क़ुरआन
क़ुरआन (अरबी: القرآن الكريم) अल्लाह का कलाम और मुसलमानों की आसमानी किताब है, जो जिब्राईल द्वारा पैग़म्बर मुहम्मद (स) पर वही की गई। मुसलमान क़ुरआन की सामग्री और शब्दों को अल्लाह की तरफ़ से अवतरित मानते हैं; साथ ही यह भी मानते हैं कि क़ुरआन, पैग़म्बर मुहम्मद (स) की नबूवत का चमत्कार और निशानी है और यह आख़िरी आसमानी किताब है। यह किताब अपने चमत्कार होने पर ज़ोर देती है और अपने एजाज़ (चमत्कार) का कारण यह बताती है कि कोई भी इस जैसी कोई चीज़ लाने में सक्षम नहीं है।

क़ुरआन की पहली आयतें सबसे पहले हिरा गुफ़ा में, जो कि नूर पहाड़ पर स्थित है, पैग़म्बर मुहम्मद (स) पर वही की गईं। प्रसिद्ध मत यह है कि इसकी आयतें कभी फ़रिश्ते वही (जिब्राईल) के माध्यम से तो कभी बिना किसी बिचौलिए के सीधे पैग़म्बर पर नाज़िल होती थीं। अधिकांश मुसलमानों का मानना है कि क़ुरआन का अवतरण धीरे-धीरे (नुज़ूले तदरीजी) हुआ; लेकिन कुछ का यह भी विश्वास है कि आयतों के क्रमिक अवतरण के अलावा, जो कुछ भी एक साल में पैग़म्बर (स) पर नाज़िल होना था, वह शबे क़द्र में एक साथ भी उन पर नाज़िल हुआ है।
पैग़म्बर मुहम्मद (स) के समय में क़ुरआन की आयतें जानवरों की खाल, खजूर की छाल, काग़ज़ और कपड़े पर बिखरी हुई अवस्था में लिखी जाती थीं। पैग़म्बर (स) के स्वर्गवास के बाद, सहाबा ने इन आयतों और सूरों को एकत्र किया; लेकिन कई संस्करण तैयार हुए जो सूरोंं के क्रम और पाठ (क़िराअत) में एक-दूसरे से भिन्न थे। उस्मान के आदेश पर क़ुरआन का एक मानक संस्करण तैयार किया गया और अन्य मौजूदा संस्करणों को नष्ट कर दिया गया। शिया मुसलमान, अपने इमामों के अनुसरण में, इस संस्करण को सही और पूर्ण मानते हैं।
क़ुरआन, फ़ुरक़ान, अल-किताब और मुस्हफ़ क़ुरआन के सबसे प्रसिद्ध नाम हैं। क़ुरआन में 114 सूरह और 6000 से अधिक आयतें हैं, जिसे 30 जुज़ (भाग) और 120 हिज़्ब में विभाजित किया गया है। क़ुरआन में तौहीद (एकेश्वरवाद), मआद (पुनरुत्थान), पैग़म्बर ए इस्लाम (स) के ग़ज़वात (युद्ध), पैग़म्बरों की कहानियाँ, इस्लामी धार्मिक कार्य (आमाल), नैतिक गुण और दोष और शिर्क और नेफ़ाक़ के ख़िलाफ़ संघर्ष जैसे विषयों पर चर्चा की गई है।
चौथी शताब्दी हिजरी तक, मुसलमानों के बीच क़ुरान के विभिन्न पाठ (क़राअतें) प्रचलित थे, जिसके मुख्य कारण क़ुरआन के विभिन्न संस्करणों का अस्तित्व, अरबी लिपि के प्रारंभिक चरण और विभिन्न पाठकों की व्यक्तिगत प्राथमिकताएं थीं। चौथी शताब्दी में विभिन्न पाठों में से केवल सात पाठ (सात क़ारियो) का चयन किया गया। इस समय मुसलमानों के बीच सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय पाठ (क़राअत) हफ्स की रिवायत के अनुसार क़िराअते आसिम है।
क़ुरआन का पहला पूर्ण फारसी अनुवाद चौथी शताब्दी हिजरी में और लैटिन भाषा में छठी शताब्दी हिजरी (बारहवीं शताब्दी ईस्वी) में किया गया था। इस पुस्तक को पहली बार 950 हिजरी (1543 ईस्वी) में इटली में छापा गया था। मुसलमानों द्वारा इसका पहला प्रिंट संस्करण 1200 हिजरी में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में तैयार किया गया। ईरान पहला मुस्लिम देश था जिसने 1243 हिजरी और 1248 हिजरी में क़ुरआन को छापा। आज जिस क़ुरआन को 'उस्मान ताहा' संस्करण के नाम से जाना जाता है, वह मिस्र के प्रिंट संस्करण पर आधारित है।
वर्तमान मे क़ुरआन से संबंधित विभिन्न विज्ञान मुसलमानों में प्रचलित हैं, जिनमें तफ़सीरे क़ुरआन, तारीख़े क़ुरआन, इल्मे लुग़ाते क़ुरआन (क़ुरआन शब्दकोश का ज्ञान), इल्मे एराब वा बलाग़ते क़ुरआन, क़िसासे क़ुरआन और एजाज़ उल-क़ुरआन आदि सम्मिलित है।
क़ुरआन का मुसलमानों के धार्मिक अनुष्ठानों और कला में विशेष स्थान रहा है। इसमें ख़त्मे क़ुरआन और शादी के समारोहों में क़ुरआन पढ़ना शामिल है। क़ुरआन को सिर पर रखना भी शिया मुसलमानों का एक महत्वपूर्ण रिवाज़ है। कला के क्षेत्र में क़ुरआन का सबसे अधिक प्रभाव ख़ुशनवीसी (सुलेख), तज़्हीब (सजावट), तज्लीद (जिल्दसाज़ी), साहित्य और वास्तुकला में देखने को मिलता है।
अल्लाह का कलाम

