हदीस गढ़ना
- यह लेख हदीस गढ़ने की अवधारणा के बारे में है। गढ़ी हुई हदीसों के बारे में जानने के लिए गढ़ी हुई हदीस वाला लेख देखें।
हदीस गढ़ना (अरबीः وضع الحديث) और उसका श्रेय इस्लाम के पैग़म्बर (स) या मासूम इमामों को देने को कहा जाता है। हदीस गढ़ना कभी-कभी हदीस बनाकर किया जाता है, और कभी-कभी हदीस में एक शब्द जोड़कर या उसके शब्दों को बदलकर किया जाता है। हदीस गढ़ने की शुरुआत का इतिहास इस्लाम के पैग़म्बर (स) के जीवनकाल मे हुआ और मुआविया बिन अबू सुफियान के शासन काल मे इसका विस्तार हुआ।
हदीस गढ़ने के लक्ष्यों और उद्देश्यों में इमाम अली (अ) के गुणों को कम करना, मुआविया के शासन को वैध बनाना और संप्रदायों के प्रति पूर्वाग्रह शामिल रहे हैं। उम्मत को अहले-बैत (अ) से वंचित करना, कुछ प्रामाणिक हदीसों का खंडन, और प्रामाणिक हदीसों को प्राप्त करने में कठिनाई हदीस गढ़ने के परिणाम है।
शिया विद्वानों के अनुसार, अबू हुरैरा, कअब अल-अहबार और इब्न अबी अल-औजा गढ़ी हुई हदीसों के वर्णनकर्ताओं में से हैं।
हदीस गढ़ने के बारे में किताबें लिखी गई हैं, इब्न जौज़ी (मृत्यु 597 हिजरी) की किताब अल-मौज़ूआत इस विषय पर लिखी जाने वाली पहली किताब है। शेख मुहम्मद तक़ी शूस्त्री (मृत्यु 1374 शम्सी) द्वारा लिखित अल अखबार अल दख़ीला, सय्यद हाशिम मारूफ़ अल हुसैनी की अल-मौज़ूआत फ़ी अल आसार वल अखबार और सय्यद मुर्तज़ा अस्करी (1293-1386 शम्सी) की यक सदो पंचाह सहाबा साख़तगी (उर्दू भाषा मे अनुवादः एक सौ पचांस जाली सहाबा) इस क्षेत्र में अन्य कार्य हैं।
परिभाषा
- यह भी देखें: गढ़ी हुई हदीस
हदीस गढ़ना, जाअले हदीस को कहा जाता है। सूत्रों में, हदीस की जालसाजी को "वज़्अ हदीस" कहा जाता है[१] और हदीस जाअली को "हदीस मौज़ूअ अर्थात गढ़ी हुई हदीस" कहा जाता है।[२] गढ़ी हुई हदीस उस हदीस को कहा जाता है जिसे जान बूझकर या त्रूठी से तैयार किया जाता है और उसका श्रेय पैग़म्बर (स) या किसी मासूम इमाम (अ) को दिया जाता है।[३] हदीस गढ़ने वाले का स्वीकार करना उस हदीस के गढ़ी हुई होने पर तर्क है,[४] हदीस के कंटेंट का अक़्ल, क़ुरआन या धर्म की अनिवर्यताओ[५] का विरोधी होना गढ़ी हुई हदीस के संकेतो मे से है।
तरीक़े
हदीस का मिथ्याकरण अलग-अलग तरीकों से किया जाता है: कभी-कभी एक हदीस को पूरी तरह से गढ़ा जाता है और उसका श्रेय पैग़म्बर (स) और इमामों को दिया जाता है; कभी-कभी हदीस में शब्द जोड़े जाते है; और कभी-कभी हदीस के शब्दों को बदला जाता है।[६]
