शिर्क

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बहुदेववाद अर्थात शिर्क (अरबीःالشرك) बड़े पापों में से एक है जिसका का अर्थ है ईश्वर के लिए संगति (शरीक, भागीदार) क़रार देना। बहुदेववाद (शिर्क) एकेश्वरवाद (तौहीद) के मुकाबिल मे आता है, और मुस्लिम विद्वानों ने इसे एकेश्वरवाद (तौहीद) की तरह, बहुदेववाद (शिर्क) को ज़ात, सिफ़ात और अफ़्आल के साथ-साथ इबादत में भी शिर्क को विभाजित किया है। शिर्क जली (स्पष्ट) और ख़फ़ी (गुप्त) दो प्रकार का होता है। मान्यताओं में जली (स्पष्ट) शिर्क और नीतिशास्त्र (अखलाक़ीयात) में शिर्क खफ़ी की चर्चा होती है।

कट्टरता, कामुकता, संदेह और अज्ञानता को बहुदेववाद का कारण माना जाता है, और क़ुरआन में, कर्मों का जब्तीकरण (हब्ते आमाल), ईश्वरीय क्षमा से वंचित होना, स्वर्ग में प्रवेश से वंचित होना और नरक में प्रवेश करना, ईश्वर के प्रति बहुदेववाद के परिणाम के रूप में पेश किया गया है।

इब्न तैमियाह और, उनके अनुसरण मे वहाबी लोग धार्मिक नेताओं से लौ लगाकर उनसे शिफ़ाअत तलब करने को शिर्क करार देते हैं; जबकि बाकी मुस्लिम और विशेष रूप से शिया लोग इन हस्तीयो से लौ लगाकर धार्मिक निशानीयो (शआइरे दीनी) के प्रति सम्मान क़रार देते हुए इस बात को मानते हैं कि मृतकों से अपील करना केवल उस स्थिति मे शिर्क होगा जब यग कार्य उन हस्तियो की इबादत और अराधना के इरादे से की जाए। इसी तरह क़ुरआन की आयतों से ईश्वर की अनुमति से धार्मिक बुजुर्गों (गैर खुदा) का शफीअ होना भी साबित होता है।

परिभाषा

बहुदेववाद अर्थात शिर्क का अर्थ है ईश्वर से संबंधित विशिष्ट मामलों में जैसे कि अस्तित्व की आवश्यकता (वुजूबे वुजूद), दिव्यता (उलूहियत), अराधना (बंदगी) और रचनात्मकता (ख़ालेक़ीयत) के मामलों मे दूसरो को ईश्वर के साथ भागीदार करार देने को कहते है प्रबंधन।[१] शिर्क तौहीद का विरोधी है।[२] हालांकि आयतुल्लाह जवादी बहुदेववाद को ईमान का विरोधी मानते हुए ऐसा कहते है कि बहुदेववाद हमेशा एकेश्वरवाद और विश्वासियों के समूह से निकलने का कारण नही बनता इसीलिए, क़ुरआन में बहुदेववादी की उपाधि (मुशरिक का शीर्षक) मूर्तिपूजकों,[३] अहले किताब[४] और कुछ मामलों में विश्वासियों[५] पर भी लागू होती है।[६]

बहुदेववादी (मुशरिक) उस व्यक्ति को कहा जाता है जो ईश्वर के लिए भागीदार बताता है या ईश्वर के अलावा अन्य लोगों में भी उसके गुण पाए जाने, या ख़िलकत का कुछ हिस्सा उसके अलावा किसी और को सौंपे जाने पर विश्वास रखता हो, या ईश्वर के अलावा भी किसी अन्य व्यक्ति को आदेश और निषेध (अम्र व नही)[७] या इबादत[८] के योग्य जानता हो।

स्तर

एकेश्वरवाद की तरह, बहुदेववाद के भी स्तर हैं, जिनमें निम्नलिखित स्तर शामिल हैं:

