सूर ए नहल
हिज्र सूर ए नहल इसरा | |
| सूरह की संख्या | 16 |
|---|---|
| भाग | 14 |
| मक्की / मदनी | मक्की |
| नाज़िल होने का क्रम | 70 |
| आयात की संख्या | 128 |
| शब्दो की संख्या | 1851 |
| अक्षरों की संख्या | 7838 |
सूर ए नहल (अरबी: سورة النحل) क़ुरआन की सोलहवां सूरह है और यह मक्की सूरों में से एक है, जो क़ुरआन के 14वें अध्याय में स्थित है। इस सूरह को "नहल" (मधुमक्खी) का नाम दिया गया है, क्योंकि इसमें मधुमक्खी और ईश्वर द्वारा उसे दी गई प्रेरणा (इल्हाम) का उल्लेख किया गया है। इस सूरह में ईश्वर की नेअमतों (आशीर्वादों), मआद (पुनरुत्थान), तौहीद (एकेश्वरवाद), और ईश्वर की महानता के प्रमाणों पर चर्चा की गई है। सूर ए नहल इंसाफ (न्याय), एहसान (भलाई), हिजरत (प्रवास), और जिहाद (संघर्ष) की सलाह देता है और अत्याचार, अन्याय, और वादा तोड़ने से मना करता है। इस सूरह में कुछ अहकाम भी बताए गए हैं, जैसे कि शराब, मुर्दार (मृत जानवर का मांस), सूअर का मांस, और खून खाना हराम (निषिद्ध) है। पैग़म्बर (स) से हदीस वर्णित हुई है कि जो कोई सूर ए नहल को पढ़ेगा, ईश्वर उसे दुनिया में दी गई नेअमतों का हिसाब नहीं लेगा। इसके अलावा, इस सूरह को पढ़ने से इब्लीस (शैतान) और उसके लश्कर (सेना) के बुरे विचारों से सुरक्षा मिलती है।
परिचय
नामकरण
इस सूरह का प्रसिद्ध नाम "नहल" है। इसका कारण यह है कि इस सूरह की आयत 68 में "नहल" (मधुमक्खी) का उल्लेख किया गया है। इस सूरह को "सूर ए नेअम" (नेअमतों का सूरह) भी कहा जाता है, क्योंकि इसका मुख्य विषय ईश्वर की नेअमतों (आशीर्वाद) का वर्णन करना है।[१]
नाज़िल होने का क्रम और स्थान
सूर ए नहल मक्की सूरों में से एक है, यानी यह मक्का में नाज़िल हुआ है। नाज़िल हाने के क्रम में यह 70वां सूरह है जो पैग़म्बर (स) पर नाज़िल हुआ था। क़ुरआन की वर्तमान व्यवस्था में यह 16वां सूरह है।[२] और यह कुरआन के 14वें अध्याय में स्थित है।
आयतों की संख्या और अन्य विशेषताएं
सूर ए नहल में 128 आयतें, 1851 शब्द और 7838 अक्षर हैं। यह सूरह मध्यम आकार की सूरों में से एक है, जो कुरआन के एक अध्याय के तीन-चौथाई हिस्से को कवर करता है। इस सूरह की आयत 48 में मुस्तहब सजदा है।[३] (सजदा वाली सूरों के बारे में अधिक जानकारी के लिए देखें: वाजिब सज्दो वाले सूरह)
सामग्री
तफ़्सीर ए नमूना ने सूर ए नहल की सामग्री को निम्नलिखित बिंदुओं में संक्षेपित किया है:
- सूर ए नहल का एक बड़ा हिस्सा ईश्वर की नेअमतों (आशीर्वाद) के बारे में है। इन नेअमतों में बारिश, सूरज की रोशनी, विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे, फल, खाद्य पदार्थ और चौपाए जानवर शामिल हैं।
