ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह
ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह (ईश्वर के आदेश के अलावा कोई आदेश नहीं है) (अरबीःلا حكم إلا لله) सिफ्फ़ीन की लड़ाई में हकमियत के विरोध में खारिजियों का नारा था। इस नारे के साथ, पहले चरण में ख़्वारिज ने मानवीय निर्णय के प्रति अपने विरोध की घोषणा की और अबू मूसा अश्अरी और अम्र आस के मध्यस्थ को स्वीकार नहीं किया, जिसे इमाम अली (अ) और मुआविया द्वारा न्यायाधीश के रूप में चुना गया था, और कहा कि सरकार सिर्फ अल्लाह की है, किसी और की नहीं, किसी को शासन करने का कोई अधिकार नहीं है।
इमाम अली (अ) ने इस नारे को सच्चा माना लेकिन इससे ग़लत मतलब लिया गया था। वह समाज के प्रबंधन के लिए अच्छे या बुरे शासक के अस्तित्व को आवश्यक मानते थे।
यह नारा नहरवान की लड़ाई के बाद ख्वारिज के लिए जारी रहा और इसे उनके धार्मिक सिद्धांतों में से एक के रूप में मान्यता दी गई और उनके बाद के विद्रोहों में इसका इस्तेमाल किया गया।
कुछ शोधकर्ताओं ने ख़वारिज के ग़लत समझने और इसी तरह से उनकी समझ के शुरुवाती होने और इमामत और राजनीति की सही समझ की कमी होने को "ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह" नारे की विकृत धारणा के निर्माण में प्रभावशाली माना है।
अर्थ विज्ञान
"ला हुक्म इल्ला लिल्लाह" इमाम अली (अ) का विरोध करने और उनका मुकाबला करने में ख़वारिज का आदर्श वाक्य था।[१] जो इस नारे के उपयोग के कारण मुहक्केमा के रूप में जाना जाने लगा।[२] इस नारे में हुकम का अर्थ है "हुकूमत करना" लिया गया है। इसका मतलब है कि ईश्वर के अलावा कोई भी हकम (न्यायधीश) निर्धारित नही कर सकता।[३] यह नारा क़ुरआन के वाक्यांश "इन्नल हुक्मा इल्ला लिल्लाह" [स्रोत की आवश्यकता] से लिया गया है, जिसे क़ुरआन की कई आयतों में दोहराया गया है।[४] बाद मे ख्वारिज ने इस वाक्य से परमात्मा के अलावा हर प्रकार की हाकेमीयत से भी इनकार किया है।[५]
सर्वप्रथम उपयोग
"ला हुकमा इल्ला लिल्लाह" नारे का पहला प्रयोग उन लोगों द्वारा किया गया था जिन्होंने सिफ़्फ़ीन की लड़ाई में मध्यस्थता की प्रारंभिक स्वीकृति का विरोध किया था; जब सीरियाई सेना अम्र आस की चाल से युद्ध में हार के कगार पर थी, तो उन्होंने भालो पर क़ुरआन चढ़ाकर कुरआन की मध्यस्थ की मांग की।[६] इमाम अली (अ) ने आसपास के लोगों के आग्रह पर स्वीकार कर लिया और मुआविया को एक पत्र में इस मामले की सूचना दी।[७] अंत में, एक संधी लिखी गई और उसके नियम और शर्तें निर्दिष्ट की गईं।[८]
जब अशअस बिन क़ैस कंदी ने विभिन्न जनजातियों के लिए प्रारंभिक समझौते का पाठ पढ़ा, तो "ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह" पर केंद्रित विरोध प्रदर्शन का गठन किया गया; जैसे ही अंजा जनजाति के दो युवकों ने ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह का नारा लगाया और मुआविया की सेना पर हमला किया तो मुआविया के तम्बू के पास मारे गए।[९] कुछ लोगों का मानना है कि ये दोनों युवक "ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह" नारे का इस्तेमाल करने वाले पहले व्यक्ति थे।[१०] इस घटना के बाद, अश्अस मुराद जनजाति के पास गए और उन्हें भी समझौता पढ़कर सुनाया। जनजाति के बुजुर्गों में से एक, सालेह बिन शक़ीक़ ने इस संधि के जवाब में "ला हुक्म इल्ला लिल्लाह" नारे का इस्तेमाल किया।[११] इसी तरह की एक घटना बनीरासिब जनजाति में हुई थी।[१२]
