सूर ए आदियात

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सूर ए आदियात

सूर ए आदियात (अरबी: سورة العاديات) या वल आदियात, 100वां सूरह और कुरआन के छोटे सूरों में से एक है, जिसमें ग्यारह आयतें हैं और इस सूरह का आरम्भ शपथ के साथ होता है। सूरह का नाम इसकी पहली आयत से लिया गया है और इसका अर्थ तेज़ दौड़ने (घोड़ा) वाला है। इस सूरह के मक्की या मदनी होने के बारे में बारे मतभेद है। यह सूरह क़ुरआन के तीसवें अध्याय में स्थित है।

सूर ए आदियात जिहादियों और क़यामत के दिन मृतकों के पुनरुत्थान से संबंधित है और मनुष्य की कृतघ्नता (ना शुक्री) के बारे में बात करता है। इसके पाठ के गुण में यह उल्लेख किया गया है कि जो कोई सूर ए अल आदियात पढ़ता है और इस सूरह का पाठ हमेशा करता है, भगवान उसे क़यामत के दिन अमीर अल मोमिनीन (अ) के साथ मबऊस (बुलाएगा) करेगा और वह उनके और उनके दोस्तों के बीच रहेगा। जाफ़र ए तय्यार नमाज़ की दूसरी रकअत में सूर ए आदियात का पाठ किया जाता है।

परिचय

नामकरण

इस सूरह को आदियात (तेज़ रफ़्तार) इस लिए कहा जाता है; क्योंकि परमेश्वर ने इस सूरह की पहली आयत में उसकी शपथ खाई है और उसके बारे में बातें कीं है। इस सूरह को वल आदियात भी कहा जाता है; क्योंकि यह सूरह की शुरुआत है।[१] आदियात बहुवचन "आदिया" है जिसका मूल अर्थ गुज़रना और अलग होना है। इस आयत में इस शब्द का अर्थ तेज़ दौड़ना है।[२]

नाज़िल होने का क्रम एवं स्थान

इस सूरह के मक्की या मदनी होने पर विवाद है। तफ़सीर नमूना ने इस सूरह के मदनी होने पर प्राथमिकता दी है[३] और मुहम्मद हादी मारेफ़त ने इसे मक्की माना है।[४] मुहम्मद हादी मारेफ़त के अनुसार, यह सूरह रहस्योद्घाटन (नाज़िल होने) के क्रम में चौदहवाँ सूरह है जो पैग़म्बर (स) पर नाज़िल हुआ था।[५] क़ुरआन की वर्तमान रचना में यह सूरह क़ुरआन का 100वां सूरह है और तीसवें अध्याय में स्थित है।

आयतों एवं शब्दों की संख्या

सूर ए आदियात में 11 आयत, 40 शब्द और 169 अक्षर हैं, और मात्रा के संदर्भ में, यह मुफ़स्सेलात सूरों और सबसे छोटे सूरों में से एक है। सूर ए आदियात उन सूरों में से एक है जिसका आरम्भ शपथ से होता है।[६]

सामग्री

सूर ए आदियात, युद्ध के मैदान में जिहादियों और सिपाहियों की प्रशंसा, भगवान के सामने मनुष्य की कृतघ्नता और पैसे और सांसारिकता के प्यार के कारण उसकी कंजूसी को इंगित करता है इसके अलावा इस सूरह में क़यामत के दिन की स्थिति और क़यामत के दिन के हालात के बारे में चर्चा की गई है।[७]

ज़ात अल सलासिल की लड़ाई और काफ़िरों पर अली (अ) की विजय

वर्णन किया गया है कि यह सूरह "ज़ात अल सलासिल" के युद्ध के बाद नाज़िल हुई थी। हिजरी के 8वें वर्ष में, ईश्वर के पैग़म्बर (स) को सूचित किया गया कि बारह हज़ार घुड़सवार "याबिस" (याबिस घाटी या रेत रेगिस्तान[८]) की भूमि में एकत्र हुए हैं और उन्होंने एक दूसरे से वादा किया है कि जब तक वे पैग़म्बर (स) और अली (अ) का क़त्ल नहीं कर लेंगे और मुस्लिम आबादी को एक दूसरे से अलग नहीं कर लेंगे, प्रयास करना बंद नहीं करेंगे! पैग़म्बर (स) ने अपने कुछ सहाबियों के नेतृत्व में अपने कुछ सहाबियों को उनके पीछे भेजा; लेकिन वे बातचीत के बाद बिना नतीजे के लौट आये। अंत में, पवित्र पैग़म्बर (स) ने अली (अ) को मुहाजिर और अंसार के एक बड़े समूह के साथ उनसे लड़ने के लिए भेजा। मुस्लिम सेना तेज़ी से दुश्मन की ओर बढ़ी और रात में मार्च किया और सुबह दुश्मन को घेर लिया। पहले तो उन्होंने उन्हें इस्लाम की पेशकश की, लेकिन जब उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया तो उन्होंने उन पर हमला किया और उन्हें हरा दिया, कुछ लोगों को बंदी बना लिया और बहुत सारी संपत्ति प्राप्त हुई।

