आय ए विलायत

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आय ए विलायत
आयत का नामविलायत
सूरह में उपस्थितसूर ए मायदा
आयत की संख़्या55
पारा6
शाने नुज़ूलरुकूअ की अवस्था में इमाम अली (अ) द्वारा अंगूठी का दान करना
नुज़ूल का स्थानमदीना
विषयएतेक़ादी, इमामत और इमाम अली (अ) की विलायत
सम्बंधित आयातआय ए तब्लीग़, आय ए इकमाल, आय ए ऊलिल अम्र

आय ए विलायत (अरबी: آية الولاية) (मायदा: 55) ईश्वर, पैग़म्बर (स) और नमाज़ के रुकूअ की अवस्था में इंफ़ाक़ (दान) करने वाले मोमेनीन की विलायत और नेतृत्व को व्यक्त करती है। शिया और सुन्नी टीकाकारों के अनुसार इस आयत के नाज़िल होने का कारण हज़रत अली (अ) का नमाज़ के रुकूअ की अवस्था में किया गया इंफ़ाक़ (दान) था। तदनुसार, शिया हज़रत अली (अ) की विलायत और उत्तराधिकार को सिद्ध करने के लिए इस आयत का उल्लेख करते हैं।

सुन्नी विद्वान "वली" शब्द का अर्थ "मित्र" मानते हैं और हज़रत अली (अ) की विलायत सिद्ध करने के लिए इस आयत के शिया तर्क को स्वीकार नहीं करते हैं। दूसरी ओर, शिया विद्वानों का कहना है कि आयत के नाज़िल होने के कारण और "वली" शब्द के उदाहरण की विशिष्टता से यह समझ आता है कि यहां "वली" का अर्थ "दोस्ती" नहीं हो सकता है; बल्कि, इसका अर्थ विलायत (संरक्षकता) और सरपरस्ती (संरक्षण) है।

इस आयत की चर्चा टीका (तफ़सीर), धर्मशास्त्र (कलाम) तथा न्यायशास्त्र (फ़िक़ह) की पुस्तकों में मिलती है। न्यायशास्त्रियों ने इस आयत से कुछ अहकाम निकाले हैं। उनमें से यह है कि छोटी-मोटी अतिरिक्त हरकतें (कार्य) नमाज़ को अमान्य नहीं करतीं।

आयत का पाठ और अनुवाद

स्थिति

आय ए विलायत इमाम अली (अ) की विलायत और इस्लाम के पैग़म्बर (स) के उत्तराधिकार को सिद्ध करने के शिया कारणों में से एक है।[१] कुछ ने इसे इमाम अली (अ) की इमामत को सिद्ध करने के लिए सबसे मज़बूत काराण माना है।[२]

शिया[३] और सुन्नी[४] टीकाकारों का मानना है कि इस आयत के नाज़िल होने का कारण हज़रत अली (अ) द्वारा नमाज़ में फ़क़ीर को दान देना था। इसलिए, इस आयत को और अंगूठी के दान की घटना को इमाम अली (अ) के गुणों में से एक माना जाता है जिसकी ओर क़ुरआन में भी इशारा किया गया है। किताब अल मुस्तरशद फ़ी अल इमामा में वर्णित हुआ है कि इमाम अली (अ) ने छह लोगों की परिषद में अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए स्वयं को इस आयत के नाज़िल होने के कारण के रुप में उल्लेख किया है।[५]

इस आयत की चर्चा धर्मशास्त्रीय (कलामी),[६] टीका (तफ़सीरी),[७] और न्यायशास्त्रीय (फ़िक़ही)[८] पुस्तकों में की गई है। "वली" के अर्थ के बारे में शिया और सुन्नी की असहमति ने इस आयत की व्याख्या में कई बहसों को जन्म दिया है।

नाज़िल होने का कारण

मुख्य लेख: अंगूठी का दान

हदीसों में वर्णित के अनुसार, एक दिन एक फ़क़ीर व्यक्ति पैग़म्बर (स) की मस्जिद में प्रवेश करता है और सहायता मांगता है; परन्तु कोई उसे कुछ नहीं देता. वह अपना हाथ आसमान की ओर उठाता है और कहता है: "हे भगवान, गवाह रहना कि मैंने तेरे रसूल की मस्जिद में सहायता मांगी; लेकिन किसी ने मुझे कुछ नहीं दिया।” इसी बीच इमाम अली (अ) जो रुकूअ की अवस्था में थे, अपने हाथ में मौजूद अंगूठी की ओर इशारा करते हैं। फ़क़ीर इमाम अली (अ) के पास आता है और उनके हाथ से अंगूठी ले लेता है और उसी समय यह आयत नाज़िल होती है।[९]