"ला हक्मा इल्ला लिल्लाह" कीवर्ड के साथ हाकमीयत का विरोध भाषाई विरोध तक सीमित नहीं था, जब तक कि अश्अस बनी तमीम जनजाति तक नहीं पहुंच गया, इस जनजाति के लोगों ने "ला हक्मा इल्ला लिल्लाह" के नारे के साथ उस पर हमला किया और अश्अस के घोड़े पर प्रहार किया।[१३] अंसाब अल-अशराफ के लेखक बलाज़ुरी का मानना है कि उल्लिखित नारा पहली बार इसी जनजाति से सुना गया था;[१४] लेकिन तीसरी चंद्र शताब्दी के इतिहासकार याक़ूबी का मानना है कि इस नारे का पहली बार इस्तेमाल जजों के एकत्रित होने से पहले उर्वा बिन अदया तमीमी नामक व्यक्ति द्वारा किया गया था।[१५]
ख्वारिज के नारे मे परिवर्तन
17 सफ़र 37 हिजरी को सिफ़्फ़ीन की लड़ाई में तहकीम का समझौता होने के बाद,[१६] इमाम की सेना कुफ़ा लौट आई; लेकिन कुछ लोग जो बाद में ख़वारिज के रूप में जाने गए, वे "ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह" के नारे के साथ इमाम अली की सेना से अलग हो गए और कूफ़ा के पास हरुरा में रहने लगे और कूफ़ा लौटने से इनकार कर दिया[१७] और यहां तक कि इमाम को धमकी भी दी कि अगर वह वापस नहीं आए तो मध्यस्थता की स्वीकृति के कारण, वे उसे नापसंद करते हैं और उससे लड़ेगें।[१८]
"ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह" के नारे पर भरोसा करते हुए उन्होंने धर्म के मामलों में व्यक्तियों की मध्यस्थता को छोड़ने की मांग की,[१९] मुआविया के साथ संधि को तोड़ दिया और उसके साथ युद्ध जारी रखा।[२०] उन्होंने दावा किया कि उन्होंने मध्यस्थता स्वीकार के अपने पाप से पश्चाताप किया है और इमाम अली (अ) तथा अन्य मुसलमानों को पापी और काफिर माना और उनसे पश्चाताप करने को कहा, अन्यथा वे उनके साथ युद्ध करेंगे।[२१] यह उस हालत मे था जब इमाम अली (अ) शुरू से ही मध्यस्थता स्वीकार करने के विरोध में थे। और अपने दोस्तों को, जिनमें वे लोग भी शामिल थे, जो बाद में ख्वारिज में शामिल हो गए, मजबूर किया और धमकाया, उन्हें मध्यस्थता स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया और मध्यस्थता स्वीकार करने के बाद अनुबंध तोड़ने के लिए तैयार नहीं थे।[२२] इब्ने कौवा, ख्वारिज के नेताओं में से एक, शुरू में मध्यस्थता के पक्षधर थे और कुफ़ा सेना के कमांडर के रूप में अब्दुल्ला बिन अब्बास का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों में से एक थे, उन्होंने इसका विरोध किया और इमाम पर अबू मूसा अश्अरी को थोप दिया;[२३] लेकिन बाद में, शब्श्त बिन रबई तमीमी के साथ मिलकर, उन्होंने "ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह" के नारे के साथ ईश्वर की संप्रभुता को बढ़ाने वाले पहले लोगों में से एक थे।[२४]