अभी इमाम अली (अ) और सैनिक मदीना नहीं लौटे थे कि सूर ए "वल आदियात" का नुज़ूल हुआ। ईश्वर के पैग़म्बर (स) ने उस दिन सुबह की नमाज़ में इस सूरह का पाठ किया। नमाज़ समाप्त होने के बाद, असहाब ने कहा: हमने यह सूरह पहले कभी नहीं सुना था! पैग़म्बर (स) ने कहा: "हां, अली (अ) ने दुश्मनों पर जीत हासिल की और जिब्राईल ने कल रात यह सूरह लाकर मुझे अच्छी ख़बर दी।" कुछ दिनों के बाद, अली (अ) लूट के सामान और बंदियों के साथ मदीना में आए।[९]

सूर ए आदियात

आयत में कनूद का अर्थ

तफ़सीरे नमूना के अनुसार "कनूद" मूल रूप से वह भूमि है जहाँ से कुछ भी नहीं उगता है और यह कृतघ्न (ना शुक्रे) और कंजूस लोगों पर भी लागू होता है। इस टिप्पणी में यह भी कहा गया है कि अबुल फ़ुतूह राज़ी ने इस संदर्भ में रौज़ा अल जिनान व रूह अल जिनान में लगभग पंद्रह अर्थ उद्धृत किए हैं,[१०] कि अक्सर पत्ति और शाखा और वही मुख्य अर्थ है कि जिसका उल्लेख किया है, जैसे: "कनूद" वह व्यक्ति है जो अपने कष्टों को अपना आशीर्वाद मानता है, लेकिन वह अपने आशीर्वाद को भूल जाता है, वह जो अकेले भगवान के आशीर्वाद को खाता है और उन्हें दूसरों से वंचित करता है, जैसा कि हम पवित्र पैग़म्बर (स) की हदीस में पढ़ते है “أَ تَدْرُونَ مَنِ الْکَنُودِ”; (अ तदरूना मनिल कनूद) (अनुवाद: जानते हो कनूद कौन है) कहा गया: भगवान और उसके रसूल सबसे अच्छे से जानते हैं। उन्होंने कहा: “اَلْکَنُودُ الَّذِى یَأْکُلُ وَحْدَهُ وَ یَمْنَعُ رِفْدَهُ وَ یَضْرِبُعَبْدَهُ” "अल कनूदो अल्लज़ी याकोलो वहदहू व यमनओ रिफ़्दहो व यज़रेबो अब्दहु)"; (कनूद वह व्यक्ति है जो अकेले खाता है और दूसरों को देने से परहेज़ करता है और अपने अधीनस्थों को पीटता है), वह व्यक्ति जो समस्याओं और कष्टों में अपने दोस्तों के साथ भी हमदर्दी नहीं करता है, ऐसा व्यक्ति जिसके अच्छे कार्य बहुत कम हैं, ऐसा व्यक्ति जिसके पास जब कोई आशीर्वाद आता है तो वह दूसरों को उससे वंचित करता है और यदि वह किसी समस्या में फंस जाता है तो अधीर और क्रोधित हो जाता है, वह व्यक्ति जो ईश्वर के आशीर्वाद को पाप में ख़र्च कर देता है, वह व्यक्ति जो ईश्वर के आशीर्वाद को नकार देता है।[११]

आयत 8 में ख़ैर का अर्थ

टिप्पणीकारों ने आयत “وَإنَّه لحِبِّ الْخيرِ لشديدٌ” (वा इन्नहू ले हुब्बिल ख़ैरे ला शदीद) में ख़ैर की व्याख्या धन के रूप में की है, लेकिन अल्लामा तबातबाई का मानना है कि संभव है कि ख़ैर अपने पूर्ण अर्थ में हो और माल के अर्थ से विशिष्ट न हो, क्योंकि मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार ख़ैर से प्यार करता है, और वह मानता है कि दुनिया की दौलत और सजावट ख़ैर है और वह उन्हें ख़ैर मानता है, तो वह उनकी ओर आकर्षित हो जाता है, और इसी कारण वह अपने भगवान के प्रति कृतज्ञता (शुक्र) भूल जाता है।[१२]

