इमाम की श्रेष्ठता

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यह लेख इमाम की श्रेष्ठता के बारे में है। शिया इमामों (अ) की सर्वोच्चता के लिए, अहले-बैत (अ) की सर्वोच्चता वाला लेख देखे।

इमाम की श्रेष्ठता (अरबीः أفضلية الإمام) इमामत की शर्तों में से एक शर्त है और इसका अर्थ है सभी मानवीय गुणों और पूर्णता (कमालात) में इमाम का दूसरो से श्रेष्ठ होना है। इमामिया धर्मशास्त्रियों के दृष्टिकोण से, इमाम को ज्ञान, धर्म, धर्मपरायणता (तक़वा), उदारता (सख़ावत) और बहादुरी के साथ-साथ परलोक से लाभ उठाने में अपने समय के सभी प्राणीयो से श्रेष्ठ होना चाहिए। इमाम की श्रेष्ठता को साबित करने के लिए, वरीयता के बिना प्राथमिकता और श्रेष्ठ पर पसंदीदा को प्राथमिकता की कुरूपता के सिद्धांत और पैग़म्बर (स) का कथन भी "जो व्यक्ति किसी समूह के नेतृत्व और इमामत का बेड़ा उठाए जबकि उस समूह मे उस व्यक्ति से अधिक बुद्धिमान मौजूद हो उस समूह का अंजाम पुनरुत्थान के दिन तक विनाश के अलावा कुछ नही होगा" और क़ुरआन की कुاछ आयतो का भी हवाला दिया जाता हैं।

अधिकांश सुन्नी इमाम की श्रेष्ठता को अनिवार्य नहीं मानते हैं और कोई बाधा या समीचीनता (मसलहत) की स्थिति मे पसंदीदा (मफ़ज़ूल) की इमामत जायज़ मानते हैं। चंद्र कैलेंडर की 8वीं शताब्दी के अश्अरी धर्मशास्त्री सादुद्दीन तफ़ताज़ानी के अनुसार, सुन्नियों और अधिकांश इस्लामी संप्रदायो के अनुसार, इमामत किसी ऐसे व्यक्ति का अधिकार है जो अपने समय में दूसरों से श्रेष्ठ हो मगर यह कि उसकी इमामत अराजकता और देशद्रोह का स्रोत बने। सुन्नियों की ओर से दिए गए तर्को मे उनके बीच श्रेष्ठ की उपस्थिति के बावजूद ख़ोलफ़ा राशेदीन के बाद मफ़ज़ूल (कुछ कुरैश) की इमामत पर विद्वानों की सर्वसम्मति (इज्माअ) और दूसरे खलीफ़ा की ओर से ख़िलाफ़त के चुनाव को छह लोगों की परिषद को सौपना है।

शिया विद्वानों के अनुसार, शियो के इमाम (अ) पैग़म्बर (स) के बाद ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना हैं। अल्लामा मजलिसी का मानना है कि केवल वे लोग जो हदीसों से अनभिज्ञ हैं वे इमाम (अ) की श्रेष्ठता से इनकार करते हैं। इमाम अली (अ) की इमामत को साबित करने के लिए इमाम की श्रेष्ठता का तर्क दिया गया है, जिसे श्रेष्ठता का प्रमाण (बुरहान अफ़ज़लियत) कहा जाता है।

परिभाषा और दायरा

इमामिया धर्मशास्त्रियों की राय में, इमाम की श्रेष्ठता का अर्थ है ज्ञान, न्याय (अदालत), बहादुरी और धर्मपरायणता (तक़वा) जोकि इमामत की शर्तो मे से है। मे इमाम को दूसरो से श्रेष्ठ होना लिया जाता है हैं।[१] कुछ धर्मशास्त्रों में सूत्रों के अनुसार, श्रेष्ठता का अर्थ है इबादत में श्रेष्ठता और अधिक दैवीय पुरस्कारों से लाभ प्राप्त करना भी आया है।[२] इसलिए, इमामीया धर्मशास्त्री इमाम को सभी मानवीय गुणो पूर्णताओं जैसे ज्ञान, धर्म, धर्मपरायणता (तक़वा), उदारता (सख़ावत), बहादुरी[३] और परलोक से लाभ उठाने मे दूसरे लोगो से श्रेष्ठ और सर्वोच्च मानते हुए[४] इस बात को मानते है कि इमाम को अपने समय के लोगों में सबसे बुद्धिमान, सबसे बहादुर, सबसे उदार, धैर्यवान, धर्मपरायण आदि होना चाहिए।[५] ताकि लोग उनका बेहतर अनुसरण कर सकें।[६]

