हसन बिन अली बिन अबी तालिब (अ) (अरबी: الإمام الحسن المجتبى عليه السلام) इमाम हसन मुज्तबा (3 हिजरी-50 हिजरी) के नाम से प्रसिद्ध, शियों के दूसरे इमाम थे, वह दस साल (40-50 हिजरी) तक इमामत के पद पर और लगभग 7 महीने तक मुसलमानों के ख़लीफा रहे। अहले सुन्नत उन्हें राशिदीन ख़लीफाओं का आख़िरी ख़लीफ़ा मानते हैं।
शियों के दूसरे इमाम | |
नाम | हसन बिन अली |
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उपाधि | अबू मुहम्मद |
चरित्र | शियों के दूसरे इमाम |
जन्मदिन | 15 रमज़ान वर्ष 3 हिजरी |
इमामत की अवधि | 10 वर्ष (40 हिजरी से 50 हिजरी तक) |
शहादत | 28 सफ़र वर्ष 50 हिजरी |
दफ़्न स्थान | मदीना |
जीवन स्थान | मदीना, कूफ़ा |
उपनाम | मुज्तबा, सय्यद, ज़की, सिब्त |
पिता | इमाम अली (अ) |
माता | हज़रत फ़ातिमा (स) |
जीवन साथी | उम्मे बशीर, ख़ूला, उम्मे इस्हाक़, हफ़्सा, हिन्द, जोअदा |
संतान | ज़ैद, उम्मे हसन, उम्मे हुसैन, हसन, उमर, क़ासिम, अब्दुल्लाह, अबू बक्र, अब्दुर्रहमान, हुसैन, तलहा, उम्मे अब्दुल्लाह, उम्मे सलमा, रुक़य्या |
आयु | 47 वर्ष |
शियों के इमाम | |
अमीरुल मोमिनीन (उपनाम) . इमाम हसन मुज्तबा . इमाम हुसैन (अ) . इमाम सज्जाद . इमाम बाक़िर . इमाम सादिक़ . इमाम काज़िम . इमाम रज़ा . इमाम जवाद . इमाम हादी . इमाम हसन अस्करी . इमाम महदी |
हसन बिन अली, इमाम अली (अ) और फ़ातेमा ज़हरा (स) की पहली संतान और पैगंबर (स) के पहले पोते हैं। ऐतिहासिक रिपोर्टों के अनुसार, पैगंबर (स) ने उनके लिए "हसन" नाम चुना और वह उन्हें बहुत प्यार करते थे। वह अपने जीवन के सात वर्षों तक पैगंबर (स) के साथ थे और बैअते रिज़वान (रिज़वान निष्ठा की प्रतिज्ञा) और नजरान के ईसाइयों के साथ मुबाहेला में उपस्थित थे।
शिया और सुन्नी स्रोतों में इमाम हसन (अ) के गुणों का उल्लेख है। वह असहाबे केसा में से एक है जिनके बारे में आयत ततहीर नाज़िल हुई और शिया उन्हें मासूम (पाप से पवित्र) मानते हैं। आयत इतआम, आयत मवद्दत, और आयत मुबाहेला भी उनके, उनके माता-पिता और उनके भाई के बारे में नाज़िल हुई। उन्होने दो बार अपनी सारी संपत्ति और तीन बार आधी संपत्ति अल्लाह की राह में जरूरतमंदों को दे दी। इन परोपकारों के कारण, उन्हे "करीमे अहले-बैत" कहा गया है। उन्होने 20 या 25 बार पैदल हज किये हैं।
पहली और दूसरी खिलाफ़त के दौरान उनके जीवन के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। दूसरे खलीफ़ा के आदेश पर वह तीसरा ख़लीफा नियुक्त करने के लिए छह सदस्यीय परिषद में साक्षी के रूप में उपस्थित हुए। तीसरे ख़लीफा के काल में कुछ युद्धों में उनके भाग लेने की भी सूचना मिलती है। उस्मान की खिलाफ़त के विरोध मेंं होने वाले विद्रोह में, उन्होंने इमाम अली (अ) के आदेश पर ख़लीफा के घर की रक्षा की। इमाम अली (अ) की खिलाफ़त के दौरान वह उनके साथ कूफा गये और जमल और सिफ़्फीन की लड़ाई में उनकी सेना के कमांडरों में से एक थे।
इमाम अली (अ) की शहादत के बाद हसन बिन अली 21 रमज़ान 40 हिजरी को इमामत के पद पर पहुंचे और उसी दिन चालीस हजार से अधिक लोगों ने खिलाफ़त के लिए उनके प्रति निष्ठा की शपथ (बैअत) ली। मुआविया ने उनकी खिलाफ़त को स्वीकार नहीं किया और सीरिया से एक सेना के साथ इराक़ का रुख़ किया। इमाम हसन (अ) ने उबैदुल्लाह बिन अब्बास के नेतृत्व में एक सेना मुआविया की ओर भेजी और वह स्वयं एक अन्य समूह के साथ साबात चले गए। मुआविया ने इमाम हसन (अ) के सैनिकों के बीच अफ़वाह फैलाकर शांति स्थापित करने की कोशिश की। ऐसी स्थिति में, इमाम हसन (अ) पर एक ख़ारेजी ने हमला कर दिया और वह घायल हो गए थे और उन्हें इलाज के लिए मदाइन में स्थानांतरित किया गया। उसी समय, कूफ़ा के नेताओं के एक समूह ने मुआविया को एक पत्र लिखा और हसन बिन अली को उसके सामने आत्मसमर्पण करने या उन्हे मारने का वादा किया। मुआविया ने कूफियों के पत्रों को हसन बिन अली (अ) के पास भेज दिया और उन्हें शांति की पेशकश की। इमाम मुज्तबा (अ) ने शांति को स्वीकार किया और खिलाफ़त को मुआविया को सौंप दिया, इस शर्त पर कि मुआविया ईश्वर की किताब और पैगंबर (स) की सुन्नत के अनुसार काम करेगा और अपने लिए उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं करेगा और अली (अ) के शिया सहित सभी लोगों को सुरक्षा दी जायेगी। बाद में मुआविया ने इनमें से किसी भी शर्त को पूरा नहीं किया। मुआविया के साथ शांति से इमाम हसन (अ) के कई साथी उनसे नाराज़ हो गये, और कुछ ने उन्हें "मुज़िल अल-मोमिनीन" (विश्वासियों का अपमान करने वाला) भी कहा।
41 हिजरी में शांति की घटना के बाद, वह मदीना लौट आए और अपने जीवन के अंत तक वहीं रहे। वह मदीना में एक वैज्ञानिक प्राधिकारी थे और कुछ रिपोर्टों के अनुसार, वहां के समाज में उच्च स्थान रखते थे।
जब मुआविया ने अपने बेटे यज़ीद के शासन के प्रति निष्ठा प्राप्त करने का फैसला किया, तो उसने इमाम को ज़हर देने के लिए जोअदा (इमाम हसन (अ) की पत्नी) को एक लाख दिरहम भेजे। कहा जाता है कि हसन बिन अली (अ) की शहादत ज़हर खाने के 40 दिन बाद हुई। एक रिवायत के मुताबिक, उन्होने पैगंबर (स) की क़ब्र के बग़ल में दफ़नाने के लिए वसीयत की गई थी, लेकिन मरवान बिन हकम और बनी उमय्या के कुछ लोगों ने ऐसा नही होने दिया। उनके शरीर को जन्नतुल बक़ीअ क़ब्रिस्तान में दफ़्न किया।
इमाम मुज्तबा (अ) के समस्त भाषणों और लेखों और उनसे हदीस नक़्ल करने वाले 138 लोगों के नाम मुसनद अल-इमाम अल-मुजतबा (अ) किताब में एकत्रित किए गए हैं।
संक्षिप्त परिचय
हसन बिन अली बिन अबी तालिब, इमाम अली (अ) और फ़ातिमा ज़हरा (स) के पहले बेटे और इस्लाम के पैगंबर (स) के पहले पोते हैं। [१] उनका वंश बनी हाशिम और कुरैश तक पहुंचता है। [२]
- नाम, उपनाम, कुन्नियत
मुख्य लेख: इमाम हसन (अ) के उपनामों और कुन्नियतों की सूची
"हसन" शब्द का अर्थ अच्छा होता है। पैगंबर (स) ने उनके लिए यह नाम चुना। [३] कुछ हदीसों में उल्लेख किया गया है कि यह नामकरण ईश्वरीय आदेश से किया गया था। [४] हसन और हुसैन नाम शब्बर और शबीर (या शब्बीर), [५] हारून के पुत्रों के नाम के बराबर हैं। [६] अरब लोगों के बीच इस्लाम से पहले जिसका कोई उदाहरण नहीं था। [७]
उनके उपनाम में उनकी कुन्नियत "अबू मुहम्मद" और "अबुल कासिम" [८] और मुजतबा (चुना हुआ), सय्यद (सरदार) और ज़की (शुद्ध) जैसे लक़ब उल्लेख किए गए हैं।[९] कुछ उपनाम हसनैन (इमाम हसन व इमाम हुसैन) के बीच साझा हैं जैसे सय्यदा शबाबे अहलिल जन्नह और "रेहानतो नबी-अल्लाह" [१०] और सिब्त। [११] पैगंबर (स) की एक हदीस में कहा गया है: "हसन असबात में से एक है"। [१२] हदीसों और क़ुरआन की कुछ आयतों में, "सब्त" शब्द का अर्थ, (जिसका बहुवचन असबात है) ऐसा इमाम और नक़ीब है। जो अल्लाह द्वारा चुना गया और नबियों का वंशज हो। [१३]
इमामत
हसन बिन अली शियों के दूसरे इमाम हैं। इमाम अली (अ) की शहादत के बाद 40वें चांद्र वर्ष के 21 रमज़ान को वह इमामत के पद पर पहुंचे और दस साल तक इस पद पर रहे।[१४] शेख़ कुलैनी (मृत्यु 329 हिजरी) ने अपनी किताब अलकाफी में, इमाम हसन की इमामत के पद से संबंधित सारी हदीसों को एकत्रित किया है।[१५] इनमें से एक कथन के अनुसार, इमाम अली (अ) ने अपनी शहादत से पहले और अपने बच्चों और शिया बुजुर्गों की उपस्थिति में इमाम हसन को किताब और हथियार (इमामत की अमानतें) दिये और कहा कि पैगंबर (स) ने उन्हें हसन को अपने निष्पादक (वसी) के रूप में नियुक्त करने का आदेश दिया था।[१६] एक अन्य हदीस के अनुसार, इमाम अली (अ) ने इमामत की कुछ अमानतों को कूफ़ा जाते समय उम्मे सलमा को सौंपा, और इमाम हसन (अ) ने कूफ़ा से लौटने के बाद, उन्हें उनसे प्राप्त किया।[१७] शेख़ मुफ़ीद (मृत्यु 413 हिजरी) ने अपनी पुस्तक अल इरशाद में उल्लेख किया है कि हसन (अ) अपने पिता की औलाद और असहाब में उन के संरक्षक थे।[१८][नोट १] इसी तरह से हसन बिन अली (अ) की इमामत पैगंबर (स) के कथनों पर आधारित है जैसे اِبنای هذانِ امامان قاما او قَعَدا (अनुवाद: मेरे ये दो बेटे इमाम हैं, चाहे वे क़याम करें या सुल्ह)[१९] और बारह ख़लीफाओं की हदीस [२०] से भी यह तर्क दिया गया है।[२१] अपनी इमामत के पहले कुछ महीनों में, इमाम हसन (अ) कूफ़ा में रहते थे और खिलाफ़त के पद पर असीन थे।
बचपन और जवानी
प्रसिद्ध कथन के अनुसार, [स्रोत की आवश्यकता] इमाम हसन (अ) का जन्म 15 रमज़ान वर्ष 3 हिजरी में हुआ। [२२] कुछ स्रोतों ने उनके जन्म को हिजरी के दूसरे वर्ष में माना है। [२३] उनका जन्म मदीना में हुआ। [२४] और पैगंबर (स) ने उनके कान में अज़ान कही [[२५] और जन्म के सातवें दिन, उन्होंने एक की भेड़ बली करके उनका अक़ीक़ा किया। [२६]
कुछ सुन्नी रिपोर्टों के अनुसार, पैगंबर (स) के हसन नाम चुनने से पहले, इमाम अली (अ) ने उनके लिए हमज़ा [२७] या हर्ब [२८] नाम पर विचार किया था, लेकिन जब पैगंबर ने उनसे नाम के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वह अपने बच्चे का नामकरण करने में ईश्वर के दूत से आगे नहीं बढ़ेंगे। [२९] शिया शोधकर्ताओं में से एक, बाकिर शरीफ़ करशी ने इन रिपोर्टों को खारिज करने के कारणों को सूचीबद्ध किया है। [३०]
बचपन की अवधि
हसन बिन अली (अ) के बचपन और किशोरावस्था के बारे में अधिक जानकारी नहीं है।[३१] उन्होंने अपने जीवन के आठ साल से कम पैग़ंबर (स)[नोट २] के साथ बिताए और इस कारण से उनका नाम सहाबियों के अंतिम वर्ग में उल्लेख किया गया है।[३२] उनके और उनके भाई इमाम हुसैन (अ) के लिए पैगंबर (स) के बेहद प्रेम के बारे में रिपोर्टें अधिकांश शिया और सुन्नी स्रोतों में पाई जाती हैं।[३३]
इस अवधि की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक नजरान के ईसाइयों के साथ पैगंबर (स) के मुबाहेला में उनके माता-पिता और भाई के साथ उनकी उपस्थिति है। वह और उनके भाई मुबाहेला की आयत में "अबना'अना" (बेटों) शब्द के उदाहरण थे।[३४] सय्यद जाफ़र मुर्तज़ा के अनुसार, वह रिज़वान निष्ठा प्रतिज्ञा (बैअते रिज़वान) में भी उपस्थित थे और उन्होने पैग़ंबर के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा की थी।[३५] क़ुरआन की आयतें उनके और असहाबे केसा के बारे में नाज़िल हुई हैं।[३६][३७] ऐसा कहा गया है कि जब वह सात साल के थे, पैगंबर (स) की सभा में भाग लिया करते थे और जो कुछ पैग़ंबर पर वही के ज़रिये नाज़िल होता था वह अपनी माँ को बताते थे।[३८]
सुलैम बिन क़ैस (वफ़ात पहली हिजरी शताब्दी के अंत में) से यह वर्णन किया गया है कि ईश्वर के दूत (स) की वफ़ात के बाद, जब अबू बक्र ने ख़िलाफ़त को अपने हाथों में ले लिया, वह अपने पिता, माता और भाई के साथ रात में अंसार के घर के दरवाजे पर जाते थे और उनसे इमाम अली (अ) के समर्थन के लिये कहते थे।।[३९] यह भी कहा जाता है कि उन्हे अबू बक्र के पैगंबर (स) के मंच (मिंबर) पर बैठने पर आपत्ती थी।[४०]
यौवन काल
इमाम हसन (अ) के यौवन काल से संबंधित विवरण सीमित हैं, उदाहरण के लिए, "अल-इमामा वल-सियासह" में कहा गया है कि, दूसरे ख़लीफ़ा के आदेश से, हसन बिन अली ख़लीफा नियुक्त करने के लिए छह सदस्यीय परिषद में गवाह के रूप में उपस्थित थे।। [४१]