  • ईश्वर की ज़ात मे शिर्क; इस प्रकार का शिर्क दो अर्थों में आता है; एक यह कि ईश्वर की ज़ात दो या दो से अधिक घटकों से मिलकर बनी होने पर विश्वास रखना।[९] और दूसरा कई ईश्वरो के होने पर विश्वास रखना।[१०]
  • ईश्वर के गुणों (सिफ़ात) मे शिर्क; इस बात पर विश्वास रखना कि ईश्वर के सिफ़ात उसकी ज़ात से अलग हैं और उसके गुण (सिफ़ात) उसके सार (ज़ात) से स्वतंत्र रूप से मौजूद हैं।[११]
  • ईश्वर के कार्यों मे शिर्क; शिर्क का यह प्रकार तौहीद ए अफ़्आली के विपरीत है और तौहीद ए अफ़्आली की भांति यह भी रचनात्मकता (ख़ालेक़ीयत) और रुबूबीयत मे विभाजित होती है।
  1. रचनात्मकता (ख़ालेक़ीयत) में शिर्क; दो या दो से अधिक स्वतंत्र रचनाकारों के अस्तित्व में इस प्रकार विश्वास करना कि उनमें से कोई भी दूसरे के नियंत्रण में न हो। अच्छाई और बुराई के दो अलग-अलग रचनाकारों में विश्वास रखना रचनात्मकता मे शिर्रक के उदाहरण है, जिसके अनुसार अच्छाई का निर्माता केवल अच्छी चीजें बनाता है और बुराई का निर्माता बुराई और बुरे प्राणियों को बनाता है।[१२]
  2. रुबूबीयत में शिर्क; इसके भी दो प्रकार होते है:
    1. तकवीनी रुबूबीयत मे शिर्क; यह विश्वास रखना कि ईश्वर ने दुनिया बनाई है लेकिन इसकी योजना और प्रशासन को एक अलग स्वामी पर छोड़ दिया है।
    2. तशरीई रुबूबीयत मे शिर्क; जीवन में गैर-ईश्वरीय नियमों को स्वीकार करना और उनके आदेशों को वैध मानना।[१३]
  • इबादत में शिर्क; ईश्वर के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के सामने अराधना, समर्पण और विनम्रता का प्रकट करना।[१४]

हालांकि शिर्क को सिद्धांत (नज़री) और व्यवहार (अमली) में विभाजित किया जाता है। शिर्क जो विश्वास के क्षेत्र से संबंधित मामले जैसे ईश्वर के सार (ज़ात) और गुणों (सिफ़ात), रुबूबीयत और रचनात्मकता (ख़ालेक़ीयत) में शिर्क मे लिप्त होने को सैद्धांतिक शिर्क (शिर्क ए नजरी); जबकि इबादात मे शिर्क के लिप्त होने को जो व्यवहार से संबंधित होता है, उसे व्यावहारिक शिर्क (शिर्क ए अमली) कहा जाता हैं।[१५]

महत्व एवं स्थिति

क़ुरआन की कई आयतें बहुदेववाद और उसके निषेध को समर्पित हैं। क़ुरआन की कुछ आयतों - जैसे सूर ए मोमेनून की आयत न 117 وَ مَنْ یدْعُ مَعَ اللَّـهِ إِلهاً آخَرَ لابُرْهانَ لَهُ بِهِ؛ वमन यद्ओ माअल्लाहे इलाहन आख़रा ला बुरहाना लहू बेह अनुवादः और जो कोई परमेश्वर के साथ किसी दूसरे देवता का नाम लेगा, उसके लिए निश्चित ही उसके पास कोई तर्क नही होगा।- में, यह कहा गया है कि बहुदेववादियों के पास बहुदेववाद के अपने दावे के लिए कोई तर्क या सबूत नहीं है।[१६] बल्कि यह लोग वहम और गुमान या अपनी कामुकता पर भरोसा करते हैं।[१७] وَ ما یتَّبِعُ الَّذینَ یدْعُونَ مِنْ دُونِ اللَّـهِ شُرَكاءَ إِنْ یتَّبِعُونَ إِلاَّ الظَّنَّ وَ إِنْ هُمْ إِلاَّ یخْرُصُون؛ वमा यत्तबेउल लज़ीना यदऊना मिन दूनिल्लाहे शोराकाआ इय यत्तबेऊना इल्लज़ ज़न्ना व इन हुम इल्ला यख़रोसूना; अनुवादः और जो लोग ग़ैर-ईश्वर को उसके बराबर कहते है वे एक निराधार विचार का पालन कर रहे है और वे केवल झूठ बोल रहे है, सूर ए युनूस, आयत न 66)

