सूर ए हिज्र
![]() इब्राहीम सूर ए हिज्र नहल ![]() | |
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सूरह की संख्या | 15 |
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भाग | 14 |
मक्की / मदनी | मक्की |
नाज़िल होने का क्रम | 54 |
आयात की संख्या | 99 |
शब्दो की संख्या | 658 |
अक्षरों की संख्या | 2881 |
सूर ए हिज्र (अरबी: سورة الحجر) क़ुरआन का 15वां सूरह है और यह मक्की सूरों में से एक है। यह क़ुरआन के 14वें अध्याय में स्थित है। इस सूरह का नाम "हिज्र" इसलिए रखा गया है क्योंकि इसमें आयत 80 से 84 तक हज़रत सालेह की क़ौम, यानी समूद क़ौम की कहानी का उल्लेख है। समूद क़ौम हिज्र नामक इलाके में रहती थी, इसलिए उन्हें "असहाबे हिज्र" कहा जाता था।
सूर ए हिज्र ब्रह्मांड की उत्पत्ति (मब्दा ए आलम), क़यामत के संकेत, ईश्वर पर ईमान, क़ुरआन के महत्व और महिमा, और पापियों की सज़ा के बारे में बात करता है। इस सूरह में हज़रत आदम (अ) की रचना, फ़रिश्तों द्वारा उन्हें सजदा करने की घटना इब्लीस को छोड़कर, हज़रत इब्राहीम (अ) के पास फ़रिश्तों के आने और उन्हें खुशखबरी देने, कौम ए लूत की सज़ा, और कौम ए समूद की कहानी का भी उल्लेख किया गया है।
आयत नंबर 9 सूर ए हिज्र की प्रसिद्ध आयतों में से एक है, जिसमें ईश्वर ज़िक्र (क़ुरआन) के नाज़िल होने और उसकी हिफ़ाज़त (सुरक्षा) पर ज़ोर देता है। बहुत से मुफ़स्सिरीन (व्याख्याकारों) ने इस आयत को क़ुरआन के तहरीफ़ (मिटाए जाने या बदले जाने) न होने का सबूत माना है। सूर ए हिज्र की तिलावत (पाठ) की फ़ज़ीलत के बारे में कहा गया है कि ईश्वर इस सूरह को पढ़ने वाले को मुहाजेरीन और अंसार की संख्या से दस गुना अधिक सवाब (पुण्य) प्रदान करता है।
परिचय
नामकरण
इस सूरह को "हिज्र" नाम दिया गया है क्योंकि यह एकमात्र सूरह है जिसमें हज़रत सालेह (अ) की कौम, यानी कौम ए समूद को "असहाबे हिज्र" कहा गया है।[१] "हिज्र" उस क्षेत्र का नाम था जहाँ यह क़ौम रहती थी।[२] क़ुरआन के व्याख्याकार आयतुल्लाह मकारिम शिराज़ी कहते हैं कि "हिज्र" नाम अरब प्रायद्वीप और शाम (सीरिया) के क्षेत्र के बीच स्थित एक भूमि का नाम था, जो वादी अल क़ुरा के निकट था। "हिज्र" का मूल अर्थ "निषिद्ध क्षेत्र" होता है। संभवतः इस भूमि को "हिज्र" नाम इसलिए दिया गया था क्योंकि यह एक बहुत ही समृद्ध और हरा-भरा क्षेत्र था, और इसके मालिक दूसरों को वहाँ प्रवेश करने से रोकते थे। इसी कारण से इस भूमि को "हिज्र" और इसके निवासियों को "असहाबे हिज्र" कहा जाता था।[३]
नाज़िल होने का क्रम और स्थान
सूर ए हिज्र मक्की सूरों में से है और नाज़िल होने के क्रम में यह 54वां सूरह है जो पैग़म्बर मुहम्मद (स) पर नाज़िल हुआ था। क़ुरआन की वर्तमान व्यवस्था यह 15वां सूरह है[४] और यह क़ुरआन के 14वें अध्याय में स्थित है।
आयतों की संख्या और अन्य विशेषताएँ