कुछ सुन्नी स्रोतों में यह कहा गया है कि हसनैन वर्ष 26 हिजरी में [४२] अफ़रिक़ीया के युद्ध में और वर्ष 29 या 30 हिजरी में [43] तबरिस्तान के युद्ध में मौजूद थे। [४३] इस तरह के कथनों के समर्थक और विरोधी दोनों हैं। जाफ़र मुर्तज़ा आमीली ने उनकी दस्तावेजी (हदीस की सनद) समस्याओं और विजय की पद्धति के लिए इमामों (अ) के विरोध को देखते हुए, उन्हें नक़ली माना है और इमाम अली (अ) के हसनैन के सिफ़्फ़ीन के युद्ध के मैदान में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देने को, इसकी पुष्टि के रूप में पेश किया है। [४४] विल्फ्रेड मैडलॉन्ग का मानना है कि इमाम अली (अ) शायद अपने बेटे हसन को कम उम्र में युद्ध के मामलों से परिचित कराना चाहते थे और उन्हे युद्ध के अनुभवों को सीखाना चाहते थे। [४५]
इस अवधि से संबंधित अन्य रिपोर्टों में यह है कि जब भी लोग हज़रत अली (अ) से उस्मान की शिकायत करते, वह अपने बेटे इमाम हसन को उस्मान के पास भेजते थे। [४६] बलाज़री के अनुसार, उस्मान की खिलाफ़त के अंत में लोगों के विद्रोह की कहानी में, जिसमें उनके घर की घेराबंदी और पानी की आपूर्ति बंद कर दी गई, और अंत में उनकी मृत्यु का कारण बनी, हसन बिन अली और उनके भाई हुसैन बिन अली, इमाम अली (अ) के आदेश पर कुछ अन्य लोगों के साथ उनके घर की रक्षा की। [४७] काज़ी नोमान अल-मग़रिबी (मुत्यु 363 हिजरी) और दलाई अल-इमामह के लेखक के अनुसार, विद्रोहियों द्वारा उस्मान को पानी की आपूर्ति बंद करने के बाद, इमाम मुजतबा (अ) ने उस्मान को पिता के आदेश पर उनके घर में पानी पहुचाया। [४८] ऐसी खबरें हैं कि हसन बिन अली इस घटना में घायल हो गए थे।[४९] लेकिन अल्लामा अमीनी जैसे कुछ शिया विद्वानों ने इन रिपोर्टों को नक़ली माना है। [५०] सय्यद मुर्तज़ा, इस बात में संदेह करने के बाद कि अमीरुल मोमिनीन (अ) ने हसनैन (अ) को उस्मान की रक्षा के लिए भेजा था, ने कहा कि इस कार्रवाई का कारण खलीफ़ा की जानबूझकर हत्या को रोकना और उनके परिवार के लिए पानी और भोजन भेजना था, उन्हे ख़िलाफ़त से हटाने के रोकने के लिये नहीं था, क्योंकि वह अपने ग़लत कामों के कारण खिलाफ़त से हटाए जाने के योग्य थे। [५१]
यह भी देखें: उस्मान की हत्या की कहानी
पत्नियां और बच्चे
- मुख्य लेख: इमाम हसन (अ) पत्नियाँ
हसन बिन अली (अ) की पत्नियों और बच्चों की संख्या के बारे में अलग-अलग रिपोर्टें हैं। हालांकि ऐतिहासिक स्रोतों ने इमाम हसन (अ) के लिए अधिकतम 18 पत्नियों का उल्लेख किया है,[५२] लेकिन उनकी पत्नियों के लिये 250,[५३] 200,[५४] 90,[५५] और 70[५६] जैसे आंकड़ों और संख्या का उल्लेख किया गया है।
कुछ सूत्रों ने उनकी बहुत अधिक शादियों और तलाक़ का जिक्र करते हुए उन्हें "मितलाक़" (बहुत अधिक तलाक़ देना वाला) कहा है।[५७] इसके अलावा, उन्होंने कहा है कि हसन बिन अली (अ) की कनीज़ें भी थीं और उनमें से कुछ से उनके बच्चे भी थे।[५८]
इमाम हसन (अ) के तलाक़ की चर्चा कुछ प्राचीन और समकालीन स्रोतों में ऐतिहासिक, दस्तावेजी और सामग्री आलोचना के अधीन रही है।[५९] मैडेलोंग के अनुसार, इमाम हसन (अ) की 90 पत्नियां होने की अफ़वाह फैलाने वाले पहला व्यक्ति मुहम्मद बिन कलबी था और यह संख्या "मदाइनी" (मुत्यु 225 हिजरी) द्वारा बनाई गई थी। जबकि कलबी ने खुद केवल ग्यारह महिलाओं के नाम का उल्लेख किया है, उनमें से पांच का इमाम हसन (अ) के साथ विवाह संदिग्ध है।[६०] करशी ने इन ख़बरों को हसनी सादात का सामना करने के उद्देश्य से बनी अब्बासी द्वारा मनगढ़ंत माना है। [६१]
इमाम मुजतबा (अ) के बच्चों की संख्या में भी अंतर है। शेख़ मुफ़ीद ने उनके बच्चों की संख्या 15 बताई है।[६२]
पत्नीयां | बच्चे |
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जोअ्दा | - |
उम्मे बशीर | ज़ैद, उम्मुल हसन व उम्मुल हुसैन |
ख़ौला | हसन मुसन्ना |
उम्मे इस्हाक़ | हुसैन, तलहा व फ़ातिमा |
नफ़ीला व रमला | उमर, क़ासिम व अब्दुल्लाह |
कुछ अन्य पत्नियां | अब्दुर्रहमान, उम्मे अब्दुल्लाह, फ़ातेमा, उम्मे सलमा व रुक़य्या |
फ़ज़्ल बिन हसन तबरसी ने इमाम हसन (अ) की 16 संतानों का उल्लेख किया है और अबू बक्र को भी उनके बच्चों में से एक माना है, जो आशूरा की घटना में कर्बला में शहीद हुए।[६३]
- इमाम हसन की वंश
- मूल लेख: हसनी सादात
इमाम हसन (अ) का वंश हसन मुसन्ना, ज़ैद, उमर और हुसैन असरम से आगे बढ़ा। हुसैन और उमर की पीढ़ी का कुछ समय बाद अंत हो गया, और केवल हसन मुसन्ना और ज़ैद बिन हसन की उनका वंश बाक़ी रहा।[६४] उनके बच्चों को हसनी सादात कहा जाता है।[६५] उनमें से कई ने इतिहास में सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन किए, और दूसरी और तीसरी शताब्दी में, उन्होंने अब्बासी सरकार के विरुद्ध विद्रोह किया और इस्लामी देशों के विभिन्न भागों में सरकारों की स्थापना की। सादात के इस वंश को मोरक्को जैसे कुछ क्षेत्रों में शुराफ़ा के नाम से जाना जाता है।[६६]
कूफ़ा में निवास और इमाम अली (अ) की ख़िलाफ़त
अमीरुल मोमिनीन (अ) की पांच साल के खिलाफ़त के दौरान, इमाम मुज्तबा अपने पिता के पक्ष में सभी चरणों में उपस्थित थे।[६७] किताब अल-इख़्तेसास के अनुसार, हसन बिन अली (अ), लोगों द्वारा इमाम अली (अ) के प्रति निष्ठा की शपथ लेने के बाद, अपने पिता के अनुरोध पर मंच पर गए और लोगों को संबोधित किया।[६८] इमाम अली के कूफा में आगमन के पहले दिनों के बारे में किताब वक़अतो सिफ़्फीन की रिपोर्ट से ऐसा प्रतीत होता है कि हसन बिन अली भी पहले दिन से ही अपने पिता के साथ कूफ़ा आ गये थे।[६९]
- जमल की जंग में
कुछ रिपोर्टों के अनुसार, नाकेसीन (शपथ तोड़ने वाले) के विद्रोह और इमाम अली (अ) और उनके सैनिकों के उनके मुक़ाबले के लिये हरकत करने के बाद, हसन बिन अली ने रास्ते में अपने पिता से इस युद्ध से बचने का अनुरोध किया।[७०][नोट ३] शेख़ मुफ़ीद (वफ़ात 413 हिजरी) के कथन के अनुसार, इमाम हसन (अ) को उनके पिता ने अम्मार बिन यासिर और क़ैस बिन साद के साथ मिलकर उनकी सेना में शामिल होने के लिए कूफ़ा के लोगों को लामबंद करने के लिए नियुक्त किया था।[७१] उन्होंने कूफ़ा में लोगों को उपदेश दिया और इमाम अली (अ) के गुणों का उल्लेख करने और तलहा और ज़ुबैर के समझौते को तोड़ने पर, उन्हें इमाम अली (अ) की मदद करने के लिए बुलाया।[७२]
जमल की लड़ाई में, जब अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर ने इमाम अली (अ) पर उस्मान की हत्या का आरोप लगाया, तो हसन बिन अली ने एक उपदेश दिया और उस्मान की हत्या में जुबैर और तल्हा की भूमिका की ओर इशारा किया।[७३] इमाम मुजतबा (अ) इस युद्ध में सेना के दाहिने हिस्से के सेनापति थे।[७४] इब्ने शहर आशोब एक हदीस में उल्लेख करते है कि इमाम अली (अ) ने इस लड़ाई में मुहम्मद हनफिया को अपना भाला दिया और उनसे आयशा के ऊंट को मारने के लिए कहा, लेकिन वह सफल नहीं हुए, फिर हसन बिन अली ने भाला लिया और ऊंट को घायल करने में सफल हुए।[७५] कहा जाता है कि जमल की लड़ाई के बाद, इमाम अली (अ) बीमार पड़ गए और उन्होने बसरा के लोगों के लिये शुक्रवार की नमाज़ का नेतृत्व अपने बेटे इमाम हसन के हवाले किया। उन्होने नमाज़ के अपने धर्मोपदेश में, अहले-बैत (अ) के गुणों और उनके हक़ में कार्य करने में विफलता के परिणामों का उल्लेख किया।[७६]
- सिफ़्फ़ीन की जंग
इस जवान को रोको ताकि यह युद्ध का इरादा न कर सके और मेरे पीठ पीछे इस की हत्या न कर दी जाए, हसन और हुसैन, रसूले ख़ुदा के बेटे हैं और इनकी हत्या करना यानि रसूले ख़ुदा के वंश को ख़त्म करना है।
नस्र बिन मुज़ाहम (मृत्यु 212 हिजरी) के अनुसार, इमाम अली की सेना के सिफ़्फीन की ओर हरकत करने से पहले हसन बिन अली ने उपदेश दिया और लोगों को जिहाद का शौक़ दिलाया।[७७] कुछ रिपोर्टों के अनुसार, वह अपने भाई हुसैन बिन अली (अ) के साथ सेना के दाहिने विंग के प्रभारी थे।[७८] इसकाफ़ी (मुत्यु 240 हिजरी) की रिपोर्ट में कहा गया है कि युद्ध के बीच में जब हसन बिन अली का सामना शाम की फौज के एक बुजुर्ग से हुआ तो उसने इमाम से लड़ने से इंकार कर दिया और कहा, "मैंने ईश्वर के दूत (स) को ऊंट की सवारी करते देखा है और आप उनके आगे बैठे हुए थे।" मैं अपनी गर्दन पर आपके खून के साथ ईश्वर के दूत (स) से नहीं मिलना चाहता।[७९]
वक़अतो सिफ़्फीन पुस्तक में, यह कहा गया है कि उबैदुल्लाह बिन उमर (दूसरे खलीफा के बेटे) ने युद्ध के दौरान हसन बिन अली (अ) से मुलाकात की और उन्हें अपने पिता के बजाय ख़िलाफ़त पर क़ब्जा करने का सुझाव दिया, क्योंकि कुरैशी अली (अ) को अपना दुश्मन मानते हैं। इमाम हसन (अ) ने जवाब दिया: मैं अल्लाह की क़सम खाता हूं, ऐसा कभी नहीं होगा। उसके बाद उससे कहा, मैं देखता हूं, कि तू आज कल में मार डाला जाएगा, बेशक शैतान ने तुझे बहका दिया है। वक़अतो सिफ़्फीन के अनुसार, उस युद्ध में ओबैदुल्ला बिन उमर मारा गया था।[८०] युद्ध की समाप्ति और मध्यस्थता (हकमीयत) के बाद, हसन बिन अली ने अपने पिता के अनुरोध पर लोगों को भाषण दिया।[८१]
सिफ़्फीन से वापसी के रास्ते में, इमाम अली (अ) ने अपने बेटे इमाम हसन (अ) को नैतिक और शैक्षिक सामग्री पर आधारित एक पत्र लिखा है।[८२] जिसे नहजुल बलाग़ा में, अक्सर पत्र 31 के रूप में वर्णित किया गया है।[८३]
"अल-इस्तियाब" किताब में कहा गया है कि हसन बिन अली (अ) नहरवान की जंग में भी मौजूद थे।[८४] कुछ रिपोर्टों में यह भी कहा गया है कि इमाम अली (अ) अपने जीवन के अंतिम दिनों में, जब वह फिर से मुआविया का सामना करने के लिए एक सेना तैयार कर रहे थे, तो उन्होने अपने बेटे इमाम हसन को दस हजार लोगों की सेना का नेतृत्व करने के लिए नियुक्त किया।[८५]
खिलाफ़त की कम अवधि
इमाम मुज्तबा (अ) 21 रमजान 40 हिजरी[८६] से 6 से 8 महीने तक मुसलमानों के खलीफ़ा थे।[८७] पैगंबर (स) की एक हदीस के संबंध से अहले सुन्नत उन्हे अपना अंतिम राशिद ख़लीफ़ा मानते हैं।[८८] उनकी खिलाफ़त इराक़ के लोगों की निष्ठा और अन्य आसपास की जनता के समर्थन के साथ शुरू हुई।[८९] मुआविया के नेतृत्व में सीरिया के लोगों ने इस खिलाफ़त का विरोध किया।[९०] मुआविया शाम की फ़ौज के साथ इराक़ वासियों से जंग के लिये आया।[९१] यह जंग अंत में शांति और बनी उमय्या के पहले ख़लीफा, मुआविया की खिलाफ़त पर ख़त्म हुई।[९२]
मुसलमानों की निष्ठा और सीरिया वालों का विरोध
शिया और सुन्नी स्रोतों के अनुसार, 40 हिजरी में अमीरुल मोमिनीन की शहादत के बाद लोगों ने ख़लीफ़ा के लिए हसन बिन अली (अ) के प्रति निष्ठा की शपथ ली।[९३] बलाज़री (मृत्यु 279 हिजरी) के अनुसार, ओबैदुल्लाह बिन अब्बास इमाम अली (अ) के शरीर को दफ़्न करने के बाद लोगों के पास आए और उन्हें इमाम की शहादत के बारे में सूचित किया और कहा: उन्होंने अपने बाद एक योग्य और सहिष्णु उत्तराधिकारी छोड़ा है। यदि आप चाहें तो उनके प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा करें।[९४] अल-इरशाद की पुस्तक में यह कहा गया है कि 21 रमज़ान शुक्रवार की सुबह, हसन बिन अली ने मस्जिद में एक उपदेश दिया और अपने पिता की खूबियों और गुणों को सूचीबद्ध किया और पैगंबर (स) के साथ अपने बंधन पर ज़ोर दिया। उन्होंने अपने विशेषाधिकारों के लिए अहले-बैत की विशेष स्थिति के बारे में कुरआन की आयतों का हवाला दिया।[९५] उनके बाद, अब्दुल्लाह बिन अब्बास खड़े हुए और लोगों से कहा: अपने पैगंबर के बेटे और अपने इमाम के उत्तराधिकारी के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा करें। लोगों ने भी उसके प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा की।[९६] सूत्रों ने निष्ठा की प्रतिज्ञा करने लोगों की संख्या चालीस हजार से अधिक उल्लेख की है।[९७] तबरी के अनुसार, इमाम अली की सेना के कमांडर क़ैस बिन साद बिन उबादा, निष्ठा की प्रतिज्ञा करने वाले पहले व्यक्ति थे।[९८]
