेखित एक कथन,[३६] और किताब अल काफ़ी की एक हदीस के अनुसार ज़ख़्म खाने की रात जब इमाम घर से बाहर आ रहे थे तो हंस उनके सामने आ गए और जब उन्होंने उन्हें भगाया तो इमाम ने कहा कि उन्हें छोड़ दो वे शोक मना रहे हैं। अल्लामा मजलिसी ने अल काफ़ी की इस हदीस को कमज़ोर (ज़ईफ़) माना है।[३७]
बिहार अल-अनवार में अल्लामा मजलिसी के अनुसार, इमाम अली (अ) मस्जिद में गए। अज़ान की जगह पर खड़े होकर अज़ान दी।[३८] उन्होंने मस्जिद में सो रहे लोगों को नमाज़ के लिए जगाया। उन्होंने इब्न मुल्जम को भी जगाया जो मस्जिद में पेट के बल सो रहा था और उसे इस तरह सोने से मना किया।[३९] फिर वह नमाज़ अदा करने के लिए मेहराब में खड़े हो गए। इब्ने मुल्जिम ने सज्दा की हालत में[४०] या सजदे से सिर उठाते समय[४१] उनके सिर पर तलवार से वार किया।[४२] कुछ रिपोर्टों के अनुसार, इमाम के मस्जिद में दाखिल होते समय उन पर हमला किया गया।[४३] इब्न मुल्जम के साथ शबीब बिन बजरा अशजई[४४] और वरदान[४५] भी थे। प्रहार के बाद इब्ने मुल्जिम ने कहाः फैसला ईश्वर के लिए है (ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह), तुम्हारे और तुम्हारे साथियों के लिए नहीं।[४६] एक वर्णन है कि इमाम अली (अ.स.) पर वार किये जाने के बाद, जिब्रईल ने ईश्वर से शपथ खाई कि मार्गदर्शन की नींव नष्ट हो गई और आकाश के सितारे और धर्मपरायणता के संकेत विलुप्त हो गए।[४७] यह उद्धरण पहले (मुतक़द्दिम) के स्रोतों में नहीं पाया जाता है।[उद्धरण वांछित] और केवल बाद के कुछ स्रोतों[४८] ने इसे उद्धृत किया है। [नोट 1]
- यह लेख भी देखें: इमाम अली के ज़ख़्मी होने की रात
फ़ुज़्तो व रब्बिल काबा
मुख्य लेख: फ़ुज़्तो वा रब्बिल काबा
तीसरी शताब्दी के इतिहासकार इब्न कुतैबा दैनवरी की रिपोर्ट के अनुसार, इमाम अली (अ.स.) ने हमले में ज़ख्मी होने के बाद इस वाक्य "फ़ुज़्तो वा रब्बिल काबा" (काबा के रब की क़सम, मैं कामयाब हो गया) को अपनी ज़बान पर जारी किया है।[४९] शिया विद्वानों जैसे सय्यद रज़ी,[५०] इब्न शहर आशोब[५१] और सुन्नी विद्वानों जैसे इब्न असीर[५२] और बलाज़री[५३] ने इस बयान का ज़िक्र किया है।
इब्ने अबी अल-हदीद के अनुसार, इमाम को ज़ख़्म लगने के बाद, कूफ़ा के चिकित्सकों को इमाम की जांच करने के लिए एकत्रित किया गया।[५४] इमाम के सिर के घाव की जांच करने के बाद, असीर बिन अम्र इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ज़ख्म मस्तिष्क तक पहुंच गया था। इसलिए, उन्होंने इमाम से वसीयत करने को कहा; क्योंकि वह अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकेगें।[५५]