- इस सूरह में ईश्वर के एकेश्वरवाद (तौहीद) और उसकी महानता के सबूत पेश किए गए हैं। साथ ही, मआद (पुनरुत्थान) के बारे में बात की गई है और मुशरिकों (मूर्तिपूजकों) और अपराधियों को चेतावनी दी गई है।
- इसमें इंसाफ (न्याय), एहसान (भलाई), हिजरत (प्रवास), और जिहाद (संघर्ष) का आदेश दिया गया है। साथ ही, अश्लीलता, बुराई, अत्याचार, अन्याय, और वादा तोड़ने से मना किया गया है। इसके अलावा, नेअमतों के लिए शुक्रगुज़ारी करने की दावत दी गई है और हज़रत इब्राहीम (अ) को एक शुक्रगुज़ार बंदे के रूप में पेश किया गया है।
- इस सूरह में मुशरिकों द्वारा कुछ जानवरों को हराम ठहराने की बिदअतों (नवाचारों) का उल्लेख किया गया है, जबकि वास्तव में वे हराम नहीं थे। उन्होंने इन प्रतिबंधों को ईश्वर की तरफ़ से बताया, जो कि ग़लत था।
- शैतान के वसवसों (बुरे विचारों) से चेतावनी।[४]
तफ़्सीर अल मीज़ान के अनुसार, इस सूरह का मुख्य उद्देश्य यह बताना है कि हक़ (सच्चा) दीन (इस्लाम) की जीत निश्चित है, क्योंकि ईश्वर ही एकमात्र इबादत के लायक़ है। वही सारे ब्रह्मांड का रचयिता और प्रबंधक है, और सारी नेअमतें उसी की ओर से हैं। उसका दीन (इस्लाम) ही एकमात्र ऐसा दीन है जिस पर अमल करना और उससे जुड़े रहना ज़रूरी है।[५]
कहानियाँ और ऐतिहासिक रिवायतें
- काफ़िरों का दावा कि कुरआन किसी अजमी (गैर-अरब) से सीखा गया है आयत 103: "وَلَقَدْ نَعْلَمُ أَنَّهُمْ يَقُولُونَ إِنَّمَا يُعَلِّمُهُ بَشَرٌ ۗ لِسَانُ الَّذِي يُلْحِدُونَ إِلَيْهِ أَعْجَمِيٌّ وَهَٰذَا لِسَانٌ عَرَبِيٌّ مُبِينٌ व लक़द नअलमो अन्नहुम यक़ूलूना इन्नमा योअल्लेमोहु बशरुन लेसानो अल लज़ी युल्हेदूना एलैहे आजमियुन व हाज़ा लेसानुन अरबीयुन मुबीन" अनुवाद: "और हम अच्छी तरह जानते हैं कि वे कहते हैं: 'इसे तो एक इंसान सिखाता है।' (लेकिन ऐसा नहीं है), जिस व्यक्ति की तरफ़ वे इशारा करते हैं, उसकी भाषा अजमी (गैर-अरबी) है, जबकि यह (कुरआन) साफ़ और स्पष्ट अरबी भाषा में है।" तफ़्सीर मजमा उल बयान में अमीन उल इस्लाम तबरसी ने उस व्यक्ति का नाम बलआम बताया है, जिसे काफ़िरों ने कुरआन सिखाने वाले के रूप में बताया था।[७]
- हज़रत इब्राहीम (अ) की पाकदामनी (शुद्ध ईमान) आयत 120-121।
- यहूदियों पर शनिवार (सब्त) का सम्मान करना अनिवार्य आयत 124।
प्रसिद्ध आयतें
आय ए कुन फ़यकून (इराद ए एलाही)
إِنَّمَا قَوْلُنَا لِشَيْءٍ إِذَا أَرَدْنَاهُ أَنْ نَقُولَ لَهُ كُنْ فَيَكُونُ (इन्नमा क़ौलोना ले शैइन एज़ा अरद्नाहो अन नक़ूला लहु कुन फ़यकून)