मुआविया बिन सख़र सोच रहा है कि मैं उसे ख़िलाफ़त के योग्य मानता हूँ और मैं ख़ुद को इस पद का योग्य नहीं समझता। मुआविया झूठ बोल रहा है। अल्लाह की क़सम, हम अल्लाह की किताब में और रसूले ख़ुदा के शब्दों में, लोगों में सब से उच्चतम हैं, रसूले ख़ुदा (स) के इस दुनियाँ से चले जाने के बाद, हम अहलेबैत पर बहुल ज़ुल्म और अत्याचार किया गया, जिस ने हम पर ज़ुल्म और अत्याचार किया अल्लाह उनका फ़ैसला करेगा।
किताब तशय्यो दर मसीरे तारीख़ में हुसैन मुहम्मद जाफ़री के अनुसार, पैगंबर (स) के कई सहाबी जो कूफा के निर्माण के बाद इस शहर में बस गए थे या इमाम अली की ख़िलाफ़त के दौरान उनके साथ कूफा आए थे, ने इमाम हसन के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा में भाग लिया या उनकी खिलाफ़त को स्वीकार कर लिया।[९९] प्रमाणों के आधार पर जाफ़री का मानना है कि मक्का और मदीना के लोग भी हसन बिन अली की ख़िलाफ़त से सहमत थे और इराक़ के लोग उन्हें इस पद के लिए एकमात्र विकल्प मानते थे।[१००] जाफ़री के अनुसार, यमन और फ़ार्स के लोगों ने भी इस निष्ठा को मौन रूप से स्वीकार किया है, या कम से कम, इस पर आपत्ति या इसका विरोध नहीं किया है।[१०१]
कुछ स्रोतों में, यह कहा गया है कि निष्ठा की शपथ के दौरान, शर्तों को उठाया गया था; अन्य बातों के अलावा, "अल-इमामा वल-सियासह" में उल्लेख किया गया है कि हसन बिन अली ने लोगों से कहा: क्या आप मेरे आदेश का पालन करने के लिए निष्ठा की प्रतिज्ञा करते हैं और जिससे मैं जंग करूंगा उससे जंग और जिससे मैं शांति करुंगा उसके साथ शांति करने के लिये तैयार हैं? जब उन्होंने यह सुना, तो वे हिचकिचाए और हुसैन बिन अली (अ) के पास उनसे बैअत करने के लिए गए, लेकिन उन्होंने कहा: मैं अल्लाह की पनाह माँगता हूँ कि जब तक हसन ज़िंदा हैं, मैं तुमसे बैअत करूँ। वे लौटे और हसन बिन अली के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा की।[१०२] तबरी (मृत्यु 310 हिजरी) ने अनुसार क़ैस बिन साद ने निष्ठा की प्रतिज्ञा के दौरान उसके साथ एक शर्त रखी कि वह ईश्वर की पुस्तक और पैगंबर की सुन्नत के अनुसार कार्य करें। और उनसे लड़ें जो मुसलमानों के खून को हलाल मानते हैं।; लेकिन इमाम हसन (अ) ने केवल खुदा की किताब और पैगंबर की सुन्नत को स्वीकार किया और माना कि बाक़ी शर्ते इन ही दो स्थितियों से उत्पन्न होती है।[१०३] कुछ लोगों ने इस तरह की बातों से यह नतीजा निकाल लिया कि वह एक शांति प्रिया व जंग से दूर रहने वाले व्यक्ति हैं और उनका जीवन और चरित्र उनके पिता और भाई से अलग था।[१०४][१०५]
रसूल जाफ़रियान का मानना है कि इन स्थितियों का मतलब यह नहीं था कि हसन बिन अली शुरू से ही जंग का इरादा नहीं रखते थे, बल्कि उनका मुख्य लक्ष्य समाज के नेता के रूप में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र होने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र को बनाए रखना था, और यहां तक कि उनके बाद के कार्यों से पता चलता है कि उन्होने युद्ध पर ज़ोर दिया है।[१०६] अबुल फरज इसफ़हानी के अनुसार, खिलाफ़त के बाद हसन बिन अली (अ) की पहली कार्रवाइयों में से एक सैनिकों की मजदूरी में एक सौ प्रतिशत की वृद्धि करना था।[१०७]
मुआविया के साथ युद्ध और शांति
हसन बिन अली (अ) के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना मुआविया के साथ युद्ध है, जिसका समापन संधि पर हुआ।[१०८] उसी समय जब इराकी लोगों ने हसन बिन अली के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा की, और इसकी अंतर्निहित स्वीकृति हिजाज़, यमन और फारस के लोगों ने दी,[१०९] सीरिया के लोगों ने मुआविया के प्रति निष्ठा की शपथ ली।[११०] मुआविया ने अपने भाषणों और इमाम हसन (अ) के साथ पत्राचार में, इस प्रतिज्ञा को मान्यता न देने के अपने गंभीर निर्णय पर ज़ोर दिया।[१११] उसने उस्मान की हत्या के बाद से ही ख़ुद को ख़िलाफ़त के लिये तैयार किया हुआ था, एक सेना के साथ इराक़ की ओर बढ़ा।[११२] कुछ रिपोर्टों के अनुसार, इमाम हसन (अ) ने अपने पिता की शहादत और लोगों की निष्ठा की प्रतिज्ञा के लगभग पचास दिन बाद तक युद्ध या शांति के मामले में कोई कार्रवाई नहीं की।[११३][११४] जब उन्हें सीरियाई सेना की हरकत के बारे में पता चला, तो उन्होंने अपने सैनिकों के साथ कूफ़ा छोड़ दिया और मुआविया की ओर उबैदुल्ला बिन अब्बास की कमान में एक सेना भेजी।[११५]
- दो सेनाओं के बीच युद्ध
दोनों सेनाओं के बीच हुई झड़प और शामियों की हार के बाद, मुआविया ने रात में ओबैदुल्लाह को संदेश भेजा कि हसन बिन अली ने मुझे शांति की पेशकश की है और खिलाफ़त को मेरे ऊपर छोड़ देंगे। मुआविया ने उसे दस लाख दिरहम देने का वादा किया और वह मुआविया से मिल गया। उसके बाद क़ैस बिन साद ने इमाम की फ़ौज की कमान संभाली।[११६] बलाज़री (मृत्यु 279 हिजरी) के कथन के अनुसार, उबैदुल्लाह के शाम की सेना में शामिल होने के बाद, मुआविया ने सोचा कि इमाम हसन (अ) की सेना कमजोर हो गई है और उसने अपनी पूरी ताक़त से उन पर हमला करने का आदेश दिया, लेकिन इमाम की सेना ने क़ैस की कमान में, शामियों ने हरा दिया। मुआविया ने क़ैस को भी उबैदुल्लाह की तरह लालच देकर रास्ते से हटाने की कोशिश की, लेकिन वह सफल नहीं हुआ।[११७]
- साबात में इमाम हसन (अ) की स्थिति
दूसरी ओर, इमाम हसन (अ) अपनी सेना के साथ साबात गए। शेख़ मुफ़ीद के अनुसार, इमाम हसन (अ) ने अपने साथियों का परीक्षण करने और उनकी आज्ञाकारिता का अंदाज़ा लगाने के लिए, एक उपदेश पढ़ा और कहा: "एकता और हमदिली आपके लिए विभाजन और अलगाव से बेहतर है ...; दरअसल, जो योजना मैं आपके लिए सोचता हूं वह आपके लिए उस योजना से बेहतर है जो आपके पास है ..." उनके शब्दों के बाद, लोगों ने एक-दूसरे से कहा कि वह मुआविया के साथ शांति बनाने और खिलाफ़त को छोड़ने का इरादा रखते हैं। कुछ लोगों ने उनके तंबू पर धावा बोल दिया और उनका सामान लूट लिया और यहां तक कि उनके पैरों के नीचे से उनकी जा नमाज़ भी खींच ली।[११८] लेकिन याक़ूबी (मृत्यु 292 हिजरी) के अनुसार, इस घटना का कारण यह था कि मुआविया ने कुछ लोगों को हसन बिन अली के पास बात करने के लिए भेजा। जब वे उनके पास से लौटते हैं, तो वे एक-दूसरे से ऊँची आवाज़ में कहते हैं ताकि लोग सुन सकें: ईश्वर ने, अल्लाह के दूत के बेटे के माध्यम से, मुसलमानों के खून को बहने से बचाया और फ़ितनों का अंत किया; उन्होंने शांति को स्वीकार कर लिया। इन शब्दों को सुनकर, इमाम के सैनिक क्रोधित हो गए और उनके डेरे पर हमला कर दिया।[११९] इस घटना के बाद, इमाम हसन (अ) के करीबी साथियों ने उनकी सुरक्षा में लग गये, लेकिन रात के अंधेरे में, ख़्वारिज[१२०] में से एक उनके पास आया। और कहा: हे हसन, तुम बहुदेववादी (मुशरिक) हो गए जैसे तुम्हारे पिता एक बहुदेववादी हो गए थे; फिर उसने एक खंजर से उनके जांघ पर मारा और इमाम जो घोड़े पर सवार थे जमीन पर गिर गये।[१२१] हसन बिन अली (अ) को एक बिस्तर पर मदायन ले जाया गया और साद बिन मसऊद सक़फ़ी के घर ठहराया गया ताकि उनका इलाज किया जा सके।[१२२]
मुआविया और इमाम हसन (अ) के बीच युद्ध आखिरकार एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर के साथ समाप्त हुआ। रसूल जाफ़रियान के अनुसार, लोगों के आलस्य, समय की परिस्थितियों और शियों की सुरक्षा जैसे कारणों ने इमाम मुजतबा (अ) को शांति स्वीकार करने के लिए मजबूर किया।[१२३] इस समझौते के अनुसार, खिलाफ़त मुआविया को सौंप दी गयी।[१२४]
मुआविया से सुल्ह की कहानी
- मुख्य लेख: इमाम हसन (अ) की संधि
उसी समय जब इराक़ और सीरिया की दो सेनाएं आपस में भिड़ रही थीं, इमाम हसन (अ) पर जानलेवा हमला हुआ जिस में वह घायल हो गये और उपचार के लिये उन्हे मदायन ले जाया गया।[१२५] उनके उपचार के बीच कूफ़ा के कुछ बड़े नेताओं ने ख़ुफ़िया तौर पर मुआविया को पत्र लिखा और अपनी आज्ञाकारिता की घोषणा करते हुए उसे अपने पास आने के लिए प्रोत्साहित किया और हसन बिन अली को उसके सामने आत्मसमर्पण करने या उन्हे जान से मारने का वादा किया।[१२६] शेख़ मुफ़ीद (वफ़ात 413 हिजरी) के अनुसार, इमाम हसन (अ) ने जब यह ख़बर और उबैदुल्लाह के मुआविया की सेना में शामिल होने की ख़बर सुनी और दूसरी ओर उसने अपने साथियों की सुस्ती और अनिच्छा देखी, तो उन्होने महसूस किया कि केवल अपने शियों की एक छोटी संख्या के साथ, वह सीरिया की बड़ी सेना का मुक़ाबला नहीं कर सकते।[१२७] ज़ैद बिन वहब जहनी के अनुसार, मदायन में अपने इलाज के दौरान, इमाम ने उससे कहा: "मैं ईश्वर की क़सम खाता हूं, अगर मैं मुआविया से लड़ता हूं, तो इराक़ के लोग मेरी गर्दन पकड़ लेंगे और मुझे उसके हवाले कर देंगे।" खुदा की क़सम, अगर मैं इज़्ज़त की हालत में मुआविया से सुलह कर लूं, तो बेहतर है इससे कि मैं उसके द्वारा क़ैद में क़त्ल कर दिया जाऊं, या यह कि वह मुझ पर अहसान करे और मुझे क़त्ल न करे, और यह बनी हाशिम के लिये हमेशा के लिए एक बदनामी बन जाये।"[१२८]
मुआविया द्वारा शांति प्रस्ताव
ऐ लोगों! अगर आप पूर्व से पश्चिम तक में तलाश करें, मेरे और मेरे भाई के अलावा कोई ऐसा आपको नहीं मिलेगा जिसके नाना रसूले ख़ुदा (स) हों। ख़िलाफ़त जो हमारा अधिकार है मुआविया ने उस पर क़ब्ज़ा कर लिया है और मुझ से युद्ध करना चाहता है लेकिन मैंने उम्मत की भलाई और उनके जान की रक्षा के लिए,अपने अधिकार (ख़िलाफ़त) को नंज़रअंदाज़ कर दिया।
याक़ूबी के कथन के अनुसार, युद्ध को शांति में बदलने के लिए मुआविया की एक चाल यह थी कि उसने लोगों को इमाम हसन (अ) के सैनिकों के बीच यह अफ़वाह फैलाने के लिए भेजा कि क़ैस बिन साद भी मुआविया की सेना में शामिल हो गये है, और दूसरी ओर, उसने क़ैस की सेना में कुछ को यह अफ़वाह फैलाने के लिए भेजा कि हसन बिन अली ने शांति स्वीकार कर ली है।[१२९] इसी तरह से उसने कूफियों के आज्ञाकारिता की घोषणा के पत्र भी इमाम (अ) को भेज दिये और उनसे शांति की पेशकश की और खुद उनसे शर्तें तय करने के लिये कहा। शेख़ मुफ़ीद के अनुसार, हालांकि इमाम हसन (अ) मुआविया पर भरोसा नहीं करते थे और उसकी चालों से अवगत थे, उन्हें शांति स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं दिखाई दिया।[१३०] बेलाज़ारी की रिपोर्ट में कहा गया है कि मुआविया ने हसन बिन अली (अ) के लिए एक कोरा और मुहरबंद पन्ना भेजा ताकि वह उसमें जो भी शर्तें चाहें लिख दें।[१३१] इमाम हसन ने जब ऐसी स्थिति देखी तो लोगों से बात की और युद्ध या शांति के बारे में उनके विचार जानने चाहे तो लोगों ने "अल-बक़िया अल-बक़िया" (यानी हम जीना और जीवित रहना चाहते हैं) के नारे के साथ शांति स्वीकार करने का अनुरोध किया।[१३२] और इस तरह इमाम हसन (अ) ने शांति स्वीकार कर ली। शांति की स्थापना की तिथि 25 रबी अल-अव्वल[१३३] और कुछ स्रोतों में, रबी अल-सानी या जमादी अल-अव्वल[१३४] 41 हिजरी के रूप में दर्ज की गई है।
