सूर ए अस्र
सूर ए अस्र (अरबी: سورة العصر) या वल अस्र कुरआन का एक सौ तीसरा सूरह और मक्की सूरों में से एक है, जो क़ुरआन के तीसवें अध्याय में शामिल है। सूरह का नाम इसकी पहली आयत से लिया गया है। इस सूरह में ईश्वर अस्र की शपथ ले रहा है कि मनुष्य घाटे (नुक़सान) में है। केवल उन लोगों के जो विश्वास (ईमान) और अच्छे कर्म (अमले सालेह) करते हैं और एक-दूसरे को सच्चाई (हक़) और धैर्य (सब्र) की सिफ़ारिश करते हैं।
हदीसों में उल्लेखित है कि अहले ईमान से अर्थात वे लोग हैं जो इमाम अली (अ) की संरक्षकता (विलायत) में विश्वास (ईमान) रखते हैं। पैग़म्बर (स) से वर्णित हुआ है कि जो कोई भी इस सूरह को पढ़ता है, उसका कार्य धैर्य के साथ समाप्त होगा। और क़यामत के दिन उसे हक़ के साथियों के साथ इकट्ठा (महशूर) किया जाएगा।
परिचय
नामकरण
इस सूरह को अस्र कहा जाता है; क्योंकि इसकी पहली आयत में "अस्र: समय" द्वारा शपथ ली गई है। इस सूरह का दूसरा नाम "वल अस्र" है।[१]
नाज़िल होने का क्रम एवं स्थान
सूर ए अस्र मक्की सूरों में से एक है और यह तेरहवां सूरह है जो पैग़म्बर (स) पर नाज़िल हुआ था। यह सूरह मौजूदा क़ुरआन[२] में 103वां सूरह है और क़ुरआन के तीसवें अध्याय में है।
आयतों की संख्या एवं अन्य विशेषताएँ
सूर ए अस्र में 3 आयतें, 14 शब्द और 73 अक्षर हैं। मात्रा की दृष्टि से यह सूरह छोटे आयतों (मुफ़स्सेलात सूरों) वाले सूरों में से एक है। सूर ए अस्र की शुरुआत शपथ से होती है।[३]
सामग्री
इस सूरह में ईश्वर अस्र की शपथ ले रहा है और कहता है कि मनुष्य घाटे (नुक़सान) में है। केवल उन लोगों के जो विश्वास (ईमान) और अच्छे कर्म (अमले सालेह) करते हैं और एक-दूसरे को सच्चाई (हक़) और धैर्य (सब्र) की सिफ़ारिश करते हैं।[४]
दुनिया और आख़िरत में हानि
इस दुनिया और आख़िरत में मनुष्य की हानि को इस सूरह में ज़ोर दी गई शिक्षाओं में से एक माना जाता है।[५] "ख़ुसर" शब्द और उसके व्युत्पत्तियों के बारे में कहा गया है कि कुरआन में इसका उपयोग 60 से अधिक बार किया गया है।[६] ख़ुसरान का मतलब भौतिक मामलों में कमी और हानि, और आध्यात्मिक और आध्यात्मिक मामलों में भटकाव (गुमराही) और विनाश माना गया है, जो निश्चित रूप से मानसिक और आध्यात्मिक नुक़सान के अर्थ में कुरआन में सबसे अधिक उपयोग किया गया है।[७] राग़िब इस्फ़हानी के अनुसार, "ख़ुसरान" शब्द का प्रयोग तब किया जाता है जब मूलधन (असली सरमाये) का नुक़सान हो जाता है।[८] तफ़सीरे नूर में, फ़ख़्रे राज़ी के हवाले से कहते हैं: इस दुनिया में आदमी एक बर्फ़ बेचने वाले की तरह है जिसकी पूंजी हर पल पिघलती है, और उसे इसे जल्द से जल्द बेच देना चाहिए, अन्यथा उसे नुक़सान होता है।