इमाम अली (अ) की हुकूमत
इमाम अली (अ) के शासन का क्षेत्र, रसूल जाफ़रयान की किताब "अतलस ए शिया" से लिया गया, की रचना। इस नक्शे में, इमाम अली (अ) के नियंत्रण वाले क्षेत्र हरे रंग से और मुआविया के नियंत्रण वाले क्षेत्र लाल रंग से दिखाए गए हैं। | |
| अन्य_नाम | अलवी हुकूमत (35-40 हिजरी) |
|---|---|
| भौगोलिक_विस्तार | हेजाज़, इराक़, ईरान, मिस्र, यमन, ओमान और जज़ीरा की भूमि |
| विशेषताएँ | न्याय • ईश्वर के धर्म का पालन • लोगों की इच्छा और चाहत से उत्पन्न • ख़ोलफ़ा ए राशेदीन के शासन का अंत |
| महत्वपूर्ण कार्य | पैग़म्बर (स) के चरित्र (सीरत) का पुनरुत्थान • समाज से भ्रष्टाचार (फ़साद) का खात्मा • नस्लीय भेदभाव और वर्ग व्यवस्था की अनदेखी |
| प्रमुख घटनाएँ | मध्यस्थता |
| राजधानियाँ | कूफ़ा |
| युद्ध | जमल, सिफ़्फ़ीन, नहरवान की लड़ाई |
| पूर्ववर्ती | इमाम हसन (अ) की ख़िलाफ़त और बनी उमय्या की ख़िलाफ़त |
| उत्तरवर्ती | उस्मान की ख़िलाफ़त |
| अधिकारी | मालिक अश्तर • इब्ने अब्बास • उस्मान बिन होनैफ़ • मुहम्मद बिन अबी बक्र • क़ुसम बिन अब्बास |
इमाम अली (अ.स.) का शासनकाल, इस्लाम के आरंभ में इस्लामी समुदाय पर मुसलमानों के चौथे ख़लीफ़ा के रूप में इमाम अली (अ.स.) के पाँच वर्षीय शासनकाल को दर्शाता है। यह शासनकाल वर्ष 35 हिजरी में शुरू हुआ और वर्ष 40 हिजरी में समाप्त हुआ। इस काल को इस्लामी शासन और न्याय एवं धार्मिक सिद्धांतों पर आधारित शासन का सबसे महत्वपूर्ण काल माना जाता है।
शिया दृष्टिकोण से, 35 हिजरी में इमाम अली (अ.स.) का सत्ता में आना ग़दीर ख़ुम में जनता के बीच हुए समझौते का विलम्बित रूप से पूरा होना था, जिसमें पैग़म्बर (स) ने अली (अ.स.) को अपना उत्तराधिकारी और इस्लामी उम्मत का इमाम घोषित किया था। अली बिन अबी तालिब का शासन तीसरे ख़लीफा के शासन और उस्मान की हत्या से असंतुष्टि और बहुसंख्यक मुसलमानों के आग्रह के बाद स्थापित हुआ था।
ऐतिहासिक रिपोर्टों के अनुसार, इमाम अली ने समाज की स्थितियों को बहुत भ्रष्ट देखा और इसी कारण शुरू में खिलाफ़त को स्वीकार करने से इनकार कर दिया; क्योंकि पिछले तीन ख़लीफाओं के काल में गहरे सामाजिक विभाजन उभर आए थे, और इस्लामी सरकार में पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) के दुश्मनों के उदय के साथ, पैग़म्बर की परंपराएँ (सुन्नतें) बदल दी गई थीं और एक नई अज्ञानता (जाहिलियत) का जन्म हो चुका था।
इतिहासकारों के अनुसार, उभरते भ्रष्टाचार के साथ इमाम अली के संघर्ष ने उनकी खिलाफ़त की समस्याओं की नींव रखी। सबसे बढ़कर, उन्होंने न्याय के कार्यान्वयन, पैग़म्बर (स) के चरित्र को पुनर्जीवित करने, समाज से भ्रष्टाचार को खत्म करने और सभी मुसलमानों के बीच समानता स्थापित करने पर ज़ोर दिया। इसके परिणामस्वरूप उन्हें तीन बड़े गृहयुद्धों, अर्थात् जमल, सिफ़्फ़ीन और नहरवान, का सामना करना पड़ा, जिन्होंने सरकार के समय और ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा ले लिया।
इमाम अली (अ) की सरकार चार साल और नौ महीने बाद उनकी शहादत के साथ समाप्त हो गई। शोधकर्ताओं का कहना है कि हालाँकि वह अपनी सभी योजनाओं को पूरी तरह से लागू करने में असमर्थ रहे, फिर भी एक योग्यता-आधारित और न्यायपूर्ण सरकार की स्थापना करके, उन्होंने नस्लीय और आर्थिक भेदभाव को रोका और अपने बाद की इस्लामी सरकारों के लिए एक मानक सरकार छोड़ी।
इस्लामी और शिया विचारधारा में इमाम अली के शासन की स्थिति
इमाम अली (अ.स.) का शासन वर्ष 35 हिजरी में तीसरे ख़लीफा, उस्मान बिन अफ्फ़ान की हत्या के बाद शुरू हुआ।[१] लेबनानी इतिहासकार हसन ज़ैन के अनुसार, अपने शासन के दौरान, इमाम अली आने वाली पीढ़ियों के लिए इस्लामी सरकार के मूल्यों, सिद्धांतों और नियमों की एक सही तस्वीर छोड़ने में सक्षम रहे।[२]
इस्लामी इतिहास के क्षेत्र के एक ईरानी शोधकर्ता रसूल जाफ़रियान ने लिखा है कि पिछले तीन ख़लीफाओं के विपरीत, अली (अ.स.) ने एक विशुद्ध इस्लामी सरकार की स्थापना की जो इस्लामी सिद्धांतों से ज़रा भी विचलित नहीं हुई और पूरी तरह से इस्लामी सिद्धांतों पर आधारित थी।[३] उनके अनुसार, उस समय के समाज की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, अपने शासन के दौरान, इमाम अली (अ.स.) ने न्याय को लागू करने, ईश्वर के दूत के चरित्र को पुनर्जीवित करने, समाज के भ्रष्टाचार को सुधारने और अरबों और ग़ैर-अरबों के बीच समानता स्थापित करने पर सबसे अधिक ज़ोर दिया।[४] बेशक, इमाम अली अपनी सुधार योजनाओं को पूरी तरह से लागू नहीं कर पाए;[५] हालाँकि, लेखक और नहज अल-बलाग़ा के शोधकर्ता मुस्तफा दिलशाद तेहरानी के अनुसार, इमाम ने बहुत सी सफलताएँ हासिल कीं, जिससे उनके बाद आने वाले शासकों के लिए शासन का एक मानक स्थापित हुआ।[६] इस्लामी गणतंत्र ईरान के दूसरे नेता सय्यद अली ख़ामेनेई भी इमाम अली की सरकार को सभी युगों के लिए शासन का एक आदर्श मॉडल मानते हैं।[७]
नहज अल-बलाग़ा के सुन्नी टीकाकारों में से एक, इब्ने अबी अल-हदीद का मानना है कि नीतियों की शुद्धता और शासन के मामले में इमाम अली की तुलना किसी भी शासक से नहीं की जा सकती।[८] उनके अनुसार, कुछ सुन्नी धर्मशास्त्रियों ने उन कठिन परिस्थितियों में इमाम अली की नीतियों और उनके निष्पक्ष शासन को एक चमत्कार के समान माना है।[९] इमाम अली की शहादत के साथ, वह काल समाप्त हो गया जिसे सुन्नी सही मार्गदर्शित ख़िलाफ़त के रूप में जानते हैं; एक ऐसा युग जिसे सुन्नी राजनीतिक विचार में आदर्श माना जाता है, और उसके बाद, नवाचार (बिदअतें) सामने आने शुरु हो गये।[१०]
गठन
उस्मान की हत्या के बाद, मदीना के लोग (अंसार और मुहाजेरीन) अली के पास दौड़े और उनसे वफ़ादारी की शपथ ली और उन्हें खिलाफ़त के लिये चुना।[११] मिस्र के एक सुन्नी लेखक ताहा हुसैन के अनुसार, लोग ख़िलाफ़त के मामले पर आश्चर्यचकित थे; क्योंकि कूफ़ा के लोग ज़ुबैर की ख़िलाफ़त का पालन करना चाहते थे, बसरा के लोग तल्हा की ख़िलाफ़त का पालन करना चाहते थे, और मिस्र के लोग अली (अ.स.) की ख़िलाफ़त चाहते थे, लेकिन तीनों ही ख़िलाफ़त स्वीकार करने से इनकार कर रहे था।[१२] हालाँकि उस्मान की ख़िलाफ़त को उनके विरोधियों ने उखाड़ फेंका था, फिर भी विरोधी ख़िलाफ़त के सिद्धांत पर अड़े रहे और जानते थे कि नए ख़लीफ़ा की ख़िलाफ़त केवल मदीना के लोगों की स्वीकृति से ही वैध होगी।[१३] इसी कारण, वे पैग़म्बर के साथियों के पास इकट्ठा हुए और ख़िलाफ़त के लिए किसी को चुनने पर ज़ोर दिया, और उन्होंने इस कार्य के लिए अली को चुना।[१४] और उस्मान के विरोधी केवल वफ़ादारी की प्रक्रिया पर नज़र रख रहे थे।[१५] ट्यूनीशिया के एक इतिहासकार हिशाम जुऐत भी इमाम अली के ख़लीफ़ा बनने को अंसार और मुहाजेरीन की पसंद का नतीजा मानते हैं, उस्मान के विरोधियों की पसंद का नतीजा नही मानते।[१६]
ऐतिहासिक रिपोर्टों के अनुसार, लोगों ने 18 ज़िल हिज्जा 35 हिजरी (18 ज़िल हिज्जा[१७] (या 19 ज़िल हिज्जा[१८] या 23 ज़िल हिज्जा[१९] के दिन) के बाद इमाम अली के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा की। शिया दृष्टिकोण में, 35 हिजरी में इमाम अली (अ) का शासन निष्ठा की प्रतिज्ञा की एक विलम्बित पूर्ति थी जिसके अनुसार पैग़म्बर (स) ने अली बिन अबी तालिब को कई अवसरों खासकर ग़दीर की घटना में अपने उत्तराधिकारी और इस्लामी राष्ट्र के नेतृत्व के रूप में चुना था।[२०] इमाम के प्रति लोगों की निष्ठा की प्रतिज्ञा में, मुहाजेरीन और अंसार के अलावा, इराक़ और मिस्र के लोग भी मौजूद थे; इस कारण से, इमाम के चुनाव की लोकप्रियता का पहलू बढ़ गया।[२१] 10 वीं शताब्दी के सुन्नी इतिहासकार दियारबकरी के अनुसार, बद्र की लड़ाई में मौजूद सभी प्रतिभागी जो उस समय तक जीवित थे, ने अली के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा की।[२२] जाफ़र सुब्हानी के अनुसार, इस्लामी ख़िलाफ़त के इतिहास में, अली (अ.स.) जितना लगभग सर्वसम्मत बहुमत से ख़िलाफ़त के लिए कोई ख़लीफ़ा नहीं चुना गया।[२३]
- यह भी देखें: ख़िलाफ़त का हड़पना
पृष्ठभूमि