मुसलमानों का मानना है कि क़ुरआन अल्लाह का कलाम है जो वही के माध्यम से इस्लाम के पैगंबर (स) पर 23 वर्षो मे नाज़िल हुआ।[१] सभी मुसलमान क़ुरआन के शब्द और अर्थ दोनो को अल्लाह की ओर से नाज़िल हुआ मानते है।[२] क़ुरआन सर्वप्रथम हेरा नामक गुफ़ा मे पैगंबर (स) पर नाज़िल हुआ[३] कहा जाता है कि पैगंबर (स) पर नाज़िल होने वाले सूरा ए अलक़ की आरम्भिक आयते थी और प्रथम बार पूरा उतरने वाला सूरा, सूरा ए फ़ातेहा (सूरह अल-हम्द) है।[४] मुस्लमानो का मानना है कि पैगंबर (स) अंतिम नबी और क़ुरआन अंतिम किताब है।[५]
ग्रहण करने की स्थिति
क़ुरआन मे अम्बिया पर होने वाली वही को तीन प्रकार मे विभाजित किया गया है। इल्हाम, पर्दे के पीछे से और स्वर्गदूतो के माध्यम से,[६] कुछ सूरा ए बक़रा की आयत (قُلْ مَن كَانَ عَدُوًّا لِّجِبْرِيلَ فَإِنَّهُ نَزَّلَهُ عَلَىٰ قَلْبِكَ بِإِذْنِ اللَّـهِ क़ुल मनकाना उदुव्वल लेजिब्राईला फ़इन्नहू नज़्ज़लहू अला क़ल्बिका बे इज़्निल्लाह) (अनुवादः हे रसूल कह दीजिए जो कोई भी जिब्राईल का शत्रु है उसे ज्ञात होना चाहिए कि जिब्राईल ने आपके हृदय पर क़ुरान अल्लाह के आदेश से उतारा हैै।) का हवाला देते हुए कहते हैः, क़ुरआन का उतरना मात्र जिब्राईल के माध्यम से हुआ है[७] परंतु प्रसिदध् कथन के अनुसार दूसरो तरीक़ो जैसे सीधे हज़रत मुहम्मद (स) के हृदय पर उतरा।[८]
नुज़ूले दफ़ई और तदरीजी
क़ुरआन की कुछ आयतों के अनुसार, यह पवित्र किताब रमज़ान के महीने और शबे क़द्र में नाज़िल हुई है।[९] इस आधार पर मुसलमानों के बीच यह मतभेद रहा है कि कुरआन एक साथ अवतरित (दफ़ई) हुआ था या धीरे-धीरे (तजरीजी)।[१०] कुछ विद्वानों का मानना है कि कुरआन दोनों तरीकों से अवतरित हुआ एक साथ भी और क्रमिक रूप से भी।[११] कुछ का विश्वास है कि जो आयतें एक साल में नाज़िल होनी थीं, वे शबे क़द्र में एक साथ भी उतारी जाती थीं।[१२] वहीं, कुछ लोग यह मानते हैं कि कुरआन केवल क्रमिक रूप से ही अवतरित हुआ और इसका आरंभ रमज़ान और शबे क़द्र में हुआ।[१३]
प्रसिद्ध नाम
कुरआन के कई नाम बताए गए हैं। क़ुरआन, फ़ुरक़ान, अल-किताब और मुस्हफ़ सबसे प्रसिद्ध नाम हैं।[१४] मुस्हफ़ नाम अबू बक्र ने दिया था; लेकिन अन्य नाम स्वयं कुरआन में उल्लेखित हैं।[१५]
कुरआन इस पुस्तक का सबसे प्रसिद्ध नाम है। भाषा में इसका अर्थ "पढ़ने योग्य" है। 'अलिफ़ और लाम' के साथ यह शब्द कुरआन में 50 बार प्रयोग हुआ है, जहाँ हर बार इसका अर्थ किताब कुरआन है; वहीं बिना 'अलिफ़ और लाम' के यह 20 बार आया है, जिसमें से 13 बार इसका अर्थ किताब कुरआन है।[१६] कुरआन को कई उपनामों से जाना जाता है जिनकी जड़ें कुरआन में ही हैं, जैसे: मजीद, करीम, हकीम, मुबीन। किताब "कुरआन और कुरआन पजोही" के लेखक का मानना है कि इस्लामी और शिया संस्कृति में, अहले सुन्नत हमेशा कुरआन को "कुरआन करीम" कहते हैं, जबकि शिया इसे "कुरआन मजीद" कहते हैं, और ये दोनों उपनाम कुरआनी मूल के हैं।[१७] सद्र उल मुतअल्लहीन ने अपनी किताब "अस्फ़ार" के मौक़िफ़ सात के अध्याय 15 को "कुरआन के नाम और उपनाम" (अल-फ़स्ल (15) फ़ी अलक़ाब अल-कुरान व नुओतिह) के नाम से समर्पित किया है और कुरआन की 20 से अधिक नामों व उपनामों (कुरान की आयतों के संदर्भ में) का उल्लेख करके उनकी व्याख्या की है।[१८]
स्थान और स्थिति
कुरआन मुसलमानों का बौद्धिक स्रोत है जोकि हदीस और सुन्नत जैसे इस्लामी बौद्धिक स्रोतों के समान एक और मानक है; दूसरे शब्दों में, अन्य इस्लामी स्रोतों से प्राप्त ज्ञान, अगर वे कुरआन की शिक्षाओं के खिलाफ़ हो तो वे अमान्य है।[१९] पैग़म्बरे अकरम (स) और शिया इमामो की हदीस के अनुसार हदीस की तुलना क़ुरआन से करनी चाहिए यदि क़ुरआन के अनुसार न हो, तो उन्हें नकली (गढ़ी हुई) और अविश्वसनीय घोषित किया जाए।[२०]
उदाहरण स्वरूप पैगंबर (स) के बारे में कहा गया है: जो बात भी मेरा हवाला देते हुए सुनाई जाए, अगर वह कुरआन के अनुसार है, तो यह मेरा कथन होगा और अगर यह कुरआन के विपरीत है, तो यह मेरा कथन नहीं होगा।[२१] इमाम सादिक़ (अ) से भी एक हदीस है जो भी हदीस कुरआन का खंडन करे वह हदीस झूठी है।[२२]
कुरआन का इतिहास

लेखन और संपादन
- मुख्य लेख: क़ुरआन का लेखन