सूर ए नेसा की आयत "إِنَّ اللَّـهَ لَا يَغْفِرُ أَن يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَاءُ इन्नल्लाहा ला यग़फ़ेरो अय युश्रेका बेहि वयग़फ़ेरो मा दूना ज़ालेका लेमय यशाओ; अनुवादः अल्लाह उसे माफ नहीं कर सकता जो उसके साथ किसी को शरीक करार दिया जाए, और इसके अलावा जिसको चाहे माफ कर सकता है)।[१८]" के अनुसार शिर्क के अलावा सभी पाप क्षमा करने योग्य हैं। कुछ टिप्पणीकारों ने आयत की व्याख्या में कहा है कि इसका अर्थ यह है कि बहुदेववाद ईश्वर की दृष्टि में सबसे बड़ा पाप है, और यदि इसे क्षमा कर दिया जाए, तो अन्य पाप भी क्षमा कर दिए जाएंगे।[१९] यदि कोई बहुदेववादी पश्चाताप न करे और मर जाए, तो उसे माफ नहीं किया जाएगा, और उनका मानना है कि पश्चाताप को इस आयत से बाहर रखा गया है, और परिणामस्वरूप, यदि कोई बहुदेववादी पश्चाताप करता है, तो उसे माफ कर दिया जाएगा।[२०] कुछ रिवायतो में, ईश्वर के साथ संगति करना सबसे बड़े पापों में से एक माना गया है। पैगंबर (स) से अब्दुल्लाह बिन मसऊद के एक कथन में, सबसे बड़ा पाप ईश्वर के लिए मिस्ल और उसके जैसा परिचित करना है।[२१]