नहज अल-बलाग़ा के एक शोधकर्ता दिलशाद तेहरानी का मानना है कि इमाम अली के ख़लीफ़ा बनने से पहले, इस्लाम की आड़ में एक नये अज्ञान (नई जाहेलियत) उभार हुआ, जिसके कारण सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवर्तन हो गये।[२४] उमर बिन-ख़त्ताब के ख़िलाफ़त के दौरान, एक वर्ग व्यवस्था का गठन हुआ और सामाजिक न्याय की उपेक्षा की गई;[२५] क्योंकि दूसरे ख़लीफ़ा ने इस्लामी पृष्ठभूमि और कुछ क़बीलों को विशेष विशेषाधिकार दिए थे।[२६] उन्होंने ग़ैर-कुरैश की तुलना में क़ुरैश को, अंसार की तुलना में मुहाजिर को और ग़ैर-अरब की तुलना में अरबों को प्राथमिकता दी।[२७] इस्लामी इतिहास के एक लेबनानी प्रोफेसर इब्राहिम बैज़ून के अनुसार, उमर बिन ख़त्ताब के शासनकाल के दौरान इस्लामी राज्य अपनी शक्ति के चरम पर पहुँच गया था; लेकिन उस्मान के उदय के साथ, शासन का मार्ग खिलाफ़त से राजतंत्र में बदल गया।[२८]
उस्मान बिन अफ्फ़ान के शासनकाल के दौरान, अमीर और ग़रीब के बीच की खाई असहनीय हो गई, और ग़नीमत का माल, ज़िजया और कर केवल कुछ ही व्यक्तियों के लिए उपलब्ध थे।[२९] इस्लामी विजय के बाद, बहुत सी संपत्ति मुसलमानों के हाथों में आ गई; और, समाज में उत्पन्न हुए भेदभाव के कारण, धनी लोगों का एक वर्ग उभरा, जिन्होंने धर्म को अपनी भलाई के साधन के रूप में इस्तेमाल किया।[३०] मिस्र के लेखक मामून ग़रीब के अनुसार, विभिन्न कारकों के कारण, उस्मान के कार्यों और प्रदर्शन से असंतोष समय के साथ विकसित हुआ और एक ऐसे बिंदु पर पहुँच गया जहाँ इसे रोकने की कोई शक्ति नहीं थी।[३१] बनी उमय्या को सत्ता के पदों पर बिठाते हुए, उस्मान ने इस तरह से काम किया कि कुछ लोग उस समय को "राज्य का उमय्यदीकरण के तौर पर याद करते हैं।"[३२] इसी काल में सिरिया में एक क़बीलाई सरकार का उदय हुआ जिसने धर्म को इस प्रकार परिवर्तन कर दिया कि क़बीले अपने इस्लाम-पूर्व पूर्वाग्रहों की ओर लौट गये।[३३] ये इस्लाम-पूर्व पूर्वाग्रह तब चरम पर पहुँच गए जब इमाम अली ख़लीफ़ा बने।[३४]
उस्मान के शासन से असंतुष्ट होकर, मिस्र, बसरा, कूफ़ा और मदीना के लोगों के एक समूह ने उनके घर को घेर लिया।[३५] उनमें से कुछ ने उस्मान के घर पर हमला किया और उन्हें क़त्ल कर डाला।[३६] उस्मान की हत्या के बाद, लोगों ने ख़िलाफ़त के लिए अली (अ.स.) की ओर रुख़ किया और उनसे शासन स्वीकार करने की माँग की।[३७]
- यह भी देखें: उस्मान की हत्या
सरकार स्वीकार करने से इनकार
"मुझे छोड़ दो और किसी और को ढूंढो; क्योंकि हम ऐसी स्थिति का सामना कर रहे हैं जिसके कई चेहरे और विभिन्न पहलू हैं। दिल इस पर टिके नहीं रह सकते और दिमाग स्थिर नहीं रह सकते। सच्चाई के क्षितिज को भ्रष्टाचार के काले बादलों ने ढक लिया है और सत्य का सीधा रास्ता अज्ञात रह गया है।"
विभिन्न ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार, इमाम अली ने लोगों द्वारा ख़िलाफ़त स्वीकार करने के बार-बार अनुरोध के जवाब में, इसे स्वीकार नहीं किया और उन्हें किसी और की ओर जाने के लिए कहा।[३८] तीसरी और चौथी शताब्दी के इतिहासकार इब्ने आअसम कूफ़ी के अनुसार, उन्होंने लोगों से इस कार्य के लिए तल्हा और ज़ुबैर की ओर जाने के लिए कहा और उन दोनो से सरकार को स्वीकार करने का अनुरोध किया।[३९] जब इमाम अली ने तल्हा और ज़ुबैर को ख़िलाफ़त की पेशकश की, तो उन्होंने इमाम अली को ख़लीफ़ा बनने के ज़्यादा हक़दार माना।[४०] इब्न आसम के अनुसार, जब तल्हा और ज़ुबैर ने अली (अ) को ख़िलाफ़त की पेशकश की, तो इमाम अली ने संभावना व्यक्त कि वे दोनो भविष्य में उनकी सरकार के लिए समस्याएँ पैदा कर सकते हैं; लेकिन उन्होंने अली के शासन के विरुद्ध कोई कार्रवाई न करने का वादा किया।[४१]
बामदाद-इस्लाम पुस्तक के लेखक अब्दुल-हुसैन ज़र्रीनकूब का मानना है कि अली (अ) ने ख़िलाफ़त को गंभीरता से स्वीकार नहीं किया और उनका इरादा इन शब्दों के ज़रिए अपनी ओर ध्यान आकर्षित करना नहीं था।[४२] जाफ़ेरियान का मानना है कि इमाम अली (अ.स.) द्वारा ख़िलाफ़त स्वीकार करने से इनकार करने का कारण यह था कि वे मौजूदा समाज को इतना भ्रष्ट मानते थे कि वे उसमें अपने मानकों और कार्यक्रमों का नेतृत्व और क्रियान्वयन नहीं कर सकते थे।[४३]
सरकार स्वीकार करने की शर्तें
जब लोगों ने अली (अ.स.) के प्रति निष्ठा की शपथ लेने पर ज़ोर दिया,[४४] तो उन्होंने इस शर्त पर सरकार स्वीकार कर ली कि उनकी सरकार ईश्वर की पुस्तक और पैग़म्बर (स) की सुन्नत पर आधारित होगी, और लोगों ने भी इसी आधार पर उनके प्रति निष्ठा की शपथ ली।[४५] अली (अ.स.) ने शर्त रखी कि उनके प्रति निष्ठा की शपथ गुप्त रूप से नहीं ली जायेगी, बल्कि सार्वजनिक रूप से और मस्जिद में ली जायेगी, और यह शपथ लेने वालों की सहमति से ली जायेगी।[४६] चंद्र कैलेंडर की चौथी शताब्दी के एक शिया न्यायविद और धर्मशास्त्री इस्काफ़ी ने लिखा कि सरकार के लिए लोगों का पूर्ण समर्थन इमाम अली (अ.स.) के लिए ख़िलाफ़त स्वीकार करने की एक और शर्त थी।[४७] इसके अलावा, तबरी के अनुसार, इमाम अली की सरकार की स्थापना के बाद, एक व्यक्ति इमाम अली (अ.स.) के पास बैअत करने गया और उनसे अपनी सरकार को शेख़ैन की सुन्नत पर आधारित करने का अनुरोध किया, लेकिन उन्होंने बैअत के लिए ऐसी शर्त स्वीकार नहीं की। इस शर्त को न मानने का उनका कारण यह था कि अबू बक्र और उमर की सुन्नत का कोई मूल्य नहीं था यदि वह ईश्वर की पुस्तक और पैग़़म्बर (स) की सुन्नत के विपरीत हो।[४८]
बैअत की ज़बरदस्ती नहीं
इमाम अली के शासन में लोगों की भागीदारी और उनके प्रति उनकी वफ़ादारी (बैअत) बिना किसी अनिवार्यता के थी।[४९] मिस्र के एक लेखक और बुद्धिजीवी ताहा हुसैन के अनुसार, अली (अ) ने किसी को भी वफ़ादारी की शपथ लेने के लिए मजबूर नही किया या किसी पर दबाव नहीं डाला।[५०] जब कुछ लोगों ने वफ़ादारी की शपथ लेने से इनकार कर दिया, तो इमाम अली ने उन्हें आज़ाद छोड़ दिया और उनकी सुरक्षा की गारंटी दी।[५१] मालिके अश्तर चाहते थे कि सभी लोग वफ़ादारी की शपथ लें ताकि भविष्य में सरकार के विरुद्ध कोई कार्रवाई न कर सके; लेकिन अली (अ.स.) ने उनका विरोध किया।[५२] हालाँकि, [[शिया] धर्म पर शोध करने वाले जर्मन विद्वान विल्फ्रेड मैडलोंग के अनुसार, जिन लोगों ने उस्मान के विरुद्ध विद्रोह किया था, वे इमाम अली की इच्छा के विरुद्ध लोगों को वफ़ादारी की शपथ लेने के लिए मजबूर कर रहे थे।[५३] जाफ़र सुब्हानी ने इस दृष्टिकोण को खारिज कर दिया, यह मानते हुए कि यह विश्वास उन लोगों के शब्दों से उत्पन्न हुआ है जिन्होंने इतिहास गढ़ा है।[५४]
जिन लोगों ने वफ़ादारी की शपथ नहीं ली
तीसरी और चौथी शताब्दी के सुन्नी इतिहासकार इब्ने जरीर तबरी के अनुसार, कुछ अंसार को छोड़कर सभी ने अली (अ.स.) के प्रति वफ़ादारी की शपथ ली थी।[५५] मोरक्को के इतिहासकार इब्राहिम हरकात का कहना है कि जिन लोगों ने अली के प्रति वफ़ादारी की शपथ लेने से इनकार कर दिया, वे वही लोग थे जिन्हें उस्मान के शासनकाल के दौरान ज़िम्मेदारियाँ या विशेषाधिकार प्राप्त हुए थे।[५६] इन लोगों में यह शामिल थे: हस्सान इब्न साबित, कअब इब्ने मालिक, मसलमा इब्न मुख़ल्लद, मुहम्मद इब्न मसलमा, और कई अन्य जिन्हें उस्मानिया समुदाय से माना जाता था।[५७] अब्दुल्लाह इब्न उमर, ज़ैद इब्न साबित और ओसामा इब्न ज़ैद गैर-अंसार विरोधियों में से थे, और ये सभी उस्मान के क़रीबी माने जाते थे।[५८]
हुकूमत का क्षेत्रफल

इमाम अली को ख़िलाफ़त मिलने के साथ, सीरिया को छोड़कर, उस्मान सरकार का पूरा क्षेत्र उनके शासन के अधीन आ गया।[६०] उस समय इस्लाम का भौगोलिक क्षेत्र उत्तर से कॉन्स्टेंटिनोपल और कैस्पियन सागर तक, उत्तर-पश्चिम से रोम तक, उत्तर-पूर्व से नैशापुर और मर्व तक, दक्षिण से यमन तक, पश्चिम से मिस्र तक, पूर्व से सिजिस्तान तक और दक्षिण-पूर्व में ओमान तक फैला हुआ था, और इसमें हिजाज़, इराक़, ईरान, सीरिया, मिस्र, यमन, ओमान और द्वीप (दजला व फ़ुरात के बीच के इलाक़े) शामिल थे।[६१] हालाँकि सीरिया का क्षेत्र इस्लामी सरकार का हिस्सा था, इमाम अली (अ) ने उस पर प्रभुत्व नहीं जमाया और यह मुआविया बिन अबू सुफ़ियान के हाथों में रहा।[६२]