शांति समझौते के प्रावधान
शांति समझौते के प्रावधानों के बारे में विभिन्न रिपोर्टें हैं।[१३५] सूत्रों में उद्धृत प्रावधानों में से खिलाफत को मुआविया को इस शर्त पर सौंप दिया जाएगा कि वह खुदा की किताब और पैगंबर की सुन्नत के अनुसार काम करे। और राशिद खलीफाओं का तरीक़ा अपनाए और खुद के लिए उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं करना चाहिए और अली (अ) के शियों सहित सभी लोगों को सुरक्षा मिलना चाहिए।[१३६] शेख़ सदूक़ ने कहा कि जब इमाम हसन (अ) ने खिलाफ़त को मुआविया को सौंप दिया, तो उसके प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा की, इस शर्त पर कि वह उसे अमीरुल-मोमिनिन नहीं कहेंगे।[१३७]
कुछ स्रोतों में, यह कहा गया है कि इमाम हसन (अ) ने यह शर्त रखी कि मुआविया के बाद खिलाफ़त उन्हें सौंप दी जाएगी, और इसके अलावा, मुआविया उन्हें पांच मिलियन दिरहम का भुगतान करेगा।[१३८] सय्यद हुसैन मुहम्मद जाफ़री के अनुसार संधि के समय इन दोनो शर्तों के इमाम के प्रतिनिधि ने रखा, लेकिन इमाम ने स्वीकार नहीं किया और इस बात पर ज़ोर दिया कि मुआविया के बाद खलीफा की नियुक्ति मुस्लिम परिषद के पास होनी चाहिए, और वित्तीय मामलों के संबंध में, उन्होंने यह कहा कि मुआविया को मुस्लिम ख़जाने से इस तरह ख़र्च करने का अधिकार नहीं है।[१३९] कुछ ने यह भी कहा है कि पैसा देने की शर्त खुद मुआविया या उनके प्रतिनिधियों ने रखी थी।[१४०]
इमाम हसन (अ) के खिलाफ़त से हटने के बावजूद, उन्हें अभी भी शियों का इमाम माना जाता था, और यहाँ तक कि इमाम की शांति पर आपत्ति जताने वाले शियों ने भी कभी उनकी इमामत से इनकार नहीं किया, और वह जीवन का अंत पैगंबर के परिवार के मुखिया और बड़े थे।[१४१]
- प्रतिक्रियाएँ और परिणाम
रिपोर्टों के अनुसार, इमाम हसन की शांति के बाद, शियों के एक समूह ने इस पर खेद और नाराज़गी व्यक्त की[१४२] और यहां तक कि उनमें से कुछ ने इमाम को दोषी ठहराया और उन्हें "मुज़िल अल-मोमिनीन" (विश्वासियों का अपमान करने वाला) कहा।[१४३] इमाम ने सवालों और विरोध के जवाब दिए और "इमाम" के फैसले का पालन करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया और अपनी शांति का कारण हुदैबियह की शांति का कारण बताया, और उन्होने इस काम की हिकमत को, मूसा (अ) के साथ यात्रा करने की कहानी में, खिज़्र (अ) के कार्यों की हिकमत का आधार माना।[१४४]
कई ऐतिहासिक स्रोतों में कहा गया है कि मुआविया ने शांति समझौते[१४५] की शर्तों का पालन नहीं किया और हुज्र बिन अदी[१४६] सहित इमाम अली (अ) के कई शियों की हत्या कराई। यह वर्णन किया गया है कि मुआविया ने शांति के बाद कूफ़ा में प्रवेश किया और लोगों को उपदेश दिया और कहा: मैं अपनी हर शर्त वापस लेता हूं और मैं अपने हर वादे को तोड़ता हूं।[१४७] उसने यह भी कहा: मैंने तुम्हारे साथ नमाज़, उपवास और हज के लिये जंग नही की, बल्कि मैंने तुम पर शासन करने के लिए जंग की थी।[१४८]
मदीना निवास और धार्मिक प्राधिकरण
मुआविया के साथ सुलह करने के बाद, हसन बिन अली (अ) अपने कुछ शियों द्वारा कूफ़ा में रहने के अनुरोध के बावजूद मदीना लौट आए[१४९] और अपने जीवन के अंत तक वहीं रहे और केवल मक्का[१५०] और सीरिया की यात्राएँ कीं।[१५१] इमाम अली (अ) की शहादत के बाद और उनकी इच्छा (वसीयत) के अनुसार, उनके अवक़ाफ़ और दान के मुतवल्ली थे। किताब अल काफ़ी के अनुसार, यह वसीयत 10 जमादी अल-अव्वल 37 हिजरी में लिखी गई।[१५२]
शैक्षिक प्राधिकरण
लोगों को शिक्षित करने और मार्गदर्शन के लिए मदीना में इमाम हसन (अ) की लगातार बैठकों की खबरें हैं, जैसा कि इब्ने साद (मृत्यु 230 हिजरी), बलाज़री (मृत्यु 279 हिजरी) और इब्ने असाकर (मृत्यु 571 हिजरी) ने उल्लेख किया है कि हसन इब्न अली (अ) मस्जिद अल-नबी में सुबह की नमाज़ अदा करते थे और सूर्योदय तक पूजा करते थे। उसके बाद मस्जिद में मौजूद बुजुर्ग और लोग उनके पास बैठकर बहस व चर्चा करते थे। जोहर की नमाज़ के बाद भी उनकी यहा दिनचर्या थी।[१५३] अल-फुसुल अल-मुहिम्नह किताब में भी उल्लेख है कि हसन बिन अली पैगंबर की मस्जिद में बैठते थे और लोग उनके चारों ओर बैठ जाते थे और वह उनके सवालों का जवाब देते थे।[१५४] हालांकि, महदी पेशवाई के अनुसार, हसन बिन अली (अ) ने इस अवधि के दौरान एक प्रकार के अवांछित अलगाव और लोगों की अप्रियता का सामना किया, जिसने उस दिन के समाज के नैतिक विचलन का योगदान कहा जा सकता है।[१५५] अल्लामा सय्यद मुहम्मद हुसैन हुसैनी तेहरानी का मानना है कि इमाम हसन (अ) और इमाम हुसैन (अ) के इमामत का ज़माना बनी उमय्या के अत्याचारी शासन के कारण सबसे कठिन और काले समय में से एक था, और इन दोनों के जीवन की लंबी अवधि और इसी तरह से उनकी इमामत और शासन की अवधि को देखते हुए, स्वाभाविक रूप से उनसे हजारों आख्यान, हदीस, ख़ुतबे और उपदेश तफ़सीर और कुरआन में होने चाहिए हैं, लेकिन उनके ख़ुतबे, उपदेश और हदीसों के शब्द अत्यंत संक्षिप्त और कम हैं।[१५६]
सामाजिक रुतबा
ऐतिहासिक समाचारों से ऐसा प्रतीत होता है कि इमाम हसन (अ) की एक विशेष सामाजिक स्थिति थी। इब्ने साद (मृत्यु 230 हिजरी) की रिपोर्ट के अनुसार, जब लोग हज समारोह के दौरान हसन बिन अली को देखते थे, तो उनका आशीर्वाद लेने के लिए उनके चारो ओर भीड़ लग जाती थी, यहां तक कि हुसैन बिन अली (अ) कुछ अन्य लोगों की मदद से भीड़ को हटाया करते थे।[१५७] इसी तरह से उल्लेख हुआ है कि इब्ने अब्बास सहाबा के बुजुर्गों में से एक होने[१५८] और इमाम हसन (अ) से उम्र में बड़े होने के बावजूद, जब इमाम हसन घोड़े पर सवार होना चाहते थे तो वह उनके लिये रकाब को पकड़ते थे।[१५९]
राजनीतिक मामलों में दख़ल ना देना और मुआविया के साथ सहयोग ना करना
ऐसा कहा जाता है कि इमाम हसन (अ) के कुफा छोड़ने के बाद ख़वारिज का एक समूह मुआविया के खिलाफ़ लड़ने के लिए नुख़ैला में इकट्ठा हुआ। मुआविया ने हसन बिन अली को एक पत्र लिखा और उनसे वापस लौटने और उनके साथ लड़ने के लिए कहा। इमाम ने इनकार कर दिया और उसके जवाब में लिखा: अगर मैं एक क़िबला के लोगों में से किसी से लड़ना चाहता था, तो मैं तुझसे लड़ता।[१६०] इसके अलावा, जब ख्वारिज का एक और समूह हौसरा असदी[नोट ४] के नेतृत्व में मुआविया के खिलाफ़ खड़ा हुआ, मुआविया ने इमाम हसन (अ) से चाहा कि वह उनका सामना करें, लेकिन उन्होंने पहले जैसा ही जवाब दिया और उसके मुक़ाबले में मुआविया से लड़ने को ज्यादा उचित समझा।[१६१]
कुछ रिवायतों में कहा गया है कि इमाम मुजतबा (अ) ने मुआविया के उपहारों को उनके साथ न होने और उनके कार्यों का विरोध करने के बावजूद स्वीकार किया।[१६२] मुआविया ने उन्हें अन्य उपहारों के साथ जो राशि भेजी वह सालाना एक मिलियन दिरहम[१६३] या एक लाख दीनार[१६४] तक उल्लेख है। कुछ हदीसों से ऐसा प्रतीत होता है कि वह कभी उन पैसों से अपने कर्ज का भुगतान और बाकी को अपने रिश्तेदारों और अधीनस्थों के बीच वितरित कर दिया करते थे[१६५] और कभी-कभी वह उन सभी उपहारों को दूसरों को दे दिया करते थे।[१६६] ऐसी भी रिपोर्टें हैं कि हसन बिन अली (अ) कभी-कभी मुआविया के उपहारों को स्वीकार नही करते थे।[१६७] इस तरह की ख़बरों से प्रतिक्रियाओं और संदेहों का जन्म होता है[१६८] इसके बारे में कलाम शास्त्र के द्ष्टिकोण से बहसों की चर्चा की गई है, उदाहरण के लिए, सय्यद मुर्तज़ा ने इमाम हसन (अ) के लिए मुआविया से धन और उपहार प्राप्त करने को जायज़ और यहां तक कि अनिवार्य (वाजिब) माना है और उन्होंने इसे इस बिंदु से माना है कि एक शासक जिसने बलपूर्वक देश का शासन अपने हाथ में ले लिया हो उसकी संपत्ति ली जानी चाहिए।[१६९]
बनी उमय्या का व्यवहार
इमाम हसन (अ) के साथ बनी उमय्या के अनुचित व्यवहार की खबरें हैं।[१७०] इसके अलावा, पुस्तक अल एहतेजाज में, इमाम हसन (अ) और मुआविया और उनके दल के बीच बहस का वर्णन किया गया है। इन बहसों में, उन्होंने अहले बैत (अ) के रुतबे का बचाव किया और अपने दुश्मनों की प्रकृति और स्थिति का खुलासा किया।[१७१] बनी उमय्या के प्रचार दबाव और अहले-बैत और इमाम मुज्तबा (अ) के खिलाफ़ उनकी विभिन्न साजिशों के विपरीत, वह हमेशा होशियार रहे और इमाम की चतुराई और चालाकी ने उनकी योजनाओं को विफल कर दिया। इमाम और उनके विरोधियों और दुश्मनों के बीच सबसे विवादास्पद असमान बहसों में से एक की ऐतिहासिक रिपोर्ट से पता चलता है कि इमाम ने कितना सतर्क और बुद्धिमानी से काम लिया। उस सभा में जहां मुआविया की सरकार के समर्थक, जैसे कि अम्र बिन उस्मान, अम्र बिन आस, उत्बाह बिन अबी सुफ़ियान, वलीद बिन उक़बा और मुग़ीरा बिन शोअबा उपस्थित थे, अकेले इमाम मुजतबा (अ) ने वृत्तचित्र, निर्णायक, चौंकाने वाला और खुलासा करने वाले तरीक़े से[नोट ५] क़ुरआन की आयतों, हदीसों, निश्चित ऐतिहासिक रिपोर्टों के आधार पर, उन सभी की निंदा की और अमीरुल मोमिनीन और अहले बैत (अ) के अधिकार की व्याख्या की और इस्लाम में उनकी उच्च स्थिति को बयान किया कि मुनाज़रे की सभा होने से पहले ही मुआविया[नोट ६] की भविष्यवाणी (बहस की मांग करने वालों की बदनामी, घोटाले और निंदा के आधार पर) सत्य साबित हो गई।[१७२]
शहादत और अंतिम संस्कार
बहुत से शिया और सुन्नी स्रोतों में, यह कहा गया है कि इमाम हसन (अ) ज़हर खाने से शहीद हुए।[१७३] कुछ रिपोर्टों के अनुसार, उन्हें कई बार ज़हर दिया गया, लेकिन वह मौत से बच गए।[१७४] आखिरी ज़हर के बारे में जिसके कारण उनकी शहादत हुई, शेख़ मुफ़ीद के अनुसार, मुआविया ने जब अपने बेटे यज़ीद के शासन के प्रति निष्ठा की शपथ लेने का फैसला किया, तो अशअस बिन क़ैस की बेटी जोअदा (इमाम हसन (अ) की पत्नी) को एक लाख दिरहम भेजे और वादा किया कि अगर वह अपने पती को ज़हर दे दे तो वह उसकी शादी यज़ीद से कर देगा।[१७५] सुन्नी स्रोतों में भी हसन बिन अली (अ) के हत्यारे के रूप में जोदा का नाम उल्लेख किया गया है।[१७६] माडेलोंग का मानना है कि मुआविया के उत्तराधिकार के मुद्दे और यज़ीद को उत्तराधिकारी बनाने के उसके प्रयास और हदीसों से यह पुष्टि होती है कि इमाम हसन को मुआविया के लालच देने और जोदा के हाथों ज़हर दिया गया था।[१७७] अन्य रिपोर्टों ने हिंद (इमाम हसन की पत्नियों में से एक)[१७८] या उनके एक नौकर[१७९] को ज़हर देने के कारण के रूप में उल्लेख किया है। कहा गया है कि हसन बिन अली (अ) की शहादत ज़हर देने के 3 दिन[१८०] या 40 दिन[१८१] या दो महीने[१८२] के बाद हुई।
यह बताया गया है कि इमाम मुजतबा (अ) की शहादत के बाद, पूरे मदीना शहर में मातम और रोना शुरू हो गया।[१८३] यह भी कहा गया है कि अंतिम संस्कार के दौरान बक़ी क़ब्रिस्तान लोगों से भर गया और बाज़ारों को सात दिनों के लिए बंद कर दिया गया था।[१८४] कुछ सुन्नी स्रोतों के अनुसार, यह बताया गया है कि अरबों के लिए पहली ज़िल्लत हसन बिन अली (अ) की शहादत थी।[१८५]