क़ुरआन के अनुसार, इमाम अली (अ) बहुदेववाद को मौखिक, व्यावहारिक, व्यभिचार और पाखंड चार प्रकार का मानते है, और उन्होंने उनमें से प्रत्येक को साबित करने के लिए कुरआन की आयतों का हवाला दिया है। मौखिक बहुदेववाद के लिए " لَقَدْ كَفَرَ الَّذِینَ قَآلُواْ إِنَّ اللَّـهَ هُوَ الْمَسِیحُ ابْنُ مَرْیمَ؛ लक़द कफरल लज़ीना क़ालू इन्नल्लाहा होवल मसीहुब्नो मरयमा; अनुवादः जिन लोगों ने कहा: ईश्वर वही मसीहा है जो मरियम का पुत्र है, वे निश्चित रूप से काफ़िर हो गए)।"[२२] उन्होंने आयत का हवाला दिया, और व्यावहारिक बहुदेववाद को साबित करने के लिए " وَمَا یؤْمِنُ أَكْثَرُهُمْ بِاللَّـهِ إِلا وَهُمْ مُشْرِكُونَ؛ वमा यूमेनो अकसरोहुम बिल्लाहे इल्ला वहुम मुशरेकून; अनुवादः उनमें से अधिकांश ईश्वर में विश्वास नहीं करते सिवाय इसके कि वे [उसके साथ कुछ] जोड़ते हैं।"[२३] और और "اتَّخَذُوا أَحْبَارَهُمْ وَرُهْبَانَهُمْ أَرْبَابًا مِنْ دُونِ اللَّـهِ؛ इत्तख़ज़ू आहबारहुम व रोहबानहुम अरबाबन मिन दूनिल्लाहे; अनुवादः उन्होंने अपने विद्वानों और भिक्षुओं को ईश्वर के सामने देवता बना दिया"[२४] और व्यभिचार के बहुदेववाद को साबित करने के लिए "وَ شارِكْهُمْ فِی الأَمْوالِ وَالأَوْلادِ؛ वा शारेकोहुम फ़िल अमवाले वल औलादे; अनुवादः और उनके धन और बच्चों में भागीदार हो जा"[२५] पाखंड को साबित करने के लिए "فَمَن کانَ یرْجُوا لِقاءَ رَبِّهِ فَلْیعْمَلْ عَمَلاً صالِحاً وَ لایشْرِکْ بِعِبادةِ رَبِّهِ أَحَدا؛ फ़मन काना यरजु लेक़ाआ रब्बेहि प़लयाअमल अमलन सालेहन व ला युशरेका बेइबादते रब्बेहि अहदा; अनुवादः अतः जो भी उस (परमेश्वर) की मुलाक़ात की आशा रखता है उसे चाहिए अच्छे कर्म करे और किसी को अपने परमेश्वर की उपासना मे साझी न बनाए "।[२६] आयतो का हवाला देते है।[२७] हदीसों के अनुसार, हराम संभोग और हराम निवाला और पत्नी के साथ संभोग के दौरान भगवान को याद न करने के कारण शैतान शुक्राणु के जमाव में भाग लेता है, और जहां भी शैतान होता है (जिस हद तक मौजूद होता है) निस्संदेह, खालिस एकेश्वरवाद नहीं पाया जा सकता है, और परिणामस्वरूप, इस प्रकार की शैतानी भागीदारी को रिवायत की व्याख्या के अनुसार व्यभिचारिक बहुदेववाद का उदाहरण माना जा सकता है।

प्रकार

मुख्य लेख: शिर्क ख़फ़ी

बहुदेववाद (शिर्क) जली (स्पष्ट) और ख़फ़ी (गुप्त) दो प्रकारों में विभाजित किया गया है। स्पष्ट बहुदेववाद विशेष इबादी आमाल जैसे रुकूअ, सज्दा और कुरबानी इत्यादि को परमेश्वर के अलावा किसी और के लिए उसकी देव्यता (उलूहियत) पर विश्वास रखते हुए अंजाम देने को कहा जाता है।[२८] जबकि गुप्त बहुदेववाद में किसी भी प्रकार की सांसारिकता, पाखंड, कामुकता आदि शामिल होती हैं।[२९] इमाम सादिक (अ) ने सूर ए युसूफ की आयत 106 की व्याख्या मे कहा यदि फ़ला ना होता तो मै हलाक हो जाता या अगर फ़ला ना होता तो मै फ़ला मुसीबत मे पड़ जाता आदि जैसे वाक्यांश को ईश्वर के शासन के क्षेत्र में बहुदेववाद करार देते है।[३०] पैगंबर (स) बहुदेववाद को रात्रि के अंधकार मे चींटीयो के चिकने पत्थर पर चलने से भी अधिक गुप्त मानते है।[३१] नीतिशास्त्र में गुप्त बहुदेववाद की चर्चा अधिक होती है।

कारक और जड़ें

बहुदेववाद के लिए विभिन्न कारक बताए गए हैं:

  • शक और तरदीद की पैरवी: सूर ए यूनुस में, ईश्वर बहुदेववादियों को संबोधित करते हुअ कहता हैं: "तुम लोग हमेशा संदेह और धारणाओ का पालन करने के कारण बहुदेववाद में फंस गए हो"।[३२]
  • कामुकतावाद: प्राकृतिक दुनिया से अधिक लगाव के कारण कुछ लोगो की जानकारी केवल आभास तक सीमित होती है इसीलिए वह ईश्वर की पहचान जैसे मुद्दो को आभास का स्तर कम कर देते है।[३३]
  • अज्ञानता: क़ुरआन करीम परमेश्वर के लिए बहुदेववाद का कायल होने का कारण को अज्ञानता और अवज्ञा मानता है।[३४]