ईरान के बहुत से क्षेत्र सरकार के केंद्र से दूर होने के कारण ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं थे।[६३] हालाँकि, बसरा काफ़ी महत्वपूर्ण था। इसके नियंत्रण में अहवाज़, फ़ार्स, किरमान, सीस्तान, बहरैन और ओमान सहित कई केंद्र और शहर थे, और इन क्षेत्रों से मिलने वाला कर बसरा को हस्तांतरित किया जाता था।[६४] मिस्र की भूमि, अपनी नील नदी, समृद्धि, विशाल जनसंख्या, सभ्यता, विज्ञान और संस्कृति के कारण, न केवल इस्लामी दुनिया के लिए, बल्कि सभी सरकारों के लिए भी महत्वपूर्ण थी, और इमाम अली ने इसे व्यवस्थित करने के लिए तत्काल कार्रवाई की।[६५] सरकार के नियंत्रण वाले क्षेत्र न केवल भूगोल की दृष्टि से, बल्कि बनावट, जनसंख्या संरचना और आदतों की दृष्टि से भी भिन्न थे; इस कारण से, गवर्नरशिप के लिए अनुभवी, चतुर और परिचित व्यक्तियों का चयन करना आवश्यक था।[६६]
राजधानी
- यह भी देखें: कूफ़ा

जमल के अनुयायियों को हराने के बाद, इमाम अली (अ.स.) कूफ़ा गए और उसे इस्लामी राज्य का केंद्र बनाया।[६७] उनका मानना था कि जमल की लड़ाई मुआविया की एक साज़िश थी; इसी कारण, उन्होंने अपने राज्य की राजधानी को सीरिया के पास स्थानांतरित कर दिया ताकि विद्रोह के मुख्य स्रोत, मुआविया को समाप्त किया जा सके।[६८] दूसरी ओर, हिजाज़ के लोग भी इमाम अली की ख़िलाफ़त को स्वीकार नहीं कर सकते थे; क्योंकि इमाम अली पैग़म्बर (स.) के काल के युद्धों में सक्रिय रूप से शामिल थे और हिजाज़ के बुज़ुर्गों को उन्होंने मार डाला था।[६९] इसी कारण, हिजाज़ के कुछ लोगों ने अली (अ.स.) के प्रति वफ़ादारी करने से इनकार कर दिया और कुछ ने अनिच्छा से ऐसा किया।[७०]
इस्लाम और शिया धर्म के इतिहास के विशेषज्ञ, सय्यद जाफ़र मुर्तज़ा आमेली का मानना है कि राजधानी के परिवर्तन के रणनीतिक कारण थे। उन्होंने कूफ़ा के कुछ फ़ायदे इस प्रकार बताए: इराक़ की समृद्ध अर्थव्यवस्था और मदीना व हिजाज़ पर उसकी आर्थिक श्रेष्ठता, इमाम अली के प्रति कूफ़ा के लोगों का आज्ञाकारिता और प्रेम, जनशक्ति और सैन्य आपूर्ति की आसान व्यवस्था, और अन्य क्षेत्रों के साथ आसान संचार।[७१] जब इमाम अली ख़लीफ़ा बने, कूफ़ा इस्लामी दुनिया के केंद्र में स्थित था और ईरान, हिजाज़, शामात और मिस्र के केंद्र से इसकी दूरी लगभग समान थी;[७२] इसी कारण से, अली (अ.स.) ने इसे क़ुब्बतुल इस्लाम (इस्लाम का गुंबद और केंद्र) कहा।[७३] कूफ़ा को इस्लामी राज्य की राजधानी चुने जाने के बाद, मदीना को उसकी राजनीतिक स्थिति से हटा दिया गया, वह ख़िलाफ़त का केंद्र न रहकर क़ुरआन और सुन्नत की शिक्षा का केंद्र रह गया और फिर ख़िलाफ़त का केन्द्र नही बन सका।[७४]
मुस्लिम विजयों का विराम
- मुख्य लेख: मुस्लिम विजय
14वीं शताब्दी के शिया विद्वान मुर्तज़ा मुतह्हरी के अनुसार, इमाम अली (अ) ने मुस्लिम विजयों और इस्लाम के भौगोलिक विस्तार पर ध्यान नहीं दिया और अपना सारा प्रयास इस्लामी समाज के सुधार में लगा दिया।[७५] उनके अनुसार, अली (अ.स.) का मानना था कि इस्लाम बाहरी तौर पर तो फैल गया था, लेकिन भीतर से भ्रष्ट हो गया था।[७६] दूसरी ओर, कुछ लेखकों का मानना है कि इमाम अली अपने शासनकाल के दौरान संधि-भंग करने वालों के खिलाफ़ आंतरिक संघर्ष में लगे हुए थे, यही कारण है कि उस काल में मुस्लिम विजयों का सिलसिला जारी नहीं रह सका।[७७]
सरकार की संरचना
इमाम अली की ख़िलाफ़त के दौरान इस्लामी सरकार राजनीतिक रूप से केंद्रीकृत, और प्रशासनिक रूप से विकेंद्रीकृत और स्वायत्त थी।[७८] इमाम अली की सरकार की संरचना पहले दो ख़लीफ़ाओं के समान मानी जाती है; हालाँकि, उनकी सरकार राजनीति और कार्य के संदर्भ में उनसे मौलिक रूप से भिन्न थी; एक तरह से, अलवी सरकार को शियों और इस्लामी संप्रदायों के कई विचारकों के लिए एक आदर्श मॉडल माना जाता है।[७९] उस्मान काल में, सभी सरकारी अधिकारी बनी उमय्या परिवार से चुने जाते थे, यहाँ तक कि वे जो पैग़म्बर (स) के दुश्मन भी थे, और इसके कारण बनी उमय्या को शक्ति प्राप्त हुई और इमाम अली के शासनकाल में संकटों का निर्माण हुआ।[८०] इसलिए, जब खिलाफ़त इमाम अली के हाथों में आई, तो उन्होंने देश की प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था में सुधार करने का प्रयास किया।[८१] हिशाम जुअैत के अनुसार, अली (अ.स.) ने खिलाफ़त में सुधार करने और इस्लामी राष्ट्र में एकता बहाल करने का प्रयास किया। इसी कारण, उन्होंने अपनी सरकार के लिए मालिके-अश्तर जैसे लोगों का चुनाव किया, जिनकी उस्मान की हत्या में कोई भी भूमिका थी, और इस दृष्टिकोण को मदीना के लोगों ने भी स्वीकार किया।[८२]
गवर्नर
- मुख्य लेख: इमाम अली के गवर्नरों की सूची
अली इब्न अबी तालिब ने अपने कुछ गवर्नरों को उनकी कार्यकुशलता और त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए पूर्ण अधिकार दिए हुए थे।[८३] अली के गवर्नर दो प्रकार के थे: कुछ को संवेदनशील और बड़े क्षेत्रों में नियुक्त किया गया था, और कुछ को छोटे क्षेत्रों में। महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए चुने गए लोगों को सरकार पर पूर्ण अधिकार प्राप्त था; इन गवर्नरों में उस्मान इब्ने हुनैफ़, मालिक अश्तर, मुहम्मद इब्ने अबी बक्र और क़ुसम इब्ने अब्बास शामिल थे।[८४] उनके पूर्ण अधिकार में सैन्य मामले, न्यायाधीशों की नियुक्ति, हुदूद लागू करना, तीर्थयात्रियों की निगरानी, दुश्मन से लड़ना और कर (ख़ेराज) और ग़नीमत में मिलने वाला माल इकट्ठा करना शामिल था।[८५] अली इब्न अबी तालिब भ्रष्टाचार को रोकने के लिए अपने राज्यपालों के शासन का लगातार निरीक्षण करते थे।[८६] गवर्नरों को उनके प्रदर्शन के आधार पर प्रोत्साहित या दंडित किया जाता था, और अली (अ.स.) उनकी समस्याओं को कम करने के लिए उन्हें जीविका प्रदान करते थे।[८७] अब्दुल-हुसैन ज़रिंकूब के अनुसार, नए शासकों को न ही कूफ़ा में और न ही सीरिया में स्वीकार नही किया गया।[८८]
योग्यता-आधारित पद च्यन
इमाम अली के राजनीतिक जीवन में योग्यता-तंत्र को एक महत्वपूर्ण धुरी माना गया है।[८९] उन्होंने सरकारी अधिकारियों का चयन केवल योग्यता, क्षमता और ईमानदारी के आधार पर किया, न कि जातीय या जनजातीय संबद्धता के आधार पर।[९०] मुग़ीरा बिन शोअबा ने इमाम अली (अ.स.) को सुझाव दिया कि मुआविया और उस्मान के सभी अधिकारी कुछ समय के लिए अपने पदों पर बने रहें[९१] ताकि अली का शासन सुदृढ़ हो सके।[९२] इब्ने अब्बास ने भी मुग़ीरा के प्रस्ताव को परोपकारी माना।[९३] लेकिन, अली इब्न अबी तालिब ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।[९४] इस कार्रवाई का कारण इमाम की न्याय और योग्यता-तंत्र की इच्छा माना गया है।[९५] इमाम अली के शासन की स्थापना के साथ, उस्मान के सभी अधिकारी जिन्होंने रिश्तेदारी के कारण सरकारी पद प्राप्त किए थे, उन्हें बर्खास्त कर दिया गया।[९६] अली ने तल्हा और ज़ुबैर के प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर दिया, जो बसरा और कूफ़ा पर शासन करना चाहते थे।[९७] और वे दोनों, अपनी नाराज़गी के कारण, मक्का चले गए और आयशा के साथ मिल गए, जिससे जमल की लड़ाई का मार्ग प्रशस्त हुआ।[९८]
शुरता अल-ख़मीस
- मुख्य लेख: शुरता अल-ख़मीस
अली इब्न अबी तालिब ने समुदाय की सुरक्षा सुनिश्चित करने और घटनाओं पर नज़र रखने के लिए शूरता अल-ख़मीस नामक एक सशस्त्र समूह बनाया था।[९९] इस्लामी राज्य में, शुरता का बहुत महत्व था और शुरता के प्रमुख का पद सबसे महत्वपूर्ण पदों में से एक माना जाता था और शहर के गवर्नर के बाद इसकी निगरानी के लिए ज़िम्मेदार होता था।[१००] अपराधियों को गिरफ्तार करना, अपराध रोकने के लिए आवश्यक उपाय करना, समुदाय में सार्वजनिक व्यवस्था और सुरक्षा बनाए रखना, और लोगों की संपत्ति और उनके अधिकारों की रक्षा करना शुरता अल-ख़मीस के कर्तव्यों में से थे।[१०१]
न्यायिक संरचना
ख़िलाफ़त के क्षेत्रों की विशालता को देखते हुए, अली (अ.स.) ने कुछ व्यक्तियों को न्याय करने का पद सौंपा था। इन व्यक्तियों में बसरा में अबुल असवद दोएली, कूफ़ा में शुरैह बिन अल-हारिस-किंदी और अहवाज़ में रिफ़ाआ बिन शद्दाद शामिल थे।[१०२] इराक़ी इतिहासकार बाक़िर शरीफ़ क़रशी के अनुसार, जब इमाम अली (अ.स.) सत्ता में आए, हालाँकि आप कभी-कभी स्वयं न्याय करते थे, उन्होंने कूफ़ा में न्यायाधीश का पद शुरैह-क़ाज़ी को सौंप दिया और उन्हें दिए गए फ़ैसलों को उनके सामने प्रस्तुत करने का आदेश दिया ताकि वे दिए गए फ़ैसलों की सत्यता की निगरानी कर सकें।[१०३] इमाम अली के शासन के दौरान, न्यायपालिका स्वतंत्र थी और समाज के सभी सदस्यों के साथ समान व्यवहार करती थी।[१०४] न्यायाधीश मुस्लिम ख़लीफा को अदालत में बुलाकर न्यायिक व्यवस्था के नियमों के अनुसार उसके विरुद्ध फैसला भी सुना सकता था;[१०५] उदाहरण के लिए, जब हज़रत अली (अ.स.) ने अपनी संपत्ति एक ईसाई व्यक्ति के हाथों में देखी, तो चूँकि उनके पास संपत्ति का कोई गवाह नहीं था, इसलिए न्यायाधीश ने ईसाई व्यक्ति के पक्ष में फैसला सुनाया।[१०६]
