सूर ए हाक़्क़ा
क़लम सूर ए हाक़्क़ा मआरिज | |
सूरह की संख्या | 69 |
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भाग | 29 |
मक्की / मदनी | मक्की |
नाज़िल होने का क्रम | 78 |
आयात की संख्या | 52 |
शब्दो की संख्या | 261 |
अक्षरों की संख्या | 1133 |
सूर ए हाक़्क़ा (अरबी: سورة الحاقة) क़ुरआन का 69वां सूरह और मक्की सूरों में से एक है, जो 29वें भाग में स्थित है। इस सूरह को हाक़्क़ा कहा जाता है क्योंकि इसकी पहली तीन आयतों में अल हाक़्क़ा शब्द तीन बार आया है। हाक़्क़ा का अर्थ क़यामत का दिन है।
इस सूरह का मुख्य विषय क़यामत और क़यामत के दिन का वर्णन है, जिसका घटित होना निश्चित है और यह उन लोगों के भाग्य के बारे में बताता है जो क़यामत के दिन का इनकार करते हैं। इस सूरह की प्रसिद्ध आयतों में से आयत 44-46 है, जिसमें कहा गया है कि अगर पैग़म्बर (स) ईश्वर की ओर झूठ की निस्बत देते हैं, तो ईशवर उनसे बदला लेगा और उनके दिल की नस काट देगा। हदीसों में कहा गया है कि जो कोई सूर ए हाक़्क़ा पढ़ता है, ईश्वर उसके लिए हिसाब किताब आसान कर देगा, और वाजिब नमाज़ों और नाफ़ेला नमाज़ों में इस सूरह को पढ़ना ईश्वर और उसके पैग़म्बर में विश्वास (ईमान) के संकेतों में से एक है।
परिचय
- नामकरण
इस सूरह की पहली तीन आयतों में "हाक़्क़ा" का उल्लेख है और इसी कारण से इस सूरह को अल हाक़्क़ा कहा जाता है। हाक़्क़ा का अर्थ क़यामत का दिन है। हाक़्क़ा, हक़ से लिया गया है और इसका अर्थ है जो चीज़ निश्चित, निर्धारित और वास्तविक है।[१]
- नाज़िल होने का क्रम एवं स्थान
सूर ए हाक़्क़ा मक्की सूरों में से एक है और यह नाज़िल होने के क्रम में 78वाँ सूरह है जो पैग़म्बर (स) पर नाज़िल हुआ था। यह सूरह क़ुरआन की वर्तमान व्यवस्था में 69वां सूरह है[२] और यह क़ुरआन के 29वें भाग में स्थित है।
- आयतों की संख्या एवं अन्य विशिष्टताएँ
सूर ए हाक़्क़ा में 52 आयतें, 261 शब्द और 1133 अक्षर हैं और यह मुफ़स्सलात सूरों (छोटी आयतों के साथ) में से एक है।[३]
सामग्री
सूर ए हाक़्क़ा का मुख्य विषय क़यामत के दिन की याद दिलाना है। इस सूरह के मुख्य विषय इस प्रकार हैं:
- अतीत के राष्ट्रों (उम्मतों) का एक संक्षिप्त उल्लेख जिन्होंने क़यामत के दिन को अस्वीकार कर दिया, विशेष रूप से क़ौमे आद, समूद और फ़िरऔन;
- क़यामत के दिन की स्थिति और लोगों के असहाबे यमीन और असहाबे शेमाल के दो समूहों में विभाजित होने की व्याख्या करना, जो भाग्यशाली और दुर्भाग्यपूर्ण समूह हैं;
बारहवीं आयत इमाम अली (अ) के सम्मान में
रिवायत में कहा गया है कि जब सूर ए हाक़्क़ा की आयत 12 नाज़िल हुई, لِنَجْعَلَهَا لَكُمْ تَذْكِرَةً وَتَعِیهَا أُذُنٌ وَاعِیةٌ (लेनजअलहा लकुम तज़्केरतन व तएयहा उज़्नुन वाएयतुन) “ताकि हम इसे (काफ़िरों का डूबना और ईमानवालों का उद्धार) तुम्हारे लिए एक अनुस्मारक बना दें, और सुननेवालों के कान इसे याद रखें।” पैग़म्बर (स) ने इमाम अली (अ) से कहा कि आयत में (اُذُن) उज़्न का अर्थ आपके कान हैं।[५] अमीर अल मोमिनीन (अ) से भी वर्णित हुआ है कि "मैं हूं सुनने वाला कान"।[६] कुछ सुन्नी टिप्पणीकारों ने भी इस आयत को इमाम अली (अ) के बारे में माना है।[७]