उपरोक्त तरीक़ो मे पहला तरीक़ा जिसमे पूरी हदीस गढ़ी जाती है, अधिकांश समय आस्था (अकीदती), नैतिकता (अख़लाक़) , इतिहास (तारीख), चिकित्सा, गुण (फ़ज़ाइल) और प्रार्थना (दुआ) के मामलों में हदीस गढ़ना अधिक प्रचलित है।[७] किसी हदीस में शब्दों को जोड़ने का एक उदाहरण दूसरे अब्बासी ख़लीफ़ा मंसूर दवानिक़ी द्वारा इमाम ज़माना (अ.त.) के बारे में पैग़म्बर (स) की एक हदीस मे ऐसा किया गया है। इस हदीस में कहा गया था कि परमात्मा मेरे अहले-बैत मे से एक आदमी को उठाएगा जिसका नाम मेरे नाम पर होगा;[८] लेकिन मंसूर दवानिक़ी ने अपने बेटे को इस हदीस का मिस्दाक़ बनाने हेतु इस हदीस मे "उसके पिता का नाम मेरे पिता के नाम पर होगा" वाक्यांश जोड़ दिया; क्योंकि मंसूर का नाम पैग़म्बर के पिता अब्दुल्लाह के नाम जैसा था।[९]
पैग़म्बर (स) की एक हदीस के शब्दो को बदलने का उदाहरण वह हदीस है जिसे कुछ लोगों ने मुआविया की प्रशंसा में सुनाया है। इस हदीस में कहा गया है: जब भी तुम मुआविया को मेरे मिंबर पर बोलते हुए देखो, तो उसे स्वीकार करो; क्योंकि वह ईमानदार और भरोसेमंद है।[१०] यह हदीस वास्तव में मुआविया की निंदा मे थी इसमे " فاقْتُلُوه फ़क़्तोलुहो" (उसे मार डालो) शब्द को " فاقْتُلُوه फ़क़्बोलूहो" (उसे स्वीकार करो) शब्द से बदल दिया गया है।[११]
हदीसों को चुराना (अर्थात किसी अन्य कथावाचक की हदीस को उस के नाम के स्थान पर अपने नाम या किसी दूसरे के नाम से बयान करना), मुहद्देसीन की पुस्तकों के साथ छेड़छाड़ करना और झूठे संस्करण प्रकाशित करना हदीस गढ़ने के अन्य तरीकों में से हैं।[१२]
इतिहास
कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि हदीस गढ़ने का इतिहास पवित्र पैग़म्बर (स) के जीवनकाल से जुड़ा है। उनके अनुसार पैग़म्बर (स) की वह हदीस हैं जिसमें झूठी हदीस का श्रेय पैग़म्बर (स) को देने वाले का स्थान नर्क बताया गया है,[१३] इस बात पर गवाह है।[१४] पैग़म्बर (स) के जीवनकाल के दौरान ही झूठ बोलने के बहुत से उदाहरण सामने आए हैं।[१५] एक रिवायत के आधार पर इमाम अली (अ) ने पैग़म्बर (स) के जीवन काल के दौरान हदीस गढ़ने का उल्लेख किया है।[१६]
हालांकि हाशिम मारूफ़ हस्नी के अनुसार, कुछ सुन्नी शोधकर्ताओं का मानना है कि हदीस की जालसाजी ख़ोलफ़ा ए राशेदीन के समय मे नहीं हुई थी इसका आरम्भ इमाम अली (अ) की शहादत के बाद शुरू हुई। इस अवधि के दौरान ऐसे पंथ और संप्रदाय अस्तित्व मे आए जो अपनी आस्थाओ (ऐतकादात) को क़ुरआन और सुन्नत पर भरोसा करते थे, और अगर उन्हें क़ुरआन या हदीसों में कोई दस्तावेज़ नहीं मिलता, तो वे हदीस गढ़ कर हदीस का मिथ्याकरण कर देते थे।[१७]
ऐसा कहा जाता है कि मुआविया बिन अबि सुफ़ियान के युग के दौरान हदीस के मिथ्याकरण मे विस्तार हुआ।[१८] 7वीं शताब्दी में नहज अल-बलाग़ा के मोअतज़ली टिप्पणीकार इब्न अबी अल-हदीद के अनुसार, मुआविया ने उन कथावाचकों का समर्थन किया जिन्होंने उस्मान और अन्य साथियों की प्रशंसा और इमाम अली (अ) निंदा करने मे हदीसों को गढ़ा था।[१९] इसके अलावा, बिक्रिया, जो इस बात को मानते थे कि अबू बक्र बिन अबी क़ुहाफा नस्स के साथ पैग़म्बर (स) का उत्तराधिकारी बना है, इमाम अली (अ) के फ़ज़ाइल की तुलना मे अबू बक्र के फ़ज़ाइल मे हदीस गढ़ते रहते थे।[२०]