क़रशी के अनुसार, इमाम अली जेल बनवाने वाले पहले ख़लीफा थे।[१०७] हालाँकि इस्लाम से पहले भी जेलें मौजूद थीं,[१०८] लेकिन पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) और शैख़ैन के समय में कोई जेल नहीं थी। मदीना में, पैग़म्बर की मस्जिद के बगल वाले घर में लोगों को क़ैद किया जाता था, और मक्का में, सफ़वान बिन उमय्या के घर को जेल के तौर पर प्रयोग किया जाता था।[१०९] हज़रत अली के शासन काल में, कैदियों के लिए एक विशेष कार्यक्रम था: उनके लिये क़ुरआन की शिक्षा और पढ़ना-लिखना सिखाना अनिवार्य था।[११०] क़ैदियों को जुमे की नमाज़ में शामिल होने की इजाज़त थी और नमाज़ के बाद उन्हें जेल वापस भेज दिया जाता था।[१११] हनफ़ी विधिवेत्ता, क़ाज़ी अबू यूसुफ़ के अनुसार, इमाम अली कैदियों के लिए भोजन और वस्त्र उपलब्ध कराने वाले पहले व्यक्ति थे, और उनके बाद आने वाले ख़लीफ़ाओं ने भी यही प्रथा अपनाई। अगर कैदी के पास पैसा होता, तो अली (अ.स.) उसके ख़र्चों से उसका भुगतान करते, और अगर उनके पास कुछ नहीं होता, तो ख़ज़ाने से उनका भुगतान किया जाता था।[११२]
शासन की शैली
"अली बिन अबी तालिब अपने गुलाम के साथ मेरे पास आए और दो सूती कमीज़ें खरीदीं। फिर उन्होंने अपने गुलाम से कहा: 'जो भी तुम चाहो, उठा लो।' गुलाम ने एक उठा ली। फिर अली ने दूसरी कमीज़ उठाई और पहन ली।"
न्याय
न्याय की स्थापना को इमाम अली के शासन का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य माना गया है।[११३] इराक़ी लेखक अज़ीज़ सय्यद जासिम के अनुसार, सरकार में इमाम अली का पहला व्यावहारिक कार्य आर्थिक समानता स्थापित करना था।[११४] पूर्ववर्ती ख़लीफ़ा प्रारंभिक इस्लामी युद्धों में व्यक्तियों के रिकॉर्ड या पहले ईमान लाने वाले और इसी तरह के मामलों में बेहतर रिकॉर्ड के आधार पर ख़ज़ाने का बंटवारा किया करते था; लेकिन अली (अ.स.) ने इस परंपरा को क़ुरआन के आदेश के विरुद्ध माना और इसके ख़िलाफ़ खड़े हुए।[११५] इसके अलावा, जब अली बिन अबी तालिब ने ख़िलाफ़त संभाली, तो उन्होंने उस्मान द्वारा विभिन्न व्यक्तियों को दी गई सभी ज़मीनों को ईश्वर की संपत्ति घोषित कर दिया और आदेश दिया कि वे संपत्तियाँ ख़ज़ाने में वापस कर दी जाएँ।[११६]
अली (अ.स.) ने न्याय प्रशासन में अपने कार्यों और वर्षों से विकसित हुए भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए खुद के खिलाफ़ दुश्मनिया अर्जित कर लीं।[११७] उनके इस कार्य ने केवल तल्हा और ज़ुबैर को ही नाराज़ नही किया, बल्कि उनके भाई अक़ील और उनके चचेरे भाई अब्दुल्लाह बिन अब्बास को भी नाराज़ कर दिया।[११८] ख़जाने को वितरित करने में, उन्होंने धनी क़ुरैश और ग़ैर-अरब दासों के बीच कोई अंतर नहीं किया, और इस न्याय ने अरब रईसों को नाराज़ कर दिया।[११९]
ख़ज़ाने का बँटवारा
ख़ज़ाने के संग्रह और रखरखाव में इमाम अली के नियमों का बहुत ही सावधानीपूर्वक मूल्यांकन किया गया है।[१२०] अली (अ.स.) ख़ज़ाने के मामले में सख़्त थे; यहाँ तक कि जब उनकी बेटी ने ख़ज़ाने के प्रमुख धारक अली बिन अबी राफ़ेअ से मोतियों का हार उधार लिया, तो उन्होंने अपनी बेटी और अली बिन अबी राफ़ेअ दोनों से पूछताछ की।[१२१] इमाम अली ने ख़ज़ाने के बँटवारे में इस्लामी पृष्ठभूमि का हस्तक्षेप नहीं किया, और ईमान की पृष्ठभूमि को केवल एक आध्यात्मिक मामला माना, और सभी मुस्लिम अधिकार प्राप्त करने में मुसलमानों को समान अधिकार प्राप्त माना।[१२२] जब कुछ धनी लोगों ने यह आपत्ति जताई कि वह उमर बिन ख़त्ताब की परंपरा के अनुसार, राजकोष के वितरण में आस्था और रिश्तेदारी की पृष्ठभूमि को ध्यान में नहीं रखते, तो उन्होंने पैग़म्बर (स) की सुन्नत को उमर की सुन्नत से श्रेष्ठ माना और उनकी अत्यधिक मांगों का नकारात्मक जवाब दिया।[१२३]
लोगों के साथ संबंध
लेबनानी इतिहासकार हसन ज़ैन के अनुसार, इमाम अली के शासनकाल में, लोग आसानी से और शीघ्रता से सरकार के उच्च स्तरों के साथ संवाद कर सकते थे और सरकारी मामलों में सक्रिय रूप से भाग ले सकते थे।[१२४] अली (अ) के शासनकाल में, आलोचना करने और जनता को विरोध दर्ज करने के लिए पर्याप्त वातावरण था।[१२५] कुछ विद्वानों के अनुसार, उस समय, प्रत्येक शहर के लोग अपने शासकों पर नज़र रखते थे और अपनी शिकायतें अली (अ.स.) के पास ले जा सकते थे।[१२६]नहजुल बलाग़ा के उपदेश 216 के अनुसार, इमाम अली (अ.स.) ने लोगों से कहा कि वे उनसे खुलकर बात करें और शासक के साथ बात करने में रूढ़िवादी होने से बचें।[१२७]
नहजुल बलाग़ा के पत्र 51 के अनुसार, अली (अ) ने कर वसूलने वालों को लोगों के साथ न्यायपूर्ण, निष्पक्ष और धैर्यपूर्वक व्यवहार करने की सलाह दी।[१२८] इसके अलावा, जब इमाम अली (अ) ने मालिक अश्तर को मिस्र का गवर्नर नियुक्त किया, तो उन्होंने उनसे सभी लोगों (मुसलमानों और गैर-मुसलमानों दोनों) के प्रति दयालु और नेकदिल रहने और उनके साथ मानवीय व्यवहार करने का आह्वान किया।[१२९]
विरोधियों की स्वतंत्रता
मुस्तफ़ा दिलशाद तेहरानी के अनुसार, इमाम अली के शासन में स्वतंत्रता स्पष्ट रूप से विद्यमान थी; क्योंकि उनके शासन के आरंभ से ही, लोगों की अली (अ.स.) के प्रति निष्ठा स्वतंत्र थी, और उन्होंने अपने विरोधियों की स्वतंत्रता की गारंटी दी और किसी को भी उनके साथ ग़लत व्यवहार करने की अनुमति नहीं दी।[१३०] अली (अ.स.) मुसलमानों और ग़ैर-मुसलमानों को सरकार के संरक्षण में मानते थे, और उनकी सरकार में, किसी को भी उनके विश्वासों के कारण मानवीय और सामाजिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जाता था।[१३१] चौदहवीं शताब्दी में शिया इतिहासकार सय्यद जाफर शहीदी के अनुसार, अली बिन अबी तालिब ख़वारिज जैसे लोगों के प्रति भी सहिष्णु थे और उन्हें आज़ादी के साथ रहने देते थे, और उन्होने केवल तभी उनका सामना किया जब उन्होंने लोगों के साथ ज़ियादती की।[१३२]
| वर्ष 35 हिजरी | |
|---|---|
| 18, 19 या 23 ज़िल हिज्जा | ख़िलाफ़त के लिए इमाम अली (अ) के प्रति लोगों की वफ़ादारी की शपथ[१३३] |
| वर्ष 36 हिजरी | |
| 10 जमादी अल अव्वल या 10 जमादी अल सानी | जमल की लड़ाई के लिए इमाम अली (अ) का मदीना से प्रस्थान[१३४] |
| 15 जमादी अल सानी | जमल की लड़ाई[१३५] |
| 12 रजब | कूफ़ा में प्रवेश और कूफ़ा को ख़िलाफ़त की राजधानी चुनना[१३६] |
| 5 शव्वाल | सिफ़्फ़ीन की लड़ाई के लिए इमाम अली (अ) की सेना का सीरीया की ओर कूच[१३७] |
| वर्ष 36 हिजरी के अंत में | मुआविया की अग्रिम सेना का इमाम अली (अ) की अग्रिम सेना से सामना और शामी सेना की वापसी[१३८] |
| वर्ष 37 हिजरी | |
| 1 सफ़र | सिफ़्फ़ीन की लड़ाई की औपचारिक शुरुआत[१३९] |
| 17 सफ़र | सिफ़्फ़ीन की लड़ाई का अंत और मध्यस्थता के लिए समय और स्थान का निर्धारण[१४०] |
| रमज़ान | दुमत अल जंदल में मध्यस्थता की घटना का आयोजन और अबू मूसा अशअरी का अम्र बिन आस द्वारा धोखा खाना, इमाम अली द्वारा मध्यस्थता के परिणाम को अस्वीकार करना[१४१] |
| मध्यस्थता की घटना के बाद | मुआविया की सेना द्वारा "ग़ारात" (छापामार हमलों) की शुरुआत[१४२] |
| वर्ष 38 हिजरी | |
| मालिक अश्तर की शहादत[१४३] | |
| सफ़र का महीना | मुहम्मद बिन अबी बक्र की शहादत और अम्र बिन आस का मिस्र पर कब्ज़ा[१४४] |
| 9 सफ़र | नहरवान की लड़ाई और ख़वारिज की हार[१४५] |
| वर्ष 40 हिजरी | |
| 21 रमज़ान | इमाम अली की शहादत[१४६] |
धर्म और क़ानून के क्रियान्वयन में कठोरता
अली बिन अबी तालिब धार्मिक मामलों, क़ानून के सटीक क्रियान्वयन और शासन की सही पद्धति के प्रति बहुत गंभीर और कठोर थे और नर्मी से काम नही लेते थे।[१४७] क़ानून को लागू करने के लिए, उन्होंने न तो रईसों और बुजुर्गों को, न ही अपने रिश्तेदारों और क़रीबी दोस्तों को बख्शा।[१४८] अली (अ.स.) का क़ानून का पालन उनके कुछ रिश्तेदारों के लिए भी असहनीय था।[१४९] इस प्रकार, इमाम (अ.स.) अपने सबसे क़रीबी साथियों के साथ भी सख्त थे; उदाहरण के लिए, जब उनके ग़ुलाम, क़नबर ने सज़ा देते समय ग़लती से तीन अतिरिक्त कोड़े मार दिए, तो अली (अ.स.) ने आदेश दिया कि तीन कोड़ों की सज़ा दी जाए और क़म्बर को तीन कोड़े मारे गए।[१५०] इसके अलावा, बसरा में अपने प्रतिनिधि उस्मान बिन हुनैफ़ को लिखे इमाम अली (अ.स.) के पत्र के अनुसार, इमाम अली (अ.स.) ने उस्मान बिन हुनैफ़ को एक कुलीन पार्टी में शामिल होने के लिए फटकार लगाई, जो ग़रीबों की उपस्थिति के बिना आयोजित की गई थी और उन्हें तप और धर्मपरायणता के मार्ग पर चलने का आह्वान किया।[१५१] दिलशाद तेहरानी के अनुसार, अपने सरकारी प्रतिनिधियों द्वारा क़ानून तोड़ने के प्रति इमाम अली की संवेदनशीलता नहज अल-बलाग़ा के पत्रों में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।[१५२]