क़ुरआन में दुनिया के प्रति प्रेम, मूर्तिपूजा, ईश्वर को भूल जाना, धार्मिक शख्सियतों के बारे में अतिशयोक्ति, ताअस्सुब और भ्रष्ट सरकारों का भी उल्लेख किया गया है, जो बहुदेववाद की ओर ले जाते हैं।[३५]

परिणाम

क़ुरआन की आयतों के अनुसार, बहुदेववाद के परिणाम इस प्रकार हैं:

  • स्वर्ग से वंचित होना; सूर ए माएदा की आयत न 72 के अनुसार, बहुदेववादियों के लिए स्वर्ग वर्जित है।[३६] إِنَّهُ مَن يُشْرِكْ بِاللَّـهِ فَقَدْ حَرَّمَ اللَّـهُ عَلَيْهِ الْجَنَّةَ وَمَأْوَاهُ النَّارُ وَمَا لِلظَّالِمِينَ مِنْ أَنصَارٍ इन्नहू मय युश्रिक बिल्लाहे फ़क़द हर्रमल्लाहो अलैहिल जन्नता व मावाहुन नारो वमा लिज़्ज़ालेमीना मिन अन्सार
  • ईश्वरीय क्षमा से वंचित होना; सूर ए नेसा की आयत न 48 और 116 के अनुसार, बहुदेववादी को ईश्वर की क्षमा से वंचित है और बहुदेववाद के अलावा अन्य पाप क्षमा के योग्य है।[३७] إِنَّ اللَّـهَ لَا يَغْفِرُ أَن يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَاءُ وَمَن يُشْرِكْ بِاللَّـهِ فَقَدِ افْتَرَىٰ إِثْمًا عَظِيمًا(سوره نساء، इन्नल्लाहा ला यग़फ़ेरो अय युश्रेका बेहि व यग़फ़ेरो मा दूना ज़ालेका लेमय यशाओ वमय युश्रेका बिल्लाहे फ़क़दिफ़ तरा इस्मन अज़ीमा[३८]
  • नरक में प्रवेश करना; सूर ए माएदा की आयत न 72 के अनुसार, बहुदेववादियों का स्थान नरक है।[३९]
  • कर्मो का जब्तीकरण (हब्ते आमाल); शिर्क से इंसान के अच्छे कर्म ख़त्म हो जाते हैं।[४०] وَلَقَدْ أُوحِيَ إِلَيْكَ وَإِلَى الَّذِينَ مِن قَبْلِكَ لَئِنْ أَشْرَكْتَ لَيَحْبَطَنَّ عَمَلُكَ وَلَتَكُونَنَّ مِنَ الْخَاسِرِينَ वलक़द ऊहा इलैका व ऐलल लज़ीना मिन कब़्लेका लइन अश्रकता लयहबेतन्ना अमलुक वला तकूनन्ना मिनल ख़ासेरीन, सूर ए ज़ुमर आयत न 65[४१]

फ़िक़्ही हुक्म

इस्लाम धर्म के दृष्टिकोण से, बहुदेववाद वर्जित और बड़े पापों में से एक माना जाता है।[४२] न्यायशास्त्रियों ने إِنَّمَا الْمُشْرِكُونَ نَجَسٌ فَلاَ يَقْرَبُوا الْمَسْجِدَ الْحَرَامَ इन्नमल मुश्रेकूना नजस फ़ला यक़रबुल मस्जिद अल हराम[४३] आयत का हवाला देते हुए बहुदेववादियों के नजिस होने का हुक्म दिया है और कहा है कि उन्हें मस्जिद अल हराम में प्रवेश नहीं करना चाहिए।[४४]

शेख तूसी ने अल-नेहाया मे मुस्लिम पुरुषों के लिए बहुदेववादी महिलाओं से शादी करना जायज़ नहीं माना, लेकिन यहूदी और ईसाई महिलाओं के साथ अस्थायी विवाह की अनुमति दी है।[४५]