कई टिप्पणियों और हदीस पुस्तकों में यह भी उल्लेख किया गया है कि जब यह आयत नाज़िल हुई तो पैग़म्बर (स) ने कहा था: "मैंने ईश्वर से अली के कान को उन कानों में से एक बनाने के लिए कहा जो सत्य को सुनता है और संरक्षित करता है।" इमाम अली (अ) को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है: "उसके बाद, मैंने ईश्वर के पैग़म्बर (स) से कोई ऐसा शब्द नहीं सुना जिसे मैं भूल जाऊँ। बल्कि मुझे हमेशा याद रहा।[८]
प्रसिद्ध आयतें
وَلَوْ تَقَوَّلَ عَلَيْنَا بَعْضَ الْأَقَاوِيلِ لَأَخَذْنَا مِنْهُ بِالْيَمِينِ ثُمَّ لَقَطَعْنَا مِنْهُ الْوَتِينَ
(वलौ तक़व्वला अलैना बाज़ल अक़ावीले लअख़ज़्ना मिनहो बिल यमीने सुम्मा लक़तअना मिनहुल वतीन) (आयत 44-46)
अनुवाद: यदि उसने (पैग़म्बर ने) झूठ की निस्बत हमारी ओर दी होती, तो हम उसे बलपूर्वक पकड़ लेते; फिर हम उसके दिल की नस काट देते।
इन आयतों में धमकी दी गई है कि अगर पैग़म्बर (स) ईश्वर की ओर झूठी निस्बत देते हैं, तो ईश्वर उनसे बदला लेगा। अर्थात इन आयतों का मतलब ये है कि ईश्वर के पैग़म्बर (स) के लिए ऐसा कृत्य करना संभव नहीं है। इसलिए पैग़म्बर (स) अपने भाषण में सच्चे हैं और वह जो कहते हैं वह ईश्वर का शब्द है। यह याद रखना भी आवश्यक है कि यह आयत एक ऐसे पैग़म्बर को संबोधित है जो ईश्वर द्वारा भेजा गया था और अपने मिशन में सच्चा है और धमकी उसी पर निर्देशित है, न कि यह कि जो कोई भी पैग़म्बर होने का झूठा दावा करता है उसे निश्चित रूप से इसके अधीन किया जाएगा। क्योंकि इनमें से कुछ पैग़म्बरी के दावेदारों को पीड़ा नहीं दी गई है।[९] तफ़सीर अल बुरहान में, एक हदीस का उल्लेख किया गया है कि जब पैग़म्बर (स) ने कहा, «مَنْ كُنْتُ مَوْلَاهُ فَعَلِيٌّ مَوْلَاه» (मन कुन्तो मौलाहो फ़अलीयुन मौलाह) (हदीस ग़दीर), तो एक दुश्मन ने कहा: यह ईश्वर ने नहीं कहा है और उसने इसकी निस्बत ईश्वर की ओर दी है। इस समय, आयत «وَلَوْ تَقَوَّلَ عَلَيْنَا...» नाज़िल हुई थी।[१०]
- لِنَجْعَلَهَا لَكُمْ تَذْكِرَةً وَتَعِيَهَا أُذُنٌ وَاعِيَةٌ
(लेनजअलहा लकुम तज़्केरतन व तएयहा उज़्नुन वाएयतुन) (आयत 12)
अनुवाद: ताकि हम इसे (काफ़िरों का डूबना और ईमानवालों का उद्धार) तुम्हारे लिए एक अनुस्मारक बना दें, और सुननेवालों के कान इसे याद रखें।