ज्ञान और विकास पर ध्यान
इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ) से वर्णित एक हदीस के अनुसार, लोग सूर्योदय के समय इमाम अली के चारों ओर इकट्ठा होते थे और वह उन्हें न्यायशास्त्र और क़ुरआन की शिक्षा देते थे।[१५३] मक्का में अपने गवर्नर क़ुसम बिन अब्बास को लिखे अपने पत्र में, उन्होंने उन्हें अनपढ़ों को शिक्षा देने और विद्वानों के साथ संगति करने की सलाह दी।[१५४] मालिक अल-अश्तर को लिखे अपने पत्र में, उन्होंने उसे अच्छी परंपराओं को तोड़ने से बचने का भी निर्देश दिया।[१५५]
अपने एक गवर्नर को लिखे पत्र में, इमाम अली (अ) ने उसे शहरों के विकास पर ध्यान देने का निर्देश दिया।[१५६] अली (अ.स.) ने भूमि सुधार और विकास, नहरों और नदियों के निर्माण के लिए क़दम उठाए, और अपने अधिकारियों को भूमि और कुओं के विनाश को रोकने का आदेश दिया।[१५७] उनके आदेश के अनुसार, अधिक उत्पादन को प्रोत्साहित करने और विकास को बढ़ावा देने के लिए किसानों से कम कर लिया गया।[१५८] अली (अ.स.) की हदीसों में कृषि,[१५९] और व्यापार[१६०] पर सलाह देखी जा सकती है।
शासन में इमाम अली की चुनौतियाँ
लेबनानी इतिहासकार हसन ज़ैन के अनुसार, इमाम अली (अ.स.) ने ऐसे समय में शासन संभाला जब भ्रष्टाचार और धार्मिक नियमों व सिद्धांतों से विचलन ने इस्लाम की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को खतरे में डाल दिया था[१६१] और इस्लामी सरकार को ओर लालच की नज़रो से देखा जा रहा था।[१६२] मुस्तफ़ा दिलशाद तेहरानी का भी मानना है कि अली (अ.स.) से पहले, इस्लाम-पूर्व काल (जाहेलियत के काल) की परंपराओं को पुनर्स्थापित किया जा चुका था, और इन परंपराओं की वापसी ने इमाम अली की ख़िलाफ़त के दौरान आने वाली समस्याओं की नींव रखी।[१६३] नेताओं की सत्ता की लालसा, लोगों की दूरदर्शिता का अभाव, परस्पर विरोधी सामाजिक माँगें, लोगों की सांसारिकता, क़बीलाईवाद, योग्यतावाद, राजनीतिक और आर्थिक अभिजात वर्ग का पतन, और साथियों के एक समूह का अदूरदर्शिता और संकीर्णता जैसी समस्याएँ उनके सामने आने वाली चुनौतियों में से थीं।[१६४]
रसूल जाफ़ेरियान ने उस्मान की हत्या के बाद इस्लामी समाज की अशांत राजनीतिक स्थिति का भी ज़िक्र किया है, जो सरकार के लिए एक अंधकारमय भविष्य का संकेत देती है।[१६५] उन्होंने अली (अ.स.) की सरकार की सबसे महत्वपूर्ण समस्याओं को इस प्रकार सूचीबद्ध किया:
- आर्थिक भेदभाव: उमर इब्ने ख़त्ताब की ख़िलाफ़त के दौरान, इस्लामी पृष्ठभूमि और व्यक्तियों के क़बीले ने ख़ज़ाने के हिस्से को प्रभावित किया, और उस्मान इब्ने अफ़्फ़ान की ख़िलाफ़त के दौरान, यह भेदभाव बढ़ गया। इमाम अली की ख़िलाफ़त और ख़ज़ाने के समान वितरण ने लाभार्थियों के विरोध को जन्म दिया, जिसके कारण वे मुआविया के पाले में शामिल हो गए।[१६६]
- नस्लीय भेदभाव: इस्लामी विजयों के साथ, विभिन्न नस्लें अरबों के साथ मिल गईं; लेकिन उन्हें समान अधिकार प्राप्त नहीं थे। अली इब्न अबी तालिब ने इस नस्लीय भेदभाव को समाप्त कर दिया; लेकिन कुछ अरबों ने उनके व्यवहार को बर्दाश्त नहीं किया, और सरकार को उनके विरोध का सामना करना पड़ा।[१६७]
- धार्मिक विचलन और संदेह: पिछले ख़लीफ़ाओं ने ऐसी परंपराएँ स्थापित की थीं जो पैग़म्बर (स) की परंपरा के अनुरूप नहीं थीं; लेकिन इमाम अली पैग़म्बर के चरित्र से विचलित होने को तैयार नहीं थे।[१६८]
- सामाजिक भ्रष्टाचार: उस्मान युग के दौरान, सामाजिक और नैतिक भ्रष्टाचार व्यापक था, विशेष रूप से साथियों (सहाबा) के कुलीन वर्ग और उनके बच्चों के बीच, और इमाम अली के अनुसार,[१६९] इस्लाम का केवल एक नाम और एक प्रतीक ही बचा था।[१७०]
युद्ध और विद्रोह
- मुख्य लेख: इमाम अली (अ) के युद्ध
इमाम अली (अ.स.) का लगभग पूरा शासनकाल युद्ध में बीता:[१७१] जमल की लड़ाई इमाम अली (अ.स.) के शासनकाल का पहला युद्ध था,[१७२] जो जमल के साथियों, अर्थात् तल्हा, ज़ुबैर और आयशा, के बीच संधि भंग होने के कारण हुआ था।[१७३] यह युद्ध इमाम अली की जीत के साथ समाप्त हुआ।[१७४] सिफ़्फ़ीन की लड़ाई मुआविया के विरुद्ध थी। इमाम अली, मुआविया को सीरिया की सरकार से हटाना चाहते थे;[१७५] लेकिन मुआविया ने इनकार कर दिया और परिणामस्वरूप, दोनों पक्ष युद्ध के लिए तैयार हो गए और सिफ़्फ़ीन की लड़ाई छिड़ गई।[१७६] दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध के बाद, मुआविया और अम्र इब्ने आस, जिन्होंने अपनी सेना की हार को आसन्न देखा, ने भालों पर क़ुरआन रख कर उसे उठा दिया और विरोधी सेना से मध्यस्थता स्वीकार करने का आह्वान किया।[१७७] यह चाल काम कर गई और सिफ़्फ़ीन की लड़ाई बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गई।[१७८]
ख़वारिज, जिन्होंने इमाम अली (अ.स.) को मध्यस्थता स्वीकार करने के लिए मजबूर किया था, जब मध्यस्थता कोई नतीजा नहीं निकाल पाई, तो उन्होंने अली (अ.स.) से पश्चाताप करने और मध्यस्थता समझौते को त्यागने का अनुरोध किया।[१७९] जब ख़वारिज को अली के विरोध का सामना करना पड़ा, तो उन्होंने बहुत से अपराध किए।[१८०] इसलिए, अली (अ.स.) उनसे लड़ने गए और नहरवान क्षेत्र में[182] उन्हें बुरी तरह पराजित किया।[१८१]
एक जर्मन प्राच्यविद् विल्फ्रेड मैडलोंग, एक विश्लेषण में मानते हैं कि अली के ख़लीफ़ा बनने के बाद, इस्लामी समुदाय तीन समूहों में विभाजित हो गया और मुस्लिम गृहयुद्ध शुरू हो गए: 1. अली के समर्थक, 2. बनी उमय्या और उस्मान के समर्थक, 3. क़ुरैश का बहुमत जो शैख़ैन की तरह की ख़िलाफ़त की वापसी चाहते थे।[१८२] रसूल जाफ़ेरियान के अनुसार, इमाम अली की सुधारवादी नीतियाँ ही विरोध और युद्धों का मुख्य कारण थीं; क्योंकि इमाम अली के सत्ता में आने से कुछ लोगों के हित खतरे में पड़ गए थे।[१८३]
हसन ज़ैन और रसूल जाफ़ेरियान के अनुसार, अली इब्न अबी तालिब ने कभी युद्ध शुरू नहीं किया।[१८४] उन्होंने केवल आवश्यक होने पर ही युद्ध किया और प्रत्येक युद्ध से पहले, उन्होंने लोगों से शांति का आह्वान किया।[१८५] इमाम अली के ख़िलाफ़त काल में युद्धों की समय लेने वाली प्रकृति के बावजूद, अली (अ.स.) के ख़िलाफ़त काल के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पहलू कम नहीं हुए।[१८६] इब्राहिम बैज़ून के अनुसार, इमाम अली (अ.स.) का शासन काल, निरंतर युद्धों के कारण, पैग़म्बर (स) के शासन काल के समान है और इसे पैग़म्बर के शासन काल का ही विस्तार माना जाता है।[१८७]
- इन्हें भी देखें: जमल की लड़ाई, सिफ़्फ़ीन की लड़ाई, नहरवान की लड़ाई और ग़ारात
अंततः

इमाम अली (अ.स.) का शासनकाल चार वर्ष और नौ महीने तक चला और उनकी शहादत के साथ समाप्त हो गया।[१८८] सरकार के सैन्य बल युद्ध से थक चुके थे, उनके बीच मतभेद थे, और कुछ मामलों में, उन्होंने अली (अ.स.) के आदेशों की अवहेलना की।[१८९] मुआविया ने सरकार के कुछ सैन्य कमांडरों (जैसे अशअस इब्न क़ैस) के साथ गुप्त संपर्क स्थापित किया और उसे कुछ उपहार देकर और अपनी सेना में उच्च पदों का वादा करके, उसे इमाम अली की सेना में अफ़वाहें फैलाने और सैनिकों को डराने के लिए भर्ती किया।[१९०] अली (अ.स.) की शहादत के साथ, उनके साथियों ने खिलाफ़त के लिए इमाम हसन (अ.स.) के प्रति निष्ठा की शपथ ली।[१९१] अली (अ.स.) के शासनकाल और इमाम हसन (अ.स.) के खिलाफ़त से इस्तीफा देने के छह महीने बाद, मुसलमानों के बीच युद्ध समाप्त हो गया और मुआविया इब्न अबी सुफ़ियान के शासक बनने के साथ, इस्लामी उम्मत में एक ज़ाहिरी एकता लौट आई।[१९२] ट्यूनीशियाई इतिहासकार हिशाम जुयैत के अनुसार, यह एकता मुसलमानों के दिलों में जड़ नहीं जमा पाई और उस समय की सरकार के खिलाफ़ गुप्त आंदोलन सक्रिय हो गए।[१९३]
- यह भी देखें: इमाम अली (अ.स.) की शहादत
सफलता या असफलता?