यह कहा गया है कि इमाम के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह धन, पद और शक्ति जैसे सांसारिक मामलों में दूसरों से श्रेष्ठ हो; क्योंकि लक्ष्य वास्तव में इमाम का अनुसरण करना और उस पर ईमान रखना है, न कि स्पष्ट आज्ञाकारिता।[७]

शिया दृषिटकोण से इमाम की श्रेष्ठता

शिया इमामिया धर्मशास्त्रियों का मानना है कि श्रेष्ठता इमामत की शर्तों में से एक शर्त है[८] और वे इस पर सहमत हैं।[९] इमाम की श्रेष्ठता को साबित करने के लिए बौद्धिक (अक़ली) और कथात्मक (नक़ली) तर्क (दलीले) प्रस्तुत किए गए हैं।

बौद्धिक तर्क

  1. इमाम गुणों (फ़ज़ाइल) और पूर्णता (कमालात) में या तो दूसरों के बराबर है या उनसे कम है या उनसे श्रेष्ठ है। यदि वह दूसरों के बराबर है, तो उसे इमाम के रूप में चुनना बिना वरीयता के प्राथमिकता है (किसी प्रमुख कारण के बिना दो समान चीजों में से एक को चुनना) जिसे बुद्धि स्वीकार नही करती। और हम इस बात को भलिभांति जानते है कि ईश्वर कभी ऐसा कार्य नही करता। यदि इमाम गुणो और पूर्णता मे दूसरों से कम है फिर भी इसे इमाम बनाया जा रहा है अर्थात किसी श्रेष्ठ व्यक्ति की तुलना में निचले व्यक्ति को प्राथमिकता देना है इस बात को भी बुद्धि स्वीकार नही करती और ऐसा करना बुद्धि के अनुसार भी घृणित है। इसलिए इमाम को दूसरों से गुणो और पूर्णता मे श्रेष्ठ होना चाहिए।[१०]
  2. इमाम के लिए अचूक होना अनिवार्य है। मासूम, गैर-मासूम से श्रेष्ठ होता है। इसलिए इमाम दूसरों से श्रेष्ठ हैं।[११]
  3. इमाम की नियुक्ति पैग़म्बर (स) द्वारा की जाती है। पैग़म्बर (स) ने अपने उत्तराधिकारी को चुनने में हमेशा उत्कृष्टता पर ध्यान दिया है।[१२]

कथात्मक तर्क

इमाम की श्रेष्ठता साबित करने के लिए सूर ए युनुस की आयत न 35, आय ए सादेक़ीन[१३] (सूर ए तौबा की आयत न 119)[१४] और सूर ए ज़ुमर की आयत न 9[१५] का हवाला दिया गया है। इन आयतो मे ईश्वर की ओर से जो व्यक्ति सत्य का मार्गदर्शन करता है उसे उस व्यक्ति की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है जिसे मार्गदर्शन की आवश्यकता है, ग़ैर सादेक़ीन की तुलना में "सादेक़ीन" को प्राथमिकता दी जाती है, और गैर-विद्वान की तुलना में विद्वान को प्राथमिकता दी जाती है। ये सभी श्रेष्ठ व्यक्ति की प्राथमिकता को दर्शाते हैं।[१६]

इमाम की श्रेष्ठता को साबित करने के लिए रिवायतो का भी हवाला दिया गया है।[१७] उदाहरण के लिए, एक परंपरा में जिसे पैगंबर (स) से उद्धृत किया गया है: "مَنْ أَمَ قَوْماً وَ فِیهِمْ مَنْ هُوَ أَعْلَمُ مِنْهُ لَمْ یزَلْ أَمْرُهُمْ إِلَی السَّفَالِ إِلَی یوْمِ الْقِیامَةِ؛ मन अमा क़ौमन व फ़ीहिम मन होवा आलमे मिन्हो लम यज़ल अमरोहुम एलस सफ़ाले ऐला यौमिल क़ियामा; जो व्यक्ति किसी समूह के नेतृत्व और इमामत का बेड़ा उठाए जबकि उस समूह मे उस व्यक्ति से अधिक बुद्धिमान मौजूद हो उस समूह का अंजाम पुनरुत्थान के दिन तक विनाश के अलावा कुछ नही होगा[१८] इस रिवायत मे श्रेष्ठ पर पसंदीदा की प्राथमिकता को घृणित बताया गया है।[१९]