पैगंबर के बग़ल में दफ़्न से रोकना
कुछ स्रोतों में, यह कहा गया है कि इमाम हसन (अ) ने अपने भाई को उनकी वफ़ात के बाद, अपने नाना पैगंबर (स) की क़ब्र के बग़ल में दफ़्न करने की वसीयत की थी।[१८६] एक कथन के अनुसार, हसन बिन अली ने आयशा के साथ अपनी इच्छा साझा की, वह भी सहमत हो गई थीं।[१८७] पुस्तक "अंसाब अल-अशराफ़" के कथन के अनुसार, जब मरवान बिन हकम को इस वसीयत के बारे में पता चला, तो उसने मुआविया को सूचना दी और मुआविया ने उसे सख्ती से रोकने के लिए कहा।[१८८]
शेख़ मुफ़ीद (वफ़ात 413 हिजरी), तबरसी (वफ़ात 548 हिजरी) और इब्ने शहर आशोब (वफ़ात 588 हिजरी) की रिपोर्ट में यह कहा गया है कि इमाम मुजतबा (अ) की इच्छा थी कि उनके ताबूत को पैगंबर (स) की क़ब्र पर ले जाया जाए। ता कि वह अपनी प्रतिज्ञा को नवीनीकृत करें और फिर उन्हे उनकी दादी फ़ातिमा बिन्त असद की क़ब्र के बग़ल मे दफ़्न किया जाये।[१८९] इन रिपोर्टों में, यह कहा गया है कि हसन बिन अली ने उनके अंतिम संस्कार और दफ़्न[१९०] के दौरान किसी भी तरह के संघर्ष से बचने का आदेश दिया ताकि कोई खून ख़राबा न हो।[१९१]
जब बनी हाशिम इमाम मुजतबा (अ) के ताबूत को पैगंबर (स) की क़ब्र पर ले गए, तो मरवान ने बनी उमय्या के कुछ लोगों के साथ हथियार उठा कर उनका रास्ता रोका और उन्हें पैगंबर की क़ब्र के बग़ल में दफ़न नही होने दिया।[१९२] अबुल फ़रज इस्फ़हानी (मुत्यु 356 हिजरी) के अनुसार, आयशा एक ऊंट पर सवार हुई और लोगों को मरवान और बनी उमय्या की मदद के लिए बुलाया।[१९३] बलाज़री के मुताबिक़ जब आयशा ने देखा कि ख़ून ख़राबा होने वाला है तो उन्होने कहा कि यह मेरा घर है और मैं इसमें किसी को दफ़्न नहीं होने दूंगी।[१९४] इब्ने अब्बास ने मरवान से कहा, जो सशस्त्र और राजद्रोह के लिए उपस्थित था, हम इमाम हसन को पैगंबर (स) के बग़ल में दफ़्न करने के लिये नही आये हैं हमारा इरादा केवल उनके द्वारा प्रतिज्ञा का नविनीकरण करना है, लेकिन अगर इमाम हसन (अ) ने उन्हे वहां दफ़्न करने की वसीयत की होती तो हम ऐसा ही करते, और कोई हमें रोक नही सकता था, उसके बाद, इब्ने अब्बास ने जमल के युद्ध में आयशा की उपस्थिति का एक विडंबनापूर्ण संदर्भ दिया और परोक्ष रूप से उनकी आलोचना की।[१९५]
यह भी बताया गया है कि मरवान ने कहा कि हम यह स्वीकार नहीं करते हैं कि उस्मान को शहर के अंत में दफ़नाया जाये, लेकिन हसन बिन अली को पैगंबर के बग़ल में दफ़न किया जाये।[१९६][नोट ७] नज़दीक था कि बनी हाशिम और बनी उमय्या के बीच जंग हो जाती।[१९७] लेकिन भाई की इच्छा के अनुसार, इमाम हुसैन (अ) ने संघर्ष को रोका। हसन बिन अली के शरीर को बक़ीअ ले जाया गया और फ़ातिमा बिन्त असद की क़ब्र के बग़ल में दफ़्न किया गया।[१९८][१९९]
इब्ने शहर आशोब की रिपोर्ट में कहा गया है कि बनी उमय्या ने इमाम मुजतबा (अ) के जनाज़े पर तीर बरसाये। इस उद्धरण के अनुसार, हसन बिन अली (अ) के शरीर से 70 तीर निकाले गए थे।[२००]
शहादत की तारीख़
ऐतिहासिक स्रोतों ने इमाम हसन (अ) की शहादत के वर्ष को 49, 50 या 51 हिजरी बताया है।[२०१] अन्य रिपोर्टें भी हैं।[२०२] कुछ शोधकर्ताओं ने सुबूतों का हवाला देते हुए 50 हिजरी को सही माना है।[२०३]
इसकी घटना के महीने के बारे में, शिया सूत्रों ने सफ़र[२०४] के महीने का और अधिकांश सुन्नी स्रोतों ने रबी अल-अव्वल[२०५]के महीने का उल्लेख किया है।[२०६]
शहादत का दिन भी शिया स्रोतों में विभिन्न वर्णित किया गया है: बहुत से उलमा ने जैसे कि शेख़ मुफ़ीद,[२०७] शेख़ तूसी (वफ़ात 460 हिजरी),[२०८] तबरसी (वफ़ात 548 हिजरी)[२०९] और इब्ने शहर आशोब (वफ़ात 588 हिजरी),[२१०] 28 सफ़र का दिन उल्लेख किया है। दूसरी ओर, पहले शहीद (शहादत 786 हिजरी) ने 7 सफ़र के दिन का उल्लेख किया है।[२११] जबकि शेख़ कुलैनी[२१२] ने सफ़र के अंतिम दिन का उल्लेख किया है। "यदुल्लाह मुक़द्देसी" ने विभिन्न कथनों के दस्तावेज़ों पर शोध करके 28 सफ़र को प्रामाणिक माना है।[२१३]
ईरान में, सफ़र की 28वीं पैगंबर (स) की वफ़ात और इमाम मोज्तबा (अ) की शहादत के रूप में एक आधिकारिक अवकाश है, और लोग शोक मनाते हैं, लेकिन इराक़ सहित कुछ देशों में, सफ़र की 7वीं तारीख़ को इमाम हसन (अ) की शहादत पर शोक मनाते है।[२१४][२१५] नजफ़ के हौज़े में 7 सफ़र को शहादत का दिन मानते हैं और क़ुम के हौज़े में भी शेख़ अब्दुल करीम हायरी के ज़माने से इस दिन को शहादत के शोक में अज़ादारी करते है।
हसन बिन अली (अ) की शहादत की तारीख़ में अंतर के कारण शहादत के समय उनकी उम्र 46[२१६] या 47[२१७] या 48[२१८] साल मानी गई है।
गुण और विशेषताएं
याक़ूबी (मृत्यु 292 हिजरी) के अनुसार, हसन बिन अली (अ) दिखने और व्यवहार के मामले में ईश्वर के दूत (स) के सबसे समान व्यक्ति थे।[२१९] उनका क़द मध्यम और दाढ़ी घनी थे।[२२०] और वह काले रंग से ख़िज़ाब करते थे। [२२१] इस्लामी स्रोतों में उनके व्यक्तिगत और सामाजिक गुणों का उल्लेख हुआ है:
व्यक्तिगत गुण
हसन बिन अली की व्यक्तिगत विशेषताओं के संदर्भ में, सूत्रों में कथन हैं:
- पैग़ंबर (स) उनसे बहुत प्यार करते थे
अपने नवासे हसन बिन अली (अ) के लिए ईश्वर के दूत (स) के प्यार के बारे में बहुत सी हदीसें हैं। हदीस में वर्णित है कि पैगंबर (स) ने हसन (अ) को अपने कंधों पर ले जाते हुए कहा: हे ईश्वर, मैं इससे प्यार करता हूं, इसलिए तू भी इससे प्यार कर।[२२२] कभी जब पैगंबर (स) नमाज़ के सजदे में होते और वह पीठ पर बैठ जाते तो पैगंबर जब तक वह ख़ुद से नीचे नहीं आए जाते, तब तक वह सजदा से अपना सिर नहीं उठाते थे, और जब सहाबी सजदे के लंबे होने का कारण पूछते है, तो वह कहते कि वह चाहते हैं कि वह अपनी इच्छा के अनुसार नीचे आयें।[२२३]
फ़रायद अल-समतैन में उल्लेख किया गया है कि पैगंबर (स) ने उनके बारे में कहा: वह जन्नत के युवाओं का सरदार और उम्मत पर ख़ुदा की हुज्जत हैं जो कोई भी उसका अनुसरण करता है वह मुझसे है और जो उसकी अवज्ञा करता है वह मुझसे नहीं है।[२२४]
- उनके बारे में कुरआन की कुछ आयतें हैं
हसन बिन अली (अ) पैग़म्बर (स) के अहले-बैत में से एक है। उनके बारे में कुरआन की आयतें नाज़िल हुई हैं, जिसमें खाना खिलाने की आयत भी शामिल है, जो शिया और सुन्नी परंपराओं के अनुसार, अहले-बैत के बारे में है और उसे उनके गुणों में से एक माना जाता है।[२२५] इसके अलावा, कई टीकाकारों ने हदीसों का हवाला देते हुए कहा है कि मवद्दत की आयत का शाने नुज़ूल (उतरने का कारण) पैगंबर (स) अहले-बैत (स) ही हैं।[२२६] इस आयत के अनुसार पैग़म्बर की रिसालत का अज्र अहले बैत (अ) से मुहब्बत को माना गया है। मुबाहेला की आयत में भी, जो नज़रान के ईसाइयों के साथ पैगंबर के मुबाहेला की कहानी में प्रकट हुई थी, इमाम हसन (अ) और उनके भाई इमाम हुसैन (अ) को "अबना'अना" शब्द के उदाहरण के रूप में पेश किया गया है।[२२७]
इसके अलावा, असहाबे केसा के बारे में शुद्धिकरण की आयत नाज़िल हुई है, इमाम मुजतबा (अ) भी उनमें से एक थे। इस आयत से अहले बैत (अ) के मासूम अर्थात गुनाहों से पाक होने को साबित करने के लिए तर्क दिया गया है।[२२८]
- पूजा और ईश्वर के साथ संचार
जब इमाम वुज़ू कर रहे थे और नमाज़ की तैयारी कर रहे थे, तो उनके पैर काँप रहे थे और चेहरे का रंग पीले हो रहा था। इमाम से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा: "वह जो अपने भगवान के सामने खड़ा होना चाहता है, उसके चेहरे का रंग पीला होना चाहिए और उसके पैर कांप रहे होने चाहियें।"[२२९] अबू ख़सीमा कहते हैं: जब इमाम हसन, नमाज़ के लिए खड़े होते थे तो अपने सबसे अच्छे कपड़े पहनते थे, उनसे पूछा गया था कि आप अपने सबसे अच्छे कपड़े क्यों पहनते हैं? तो उन्होने कहा: ईश्वर सुंदर है और सुंदरता से प्यार करता है, और मुझे अपने सबसे अच्छे कपड़े पहनना और खुद को अपने अल्लाह के सामने पेश करना पसंद है।[२३०] इमाम सज्जाद (अ) ने कहा कि इमाम हसन (अ) को किसी भी अवस्था में नहीं देखा गया था सिवाय इसके कि वह ईश्वर को याद कर रहे होते थे।[२३१]
- वे कई बार पैदल ही हज पर गए
इमाम मुजतबा (अ) कई बार हज के लिए पैदल गए और यह वर्णन किया गया है कि उन्होंने कहा, "मुझे अपने ईश्वर से शर्म आती है कि उससे मिलने जाऊं और उसके घर की ओर पैदल चल कर न जाऊं।।[२३२] वह 15[२३३] या 20[२३४] या 25[२३५] बार हज के लिए पैदल गए, जबकि बेहतरीन ऊंट उनके पीछे-पीछे चल रहे होते थे।[२३६]
सामाजिक गुण
स्रोतों में उनकी सामाजिक विशेषताओं की भी चर्चा की गई है:
उनकी सहनशीलता की प्रशंसा की गई है
इस्लामिक स्रोतों में उनकी सहनशीलता की खबरें हैं और उन्हें "हलीम" कहा गया है।[२३७] कुछ सुन्नी स्रोतों में, यह कहा गया है कि मरवान बिन हकम ने, जो उनसे शत्रुता रखता था और जिसने उन्हें पैगंबर के बग़ल में दफ़्न होने से रोका, उनके अंतिम संस्कार में भाग लिया और ताबूत को कंधा दिया। जब उस पर आपत्ति की गई कि तूने अपने जीवनकाल में हसन बिन अली को हमेशा चोट पहुँचाई, तो उसने कहा, "मैंने उन्हे तकलीफ़ पहुचाता था जिनकी सहनशीलता पहाड़ों की तरह थी।[२३८] बताया गया है कि एक सीरियाई व्यक्ति ने इमाम हसन (अ) को देखा और गाली देने लगा। उस आदमी के चुप हो जाने के बाद, इमाम मुजतबा (अ) ने उसका अभिवादन किया और मुस्कराते हुए कहा: "आप इस शहर में एक अजनबी लगते हैं।" फिर उन्होंने उससे कहा कि तुम्हारी जो भी जरूरत होगी हम उसे पूरा करेंगे। वह आदमी रोने लगा और उसने कहा कि ईश्वर बेहतर जानता है कि अपनी रिसालत किसको अता करे।[२३९] उस सलावत में, जिसे ख़्वाजा नसीरुद्दीन तूसी की ओर मंसूब किया गया है, जिसमें जिन्होंने इमाम ज़माना (अ) की विशेषताओं को सूचीबद्ध किया है, उसमें उन्होंने उन्हें इमाम हसन (अ) की सहनशीलता का लाभार्थी माना है।[नोट ८]
वह ईश्वर के मार्ग में उदार होने और लोगों की मदद करने के लिए प्रसिद्ध थे
जब वह वुज़ू करते थे तो उनका बदन कांपने लगता था और चेहरे का रंग पीला हो जाता था।.. और जब मस्जिद के प्रवेश द्वार पर पहुचते तो कहते थे: ऐ अल्लाह: एक ख़ताकार तेरी बारगाह में आया है, मेरी बुराई को मेरी अच्छाई के बदले अनदेखा कर।
इस्लामी स्रोतों ने शियों के दूसरे इमाम को एक दानी और खुले हाथ वाले व्यक्ति के रूप में पेश किया है और उन्हें "करीम" और "सख़ी" और "जवाद" कहा गया है।[२४०] कहा जाता है कि उन्होने दो बार अपनी पूरी संपत्ति अल्लाह की राह में दे दी और तीन बार उन्होने अपनी संपत्ति को भी दो भागों में बांटा: आधा खुद के लिए और आधा जरूरतमंदों के लिए।[२४१] मनाक़िबे इब्ने शहर आशोब में कहा गया है कि इमाम हसन की सीरिया यात्रा के दौरान, मुआविया ने उन्हें बहुत सारी संपत्ति वाले लदान के बिल के साथ प्रस्तुत किया। जब वह मुआविया के पास से निकले तो एक नौकर ने उनके जूते की मरम्मत की। इमाम ने वह बिल उसे दे दिया[२४२] इसी तरह से एक दासी ने उन्हे एक फूल की टहनी भेंट की, और उन्होंने उसे आज़ाद कर दिया और कहा कि भगवान ने हमे ऐसा व्यवहार सिखाया है कि जब भी हमारे साथ कोई अच्छा काम करता है, हम उसे उससे कुछ बेहतर अंदाज़ में जवाब देते हैं।[नोट ९] और इस फूल की शाखा से बेहतर उसकी आज़ादी थी।[२४३] यह भी कहा गया है कि एक दिन इमाम हसन (अ) ने एक व्यक्ति को प्रार्थना करते हुए सुना कि ईश्वर उसे दस हज़ार दिरहम दे दे। तो वह घर गये और उसके पास वह पैसे भेजे।[२४४] कहा जाता है कि इस महान उदारता के कारण, उन्हे "करीमे अहले बैत" उपनाम दिया गया था।[२४५] लेकिन हदीसों में ऐसी कोई व्याख्या नहीं है।