हालाँकि इमाम अली अपने शासनकाल में अपने सभी लक्ष्यों को प्राप्त करने में असमर्थ रहे, लेकिन फिर भी वे लोगों को, खासकर उन लोगों को जिन्होंने पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) को नहीं देखा था, शासन का पैग़म्बरी मार्ग दिखाने में सक्षम रहे।[१९४] हालाँकि इमाम अली (अ) अपनी सभी सुधार योजनाओं को पूरी तरह से लागू करने में असमर्थ रहे,[१९५] लेकिन नहज अल-बलाग़ा के क्षेत्र में शोधकर्ता मुस्तफ़ा दिलशाद तेहरानी के विश्लेषण के अनुसार, उन्होंने बेहद महत्वपूर्ण सफलताएँ हासिल कीं और बाद की सरकारों के लिए एक आदर्श बन गए।[१९६] शिया इतिहासकार रसूल जाफ़रियान ने इमाम अली की ज़ाहिरी असफलता के कारणों को इस प्रकार सूचीबद्ध किया है: उस समय के समाज में गहरी जड़ें जमाए हुए भ्रष्टाचार और राजद्रोह, इराक़ी क़बीलों की अराजक स्थिति, क़बीलाई सरदारों की स्थिति का मज़बूत होना, और सरकार को मज़बूत करने के लिए उत्पीड़न और उत्पीड़कों से लाभ ना उठाना।[१९७]
मिस्र के विद्वान अहमद अमीन के अनुसार, अली इब्न अबी तालिब परंपराओं और धार्मिक ग्रंथों के प्रति अपनी पाबंदी के कारण अपने शासन में असफल रहे। यह इस तथ्य के बावजूद है कि उमर इब्न ख़त्ताब और मुआविया इब्न अबी सुफ़ियान ने कई अवसरों पर धार्मिक ग्रंथों के विपरीत कार्य किया और सफल रहे;[१९८] जैसा कि कुछ सुन्नी स्रोतों द्वारा बताया गया है, जब उमर की आलोचना पैग़म्बर (स) के विपरीत, सरकारी कामों में अनैतिक लोगों और पाखंडियों को नियुक्त करने के लिए की गई, तो उन्होंने उनके बल का प्रयोग करना आवश्यक समझा और उन्हें ख़ुद को उनके पापों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया।[१९९] इसलिए, शिया विद्वान अल्लामा तबातबाई कहते हैं कि जिन पाखंडियों ने पैग़म्बर के शासनकाल में उनका विरोध किया था, उन्होंने पहले तीन ख़लीफ़ाओं के समय में, जब वे खिलाफ़त में सत्ता में आए, तो उन्होने इस्लामी सरकार का विरोध करना बंद कर दिया और मुसलमानों का पक्ष लिया।[२००]
इमाम अली (अ) ने अपने शासन को मजबूत करने के लिए लचीलापन क्यों नहीं दिखाया?
इतिहासकार जाफ़र सुब्हानी का मानना है कि अगर इमाम अली (अ.स.) ने मुआविया के भ्रष्टाचार के प्रति लचीलापन दिखाया होता, तो भी न केवल उनके शासन की समस्याएँ हल नहीं होतीं, बल्कि वे और भी बढ़ जातीं।[२०१] उनके विचार में, अगर मुआविया सीरिया में सत्ता में बना रहता, तो अली (अ.स.) अपने अधिकांश समर्थकों को पहले ही दिनों में खो देते, क्योंकि उन्होंने उस्मान के गवर्नरों के हाथों उत्पीड़न और अन्याय के कारण विद्रोह कर दिया था, और उस्मान के गवर्नरों का निरंतर अस्तित्व उन्हें निराश कर देता।[२०२] दूसरी ओर, मुआविया का अस्थायी अस्तित्व अली की ख़िलाफ़त के प्रति उनके विरोध को कम नहीं कर सकता था; क्योंकि मुआविया एक चतुर और राजनीतिज्ञ व्यक्ति था और वह इस बात का समझ जाता।[२०३] सुबहानी ने उस्मान की हत्या को मुआविया का सबसे बड़ा अवसर माना, जिसे अगर उसने शुरुआती दिनों में न भुनाया होता तो वे हमेशा के लिए ऐसा अवसर खो देता।[२०४]
कुछ इतिहासकारों ने कहा है कि इमाम अली का शासन इसलिए अस्थिर था क्योंकि उन्होंने अपने शासन में फ़रेब और राजनीति का इस्तेमाल नहीं किया।[२०५] एक जर्मन शिया धर्म पर कार्य करने वाले विद्वान विल्फ्रेड मैडेलुंग ने भी इमाम अली को एक सरल और अदूरदर्शी राजनीतिज्ञ कहा है; क्योंकि उन्होंने समस्याओं से बचने के लिए मुआविया को बर्खास्त न करने की अब्दुल्लाह इब्न अब्बास की सलाह पर ध्यान नहीं दिया।[२०६] दूसरी ओर, लेबनानी इतिहासकार हसन ज़ैन कहते हैं कि इतिहास का अध्ययन करने से यह समझा जा सकता है कि सरकार से भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए इमाम अली के सभी क़दम सही थे, भले ही उनके कारण उनकी अपनी सरकार गिर गई।[२०७] उनकी राय में, मुआविया और उस्मान के गवर्नरों को नज़र अंदाज करके और तल्हा और ज़ुबैर को कोई पद देने से परहेज़ करके, इमाम अली ने इस्लामी सिद्धांतों और मूल्यों के आधार पर एक सरकार बनाने में सक्षम हो गये जो इस्लामी सरकार का एक सच्चा उदाहरण बन गया जो बाद के युगों के लिये एक मॉडल के रूप में काम कर सकता है और इसका पालन किया जा सकता है।[२०८]
संबंधित लेख
फ़ुटनोट
- ↑ तबरी, तारिख़ अल-उमम वल-मुलूक, 1387 हिजरी, खंड। 4, पृ. 427.
- ↑ ज़ैन, अल-इमाम अली इब्न अबी तालिब व तजरिबा अल-हिकम, 1994 ई., पृ. 33.
- ↑ जाफ़रियान, तारिख़ तहव्वुले दौलत वा ख़िलाफ़त, 1373 शम्सी, पृ. 138.
- ↑ जाफ़रियान, तारिख़ तहव्वुले दौलत वा ख़िलाफ़त, 1373 शम्सी, पृ. 171.
- ↑ ज़रीनकूब, बामदादे-इस्लाम, 1376 शम्सी, पृ. 109.
- ↑ दिलशाद तेहरानी, हुक्मरानिए हकीमाना, 1395 शम्सी, पृ. 19.
- ↑ हुसैनी ख़ामेनेई, "21वीं रमज़ान (16 आज़र 1380 शम्सी) के शुक्रवार की प्रार्थना उपदेश में भाषण", आयतुल्लाह ख़ामेनेई के कार्यों के संरक्षण और प्रकाशन केंद्र की वेबसाइट पर।
- ↑ इब्न अबी अल-हदीद, शरह नहजुल-बलाग़ा, 1404 एएच, खंड 7, पृ. 73.
- ↑ इब्न अबी अल-हदीद, शरह नहजुल अल-बलाग़ा, 1404 एएच, खंड 7, पृ. 73.
- ↑ जाफ़रियान, तारिख़ तहव्वुले दौलत वा ख़िलाफ़त, 1373 शम्सी, पृ. 168.
- ↑ जुएत, अल-फ़ितना, 2000 एएच, पी। 141.
- ↑ ताहा हुसैन, अली वा बनूह, दार अल-म'आरिफ़, पी. 8.
- ↑ जुएत, अल-फ़ितना, 2000 एएच, पी। 141.
- ↑ हुसैन, अली वा बनूह, दार अल-म'आरिफ़, पी. 8.