[९] इस सूरह की अपनी व्याख्या में, अल्लामा तबातबाई, इस दुनिया के जीवन को मानव पूंजी मानते हैं, जिसका उपयोग आख़िरत के जीवन के लिए किया जाना चाहिए। यदि वह अपने विश्वासों (एतेक़ादात) और कार्यों (आमाल) में सत्य का पालन करता है, तो उसका व्यवसाय लाभदायक होगा और उसका भविष्य बुराई से मुक्त होगा, लेकिन यदि वह असत्य का पालन करता है और धार्मिक कार्यों (आमाले सालेह) और विश्वास (ईमान) से विमुख हो जाता है, तो उसका व्यवसाय निस्संदेह हानिकारक होगा और इसका परिणाम आख़िरत में अभाव होगा।[१०] ज़मख़्शरी का मानना है कि नेक लोगों को नुक़सान से छूट देने का कारण यह है कि नेक लोग इस दुनिया की सहायता से आख़िरत खरीदते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनका व्यवसाय लाभदायक और समृद्ध होता है, जबकि अन्य उनके विपरीत कार्य करते हैं और घाटे (नुक़सान) में रहते हैं।[११]
सूर ए अस्र की फ़ज़ीलत
सूर ए अस्र के महत्व और स्थिति के बारे में हदीसों में कई विशेषताओं का उल्लेख किया गया है।
- इस्लाम के पैग़म्बर (स) ने अपने ग़दीरिया उपदेश (ख़ुत्बा ए ग़दीरिया) में शपथ लेते हुए कहा है कि यह सूरह इमाम अली (अ) के सम्मान में प्रकट (नाज़िल) किया गया था।[१२] इमाम सादिक़ (अ) से भी यह वर्णित किया गया है कि वाक्यांश «الّا الّذینَ آمَنوا» (इल्लललज़ीना आमनू) का अर्थ उन लोगों से है जो इमाम अली (अ) की संरक्षकता (विलायत) में विश्वास (ईमान) करते हैं।[१३] सुन्नी स्रोतों में भी यह कहा है कि यह सूरह इमाम अली (अ) की फ़ज़ीलत में प्रकट (नाज़िल) हुआ है।[१४]
- इस्लाम के पैग़म्बर (स) के सहाबियों के बीच सूर ए अस्र इतना महत्वपूर्ण था कि कुछ स्रोतों के अनुसार, जब भी वे एक-दूसरे से मिलते थे, तब तक अलग नहीं होते थे जब तक कि वे एक साथ सूर ए अस्र का पाठ नहीं करते थे।[१५]
- इमाम सादिक़ (अ) से वर्णित है कि जो कोई भी मुस्तहब नमाज़ों में सूर ए अस्र का पाठ करता है, भगवान क़यामत के दिन उसके चेहरे को उज्ज्वल (नूरानी), मुस्कुराता हुआ और उसकी आँखों को उज्ज्वल (रौशन) बना देगा ताकि वह स्वर्ग में प्रवेश कर सके।[१६]
- एक हदीस में पैग़म्बर (स) से वर्णित हुआ है कि: जो कोई भी इस सूरह को पढ़ता है, उसका कार्य धैर्य (सब्र) के साथ समाप्त होगा और वह क़यामत के दिन सच्चाई (हक़) के साथियों के साथ इकट्ठा (महशूर) किया जाएगा।[१७]
- यह भी देखें: सूरों के फ़ज़ाएल
फ़ुटनोट
- ↑ दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1268।
- ↑ मारेफ़त, आमोज़िशे उलूमे क़ुरआन, 1371 शम्सी, खंड 1, पृष्ठ 166।