शेख़ मुफ़ीद ने इस घटना की तारीख़ और आय ए विलायत के नुज़ूल को ज़िल हिज्जा की 24 तारीख़ माना है।[१०]

शाने नुज़ूल से सम्बंधित हदीसों की वैधता

अल्लामा तबातबाई:

"यदि इस आयत के नाज़िल होने के कारण के बारे में इन सभी हदीसों को नज़रअंदाज कर दिया जाए, तो आपको सामान्य रूप से कुरआन की व्याख्या को नज़रअंदाज करना चाहिए; क्योंकि जब हम इतनी सारी हदीसों पर भरोसा नहीं कर सकते हैं, तो हम कुरआन की अन्य आयतों की व्याख्या में उल्लिखित एक या दो हदीस पर कैसे भरोसा कर सकते हैं?

तबातबाई, अल-मीज़ान, 1390 हिजरी, खंड 6, पृष्ठ 8।

आय ए विलायत से सम्बंधित हदीसों का वर्णन इब्ने अब्बास,[११] अम्मार,[१२] अनस इब्ने मालिक,[१३] अबू राफ़ेअ मदनी[१४] और मिक़दाद[१५] जैसे सहाबा द्वारा किया गया है। सुन्नी विद्वानों में से एक, क़ाज़ी ईजी के अनुसार, टिप्पणीकार हज़रत अली (अ) की गरिमा में इस आयत के रहस्योद्घाटन पर सहमत (इजमा) हैं।[१६] हालांकि, इब्ने तैमिया,[१७] इब्ने कसीर[१८] और फ़ख़्रे राज़ी[१९] ने इस आयत से संबंधित हदीसों का कमज़ोर (ज़ईफ़) माना है। इसके अलावा, कुछ सुन्नी व्याख्याओं में, इस बारे में की यह आयत किसकी गरिमा के लिए नाज़िल हुई है, चार मत प्रस्तुत किए हैं: इमाम अली (अ), ओबादा बिन सामित, अबू बक्र बिन अबी क़हाफ़ा और सभी मुसलमान[२०]

इब्ने शोबा हर्रानी ने अपनी पुस्तक तोहफ़ अल उक़ूल में इस आयत के शाने नुज़ूल की हदीसों को प्रामाणिक हदीसों और उन हदीसों में से एक माना है जिस पर विद्वान सहमत (इजमा) हैं।[२१] तफ़सीर अल मीज़ान में अल्लामा तबातबाई के अनुसार, इस आयत के शाने नुज़ूल से सम्बंधित हदीसें क़ुरआन के अनुरूप हैं।[२२] उनके अनुसार, तफ़सीर और हदीस के बुज़ुर्गों ने इन हदीसों का उल्लेख किया है और उनका विरोध भी नहीं किया, और कुछ जैसे इब्ने तैमिया जो असहमत था, उसने दुश्मनी को चरम पर पहुंचा दिया है।[२३]

इमाम अली (अ) की विलायत पर प्रमाण

शिया विद्वान इस आयत को इमाम अली (अ) की विलायत (संरक्षकता) और ख़िलाफ़त का प्रमाण मानते हैं। उनके अनुसार, यह आयत "इन्नमा" (केवल) शब्द से शुरू होती है और अरबी साहित्य में, जब एक वाक्य "इन्नमा" शब्द से शुरू होता है, तो यह वाक्य के अर्थ को विशिष्ट बना देता है;[२४] अर्थात इस आयत में विलायत विशिष्ट है ईश्वर, पैग़म्बर (स) और उन में जो रुकूअ की अवस्था में इंफ़ाक़ (दान) करते हैं।[२५] इस आयत के नाज़िल होने के कारण के आधार पर, रुकूअ में इंफ़ाक़ करने वाले व्यक्ति का उदाहरण इमाम अली (अ) हैं।[२६]

इमाम सादिक़ (अ) की एक रिवायत में, इस आयत और आय ए ऊलिल अम्र को ईश्वर के दूतों का पालन करने के दायित्व के लिए उद्धृत किया गया है।[२७]