सुन्नी स्रोतो मे भी एक रिवायत का वर्णन हुआ है जिसके अनुसार अबू दर्दा अबू बक्र के आगे चल रहा था, पैग़म्बर (स) ने फ़रमाया: "क्या किसी ऐसे व्यक्ति के आगे आगे चल रहे हो जो इस दुनिया और उसके बाद अर्थात आख़ेरत मे तुम से बेहतर है?"[२०] इस कथन में कहा गया है कि पसंदीदा (मफ़ज़ूल) का रास्ता चलने मे अफ़ज़ल पर प्राथमिकता की कुरूपता (क़बाहत) पर स्पष्ट है। जब ऐसा है तो पंसदीदा (मफ़ज़ूल) का इमामत और नेतृत्व जैसे महत्वपूर्ण मामलो मे श्रेष्ठ पर प्राथमिकता देने की कुरूपता तो अधिक तरीके से इंगित करती है।[२१]

सुन्नीयो के दृष्टिकोण से मफ़ज़ूल की इमामत का जायज़ होना

अधिकांश सुन्नी इमाम की श्रेष्ठता को कोई शर्त या वाजिब नहीं मानते और किसी पसंदीदा (मफ़ज़ूल) व्यक्ति की इमामत को जायज़ मानते हैं।

अशाएरा: अश्अरी धर्मशास्त्री इमाम की श्रेष्ठता की आवश्यकता और सशर्तता को स्वीकार नहीं करते हैं। इसलिए वो पसंदीदा (मफ़ज़ूल) के इमामत जायज़ मानते हैं।[२२] हालाँकि, चंद्र कैलेंडर की पाँचवीं शताब्दी के अश्अरी धर्मशास्त्र क़ाज़ी अबू बक्र बाक़लानी श्रेष्ठता को इमाम की आवश्यक शर्तो में से एक शर्त मानते है मगर यह कि श्रेष्ठ को इमाम क़रार देने मे कोई बाधा मौजूद हो, ऐसी स्थिति में पसंदीदा (मफ़ज़ूल) की इमामत जायज़ हो जाएगी।[२३] उन्होने श्रेष्ठता की आवश्यकता को साबित करने के लिए कई तर्को का हवाला दिया हैं, जिनमें पैग़म्बर (स) का यह कथन یَؤُمُّ القَومَ اَفْضَلُهُم؛ यौमुल कौमा अफ़ज़लोहुम; अनुवादः किसी राष्ट्र का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति उनका नेतृत्व करता है।[२४] बाक़लानी का मानना है कि अगर अराजकता, भ्रष्टाचार, ईश्वर के अहकाम बंद होने और इस्लाम के दुश्मनों को इस्लाम के ख़िलाफ़ साहस पैदा होने का शंका हो, तो श्रेष्ठ व्यक्ति को छोड़ कर पसंदीदा (मफ़ज़ूल) को इमाम बनाया जा सकता है।[२५] इसके अलावा, 8वीं शताब्दी में अश्अरी धर्मशास्त्रि सादुद्दीन तफ़्ताज़ानी के अनुसार, अधिकांश सुन्नी और इस्लामी संप्रदायो का मानना है कि इमामत किसी ऐसे व्यक्ति का अधिकार है जो हर युग और समय में दूसरों से श्रेष्ठ है, जब तक कि उसकी इमामत अराजकता और देशद्रोह का स्रोत न हो।[२६]

मोअतज़ेला: मोअतज़ेला भी इमाम की श्रेष्ठता को अनिवार्य नहीं मानते हैं और वे पसंदीदा व्यक्ति (ऐसा व्यक्ति जिस पर दूसरा श्रेष्ठता रखता है) को श्रेष्ठ व्यक्ति पर प्राथमिकता देना जायज़ मानते हैं।[२७] चौथी पांचवी चंद्र शताब्दी के प्रमुख मोअतज़ली धर्मशास्त्री क़ाज़ी अब्दुल जब्बार मोअतज़ली का मानना है कि जिन मामलो मे पसंदीदा (मज़फ़ूल) को श्रेष्ठ पर प्राथमिकता देना बेहतर है। वह मामले निम्मलिखित हैः