जालसाजी विरोधी पृष्ठभूमि
अहमद पाकित्ची के अनुसार, पाँचवीं शताब्दी के अंत में, गढ़ी हुई हदीसों के बारे में रचनाएँ लिखी गईं; हालाँकि, शिया रेजाल विज्ञान के मूल्यांकन में हदीस गढ़ने के स्पष्ट आरोप का उपयोग चंद्र कैलेंडर की चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ था, और इसके उदाहरण इब्न उक़्दा[२१] और इब्न वलीद[२२] की टिप्पणियों में और पाँचवीं शताब्दी में इब्न ग़ज़ाएरी[२३] के पास देखे जा सकते हैं। इसी तरह उनके अनुसार, सुन्नीयो के हदीसी क्षेत्र में पहली बार बगदाद स्कूल के रेजाली विद्वानों ने अपने मूल्यांकन में हदीस के मिथ्याकरण के संबंध मे अपनी राय व्यक्त की।[२४]
हदीस गढ़ने के उद्देश्य और कारण
विभिन्न उद्देश्यों से हदीसे गढ़ी गई है, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
- इमाम अली (अ) के फ़ज़ाइल को कम आंकना: ऐसा कहा गया है कि जिस व्यक्ति के ख़िलाफ़ सर्वाधिक झूठी हदीसे गढ़ी गई वह हज़रत अली (अ) है।[२५] तीसरी शताब्दी के मोअतज़ली टिप्पणीकर्ता इब्न अबी अल-हदीद ने नहज अल-बलाग़ा के अपने विवरण में अबू जाफ़र इस्काफ़ी से उद्धृत किया है, कि मुआविया ने साथियों (सहाबीयो) और अनुयायियो (ताबेईन) के एक समूह को इमाम अली (अ) की निंदा करने वाली हदीसों गढ़ने के लिए नियुक्त किया था।[२६] उनके अनुसार, मुआविया ने एक पत्र में अपने एजेंटों से कहा कि वे लोगों से हज़रत अली (अ) के फ़ज़ाइल के स्थान पर साथियों (सहाबीयो) और तीन खलीफाओं के गुणों के बारे में हदीसे गढ़े यहा तक कि इमाम अली (अ) की फ़ज़ीलत मे कोई ऐसी हदीस बाक़ी न बचे जब तक कि वे इसके समान कोई हदीस खलीफ़ाओ और साथियों के पक्ष में हदीस गढ़ी जाए या उस हदीस के खिलाफ कोई दूसरी हदीस गढ़े।[२७]
- शासकों और खलीफाओं के शासन को वैध बनाना: 14वीं शताब्दी के प्रसिद्ध लेबनानी शोधकर्ता हाशिम हस्नी के अनुसार बनी उमय्या और अब्बासी सरकारों ने अपने शासन को वैध बनाने के लिए अपने बुजुर्गों के गुणों के बारे में या पैग़म्बर (स) को अपनी खिलाफत का श्रेय देने के बारे में हदीसें गढ़ते थे।[२८] बनी अब्बास की ओर से गढ़ी हुई एक हदीस जिसका श्रेय पैग़म्बर (स) देते थे उसमे आया है कि "पैग़म्बर (अ) ने कहा कि ख़िलाफ़त मेरे चाचा [अब्बास] की संतान को दी गई है।"[२९]