सुन्नियों और शियों से वर्णित कई कथनों में, «اذن واعیه» "उज़्नुन वाएयतुन" का अर्थ ईश्वर के पैग़म्बर (स) के विनिर्देश के अनुसार अमीर अल मोमिनीन (अ) हैं। इब्ने अब्बास ने पैग़म्बर (स) से वर्णित किया है कि पैग़म्बर (स) ने अली बिन अबी तालिब (अ) से कहा: "हे अली! ईश्वर ने मुझे आदेश दिया है कि मैं तुम्हारे करीब रहूं और तुमसे दूर न रहूं (तुम्हें स्वयं के करीब लाऊं और तुम्हें स्वयं से दूर न करूं) और तुमसे और जो तुमसे प्रेम करते हैं उनसे प्रेम करूं और तुम्हें सिखाऊं और तुम सुनो। और यह ईश्वर को शोभा देता है कि तुम सुनो, फिर परमेश्वर ने नाज़िल किया: وَ تَعِیَها أُذُنٌ واعِیَةٌ (व तएयहा उज़्नुन वाएयतुन)। पैग़म्बर (स) ने कहा: "हे अली, मैंने अपने भगवान से तुम्हारे कान इस तरह बनाने के लिए कहा।" अली (अ) ने कहा: "जब से यह आयत अवतरित हुई है, मेरे कानों ने भलाई, ज्ञान और क़ुरआन के बारे में कुछ भी नहीं सुना है, सिवाय इसके कि मैंने इसे समझ लिया है और याद कर लिया है।"[११] तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई का मानना है कि इस कविता में, दोनों प्रकार के मार्गदर्शन का उल्लेख किया गया है, अर्थात रास्ता दिखाने के अर्थ में मार्गदर्शन (एराआ अल तरीक़) और लक्ष्य तक पहुँचने के अर्थ में मार्गदर्शन (अल ईसाल एलल मतलूब)। क्योंकि यह प्रत्येक प्राणी को उसकी पूर्ण क्षमता तक पहुंचाने की दिव्य परंपराओं में से एक है, और इसलिए प्रत्येक प्राणी वांछित लक्ष्य तक पहुंचने के साधनों से सुसज्जित है। मनुष्य इस दैवीय कानून और परंपरा का अपवाद नहीं है, और दैवीय परंपराओं में से एक मानव जाति को उसके जीवन की खुशी (सआदत) के लिए मार्गदर्शन करना है। वाक्य (لِنَجْعَلَها لَكُمْ تَذْكِرَةً) “लेनजअलहा लकुम तज़्केरतन” इस अर्थ (एराआ अल तरीक़) को संदर्भित करता है क्योंकि एक تَذْكِرَةً (तज़्केरतन) का अर्थ है उसे सआदत के रास्ते की याद दिलाना, और इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि एक व्यक्ति एक अनुस्मारक ढूंढे और निश्चित रूप से सआदत का मार्ग अपनाए संभव है कि स्मरण का उस पर असर हो, और यह भी संभव है कि न हो। दिव्य परंपराओं में से एक है सभी प्राणियों को उनकी पूर्णता की ओर ले जाना, और उन्हें उस बिंदु की ओर ले जाना, और उन्हें उस बिंदु तक पहुंचाना, वाक्य وَ تَعِیَها أُذُنٌ واعِیَةٌ (व तएयहा उज़्नुन वाएयतुन) इसी अर्थ को संदर्भित करता है (ईसाल एलल मतलूब), क्योंकि وَعْى वए - सीखना - ईश्वर के मार्गदर्शन के लिए निर्देशित होने के उदाहरणों में से एक है।[१२]
फ़ज़ीलत
- मुख्य लेख: सूरों के फ़ज़ाइल
पैग़म्बर (स) द्वारा वर्णित हुआ है कि जो कोई सूर ए हाक़्क़ा को पढ़ता है, ईश्वर उसके लिए हिसाब किताब आसान कर देगा।[१३] इमाम बाक़िर (अ) से रिवायत है कि सूर ए हाक़्क़ा को बहुत ज़्यादा पढ़ो; क्योंकि इसे वाजिब नमाज़ों और नाफ़ेला नमाज़ों में पढ़ना ईश्वर और उसके पैग़म्बर में विश्वास के प्रभावों में से एक है, और जो कोई इस सूरह को पढ़ता है, उसका धर्म उस दिन तक संरक्षित रहेगा जब तक कि वह ईश्वर से नहीं मिल जाता।[१४]
फ़ुटनोट
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1393 हिजरी, खंड 19, पृष्ठ 392।
- ↑ मारेफ़त, आमोज़िशे उलूमे क़ुरआन, 1371 शम्सी, खंड 1, पृष्ठ 167।
