आय ए अहलो अल ज़िक्र

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आय ए अहलो अल ज़िक्र
आयत का नामआय ए अहलो अल ज़िक्र
सूरह में उपस्थितसूर ए नहल, सूर ए अम्बिया
आयत की संख़्या43 और 7
पारा14 और 17
शाने नुज़ूलबहुदेववादियों के इस विचार की अस्वीकृति कि पैगम्बर देवदूत हैं
नुज़ूल का स्थानमक्का
विषयएतेक़ादी
अन्यअहले-बैत (अ) के फ़ज़ाइल
सम्बंधित आयातआय ए मुबाहेला, आय ए ततहीर

आय ए अहलो-अल ज़िक्र या आय ए सवाल (अरबीः آیه اَهلُ‌الذّکر) (सूर ए नहल: 43 और सूर ए अम्बिया: 7) सभी लोग, विशेष रूप रूप से बहुदेववादियों को, इस्लाम के पैगंबर (स) की नबूवत की हक़ीक़त के बारे में ज्ञानी लोगों से पूछने के लिए आमंत्रित करती है। यह आयत तब सामने आई जब मक्का के बहुदेववादियों ने इस्लाम के पैगंबर (स) के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया और कहा कि भगवान को स्वर्गदूतों में से एक को पैगंबर चुनना चाहिए।

मुफस्सिरो के अनुसार इन आयतों में वर्णित अहले ज़िक्र का अर्थ यहूदी और ईसाई विद्वान या वो विद्वान हैं जो अतीत के समाचारों और पिछले राष्ट्रों की स्थितियों से अवगत हैं, और प्रश्न का अर्थ है नबूवत के बारे में पूछना। जोकि उनकी पुस्तकों में मौजूद हैं।

इन दोनों आयतों के टीकाकारों ने शिया और सुन्नी पुस्तकों की असंख्य परंपराओं (रिवायतो) का हवाला देते हुए अहले-बैत (अ) को अहले-ज़िक्र का सबसे स्पष्ट उदाहरण माना है, जिनसे दीन के अहकाम और तफसीर सीखना चाहिए।

कुछ उसूली किताबो में ख़बरे वाहिद की प्रामाणिकता के लिए इस आयत का हवाला दिया जाता है।

पाठ और अनुवाद

अनुवादः और तुमसे पहले हमारे पास कोई सन्देशवाहक नहीं थे सिवाय उन मनुष्यों के जिनकी ओर हमने वीह की। इसलिए यदि आप नहीं जानते हैं, तो अहले ज़िक्र (जानकार) से पूछें।

शाने नुज़ूल

इब्ने अब्बास से वर्णित है कि जब मुहम्मद (स) को पैगंबर के रूप में चुना गया था, तो यह मुद्दा मक्का के लोगों पर भारी आया और उन्होंने उनकी नबूवत से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि मानव जाति के बीच से एक पैगम्बर चुनने के लिए ईश्वर बहुत महान है। मुश्रिकों के दावे के जवाब में, यह आयत और सूर ए यूनुस की दूसरी आयत, "أَ كانَ لِلنَّاسِ عَجَباً أَنْ أَوْحَيْنا إِلى‏ رَجُلٍ مِنْهُمْ अकाना लिन्नासे अज्बन अन ओहैना इला रजोलिन मिनहुम" (क्या यह लोगों के लिए आश्चर्य की बात है कि हमने उनमें से एक आदमी पर वही नाजिल की) नाज़िल हुई।[१] यह भी कहा गया है कि यह आयत बहुदेववादियों के जवाब में नाज़िल हुई जिन्होंने कहा था कि ईश्वर दूत क्यो स्वर्गीयदूतो मे से नही होना चाहिए।[२]

कंटेंट

तबरसी, तफसीर मजमा अल-बयान में, आयत की शुरुआत को यह इंगित करने के लिए मानते हैं कि भगवान ने अपने दूत को लोगों के बीच से भेजा ताकि लोग उसे देख सकें, उससे बात कर सकें और उसके शब्दों को समझ सकें। इसलिए, यह सही नहीं है कि एक इंसान के बजाय एक देवदूत को पैगंबर के रूप में संदेश देने का काम सौंपा जाए।[३]