सूर ए हिज्र में 99 आयतें, 658 शब्द और 2881 अक्षर हैं। यह सूरह आकार की दृष्टि से क़ुरआन की मसानी (मध्यम आकार वाली) सूरों में से है और लगभग एक हिज़्ब (भाग) के बराबर है। सूर ए हिज्र उन सूरों में से नौवां सूरह है जो मुक़त्तेआत से शुरू होता है।[५]
सामग्री
तफ़सीर ए नमूना ने इस सूरह की सामग्री को छह भागों में संक्षेपित किया है:
- ब्रह्मांड की उत्पत्ति (मब्दा ए आलम) और ईश्वर पर विश्वास (ईमान):
- इसमें सृष्टि पर चिंतन करके ईश्वर पर ईमान लाने से संबंधित आयतें शामिल हैं।
- प्रलय (क़यामत) और पापियों की सज़ा:
- इसमें क़यामत और बुरे कर्म करने वालों के लिए दंड के बारे में आयतें हैं।
- क़ुरआन का महत्व, महिमा और विशेषताएँ:
- विभिन्न कहानियों का वर्णन: इसमें हज़रत आदम (अ) की रचना, फ़रिश्तों द्वारा उन्हें सजदा करने की घटना (इब्लीस को छोड़कर), हज़रत इब्राहीम (अ) के पास फ़रिश्तों के आने और उन्हें खुशखबरी देने, कौम ए लूत की सज़ा, और कौम ए समूद की कहानी का उल्लेख है।
- इसमें चेतावनी और प्रोत्साहन के साथ चेतावनी, खुशखबरी और प्रभावी सलाह दी गई है।
- इसमें पैग़म्बर मुहम्मद (स) को मक्का के कठिन और खतरनाक माहौल में विरोधियों की साज़िशों के खिलाफ़ मज़बूत रहने और उन्हें सांत्वना देने का आह्वान किया गया है।[६]
कुछ आयतों का शाने नुज़ूल
सूर ए हिज्र की आयत 24 और 87 के लिए शाने नुज़ूल बयान किया गया है।
नमाज़ की पहली पंक्ति की फ़ज़ीलत
सूर ए हिज्र की आयत नंबर 24 के बारे में दो शाने नुज़ूल का उल्लेख किया गया है। इस आयत में ईश्वर कहता है कि वह "मुस्तक़दिमीन" (आगे बढ़ने वालों) और "मुस्तअख़िरीन" (पीछे रहने वालों) को जानता है।
- पहला शाने नुज़ूल:पैग़म्बर मुहम्मद (स) ने फ़रमाया: "ईश्वर और फ़रिश्ते उन लोगों पर दुरूद भेजते हैं जो नमाज़ की पहली पंक्ति में खड़े होते हैं।" इसी कारण लोग पहली पंक्ति में नमाज़ पढ़ने की कोशिश करते थे। बनी उज़्रा क़बीले के लोग, जिनके घर मस्जिद से दूर थे, ने फैसला किया कि वे अपने घरों को बेचकर मस्जिद के पास नए घर खरीदेंगे ताकि वे जल्दी मस्जिद पहुँच सकें और पहली पंक्ति में नमाज़ पढ़ सकें। इसी संदर्भ में यह आयत नाज़िल हुई।[७]
- दूसरा शाने नुज़ूल: कुछ लोगों ने यह भी कहा है कि एक सुंदर महिला पैग़म्बर मुहम्मद (स) के पीछे नमाज़े जमाअत में शामिल होती थी। कुछ पुरुष पहली पंक्ति में चले जाते थे ताकि उनकी नज़र उस महिला पर न पड़े, जबकि कुछ पुरुष पीछे की पंक्ति में खड़े होते थे ताकि वे कभी-कभी उस महिला की ओर देख सकें। इसी स्थिति के संदर्भ में यह आयत नाज़िल हुई।[८]
