सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना
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15वीं शताब्दी हिजरी में सक़ीफ़ बनी साएदा का स्थान | |
| कथा का वर्णन | पैग़म्बर (स) के बाद उनके उत्तराधिकारी का च्यन करना |
|---|---|
| समय | वर्ष 11 हिजरी में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास के बाद |
| स्थान | सक़ीफ़ा बनी साएदा |
| परिणाम | खिलाफत का हड़पना • अबू बक्र बिन अबी क़ुहाफ़ा को मुसलमानों के ख़लीफ़ा के रूप में चुना गया |
| नतीजे | हज़रत फ़ातिमा (स) के घर पर हमला • हज़रत फ़ातिमा (स) की शहादत • फ़िदक का माजरा • कर्बला की घटना |
| प्रतिक्रियाएँ | हज़रत अली (अ), फ़ातिमा ज़हरा (स) और अन्य सहाबा ने विरोध किया |
| सम्बंधित | ग़दीर की घटना |
सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना (अरबी: واقعة سقيفة بني ساعدة) वर्ष 11 हिजरी में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास के बाद पहली घटना थी, जिसमें अबू बक्र बिन अबी क़ुहाफ़ा को मुसलमानों के ख़लीफ़ा के रूप में चुना गया। पैग़म्बर मुहम्मद (स) के स्वर्गवास के बाद, इमाम अली (अ) और कुछ दूसरे सहाबी उनके अंतिम संस्कार की तैयारी कर रहे थे, उसी समय, खज़रज जनजाति से संबंध रखने वाले साद बिन उबादा के नेतृत्व में कुछ अंसार सक़ीफ़ा बनी साएदा मे पैग़म्बर (स) के बाद उनके उत्तराधिकारी का च्यन करने के लिए एकत्रित हुए।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार, अंसार का यह जमावड़ा केवल मदीना शहर के शासक का निर्धारण करने के लिए था; लेकिन जब कुछ अप्रवासियों ने बैठक में प्रवेश किया, तो इस बहस ने सभी मुसलमानों का नेतृत्व करने के लिए पैग़म्बर के उत्तराधिकारी की नियुक्ति की दिशा बदल दी और अंत में, अबू बक्र को मुसलमानों के ख़लीफा के रूप में शपथ दिलाई गई। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, अप्रवासियों की ओर से बोलने वाले अबू बक्र को छोड़कर, उमर बिन ख़त्ताब और अबू उबैदा जर्राह भी सक़ीफ़ा में मौजूद थे।
सुन्नियों ने अबू बक्र के शासन और खिलाफ़त को वैध बनाने के लिए आम सहमति के सिद्धांत पर भरोसा किया है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि इतिहासकारों के अनुसार अबू बक्र के च्यन को व्यापक रूप से स्वीकार नहीं किया गया था। इस घटना के बाद हज़रत अली (अ), फ़ातिमा ज़हरा (स), फ़ज़्ल और पैग़म्बर के चाचा अब्बास के बेटे अब्दुल्लाह और पैग़म्बर (स) के कुछ प्रसिद्ध सहाबी जैसे सलमान फ़ारसी, अबू ज़र गफ़्फ़ारी, मिक़्दाद बिन अम्र, ज़ुबैर बिन अव्वाम और हुज़ैफ़ा बिन यमान ने सक़ीफ़ा परिषद के आयोजन और उसके परिणाम का विरोध किया। शिया समुदाय सक़ीफ़ा की घटना और उसके परिणामों को इमाम अली (अ) के उत्तराधिकारी के संबंध मे पैग़म्बर (स) द्वारा ग़दीरे ख़ुम की गई स्पष्ट घोषणा के विपरीत मानते हैं।