- अनुवाद: हमारा आदेश किसी भी चीज़ के लिए, जिसे हम चाहते हैं, बस यह है कि हम कहते हैं – "हो जा", और वह हो जाता है।
"कुन फ़यकून" (हो जा, तो वह हो जाता है) का उल्लेख कुरआन की कई आयतों में विभिन्न संदर्भों में हुआ है, जैसे: (आकाशों और धरती की रचना ) सूर ए बक़रा आयत 117, (हज़रत ईसा (अ) का जन्म और हज़रत आदम (अ) की सृष्टि) सूर ए आले इमरान आयत 47 और 59, (क़यामत के दिन ईश्वर की इच्छा का पूरा होना) सूर ए अन्आम आयत 73, (ईश्वर की इच्छा का प्रकटीकरण) सूर ए नहल आयत 40, (ईश्वर की इच्छा का साकार होना) सूर ए मरयम आयत 35, (मुर्दों को जिलाने में ईश्वर की शक्ति) सूर ए यासीन आयत 82, (जीवन देना और मृत्यु देना) सूर ए ग़ाफ़िर आयत 68। अल्लामा तबातबाई ने कुरआन में आयतों में प्रयुक्त "क़ौलोना" शब्द की व्याख्या करते हुए इसे ईश्वर के आदेश (अम्र), फैसले (क़ज़ा) और उसकी इच्छा (इरादा) का प्रतीक बताया है। वास्तव में, यह अस्तित्व की रचना का मूल सिद्धांत है। उन्होंने ईश्वर की इच्छा के क्रम को निम्नलिखित चरणों में समझाया है: 1. इरादा 2. क़ज़ा (निर्णय) 3. अम्र (आदेश) 4. क़ौल ("कुन फ़यकून" - हो जा, तो वह हो जाता है) ईश्वर का "क़ौल" (वचन) ही उसका "फ़े'ल" (कर्म) है, और उसका कर्म ही वे बाहरी सत्ताएँ हैं जो उसकी इरादे (इच्छा) से अस्तित्व में आई हैं।[८]
सभी सृष्टि का ईश्वर को सजदा करने की आयत
وَلِلهِ يَسْجُدُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ مِنْ دَابَّةٍ وَالْمَلَائِكَةُ وَهُمْ لَا يَسْتَكْبِرُونَ (व लिल्लाहे यस्जोदो मा फ़ी अल समावाते वमा फ़ी अल अर्ज़े मिन दाब्बतिन वल मलाएकतो व हुम ला यस्तक्बेरून)
- अनुवाद: (न केवल छायाएँ, बल्कि) आकाशों और धरती में रेंगने वाले सभी प्राणी, और फ़रिश्ते भी, सभी ईश्वर को सजदा करते हैं और अहंकार नहीं करते।
आयत 48 सभी प्राणियों की छायाओं के दाएं-बाएं हिलने और उनके ईश्वर के सामने विनम्रता से सजदा करने के बारे में है। इसका अर्थ यह है कि पृथ्वी पर सभी प्राणियों की छायाएं जब फैलती और बिछ जाती हैं, तो यही उनका सजदा होता है। यह आयत पूरे ब्रह्मांड के सामूहिक सजदे के बारे में है चाहे वे भौतिक हों या अभौतिक, आकाशवासी हों या धरतीवासी।[९] उनका सजदा वास्तव में उनकी स्वाभाविक आज्ञाकारिता, विनम्रता और समर्पण को दर्शाता है।[१०] अल्लामा तबातबाई का मानना है कि इस आयत में "दाब्बा" (रेंगने वाले प्राणी) शब्द का प्रयोग आकाशवासियों के लिए भी किया गया है, जो इस बात की ओर इशारा करता है कि आकाशों में भी जीव-जंतु हैं जो वहां निवास करते हैं।