ज़ख़्मी होने के बाद इमाम अली की वसीयतें
इमाम अली (अ) से उनके ज़ख़्मी होने और शहीद होने के बीच कुछ बातों और वसीयतों को वर्णित किया गया है। ज़ख़्मी हो जाने के बाद, इमाम अली (अ.स.) अपनी शहादत तक काफी समय तक होश खो बैठते थे।[५६] वह नमाज़ बैठकर पढ़ रहे थे और उन्होने अपने बच्चों को संबोधित करते हुए उन्हे कुछ वसीयतें की थी।[५७] उन्होने इमाम हसन और इमाम हुसैन को संबोधित एक विशेष वसीयत भी थी। जो नहज अल-बलाग़ा में उल्लेख हुई है।[५८] इमाम ने इस अवधि के दौरान मृत्यु के बारे में भी बात की।[५९] इमाम अली (अ) 21 रमज़ान 40 हिजरी को शहीद हुए थे।[६०] कुछ स्रोतों ने उनकी शहादत के लिए अन्य तारीख़ो का उल्लेख भी किया है।[६१]
इब्ने मुल्जिम से प्रतिशोध के बारे में वसीयत
इमाम अली (अ.स.) को इब्न मुल्जिम पर केवल एक वार मारने की वसीयत की गई थी।[६२] यदि वह उस वार से मारा जाता है, तो उसके शरीर को क्षत-विक्षत नहीं किया जाना चाहिए।[६३] कुछ स्रोतों के अनुसार, इमाम ने इब्न मुल्जिम को भोजन और पानी देने का आदेश देने और उसके साथ उचित व्यवहार करने के लिये कहा।[६४] बेशक, कुछ स्रोतों में यह उल्लेख किया गया है कि इमाम हसन द्वारा इब्न मुल्जिम से बदला लेने के बाद,[६५] लोगों ने उसके शरीर को जला दिया।[६६] इसके अलावा, कुछ कथनों में इब्न मुल्जिम को मुसला करने का उल्लेख किया गया है।[६७]
अंत्येष्टि एवं दफ़न
इमाम अली (अ.स.) को इमाम हसन (अ.स.), इमाम हुसैन (अ.स.), मुहम्मद हनफ़िया और अब्दुल्लाह बिन जाफ़र ने ग़ुस्ल दिया।[६८] इमाम हसन ने ज़नाज़े की नमाज़ पढ़ाई[६९] और उन्हें रात में दफ़्ना किया गया और इमाम को दफ़नाने के लिए कई जगहें तैयार कीं ताकि क़ब्र का स्थान छिपा रहे।[७०] ख़वारिज[७१] और बनी उमय्या की शत्रुता [७२] और उनके द्वारा कब्र की खुदाई को रोकने के लिए इमाम अली (अ) के दफ़्न स्थान को छिपा दिया गया था। कुछ ही शियों को दफ़्न स्थान के बारे में पता था यहां तक कि इमाम सादिक़ (अ) ने बनी अब्बास के शासनकाल के दौरान सभी को क़ब्र का स्थान बताया दिया।[७३] नजफ़ शहर में इमाम अली (अ.स.) का दफ़न स्थान, जिसका स्रोतों में अलग-अलग नामों से उल्लेख किया गया है,[७४] शियो के बीच सर्वसम्मति का मामला है।[७५]
मोनोग्राफ़ी
- मक़तल अल-इमाम अमीर अल-मोमिनीन अली बिन अबी तालिब, सुन्नी कथावाचकों में से एक इब्न अबी अल-दुनिया (मृत्यु 281 हिजरी) द्वारा अरबी में लिखी गई एक किताब है [७६] इस किताब में, इमाम अली (अ) की शहादत के बारे में ख़बरें है जिनको हदीस के रूप में वर्णित किया गया है। इस पुस्तक का फ़ारसी में अनुवाद महमूद महदवी दामग़ानी द्वारा किया गया है।[७७]