तफ़सीर अल मीज़ान में अल्लामा तबातबाई ने कुछ रिवायतों के हवाले से इस आयत को ईश्वर के ज्ञान के दायरे से जोड़ा है। वे आयत की व्याख्या में लिखते हैं: चूंकि पिछली आयतों में ईश्वर की नेअमतों (अनुग्रहों), उसकी तदबीर (प्रबंधन), और रबूबियत (पालनहार होने) में उसकी एकता का वर्णन किया गया था, इसलिए इस संदर्भ में ईश्वर के ज्ञान की ओर भी इशारा किया गया है। आयत में "मुस्तक़दिमीन" (आगे बढ़ने वालों) और "मुस्तअख़िरीन" (पीछे रहने वालों) से अर्थ सभी पिछले और आने वाले लोग हैं, जो ईश्वर के ज्ञान के दायरे में हैं। अल्लामा तबातबाई ने अन्य संभावित व्याख्याओं, जैसे कि नमाज़े जमाअत में पहली पंक्ति में आगे बढ़ने वालों और पीछे रहने वालों के बारे में, को गंभीरता से नहीं लिया है। उन्होंने उन रिवायतों को भी खारिज किया है जिनमें नमाज़े जमाअत में एक सुंदर महिला को देखने के लिए कुछ लोगों के पीछे खड़े होने का उल्लेख है। उनके अनुसार, यह रिवायतें आयत के अर्थ के अनुरूप नहीं हैं।[९]
सात कारवाँ और सात क़ुरआनी आयतें
- मुख्य लेख: सबअ मसानी
सूर ए हिज्र की आयत 87 के नुज़ूल के बारे में वर्णित हुआ है कि यहूदी क़बीलों बनी क़ुरैज़ा और बनी नज़ीर के लिए सात कारवाँ मदीना में दाखिल हुए। इन कारवाँ में कपड़े, इत्र, गहने और अन्य सामान लदे हुए थे। मुसलमानों ने कहा कि अगर यह धन हमारा होता, तो हम मज़बूत और समृद्ध हो जाते और ईश्वर के रास्ते में खर्च (इंफ़ाक़) करते। इस पर यह आयत "وَ لَقَدْ آتَیناکَ سَبْعاً مِنَ الْمَثَانِی وَ الْقُرْآنَ الْعَظِیمَ" व लक़द आतैनाका सबअन मिनल मसानी वल क़ुरआन अल अज़ीम (और निश्चय ही हमने तुम्हें सात मसानी (दोहराई जाने वाली आयतें) और महान क़ुरआन प्रदान किया है।) नाज़िल हुई और इस आयत के माध्यम से ईश्वर ने पैग़म्बर मुहम्मद (स) से कहा कि उन्हें सात आयतें दी गई हैं, जो इन सात कारवाँ से बेहतर हैं।[१०] "सबअ मसानी" के अर्थ के बारे में मुफ़स्सिरीन के बीच मतभेद है, लेकिन कई रिवायतों में वर्णित हुआ है कि इससे मुराद (अर्थ) सूर ए फ़ातिहा है।[११]
प्रसिद्ध आयतें
सूर ए हिज्र की प्रसिद्ध आयतों में से आयत 9 को आय ए हिफ़्ज़ के रूप में जाना जाता है, आयत 88 विश्वासियों के प्रति पैग़म्बर (स) की विनम्रता (तवाज़ोअ) के बारे में है, और आयत 99 मृत्यु तक इबादत जारी रखने की आवश्यकता के बारे में है।
आय ए हिफ़्ज़
- मुख्य लेख: आय ए हिफ़्ज़ और क़ुरआन का अविरुपण
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— आयत 9 |
- अनुवाद: बिना किसी संदेह के, हमने ही इस ज़िक्र (क़ुरआन) को उतारा है और हम ही इसकी हिफ़ाज़त करने वाले हैं।
यह आयत उन आयतों में से है जिनका हवाला देकर ज़्यादातर व्याख्याकारों और शोधकर्ताओं ने क़ुरआन में किसी भी तरह के तहरीफ़ (मिटाए जाने या बदले जाने) को खारिज किया है।[१२] व्याख्या में "ज़िक्र" से अर्थ क़ुरआन को माना गया है।[१३] कुछ लोगों ने यह आपत्ति उठाई है कि क़ुरआन में तहरीफ़ को खारिज करने के लिए क़ुरआन की ही आयतों का सहारा कैसे लिया जा सकता है, क्योंकि हो सकता है कि जिस आयत का हवाला दिया जा रहा है, वह खुद तहरीफ़ की शिकार हो। इस आपत्ति के जवाब में कहा गया है कि जो लोग क़ुरआन में तहरीफ़ का दावा करते हैं, वे मानते हैं कि क़ुरआन से कुछ हिस्से कम किए गए हैं, न कि उसमें कुछ जोड़ा गया है। इसलिए, इस आयत के ज़रिए उनके दावे का खंडन किया जा सकता है।[१४]