  • जब अफ़ज़ल में वे कुछ विशेषताएँ नहीं हैं जो एक इमाम में आवश्यक होती हैं, जैसे राजनीतिक सूझ-बूझ इत्यादि का कम होना या ना होना।
  • जब अफ़ज़ल व्यक्ति गुलाम हो या उसे कोई विशेष बीमारी है जिसके कारण उसमे हुदूद इलाही को जारी करने और जिहाद करने की क्षमता न हो,
  • अफ़ज़ल व्यक्ति क़ुरैशी न हो; लेकिन पसंदीदा व्यक्ति कुरैशी हो।[२८]

तर्क

सुन्नीयो ने पंसदीदा (मफ़ज़ूल) की इमामत के जायज़ होने पर कुछ तर्क दिए है उनमे से कुछ इस प्रकार है:

  1. ख़ोलफ़ा राशेदीन के बाद श्रेष्ठ व्यक्ति की उपस्थिति के साथ पंसदीदा (मफ़ज़ूल) की इमामत पर सभी विद्वानो की सर्वसम्मति (इज्माअ);
  2. उमर बिन ख़त्ताब ने इमामत के चुनाव को छह लोगों की परिषद के हवाले कर दिया; जबकि उनके बीच हज़रत अली (अ) और उस्मान दूसरों से श्रेष्ठ थे।
  3. श्रेष्ठता एक छिपी हुई चीज़ है, और इसे पहचानना मुशकिल और मतभेद का स्रोत है।[२९]

परलोक में इमाम की श्रेष्ठता

परलोक मे ईश्वर की ओर से दिए जाने इनाम अर्थात सवाब के मुस्तहक़ होने मे भी इमाम को दूसरो से श्रेष्ठ होने के विभिन्न तर्को से साबित किया जाता है[३०], जिनमें कुछ इस प्रकार हैं:

  • अचूकता अर्थात इस्मत: इमाम के लिए अचूक (मासूम) होना वाजिब है। जो व्यक्ति मासूम होगा वह परलोक में इनाम के मामले में दूसरों से श्रेष्ठ होगा[३१] क्योंकि इमाम मासूम होने के कारण उसका बाहरी और आंतरिक रूप एक जैसा होगा। इसलिए, बाहरी श्रेष्ठता के अलावा, उसमें आंतरिक श्रेष्ठता भी है और इसके बाद के जीवन में अधिक लाभ मिलेगा।[३२]
  • भारी कर्तव्य और बड़ा इनाम: इमाम, इमामत का बोझ उठाने के लिए, उसका कर्तव्य दूसरों की तुलना में भारी और अधिक है। इस कारण उसका सवाब अधिक है।[३३]
  • इमाम का हुज्जत होना: इमाम, पैग़म्बर (स) की तरह, एक दिव्य प्राधिकारी है, और जिस तरह पैग़म्बर (स) ईश्वरीय पुरस्कारों में दूसरों से श्रेष्ठ हैं, इमाम के पास भी उनके जैसे अधिक और श्रेष्ठ पुरस्कार हैं।[३४]

शियो के इमामों की श्रेष्ठता

मुख्य लेख: '''अहले-बैत (अ) की सर्वोच्चता'''

शिया विद्वानों का मानना है कि पैग़म्बर (स) के बाद, शियो के इमाम दूसरो (पैग़म्बरों, स्वर्गदूतों और अन्य लोगों सहित) की तुलना में बेहतर और श्रेष्ठ हैं।[३५] सभी प्राणियों पर इमामों (अ) की श्रेष्ठता को दर्शाने वाले कथनों को मुस्तफ़ीज़ और मुतावातिर माना जाता है।[३६] अल्लामा मजलिसी का मानना है कि जो कोई भी हदीसों पर शोध करेगा वह बिना किसी हिचकिचाहट के पैग़म्बर (स) और आइम्मा (अ) की श्रेष्ठता को स्वीकार करेगा, और केवल वे लोग जो हदीसों से अनभिज्ञ हैं, उनकी श्रेष्ठता से इनकार करेंगे। उनके अनुसार, इस संबंध में जितनी खबरें गिनाई जा सकती हैं, उससे कहीं अधिक हैं।[३७]

एक रिवायत में जिसे इमाम रज़ा (अ) ने अपने पिताओं के माध्यम से इमाम अली (अ) से सुनाया था और उन्होंने पैग़म्बर (स) से सुनाया, और कहा:

...या अली! जिस प्रकार, ईश्वर ने पैग़म्बरों को करीबी स्वर्गदूतों पर श्रेष्ठता प्रदान की और मुझे सभी पैग़म्बरों पर श्रेष्ठता प्रदान की। या अली! मेरे बाद श्रेष्ठता तुम्हारे लिए है और तुम्हारे बाद इमामों के लिए है। सचमुच, फ़रिश्ते हमारे सेवक और हमारे प्रेमी हैं!...[३८]

अन्य साथियों और लोगों पर इमाम अली (अ) की श्रेष्ठता के लिए क़ुरआन और कथात्मक कई तर्क प्रस्तुत किए गए हैं।[३९] अल्लामा हिल्ली ने कश्फ अल मुराद[४०] मे 25 तर्क और इब्न मीसम बहरानी ने अपनी किताब अल-नेजात फ़िल क़यामा[४१] मे 42 तर्क इमाम अली (अ) की श्रेष्ठता पर प्रस्तुत की गई है। इन तर्को में आय ए मुबाहेला, आय ए मवद्दत, हदीस तैर, हदीस ए मंज़ेलत और हदीसे रायत शामिल हैं।[४२]

ऐसा कहा गया है कि बगदाद के सभी मोअतज़ली, जिनमें इब्न अबी अल-हदीद, नहज अल-बलागा के वर्णनकर्ता और बसरा के कुछ मोअतज़ली भी इमाम अली (अ) को तीनो ख़लीफ़ा और अन्य साथियों से श्रेष्ठ मानते थे।[४३]

श्रेष्ठता का प्रमाण

इमाम अली (अ) की इमामत को साबित करने के लिए इमाम की श्रेष्ठता का तर्क दिया गया है। यह तर्क, जिसे श्रेष्ठता का प्रमाण के रूप में जाना जाता है, इस प्रकार है:

  • पहला मुकद्दमा: क़ुरआन और कथनात्मक तर्को के आधार पर, इमाम अली साथियों और अन्य मुसलमानों से श्रेष्ठ थे।
  • दूसरा मुकद्दमा: इमाम की शर्तों में से एक शर्त यह है कि वह मानवीय गुणों और पूर्णता में दूसरों से श्रेष्ठ होना चाहिए।
  • निष्कर्ष: इसलिए, इमाम अली (अ) पैग़म्बर (स) के उत्तराधिकारी और इमाम थे।[४४]

संदेह

सुन्नीयो के एक समूह ने इमाम की श्रेष्ठता पर कुछ आपत्तियाँ उठाई हैं, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:[४५]

  • श्रेष्ठता के लिए वरीयता और पूर्वता की आवश्यकता नहीं है: क्योंकि कुछ मामलों में किसी पसंदीदा (मफ़ज़ूल) व्यक्ति को किसी श्रेष्ठ व्यक्ति पर प्राथमिकता दी जा सकती है। उदाहरण के लिए, यदि पसंदीदा (मफ़ज़ूल) व्यक्ति समाज का नेतृत्व करने और धार्मिक और राजनीतिक मामलों का प्रबंधन करने में श्रेष्ठ व्यक्ति की तुलना में अधिक सक्षम और योग्य हो, तो उसकी इमामत को प्राथमिकता दी जाएगी।[४६] इस आपत्ति के उत्तर मे कहा गया है कि इस आपत्ति मे यह समझा गया है कि इमामत की बहस मे श्रेष्ठ का अर्थ केवल शरीया नियम, इबादी आमाल मे दूसरो से श्रेष्ठ होना है, और ऐसी धारणा सही नहीं है, क्योंकि इमाम की बहस मे श्रेष्ठता का पूर्ण मूल्य उन मानवीय गुणों और पूर्णता में श्रेष्ठता है जो इमाम के लिए आवश्यक हैं, और राजनीतिक प्रबंधन इन गुणों में से एक है। उपरोक्त धारणा मे जिन गुणो की ओर इशारा किया गया है उनमे भी इमाम को दूसरो से श्रेष्ठ होना शर्त है इसी प्रकार इस संदेह मे श्रेष्ठता को श्रेष्ठता की निस्बत निसबी लिया गया है, जबकि इमाम की श्रेष्ठता की बहस मे श्रेष्ठता का अर्थ उन सभी गुणों और पूर्णताओं में उनकी पूर्ण श्रेष्ठता और उत्कृष्टता है जो इमामत की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं।[४७]
  • श्रेष्ठता के साथ असंगत उदाहरण: ऐसा कहा गया है कि श्रेष्ठता का सिद्धांत इमाम या सेना कमांडरों की नियुक्ति के संबंध में पैग़म्बर (स) और खलीफाओं के युग के उदाहरणों के साथ संगत नहीं है।[४८] उनमें से, मौता के युद्द मे जाफ़र बिन अबी तालिब की उपस्थिति मे ज़ैद बिन हारेसा की को सेनापति बनाना, इसी प्रकार पैग़म्बर (स) के जीवन के अंतिम दिनों में इमाम अली (अ) की उपस्थित होते हुए उसामा बिन ज़ैद को सेनापति बनाना[४९] इसी प्रकार उमर बिन ख़त्ताब की ओर से खिलाफ़त को छह लोगो की परिषद् के हवाले करना जबकि इस परिषद् मे हजरत अली (अ) और उस्मान जैसे श्रेष्ठ लोग मौजूद थे।[५०] इस संदेङ के उत्तर मे कहा गया है कि किसी युद्ध मे सेना का सेनापति का च्यन करने के लिए उस व्यक्ति को हर लिहाज़ से श्रेष्ठ होना ज़रूरी नही बल्कि उस व्यक्ति मे युद्ध से संबंधित मामलो मे दूसरो से श्रेष्ठ होना काफ़ी है। ज़ैद और ओसामा इन गुणो मे दूसरो पर प्राथमिकता रखते थे। ओसामा की सेना से संबंधित कहा जाता है कि इमाम अली (अ) उन दिनो पैग़म्बर (स) के पास मौजद थे और पैग़म्बर (स) ने इमाम अली (अ) को ओसामा की सेना मे सम्मिलित होने का कोई आदेश पारित नही किया था। इसलिए इमाम अली (अ) ओसामा की सेना मे सम्मिलित ही नही थे।[५१] और उमर इब्न खत्ताब के व्यवहार की वैधता भी साथियों के कार्यों की वैधता पर आधारित है, जिसे शिया स्वीकार नहीं करते हैं।[५२]