- शहीदे तन्हा (मक़लत अमीरल मोमिनन अली (अ)" किताब सय्यद मोहम्मद रज़ा हुसैनी मुतलक़ द्वारा लिखी गई थी।[७८]
संबंधित लेख
- इमाम अली (अ) का रौज़ा
- मस्जिद कबूद मज़ार शरीफ़
- ग़ारात
फ़ुटनोट
- ↑ इब्ने कसीर, अल-बिदाया वा अल-निहाया, 1407 हिजरी, खंड 130।
- ↑ इब्ने कसीर, अल-बिदाया वा अल-निहाया, 1407 हिजरी, खंड 7, पृष्ठ 323।
- ↑ जाफ़रियान, शिया इमामों का राजनीतिक और बौद्धिक जीवन, 2008, पृष्ठ 53-54।
- ↑ जाफ़रियान, शिया इमामों का बौद्धिक और राजनीतिक जीवन, 2013, पृष्ठ 110।
- ↑ नहज अल-बलाग़ा, 1414 एएच, पृष्ठ 264।
- ↑ नसिरी रज़ी, सद्र इस्लाम का विश्लेषणात्मक इतिहास, 1384, पृ.191
- ↑ सुबहानी, अल-शिया फ़ी मौकिब अल-तारिख़, 1413 एएच, खंड 1, पृष्ठ 22।
- ↑ नसिरी रज़ी, सद्र इस्लाम का विश्लेषणात्मक इतिहास, 1384, पृष्ठ 135।
- ↑ इब्न अबी अल-हदीद, नहज अल-बलाग़ा पर टिप्पणी, 1404 एएच, खंड 11, पृष्ठ 43।
- ↑ मजलेसी, मरअतुल अल-उक़ूल, 1404 एएच, खंड 16, पृष्ठ 381।
- ↑ मजीदी ख़ामेने, "ईरान में क़द्र की रातें", पृष्ठ 19।
- ↑ मजीदी खामेने, "ईरान में क़द्र की रातें", पृष्ठ 20।
- ↑ मजीदी खामेने, "ईरान में क़द्र की रातें", पृष्ठ 20।
- ↑ कोमी, मफ़ातिह अल-जेनान, उसवाह, पी. 226.।
- ↑ कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 एएच, खंड 1, पृ. 530
- ↑ कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 एएच, खंड 1, पृ. 258-260।
- ↑ रब्बानी गुलपायगानी और रहमानिज़ादेह देखें, "इमाम का शहादत का ज्ञान और अचूकता के साथ इसकी असंगति का संदेह", पृष्ठ 105।
- ↑ शेख़ मुफीद, अल-इरशाद, 1413 एएच, खंड 1, पृष्ठ 319।
- ↑ शेख़ मुफीद, अल-मसायल अल-अकबरिया, 1413 एएच, पीपी 69-72।
- ↑ सैय्यद मुर्तज़ा, रसाइल अल-शरीफ़ अल-मुर्तज़ा, 1415 एएच, खंड 3, पृष्ठ 131।
- ↑ रब्बानी गुलपाइगानी और रहमानिज़ादेह, "इमाम का शहादत का ज्ञान और अचूकता के साथ इसकी असंगति का संदेह", पृष्ठ 111।
- ↑ कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 एएच, खंड 1, पृष्ठ 259।
- ↑ माज़ंदरानी, शरह उसूल, प्रकाशक: काफ़ी इस्लामिक लाइब्रेरी, खंड 6, पृष्ठ 37।
- ↑ शेख मोफ़िद, अल-इरशाद, 1413 एएच, खंड 1, पृष्ठ 18-19
- ↑ इब्न कुतैबा, इमामत वा अल-सियासत, 1410 एएच, खंड 1, पृष्ठ 180।
- ↑ शेख मोफिद, अल-इरशाद, 1413 एएच, खंड 1, पृष्ठ 18।
- ↑ इब्न कुतैबा, इमामा व अल-सियासा, 1410 एएच, खंड 1, पृष्ठ 180।
- ↑ इब्न कुतैबा, इमामा व अल-सियासा, 1410 एएच, खंड 1, पृष्ठ 179।
- ↑ इब्न अबी अल-हदीद, नहज अल-बलाग़ा पर टिप्पणी, 1404 एएच, खंड 6, पृष्ठ 113।