आयाते इम्हाल (इब्लीस को मोहलत देना)
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— आयत 36 से 40 |
- अनुवाद: इब्लीस ने कहा: "ऐ मेरे रब! तो मुझे उस दिन तक मोहलत दे जब तक लोगों को जिलाया जाए। ईश्वर ने कहा: "तो निश्चय ही तुम मोहलत पाने वालों में से हो। एक निर्धारित समय तक। इब्लीस ने कहा: "ऐ मेरे रब! जब तूने मुझे गुमराह किया है, तो मैं धरती पर उनके लिए (दुनियावी चीज़ों को) सजाऊँगा और उन सभी को गुमराह करूँगा। सिवाय तेरे उन बंदों के जो पाक और चुने हुए हैं।
यह आयतें आदम (अ) की रचना के बाद इब्लीस (शैतान) की कहानी और उसके रुख का हिस्सा बताती हैं, और इससे कई बातें सीखी जा सकती हैं: 1. इब्लीस की मोहलत की मांग: इब्लीस ने अल्लाह से मोहलत मांगते हुए अपनी दुआ को "रब्बि बिमा..." (हे मेरे रब!) से शुरू किया। उसने अल्लाह की रबूबियत (पालनहार होने की गुणवत्ता) को स्वीकार करते हुए उसकी रहमत को भड़काने की कोशिश की ताकि उसकी मांग पूरी हो सके। 2. आदम को सजदा करने का मामला: आदम (अ) एक क़िबला (ध्यान का केंद्र) की तरह थे, जो मानवता का प्रतीक थे। इब्लीस ने मानवता और इंसान के मकाम को सजदा नहीं किया, इसलिए उसकी दुश्मनी सभी इंसानों से है। 3.मोहलत की अवधि: अल्लाह ने इब्लीस को क़यामत तक की मोहलत नहीं दी, बल्कि एक निर्धारित दिन (यौमिल मौऊद) तक की मोहलत दी, जो क़यामत से पहले है। 4. इब्लीस की गुमराही: इब्लीस ने अपने बुरे इख्तियार (चुनाव) के कारण अल्लाह की लानत को अपने ऊपर ले लिया और हमेशा की सुख से महरूम हो गया। उसने इस महरूमियत को अल्लाह की तरफ मोड़ते हुए कहा, "रब्बि बिमा अग़वैतनी..." (हे मेरे रब! तूने मुझे गुमराह किया)। यह अल्लाह की "इज़लाल ए मजाज़ाती" (सजावती गुमराही) है, जो इब्लीस के अपने चुनाव का नतीजा है। 5. सभी लोग अल्लाह के बंदे हैं: इब्लीस ने गलत तरीके से कहा कि केवल मुख़लसीन (ईमानदार लोग) ही अल्लाह के बंदे हैं। लेकिन हकीकत यह है कि सभी लोग अल्लाह के बंदे हैं, चाहे वे मुखलसीन हों या न हों। इब्लीस गुमराही को सजाने की कोशिश करता है और सभी को बहकाने की कोशिश करता है, लेकिन केवल मुखलसीन ही नजात पाते हैं। 6. अपने कर्मों का नतीजा: जिस तरह इब्लीस ने अपने चुनाव का नतीजा देखा, उसी तरह सभी इंसान, चाहे मुखलसीन हों या न हों, अपने कर्मों और चुनावों का नतीजा देखेंगे। अल्लाह ने इस कायनात को इस तरह बनाया है कि हर कारण का अपना नतीजा होता है, और इस कानून में कोई खिलाफ़वर्जी नहीं होगी। सब कुछ अल्लाह की कुदरत और रबूबियत के तहत है।[१५]
आय ए तवाज़ौअ
- मुख्य लेख: आय ए तवाज़ौअ
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— आयत 88 |
- अनुवाद: और जिस चीज़ (धन-दौलत) से हमने उन (काफ़िरों) के कुछ गिरोहों को फ़ायदा पहुँचाया है, उसकी तरफ़ लालच से न देखो, और न ही उनके लिए दुखी हो। और ईमान वालों के लिए अपने पंख (दया और सहायता) फैला दो।