शियो पर वहाबियों का आरोप

वहाबी मृतकों से अपील करने, पैगंबरों और दिव्य संतों के साथ मध्यस्थता करने, पवित्र चीज़ो से मुतबर्रिक होने और उनसे बरज़खी दुनिया में शफ़ाअत तलब करने को शिर्क इबादी के उदाहरण के रूप में मानते हैं। इब्न तैमिया का मानना है कि पैगंबर (स) और नेक लोगों से उनके जीवन मे अपील करने को शिर्क नही समझते लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनसे अपील करना शिर्क है।[४६] यदि कोई व्यक्ति पैगंबर (स) या किसी औलीया ए इलाही की कब्र के पास जाकर उनसे मदद मांगता है, तो वह व्यक्ति बहुदेववादी है और उसे पश्चाताप करने के लिए मजबूर किया जाना आवश्यक है, और यदि वह पश्चाताप नहीं करता है, तो उसे मार दिया जाना चाहिए।[४७] वहाबी मुफ़्ती अब्दुल अज़ीज बिन बाज़ अपने किताबो में भी, कब्रों पर जाकर दुआ और इस्तेग़ासा करना और रोगो से छुटकारा, शत्रु पर विजय तलब करने को शिर्क अकबर के उदाहरण मानते है।[४८] वहाबी मुसलमानों के इन कार्यों की तुलना इस्लाम की शुरुआत में मूर्ति पूजा में बहुदेववादियों के कार्यों से करते हैं।[४९]

वहाबीयो के इन आरोपों के जवाब मे मुस्लिम विद्वानों ने कहा: बहुदेववादी मूर्तियों के आधिपत्य (रुबूबीयत) और स्वामित्व (मालेकीयत) में विश्वास रखते हुए उनकी पूजा करते थे जबकि मुसलमान उपरोक्त कर्मो को औलीया ए इलाही की रुबूबीयत और मालेकीयत के साथ अंजाम नही देते; बल्कि औलीया ए इलाही की कब्रों पर जाकर उनसे हाजत तलब और इस्तेग़ासा शाएरुल्लाह के सम्मान के अंतर्गत अंजाम देते है।[५०] इसके अलावा, जो मुसलमान ये कार्य करते हैं, वे कभी भी पैगम्बरों और दिव्य संतों की इबादत करने का इरादा नहीं रखते हैं। बल्कि इन कार्यो से उनका उद्देश्य केवल पैग़म्बरों और दिव्य संतों का सम्मान करना और उनके माध्यम से ईश्वर से निकटता प्राप्त करना है।[५१]