[११] इस सवाल का जवाब कि "क्या फ़रिश्ते (मलाइका) भी 'दाब्बा' (जीव-जंतु) की श्रेणी में आ सकते हैं, फिर भी इस आयत में उन्हें अलग से क्यों बताया गया है?" तफ़्सीर अल-मीज़ान के लेखक (अल्लामा तबातबाई) के अनुसार, इसका कारण यह है कि फ़रिश्तों का उतरना-चढ़ना, आना-जाना और उनकी गति, भौतिक प्राणियों (जैसे इंसानों और जिन्नों) की तरह सामान्य स्थानिक गति नहीं है। इसलिए, उन्हें अलग से बताया गया है ताकि यह स्पष्ट हो कि उनकी गति और आवाजाही का तरीका अन्य भौतिक जीवों (मनुष्यों और जानवरों) से अलग है।[१२] तफ़्सीर "मजमा उल बयान" के लेखक तबरसी के अनुसार, फ़रिश्तों (मलाइका) को अलग से इसलिए बताया गया है क्योंकि: शराफ़त व मकाम के कारण उनका पद और महत्व उच्च है। "दाब्बा" (जीव-जंतु) उन्हें कहा जाता है जो चलते-फिरते हैं (ज़मीन पर रेंगने या चलने वाले), जबकि फ़रिश्ते पंखों वाले हैं और उनकी मुख्य विशेषता उड़ना (तैरान) है।[१३] आयत का अंतिम वाक्य "وَ هُمْ لَا يَسْتَكْبِرُونَ व हुम ला यस्तक्बेरून" (और फ़रिश्ते सभी बिना किसी अहंकार के ईश्वर की पूजा और सजदा में लगे रहते हैं।) भी फरिश्तों के परिचय के संदर्भ में है। चूंकि आयत में इबादत (भक्ति) की चर्चा है, फरिश्तों के 'अहंकार न करने' का अर्थ यह है कि वे ईश्वर से कभी भी अनजान नहीं होते, न तो उनके अस्तित्व में और न ही उनके कर्मों में कोई अहंकार है, और वे ईश्वर के आदेशों और उसकी इबादत के खिलाफ़ किसी भी प्रकार की अवज्ञा नहीं करते। चूंकि फरिश्तों में कोई अहंकार नहीं होता, इसलिए अगली आयत में उनके डर (तर्स) का उल्लेख किया गया है, हालांकि ईश्वर के सामने कोई बुराई नहीं है। लेकिन उनका डर सामान्य डर (जैसे बुराई, कष्ट या सजा से डर) नहीं है, बल्कि यह ईश्वर के महान और उच्च स्थान के निरंतर दर्शन से उत्पन्न होने वाला डर है। वे कभी भी अपने रब के इस स्थान से अनजान नहीं होते और हमेशा बिना किसी प्रश्न के ईश्वर के आदेशों का पालन करते रहते हैं।"[१४]
आय ए एहसान
- मुख्य लेख:आय ए एहसान
إِنَّ اللهَ یأْمُرُ بِالْعَدْلِ وَالْإِحْسَانِ وَإِیتَاءِ ذِی الْقُرْبَیٰ وَینْهَیٰ عَنِ الْفَحْشَاءِ وَالْمُنْکرِ وَالْبَغْی ۚ یعِظُکمْ لَعَلَّکمْ تَذَکرُونَ (इन्नल्लाहा यअमोरो बिल अदले वल एहसान व ईताए ज़िल क़ुर्बा व यन्हा अनिल फ़हशाए वल मुन्करे वल बग़ये यएज़ोकुम लअल्लकुम तज़क्करून)
- अनुवाद: ईश्वर न्याय करने, भलाई करने और रिश्तेदारों को दान देने का आदेश देता है। और वह बुराई (फहशा), गलत काम (मुनकर) और ज़ुल्म (अत्याचार) से मना करता है। वह तुम्हें समझाता है, ताकि तुम सीख लो!