- ↑ दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1258।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1393 हिजरी, खंड 19, पृष्ठ 391 और 392।
- ↑ कुलैनी, अल काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 423।
- ↑ बहरानी, अल बुरहान, 1389 शम्सी, खंड 5, पृष्ठ 471, मआनी अल अख़्बार, खंड 1, पृष्ठ 60 से उद्धृत।
- ↑ स्यूती, अल दुर अल मंसूर, 1404 हिजरी, खंड 6, पृष्ठ 260; सअलबी, अल कश्फ़ व अल बयान, 1422 हिजरी, खंड 10, पृष्ठ 28।
- ↑ मकारिम शिराज़ी, बर्गुज़ीदेह तफ़सीर नमूना, 1382 शम्सी, खंड 5, पृष्ठ 262।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, अनुवाद, खंड 19, पृष्ठ 675-676।
- ↑ बहरानी, अल बुरहान, 1389 शम्सी, खंड 5, पृष्ठ 480।
- ↑ हस्कनी, शवाहिद अल तंज़ील ले क़वाएद अल तफ़ज़ील, प्रकाशक: मोअस्ससा अल तबअ व अल नशर, खंड 377।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, अल नाशिर मंशूराते इस्माइलियान, खंड 19, पृष्ठ 393-394; अल मीज़ान का अनुवाद, 1374 शम्सी, खंड 19, पृष्ठ 657-658।
- ↑ तबरसी, मजमा उल बयान, 1372 शम्सी, खंड 10, पृष्ठ 514।
- ↑ तबरसी, मजमा उल बयान, अल नाशिर: दार अल अल मारेफ़ा, खंड 10, पृष्ठ 514।
स्रोत
- बहरानी, हाशिम बिन सुलेमान, अल बुरहान फ़ी तफ़सीर अल कुरआन, क़ुम, मोअस्ससा अल बेअसत, क़िस्म अल दरासात अल इस्लामिया, 1389 शम्सी।
- सअलबी, अहमद बिन मुहम्मद, अल कश्फ़ व अल बयान अन तफ़सीर अल कुरआन, बेरूत, दार एहिया अल तोरास अल अरबी, 1422 हिजरी।
- ख़ुर्रमशाही, बहाउद्दीन, दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, तेहरान, दोस्तन प्रकाशन, 1377 शम्सी।
- स्यूति, अब्दुर्रहमान बिन अबी बक्र, अल दुर अल मंसूर फ़ी अल तफ़सीर बिल मासूर, क़ुम, मकतब आयतुल्लाह मरअशी नजफ़ी, 1404 हिजरी।
- शेख़ सदूक़, मुहम्मद बिन अली, सवाब अल आमाल व एक़ाब अल आमाल, क़ुम, अमीर प्रकाशन, दूसरा संस्करण, 1368 शम्सी।
- तबातबाई, सय्यद मुहम्मद हुसैन, अल मीज़ान फ़ी तफ़सीर अल कुरआन, बेरूत, मोअस्सास ए अल आलमी लिल मतबूआत, 1393 हिजरी।
- तबातबाई, अल मीज़ान, अल नाशिर मंशूरात इस्माइलियान, बी ता, बी जा।
- तबातबाई, तफ़सीर अल मीज़ान का अनुवाद, प्रकाशक: जामिया मुदर्रेसीन हौज़ ए इल्मिया क़ुम, दफ़्तरे इंतेशाराते इस्लामी, पाँचवाँ संस्करण, 1375 शम्सी।
- तबरसी, फ़ज़्ल बिन हसन, मजमा उल बयान फ़ी तफ़सीर अल कुरआन, फ़ज़्लुल्लाह यज़्दी तबातबाई और हाशिम रसूली द्वारा संपादित, तेहरान, नासिर खोस्रो, तीसरा संस्करण, 1372 शम्सी।
- कुलैनी, मुहम्मद बिन याक़ूब, अल काफ़ी, तेहरान, दार अल किताब अल इस्लामिया, 1407 हिजरी।
- मारेफ़त, मुहम्मद हादी, आमोज़िशे उलूमे क़ुरआन, [अप्रकाशित], मरकज़े चाप व नशर साज़माने तब्लीग़ाते इस्लामी, पहला संस्करण, 1371 शम्सी।
- मकारिम शिराज़ी, नासिर, बर्गुज़ीदेह तफ़सीर नमूना, तेहरान, दार अल कुतुब अल इस्लामिया, 1382 शम्सी।