व्याख्याकारों ने वाक्य "وَاخْفِضْ جَنَاحَکَ لِلْمُؤْمِنِینَ वख़्फ़िज़ जनाहका लिल मोमेनीन" (और ईमान वालों के लिए अपने पंख को नीचा करो) का अर्थ विनम्रता और नर्मी से पेश आना बताया है, जैसे कि एक चिड़िया अपने बच्चों को गर्मजोशी से सीने से लगाने के लिए अपने पंख फैलाती है।[१६] अल्लामा तबातबाई का मानना है कि "खफ़्ज़ जनाह" (पंख को नीचा करना) का मतलब सब्र (धैर्य), ख़ुद को संयमित रखना और ईमान वालों के साथ मेल-जोल बनाए रखना है। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि आप अपनी सारी चिंता और मेहनत को मुसलमानों की सोहबत (संगति) और उनकी तरबियत (शिक्षा-दीक्षा) में लगा दें और उनसे अलग न हों।[१७] क़ुरआन में "ख़फ़्ज़ जनाह" (विनम्रता दिखाना) का आदेश तीन बार आया है। इनमें से दो बार यह आदेश पैग़म्बर (स) को मुसलमानों के प्रति दिया गया है, जो सूर ए हिज्र की आयत 88 और सूर ए शोअरा की आयत 215 में मौजूद है। तीसरी बार यह आदेश बच्चों को उनके माता-पिता के प्रति दिया गया है, जो सूर ए इस्रा की आयत 24 में मौजूद है: "وَاخْفِضْ لَهُمَا جَنَاحَ الذُّلِّ مِنَ الرَّحْمَةِ वख़्फ़िज़ लहोमा जनाहा अल ज़ुल्ले मिन अल रहमते" (और उन दोनों (माता-पिता) के लिए दया के साथ विनम्रता का पंख नीचा करो)। आयतुल्लाह जवादी आमोली, जो एक व्याख्याकार और दार्शनिक हैं, इन दो प्रकार के "ख़फ़्ज़ जनाह" के बीच अंतर बताते हुए कहते हैं: कुरआन में "ख़फ़्ज़ जनाह" तीन बार आया है। एक बार यह बच्चों को उनके माता-पिता के प्रति दिया गया है, और दो बार यह पैग़म्बर (स) को मुसलमानों के प्रति दिया गया है। इन दोनों में यह अंतर है कि एक "ख़फ़्ज़े जनाहे तरह्हुम" (दया और सहानुभूति के साथ विनम्रता) है, और दूसरा "ख़फ़्ज़े जनाहे एह़तिराम" (सम्मान के साथ विनम्रता) है। "ख़फ़्ज़े जनाहे तरह्ह़ुम" पैग़म्बर (स) को मुसलमानों के प्रति दिया गया है, जैसा कि सूर ए शोअरा की आयत 215 में कहा गया है: "وَاخْفِضْ جَنَاحَکَ لِمَنِ اتَّبَعَکَ مِنَ الْمُؤْمِنِینَ" (और ईमान वालों में से जो तुम्हारा अनुसरण करें, उनके लिए अपने पंख को नीचा करो)। पैग़म्बर (स), जो अल्लाह की मदद से मेराज (आसमानी यात्रा) तक पहुँच सके, उन्हें मुसलमानों को तीन मक़सदों के लिए अपने पंख के नीचे लेना चाहिए: पहला यह है कि मोमिनीन (ईमान वालों) को पंख निकालना सीखना चाहिए, दूसरा यह कि उन्हें उड़ना सीखना चाहिए, और तीसरा यह कि उन्हें यह सीखना चाहिए कि किस दिशा में उड़ान भरनी है। यह उस कबूतर की तरह है जो अपने बच्चों को इन तीन चीज़ों की ज्ञान देता है: वह अपने बच्चों को अपने पंखों के नीचे लेता है ताकि वे 1) पंख निकाल सकें, 2) उड़ना सीख सकें, और 3) यह सीख सकें कि कहाँ जाना है और किस दिशा में उड़ान भरनी है। लेकिन जो "ख़फ़्ज़ जनाह" (पंख को नीचा करना) बच्चों को अपने माता-पिता के