इस्लाम के पैगंबर (स) ने पवित्र कुरआन को कंठित करने, सही पढ़ने और लिखने पर बहुत ज़ोर देते थे। बेसत (रिसालत की घोषणा) के शुरुआती वर्षों में, साक्षर लोगों की कमी और लेखन सुविधाओं तक आसान पहुंच की कमी के कारण, कुरआन की आयतों को सही कंठित करने और सही पढ़ने पर बहुत ध्यान दिया गया कि कहीं ऐसा न हो कुरआन को भुला दिया जाए या गलत तरीके से संरक्षित किया जाए।[२३] आप (स) पर जब भी कोई आयत नाज़िल होती, तो कातेबाने वही को बुला कर उनके सामने उस आयत की तिलावत करते और उनसे इसे लिखने का आग्रह करते थे।[२४] कुरआन की आयतें भिन्न प्रकार की वस्तुओ जैसे जानवरों की खाल, खजूर की डालियाँ, कागज और कपड़े आदि पर अलग-अलग तरह से लिखी हुई थी, जिन्हें पैगम्बर (स) के बाद सहाबा ने इकट्ठा करके किताब का रूप दे दिया।[२५]
पैगंबर (स) ने स्वयं कुरान के लेखन की देखरेख की। आप (स) कातेबाने वही के सामने आयतो को पढ़ते और लिखने के बाद उन्हें जो लिखा गया है उसे पढ़ने का आदेश देते थे ताकि लेखन में कोई गलती हुई हो तो उसे सही किया जा सके।[२६] सुन्नी टीकाकार सुयुति लिखते हैं: संपूर्ण कुरआन पवित्र पैगंबर (स) के समय में ही लिखा जा चुका था, लेकिन सूरो की व्यवस्था और सूरो का क्रम आदि स्पष्ट नहीं था।[२७]
पैगंबर (स) के समय में कुरआन अपने वर्तमान रूप में मौजूद नहीं था। अल-तमहीद पुस्तक के अनुसार, कुरआन की आयतो और सूरो के नाम पैगंबर (स) के समय में आप (स) द्वारा ही तय किए गए थे, लेकिन इसे एक नियमित पुस्तक का रूप देना और सूरो का क्रम आदि पैगंबर (स) के स्वर्गवास के बाद सहाबा के विवेक पर किया गया।[२८] इस पुस्तक के अनुसार, कुरआन का संपादन करने वाले पहले व्यक्ति इमाम अली (अ) थे। उन्होंने कुरआन के सूरो को उनके वही की तारीख के अनुसार व्यवस्थित किया और कुरान को एक पुस्तक के रूप में एकत्र किया।[२९]
विभिन्न नुस्ख़ो का सामंजस्य
पैगंबर (स) के स्वर्गवास पश्चात उनके प्रत्येक प्रख्यात सहाबी ने कुरआन को इकट्ठा करना शुरू कर दिया, इस प्रकार कुरआन के विभिन्न पांडुलिपि (नुस्ख़े), अलग-अलग क़िराअत और सूरो के विभिन्न क्रम हो गए।[३०] इसका परिणाम यह हूआ कि प्रत्येक समूह अपनी पांडुलिपि (नुस्ख़े) को सही और अन्य पांडुलिपियों को गलत और संदिग्ध मानने लाग।[३१]
इस स्थिति को देखते हुए हुज़ैफ़ा बिन यमान के सुझाव पर उस्मान ने कुरआन के विभिन्न नुस्ख़ो में सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक समूह का गठन किया।[३२] इस उद्देश्य के लिए, उन्होने लोगों को विभिन्न इस्लामी देशों में भेजा और मौजूदा कुरानों के सभी नुस्खो को एकत्र करके एक समान करने के पश्चात शेष पांडुलिपियों को मिटाने का आदेश दिया।[३३] अल-तम्हीद किताब के अनुसार सर्वाअधिक संभावना इस बात की है कि कुरआन के नुस्ख़ो को समान बनाने का कार्य वर्ष 25 हिजरी में हुआ।[३४]
शिया इमामों का उस्मानी मुसहफ़ से सहमति
मुख्य लेख: मुसहफ़े उस्मानी हदीसों के आधार पर यह स्पष्ट है कि आइम्मा ए मासूमीन (अ) कुरान के नुस्ख़ो को समान करने और पूरे इस्लामी सरकार में कुरआन के एक नुस्ख़ो को बढ़ावा देने के पक्ष में थे। सुयुति ने इमाम अली (अ) के हवाले से कहा है कि उस्मान ने इस मुद्दे पर इमाम अली (अ) से परामर्श किया, जिस पर आप (अ) ने अपनी सहमति की घोषणा की।[३५] इसी तरह यह बात भी बयान की जाती है कि इमाम सादिक़ (अ) ने आपके सामने मौजूदा कुरान के खिलाफ क़िराअत करने पर एक व्यक्ति को मना किया।[३६] अल-तम्हीद किताब के अनुसार सभी शियों का मानना है कि कुरआन का नुस्खा सही और पूरा है।[३७]
कुरआन की विभिन्न क़राआत
- मुख़्य लेख: सात क़ारी और चौदाह रिवायात
चौथी शताब्दी हिजरी तक मुसलमानों के बीच कुरआन की विभिन्न क़राआत आम थी।[३८] इन क़राआत के विभिन्न होने के विभिन्न कारण थे जिन कारणो मे महत्वपूर्ण कारण यह है। क़ुरआन के विभिन्न नुस्ख़ो का होना, अरबी लेख का प्रारम्भिक चरण मे होना, अरबी अक्षरो का बिंदूओ और मात्राओ से खाली होना, विभिन्न उच्चारणों की उपस्थिति और विभिन्न पाठकों (क़ारीयो) की व्यक्तिगत प्राथमिकताएं।[३९]
चौथी शताब्दी हिजरी में बग़दाद मे क़ारीयो के शिक्षक इब्ने मुजाहिद ने विभिन्न क़राअतो से सात क़राआत का चयन किया। इन सात क़राआत के क़ारीयो को क़ुर्रा ए सब्आ कहा जाने लगा। चूंकि इन सात क़राअतो में से प्रत्येक दो प्रकार से बयान की गई है इस आधार पर मुसलमानों में चौदह रिवायत आम हो गई।[४०]