- ↑ बैज़ून, अल-इमाम अली फ़ी रोयत अल-नहज वा रिवायत अल-तारिख़, 2009 एएच, पी। 70.
- ↑ जुएत, अल-फ़ितना, 2000 एएच, पी। 141.
- ↑ देखें: ख़तीब बग़दादी, तारिख़ बग़दाद, 1417 एएच, खंड। 1, पृ. 145.
- ↑ इब्न साद, अल-तबक़ात अल-कुबरा, 1410 एएच, खंड। 3, पृ. 22.
- ↑ याक़ूबी, तारीख़े याक़ूबी, दार सादिर, खंड। 2, पृ. 178.
- ↑ हैल्म, तशय्यो, 1389 शम्सी, पीपी. 27-28.
- ↑ जाफ़रियान, तारिख़ तहव्वुले दौलत वा ख़िलाफ़त, 1373 शम्सी, पृ. 143.
- ↑ दियारबकरी, तारीख़ अलख़मीस, दार सादिर, खंड। 2, पृ. 262.
- ↑ सुबहानी, फ़रोग़े वेलायत,1380 शम्सी, पृ. 368.
- ↑ दिलशाद तेहरानी, दौलते आफ़ताब, 1395 शम्सी, पृ. 47.
- ↑ दिलशाद तेहरानी, दौलते आफ़ताब, 1395 शम्सी, पीपी 33-34।
- ↑ नसीरी, तहलीली अज़ तारीख़े तशय्यो व इमामान (अ), 1386 शम्सी, पृ. 107
- ↑ नसीरी, तहलीली अज़ तारीख़े तशय्यो व इमामान (अ), 1386 शम्सी, पृ. 106
- ↑ बैज़ून, अल-इमाम अली फ़ी रोयत अल-नहज वा रिवायत अल-तारिख़, 2009, पृष्ठ 191.
- ↑ नसीरी, तहलीली अज़ तारीख़े तशय्यो व इमामान (अ), 1386 शम्सी, पृष्ठ 106.
- ↑ दिलशाद तेहरानी, दौलते आफ़ताब, 1395 शम्सी, पृष्ठ 43-44.
- ↑ ग़रीब, ख़िलाफ़त उस्मान इब्न अफ़्फ़ान, 1997 ई., पृष्ठ 103.
- ↑ बख़्तियारी, "साख़तारे सियासी हुकूमतेे उस्मान", पृष्ठ 65.
- ↑ बैज़ून, अल-इमाम अली फ़ी रोयत अल-नहज वा रिवायत अल-तारिख़, 2009, पृष्ठ 191.
- ↑ बैज़ून, अल-इमाम अली फ़ी रोयत अल-नहज वा रिवायत अल-तारिख़, 2009, पृष्ठ 191.
- ↑ इब्न असीर, उस्दुल-ग़ाबह, 1409 एएच, खंड। 3, पृ. 490.
- ↑ इब्न आसम कूफी, अल-फुतूह, 1411 एएच, खंड। 2, पृ. 426-428.
- ↑ इब्न कुतैबह दैनवरी, अल इमामत वल सियासत, 1410 एएच, खंड। 1, पृ. 65-66; तबरी, तारिख़ अल-उमम वल-मुलूक, 1387 एएच, खंड। 4, पृ. 427; याकूबी, तारिख़ अल-याकूबी, दार सादिर, खंड। 2, पृ. 179; इब्न 'आसम अल-कुफी, अल-फुतुह, 1411 एएच, खंड। 2, पृ. 434.
- ↑ नहजुल अल-बलाग़ा, तसहीह सुबही सालेह, ख़ुतबा 92, पृ. 136; तबरी, तारिख़ अल-उमम वल-मुलूक, 1387 एएच, खंड। 4, पृ. 434; इब्न शहर-आशोब, अल-मनाक़िब, 1379 शम्सी, खंड। 2, पृ. 110; मिस्कुवैह, तजारिब अल-उमम, 1379 शम्सी, खंड। 1, पृ. 458.
- ↑ इब्न 'आसम अल-कूफी, अल-फ़ुतूह, 1411 एएच, खंड। 2, पृ. 434-435.
- ↑ इब्न 'आअसम अल-कूफी, अल-फुतूह, 1411 एएच, खंड। 2, पृ. 434.
- ↑ इब्न आसम कूफी, अल-फ़ुतुह, 1411 एएच, खंड। 2, पृ. 434-435.
- ↑ ज़रीनकूब, बामदादे-इस्लाम, 1376 शम्सी, पृ. 105.
- ↑ जाफ़रियान, हयात-ए-फ़िकरी-सियासी इमामाने शिया, 1391 शम्सी, पृ. 65; नहजुल-बलाग़ा, तसहीह सुबही सालेह, ख़ुतबा 92, पृ. 136.
- ↑ देखें: इब्न आसम कूफ़ी, अल-फुतूह, 1411 एएच, खंड। 2, पृ. 435-436.
- ↑ याक़ूबी, तारिख़ अल-याकूबी, दार सादिर, खंड। 2, पृ. 179; इब्न आसम कूफी, अल-फुतूह, 1411 एएच, खंड। 2, पृ. 435-436.
- ↑ तबरी, तारिख़ अल-उमम वल-मुलूक, 1387 एएच, खंड। 4, पृ. 427.
- ↑ इस्काफ़ी, अल-मेयार वल-मवाज़ना, 1402 एएच, पृ. 51.
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- ↑ ज़ैन, इमाम अली बिन अबी तालिब व तजरुबा अल-हेकम का अनुभव, 1994, पृ. 123.
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- ↑ «Expansion of the Caliphate»، चैनल पर, EmperorTigerstar.
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ 84.
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ 81-82।
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ। 83.
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ। 83.
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ। 83.
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- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ। 85.
- ↑ सुबहानी, फ़रोग़े वेलायत, 1380 शम्सी, पृ. 467-468.
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- ↑ रजबी, "बर्रसिए कूफ़ी बेउनवाने मरक़ज़े ख़िलाफ़त इस्लामी", पीपी. 7-8।
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- ↑ आमेली, सैय्यद जाफ़र मुर्तज़ा अमेली की वेबसाइट पर, "अली (अ) के ख़लीफ़ा में कुफ़ा की रणनीति"।
- ↑ रजबी, "बर्रसिए कूफ़ी बेउनवाने मरक़ज़े ख़िलाफ़त इस्लामी", पी। 6.
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- ↑ मुतह्हरी, पंद्रह भाषण, 1402 एएच, पृ. 254.
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- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ। 154.
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी,, पृष्ठ। 91.
- ↑ मुहाजिरा निया, "साख़तारे हुकूमते इमाम अली (अ)", पी। 161.
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- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, 1379, पृष्ठ 93-96।
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- ↑ ज़रीनकूब, बामदाद अल-इस्लाम, 1376, पृ. 106.
- ↑ अदाक, "शाइस्ता सालारी दर हुकूमते इमाम अली (अ)", पी। 56.
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- ↑ याकूबी, तारिख अल-याकूबी, दार सदर, खंड। 2, पृ. 180.
- ↑ अदाक, "शाइस्ता सालारी दर हुकूमते इमाम अली (अ)", पृष्ठ 45।
- ↑ दैनवरी, अल-अखबार अल-तेवाल, 1368 शम्सी, पृ. 142.
- ↑ शेख़ तूसी, अल-अमाली, 1414 एएच, पृ. 87.
- ↑ अदाक, "शाइस्ता सालारी दर हुकूमते इमाम अली (अ)", पी। 46.
- ↑ ज़ैन, अल-इमाम अली इब्न अबी तालिब और शासन का अनुभव, 1994 एएच, पी। 28.
- ↑ तबरी, तारिख़-अल-उमम वा-मुलूक, 1387 एएच, खंड। 4, पृ. 429.
- ↑ ज़रीनकूब, बामदाद अल-इस्लाम, 1376 शम्सी, पृ. 106.
- ↑ क़ुरैशी, मौसूआ अल-इमाम अमीर अल-मोमिनीन अली इब्न अबी तालिब (अ), 1429 एएच, खंड। 11, पृ. 31.
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पी। 194.
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पी। 194.
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ। 138.
- ↑ क़ुरैशी, मौसूआ अल-इमाम अमीर अल-मोमिनीन अली इब्न अबी तालिब (अ), 1429 एएच, खंड। 9, पृ. 63.
- ↑ अदाक, "शाइस्ता सालारी दर हुकूमते इमाम अली (अ)", पी. 56.
- ↑ अदाक, "शाइस्ता सालारी दर हुकूमते इमाम अली (अ)", पृष्ठ 56।
- ↑ सक़फ़ी, अल-ग़ारात, 1353 शम्सी, खंड। 1, पृ. 125.
- ↑ क़ुरैशी, इमाम अमीर अल-मुमिनीन अली इब्न अबी तालिब (अ.स.) का विश्वकोश, 1429 एएच, खंड। 11, पृ. 31.
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ। 143.
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ। 145.
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ। 145.
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारी इमाम अली (अ.स.) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ। 146.
- ↑ काज़ी अबू यूसुफ़, अल-ख़राज, 1399 एएच, पीपी. 149-150
- ↑ हकीमाबादी, "दौलत व सियासतहाय इक़तेसादी", पी। 373.
- ↑ जसीम, अली इब्न अबी तालिब, सुलतह अल-हक़, 1427 एएच, पृ. 359.
- ↑ महमूदी, नहज अल-सआदा फ़ी मुस्तद्रक नहज अल-बलाग़ा, मोअस्सेसा अल-आलमी, खंड। 1, पृ. 224.
- ↑ मसऊदी, इसबात अल-वासियह, 1426 एएच, पृ. 149.
- ↑ नसीरी, तहलीली अज़ तारीख़े तशय्यो व इमामान (अ), 1386 शम्सी, पृष्ठ। 111.
- ↑ ज़रीनकूब, बामदादे-इस्लाम, 1376 शम्सी, पृ. 110.
- ↑ ज़रीनकूब, बामदादे-इस्लाम, 1376 शम्सी, पृ. 112
- ↑ हकीमाबादी, "दौलत व सियासतहाय इक़तेसादी", पी। 374.
- ↑ शेख़ तूसी, तहज़ीब अल-अहकाम, 1407 एएच, खंड। 10, पृ. 151-152.
- ↑ नसीरी, तहलीली अज़ तारीख़े तशय्यो व इमामान (अ), 1386 शम्सी, पृष्ठ। 106.
- ↑ इब्न हय्युन, दआइम अल-इस्लाम, 1385 एएच, खंड। 1, पृ. 384.
- ↑ ज़ैन, इमाम अली इब्न अबी तालिब और शासन का अनुभव, 1994 ई., पृ. 128.
- ↑ मोइनी-निया, खलीफा के दौरान इमाम अली (एएस) का प्रशासनिक जीवन, 1379 एएच, पृष्ठ। 248.
- ↑ ज़ैन, इमाम अली इब्न अबी तालिब व तजरिबा अलहुक्म, 1994 ई., पृ. 127.
- ↑ नहजुल अल-बलाग़ा, सुबही सालेह द्वारा संपादित, उपदेश 216, पृ. 335.