- अपने स्वयं के संप्रदाय के प्रति पूर्वाग्रह और अन्य संप्रदायों की अनदेखी: प्रत्येक संप्रदाय के समर्थक अपने संप्रदाय को सही साबित करने के लिए क़ुरआन और सुन्नत का हवाला देते थे, और जब क़ुरआन और सुन्नत से कोई दस्तावेज नहीं मिलता तो अपनी ओर से हदीस गढ़ लेते थे।[३०]
- गैर-मुसलमानों द्वारा धर्म को नष्ट करना और मुसलमानों के बीच कलह करना[३१] साथ ही राजाओं के करीब जाना[३२] और लोगों के लिए फ़ज़ीलत बनाना[३३] हदीस गढ़ने की अन्य प्रेरणाएँ रही हैं। कभी-कभी धार्मिक प्रेरणाओं जैसे कि समाज मे सुधार,[३४] लोगों को क़ुरआन की ओर आकर्षित करना[३५] और दैवीय पुरस्कार प्राप्त करना[३६] हदीस को गढ़ा गया है। इसके अलावा, पैग़म्बर (स) के उत्तराधिकार में मतभेद और सांप्रदायिकता को हदीस गढ़ने का कारण माना जाता है।[३७]
प्रभाव और परिणाम
हदीस गढ़ने के कुछ परिणाम इस प्रकार हैं:
- प्रामाणिक हदीसों को प्राप्त करने मे कठिनाई: हदीसों के मिथ्याकरण ने प्रामाणिक हदीसों को गढ़ी हुई हदीसों से अलग करना कठिन बना दिया।[३८]
- कुछ प्रामाणिक हदीसों को नकारना: कुछ प्रामाणिक हदीसों को खंडित करने के बहाने खारिज कर दिया गया है। उदाहरण के तौर पर, सुन्नी विद्वान और इब्न तैमिया के छात्र इब्न क़य्यिम जोज़ियेह (मृत्यु 751 हिजरी) ने ग़दीर ख़ुम में अली (अ) की इमामत को नकली माना;[३९] हालांकि अल्लामा अमीनी के अनुसार, हदीसे ग़दीर शिया और सुन्नी स्रोतों में तवातुर के साथ बयान हुई है।[४०] इसके अलावा सुन्नी विद्वान इब्न जौज़ी (मृत्यु 597 हिजरी) ने इमाम अली (अ) के गुणों की कुछ हदीसों को गढ़ी हुई हदीसे बताया है।[४१]
- अहले-बैत (अ) से लोगों को वंचित होना; आइम्मा (अ) को ऐसी हदीसो का श्रेय दिया जाता था जिस से लोगो मे उनके प्रति घृणा पैदा होती थी। अधिकांश ऐसी हदीसो को शियो के ज़ैदीया, फ़त्हीया और ग़ाली संप्रदाय गढ़ते थे।[४२]
- रेजाल शास्त्र की पुस्तकों का संकलन: हदीस गढ़ने के कारण वर्णनकर्ताओं, हदीस के प्रकार और गढ़ी हुई हदीसों के बारे में किताबें लिखी गईं।[४३] और पुरुष विज्ञान (इल्म रेजाल) के अस्तित्व मे आने का एक तर्क गढ़ी हुई हदीस और नक़ली रावीयो की पहचान बताई गई है।[४४]
हदीस गढ़ने वाले
अल्लामा अमीनी ने अपनी किताब अल-ग़दीर में हदीस गढ़ने वाले 700 लोगो के नाम उनके द्वारा गढ़ी गई हदासो के साथ वर्णन किया है। उनमें से कुछ लोगो को 100 से अधिक हदीसे गढ़ने का जिम्मेदार ठहराया गया है।[४५] अल-ग़दीर का यह भाग "अल-वज़्ज़ऊन व अहादीसेहिम अल-मौज़ूआ" शीर्षक के तहत स्वतंत्र रूप से प्रकाशित किया गया है।[४६] हदीस गढ़ने वालों में से कुछ इस प्रकार हैं:
- अबू हुरैरा: हदीसों की किताबों में उसके माध्यम से 5374 से अधिक हदीसें बताई गई हैं;[४७] हालांकि वह केवल लगभग तीन वर्षों तक पैगंबर के साथ रहा था। इसलिए, अली (अ), उमर, उस्मान और विशेष रूप से आयशा जैसे कुछ साथियों ने उसके माध्यम से पैग़म्बर (स) के कथनों की बहुलता पर आपत्ति जताई। हज़रत आयशा कहती थी कि अबू हुरैरा पैग़म्बर (स) से ऐसी हदीसे सुनाते है जिनको मैने नही सुना।[४८]