मोनोग्राफ़ी

  • मुहम्मद हुसैन फ़रयाब द्वारा लिखित किताब अफ़ज़लीयत इमाम अज़ मंज़रे अक़्ल व नक़्ल, यह किताब चार अध्यायों पर आधारित है इसमे लेखक ने श्रेष्ठता का अर्थ, दायरा, श्रेष्ठता का ज़रूरी होना और ज़रूरी न होना और श्रेष्ठता के प्रभाव एंव परिणआम पर विभिन्न इस्लामी धर्मों और संप्रदायों के दृष्टिकोण से चर्चा की गई है। यह किताब मोअस्सेसा आमूज़िशी पुज़ूहिशी इमाम ख़ुमैनी (इमाम खुमैनी एजुकेशनल एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट) द्वारा प्रकाशित की गई है।[५३]

संबंधित लेख

फ़ुटनोट

  1. रब्बानी गुलपाएगानी, इमामत दर बीनिश इस्लामी, 1396 शम्सी, पेज 188 और 191
  2. मुहक़्क़िक़ हिल्ली, अल मस्लक फ़ी उसूल अल-दीन, 1414 हिजरी, पेज 205; हुम्सी राज़ी, अल मुन्क़िज़ मिन अल तक़लीद, 1412 हिजरी, भाग 2, पेज 286; बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 121
  3. देखेः अल्लामा हिल्ली, कश्फ अल मुराद, 1382 शम्सी, पेज 187; बहरानी, अल नेजात फ़िल क़यामा, 1417 हिजरी, पेज 66; मुज़फ़्फ़र, दलाइल अल सिद्क़, 1422 हिजरी, भाग 4, पेज 237-238
  4. मुहक़्क़िक़ हिल्ली, अल मस्लक फ़ी उसूल अल-दीन, 1414 हिजरी, पेज 205; हुम्सी राज़ी, अल मुन्क़िज़ मिन अल तक़लीद, 1412 हिजरी, भाग 2, पेज 286; बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 121-122
  5. फ़ाज़िल मिक़्दाद, इरशाद अलतालेबीन, 1405 हिजरी, पेज 336; बहरानी, अल नेजात फ़िल क़यामा, 1417 हिजरी, पेज 66
  6. मुज़फ़्फ़र, दलाइल अल सिद्क़, 1422 हिजरी, भाग 4, पेज 237
  7. मुज़फ़्फ़र, दलाइल अल सिद्क़, 1422 हिजरी, भाग 4, पेज 240
  8. देखेः मुहक़्क़िक़ हिल्ली, अल मस्लक फ़ी उसूल अल-दीन, 1414 हिजरी, पेज 198; अल्लामा हिल्ली, कश्फ अल मुराद, 1382 शम्सी, पेज 187; फ़ाज़िल मिक़्दाद, अल लवामेअ अल इलाहीया, 1422 हिजरी, पेज 333; बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 121
  9. देखेः फ़ाज़िल मिक़्दाद, इरशाद अल तालेबीन, 1405 हिजरी, पेज 336; बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 122; मुज़फ़्फ़र, दलाइल अल सिद्क़, 1422 हिजरी, भाग 4, पेज 233
  10. देखेः मुहक़्क़िक़ हिल्ली, अल मसलिक फ़ी उसूल अल दीन, 1414 हिजरी, पेज 206; अल्लामा हिल्ली, कश्फ अल मुराद, 1382 शम्सी, पेज 187; फ़ाज़िल मिक़्दाद, अल लवामेअ अल इलाहीया, 1422 हिजरी, पेज 333; बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 125
  11. बहरानी, अल नेजात फ़िल क़यामा, 1417 हिजरी, पेज 65
  12. बहरानी, अल नेजात फ़िल क़यामा, 1417 हिजरी, पेज 65