इस आयत को सबसे व्यापक सामाजिक कार्यक्रम माना गया है, जो तीन चीजों न्याय (अद्ल), भलाई (एहसान) और रिश्तेदारों को दान देने (ईता ए ज़िल कुर्बा) का आदेश देता है और तीन चीजों अश्लीलता (फ़हशा), बुराई (मुन्कर) और अत्याचार (बग़य) से मना करता है।[१५] आय ए एहसान को दोनों मुस्लिम समुदायों (फ़रीक़ैन) द्वारा विभिन्न संदर्भों में महत्व दिया गया है,[१६] और मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) ने इनमें से प्रत्येक सिद्धांत के अर्थ और संकल्पना पर विस्तृत चर्चा की है तथा इससे अनेक सांस्कृतिक और सामाजिक संदेश निकाले हैं।[१७] अल्लामा तबातबाई ने 'अद्ल' (न्याय) को दो भागों में बांटा है: व्यक्तिगत न्याय (अद्ले फ़र्दी) वह कार्य जो इंसान की सच्ची कामयाबी (सआदत) सुनिश्चित करे। सामाजिक न्याय (अद्ले इज्तिमाई) दूसरों के साथ उनके हक़ (योग्यता) के अनुसार, 'अक़्ल' (विवेक) और 'शरियत' (धार्मिक नियम) के आधार पर व्यवहार करना। वे इस आयत में 'अद्ल' से मतलब सामाजिक न्याय से लेते हैं। अल्लामा तबातबाई के अनुसार, "एहसान" (भलाई) का अर्थ है दूसरों को बिना किसी स्वार्थ के लाभ पहुँचाना, जबकि उन्होंने कोई ऐसा कार्य न किया हो जिसके बदले में उन्हें पुरस्कृत किया जाए। इसी प्रकार, "रिश्तेदारों को दान देना (ईता ए ज़िल कुर्बा)" भी इहसान का एक उदाहरण है, लेकिन इसका इतना अधिक महत्व है कि इसे विशेष रूप से अलग से उल्लेख किया गया है।[१८]
आय ए असहाबे सब्त
- मुख्य लेख: असहाबे सब्त
إِنَّمَا جُعِلَ السَّبْتُ عَلَى الَّذِينَ اخْتَلَفُوا فِيهِ ۚ وَإِنَّ رَبَّكَ لَيَحْكُمُ بَيْنَهُمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ فِيمَا كَانُوا فِيهِ يَخْتَلِفُونَ (इन्नमा जोएला अल सब्तो अल्ल लज़ीना इख़्तलफ़ू फ़ीहे व इन्ना रब्बका लयहकोमो बैनहुम यौमल क़ेयामते फ़ीमा कानू फ़ीहे यख़्तलेफ़ून)
- अनुवाद: सब्त (शनिवार) के दिन (यहूदियों पर लगाए गए) प्रतिबंध केवल एक परीक्षा थी, फिर भी उन्होंने उसके बारे में मतभेद किया। और तेरा रब क़यामत के दिन उन मामलों में फैसला करेगा, जिनमें वे विवाद करते थे!
आय ए दावत
- मुख्य लेख: आय ए दावत
ادْعُ إِلَىٰ سَبِيلِ رَبِّكَ بِالْحِكْمَةِ وَالْمَوْعِظَةِ الْحَسَنَةِ ۖ وَجَادِلْهُم بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ... ۚ (उदऊ एला सबीले रब्बेका बिल हिकमते वल मौएज़तिल हसनते व जादिलहुम बिल्लती हेया अहसन..)
- अनुवाद: अपने रब के मार्ग की ओर (लोगों को) बुद्धिमत्ता (हिकमत) और अच्छी नसीहत (उपदेश) के साथ बुलाओ, और उनसे उस तरीके से बहस (वाद-विवाद) करो जो सबसे उत्तम हो...
इस आयत में विरोधियों से निपटने का तरीका बताया गया है। यहाँ "हिक्मत" (तर्क) से तात्पर्य ज्ञान, तर्क और बौद्धिक दृष्टिकोण से है, जबकि "मौइज़ा" (उपदेश) से अभिप्राय ऐसी बातें हैं जो भावनाओं को जगाती हैं। आयत में कहा गया है कि उपदेश "अच्छे तरीके से" दिया जाना चाहिए, यानी बिना हिंसा, बिना घमंड, बिना सामने वाले को नीचा दिखाए और उसकी जिद को भड़काए।[१९]
आयात उल अहकाम