- ↑ ज़हबी, इस्लाम का इतिहास, 1409 एएच, खंड 3, पृष्ठ 607।
- ↑ याकूबी, तारिख़ अल याकूबी, बेरूत, खंड 2, पृष्ठ 212।
- ↑ शेख़ मोफिद, अल-इरशाद, 1413 एएच, खंड 1, पृष्ठ 18।
- ↑ हुसैनी मुतलक, शहिद तन्हा, 1386 एएच, पृष्ठ 114
- ↑ जाफ़रियान, शिया इमामों का बौद्धिक और राजनीतिक जीवन, 2013, पृष्ठ 111।
- ↑ इब्न असीर, अल-कामिल, 1385 एएच, खंड 3, पृष्ठ 388।
- ↑ कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 एएच, खंड 1, पृष्ठ 259।
- ↑ मजलिसी, मरअतुल-उक़ूल, 1404 एएच, खंड 3, पृष्ठ 122।
- ↑ मजलिसी, बिहार अल-अनवार, 1410 एएच, खंड 42, पृष्ठ 281।
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- ↑ शेख़ तूसी, अमाली, 1414 एएच, पृष्ठ 365।
- ↑ मजलिसी, बिहार अल-अनवार, 1410 हिजरी, खंड 42, पृष्ठ 281।
- ↑ इब्न आसम कूफ़ी, अल-फ़ुतुह, खंड 4, पृष्ठ 278।
- ↑ तबरी, तारिख़ अल-तबरी, 1387 एएच, खंड 5, पृष्ठ 145।
- ↑ इब्न साद, तबक़ात अल-कुबरा, 1418 एएच, खंड 3, पृष्ठ 25-28
- ↑ इब्न ख़ल्दून, इब्न ख़ल्दून का इतिहास, 1408 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 646।
- ↑ इब्न ख़ल्दून, इब्न ख़ल्दून का इतिहास, 1408 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 646।
- ↑ मजलिसी, बिहार अल-अनवार, 1410 एएच, खंड 42, पृष्ठ 282।
- ↑ मजलिसी, बिहार अल-अनवार, 1410 एएच, खंड 42, पृष्ठ 282।
- ↑ इब्न कुतैबा, इमामत और सियासत, 1410 एएच, खंड 1, पृष्ठ 180।
- ↑ सैय्यद रज़ी, इमामों की विशेषताएं, 1406 एएच, पृष्ठ 63।
- ↑ इब्न शहर आशोब, मनाक़िब आले अबी तालिब, 1379 एएच, खंड 2, पृष्ठ 119।
- ↑ इब्न असीर, उसद अल-ग़ाबा, 1409 एएच, खंड 3, पृष्ठ 618।
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 एएच, खंड 2, पृष्ठ 488।
- ↑ इब्न अबी अल-हदीद, नहज अल-बलाग़ा पर टिप्पणी, 1404 एएच, खंड 6, पृष्ठ 119।
- ↑ मदनी शिराज़ी, अल-तराज़ अल-अव्वल, 2004, खंड 7, पृष्ठ 14।
- ↑ मजलेसी, बिहार अल-अनवार, 1410 एएच, खंड 42, पृष्ठ 289।
- ↑ मजलिसी, बिहार अल-अनवार, 1410 एएच, खंड 42, पृष्ठ 290।
- ↑ नहज अल-बलाग़ा, 1414 एएच, पीपी 421-422।
- ↑ नहज अल-बलाग़ा, 1414 एएच, उपदेश 149, पृष्ठ 207।
- ↑ शेख़ मुफीद, अल-इरशाद, 1428 एएच, खंड 1, पृष्ठ 9।
- ↑ इब्न ख़ल्दून, इब्न ख़ल्दून का इतिहास, 1408 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 645।
- ↑ मोक़द्दिसी, अल-बद वा अल-तारिख़, बूर सईद, खंड 5, पृष्ठ 233।
- ↑ नहज अल-बलाग़ा, 1414 एएच, पृष्ठ 422।
- ↑ फ़त्ताल नैशापूरी, रौज़ा अल-वायेज़िन, 1375, खंड 1, पृष्ठ 137।
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