अल्लामा तबताबाई भी इस आयत को एक दूत भेजने की गुणवत्ता को व्यक्त करने वाला मानती हैं ताकि बहुदेववादियों को पता चले कि धार्मिक निमंत्रण एक सामान्य और साधारण निमंत्रण है; इस अंतर के साथ कि ईश्वर इस निमंत्रण के मालिकों को वही के माध्यम से भेजता है कि इस दुनिया और उसके बाद क्या अच्छा है, और ऐसी कोई अदृश्य शक्ति नहीं है जो लोगों की इच्छा और स्वतंत्र इच्छा को अमान्य कर देती है और उन्हें धार्मिक निमंत्रण स्वीकार करने के लिए मजबूर करती है, और किसी पैगम्बर ने यह दावा नहीं किया है कि उसकी रचनात्मक इच्छाशक्ति और अदृश्य शक्ति से दुनिया पर शासन करने वाली मौजूदा व्यवस्था नष्ट हो जाएगी।[४] उनकी राय के अनुसार, आयत का दूसरा भाग " فَسْئَلُوا أَهْلَ الذِّكْرِ إِنْ كُنْتُمْ لا تَعْلَمُونَ फस्अलू अहलज-ज़िक्र इन कुंतुम ला ताअलामून" हालांकि यह पैगंबर (स) और उनकी उम्मत के लोगों को संबोधित है, लेकिन आम जनता को वह विशेष रूप से बहुदेववादियों को संबोधित करती हैं कि जो कोई भी नबूवत की हक़ीक़त को नहीं समझता है, उसे ज्ञानी (जानकार) लोगों से पूछना चाहिए।[५] अल्लामा मजलिसी के अनुसार, हालाँकि आय ए अहले-ज़िक्र सभी को संबोधित है; लेकिन पैगंबर और मोमेनीन जो पैगम्बरों और उनकी नबूवत के बारे में दिव्य परंपरा के प्रवाह को जानते हैं और उन्हें जानकार लोगों से पूछने की आवश्यकता नहीं है, और बहुदेववादी जो न केवल पैगम्बरी में विश्वास नहीं करते और पैगंबर (स) की नबूवत; बल्कि वे उसका उपहास करते हैं और उसे पागल समझते हैं; परिणामस्वरूप, केवल तौरैत के अनुयायी (यहूदी) ही आयत के श्रोता बनकर रह जाते हैं क्योंकि वे पैगंबर से शत्रुता ऱखते हैं।[६]

मकारिम शिराज़ी ने तफसीर नमूना मे आयत के दूसरे भाग मे इस तथ्य पर जोर देने और पुष्टि करने के लिए मानते हैं कि पैगंबरों का कर्तव्य सामान्य तरीकों से लोगों तक वही पुहंचाना है, न कि लोगों को असाधारण शक्ति से मजबूर करना और प्रकृति के नियमों को बाधित करना है। आह्वान को स्वीकार करना और सभी विचलनों को त्यागना, यदि ऐसा होता, तो ईमान लाना सम्मान और विकास नहीं होता।[७]

अहले-ज़िक्र और उसके मसादीक़

मुफ़स्सिरो ने आय ए अहले ज़िक्र के अंतर्गत, अहले-ज़िक्र के अर्थ और उसके उदाहरणों की जांच की है। टीकाकारों (मुफ़स्सिरो) का मत है कि इस आयत के सन्दर्भ के अनुसार अहले-ज़िक्र, ज्ञानी (जानकार) लोग और विशेषज्ञ लोग हैं; जिन लोगों का संबंध (क़ुरआन, पवित्र पुस्तकें, आदि) सबसे अधिक है। उक्त आयतो मे अहले ज़िक्र, यहूदी और इसाई विद्वान है[८] या अतीत की खबरों जानकार और पिछले राष्ट्रों की स्थितियो के जानकार विद्वान है।[९] प्रश्न का उद्देश्य नबूवत के संकेतों के बारे में पूछना है जो उनकी पुस्तकों में मौजूद हैं।[१०] शिया और सुन्नी टिप्पणीकारों के बीच अहले ज़िक्र के उदाहरण के बारे में दो राय हैं:

अहले-बैत (अ)

शिया टिप्पणीकारों ने कई परंपराओं का हवाला देते हुए[११] अहले-बैत (अ)[१२] को स्पष्ट और आदर्श उदाहरण माना है। इसका मतलब है कि मुहम्मद, इमाम अली, फ़ातेमा, हसन और हुसैन को पेश किया गया है; जो तावील और तंज़ील के मादन (कान) हैं।[१३] सुन्नी टिप्पणीकारों में से कुर्तुबी और तबरी सूर ए अंम्बिया की की आयत न 7 के तहत एक रिवायत का वर्णन करते हैं जिसमें अली (अ) इस आयत के नुज़ूल के समय कहते हैं: नहनो अहलो ज़िक्र, हम अहले ज़िक्र हैं"।[१४]