अहले-सुन्नत का मानना है कि कुरआन के शब्दों के अलग-अलग पहलू हैं, इसलिए कुरआन को इनमें से प्रत्येक पहलू के अनुसार पढ़ा जा सकता है।[४१] लेकिन शिया विद्वानों का कहना है: कुरान केवल एक क़राअत के साथ नाज़िल हुआ था और शियों के आइम्मा ने केवल सुविधा के लिए विभिन्न क़राआत के साथ कुरआन पढ़ने की अनुमति दी है।[४२]
मुसलमानों के बीच इस समय आसिम की क़राअत हफ़्स की रिवायत के अनुसार सर्वाअधिक प्रचलित है। शिया समकालीन शोधकर्ताओं का एक समूह इन सात क़राअतो में से केवल एक को सही और सुसंगत (मुतवातिर) घोषित करते हुए कहता है: दूसरी क़राअत पैगंबर (स) से नहीं ली गई, लेकिन उनकी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं का पालन करने वाले क़ारीयो के परिणामस्वरूप ये क़राआत मौजूद हैं।[४३]

मात्राएं
अरबी भाषा मे अर्थ समझने के लिए मात्राओ की बहुत बड़ी भूमिका है इसलिए मात्राओ की ओर ध्यान देना बहुत अधिक आवश्यक है। क्योकि मात्रा की पहचान मे त्रुठि अर्थ के परिवर्तन का कारण बनती है और कभी तो अल्लाह की मंशा के विपरीत अर्थ देती है।[४४] कातेबाने वही आरम्भ मे क़ुरआन के शब्दो को बिना बिंदू और मात्रा के लिखते थे और यह काम जो पैगंबर (स) के समय मे जीवन व्यतीत करते थे उनके लिए कोई कठिन नही था लेकिन बाद की पीढ़ी विशेष रूप से अरब के अलावा कभी कभी विभिन्न क़राआत और अर्थ मे परिवर्तन का कारण बनता था। इसीलिए कि कुरआन के अर्थ में अंतर, विकृतियों (तहरीफ़) और परिवर्तनों को समाप्त करने के लिए मात्राओ का उपयोग करना बहुत महत्वपूर्ण था।[४५] ऐतिहासिक परंपराओं के अनुसार सबसे पहले मात्रा और बिंदू और उनके लगाने वाले के बारे में मतभेद है। अधिकांश अबुल अस्वद दोऐली (मृत्यु 69 हिजरी) को मात्राओ का निर्माता जानते है, जिन्होंने यहया इब्ने यामुर की मदद से ऐसा किया था।[४६] शुरू मे मात्राए इस प्रकार थी हर शब्द के अंतिम अक्षर के ऊपर या नीचे या अक्षर के सामने बिंदा होता था जिसका उच्चारण (आ, इ और उ के समान होता था)।[४७] एक शताब्दी पश्चात ख़लील बिन अहमद फ़राहिदी (175 हिजरी) ने बिंदे हटाकर उनको एक विशेष रूप दिया।[४८] दूसरी शताब्दी के दूसरे पचास वर्षो मे सीबावै के नेतृत्व मे बसरा के व्याकरणिक स्कूल, कसाई के नेतृत्व मे कूफा के व्याकरणिक स्कूल और तीसरी शताब्दी के मध्य मे बग़दाद के व्यवकरणिक स्कूल के अस्तित्व मे आने के पश्चात क़ुरआन के अरबीकरण ने काफ़ी प्रगति की।[४९]
कुरआन का अनुवाद
- मुख़्य लेख: क़ुरआन का अनुवाद
कुरआन के अनुवाद का इतिहास बहुत प्राचीन है और क़ुरआन के अनुवाद का इतिहास इस्लाम की शुरुआत तक पहुचता है;[५०] लेकिन कुरआन का फारसी भाषा में पहला पूर्ण अनुवाद चौथी चंद्र शताब्दी में किया गया था।[५१] कुरआन के पहले अनुवादक सलमान फ़ारसी को बताया जाता है, जिन्होंने बिस्मिल्ला हिर्रहमानिर्राहीम का फारसी मे अनुवाद किया था।[५२]
यूरोपीय भाषाओं में कुरआन का अनुवाद शुरू में ईसाई पुजारियों और भिक्षुओं द्वारा किया गया। यह लोग कलामी बहसों में इस्लाम की आलोचना करने के लिए क़ुरआन के विभिन्न भाग का अनुवाद करते थे।[५३] कुरआन का पहला पूर्ण लैटिन अनुवाद छठी चंद्र शताब्दी (12वीं ईस्वी) में लिखा गया।[५४]
कुरआन की छपाई
कुरआन पहली बार इटली में 950 हिजरी (1543 ईस्वी) में प्रकाशित हुआ। चर्च के अधिकारियों के आदेश से कुरआन की इस छपाई को नष्ट कर दिया गया। उसके बाद यूरोप में 1104 हिजरी में, फिर 1108 हिजरी में कुरआन को प्रकाशित किया गया। मुसलमानों ने सन् 1200 हिजरी में पहली बार कुरआन का प्रकाशन किया और यह कार्य रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में मौला उस्मान ने किया। कुरान प्रकाशित करने वाला पहला इस्लामिक देश ईरान है। ईरान ने 1243 और 1248 हिजरी में कुरआन की दो सुंदर लिथोग्राफिक प्रतियां प्रकाशित कीं। उसके बाद दूसरे इस्लामी देशों जैसे तुर्की, मिस्र और इराक में कुरआन के विभिन्न संस्करण प्रकाशित किए गए।[५५]