- ↑ नहजुल अल-बलाग़ा, सुबही सालेह द्वारा संपादित, पत्र 51, पृ. 425.
- ↑ नहजुल अल-बलाग़ा, सुबही सालेह द्वारा संपादित, पत्र 53, पीपी 427-428।
- ↑ दिलशाद तेहरानी, हुक्मरानिए हकीमाना, 1385 शम्सी, पृ. 33.
- ↑ दिलशाद तेहरानी, हुक्मरानिए हकीमाना, 1385 शम्सी, पृष्ठ 38-39।
- ↑ शहीदी, अली अज़ ज़बाने अली, 1380 शम्सी, पृष्ठ 133-134।
- ↑ देखें: ख़तीब बग़दादी, तारीख़े बग़दाद, 1417 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 145; इब्ने सअद, अल तबक़ात अल कुबरा, 1410 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 22; याक़ूबी, तारीख़े याक़ूबी, दार सादिर, खंड 2, पृष्ठ 178।
- ↑ देखें: शेख़ मुफ़ीद, अल जमल व अन-नुसरा, 1413 हिजरी, पृष्ठ 336; दीनवरी, अल-अख़्बार अत-तेवाल, 1368 शम्सी, पृष्ठ 147।
- ↑ तबरी, तारीख़े तबरी, 1387 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 501।
- ↑ दीनवरी, अल-अख़्बार अत-तेवाल, 1368 शम्सी, पृष्ठ 152।
- ↑ इब्ने मुज़ाहिम, वक़अता सिफ़्फ़ीन, 1404 हिजरी, पृष्ठ 131।
- ↑ जाफ़रयान, रसूल, अतलस-ए-शिया, 1387 शम्सी, पृष्ठ 58।
- ↑ इब्ने मुज़ाहिम, वक़अता सिफ़्फ़ीन, 1404 हिजरी, पृष्ठ 202।
- ↑ इब्ने मुज़ाहिम, वक़अता सिफ़्फ़ीन, 1404 हिजरी, पृष्ठ 508।
- ↑ जाफ़रियान, रसूल, अतलसे शिया, 1387 शम्सी, पृष्ठ 58।
- ↑ सक़फ़ी, अल-ग़ारात, 1353 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 416।
- ↑ तबरी, तारीख़े तबरी, 1387 हिजरी, खंड 5, पृष्ठ 95 और 96।
- ↑ तबरी, तारीख़े तबरी, 1387 हिजरी, खंड 5, पृष्ठ 105।
- ↑ बलाज़ोरी, अन्साब अल-अशराफ, 1394 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 375।
- ↑ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 9।
- ↑ दिलशाद तेहरानी, हुक्मरानिए हकीमाना, 1385 शम्सी, पृ. 145.
- ↑ दिलशाद तेहरानी, हुक्मरानिए हकीमाना, 1385 शम्सी, पृ. 145.
- ↑ दिलशाद तेहरानी, हुक्मरानिए हकीमाना, 1385 शम्सी, पृ. 147.
- ↑ दिलशाद तेहरानी, हुक्मरानिए हकीमाना, 1385 शम्सी, पृ. 148.
- ↑ कोमी, सफ़ीनत अल-बिहार, 1414 एएच, खंड। 6, पृ. 176.
- ↑ नहजुल-बलाग़ा, सुबही सालेह द्वारा संशोधित, पत्र 45, पृ. 416-420।
- ↑ इब्न अबी अल-हदीद, शरह नहजुल-बलाग़ा, 1404 एएच, खंड। 4, पृ. 109.
- ↑ नहजुल-बलाग़ा, सुबही सालेह द्वारा संशोधित, पत्र 67, पृ. 457.
- ↑ नहजुल-बलाग़ा, सुबही सालेह द्वारा संशोधित, पत्र 53, पृ. 431.
- ↑ याकूबी, तारिख़ अल-याकूबी, दार सादिर, खंड। 2, पृ. 203.
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारिए इमाम अली (अ) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ 124-125।
- ↑ मोइनी-निया, सीरए इदारिए इमाम अली (अ) दर दौराने ख़िलाफ़त, 1379 शम्सी, पृष्ठ। 125.
- ↑ हुर्र आमिली, वसायल अल-शिया, 1409 एएच, खंड। 9, पृ. 213.
- ↑ कुलैनी, अल-काफी, 1407 एएच, खंड। 5, पृ. 319.
- ↑ ज़ैन, इमाम अली इब्न अबी तालिब व तजरेबा अलहुक्म, 1994 ई., पृ. 39.
- ↑ ज़ैन, इमाम अली इब्न अबी तालिब व तजरेबा अलहुक्म, 1994 ई., पृ. 33.
- ↑ दिलशाद तेहरानी, दौलते आफ़ताब, 1395 शम्सी, पी. 27.
- ↑ दिलशाद तेहरानी, हुक्मरानिये हकीमाना, 2016, पी। 18-19.
- ↑ जाफ़रियान, हयाते फ़िकरी-सियासी इमामाने शिया, 1390 शम्सी, पृ. 65.
- ↑ जाफ़रियान, हयाते फ़िकरी-सियासी इमामाने शिया, 1390 शम्सी, पृ. 65-66.
- ↑ जाफ़रियान, हयाते फ़िकरी-सियासी इमामाने शिया, 1390 शम्सी, पृ. 66-67.
- ↑ जाफ़रियान, हयाते फ़िकरी-सियासी इमामाने शिया, 1390 शम्सी, पृ. 67.
- ↑ नहजुल-बलाग़ा, सुबही सालेह द्वारा संशोधित, उपदेश 192, पृ. 299.
- ↑ जाफ़रियान, हयाते फ़िकरी-सियासी इमामाने शिया, 1390 शम्सी, पृ. 68-69.
- ↑ ज़रीनकूब, बामदादे-इस्लाम, 1376, पृ. 109.
- ↑ तबातबाई, इस्लाम में शिया, 1378 शम्सी, पृ. 42.
- ↑ दिलशाद तेहरानी, सौदाए पैमान शिकनान, 1394 शम्सी, पृ. 14.
- ↑ दैनवरी, अल-अख़बार अल-तेवाल, 1368 शम्सी, पृ. 151.
- ↑ जाफ़रियान, हयाते फ़िकरी-सियासी इमामाने शिया, 1390 शम्सी, पृष्ठ 81.
- ↑ जाफ़रियान, हयाते फ़िकरी-सियासी इमामाने शिया, 1390 शम्सी, पृष्ठ 87-88.
- ↑ जाफ़रियान, हयाते फ़िकरी-सियासी इमामाने शिया, 1390 शम्सी, पृष्ठ 94-95.
- ↑ जाफ़रियान, हयाते फ़िकरी-सियासी इमामाने शिया, 1390 शम्सी, पृष्ठ 95-97.
- ↑ जाफ़रियान, हयाते फ़िकरी-सियासी इमामाने शिया, 1390 शम्सी, पृष्ठ 99-100.
- ↑ तबातबाई, इस्लाम में शिया, 1391 शम्सी, पृष्ठ 44.
- ↑ तबरी, तारीख़ अलउम्म वल मुलूक, 1387 हिजरी, खंड 5, पृ. 80-92.
- ↑ जाफ़रियन, शिया इमामों का बौद्धिक-राजनीतिक जीवन, 1391 एएच, पृ. 105.
- ↑ मैडलॉन्ग, पैग़म्बर मुहम्मद (स) का उत्तराधिकार, 1377 शम्सी, पृष्ठ। 205.
- ↑ जाफ़रियान, हयाते फ़िकरी-सियासी इमामाने शिया, 1390 शम्सी, पृ. 72.
- ↑ ज़ैन, इमाम अली इब्न अबी तालिब व तजरेबा अलहुक्म, 1994 ई., पृ. 143.
- ↑ ज़ैन, इमाम अली इब्न अबी तालिब और न्याय का अनुभव, 1994 ई., पृ. 143.
- ↑ बैज़ून, इमाम अली फ़ी रोयत अलनहज व रिवायत अलतारीख़, 2009 ई., पृ. 149.
- ↑ बैज़ून, इमाम अली फ़ी रोयत अलनहज व रिवायत अलतारीख़, 2009 ई., पृ. 172.
- ↑ आमेली, सहीह मिन सीरत अल-इमाम अली (स), 1430 एएच, खंड। 19, पृ. 109.
- ↑ क़रशी, मौसूआ इमाम अली इब्न अबी तालिब (अ), 1429 एएच, खंड। 11, पृ. 215.
- ↑ क़रशी, मौसूआ इमाम अली इब्न अबी तालिब (अ), 1429 एएच, खंड। 11, पृ. 215.
- ↑ तबरी, तारीख़ अल उमम वल मुलूक, 1387 एएच, खंड। 5, पृ. 158.
- ↑ जुएत, अल-फ़ितना, 2000 ई., पृ. 313.
- ↑ जुअयत, अल-फ़ित्ना, 2000 ई., पृ. 324-325.
- ↑ फ़ख़री, तारीख़े तशय्यो अज़ सदरे इस्लाम ता पायाने दौरए ख़ुलफ़ाए राशेदीन, 1388 हिजरी, पृ. 229.
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- ↑ अमीन, ज़हर अल-इस्लाम, दार अल-किताब अल-अरबी, खंड 4, पृ. 37-38.
- ↑ उदाहरण के लिए, देखें: इब्न अबी शैबा, अल-मुसन्नफ़, 1409 एएच, खंड। 6, पृ. 200; इब्न अब्द अल-बर्र, अल-इस्तिज़कार, 1421 एएच, खंड। 3, पृ. 202;
- ↑ तबातबाई, अल-मीज़ान, 1417 एएच, खंड। 19, पृ. 290.
- ↑ सुबहानी, फ़रोग़े-विलायत, 1380 शम्सी, पृ. 379.
- ↑ सुबहानी, फ़रोग़े-विलायत, 1380 शम्सी, पृ. 380.
- ↑ सुबहानी, फ़रोग़े-विलायत, 1380 शम्सी, पृ. 381.
- ↑ सुबहानी, फ़रोग़े-विलायत, 1380 शम्सी, पृ. 382.
- ↑ ज़ैन, अल-इमाम अली इब्न अबी तालिब व तजरेबा अलहुक्म, 1994 ई, पृष्ठ 33.
- ↑ मैडेलॉन्ग, जानशीनी पैग़म्बर मुहम्मद (स), 1377 शम्सी, पृष्ठ 208.
- ↑ ज़ैन, अल-इमाम अली इब्न अबी तालिब व तजरेबा अलहुक्म, 1994 ई, पृष्ठ 93.
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- याक़ूबी, अहमद इब्न अबी याक़ूबी, तारीख़े याक़ूबी, बेरूत, दार सादिर, बिना तारीख़।
- "ख़िलाफ़त का विस्तार", एम्पररटाइगरस्टार यूट्यूब चैनल पर, प्रविष्टि तिथि: 18 अक्टूबर, 2010, विज़िट तिथि: फरवरदीन 16, 1404 शम्सी।