इसी तरह से उनके लोगों की मदद करने की भी खबरें हैं, यहां तक कि यह भी कहा गया है कि वह दूसरों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एतिकाफ़ और तवाफ़ को अधूरा छोड़ देते थे, और इसका कारण वह पैग़म्बर (स) की एक हदीस बताते थे कि जब कोई अपने आस्तिक (मोमिन) भाई की ज़रूरतों को पूरा करता है तो ऐसा है जैसे वह कई वर्षों से पूजा में लगा हुआ हो।[२४६]
वह अपने मातहतों के साथ विनम्रता से पेश आते थे
कहा गया है कि एक दिन वह ग़रीबों के पास से गुज़रे जहाँ वे रोटी के टुकड़े खा रहे थे। जब उन्होंने इमाम को देखा, तो उन्हे अपने साथ भोजन करने के लिये निमंत्रित दिया। उन्होने घोड़े से उतरकर उनके साथ रोटी खाई और वे सब तृप्त हुए। फिर इमाम ने उन्हें अपने यहां पर खाने पर बुलाया और उन्हें भोजन और वस्त्र दिए।[२४७] यह भी वर्णित है कि उनके नौकर ने एक ग़लती की जो सज़ा के योग्य थी। उस नौकर ने इमाम हसन (अ) से कहा: «و العافین عن الناس» "वल-आफ़ीना अनिन-नास।" (अनुवाद और वह जो लोगों कों माफ़ कर देते हैं) हसन बिन अली (अ) ने कहा: "मैंने तुम्हे माफ़ किया।" नौकर ने आगे कहा: «و الله یحب المحسنین»" (वल्लाहो युहिब्बुल मोहसेनीन) और भगवान नेक लोगों से प्यार करता है।" इमाम मुज्तबा (अ) ने कहा: आप भगवान के रास्ते में स्वतंत्र हैं, और मैं आपको उस वेतन का दोगुना वेतन दूंगा जो मैं आपको देता था।[२४८]
आध्यात्मिक विरासत
विभिन्न संदर्भों में उनसे सुने गये कथनों की कुल संख्या लगभग 250 हदीसों के रूप में सूचीबद्ध की गई है।[२४९] इनमें से कुछ हदीसें इमाम हसन (अ) से संबंधित हैं और कुछ वह हैं जो उन्होने ईश्वर दूत (स) और इमाम अली (अ) और फ़ातिमा ज़हरा (अ) से रिवायत की हैं।[२५०]
किताब मुसनद अल-इमाम अल-मुज्तबा (अ) में हसन बिन अली से उद्धृत हदीसों और पत्रों को एकत्रित किया गया है। इसमें दस्तावेज़ (सनद) के साथ ख़ुतबे, उपदेश, संवाद, प्रार्थना, बहस और धार्मिक और न्यायशास्त्र के मुद्दों के रूप में इन हदीसों का उल्लेख किया गया है।[२५१] बलाग़तुल-इमाम अल-हसन पुस्तक में, इन कथनों को उनकी कविताओं के साथ एकत्रित किया गया है।
अहमदी मयांजी, मकातिब अल-आइम्मा किताब में, हसन बिन अली (अ) के 15 पत्रों को सूचीबद्ध किया हैं, जिनमें से 6 पत्र उन्होने मुआविया को, 3 पत्र ज़ियाद बिन अबीह को, एक पत्र कूफ़ा के लोगों को, और एक पत्र हसन बसरी के भेजा है।[२५२] इसी तरह से अहमद मयांजी ने इमाम हसन (अ) की इमाम हुसैन (अ), मुहम्मद हनफ़िया, क़ासिम बिन हसन और जुनादा बिन अबी उमय्या के लिए 7 वसीयतें एकत्रित की हैं।[२५३]
अज़ीज़ुल्लाह अतार्दी ने इमाम मुजतबा (अ) से हदीस ज़िक्र करने वाले 138 लोगों के नाम एकत्रित किए हैं।[२५४] शेख़ तूसी ने भी 41 लोगों के नाम उनके सहाबियों के रूप में नामित किये हैं।[२५५]
उनके शब्दों से:
- जिसके पास बुद्धि नहीं है उसके पास शिष्टाचार नहीं है और जिसके पास साहस नहीं है उसके पास बहादुरी नहीं है और जिसके पास धर्म नहीं है उसके लिए कोई शर्म नहीं है, बुद्धि का सार लोगों के साथ अच्छा व्यवहार व जीवन यापन है। बुद्धि द्वारा मनुष्य दोनो संसार प्राप्त कर सकता है और जिसके पास बुद्धि न हो वह दोनों दुनिया से वंचित हैं।[२५६]
- लोगों के साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसा आप चाहते हैं कि वे आपके साथ व्यवहार करें।[२५७]
- किसी के साथ मित्रता तब तक न करें जब तक आप यह नहीं जानते कि वह कहाँ से आता है और कहाँ जा रहा है।[२५८]
- जो कोई अभिवादन (सलाम) करने से पहले बोलता है, उसे उत्तर न दें।[२५९]
- सत्य और असत्य के बीच की दूरी के बारे में पूछने वाले एक व्यक्ति के जवाब में, उन्होंने कहा: चार अंगुलियां: जो आप अपनी आंखों से देखते हैं वह सच है, और आप अपने कानों से बहुत से झूठ सुन सकते हैं।[२६०]
संस्कृति और कला में
धार्मिक समारोहों और कला के कार्यों सहित सांस्कृतिक क्षेत्रों में शियों के दूसरे इमाम की स्थिति को सम्मानित किया जाता है:
इमाम हसन का दस्तरख़्वान
ईरान में धार्मिक अनुष्ठानों में से एक इमाम हसन (अ) का दस्तरख़ान है, जहाँ मन्नत के लिए प्रसाद चढ़ाया जाता है। इसका इतिहास सफाविद युग से पहले का है। खाने की इस मेज़ पर वस्तुओं का रंग हरा होना चाहिए और उसके साथ इमाम हसन (अ) की मजलिस पढ़ी जाती है। यह महिलाओं के बीच अधिक आम है, इसमें साधारण और विविध खाद्य पदार्थों के अलावा, आमतौर पर कुरआन, मोमबत्तियाँ, जनमाज़ और माला (तसबीह) भी रखी जाती है।[२६१] ईरान के अलावा, इमाम हसन (अ) के दस्तरख़ान का पर्व हिन्दुस्तान व पाकिस्तान आदि में भी मनाया जाता है।
सब्त अल-नबी कांग्रेस
अहले-बैत विश्व परिषद और कई अन्य संगठनों द्वारा जुलाई 2014 में तेहरान में पैगंबर के जनजाति की अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस आयोजित की गई थी। इस कांग्रेस में, 130 प्राप्त लेखों में से, 70 लेखों को प्रकाशन के लिए चुना गया था।[२६२] इस कांग्रेस के उद्घाटन पर, अहले-बैत (अ) स्कूल विकी शिया के आभासी विश्वकोश का अनावरण राष्ट्रपति द्वारा किया गया था।[२६३]
सबसे अकेला कमांडर श्रृंखला
1375 शम्सी में सबसे अकेला कमांडर नाम का एक सीरियल ईरानी टेलीविज़न के चैनल वन पर प्रसारित किया गया था, इसमें इमाम हसन (अ) के जीवन और मुआविया के साथ शांति की कहानी और इस्लामी समाज और शियों की उनके जीवनकाल के दौरान और उनकी शहादत के तुरंत बाद की स्थितियों को दर्शाया गया है।[२६४]
इमाम हसन (अ) पर लिखी गईं किताबें
- मुख्य लेख: इमाम हसन (अ) के बारे में पुस्तकों की सूची
इमाम हसन (अ) के बारे में बहुत सी किताबें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। "इमाम मुजतबा (अ) के बारे में लिखी गईं पुस्तको की सूची" विषय पर लिखे गए लेखों में फ़ारसी, अरबी, तुर्की और उर्दू भाषाओं में लगभग 130 मुद्रित और हस्तलिखित पुस्तकों का उल्लेख किया गया है।[२६५]
इनमें से कुछ सबसे महत्वपूर्ण कार्य हैं:
- सुलेमान बिन अहमद तबरानी (मृत्यु 360 हिजरी) द्वारा लिखित अख़बार अल-हसन बिन अली।
- जाफ़र मुर्तेज़ा आमेली द्वारा लिखित इमाम अल-हसन अल-हयात अल-सियासिया।
- बाक़िर शरीफ़ करैशी द्वारा लिखित अल हयातुल इमाम अल-हसन बिन अली।
- राज़ी आले यासिन द्वारा लिखित सुल्हुल हसन, जिसका आयतुल्ला सय्यद अली ख़ामेनेई ने 1348 शम्सी में "सुल्हे इमाम हसन (अ): इतिहास में सबसे शानदार वीरतापूर्ण कार्रवाई" के नाम से फ़ारसी में अनुवाद किया[२६६]
- हाशिम रसूली महल्लाती द्वारा लिखित ज़िन्दगानी ए इमाम हसन।
- कामिल बिन सुलेमान द्वारा लिखित अल-हसन बिन अली देरासा व तहलील।
- हसन मूसा अल-सफ़्फ़ार द्वारा लिखित अल-इमाम अल-हसन व नहज अलबना अलइजतेमाई।
- मूसा मुहम्मद अली द्वारा लिखित हलीमो अहलिल-बैत।
- अहमद रहमानी हमदानी द्वारा लिखित और हुसैन उस्ताद वली द्वारा अनुवादित और सारांशित अल-इमाम अल-मुज्तबा (अ) महजतो कल्बिल-मुस्तफा (स)", नशरे मुनीर 1392 द्वारा प्रकाशित।
- बाक़ेरुल उलूम (अ) अनुसंधान संस्थान के हदीस समूह द्वारा संकलित और अली मोयदी द्वारा अनुवादित किताब फरहंगे जामे सुख़नाने इमाम हसन मोजतबा (अ)।
- इसके अलावा, "सिब्ते अल-नबी कांग्रेस" में चयनित लेखों का संग्रह तीन खंडों में प्रकाशित किया गया है।
- छिपे हुए तथ्य: पिजोहिशी दर ज़िन्दगी ए सियासी इमाम हसन मुज्तबा (अ), अहमद ज़मानी द्वारा लिखित, नाशिर बुस्तान किताब क़ुम, 8वें संस्करण 1394 शम्सी।
संबंधित लेख
नोट
- ↑ इमाम हसन (अ) के लिए जो ज़ियारत वर्णित हुई हैं उनमें आपको अमीरुल मोमिनीन (अ) का वसी कहा गया है। मफ़ातिहुल जिनान, सलवात बर होजज ताहेरा अलैहिमुस सलाम।
- ↑ हसन बिन अली (अ) का जन्म रमज़ान वर्ष 3 हिजरी में हुआ। (कुलैनी, अल काफ़ी,1401, खंड 1, पृष्ठ 461) और पैग़ंबर (स) का स्वर्गवास वर्ष 11 हिजरी के आरम्भ में हुआ। (इब्ने साद, अल तबक़ात अल कुबरा, 1418 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 208)
- ↑ इस रिपोर्ट का उल्लेख विभिन्न स्रोतों में किया गया है ( उदाहरण के लिए देखें: तबरी, तारीख़े तबरी, 1378 हिजरी, खंड 4 पृष्ठ 456 व 458: मजलिसी बिहार अल अनवार, 1363 शम्सी, खंड 32 पृष्ठ 104) लेकिन कुछ समकालीन शोधकर्ताओं ने इसे नकली माना है जैसे सय्यद जाफ़र मुर्तज़ा ने किताब तहलीली अज़ ज़िन्दगानी सेयासी इमाम हसन मुज्तबा में, पृष्ठ 240 और बाक़िर शरीफ़ क़र्शी ने किताब हयात अल इमाम अल हसन बिन अली में, खंड 1 पृष्ठ 394 और हाशिम मारूफ़ हसनी ने किताब सीरा अल आइम्मा अल इसना अशरी, खंड 2, पृष्ठ 489, कुछ रिवायात के अनुसार इमाम अली (अ) ने इमाम हसन (अ) को उत्तर देते हुए कहा कि मैं इस प्रतिक्षा में नहीं रहूंगा ताकि वह मुझे धोके से हरा दे इसी तरह आप ने उनके वचन तोड़ने और पैग़ंबर के काल से अब तक आप का हक़ छिनने के ओर इशारा किया।(मजलिसी, बिहार अल अनवार, 1363 शम्सी, खंड 32,पृष्ठ 104)
- ↑ हौसरा असदी एक ख़्वारिज था, जिसने खिलाफ़त को उमवियान में स्थानांतरित करने के बाद 150 कुफ़ीयों के साथ विद्रोह किया और मुआविया ने एक सेना उसके विद्रोह का दबा दिया।
- ↑ इमाम की मौजूदगी और बहस में उनका जवाब देने और उन पर काबू पाने में उनके आत्मविश्वास का प्रभाव इतना अधिक है कि उन्होंने बहस शुरू होने से पहले खुद मुआविया से कहा कि यह भीड़ मुझ अकेले से डरती है, और अल्लाह मेरा संरक्षक है, और उन से कह दो कि उनका जो भी दिल चाहे बोलें।«مَعَ أَنِّي مَعَ وَحْدَتِي هُمْ أَوْحَشُ مِنِّي مِنْ جَمْعِهِمْ فَإِنَّ الله عَزَّ وَ جَلَّ لَوَلِيِّيَ الْيَوْمَ وَ فِيمَا بَعْدَ الْيَوْمِ فَمُرْهُمْ فَلْيَقُولُوا فَأَسْمَعُ وَ لَا حَوْلَ وَ لَا قُوَّةَ إِلَّا بِاللهِ الْعَلِيِّ الْعَظِيمِ»
- ↑ उपस्थित भीड़ ने मुआविया को इमाम हसन (अ) के साथ मुनाज़िरा करने का आग्रह किया लेकिन मुआविया इमाम (अ) के मुनाज़िरे की शक्ति से परिचित था उसने कहा मैं डर रहा हूँ कि इस सभा में तुम्हें इतना ज़लील व रुसवा करेंगे यहां तक कि तुम्हे मौत आ जाए और तुम्हें क़ब्रों तक पहुंचा दिया जाए। और मुआविया की यह भविष्यवाणी सत्य हुई और इस मुनाज़िरे के समाप्ति पर मुआविया ने मजबूर होकर इमाम के मुंह पर उंगली रख दी।( परोक्ष रूप से वह चाहता था कि इमाम मुनाज़िरे को रोक दें) उस समय इमाम अपने स्थान से खडे हुए और अपने वस्त्र को सही किया और बाहर आ गए वह लोग जो इस सभा में उपस्थित थे वे बड़े गुस्से और दुख के साथ तितर-बितर हो गए। (فَوَثَبَ مُعَاوِيَةُ فَوَضَعَ يَدَهُ عَلَى فَمِ الْحَسَنِ ...فَنَفَضَ الْحَسَنُ (ع) ثَوْبَهُ وَ قَامَ فَخَرَجَ فَتَفَرَّقَ الْقَوْمُ عَنِ الْمَجْلِسِ بِغَيْظٍ وَ حُزْنٍ وَ سَوَادِ الْوُجُوهِ فِي الدُّنْيَا وَ الْآخِرَةِ.)