पवित्र क़ुरआन की आयतों के अनुसार, शिफ़ाअत उस स्थिति मे शिर्क और अस्वीकार है जब स्वतंत्र रूप से और ईश्वर की अनुमति की आवश्यकता के बिना अनुरोध किया जाए[५२] क्योंकि इस मामले में रुबूबीयत और ईश्वर की योजना में शिर्क है।[५३] इसी प्रकार क़ुरआन करीम की जिन आयतो का वहाबी हवाला देते है वास्तव मे यह आयते मूर्तियों से शिफाअत मांगने से इनकार पर तर्क है, पैगंबर (स) और औलीया ए इलाही से शिफ़ाअत तलब करना और मूर्तियों से शिफाअत तलब करने मे बुनियादी अंतर हैं, क्योकि बहुदेववादी मूर्तियो की उलूहीयत और रुबूबीयत के विश्वास के साथ उनसे शिफाअत तलब करते है जबकि मुसलमान कभी भी पैगंबर (स) और औलीया ए इलाही के परमेश्वर या रब होने के विश्वास के साथ यह काम अंजाम नही देते।[५४] एक शिया विद्वान मुताहरी इलाही का मानना है कि सूर ए ज़ुखरफ की आयत न 86 में क़ुरआन के दृष्टिकोण के आधार पर, "وَلَا يَمْلِكُ الَّذِينَ يَدْعُونَ مِنْ دُونِهِ الشَّفَاعَةَ إِلَّا مَنْ شَهِدَ بِالْحَقِّ وَهُمْ يَعْلَمُونَ वला यमलेकुल लज़ीना यदऊना मिन दूनेहिश शफ़ाअता इल्ला मन शहेदा बिल हक़्क़े वहुम याअलमूना।" शिफ़ाअत केवल उन लोगों के लिए उपलब्ध है जो तौहीद (एकेश्वरवाद) को स्वीकार करते हैं और या कि वे ज्ञान और जागरूकता से मौखिक शहादत के अलावा कबूल करते हैं, क्योंकि "शहेदा" सिर्फ एक शब्द नहीं है, बल्कि इसका मतलब है जो सत्य और एकेश्वरवाद को सहज रूप से समझते हैं, और अपने स्वयं के कार्य के प्रति जागरूक होते हैं और जानते हैं कि किससे और किसके बारे में शफ़ाअत करनी है। और किसकी शफ़ाअत नही करनी है, मुताहरी के विश्वास के अनुसार, शफ़ाअत तौहीद (एकेश्वरवाद) की गरिमा है और अहले तौहीद है और मूर्तियाँ वास्त मे बुद्धि और समझ नहीं रखती[५५] शिया मुफस्सिर सय्यद मुहम्मद हुसैन तबातबाई ईश्वर को सभी अस्तित्व, और सभी जीवन, मृत्यु और जीविका के लिए अनुग्रह का स्रोत मानते हैं और वह आशीर्वाद और इसी तरह की चीजों पर विचार करते हैं। ईश्वर से संबंधित कारणों और कारणों की प्रणाली [कि इनमें से प्रत्येक मामला ईश्वर के साथ एक विशिष्ट और निश्चित संबंध पर आधारित है] और मध्यस्थता को कारणों और कारणों की प्रणाली का एक हिस्सा मानता है जो अस्तित्व को नियंत्रित करता है, जिसका किसी भी तरह से मतलब नहीं है। दैवीय कानूनों और दुनिया की वर्तमान और शासक परंपराओं का उल्लंघन और दैवीय प्रत्यक्ष मार्ग से विचलन नहीं है।[५६]