सूर ए नहल की कई आयतों को "आयात उल अहकाम" माना गया है।[२०] आयत 115 में तीन चीज़ों के खाने को हराम (निषिद्ध) घोषित किया गया है: मुर्दार (जानवर जो अपने आप मर गया हो), खून, सूअर का मांस। इसी तरह आयत 5, 10, 11, 14 और 66 69 से निम्न चीज़ों शहद, मछलियाँ, चौपाये जानवर, और फल जैसे खजूर, अंगूर व ज़ैतून को हलाल कहा गया है।[२१] इसके अलावा आयत 91–94 जो वादे और क़समों के बारे में हैं से समझा जाता है कि क़सम तोड़ना हराम है।[२२] आयत 106 को तक़य्या की अनुमति (जाएज़ होने) के पक्ष में क़ुरआनी प्रमाण माना जाता है।[२३]
फ़ज़ीलत और गुण
- मुख्य लेख: सूरों के फ़ज़ाइल
पैग़म्बर (स) से हदीस वर्णित है कि जो कोई भी इस सूरह को पढ़ेगा, ईश्वर उस पर दुनिया में दी गई नेअमतों (कृपाओं) का हिसाब नहीं लेगा। उसका सवाब (पुण्य) उस व्यक्ति के बराबर होगा जो अच्छी वसीयत (नसीहत या दान) छोड़कर दुनिया से गया हो। और अगर वह व्यक्ति उसी दिन या रात में मर जाए जिस दिन उसने यह सूरह पढ़ी थी, तो उसका सवाब उस शख्स जैसा होगा जो अच्छी और मक़बूल वसीयत के साथ दुनिया से गया हो।[२४] इमाम बाक़िर (अ) से भी रिवायत है कि जो कोई हर महीने सूर ए नहल का पाठ करेगा, ईश्वर उसे दुनिया में किसी भी तरह के नुक़सान से बचाएगा। उससे सत्तर प्रकार के मुसीबतें दूर रहेंगी, जिनमें से सबसे कम पागलपन, कोढ़ (जुज़ाम) और विटिलिगो (सफ़ेद दाग) हैं। उसका ठिकाना जन्नते अदन होगा, जो सभी जन्नतों (स्वर्ग) के बीच में स्थित है।[२५] इसके अलावा, तबरसी ने अपनी किताब "मकारिम उल अख़्लाक़" में इस सूरह के पाठ की फ़ज़ीलत के बारे में बताया है कि यह शैतान, उसकी सेना और उसके अनुयायियों से सुरक्षा प्रदान करता है।[२६]
फ़ुटनोट
- ↑ मकारिम शिराज़ी, तफ़्सीर ए नमूना, 1374 शम्सी, खंड 11, पृष्ठ 171।
- ↑ मारिफ़त, तम्हीद फी उलूम अल क़ुरआन, 1371 शम्सी, खंड 1, पृष्ठ 167।
- ↑ दानिशनामा-ए-क़ुरआन व क़ुरआन पज़ूही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1241।
- ↑ मकारिम शिराज़ी, तफ़्सीर ए नमूना, 1374 शम्सी, खंड 11, पृष्ठ 147।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1391 हिजरी, खंड 12, पृष्ठ 203।
- ↑ ख़ामागर, मुहम्मद, साख़्तार-ए सूरा-यी कु़रआन-ए करीम, तहय्ये मुअस्सेसा -ए फ़रहंगी-ए कु़रआन वा 'इतरत-ए नूर अल-सक़लैन, क़ुम:नशर नशरा, भाग 1, 1392 शम्सी
- ↑ तबरसी, मजमा उल बयान, 1415 हिजरी क़मरी, खंड 6, पृष्ठ 200।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1391 हिजरी क़मरी, आलमी बेरूत, खंड 12, पृष्ठ 249।
- ↑ बर्गुज़िदा ए तफ़्सीर ए नमूना, नासिर मकारिम शिराज़ी, दार अल कुतुब अल इस्लामिया, 1386 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 573।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1391 हिजरी क़मरी, खंड 12, पृष्ठ 265-266।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, खंड 12, पृष्ठ 266।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, नाशिर: मन्शुरात इस्माईलियान, खंड 12, पृष्ठ 266।