शिया और सुन्नी दृष्टिकोण में वली के अर्थ के बीच अंतर

कई सुन्नी विद्वान इस आयत के नुज़ूल का कारण हज़रत अली (अ) को मानते हैं; लेकिन उनके अनुसार, "वली" शब्द का अर्थ "मित्र" और "सहायक" है, न कि "पर्यवेक्षक" (सरपरस्त)।[२८] लेकिन शिया विद्वान "वली" शब्द का अर्थ "सरपरस्त" और "साहिबे इख़्तेयार" मानते हैं।[२९] मकारिम शिराज़ी के अनुसार, दोस्ती उन लोगों के लिए नहीं है जो रुकूअ की हालत में ज़कात देते हैं; बल्कि, यह एक सामान्य नियम है और सभी मुसलमानों को एक-दूसरे से प्यार करना चाहिए और दुआ करनी चाहिए। जबकि आयत के शाने नुज़ूल के अनुसार इस आयत में "वली" का उदाहरण केवल हज़रत अली (अ) ही हैं। तो आयत में "वली" का अर्थ विलायत (संरक्षकता) और सरपरस्ती है; खास बात यह है कि इस विलायत को पैग़म्बर (स) और ईश्वर की विलायत की पंक्ति में रखा गया है।[३०]

यह भी देखें: इमाम अली (अ) की विलायत

न्यायशास्त्रीय अनुप्रयोग

  • छोटी-मोटी हरकतों से नमाज़ का अमान्य न होना: कुछ शिया न्यायविदों ने यह सिद्ध करने के लिए कि शरीर की छोटी-मोटी हलचलें नमाज़ को अमान्य नहीं करती हैं, रुकूअ की अवस्था में हज़रत अली (अ) के अंगूठी के दान का हवाला दिया है।[३१]
  • ज़कात में मुस्तहब सदक़ा भी शामिल है: इस आयत में अंगूठी के दान को ज़कात के शीर्षक के साथ उल्लेख किया गया है। कुछ न्यायविदों ने निष्कर्ष निकाला है कि ज़कात में मुस्तहब सदक़ा भी शामिल है।[३२]
  • कुछ न्यायविदों ने इस आयत के साथ यह सिद्ध करने के लिए कि नीयत, दिल का कार्य है और इसे बोलने की आवश्यकता नहीं है इस आयत का हवाला दिया है।[३३]
  • नमाज़ में दिल की उपस्थिति के साथ दान करने का कोई विरोधाभास नहीं: अल्लामा मजलिसी के अनुसार, नमाज़ में किसी अन्य इबादत पर ध्यान देना नमाज़ की पूर्णता और उसमें दिल की उपस्थिति के साथ विरोधाभास नहीं है।[३४] उन्होंने यह भी कहा कि हज़रत अली (अ) की नमाज़ और दान दोनों ईश्वर के लिए थे। इसलिए, इमाम के लिए नमाज़ के दौरान एक फ़क़ीर व्यक्ति की आवाज़ सुनना और भगवान की खुशी के लिए उसे दान देना कोई विरोधाभास नहीं है।[३५]

एलल अल शराया में वर्णित एक हदीस के अनुसार, जब भी पैग़म्बर (स) नमाज़ पढ़ते समय किसी बच्चे के रोने की आवाज़ सुनते थे, तो वह सामान्य समय से पहले नमाज़ समाप्त कर देते थे ताकि बच्चे की माँ उनके पास जा सके।[३६]