संबंधित लेख

फ़ुटनोट

  1. इब्न मंज़ूर, लेसान अल अरब, 1405 हिजरी, भाग 1, पेज 223-227
  2. मुस्तफ़वी, अल तहकीक फ़ी कलमात अल क़ुरआन अल करीम, 1360 शम्सी, भाग 6, पेज 49
  3. सूर ए तौबा, आयत न 5 सूर ए तौबा, आयत न 2
  4. सूर ए तौबा, आयत न 30-31
  5. सूर ए युसुफ़, आयत न 106
  6. जवादी आमोली, तौहीद दर क़ुरआन, 1395 शम्सी, पेज 571
  7. हुसैनी शिराज़ी, तक़रीब अल क़ुरआन एला अल अज़हान, 1424 हिजरी, भाग 2, पेज 390
  8. मुस्तफ़वी, अल तहकीक फ़ी कलमात अल क़ुरआन अल करीम, 1360 शम्सी, भाग 6, पेज 50
  9. मुस्तफ़वी, अल तहकीक फ़ी कलमात अल क़ुरआन अल करीम, 1360 शम्सी, भाग 6, पेज 49
  10. जवादी आमोली, तौहीद दर क़ुरआन, 1395 शम्सी, पेज 578
  11. जवादी आमोली, तौहीद दर क़ुरआन, 1395 शम्सी, पेज 578
  12. जवादी आमोली, तौहीद दर क़ुरआन, 1395 शम्सी, पेज 579-580
  13. जवादी आमोली, तौहीद दर क़ुरआन, 1395 शम्सी, पेज 580-583
  14. जवादी आमोली, तौहीद दर क़ुरआन, 1395 शम्सी, पेज 581-582
  15. देखेः जवादी आमोली, तौहीद दर क़ुरआन, 1395 शम्सी, पेज 581-595
  16. मकारिम शिराज़ी, पयाम ए क़ुरआन, 1374 शम्सी, भाग 3, पेज 209-210
  17. मकारिम शिराज़ी, पयाम क़ुरआन, 1374 शम्सी, भाग 3, पेज 211-215; देखेः सूर ए नज्म, आयत न 23 सूर ए अम्बीया, आयत न 24
  18. सूर ए नेसा, आयत न 48
  19. क़ुमी, तफ़सीर क़ुमी, 1367 शम्सी, भाग 1, पेज 148
  20. अल्लामा तबातबाई, अल मीज़ान, 1417 हिजरी, भाग 1, पेज 165
  21. मोहद्दिस नूरी, मुस्तदरक अल वसाइल, 1408 हिजरी, भाग 14, पेज 332
  22. सूर ए माएदा, आयत न 17
  23. सूर ए युसुफ़, आयत न 106
  24. सूर ए तौबा, आयत न 31
  25. सूर ए इस्रा, आयत न 64
  26. सूर ए कहफ़, आयत न 110
  27. मजलिसी, बिहार उल अनवार, 1403 हिजरी, भाग 69, पेज 102, भाग 90, पेज 61-62
  28. आमोली, तफसीर अल मोहीत अल आज़म, 1422 हिजरी, भाग 3, पेज 189-190
  29. जवादी आमोली, तौहीद दर क़ुरआन, पेज 591-592
  30. मजलिसी, बिहार उल अनवार, 1403 हिजरी, भाग 5, पेज 148
  31. इब्ने शैबा हर्रानी, तोहफ अल उकूल, 1404 हिजरी, पेज 487
  32. सूर ए युसुफ़, आयत न 66
  33. जवादी आमोली, तौहीद दर क़ुरआन, 1395 शम्सी, पेज 644
  34. सूर ए अन्आम, आयत न 100
  35. जवादी आमोली, तौहीद दर क़ुरआन, 1395 शम्सी, पेज 635-680
  36. सूर ए माएदा, आयत न 72
  37. सूर ए नेसा, आयत न 116
  38. सूर ए नेसा, आयत न 48
  39. सूर ए माएदा, आयत न 72
  40. सूर ए ज़ुमर, आयत न 65
  41. जवादी आमोली, तौहीद दर क़ुरआन, 1395 शम्सी, पेज 681-691
  42. सूर ए नेसा, आयत न 48
  43. सूर ए तौबा, आयत न 28
  44. फ़ाज़िल लंकरानी, तफ़सील अल शरीया, 1409 हिजरी, पेज 206
  45. शेख़ तूसी, अल निहाया, 1400 हिजरी, पेज 457
  46. इब्न तैमीयाह, मजमूआ अल फतावा, 1416 हिजरी, भाग 1, पेज 159
  47. इब्न तैमीयाह, ज़ियारत अल क़ुबूर वल इसतिंजाद बिल मक़बूर, 1412 हिजरी, पेज 19
  48. बिन बाज़, बाज अल मुमारेसात अल शिर्कीया इन्दल क़ुबूर
  49. क़फ़्फ़ारी, उसूल मजहब अल शिया, भाग 1, पेज 480
  50. सुब्हानी, आईन वहाबीयत, पेज 41
  51. उस्तादी, शिया व पासुख बेह चंद पुरसिश, 1385 शम्सी, पेज 84
  52. सूर ए ताहा, आयत न 109
  53. उस्तादी, शिया व पासुख बेह चंद पुरसिश, 1385 शम्सी, पेज 84-85
  54. सुब्हानी तबरेज़ी, मरज़हाए तौहीद व शिर्क दर क़ुरआन, 1380 शम्सी, पेज 159 जवादी आमोली, तौहीद दर क़ुरआन, 1395 शम्सी, पेज 600-604
  55. https://lms.motahari.ir/advance-search?searchText=شفاعت%20&isSameWord=true&
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स्रोत

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