- ↑ बनी उम्मया:उन्होंने इमाम अली (अ) पर उस्मान की हत्या में शामिल होने का आरोप लगाया।(इब्ने आसम कूफ़ी, अल फ़ुतूल,1411 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 527: इब्ने शहर आशूब, अल मनाक़िब, 1379 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 165)
- ↑ أللّهمَّ صلِّ وَ سَلِّم، وَ زِد وَ بارِک، عَلی: صاحبِ الدَّعوَةِ النَّبویَّة، وَ الصَّولَةِ الحَیدریَّة، و العِصمَةِ الفاطِمیَّة، و الحِلمِ الحَسَنِیَّة، و الشّجاعَةِ الحُسَینِیَّة، و العِبادَةِ السَّجّادِیَّة، و المآثِرِ الباقِریَّة، و الآثار الجَعفَرِیَّة، و العُلومِ الکاظِمیَّة، و الحُجَجِ الرَّضَوِیَّة، و الجُودِ التَّقَوِیَّة، و النَّقاوَةِ النَقَوِیَّة، و الهَیبَةِ العَسکَریَّة، و الغَیبَةِ الإلهیَّة، القائمِ بِالحَقِّ، و الدّاعی إلی الصِّدقِ المُطلَقِ، کَلمةِ الله، و أمانِ الله، و حُجّةِ الله، القائمِ بِأمرِ الله، المُقسِطِ لِدینِ الله، الغالِبِ لِأمرِ اللهِ، و الذّابِّ عن حَرَمِ الله، إمام السّرِّ والعَلَنِ، دافعِ الکَربِ والمِحَن، صاحبِ الجُودِ و المِنَن، الإمامِ بِالحَقِّ، أبی القاسِم محمّدِ بن الحَسن، صاحبِ العَصرِ والزَّمان، وقاطعِ البُرهان، و خَلیفةِ الرَّحمان، و شَریکِ القُرآن، و مُظهرِ الإیمان، و سیِّد الإنسِ و الجانّ، صَلَوات اللهِ و سلَامُهُ عَلیه و علیهِم أجمَعین.
- ↑ وإذا حييتم بتحية فحيوا بأحسن منها सूर ए नेसा आयत 86
फ़ुटनोट
- ↑ शेख़ मुफीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 5।
- ↑ इब्ने अब्द अल-बर्र, अल-इस्तियाब फ़ी मारेफ़ित असहाब, 1412 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 383।
- ↑ इब्ने हनबल, अल-मुसनद, दार सदिर, खंड 1, पेज 98, 118; कुलैनी, अल-काफी, बेरूत 1401, खंड 6, पेज 33-34
- ↑ इब्ने शहर आशोब, अल-मनक़िब, 1379 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 397; इब्ने साद, तबक़ात अल-कुबरा, 1418 हिजरी, खंड 10, पृष्ठ 244।
- ↑ इब्ने मंज़ूर, लेसान अल-अरब, 1414 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 393; जुबैदी, ताज अल-अरुस, 1414 हिजरी, खंड 7, पृष्ठ 4।
- ↑ इब्ने असाकर, तारीख़े मदीन ए दमिश्क़, 1415 हिजरी, खंड 13, पृष्ठ 171।
- ↑ इब्ने साद, तबक़ात अल-कुबरा, 1968, खंड 6, पृष्ठ 357; इब्न असीर, उसदल ग़ाबह, बेरूत, खंड 2, पृष्ठ 10।
- ↑ # इब्ने शहर आशोब, अल-मनाक़िब, 1379 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 29; मजलिसी, बिहार अनवार, 1363, खंड 44, पृष्ठ 35।
- ↑ इब्ने शहर आशोब, अल-मनाक़िब, 1379 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 29।
- ↑ इब्ने सब्बाग़ मालिकी, अल-फुसूल अल-मुहिम्मा, 1422 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 759।
- ↑ कुंदोजी, यनाबी अल मवद्दा, 1422 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 148।
- ↑ इब्ने असीर, उसद अल-ग़बा, 1409 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 490।
- ↑ एहसानी फ़र, दानिश नामा इमाम हुसैन, 1388, खंड 1, पेज 474-477।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 15।
- ↑ कुलैनी, काफी, खंड 1, 1362, पेज़ 297-300।
- ↑ कुलैनी, काफ़ी, खंड 1, 1362, पृष्ठ 298।
- ↑ कुलैनी, काफ़ी, खंड 1, 1362, पृष्ठ 298।
- ↑ शेख़ मुफीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 7।
- ↑ शेख़ मुफीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 30।
- ↑ शेख़ सदूक़, कमाल अल-दीन और तमाम अल-नेमह, 1395 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 253।
- ↑ तबरसी, आलाम अल-वरा, 1417 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 407; शुश्त्री, अहक़ाक़ अल-हक़, 1409 हिजरी, खंड 7, पृ.482।
- ↑ शेख़ मुफीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 3; तबरी, तारिख़ तबरी, 1387 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 537।
- ↑ कुलैनी, अल-काफ़ी, 1401, खंड 1, पृष्ठ 461; शेख तूसी, तहज़ीब अल-अहकाम, 1390, खंड 6, पृष्ठ 39।
- ↑ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 5; शेख तूसी, तहज़ीब अल-अहकाम, 1390, खंड 6, पृष्ठ 40
- ↑ इब्न हनबल, मुसनद, दार सदिर, खंड 6, पृष्ठ 391; तिर्मिज़ी, सुनन अल-तिर्मिज़ी, 1403 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 36; इब्ने बाबवैह, अली इब्न हुसैन, अल-इमामा वल-तबसेरह मन अल-हैरा, 1363, खंड 2, पृष्ठ 42
- ↑ # निसाई, सुनन अल-निसाई, दार अल-किताब अल-आलमिया, खंड 4, पृष्ठ 166; कुलैनी, अल-काफी, 1401, खंड 6, पेज 32-33; हाकिम नैशापूरी, अल-मुस्तद्रक अलल-सहीहैन, 1406 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 237
- ↑ इब्ने असाकर, तारीख़े मदीना अल-दमिश्क़, खंड 13, पृष्ठ 170
- ↑ हाकिम नैशापूरी, अल-मुस्तद्रक अलल-सहीहैन, 1406 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 165
- ↑ इब्ने साद, तबक़ात अल-कुबरा, 1418 हिजरी, खंड 10, पेज. 244-239; मजलिसी, बिहार अल-अनवार, 1363, खंड 39, पृष्ठ 63।
- ↑ करशी, हयात अल-इमाम अल-हसन, 1413 हिजरी, खंड 1, पेज 52-53।
- ↑ महदवी दामग़ानी, "हसन बिन अली, इमाम", पृष्ठ 304।
- ↑ इब्ने साद, तबक़ात अल-कुबरा, 1418, खंड 10, पृष्ठ 369।
- ↑ मजलिसी, बिहार अनवार, 1363, खंड 43, पेज 261-317; तिर्मिज़ी, सुनन तिर्मिज़ी, 1403 हिजरी, खंड 5, पेज 323-322; अहमद बिन हनबल, अल-मुसनद, दार सादिर, खंड 5, पृष्ठ 354; इब्ने हिब्बन, सहीह इब्ने हिब्बन, 1993, खंड 13, पृष्ठ 402; हाकिम नैशापूरी, अल-मुस्तद्रक, 1406 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 287।
- ↑ इब्ने साद, तबक़ात अल-कुबरा, 1968, खंड 6, पेज 406-407; शेख़ सदूक़, उयून अख़बार अल-रज़ा, 1363, खंड 1, पृष्ठ 85; शेख़ मुफीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 168।
- ↑ आमोली, सहीह मान अल-सिरह अल-नबी अल-आज़म, 1426 हिजरी, खंड 21, पृष्ठ 116।
- ↑ ज़मख़शरी, अल-कश्शाफ़, 1415 हिजरी, आले-इमरान की आयत 61 के तहत; फ़ख़र राज़ी, अल-तफ़सीर अल-कबीर, 1405 हिजरी, सूरह आले-इमरान की आयत 61 के तहत।
- ↑ अहमद बिन हनबल, दार सादिर, मुसनद अहमद, खंड 1, पृष्ठ 331; इब्न कसीर, तफ़सीर अल-कुरआन, 1419 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 799; शौकानी, फतहुल-क़दीर, आलम अल-कुतुब, खंड 4, पृष्ठ 279।
- ↑ इब्न शहर आशोब, अल-मनाक़िब, 1379 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 7।
- ↑ सुलैम बिन क़ैस, सुलैम बिन क़ैस अल-हिलाली की किताब, 1405 हिजरी, पेज 665 और 918।
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ, 1417 हिजरी, खंड 3, पेज 26-27; इब्न साद, तबक़ात अल-कुबरा, 1418 हिजरी, खंड 10, पृष्ठ 300।
- ↑ इब्न कुतैबा, अल-इमामा वल-सियासह, 1410 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 42।
- ↑ इब्न ख़लदून, अल-इबर, 1401 हिजरी, खंड 2, पेज 573-574।
- ↑ तबरी, तारिख़े तबरी, 1387 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 269।
- ↑ जाफ़र मुर्तज़ा, अल-हयात अल-सियासिया ऑफ़ इमाम अल-हसन, दार अल-सिराह, पृष्ठ 158।
- ↑ http://www.iranicaonline.org/articles/hasan-b-ali
- ↑ इब्न अब्द रब्बाह, अल-अक़द अल-फ़रीद, दार अल-किताब अल-आलमिया, खंड 5, पेज 58-59।
- ↑ बालाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 5, पेज 558-559
- ↑ # क़ाज़ी नोमान, अल-मनाक़िब वल-मसालिब, 1423 हिजरी, पृष्ठ 251; तबरी, दलाई अल-इमामह, 1413 हिजरी, पृष्ठ 168।
- ↑ दयार बकरी, तारिख़ अल-खमीस, दार अल-सादिर, खंड 2, पृष्ठ 262।
- ↑ अमीनी, अल-ग़दीर, 1416 हिजरी, खंड 9, पृष्ठ 324।
- ↑ सय्यद मुर्तजा, अल-शाफी फ़िल-इमामा, 1410 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 242।
- ↑ शुस्त्री, रिसाला फ़ी तवारीख अल नबी वल आल, पेज 71-72; हक़ाएक़ पिनहान, इमाम हसन के राजनीतिक जीवन पर एक शोध, पीपी। 339-340; इन्हें भी देखें: क़र्शी, हयात अल-इमाम अल-हसन बिन अली, 1413 हिजरी, खंड 2, पेज 455-460।
- ↑ इब्ने शहर आशूब, मनाक़िब ए आले अबि तालिब, 1379 हिजरी, खंड 4 पृष्ठ 30।
- ↑ मुक़द्दसी, अल बदा व अल तारीख़, मक़तबा अस सक़ाफ़ा अल दीनीया. खंड 5 पृष्ठ 74
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 25
- ↑ मजलिसी, बिहार अल-अनवर, बेरूत 1363, खंड 44, पृष्ठ 173
- ↑ इब्ने साद, अल तबक़ात अल-कुबरा, 1417 हिजरी, खंड 10, पीपी 290 और 302; बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 25; कुलैनी, अल-काफ़ी, 1362, खंड 6, पृष्ठ 56।
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 73।
- ↑ महदवी दामग़ानी, "हसन बिन अली, इमाम", पृष्ठ 309।
- ↑ मादलोंग, जानशिनी मुहम्मद, 1377, पीपी। 514-515।
- ↑ कर्शी, हयात अल-इमाम अल-हसन बिन अली, 1413 हिजरी, खंड 2, पीपी. 453-454।
- ↑ अल-मुफ़ीद, अल-अरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 20।
- ↑ तबरसी, आलाम अल वरा, 1417 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 416।
- ↑ अल-मजदी फ़ी अंसाब अल-तालेबीन, पृष्ठ 202।
- ↑ अंसाब, खंड 4, पृष्ठ 159।
- ↑ यमानी, मौसूआ मक्का अल मुकर्रमा, 1429 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 589।
- ↑ दामग़ानी, "हसन बिन अली, इमाम", पृष्ठ 304।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इख़्तेसास, 1413 हिजरी, पृष्ठ 238।
- ↑ नस्र बिन मुज़ाहिम, वक्का सफ़्फ़ीन, 1404 हिजरी, पृष्ठ 6।
- ↑ तबरी, तारीख तबरी, 1378 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 458; मजलिसी, बिहार अल अनवर, 1363, खंड 32, पृष्ठ 104।
- ↑ शेख़ मुफीद, अल-जमल, 1413 हिजरी, पीपी 244 और 261।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-जमल, 1413 हिजरी, पृष्ठ 263।
- ↑ इब्ने आसम, अल-फ़ुतुह, 1411 हिजरी, खंड 2, पीपी. 466-467; शेख़ मुफीद, अल-जमल, 1413 हिजरी, पृष्ठ 327।
- ↑ शेख़ मुफीद, अल-जमल, 1413 हिजरी, पृष्ठ 348; ज़हबी, तारीख़ अल इस्लाम, 1409 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 485।
- ↑ इब्ने शहर आशूब, अल-मनाक़िब, 1379 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 21।
- ↑ मसऊदी, मुरुज अल-ज़हब, 1409 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 431, शेख़ तूसी, अल-अमाली, 1414 हिजरी, पृष्ठ 82; एरबली, कश्फ़ अल-ग़ुम्मा, 1421 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 536।
- ↑ नस्र बिन मुज़ाहिम, वक्का सफ़्फ़ीन, 1404 हिजरी, पीपी। 113-114।
- ↑ इब्ने आसम, अल-फ़ुतुह, 1411, खंड 3, पृष्ठ 24; इब्ने शहर आशूब, अल-मनाक़िब, 1379 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 168।
- ↑ इस्काफ़ी, अल-मेयार व अल-मवाज़ेना, 1402 हिजरी, पीपी। 150-151।
- ↑ नस्र बिन मुज़ाहिम, वक्का सफ़्फ़ीन, 1404 हिजरी, पीपी। 297-298।
- ↑ इब्न कुतैबा, अल-इमामा वा अल-सियासा, 1410 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 158; इब्ने शहर आशूब, अल-मनाक़िब, 1379 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 193।
- ↑ सैय्यद रज़ी, नहजुल बलाग़ा, शहीदी द्वारा अनुवादित, 1378, पृष्ठ 295।
- ↑ मुहम्मदी, अल-मुअजम अल-मुफ़हरिस ले अलफ़ाज़ नहजुल बलाग़ा, पुस्तक के अंत में पांडुलिपियों के बीच अंतर की तालिका, 1369, पृष्ठ 238।
- ↑ इब्ने अब्दुल बर्र, अल-इस्तियाब फ़ी मारेफ़ातिल असहाब, 1412 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 939।
- ↑ इब्ने अबी अल-हदीद, नहजुल बलाग़ा पर टीका, 1404 हिजरी, खंड 7, पृष्ठ 93-94; कंदवर्ज़ी, यनाबी उल-मोअद्दा, 1422 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 444।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 9।
- ↑ मुआविया को खिलाफ़त सौंपने की तारीख 25 रबी-उल-अव्वल (मसूदी, मुरूज अल ज़हब, 1409 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 426) या रबी अल-आख़िर या जमादी अल-अव्वल (ज़हबी, तारीख अल-इस्लाम, 1409 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 5) वर्ष 41 हिजरी।
- ↑ मसऊदी, मुरुज अल-ज़हब, 1409 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 429; मुक़द्दसी, अल बदा व अल-तारीख, मकतबा अल सकाफ़ा अल दीनीया, खंड 5, पृष्ठ 238; इब्ने कसीर, अल-बेदाया व अल-नेहाया, दार अल-फ़िक्र, खंड 6, पृष्ठ 250।
- ↑ जाफ़री, तशई दर मसीरे तारीख़, 1380, पीपी. 158-161.