प्रति दिखाना चाहिए, वह विनम्रता, नर्मी और समर्पण के साथ होना चाहिए, जैसा कि सूर ए इस्रा की आयत 23 और 24 में कहा गया है: "إِمَّا یَبْلُغَنَّ عِنْدَکَ الْکِبَرَ أَحَدُهُما أَوْ کِلاهُما فَلا تَقُلْ لَهُما أُفٍّ … وَ اخْفِضْ لَهُما جَناحَ الذُّلِّ مِنَ الرَّحْمَةِ इम्मा यब्लोग़न्ना इन्दकल केबर अहदोहोमा अव किलाहोमा फ़ला तक़ुल लहोमा उफ़्फ़िन... वख़्फ़िज़ लहोमा जनाहा अल ज़ुल्ले मिन अल रहमते" पैग़म्बर (स) के संबंध में "ज़ुल्ल" नहीं है, क्योंकि इज़्ज़त (सम्मान) और मज़ल्लत में अंतर है।[१८]
आय ए तस्बीह
- मुख्य लेख: आय ए तस्बीह
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— आयत 98 |
- अनुवाद: अपने रब की तारीफ़ के साथ उसकी तस्बीह (पवित्रता का वर्णन) करो और सजदा करने वालों में से हो जाओ।
तस्बीह (ईश्वर की पवित्रता का वर्णन) और हम्द (प्रशंसा) को मुसीबत, बेसब्री, ज़ख्मे ज़बान (कटु वचन) और दिल की तंगी के प्रभाव को कम करने का एक तरीका माना गया है।[१९] ईश्वर इस आयत में अपने पैग़म्बर (स) को सलाह देता है कि वह काफ़िरों के कटु वचनों से पैदा हुई नाराज़गी के प्रभाव को दूर करने के लिए इबादत और तस्बीह में लगे, क्योंकि यह उनकी ताक़त को बढ़ाता है और उनके सब्र (धैर्य) को ऊंचा करता है। इब्ने अब्बास की एक रिवायत में वर्णित हुआ है कि जब पैग़म्बर (स) उदास होते थे, तो वह नमाज़ के लिए खड़े हो जाते थे, और उनके चेहरे से ग़म और दुख के निशान गायब हो जाते थे।[२०]
आय ए इबादत
- मुख्य लेख: आय ए इबादत
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— आयत 99 |
- अनुवाद: और अपने रब की इबादत (पूजा) करते रहो, यहाँ तक कि तुम्हारे पास मौत आ जाए।

व्याख्याकारों ने हदीसों के आधार पर इस आयत में "यक़ीन" का मतलब इंसान की मौत का वक्त आना बताया है, और इसकी वजह मौत के यक़ीनी और तय होने को माना है। इस आयत में मौत के वक्त तक इबादत करने का आदेश इसलिए दिया गया है क्योंकि अगर यह शर्त न होती, तो सिर्फ एक इबादत से भी यह आदेश पूरा हो जाता और बंदा ईश्वर का आज्ञाकारी समझा जाता। लेकिन इस शर्त के साथ, इंसान को मौत आने तक अल्लाह की इबादत करने का हुक्म दिया गया है।[२१] कुछ सूफ़ियों का यह कहना कि इस आयत को इबादत छोड़ने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, यह बात ग़लत और ख़ारिज है।[२२] अल्लामा तबातबाई ने इस आयत में इबादत के आदेश (فَاعبُد ربَّک) के बारे में दो संभावनाएं बताई हैं:
- पहली संभावना: इस आयत में इबादत (पूजा) का आदेश दिया गया है, जो पिछली आयत की तफ़्सीर (व्याख्या) के रूप में है। पिछली आयत में पैग़म्बर (स) को तस्बीह (ईश्वर की पवित्रता का वर्णन) और सजदे का हुक्म दिया गया था। इस तरह, तस्बीह और सजदा इबादत के उदाहरण हैं।