मिस्र में वर्ष 1342 हिजरी में अल-अजहर विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसरो की देखरेख में हफ्स की रिवायत में आसिम की क़राअत के अनुसार कुरआन प्रकाशित किया गया, जिसे पूरे इस्लामी जगत में स्वीकार किया गया। कुरआन जिसे आज उस्मान ताहा के नाम से जाना जाता है, उस्मान ताहा नामक एक सीरियाई सुलेखक द्वारा लिखा गया। यह कुरआन अक्सर इस्लामी देशों में प्रकाशित होता है। इस संस्करण की एक प्रमुख विशेषता यह है कि प्रत्येक पृष्ठ एक आयत की शुरुआत से शुरू होता है और एक आयत के अंत के साथ समाप्त होता है। इसी तरह, कुरआन के विभिन्न हिस्सों जैसे अहज़ाब और पारो का व्यवस्थित विभाजन भी इस संस्करण की एक विशेषता है।[५६]
आज, कुरआन की छपाई विशिष्ट नियमों और शर्तों के तहत संबंधित मंत्रालयों की देखरेख में की जाती है।[५७] ईरान मे साज़माने दार उल-कुरआन उल-करीम, क़ुरआन के संशोधन और मुद्रण का जिम्मेदार है।[५८]
कुरआन की संरचना
कुरआन में 114 सूरह और लगभग 6,000 आयते हैं। कुरआन की आयतों की सही संख्या के बारे में असहमति है। कुछ इतिहासकारों ने इमाम अली (स) के हवाले से कहा है कि कुरआन मे 6236 आयते हैं।[५९] कुरआन को 30 पारो और 120 हिज्ब में विभाजित किया गया है।[६०]
सूरह
- मुख़्य लेख: सूरह
कुरआन के विभाजन में एक इकाई को "सूरत" (सूरह या सूरा) कहा जाता है। शब्दकोश में सूरे का अर्थ "डिस्कनेक्टेड" (कटा हुआ) है और इस्तेलाह मे आयत के उस संग्रह को संदर्भित करता है जिनमें एक विशिष्ट सामग्री और विषय पर आधारित होता है।[६१] कुरान में 114 सूरे हैं और सूरा ए तौबा को छोड़कर, वे सभी बिस्मिल्ला हिरर्हमानिर्राहीम से शुरू होते हैं।[६२] सूरे के नाज़िल होने अर्थात उतरने के समय के अनुसार दो समूहों मक्की और मदनी में विभाजित किया गया है: इस्लाम के पैगंबर (स) के मदीना में प्रवास से पहले उतरने वाले सूरे को मक्की कहा जाता है; मदीना में पैगंबर (स) के प्रवास के बाद जो सूरे उतरे उन्हें मदनी कहा जाता है।[६३]
आयत
- मुख़्य लेख: आयत
पवित्र कुरआन के शब्दों और वाक्यों को आयत कहा जाता है, और सूरा विभिन्न आयतो के संयोजन से बनता हैं।[६४] प्रत्येक सूरे मे निर्धारित आयते है।[६५] आयते छोटी और बड़ी होने के हिसाब से एक दूसरे से भिन्न हैं। सूर ए बक़रा की आयत संख्या 282 सबसे बड़ी आयत है जबकि सूर ए रहमान की आयत संख्या 64, "मुदहाम्मतान", सूर ए ज़ोहा की आयत संख्या 1 "वज़्जोहा", और सूरा ए फज्र की पहली आयत "वल-फज्र", को कुरआन की सबसे छोटी आयत माना जाता है।[६६]
कुरआन की आयतों को अर्थ की व्याख्या के अनुसार मोहकम (स्पष्ट) और मुताशाबेह (अस्पष्ट) में विभाजित किया गया है। मोहकमात उन आयतो को कहते है जिनका अर्थ इतना अधकि स्पष्ट और उज्ज्वल है कि उनमें किसी प्रकार के संदेह और इनकार के लिए कोई जगह नहीं है, जबकि उनकी तुलना में कुछ आयात है जिनके अर्थ के बारे में विभिन्न संभावनाएं पाई जाती हैं ऐसी आयतो को मुताशाबेह कहा जाता है।[६७] यह विभाजन स्वयं कुरान में मौजूद है।[६८]
आयतो का एक और विभाजन है जिसके अनुसार कुरआन की वह आयत जो किसी अन्य आयत में निहित निर्णय को अमान्य (बातिल) कर देती है, निरस्त (नासिख़) और जिस आयत को अमान्य घोषित कर दिया जाता है उसे अशक्त (मंसूख़) कहा जाता है।[६९]
हिज़्ब और पारा
- मुख़्य लेख: हिज़्ब और पारा
हिज़्ब और पारा भी कुरआन के विभाजन के दो मानदंड हैं। ऐसा माना जाता है कि यह काम मुसलमानों द्वारा कुरआन को पढ़ने और कंठित करने में आसानी के लिए किया गया था। इस तरह के विभाजन व्यक्तिगत गुणों के आधार पर किए गए थे, इसलिए उनकी मात्रा और स्थिति में परिवर्तन हर युग में देखा जा सकता है।[७०] उदाहरण स्वरूप कहा जात है कि पैगंबर (स) के समय मे क़ुरआन 7 हिज़्ब पर आधारित था और प्रत्येक हिज़्ब में कई सूरे शामिल थे। इसी तरह कुरआन को अलग-अलग कालों में दो या दस भागों में बांटने के भी प्रमाण मिलते हैं। वर्तमान समय में कुरआन को तीस पारो में और प्रत्येक पारो मे चार हिज़्ब में विभाजित करना आम और प्रथागत है।[७१]
कुरआन के विषय
कुरअन में विभिन्न विषयों जैसे विश्वास तौहीद, नैतिकता (अख़लाक़) , आदेश [[अहकाम]], पिछले क़ौमो की कहानियां, पाखंडियों (मुनाफ़िक़ो) और बहुदेववादियों (मुशरिको) से लड़ने आदि पर अलग-अलग तरीकों से चर्चा की गई है। कुरआन में चर्चा किए गए कुछ महत्वपूर्ण विषय हैं: एकेश्वरवाद (तौहीद), पुनरूत्थान (मआद), इस्लाम की प्रारम्भिक घटनाएं जैसे पैगंबर (स) के अभियान, क़ेसस उल-कुरआन, इबादात और दंड के संबंध में इस्लाम के बुनियादी नियम, नैतिक गुण और दोष, और बहुदेववाद और पाखंड की निषेधता आदि।[७२]