बसाइर अल-दरजात पुस्तक में 28 रिवायते "फ़ी आइम्मते आले मुहम्मदिन अन्नहुम अहलो ज़िक्र अल्लज़ीना अमरल्लाहो बेसुआलेहिम, यही आइम्मा अहले ज़िक्र है जिनसे अल्लाह तआला ने सवाल करने का आदेश दिया है" के शीर्षक के अंतर्गत एक अध्याय मे एकत्रित की गई है। यह उल्लेख किया गया है कि अहले ज़िक़्र के रूप मे अहले-बैत (अ) को पेश किया है।[१५] इस अध्याय की ग्यारहवी रिवायत मे इमाम सादिक़ (अ) से वर्णन किया गया है कि आयत की व्याख्या मे इमाम (अ) ने फ़रमाया कि ज़िक्र का मतलब है मुहम्मद (स) और हम इमाम भी उन्ही के लोग हैं और हमसे सवाल किए जाने चाहिए।[१६] कुलैनी ने भी काफ़ी मे "अन्ना अहलज ज़िक्र अल लज़ीना अमारल्लहुल ख़ल्क़ा बेसुआलेहिम होमुल आइम्मा" अध्याय का उल्लेख किया है।[१७] मजलिसी ने बिहार अल-अनवार में रिवायत का वर्णन करते हुए कहा कि अहले ज़िक्र का अर्थ शियो के इमाम है।[१८]

उपरोक्त रिवायतों की व्याख्या में यह भी कहा गया है कि इमामों का यह कहने का अर्थ कि हम अहले ज़िक्र है इससे जाहेरी आयत मुराद नही है; चूँकि मक्का के अविश्वासी के लिए इमामों से कुछ भी पूछना संभव नही था, और यदि संभव भी होता तो वे (अविश्वासी) उनकी (आइम्मा की) बातों को प्रमाण नहीं मानते थे, जैसे उन्होंने पैगंबर (स) की बातों को स्वीकार नहीं किया; अत: इन आख्यानों (रिवायतो) का अर्थ तश्बीह और तमसील है। इस स्पष्टीकरण के साथ कि सब कुछ जानकार से पूछी जानी चाहिए। जिस तरह विद्वानों से पैगंबरों की मानवीय प्रकृति के बारे में पूछना चाहिए, उसी तरह किसी को इस्लाम की व्याख्या और नियमों के बारे में मासूम इमामों से भी पूछना चाहिए।[१९]

मकारिम शिराज़ी के अनुसार, इस मुद्दे को स्वीकार करना कि अहले-बेत अहले-ज़िक्र का सबसे स्पष्ट उदाहरण है, इस आयत का अहले किताब (ईसाई और यहूदी) विद्वानों के बारे मे नाज़िल होना कोई विरोधाभास नही ऱखता, क्योंकि इस मुद्दे को कुरान की रिवाई तफसीर में कई बार दोहराया गया है और ऐसे कुछ उदाहरण हैं जो आयत के व्यापक अर्थ को सीमित नहीं करते हैं।[२०]

विद्वान

कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार, अक्सर आयत के संदर्भ के अनुसार, अहले ज़िक्र को अहले किताब या अहले इल्म (विद्वान) होते हैं।[२१] अहले ज़िक्र मे वो सब लोग शामिल है जिनके पास अधिक ज्ञान और जागरूकता है। इस आयत को बौद्धिक सिद्धांतों और सामान्य बौद्धिक नियमों में से एक का मार्गदर्शक माना जाता है, जो हर क्षेत्र और अज्ञानी के लिए विद्वान को संदर्भित करने की आवश्यकता की बात करता है और इस कारण से यह स्पष्ट है कि यह आदेश है।[२२]

सुन्नी टिप्पणीकारों ने अहले-ज़िक्र के लिए पंद्रह अर्थ बताए हैं,[२३] जो तीन समूहों को संदर्भित करता है: "सामान्य रूप से अहले किताब (तौरैत और इंजील (बाइबिल) को छोड़कर कोई भी पुस्तक) या विशेष रूप से (उदाहरण स्वरूप अहले तोरात)", "अहले क़ुरआन"[२४] और "ओलामाए अहले-बेत"।[२५]

न्यायशास्त्रीय अनुप्रयोग; खबरे वाहिद की प्रमाणिकता

न्यायशास्त्र के सिद्धांतों में, कुछ लोगों ने ख़बरे वाहिद की प्रामाणिकता साबित करने के लिए आय ए अहले ज़िक्र का हवाला दिया है; इस तर्क के साथ कि जब आयत में जिन लोगों का जिक्र किया गया है उनसे पूछना अनिवार्य माना गया है तो उनकी बातें मानना भी जरूरी है। अन्यथा, पूछने की बाध्यता समाप्त हो जाएगी।[२६] इस तर्क में कुछ समस्याएं उठाई गई हैं। दूसरों के बीच, शेख़ मुर्तज़ा अंसारी ने कहा है कि हदीसों के अनुसार, अहले ज़िक्र का मतलब आइम्मा है नाकि हदोसो के बयान करने वाले रावी।[२७]