  13. अल्लामा हिल्ली, कश्फ़ अल मुराद, 1382 शम्सी, पेज 187; फ़ाज़िल मिक़्दाद, इरशाद अल तालेबीन, 1405 हिजरी, पेज 336; बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 126
  14. बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 126
  15. बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 127
  16. बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 126-127
  17. बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 127-130
  18. सदूक़, सवाब अल आमाल, 1406 हिजरी, पेज 206; तूसी, तहज़ीब अल अहकाम, 1407 हिजरी, भाग 3, पेज 56
  19. बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 130
  20. इब्न हंबल, फ़ज़ाइल अल सहाबा, 1403 हिजरी, पेज 152, 154 और 423; अबू नईम इस्फ़हानी, फ़ज़ाइल अल ख़ोलफ़ा राशेदीन, 1417 हिजरी, पेज 39
  21. बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 129
  22. ईज़ी, जुरजानी, शरह अल मुवाफ़िक़, 1325 हिजरी, भाग 8, पेज 373; तफ़ताज़ानी, शरह अल मकासिद, 1409 हिजरी, भाग 5, पेज 246-247
  23. बाक़ालानी, तमहीद अल अवाइल, 1407 हिजरी, पेज 474-475
  24. बाक़ालानी, तमहीद अल अवाइल, 1407 हिजरी, पेज 475
  25. बाक़ालानी, तमहीद अल अवाइल, 1407 हिजरी, पेज 475
  26. तफ़ताज़ानी, शरह अल मकासिद, 1409 हिजरी, भाग 5, पेज 291
  27. क़ाज़ी अब्दुल जब्बार, अल मुग़नी, 1962-1965 ईस्वी, भाग 20, पहला खंड, पेज 215; इब्न अबिल हदीद, शरह नहग अल बलाग़ा, 1404 हिजरी, भाग 1, पेज 3, भाग 4, पेज 296 और भाग 3, पेज 328
  28. देखेः क़ाज़ी अब्दुल जब्बार, अल मुग़नी, 1962-1965 ईस्वी, भाग 20, पहला खंड, पेज 227-230
  29. तफ़ताज़ानी, शरह अल मक़ासिद, 1409 हिजरी, भाग 5, पेज 247
  30. देखेः मुहक़्क़िक़ हिल्ली, अल मस्लक फ़ि उसूल अल दीन, 1414 हिजरी, पेज 205-206; हुम्सी राज़ी, अल मुंकिज मिन अल तक़लीद, 1412 हिजरी, भाग 2, पेज 286-287; बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 122; रब्बानी गुलपाएगानी, इमामत दर बीनिश इस्लामी, 1396 शम्सी, पेज 203-208
  31. मुहक़्क़िक़ हिल्ली, अल मस्लक फ़ि उसूल अल दीन, 1414 हिजरी, पेज 205; हुम्सी राज़ी, अल मुंकिज मिन अल तक़लीद, 1412 हिजरी, भाग 2, पेज 286
  32. रब्बानी गुलपाएगानी, इमामत दर बीनिश इस्लामी, 1396 शम्सी, पेज 204
  33. मुहक़्क़िक़ हिल्ली, अल मस्लक फ़ि उसूल अल दीन, 1414 हिजरी, पेज 205; हुम्सी राज़ी, अल मुंकिज मिन अल तक़लीद, 1412 हिजरी, भाग 2, पेज 286; बहरानी, मनार अल हुदा, 1405 हिजरी, पेज 122