सम्बंधित लेख

फ़ुटनोट

  1. शेख़ मुफ़ीद, अल अफ़साह फ़ी अल इमामा, अल मूतमर अल आलमी ले अल्फ़िया अल शेख़ अल मुफ़ीद, पृष्ठ 134; तूसी, अल-तिब्यान, दार एह्या अल-तोरास अल-अरबी, खंड 3, पृष्ठ 559।
  2. तूसी, तलख़ीस अल-शाफ़ी, 1382 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 10।
  3. उदाहरण के लिए देखें, तबरसी, मजमा अल बयान, 1372 शम्सी, खंड 3, पृष्ठ 324; तूसी, अल-तिब्यान, दार एह्या अल-तोरास अल-अरबी, खंड 3, पृष्ठ 558-559; फ़ैज़ काशानी, तफ़सीर अल-साफ़ी, 1415 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 44; तबातबाई, अल-मीज़ान, 1390 हिजरी, खंड 6, पृष्ठ 8।
  4. उदाहरण के लिए, देखें: हाकिम हस्कानी, शवाहिद अल-तंज़िल, 1411 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 209-239।
  5. तबरी, अल-मुस्तरशद, 1415 हिजरी, पृष्ठ 353।
  6. उदाहरण के लिए देखें, सय्यद मुर्तज़ा, अल-ज़खीरा, 1431 हिजरी, पृष्ठ 439।
  7. उदाहरण के लिए देखें, अल-मीज़ान, 1390 हिजरी, खंड 6, पृष्ठ 8।
  8. उदाहरण के लिए देखें, फ़ाज़िल मिक़दाद, कंज़ अल-इरफ़ान, 1425 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 158।
  9. हाकिम हस्कानी, शवाहिद अल-तंज़िल, 1411 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 209-239; क़ुमी, तफ़सीर अल-क़ुमी, 1404 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 170; अय्याशी, तफ़सीर अल-अय्याशी, 1380 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 327, हदीस, 137।
  10. शेख़ मुफ़ीद, मसार अल-शिया, 1414 हिजरी, पृष्ठ 41।
  11. हाकिम हस्कानी, शवाहिद अल-तंज़िल, 1411 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 232।
  12. स्यूति, अल-दुर अल-मंसूर, 1403 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 106।
  13. हाकिम हस्कानी, शवाबहिद अल-तंज़िल, 1411 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 225।
  14. तबरानी, अल-मोजम अल-कबीर, बी ता, खंड 1, पृष्ठ 321-320, हदीस. 9559।
  15. हाकिम हस्कानी, शवाहिद अल-तंज़िल, 1411 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 228।
  16. ईजी, अल मुवाफ़िक़, आलम अल-कुतुब, पृष्ठ 405।
  17. इब्ने तैमिया, मिन्हाज अल-सुन्नत, 1406 हिजरी, खंड 7, पृ.7-9।
  18. इब्ने कसीर, तफ़सीर अल-कुरआन अल-अज़ीम, दार अल-कुतुब अल-इल्मिया, खंड 3, पृष्ठ 125-127।
  19. फ़ख़्रे राज़ी, तफ़सीर अल-फ़ख़्र अल-राज़ी, 1420 हिजरी, खंड 12, पृष्ठ 383-385।
  20. इब्ने जौज़ी, ज़ाद अल-मसीर, दार अल-कुतुब अल-अरबी, खंड 1, पृष्ठ 561।
  21. इब्ने शोबा हर्रानी, तोहफ़ अल-ऊक़ूल, 1404 हिजरी, पृष्ठ 459।
  22. तबातबाई, अल-मीज़ान, 1390 हिजरी, खंड 6, पृष्ठ 20।
  23. तबातबाई, अल-मीज़ान, 1390 हिजरी, खंड 6, पृष्ठ 25।
  24. इब्ने हिशाम, मुग़नी अल-लबीब, 1410 हिजरी, खंड 1, 39।
  25. सय्यद मुर्तज़ा, अल-ज़खीरा, 1431 हिजरी, पृष्ठ 439।
  26. शुश्त्री, अहक़ाक अल-हक़, 1409 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 400; हाकिम हस्कानी, शवाहिद अल-तंज़िल, 1411 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 209-239।
  27. कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, पृष्ठ 187।
  28. ईजी, अल-मोवाफ़िक, आलम अल-कुतुब, खंड 1, 405।
  29. तबातबाई, अल-मीज़ान, 1390 हिजरी, खंड 6, पृष्ठ 8; फ़य्यूमी, अल-मिस्बाह अल-मुनीर, 1414 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 672; शुश्त्री, अहक़ाक़ अल-हक़, 1409 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 408।
  30. मकारिम, तफ़सीर अल-नमूना, 1374 शम्सी, खंड 4, पृष्ठ 423।
  31. फ़ाज़िल मिक़दाद, कंज़ अल-इरफ़ान, 1425 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 158।
  32. फ़ाज़िल मिक़दाद, कंज़ अल-इरफ़ान, 1425 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 158।
  33. मजलिसी, बिहार अल-अनवार, 1403 हिजरी, खंड 81, पृष्ठ 281।
  34. मजलिसी, बिहार अल-अनवार, 1403 हिजरी, खंड 81, पृष्ठ 281।
  35. तबसी, "निशाने विलायत व जिरयाने ख़ातम बख़्शी", पृष्ठ 49।
  36. सदूक़, एलल अल शराया, मंशूरात अल मकतबा अल हैदरिया व मतबअतोहा फ़ी अल नजफ़, खंड 2, पृष्ठ 344।

स्रोत

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