- ↑ इब्ने कसीर, अल-बेदाया व अल-नेहाया, दार अल-फ़िक्र, खंड 8, पृष्ठ 21।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 11; इब्ने आसम, अल-फ़ुतुह, 1411 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 286।
- ↑ जाफ़रयान, हयाते फ़िक्री व सयासी आइम्मा, 2013, पेज। 147-148।
- ↑ याक़ूबी, तारीख़े याक़ूबी, दार सादिर, खंड 2, पेज 214; तबरी, तारीख तबरी, 1378 हिजरी, खंड 5, पृष्ठ 158; मसऊदी, मुरुज अल-ज़हब, 1409 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 426।
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 28।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पेज 7-9; अबुल फ़रज इस्फ़ाहानी, मक़ातिल अल-तालेबीन, दार अल-मारेफा, पी. 62.
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पेज 8-9।
- ↑ मिक़रीज़ी, अमता अल-अस्माअ, 1420 हिजरी, खंड 5, पृष्ठ 358; इब्ने अब्दुल बर्र, अल-इस्तियाब फ़ी मारेफ़ा अल-अलहाब, 1412 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 385; दियार बकरी, तारीख अल-खमीस, दार सादिर, खंड 2, पृष्ठ 289; नोवैरी, नेहाया अल-अरब, 1423 हिजरी, खंड 20, पृष्ठ 229।
- ↑ तबरी, तारीख तबरी, 1378 हिजरी, खंड 5, पृष्ठ 158।
- ↑ जाफ़री, तशई दर मसीर तारीख़, 1380, पृष्ठ 158
- ↑ जाफ़री, तशई दर मसीर तारीख़, 1380, पीपी. 158-160
- ↑ जाफ़री, तशई दर मसीर तारीख़, 1380, पृष्ठ 161
- ↑ इब्ने कुतैबा, अल-इमामा वा अल-सियासा, 1410 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 184।
- ↑ तबरी, तारीख तबरी, 1387 हिजरी, खंड 5, पृष्ठ 158।
- ↑ http://www.iranicaonline.org/articles/hasan-b-ali
- ↑ जाफ़री, तशई दर मसीर तारीख़, 2002, पृष्ठ 161।
- ↑ जाफ़रयान, हयाते फ़िक्री व सयासी आइम्मा, 2013, पृष्ठ 132।
- ↑ अबुल फरज इस्फ़ाहानी, मक़ातिल अल-तालेबीन, 1408 हिजरी, पृष्ठ 64
- ↑ हाशमी नेजाद, दरसी के हुसैन बे इंसानहा आमुख़्त, 2013, पृष्ठ 40।
- ↑ जाफ़री, तशई दर मसीर तारीख़, 1380, पृष्ठ 161।
- ↑ इब्ने कसीर, अल-बेदाया व अल-नेहाया, दार अल-फ़िक्र, खंड 8, पृष्ठ 21।
- ↑ अबुल फरज इस्फ़ाहानी, मक़ातिल अल-तालेबीन, दार अल-मारेफ़ा, पीपी. 67 आगे; इब्ने अबी अल-हदीद, नहजुल बलाग़ा पर टिप्पणी, 1404 हिजरी, खंड 16, पृष्ठ 25 आगे।
- ↑ जाफ़री, तशई दर मसीर तारीख़, 1380, पृष्ठ 161।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 11; इब्ने आसम, अल-फ़ुतुह, 1411 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 286।
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1397 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 29
- ↑ अबुल फरज इस्फ़ाहानी, मक़ातिल अल-तालेबीन, दार अल-मारेफ़ा, पी. 71.
- ↑ अबुल फरज इस्फ़ाहानी, मकातिल अल-तालेबीन, दार अल-मारेफा, पीपी. 73-74.
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 38।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 11।
- ↑ याक़ूबी, तारीख याक़ूबी, दार सादिर, खंड 2, पी. 214।
- ↑ दीनवरी, अल-अख़बार अल-तवाल, 1368, पृष्ठ 217।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 12।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 12; बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 35।
- ↑ जाफ़रयान, हयाते फ़िक्री व सेयासी आइम्मा, 2013, पीपी। 148-155।
- ↑ आले-यासीन, सुलह अल-हसन, 1412 हिजरी, पीपी 259-261।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 12; बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 35।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 12।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 13।
- ↑ तबरसी, अल-एहतेजाज, 1403 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 290।
- ↑ याकूबी, तारीख़ याकूबी, दार सादिर, खंड 2, पृष्ठ 214।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पीपी 13-14।
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- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 59।
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- ↑ इब्ने साद, तबक़ात अल-कुबरा, 1418 हिजरी, खंड 10, पीपी 351-352।
- ↑ इब्ने साद, तबक़ात अल-कुबरा, 1418 हिजरी, खंड 10, पृष्ठ 353; इब्ने असाकर, तारीख़ मदीना दमिश्क, 1415 हिजरी, खंड 13, पृष्ठ 295; इसके अलावा तबरी, तारीख तबरी, 1387 हिजरी का संदर्भ लें। वॉल्यूम 5, पृष्ठ 279।
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 62-60; दीनवरी, अल-अख़बार अल-तव्वाल, 1368, पृष्ठ 221; शेख़ तूसी, अमाली, 1414 हिजरी, पृष्ठ 160।
- ↑ इब्ने अब्द अल-बर्र, अल-इस्तियाब फ़ी मारेफ़ा अल असहाब, 1412 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 388; हलबी, अल-सीरा अल-हलबिया, 1427 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 517।
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 62।
- ↑ शेख़ मुफीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 17; तबरसी, आलाम अल वरा, 1417 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 414; इब्ने शहर आशूब, अल-मनाक़िब, 1379 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 44।
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 62-60।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 17।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 18। इन्हें भी देखें: बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ, 1417 हिजरी, खंड 3, पीपी 64-65; दीनवरी, अल-अख़बार अल-तव्वाल, 1368, पृष्ठ 221; शेख़ तूसी, अमाली, 1414 हिजरी, पीपी 161-160।
- ↑ अबुल फरज इस्फ़ाहानी, मक़ातिल अल-तालेबीन, दार अल-मारेफा, पी. 82
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 61।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 18।
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- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 18।
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 3, पीपी. 64-65; दीनवरी, अल-अख़बार अल-तव्वाल, 1368, पृष्ठ 221; शेख तूसी, अमाली, 1414 हिजरी, पीपी 161-160।
- ↑ शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पीपी 18-19; इब्ने शहर आशूब, अल-मनाक़िब, 1379 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 44।
- ↑ इब्ने शहर आशूब, अल-मनाक़िब, 1379 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 44।
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 64; कुलैनी, काफ़ी, 1363, खंड 1, पीपी. 461 और 462; शेख़ मुफीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 15; मक्रीज़ी, अमता अल अस्माअ, 1420 हिजरी, खंड 5, 361; दियार बेकरी, तारीख अल-खमीस, दार सादिर, खंड 2, पृष्ठ 293; इब्ने अब्द अल-बर्र, अल-इस्तियाब फ़ी मारेफ़ा अल-असहाब, 1412 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 389।
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- ↑ कुलैनी, काफ़ी, 1363, खंड 1, पृष्ठ 461; शेख़ मुफ़ीद, अल-इरशाद, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 15; तबरसी, एलाम अल वरा, 1417 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 403; एरबली, कश्फ़ अल-ग़ुम्मा, 1421 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 486।
- ↑ बलाज़री, अंसाब अल-अशराफ़, 1417 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 66; मक्रीज़ी, अमता अल अस्माअ, 1420 हिजरी, खंड 5, 361; दियार बेकरी, तारीख अल-खमीस, दार सादिर, खंड 2, पृष्ठ 293; इब्ने अब्द अल-बर्र, अल-इस्तियाब फ़ी मारेफ़ा अल-असहाब, 1412 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 389।
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- अल्लामा मजलिसी, मुहम्मद बाक़िर, बिहार अल अनवार, तेहरान, इस्लामिया, दूसरा, 1363 शम्सी।
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- काजी अब्द अल-जब्बार, तस्बीत दलाएल अल नुबूवा, काहेरा, दार अल मुस्तफ़ा, बी ता।
- क़ाज़ी नोमान मग़रिब, अल-मनाक़िब व अल-मसालिब, बेरूत, आलमी, 1423 हिजरी।
- काजी नोमान मग़रिबी, शरहे अल अख़्बार फ़ी फ़ज़ाएल अल आइम्मा अल अतहार, अल-नशर अल-इस्लामी फाउंडेशन, बी।
- कुरैशी, बाक़िर शरीफ, हयात अल-इमाम अल-हसन बिन अली, बेरूत, दार अल-बालाग़ा, 1413 हिजरी।
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- कंदूज़ी, सुलेमान बिन इब्राहीम, यानाबी' अल-मोअद्दा, क़ुम, उसवा, दूसरा, 1422 हिजरी।
- कुलैनी, मोहम्मद बिन याक़ूब, अल-काफ़ी, तेहरान, इस्लामिया, दूसरा, 1362।
- कुलैनी, मुहम्मद बिन याक़ूब, अल-काफ़ी, अली अकबर गफ़्फ़ारी, बेरूत, 1401
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- मोहम्मदी, सैय्यद काज़िम, दशती, मोहम्मद, अल-मुअजम अल-मुफ़हरिस ले अलफ़ाज़ नहजुल अलबलाग़ा, क़ुम: इमाम अली पब्लिशिंग हाउस, 1369।
- मसऊदी, अली बिन हुसैन, मुरूज अल ज़हब व मआदिन अल जौहर, असद दाग़िर द्वारा शोध, क़ुम, दार अल हिजरा, दूसरा, 1409 हिजरी।
- मसऊदी, अली बिन हुसैन, किताब अल-तनबीह व अल अशराफ़, दखविया द्वारा प्रकाशित, 1894
- मुक़द्दसी, मुतह्हिर बिन ताहिर, अल बदा व अल तारीख़, बूर सईद, मकतबा अल सक़ाफ़ा अल दीनिया, बी ता।
- मुक़द्दसी, यदुल्लाह, "बर्रसी व नक़्द गुज़ारिश हाए तारीख़े शहादत इमाम हसन मुज्तबा (अ), तारीख़े इस्लाम, 11वां वर्ष, पाईज़ व ज़मिस्तान 1389 हिजरी।
- मुकद्दसी, यदुल्लाह, बाज़ पज़ोहिश तारीख़े विलादत व शहादत मासूमान, क़ुम, पज़ोहिशगाह उलूम व फ़र्हंग इस्लामी, 1391 शम्सी।
- मिक़रीज़ी, तक़ी उद्दीन, इम्ता अस अस्मा, बेरूत, दार अल-कुतुब अल इलमिया, 1420 हिजरी।
- मकारिम शिराज़ी, नासिर, बर ग़ुज़ीदे तफ़्सीरे नमूना, तेहरान, दार अल-कुतुब अल-इस्लामिया, 2006।
- महदवी दामगानी, महमूद व बागिस्तानी, इस्माईल, "हसन बिन अली, इमाम", इनसाइक्लोपीडिया ऑफ इस्लामिक वर्ल्ड, खंड 13, तेहरान, बुनियाद दायरा अल मआरिफ़ इस्लामी, 1388 शम्सी।
- मूसली, मुहम्मद बिन अब्दुल वाहिद, मनाक़िब आले मुहम्मद अल मुसम्मा बिल नईम अल मुक़ीम ले इतरा अल नबा अल अज़ीम, बेरूत, मोअस्ससा अल आलमी, 1424 हिजरी।
- नसाई, अहमद बिन अली, सुनन अल-नसाई, जलाल अल-दीन सियुती की व्याख्या के साथ, बेरूत, दार अल-किताब अल इलमिया, बी ता ।
- नस्र बिन मुज़ाहिम, वक्का सफ़्फ़ीन, क़ुम, मकतबा आयतुल्ला अल-मर्शी अल-नजफी, 1404 हिजरी।
- नोवैरी, अहमद बिन अब्द अल-वहाब, नेहाया अल अरब फ़ी फ़ुनून अल अदब, क़ाहिरा, दार अल-कुतुब व अल वसाएक़ अल क़ौमिया, 1423 हिजरी।
- याक़ूबी, अहमद बिन अबी याकूब, तारिख़ अल याक़ूबी, बेरूत, दार सदिर, बी.
- यमानी, अहमद ज़की, मौसूआ मक्का अल मुकर्रमा व अल मदीना अल मुनव्वरा, मोअस्ससा अल फ़ुरक़ान, 1429 हिजरी।