- ↑ दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1268।
- ↑ दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1268।
- ↑ दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1268।
- ↑ युसुफ़ ज़ादेह, "ख़ुसरान", पृष्ठ 104।
- ↑ युसुफ़ ज़ादेह, "ख़ुसरान", पृष्ठ 104।
- ↑ राग़िब इस्फ़हानी, अल-मुफ़रेदात फ़ी ग़रीब अल-कुरआन, खंड 17, पृष्ठ 281।
- ↑ क़राअती, तफ़सीरे नूर, 1383 शम्सी, खंड 10, पृष्ठ 585।
- ↑ तबातबाई, अल-मीज़ान, 1390 हिजरी, खंड 20, पृष्ठ 356-357।
- ↑ रज़ी, अल कश्शाफ़ अन हक़ाएक़ ग़वामिज़ अल तंज़ील, खंड 4, पृष्ठ 794।
- ↑ बलाज़ोरी, अंसाब अल अशराफ़, तिर्मिज़ी, सुनन।
- ↑ क़ुमी, तफ़सीरे क़ुमी, दारुल किताब, क़ुम, 1367 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 441।
- ↑ स्यूती, अल दुर अल मंसूर, 1404 हिजरी, खंड 6, पृष्ठ 392।
- ↑ स्यूती, अल दुर अल मंसूर, 1404 हिजरी, खंड 6, पृष्ठ 391।
- ↑ शेख़ सदूक़, सवाब अल आमाल व एक़ाब अल आमाल, 1382 शम्सी, पृष्ठ 125।
- ↑ तबरसी, मोजम अल बयान, 1372 शम्सी, खंड 10, पृष्ठ 434।
स्रोत
- कुरआन करीम, मुहम्मद मेहदी फौलादवंद द्वारा अनुवादित, तेहरान, दार अल कुरआन अल करीम, 1418 हिजरी/1376 शम्सी।
- दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, बहाउद्दीन खुर्रमशाही द्वारा प्रयास, तेहरान, दोस्ताने-नाहिद, 1377 शम्सी।
- राग़िब इस्फ़हानी, अल-मुफ़रेदात फ़ी ग़रीब अल-कुरआन,
- स्यूती, अब्दुर्रहमान बिन अबी बक्र, अल दुर अल मंसूर फ़ी तफ़सीर अल-मासूर, क़ुम, आयतुल्लाह मर्शी नजफ़ी लाइब्रेरी, 1404 हिजरी।
- शेख़ सदूक़, मुहम्मद बिन अली, सवाब अल आमाल व एक़ाब अल आमाल, सादिक़ हसन ज़ादेह, अर्ग़मान तूबा द्वारा शोध, तेहरान, 1382 शम्सी।
- तबातबाई, मुहम्मद हुसैन, अल-मीज़ान फ़ी तफ़सीर अल-कुरआन, बेरूत, मोअस्सास ए अल इस्माइली लिल मतबूआत, 1390 हिजरी।
- तबरसी, फ़ज़्ल बिन हसन, मजमा अल बयान फ़ी तफ़सीर अल कुरआन, फ़ज़लुल्लाह यज़्दी तबातबाई और हाशिम रसूली, तेहरान, नासिर ख़ुस्रो, तीसरा संस्करण, 1372 शम्सी।
- ज़मख़्शरी, अल कश्शाफ़ अन ग़वामिज़ हक़ाएक़ अल तंज़ील,
- क़राअती, मोहसिन, तफ़सीरे नूर, तेहरान, मरकज़े फ़र्हंगी दर्सहाए अज़ क़ुरआन, 11वां संस्करण, 1383 शम्सी।
- क़ुमी, अली इब्ने इब्राहीम, तफ़सीरे क़ुमी, क़ुम, दारुल किताब, 1367 शम्सी।
- मारेफ़त, मुहम्मद हादी, आमोज़िशे उलूमे क़ुरआन, अबू मुहम्मद वकीली द्वारा अनुवादित, [अप्रकाशित], मरकज़े चाप व नशरे साज़माने तब्लीग़ाते इस्लामी, 1371 शम्सी।
- अब्दुल बाक़ी, अल-मोजम अल-फ़ेहरिस ले अल्फ़ाज़ अल कुरआन अल-करीम,