क़ुरआन का अविरुपण
- मुख़्य लेख: क़ुरआन का अविरुपण
जब कुरआन की अविनाशीता पर चर्चा की जाती है तो यह आमतौर पर कुरआन में एक शब्द के जोड़ या घटाव को संदर्भित करता है। आयतुल्लाह ख़ूई लिखते हैं: मुसलमान इस बात से सहमत हैं कि कुरआन में कोई शब्द नहीं जोड़ा गया है। इसलिए इस लिहाज से कुरान में कोई अविनाशीता नहीं है। लेकिन कुरआन से किसी शब्द या शब्दो के हटने और घटने के बारे में मतभेद है।[७३] आपके कथन अनुसार शिया विद्वानों के बीच प्रसिद्ध कथन के अनुसार इस लिहाज से भी कुरआन में कोई अविनाशीता नहीं है।[७४]
चुनौती और क़ुरआन के चमत्कार
- मुख़्य लेख: चुनौती और क़ुरआन के चमत्कार
कुरआन की आयतों में इस्लाम के पैगंबर (स) के विरोधियों से कहा गया है कि अगर वे पैगंबर को ईश्वर का दूत नहीं मानते हैं तो वे कुरआन जैसी किताब या दस सूरे या उसके जैसे कम से कम एक सूरा लेकर आएं।[७५] मुसलमानों ने इस मुद्दे को चुनौती बताया है। चुनौती शब्द का प्रयोग पहली बार तीसरी शताब्दी के इल्मे कलाम की किताबो में कुरआन की चुनौती के नाम से याद किया जाने लगा।[७६]
मुसलमानों का इस बात पर विश्वास है कि कोई भी कुरआन जैसी किताब नहीं ला सकता जो क़ुरान के चमत्कार होने और मुहम्मद (स) के नबी होने पर बहतरीन दलील है। कुरआन ने स्वयं अपनी दिव्यता पर जोर दिया और इसके समान लाना असंभव माना है।[७७] ऐजाज़ उल-कुरआन उलूमे कुरआनी (कुरआन के विज्ञानों) में से एक है जिसमे कुरआन के चमत्कार होने पर चर्चा की जाती है।[७८]
क़ुरआन से जुड़े विज्ञान
कुरआन मुसलमानों के बीच विभिन्न विज्ञानों के उदय का कारण बना है। तफ़सीर और उलूमे क़ुरआन उन्ही विज्ञानों में से हैं।
तफ़सीर
- मुख्य लेख: तफ़सीर
तफ़सीर का मतलब वह ज्ञान है जिसमे क़ुरआन की आयतो की व्याख्या होती है।[७९] क़ुरआन की तफ़सीर पैगंबर (स) के समय से स्वयं आपके माध्यम से ही आरम्भ हुई है।[८०] इमाम अली (अ), इब्ने अब्बास, अब्दुल्लाह बिन मसऊद और उबय बिन काब पैगंबर (स) के पश्चात सर्वप्रथम मुफ़स्सिर गिने जाते है।[८१] क़ुरान की विभिन्न प्रकार और तरीको से तफ़सीर हुई है। तफ़सीर की कुछ विधियाँ हैं: तफ़सीरे मौज़ूई, तफ़सीरे तरतीबी, क़ुरआन से क़ुरआन की तफ़सीर, तफ़सीरे रिवाई, तफ़सीरे इल्मी, तफ़सीरे फ़िक़्ही, तफ़सीरे फ़लसफ़ी और तफ़सीरे इरफ़ानी।[८२]
उलूमे क़ुरआनी
- मुख़्य लेख: उलूमे क़ुरआनी
कुरआन पर विभिन्न कोणों से चर्चा की जा सकती है कुरआन की चर्चा विभिन्न कोणों से करने वाले विज्ञानों को उलूमे क़ुरआन (कुरआनिक विज्ञान) कहा जाता है। कुरआन का इतिहास, आयात उल-अहकाम, इल्मे लुग़ाते क़ुरान ( कुरआन की शब्दावली का ज्ञान) , इल्मे ऐराब और बलागते कुरआन, असबाब उन-नुज़ूल (उतरने के कारण), क़िसस उल-क़ुरआन (कुरआन की कहानियां) एजाज़ उल-क़ुरआन (कुरआन के चमत्कार), इल्मे क़राअत, इल्मे मक्की व मदनी (मक्की और मदनी होने का ज्ञान), इल्मे मोहकम वा मुताशाबेह और इल्मे नासिख़ वा मंसूख उलूमे कुरआनी की शाखाओं में से हैं।[८३] उलूमे क़ुरआन (कुरआनिक विज्ञान) के कुछ महत्वपूर्ण स्रोत इस निम्मलिखित हैं:
- अल-तिबयान (मुकद्दमा ए किताब) लेखक शेख़ तूसी (454 हिजरी)
- मजमा उल-बयान (मुकद्दमा ए किताब) लेखक अल्लामा तबरसी (548 हिजरी)
- इमला ओ मा मन्ना बेहिर्रहमान लेखक अबू बुकाए अकबरी (616 हिजरी)
- अल-बुरहान फ़ी उलूम कुरान लेखक ज़रकशी (794 हिजरी)
- अल-इत्क़ान फ़ी उलूम कुरआन लेखक जलालुद्दीन सुयूती (911 हिजरी)
- आला इर्रहमान (मुकद्दमा ए किताब) लेखक मुहम्मद जवाद बलाग़ी (1352 हिजरी)
- अल-बयान फ़ी तफ़सीर इल क़ुरआन लेखक सय्यद अबुल क़ासिम ख़ूई (1371 शम्सी)
- क़ुरआन दर इस्लाम लेखक सय्यद मुहम्मद हुसैन तबातबाई (1360 शम्सी)
- अल-तम्हीद फ़ी उलूम इल-क़ुरान लेखक मुहम्मद हादी मारेफ़त (1385 शम्सी)[८४]

रीति रिवाज