  34. मुहक़्क़िक़ हिल्ली, अल मस्लक फ़ि उसूल अल दीन, 1414 हिजरी, पेज 205; हुम्सी राज़ी, अल मुंकिज मिन अल तक़लीद, 1412 हिजरी, भाग 2, पेज 287
  35. देखेः सदूक़, अल ऐतेकादात, 1414 हिजरी, पेज 93; मुफ़ीद, अवाएल अल मक़ालात, 1413 हिजरी, पेज 70-71; मजलिसी, बिहार उल अनवार, 1403 हिजरी, भाग 26, पेज 297; बशर, हक़ अल यक़ीन, 1424 हिजरी, पेज 149
  36. मजलिसी, बिहार उल अनवार, 1403 हिजरी, भाग 26,पेज 297; बशर, हक अल यक़ीन, 1424 हिजरी, पेज 149
  37. मजलिसी, बिहार उल अनवार, 1403 हिजरी, भाग 26,पेज 297-298
  38. सदूक़, औयून अखबार अल रेज़ा (अ), 1378 हिजरी, भाग 1, पेज 262, हदीस 22; जानकारी के लिए इमाम की श्रेष्ठता की हदीस देखे; मजलिसी, बिहार उल अनवार, 1403 हिजरी, भाग 26, पेज 267-319
  39. देखेः अल्लामा हिल्ली, कश्फ अल मुराद, 1382 शम्सी, पेज 211-238; बहरानी, अल नेजात फ़िल क़यामा, 1417 हिजरी, पेज 148-165; रब्बानी गुलपाएगानी, बराहीन व नुसूस इमामत, 1396 शम्सी, पेज 26-48
  40. अल्लामा हिल्ली, कश्फ अल मुराद, 1382 शम्सी, पेज 211-238
  41. इब्न मीसम बहरानी, अल नेज़ात फ़िल क़यामा, 1417 हिजरी, पेज 148-165
  42. देखेः अल्लामा हिल्ली, कश्फ अल मुराद, 1382 शम्सी, पेज 211-238; बहरानी, अल नेजात फ़िल कयामा, 1417 हिजरी, पेज 148-165; रब्बानी गुलपाएगानी, बराहीन व नुसूस इमामत, 1396 शम्सी, पेज 26-48
  43. इब्न अबिल हदीद, शरह नहज अल बलागा, 1404 हिजरी, भाग 1, पेज 7-9
  44. देखेः बहरानी, अल नेजात फ़िल क़यामा, 1417 हिजरी, पेज 148; रब्बानी गुलपाएगानी, बराहीन व नुसूस इमामत, 1396 शम्सी, पेज 21
  45. देखेः रब्बानी गुलपाएगानी, इमामत दर बीनिश इस्लामी, 1396 शम्सी, पेज 194-200
  46. देखेः क़ाज़ी अब्दुल जब्बार, अल मुग़नी, 1962-1965 ईस्वी, भाग 20, पहला खंड, पेज 227-230; ईजी जुरजानी, शरह अल मुवाफ़िक़, 1325 हिजरी, भाग 8, पेज 373; तफ़ताज़ानी, शरह अल मकासिद, 1409 हिजरी, भाग 5, पेज 246-247
  47. रब्बानी गुलपाएगानी, इमामत दर बीनिश इस्लामी, 1396 शम्सी, पेज 197-198
  48. रब्बानी गुलपाएगानी, इमामत दर बीनिश इस्लामी, 1396 शम्सी, पेज 198
  49. मुहक़्क़िक़ हिल्ली, अल मसलक फ़ी उसूल अल दीन, 1414 हिजरी, पेज 207
  50. तफ़ताज़ानी, शरह अल मक़ासिद, 1409 हिजरी, भाग 5, पेज 247
  51. रब्बानी गुलपाएगनी, इमामत दर बीनिश इस्लामी, 1396 शम्सी, पेज 199
  52. रब्बानी गुलपाएगानी, इमाममत दर बीनिश इस्लामी, 1396 शम्सी, पेज 199-200
  53. अफ़ज़लियत इमाम अज़ मंज़रे अक़्ल व नक़ल, रवाबित उमूमी मोअस्सेसा पुज़ूहिशी इमाम ख़ुमैनी


स्रोत

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