इमाम अली (अ) के साथ बहस
ख़्वारिज इसी नारे के आधार पर अलग-अलग मौकों पर इमाम से बहस करते थे। उदाहरण के लिए, जब अबू मूसा अल-अश्अरी को हकम के रूप में चुना गया, तो ख़्वारिज के दो लोग जिनका नाम ज़रआ बिन अल-बर्ज ताई और हुर्कूस बिन ज़ुहैर सादी था, इमाम अली (अ) के पास आए और नारा लगाया "ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह" और इमाम से अपने किए पर पश्चाताप करके मुआविया से लड़ने के लिए कहा। इमाम ने भी उन्हें वादा पूरा करने की याद दिलाई और उनके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया।[२५]
कई अन्य मामलों में, खवारिज ने इस नारे से इमाम अली (अ) को परेशान किया; जैसे कि जब इमाम उपदेश देने के लिए कूफ़ा की मस्जिद में जा रहे थे, तो मस्जिद के बगल में किसी ने "ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह" का नारा लगाया और कई अन्य लोगों ने भी यही वाक्य दोहराया।[२६] ख्वारिज ने इस नारे के साथ इमाम के भाषण को कई बार बाधित किया।[२७] और यह मुद्दा बाद में कई मौकों पर दोहराया गया।[२८]
नारे की धारणा में बदलाव
ख्वारिज जो शुरुआत में ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह के नारे के साथ हकमीयत और फैसले को केवल ईश्वर के लिए मानते थे, कुछ समय बाद उन्होने इसका अर्थ दूसरा निकाला और इस बात को मानते थे कि सरकार और शासन केवल ईश्वर का है और कोई भी चाहे अली हो या मुआविया हो किसी को शासन करने का कोई अधिकार नहीं है। इसके साथ ही उन्होंने सरकार विहीन समाज की मांग की।[२९]
आयतुल्लाह सुब्हानी अल-इंसाफ फ़ी मसाइल दामा फ़ीहे अल खिलाफ़ किताब में मानते हैं कि सरकार के लिए सबूत देने की आवश्यकता नहीं है; जैसा कि इसके महत्व का उल्लेख पैग़म्बर (स) और मासूम इमामों के कथनों में किया गया है।[३०] ख्वारिज ने एकेश्वरवाद और ईश्वर की संप्रभुता को बनाए रखने के लिए अपनी गलत धारणा के कारण किसी भी मानवीय सरकार को बातिल क़रार दिया और घोषणा किया कि हकमीयत केवल ईश्वर का अधिकार है।[३१] कुछ अन्य शोधकर्ताओं का मानना है कि अधिकांश ख्वारिज बद्दु (अज्ञानी) थे, जिनके पास इमामत और राजनीति की एक अलग मुद्दे के रूप में बुनियादी और सही समझ नहीं थी, इसलिए उन्होंने "ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह" नारे की विकृत व्याख्या के रूप में अपनी प्रवृत्ति दिखाई।[३२]
इमाम अली (अ) की प्रतिक्रिया
इस दावे के जवाब में कि उन्होंने ईश्वर के धर्म में लोगों को हकम बनाया, इमाम अली (अ) ने कहा कि क़ुरआन के आधार पर लोगों को शासन करने के लिए नियुक्त करते है तो इसका मतलब ईश्वर के धर्म में लोगों को हकम बनाया है।[३३] इमाम (अ) ने फ़रमाया कि काम से राहे फ़रार नही है जिससे कोई बच नहीं सकता; क्योंकि क़ुरआन खुद बोल नहीं सकता। एक बार ख़्वारिज के साथ चर्चा में, आप (अ) अपने साथ एक क़ुरआन ले गए और उससे कहा: "हे क़ुरआन, फ़ैसला कर।" ख्वारिज ने कहा कि क़ुरआन बोलता नहीं है। इमाम (अ) ने उत्तर दिया, तो फ़िर तुम कैसे उम्मीद करते हैं कि क़ुरआन मानवीय हस्तक्षेप के बिना लोगों के बीच फैसला करे?[३४]