मुसलमानों के व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ उनके सामूहिक जीवन में भी कुरआन का विशेष महत्व है। विभिन्न मस्जिदों और अन्य धार्मिक स्थानों जैसे इमाम बरगाह, मासूम इमामो और इमाम ज़ादों के रौज़ों में ख़त्मे कुरआन की आम सभा, यहां तक कि अलग-अलग लोग अपने घरों में खत्मे कुरआन की सभाए करते हैं।[८५] शब ए क़द्र मे क़ुरआन सर पर उठाना शियों के रीति रिवाज मे से एक है। इस रीति रिवाज मे क़ुरआन को सर पर उठाकर अल्लाह को उसकी इज्जत और चौदह मासूम की कसम देकर अपने पापो की क्षमा मांगी जाती है।[८६]
अधिकांश औपचारिक मुस्लिम समारोह जैसे भाषण, और सामूहिक समारोह जैसे विवाह और सभाएं भी कुरान के कुछ आयतो की तिलावत के साथ शुरू होती हैं।[८७]
कुरआन और कला
मुसलमानों की कला में कुरआन को बड़ी स्वीकृति मिली है। अधिकांश सुलेख, तज़हीब, और जिल्द बनाना, साहित्य और वास्तुकला में प्रमुख हैं। और चूंकि कुरान को पांडुलिपियों के माध्यम से कंठित और प्रकाशित किया जाता था तो सुलेख मुसलमानों के बीच बहुत उन्नति कर गया[८८] और धीरे-धीरे कुरआन अलग अलग लिपियो (फोंटो) जैसेः नस्ख़, कूफी, सुल्स,शिकस्ता और नस्तालीक मे लिखा गया।[८९] कुरआन की आयतें अरबी, फारसी और उर्दू साहित्य में भी बहुत उपयोगी साबित हुई हैं, और कुरआन की आयतों के विषयों को व्यापक रूप से गद्य और पद्य दोनो में उपयोग किया गया है।[९०]
इस्लामी वास्तुकला भी कुरआन की आयतों से प्रभावित रही है। इस्लामी विभिन्न ऐतिहासिक इमारतों जैसे मस्जिदों और महलों पर आयते लिखी हुई देखी जाती हैं; इसी तरह, कुरान में वर्णित स्वर्ग और नर्क की विशेषताओं जैसे कुछ कुरआन विषयों का भी इमारतों की वास्तुकला में उपयोग किया गया है।[९१] बैतुल मक़द्दस मे मौजूद क़ुब्बा तुल-ख़िज़्रा पर लिखी कुरआनी आयतो के तरीको को भवन पर सबसे इस्तेमाल करार दिया गया है। इस इमारत के शिलालेख जो 71 हिजरी (691 ईस्वी) में बने थे, जिस पर इस्लामी मौलिक विश्वास और सूर ए निसा, सूर ए आले इमरान और सूर ए मरियम की कुछ आयते देखी जा सकती हैं।[९२]
ओरिएंटलिस्ट्स की दृष्टि में कुरआन
कई गैर-मुस्लिम विद्वानों ने कुरआन पर व्यापक शोध किया है। इस संबंध में, कुछ ओरिएंटलिस्ट कुरआन को पवित्र पैगंबर का कथन बताते हुए कहते हैं: कुरआन के मतालिब को यहूदियों और ईसाइयों के स्रोतों और अज्ञानता के युग के अशआर से लिया गया है। हालांकि कुछ शोधकर्ता स्पष्ट रूप से कुरआन को रहस्योद्घाटन के रूप में नहीं मानते हैं, वे इसे मानवीय कथन से ऊपर की चीज मानते हैं।[९३]
रिगार्ड-बिल कुरआन के साहित्य में दोहराव (तकरार) और तुलना (तशबीह) की विधि को यहूदीयो और ईसाईयो की "होनोफा" नामक रीति से लिया हुआ बताता है। जबकि इसकी तुलना में, नोलदख कुरान के सूरो विशेष रूप से मक्की सूरो को साहित्यिक दृष्टिकोण से चमत्कारी बताते हुए कुरआन की आयतो को स्वर्गदूतों के गीत कहते हैं जो आस्तिक को परमानंद (वज्द) में लाते हैं। मौरिस बोकाय, कुरान के चमत्कारी ज्ञान पर विचार करते हुए लिखते हैं: कुरआन की कुछ आयते आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों के साथ पूरी तरह से संगत हैं। अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कुरआन ईश्वरीय मूल का है।[९४]
संबंधित पृष्ठ
फ़ुटनोट
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- ↑ मारेफ़त, अल-तमहीद, 1412 हिजरी, भाग 1, पेज 124-127
- ↑ मारेफ़त, अल-तमहीद, 1412 हिजरी, भाग 1, पेज 27
- ↑ मुताहरी, मजमूआ ए आसार, 1389 शम्सी, भाग 3, पेज 153
- ↑ सूरा ए शूरा, आयत 51
- ↑ मीर मुहम्मदी ज़रनदी, तारीख़ वा उलूमे क़ुरआन, 1363 शम्सी, पेज 7
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- ↑ इस्कंदरलो, उलूमे कुरआनी, 1379 शम्सी, पेज 41
- ↑ मिस्बाह यज़्दी, क़ुरान शनासी, 1389 शम्सी, भाग 1, पेज 139; इस्कंदरलो, उलूमे कुरआनी, 1379 शम्सी, पेज 41
- ↑ इस्कंदरलो, उलूमे कुरआनी, 1379 शम्सी, पेज 42
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- ↑ मारफ़त, अल-तम्हीद, 1412 हिजरी, भाग 1, पेज 281
- ↑ मारफ़त, अल-तम्हीद, 1412 हिजरी, भाग 1, पेज 343
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- ↑ मारेफ़त, अल-तम्हीद, 1412 हिजरी, भाग 1, पेज 338-339
- ↑ मारफ़त, अल-तम्हीद, 1412 हिजरी, भाग 1, पेज 346
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- ↑ मुहम्मदी रय शहरी, शनाख़्त नामा क़ुरआन, 1391 शम्सी, भाग 3, पेज 315