- ↑ शेख़ तबरसी, मजमा उल बयान फी तफ़्सीर अल क़ुरआन, दार अल मा'रिफ़ा, खंड 6, पृष्ठ 562।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1391 हिजरी क़मरी, आलमी बेरूत, खंड 12, पृष्ठ 266-268।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, खंड 12, पृष्ठ 332 / मकारिम शिराज़ी, तफ़्सीर ए नमूना, 1371 शम्सी, खंड 11, पृष्ठ 366।
- ↑ कुलैनी, अल काफी, 1407 हिजरी क़मरी, खंड 3, पृष्ठ 422-424; ज़मख़्शरी, अल कश्शाफ, 1407 हिजरी क़मरी, खंड 2, पृष्ठ 630।
- ↑ क़राअती, तफ़्सीर नूर, 1388 शम्सी, खंड 4, पृष्ठ 571-572।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1391 हिजरी क़मरी, आलमी बेरूत, खंड 12, पृष्ठ 330-332।
- ↑ मकारिम शिराज़ी, बर्गुज़िदा ए तफ़्सीर ए नमूना, 1387 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 598।
- ↑ ईरवानी, दुरूस तम्हीदिया, खंड 1, पृष्ठ 132, 268, 453, 455, 461, 519, 610, 613, 627, 629, 633, 637, 638 और खंड 2, पृष्ठ 699 और 713।
- ↑ ईरवानी, दुरूस तम्हीदिया, खंड 1, पृष्ठ 610, 613, 627, 629, 633, 637 और 638।
- ↑ ईरवानी, दुरूस तम्हीदिया, खंड 1, पृष्ठ 453-455।
- ↑ ईरवानी, दुरूस तम्हिदिया, खंड 2, पृष्ठ 713; मकारिम शिराज़ी, तफ़्सीर ए नमूना, खंड 11, पृष्ठ 419।
- ↑ तबरसी, मजमा उल बयान, 1373 शम्सी, खंड 6, पृष्ठ 535।
- ↑ तबरसी, मजमा उल बयान, 1373 शम्सी, खंड 6, पृष्ठ 535।
- ↑ तबरसी, मकारिम उल अख़्लाक़, 1377 शम्सी, पृष्ठ 364।
स्रोत
- कुरआन करीम, मुहम्मद महदी फ़ौलादवंद द्वारा फारसी अनुवाद, तेहरान: दारुल कुरआन अल करीम, 1418 हिजरी क़मरी/1376 हिजरी शम्सी।
- ईरवानी, बाक़िर, दुरूस तम्हिदिया फ़ी तफ्सीर आयात उल अहकाम, क़ुम: दार अल फ़िक़्ह, 1423 हिजरी क़मरी।
- दानिशनामा ए कुरआन व कुरआन पज़ोही, बहाउद्दीन खुर्रमशाही के संपादन में, तेहरान: नश्रे नाहीद, 1377 हिजरी शम्सी।
- ज़मख़्शरी, महमूद बिन उमर, अल कश्शाफ अन हक़ाइक़ ग़वामिज़ अल तंज़ील व उयून अल अक़ावील फ़ी वुजूह अल तावील, बेरूत: दारुल किताब अल अरबी, तीसरा संस्करण, 1407 हिजरी क़मरी।
- तबरसी, हसन बिन फज़्ल, मकारिम उल अख़्लाक़, क़ुम: शरीफ रज़ी, 1377 हिजरी शम्सी।
- तबरसी, फज़्ल बिन हसन, मजमा उल बयान फ़ी तफ्सीर अल कुरआन, मुहम्मद जवाद बलाग़ी द्वारा शोधित, तेहरान: नासिर ख़ुस्रो प्रकाशन, 1373 हिजरी शम्सी।
- क़राअती, मोहसिन, तफ्सीर नूर, तेहरान: कुरआन के पाठ से पाठ केंद्र, 1388 हिजरी शम्सी।
- कुलैनी, मुहम्मद बिन याक़ूब, अल काफी, अली अकबर ग़फ़्फ़ारी और मुहम्मद आख़ूंदी द्वारा शोधित, तेहरान: दारुल कुतुब अल इस्लामिया, 1407 हिजरी क़मरी।
- मारिफ़त, मुहम्मद हादी, तम्हीद फी उलूम अल कुरआन, अबू मुहम्मद वकीली द्वारा अनुवादित, क़ुम: इस्लामिक प्रचार संगठन, खंड 1, 1371 हिजरी शम्सी।
- मकारिम शिराज़ी, नासिर, तफ्सीर ए नमूना, तेहरान: दारुल कुतुब अल इस्लामिया, 1374 हिजरी शम्सी।
- मकारिम शिराज़ी, नासिर और अहमद अली बाबाई, बर्गुज़ीद ए तफ्सीर ए नमूना, तेहरान: दारुल कुतुब अल इस्लामिया, 1387 हिजरी शम्सी।