इमाम अली (अ) ने "ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह" को एक सच्चा कथन माना, जिसका गलत अर्थ निकाला गया। उन्होंने ख्वारिज की इस राय को चुनौती दी कि शासन ईश्वर का अधिकार है, इस तरह से लोग एक शासक को चुनने के लिए मजबूर हो जाते हैं, चाहे वह अच्छा आदमी हो या अपराधी। उन्होंने व्यवस्था बनाने और विश्वासियों और यहां तक कि अविश्वासियों को लाभ पहुंचाने, और मामलों को व्यवस्थित करने और सड़क सुरक्षा के लिए सरकार के अस्तित्व को आवश्यक माना।[३५] "ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह" के नारे पर इमाम की प्रतिक्रिया का उल्लेख नहज अल बलाग़ा के 40वें ख़ुत्बे में किया गया है।[३६]
हालाँकि ख़वारिज[३७] के साथ इमाम अली (अ) की बहसो के परिणामस्वरूप चार हजार लोग[३८] या सभी ख्वारिज[३९] वापस आ गए,हालाँकि, हकमीयत की कहानी के अनिर्णीत होने के बाद उन्होंने इमाम अली (अ) को पापी और काफिर मानने पर जोर दिया। उन्होंने मुआविया के साथ युद्ध जारी रखने के लिए इमाम अली (अ) और कूफ़ा की सेना के साथ जाने से इनकार कर दिया।[४०] वे अब्दुल्ला बिन वहब रस्बी के घर में एकत्र हुए[४१] और इमाम के साथ युद्ध की तैयारी की,अंततः, इसके कारण नहरवान की लड़ाई हुई और उनकी हार हुई।[४२]
नहरवान की लड़ाई पश्चात
नारा "ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह" ख्वारिज के सबसे महत्वपूर्ण प्रतीकों में से एक रहा, और बाद में इब्न मुल्जम मुरादी ने इमाम अली (अ) पर हमला करते समय यही वाक्य दोहराया।[४३] वर्षों बाद भी यह नारा उनके एतेक़ादी उसूल की पहचान बना रहा।[४४] और अपने विभिन्न युद्धो मे उन्होने इसी नारे का उपयोग किया।[४५]
फ़ुटनोट
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- ↑ शूस्तरी, एहकाक़ अल हक़, 1409 हिजरी, भाग 32, पेज 523 तालीक़ा आयतुल्लाह मरअशी नजफ़ी
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- ↑ मकारिम शिराज़ी, पयाम इमाम अमीर अल मोमिनीन (अ), भाग 2, पेज 432
- ↑ तबरी, तारीख अल उमम वल मुलूक, 1387 शम्सी, भाग 5, पेज 48
- ↑ मिंक़री, वक़्अतुस सिफ़्फ़ीन, 1382 हिजरी, पेज 493-494
- ↑ देखेः तबरी, तारीख अल उमम वल मुलूक, 1387 हिजरी, भाग 5, पेज 53-54
- ↑ दैनूरी, अखबार अल तोवाल, 1368 शम्सी, पेज 196 मिंक़री, वक्अतुस सिफ़्फ़ीन, 1382 हिजरी, पेज 512
- ↑ दैनूरी, अखबार अल तोवाल, पेज 196 मिंक़री, वक्अतुस सिफ़्फ़ीन, 1382 हिजरी, पेज 512
- ↑ दैनूरी, अखबार अल तोवाल, 1368 शम्सी, पेज 197
- ↑ मिंक़री, वक्अतुस सिफ़्फ़ीन, 1382 हिजरी, पेज 513
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- ↑ बलाज़ुरी, अंसाब अल अशराफ़, 1417 हिजरी, भाग 2, पेज 336
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स्रोत
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