- दूसरी संभावना: इस आयत का मतलब अबूदियत (ईश्वर की बंदगी) के लिए ज़रूरी चीज़ों को मानना और उसके आगे समर्पण और आज्ञाकारिता दिखाना है। यह संभावना इस आयत और पिछली आयतों से समझी जा सकती है। इस हिसाब से, आयत का मतलब यह होगा: "ऐ पैग़म्बर! अबूदियत (अल्लाह की बंदगी) पर डटे रहो, आज्ञा मानने और गुनाह से बचने में लगे रहो, और दुश्मनों की कड़वी बातों के सामने सब्र (धैर्य) दिखाओ, यहाँ तक कि तुम्हारे पास मौत आ जाए। और आख़िरत (परलोक) में, जो यक़ीन (निश्चितता) का दुनिया है, तुम ईश्वर के इंसाफ़ और दुश्मनों की सज़ा को देखोगे।"[२३]
इसके अलावा, यह आयत इस ग़लत धारणा पर पानी फेरती है कि "तकलीफ़ (जिम्मेदारी) इंसान को कमाल (पूर्णता) तक पहुँचाने के लिए है, और जब इंसान कमाल हासिल कर लेता है, तो उस पर कोई तकलीफ़ नहीं रहती।" यह आयत साफ़ तौर पर कहती है कि इबादत और अबूदियत की ज़िम्मेदारी इंसान की मौत तक जारी रहती है, और यह कभी ख़त्म नहीं होती।[२४]
फ़ज़ीलत
- मुख्य लेख: सूरों के फ़ज़ाइल
हदीस में वर्णित हुआ है कि अगर कोई सूर ए हिज्र को पढ़ता है, तो ईश्वर उसे मुहाजेरीन (पैग़म्बर के साथ हिजरत करने वालों), अंसार (मदीना के सहायकों), और पैग़म्बर (स) का मज़ाक उड़ाने वालों की संख्या से दस गुना ज़्यादा नेकियाँ अता करेगा।[२५] कुछ तफ़्सीर (व्याख्याओं) में इस सूरह के कुछ ख़ास फ़ायदे बताए गए हैं, जैसे कि अगर कोई इसे लिखकर अपने पास रखे, तो उसकी कमाई और रोज़ी में इज़ाफ़ा होता है।[२६]
फ़ुटनोट
- ↑ मक़ारिम शीराज़ी, तफ़्सीर ए नमूना, खंड 11, पृष्ठ 4।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, खंड 12, पृष्ठ 185 186।
- ↑ https://makarem.ir/main.aspx?reader=1&lid=0&mid=29202&catid=6509&pid=61909
- ↑ मारिफ़त, आमोज़िशे उलूमे कुरआन, खंड 2, पृष्ठ 166।
- ↑ ख़ुर्रमशाही, "सूर ए हिज्र", खंड 2, पृष्ठ 1240।
- ↑ मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, 1371 शम्सी, खंड 11, पृष्ठ 3।
- ↑ तबरसी, मजमा उल बयान, खंड 6, पृष्ठ 514।
- ↑ कूफ़ी, अल जाफ़रियात (अल अश'असियात), पृष्ठ 178।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1391 हिजरी, आलमी, बेरूत, खंड 12, पृष्ठ 146 और 149।
- ↑ वाहेदी, अस्बाबे नुज़ूल अल कुरआन, पृष्ठ 283।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1391 हिजरी, आलमी, बेरूत, खंड 12, पृष्ठ 191
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 हिजरी, खंड 12, पृष्ठ 101, मकारिम शिराज़ी, तफ़्सीर ए नमूना, 1371 शम्सी, खंड 11, पृष्ठ 18; अनवारी, अंगार ए तहरीफ़े कुरआन,1390 शम्सी, पृष्ठ 56; शरीफ़ी, उस्तूरा अल तहरीफ़, पृष्ठ 29; मुहम्मदी (नज्जार ज़ादेगान), सलामतुल क़ुरआन मिन अल तहरीफ़, 1424 हिजरी, पृष्ठ 19।
- ↑ इब्ने अबी हातिम, तफ़्सीर अल कुरआन अल अज़ीम, खंड 7, पृष्ठ 2258।
- ↑ जवादी आमोली, नज़ाहते कुरआन अज़ तहरीफ़, पृष्ठ 89-92।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1391 हिजरी, आलमी, बेरूत, खंड 12, पृष्ठ 157 और 167।