- ↑ मुहम्मदी रय शहरी, शनाख़्त नामा क़ुरआन, 1391 शम्सी, भाग 3, पेज 315
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- ↑ निज़ारत बर चाप वा नश्रे क़ुरआने करीम, साइट तिलावत
- ↑ तारीख़्चा वा वज़ाइफ़ वा अहदाफ़, साइट तिलावत
- ↑ युसूफ़ी ग़रवी, उलूमे क़ुरआनी, 1393 शम्सी, पेज 32
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- ↑ महमूद ज़ादे, हुनर खत व तज़हीबे कुरआनी, पेज 3
- ↑ देखेः जब्बारी राद, नूर निगाराने मआसिर, पेज 66
- ↑ देखेः रास्तगू, तजल्लीए क़ुरआन दर अदब ए फ़ारसी, पेज 56 जाफ़री, तासीरे क़ुरआन दर शेरे फ़ारसी, पेज 54 तुराबी, तासीरे क़ुरआन दर शेर व अदब ए फ़ारसी, पेज 52
- ↑ गिराबार, हुनर मेमारी वा क़ुरआन, पेज 69
- ↑ गिराबार, हुनर मेमारी वा क़ुरआन, पेज 71-72
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स्रोत
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- इस्कंदरलो, मुहम्मद जवाद, उलूम क़ुरआनी, क़ुम, साज़माने हौज़ा हा वा मदारिसे इल्मिया ख़ारिज अज किश्वर, पहला प्रकाशन, 1379 शम्सी
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- रामयार, महमूद, तारीख़े क़ुरआन, तेहारन, अमीर-कबीर, तीसरा प्रकाशन, 1369 शम्सी
- रास्तगू, सय्यद मुहम्मद, तजल्लीए क़ुरआन दर अदबे फारसी, दो माहनामा ए बशारत, क्र. 30, 1381 शम्सी
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- सुयुती, जलालुद्दीन अब्दुर्रहमान, अल-इत्क़ान फ़ी उलूम क़ुरआन, शोधः मुहम्मद अबुल फ़ज़्ल इब्राहीम, अनुवाद सय्यद महदी हाएरी क़ज़्वीनी, तेहरान, अमीर-कबीर, पहाल प्रकाशन, 1363 शम्सी
- अब्बासी, महरदाद, तफ़सीर, दानिश नामा जहाने इस्लामी, भाग 7, तेहरान, बुनयाद दायरत उल-मआरिफ उल-इस्लामी, पहला प्रकाशन, 1382 शम्सी
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- मुहम्मदी रय शहरी, मुहम्मद वा जमई अज पुज़ोहिशगरान, शनाख़्त नामा क़ुरआन बर पाया ए क़ुरआन व हदीस, भाग 3, क़ुम, दार उल-हदीस, पहला प्रकाशन, 1391 शम्सी
- महमूद जादे महरदाद, हुनर खत व तज़हीबे क़ुरआनी, किताब माहे हुनर, क्र. 3, 1377 शम्सी
- मरासिमे क़ुरआन बे सर गिरफ़्तन, दर पाय गाहे इत्तेला रसानी हौज़ा, (7 उरदीबहिश्त 1392), तारीखे दस्तरसी (14 इस्फ़ंद 1395)
- मुस्तफ़ीद, हमीद रज़ा, जुज़, दानिश नामा जहाने इस्लाम, भाग 10 तेहरान, बुनयाद दायरत उल-मआरिफ उल-इस्लामी, पहला प्रकाशन, 1385 शम्सी
- मिस्बाह यज़्दी, मुहम्मद तक़ी, क़ुरआन शनासी, क़ुम, इंतेशाराते मोअस्सेसा ए आमूज़िशी वा पुज़ूहिशी इमाम ख़ुमैनी, तीसरा प्रकाशन, 1389 शम्सी
- मुताहरी, मुर्तज़ा, मजमूआ ए आसार, तेहरान, इंतेशाराते सद्रा, पंदरहवा प्रकाशन, 1389 शम्सी
- मआरिफ, मजीद, गुजारिशि अज़ आमूज़ीशे क़ुरआन दर सीरा ए रसूले ख़ुदा (स), पुज़ूहिशे दीनी, क्र. 3, 1380 शम्सी
- मारफत, मुहम्मद हादी, पीशीना ए चापे कुरआने करीम, दर साइट दानिश नामा मूज़ूई क़ुरआन, तारीखे दस्तरसी (13 इस्फ़ंद 1395 शम्सी)
- मारफत, मुहम्मद हादी, अल-तफसीर वल मुफस्सेरून फ़ी सौबतिल कशीब, मशहद, दानिश गाहे उलूमे इस्लामी रज़वी, पहला प्रकाशन, 1418 हिजरी
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- मारफत, अल-तम्हीद फ़ी उलूमे क़ुरआन, क़ुम, मोअस्सेसा नश्रे इस्लामी, पहला प्रकाशन, 1412 हिजरी
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- मकारिम शिराजी, नासिर, तफसीरे नमूना, तेहरान, दार उल-कुतुब उल-इस्लामीया, पहला प्रकाशन, 1374 शम्सी
- मूसवी आमोली, क़ुरआन दर रसूमे ईरानी, दो माह नामा बशारत, क्र. 51, 1384 शम्सी
- मीर मुहम्मदी ज़रंदी, सय्यद अबुल फ़ज़्ल, तारीख वा उलूमे क़ुरआन, क़ुम, दफ़तरे इंतेशाराते इस्लामी, 1363 शम्सी
- नासेहयान, अली असगर, उलूमे क़ुरआनी दर मकतबे अहले-बैत (अ), मशहद, दानिश गाहे उलूमे इस्लामी रज़वी, पहला प्रकाशन, 1389 शम्सी
- निज़ारत बर चाप वा नश्रे क़ुरआने करीम, साइट. तिलावत, तारीखे दस्तरसी, (10 बहमन 1395 शम्सी)
- हाशिम जादे, मुहम्मद अली, किताब शनासी उलूमे क़ुरआन, पुज़ूहिश हाए कुरानी, क्र. 13-14, 1377 शम्सी
- युसूफ़ी ग़रवी, मुहम्मद हादी, उलूमे क़ुरआनी, दफ़्तरे नश्रे मआरिफ, 1393 शम्सी