फ़ुटनोट

  1. मुहक़्क़िक़, नमूना बयानात दर शाने नुज़ूल आयात, 1361 शम्सी, पेज 481
  2. वाहेदी, असबाब नुज़ूल अल क़ुरआन, 1411 हिजरी, पेज 286
  3. तबरसी, मजमा अल बयान, 1371 शम्सी, भाग 6, पेज 557
  4. तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 हिजरी, भाग 12, पेज 256
  5. तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 हिजरी, भाग 12, पेज 257
  6. तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 हिजरी, भाग 12, पेज 257-258
  7. मकारिम शिराज़ी, तफसीर नमूना, 1371 शम्सी, भाग 11, पेज 241
  8. अबू हय्यान, अल बहर अल मोहीत, 1420 हिजरी, भाग 6, पेज 533; तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 हिजरी, भाग 12, पेज 258; मकारिम शिराज़ी, तफसीर नमूना, 1371 शम्सी, भाग 11, पेज 244
  9. तबरसी, मजमा अल बयान, 1372 शम्सी, भाग 6, पेज 557; तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 हिजरी, भाग 12, पेज 258; मकारिम शिराज़ी, तफसीर नमूना, 1371 शम्सी, भाग 11, पेज 244
  10. असगरपूर करामलकी, अहलो ज़िक्र, पेज 132
  11. कुलैनी, अल काफी, 1407 हिजरी, भाग 1, पेज 210-211
  12. हवीज़ी, नूर अल सक़लैन, 1415 हिजरी, भाग 3, पेज 55; मकारिम शिराज़ी, तफसीर नमूना, 1371 शम्सी, भाग 11, पेज 244
  13. हसकानी, शवाहिद अल तनज़ील, 1411 हिजरी, भाग 1, पेज 432
  14. क़ुरतुबी, अल जामे लिल अहकाम अल क़ुरआन, 1364 शम्सी, भाग 11, पेज 272; तिबरी, जामे अल बयान, 1412 हिजरी, भाग 17, पेज 5
  15. सफ़्फ़ार क़ुमी, बसाइर अल दरजात, 1404 हिजरी, बाब 19, पेज 38-39
  16. सफ़्फ़ार क़ुमी, बसाइर अल दरजात, 1404 हिजरी, बाब 19, पेज 40
  17. कुलैनी, अल काफी, 1407 हिजरी, भाग 1, पेज 303
  18. मजलिसी, बिहार उल अनवार, 1403 हिजरी, भाग 23, पेज 172
  19. शेरानी, नसर तूबा, 1398 हिजरी, भाग 1, पेज 276
  20. मकारिम शिराज़ी, तफसीर नमूना, 1371 शम्सी, भगा 11, पेज 244
  21. नज्जारज़ादगान वा हादी लू, बर रसी वा अर्ज़याबी वुजूह जम बैना रिवायात अहलो ज़िक्र, पेज 35
  22. तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 हिजरी, भाग 12, पेज 259
  23. बशवी, नक़द वा बर रसी दीदगाहे फ़रीक़ैन दर बारह अहलो ज़िक्र, पेज 57
  24. क़ुरतुबी, अल जामे लिल अहकाम अल क़ुरआन, 1364 शम्सी, भाग 10, पेज 108
  25. इब्ने कसीर, तफसीर अल क़ुरआन अल अज़ीम, 1419 हिजरी, भाग 4, पेज 492
  26. अंसारी, फराएद अल उसूल, 1416 हिजरी, भाग 1, पेज 132; आखूंद ख़ुरासानी, किफायातुल उसूल, 1409 हिजरी, भाग 1, पेज 200
  27. अंसारी, फराएद अल उसूल, 1416 हिजरी, भाग 1, पेज 133


स्रोत

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  • मजलिसी, मुहम्मद बाक़िर, बिहार उल अनवार, बैरूत, दार एहया अल तुरास अल अरबी, 1403 हिजरी
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  • मकारिम शिराज़ी, नासिर, तफसीर नमूना, तेहरान, दार अल कुतुब अल इस्लामीया, 1371 शम्सी
  • नज्जारजादगान, फ़त्हुल्लाह वा हादी लू, सुमय्या, बर रसी वा अर्ज़याबी वुजूह जम बैना रिवायात अहले ज़िक्र, मजल्ला उलूमे हदीस, क्रमांक 65, पाईज 1391
  • वाहेदी, अली बिन अहमद, असबाब नुज़ूल अल क़ुरआन, शोधः कमाल बसयूनी ज़ग़लूल, बैरूत, दार अल कुतुब अल इल्मीया, 1411 हिजरी