- कअब अल-अहबार: सय्यद मुर्तज़ा अस्करी के अनुसार, यहूदीयो के बारे मे अधिकांश हदीसे, अहले किताब की प्रशंसा और स्मृति, और बैतुल-मुक़द्दस के बारे मे सुनाई जाने वाली अधिकांश हदीसे इस्लामी स्रोतों में उनके माध्यम से दर्ज की गईं है।[४९]
- नूह इब्न अबी मरियम मरुज़ी: उन्होंने सूरों के फ़ज़ाइल के बारे में हदीसें भी गढ़ीं है। इसके कारणों में यह बताया गया है कि लोग क़ुरआन से दूर हो और अबू हनीफा की फ़िक्ह और मग़ाज़ी इब्न इस्हाक़ पर ध्यान देने का उल्लेख किया है।[५०]
- इब्न अबी अल-औजा: उन्होंने कहा कि उसने चार हज़ार हदीसें गढ़ीं है।[५१]
इसके अलावा, सूरों के फ़ज़ाइल के मामले में, रिवायतों का श्रेय उबय बिन कअब को दिया गया है, जब कि कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार ये रिवायतें गढ़ी हुई हैं।[५२] अल-मौज़ूआत पुस्तक के लेखक इब्न जौज़ी की रिवायत के अनुसार कुछ सूफियों ने मुसलमानों को क़ुरआन पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए इन हदीसो को गढ़ा है।[५३]
मोनोग़ाफ़ी
हदीस गढ़ने के बारे में रचनाएँ लिखी गई हैं, जिनमें से अधिकांश गढ़ी हुई हदीस एकत्रित करने और जालसाज़ों को प्रस्तुत करने के लिए समर्पित हैं। इब्न जौज़ी (मृत्यु 597 हिजरी) की अल-मौज़ूआत, जलालुद्दीन सीवती (मृत्यु 911 हिजरी) की अल सानी अल-मस्नूअत फ़ी अल अहादीस अल मौज़ूआ, शेख मुहम्मद तक़ी शूस्त्री (मृत्यु 1374 शम्सी) की अल अखबार अल दखीला, सय्यद हाशिम मारूफ़ अल हसनी की अल मौज़ूआत फ़ी अल आसार व अल अखबार और सय्यद मुर्तज़ा अस्करी (1293-1386 शम्सी) की यक सदो पंजाह सहाबी साखतगी इन कार्यों में से है। इसके अलावा, कार्यों ने हदीस की जालसाजी की घटना की जांच की है, जिनमें से कुछ शामिल हैं:
- अल वज़्अ फ़ि अल हदीस, अरबी भाषा मे उमर बिन हसन फल्लाता द्वारा लिखी गई है, जिसे दमिश्क में अल-ग़ज़ाली स्कूल द्वारा 1401 हिजरी में प्रकाशित किया गया है।[५४]
- दरस नामा वज़्अ हदीस, फारसी भाषा में नासिर रफ़ीई मुहम्मदी द्वारा लिखी गई है। इस पुस्तक में, हदीस गढ़ने की अवधारणा और इसके इतिहास, साथ ही हदीस गढ़ने के कारणों और प्रेरणाओं, तरीकों और परिणामों को समझाया गया है।[५५] इसके अंत में, हदीस गढ़ने से संबंधित पुस्तको को पहचनवाया गया है।[५६]
संबंधित लेख
फ़ुटनोट
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स्रोत
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- अल वज़्अ फ़ी अल हदीस, किताब खाना दानिशगाह इमाम सादिक़ (अ), वीजीट की तारीख 13 आज़र 1398 शम्सी