- ↑ तबरसी, मजमा उल बयान, खंड 6, पृष्ठ 531; आलूसी, रूह अल-मआनी, खंड 7, पृष्ठ 323।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, खंड 12, पृष्ठ 192-193।
- ↑ http://javadi.esra.ir/-/तफ़्सीर-सूरह-अबस-सभा-2-1398-09-10
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1390 हिजरी, खंड 12, पृष्ठ 192-195।
- ↑ मक़ारिम शीराज़ी, तफ़्सीर ए नमूना, खंड 11, पृष्ठ 142।
- ↑ तबरसी, मजमा उल बयान, खंड 6, पृष्ठ 534।
- ↑ मक़ारिम शीराज़ी, तफ़्सीर ए नमूना, खंड 11, पृष्ठ 143।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, खंड 12, पृष्ठ 195-196।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, खंड 11, पृष्ठ 196-200।
- ↑ तबरसी, मजमा उल बयान, खंड 6, पृष्ठ 501; कफ़्अमी, अल मिस्बाह, पृष्ठ 441।
- ↑ बहरानी, अल बुरहान, खंड 3, पृष्ठ 329।
स्रोत
- इब्ने अबी हातिम, अब्दुर्रहमान बिन मुहम्मद, तफ़्सीर अल कुरआन अल अज़ीम, शोध: असअद मुहम्मद अल तैयब, प्रकाशक: मकतबा निज़ार मुस्तफा अल बाज़, सऊदी अरब, 1419 हिजरी।
- अनवारी, जाफ़र, अंगार ए तहरीफ़ ए कुरआन, प्रकाशक: मोअस्ससा ए तालीमी व पज़ोहिशी ए इमाम ख़ुमैनी, क़ुम, 1390 शम्सी।
- जवादी आमोली, अब्दुल्लाह, नज़ाहत ए कुरआन अज़ तहरीफ़, प्रकाशक: नश्र ए इस्रा, क़ुम, 1383 शम्सी।
- शरीफ़ी, महमूद, उस्तूरा अल तहरीफ़, पर्यवेक्षण: आयतुल्लाह मुहम्मद हादी मारेफ़त, प्रकाशक: नश्र ए मशअर, तेहरान, 1429 हिजरी।
- शेख़ तूसी, मुहम्मद बिन हसन, अल तिब्यान फी तफ़्सीर अल कुरआन, मुक़द्दमा: शेख़ आग़ा बुज़ुर्ग तेहरानी, शोध: अहमद क़सीर आमिली,प्रकाशक: दार इह्या अल तोरास अल अरबी, बेरूत, बिना तारीख़।
- तबातबाई, मुहम्मद हुसैन, अल मीज़ान फी तफ़्सीर अल कुरआन, प्रकाशक: मौअस्ससा ए अल आलमी लिल मत्बूआत, बेरूत, 1390 हिजरी।
- तबरसी, फज़्ल बिन हसन, मजमा उल बयान फी तफ़्सीर अल कुरआन, मुक़द्दमा: मुहम्मद जवाद बलाग़ी, प्रकाशक: नासिर ख़ुस्रू, तेहरान, 1372 शम्सी।
- तबरी, अबू जाफ़र मुहम्मद बिन जरीर, जामेअ अल बयान फी तफ़्सीर अल कुरआन, प्रकाशक: दार अल मारेफ़ा, बेरूत, 1412 हिजरी।
- कफ़्अमी, इब्राहीम बिन अली, अल मिस्बाह (लुजना अल अमान अल वाक़िया व जुन्ना अल ईमान अल बाक़िया), प्रकाशक: दार अल रज़ी (ज़ाहेदी), क़ुम, 1405 हिजरी।
- कूफ़ी, मुहम्मद बिन मुहम्मद अशअथ, अल जाफ़रियात (अल-अश'असियात), प्रकाशक: मकतबा नैनवा अल हदीसा, तेहरान, बिना तारीख़।
- मुहम्मदी (नजारज़ादेगान), फ़तहुल्लाह, सलामत अल कुरआन मिन अल तहरीफ़, प्रकाशक: नश्र ए मशअर, तेहरान, 1424 हिजरी।
- मारेफ़त, मुहम्मद हादी, आमोज़िशे उलूमे कुरआन, प्रकाशक: मरकज़ ए चाप व नश्रे सज़मान ए तब्लीग़ाते इस्लामी, तेहरान, 1371 शम्सी।
- मक़ारिम शीराज़ी, नासिर, तफ़्सीर ए नमूना, प्रकाशक: दार उल कुतुब अल इस्लामिया, तेहरान, 1371 शम्सी।
- वाहेदी, अली बिन अहमद, अस्बाबे नुज़ूल अल कुरआन, प्रकाशक: दार उल कुतुब अल इल्मिया, बेरूत, 1411 हिजरी।