फ़ज़ाइल

इस सूरह को पढ़ने के गुण के बारे में, पैग़म्बर (स) से यह वर्णन किया गया है कि जो कोई भी इस सूरह का पाठ करता है तो उसे मुज़दलेफ़ा में (ईद अल अज़हा की रात में) रुकने वाले और वहां मौजूद हाजियों की संख्या के बराबर दस अच्छे कर्म दिए जाएंगे। इमाम सादिक़ (अ) से यह भी वर्णित हुआ है कि जो कोई सूर ए आदियात पढ़ता है और इसे लगातार पढ़ना है, भगवान उसे क़यामत के दिन अमीर अल मोमिनीन (अ) के साथ मबऊस (बुलाएगा) करेगा, और वह उनके और उनके दोस्तो के बीच रहेगा।[१३] कुछ हदीसों में यह भी कहा गया है, सूर ए आदियात क़ुरआन के आधे हिस्से के बराबर है।[१४]

नमाज़े जाफ़रे तय्यार के निर्देशों में कहा गया है कि दूसरी रक्अत में सूर ए हम्द के बाद, सूर ए आदियात का पाठ किया जाना चाहिए।[१५]

फ़ुटनोट

  1. दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1267।
  2. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, 1374 शम्सी, खंड 27, पृष्ठ 241।
  3. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, 1374 शम्सी, खंड 27, पृष्ठ 236।
  4. मारेफ़त, आमोज़िशे उलूमे क़ुरआन, 1371 शम्सी, खंड 1, पृष्ठ 190।
  5. मारेफ़त, आमोज़िशे उलूमे क़ुरआन, 1371 शम्सी, खंड 1, पृष्ठ 166।
  6. दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1267।
  7. दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1267।
  8. http://shiastudies.com/fa/फ़ातेह-वादी-याबिस/।
  9. क़ुमी, तफ़सीर अल क़ुमी, खंड 2, पृष्ठ 434; मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, 1374 शम्सी, खंड 27, पृष्ठ 240।
  10. अल राज़ी, रौज़ा अल जिनान व रूह अल जिनान फ़ी तफ़सीर अल क़ुरआन, 1376 शम्सी, खंड 20, पृष्ठ 378।
  11. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, खंड 27, पृष्ठ 270।
  12. तबातबाई, अल मीज़ान, खंड 20, पृष्ठ 347।
  13. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, 1374 शम्सी, खंड 27, पृष्ठ 237; तबरसी, मजमा अल बयान, 1372 शम्सी, खंड 10, पृष्ठ 801।
  14. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, 1374 शम्सी, खंड 27, पृष्ठ 237।
  15. क़ुमी, मफ़ातीह अल जिनान, 1386 शम्सी, पृष्ठ 66, नमाज़े जाफ़र तय्यार।

स्रोत

  • पवित्र कुरआन, मुहम्मद महदी फौलादवंद द्वारा अनुवादित, तेहरान, दार अल कुरआन अल करीम, 1418 हिजरी/1376 शम्सी।
  • दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, खंड 2, बहाउद्दीन खुर्रमशाही के प्रयासों से, तेहरान, दोस्ताने-नाहिद, 1377 शम्सी।
  • तबरसी, फ़ज़्ल बिन हसन, मजमा अल बयान फ़ी तफ़सीर अल-कुरआन, मुहम्मद जवाद बलाग़ी द्वारा एक परिचय के साथ, तेहरान, नासिर खोस्रो प्रकाशन, तीसरे संस्करण, 1372 शम्सी।
  • क़ुमी, शेख़ अब्बास, मफ़ातीह अल जिनान, तेहरान, नशरे मशअर, 1386 शम्सी।
  • मारेफ़त, मुहम्मद हादी, आमोज़िशे उलूमे क़ुरआन, [अप्रकाशित], मरकज़े चाप व नशरे साज़माने तब्लीग़ाते इस्लामी, पहला संस्करण, 1371 शम्सी।
  • मकारिम शिराज़ी, नासिर, तफ़सीर नमूना, तेहरान, दार अल कुतुब अल इस्लामिया, 1374 शम्सी।