ऐतिहासिक स्रोतों में सक़ीफ़ा की घटना का वर्णन मिलता है। इसके अलावा, इसकी जांच और विश्लेषण करने के लिए पुस्तके लिखी गई हैं, हेनरी लैमेंस Henri Lammens, लियोन केतानी Leone Caetani और विलफर्ड फर्डिनेंड मैडलुंग Wilferd Ferdinand Madelung जैसे मुस्तशरेक़ीन (ओरिएंटलिस्ट) ने अपनी रचनाओ मे सक़ीफ़ा की घटना का हवाला दिया और उसका विश्लेषण किया है। मैडलुंग ने अपनी किताब हजरत मुहमम्द (स) के उत्तराधिकारी The Succession to Muhammad और हेनरी लैमन्स द्वारा लिखित नजरया ए मुसल्लसे क़ुदरत उनमें से सबसे प्रसिद्ध हैं।
| शख्सियतें | |
|---|---|
| पैग़म्बर इस्लाम (स) • अबू तालिब • हज़रत ख़दीजा(स) • हज़रत अली (अ) • हज़रत फ़ातिमा(स) • हमज़ा बिन अब्दुल मुत्तलिब • सलमान फ़ारसी • अबूज़र गफ़्फ़ारी • मिक़्दाद बिन अम्र • जाफ़र बिन अबी तालिब • बिलाल हबशी • अबू बक्र • उमर बिन ख़त्ताब • उस्मान बिन अफ्फ़ान | |
| लड़ाइयां युद्ध और सरिय्या | |
| बद्र की जंग • ग़ज़वा ओहोद• बनी नज़ीर का युद्ध • ख़नदक़ का युद्ध • बनी क़ुरैज़ा का युद्ध • सुल्ह हुदैबिया • ख़ैबर की जंग • मक्का की विजय • तबूक का युद्ध • युद्ध | |
| शहर और स्थान | |
| मक्का• शेअबे अबी तालिब • मदीना• ताएफ़ • क़ुबा मस्जिद • मस्जिद अल-नबी • सक़ीफ़ा बनी साएदा • ख़ैबर • बक़ीअ क़ब्रिस्तान | |
| घटनाएँ | |
| बेअसत • हबशा की ओर हिजरत • लैलातुल मबीत • मदीने की ओर हिजरत • सुल्ह हुदैबिया • हुज्जतुल विदा • ग़दीर की घटना • सक़ीफ़ा • सेपाहे ओसामा | |
| संबंधित अवधारणाएँ | |
| इस्लाम• अंसार • प्रवासी • शिया • हज्ज • क़ुरैश • बनी हाशिम • बनी उमय्या • जाहिलियत | |
घटना स्थल
- मुख्य लेख: सक़ीफ़ा बनी साएदा
सक़ीफ़ा एक छायादार चबूतरा था जहां अरब क़बीले सार्वजनिक फैसलों में परामर्श के लिए इकट्ठा होते थे।[१] सक़ीफ़ा जहां पैग़म्बर (स) के स्वर्गवास पश्चात कुछ प्रवासी (मुहाजेरीन) और अंसार इकट्ठा हुए थे, यह जगह अंसार और ख़ज़रज जनजाति के बनी साएदा समुदाय की थी। इस्लाम से पहले उनके फैसले इसी स्थान पर हुआ करते थे। इस्लाम और मदीना में पैग़म्बर (स) के आने के बाद दस वर्षो (पैग़म्बर (स) के स्वर्गवास तक) सक़ीफ़ा ने व्यावहारिक रूप से अपना उपयोग खो दिया था और जब पैग़म्बर मुहम्मद (स) के उत्तराधिकारी का निर्धारण करने के लिए प्रवासी और अंसार एकत्र हुए, तो इसमें फिर से एक जमावडा दिखाई दिया।[२]
घटना का विवरण
जर्मन इस्लाम शनास (मुस्तशरिक़) विलफर्ड फर्डिनेंड मैडलुंग (जन्म 1930) के अनुसार सक़ीफ़ा नबी साएदा मे मुसलमानों के जमावड़े से संबंधित रिवायत अब्दुल्लाह बिन अब्बास से उमर बिन ख़त्ताब तक जाती है। बाकी सभी रिवायतों मे इस जानकारी का उपयोग किया गया है। इब्ने हेशाम, मुहम्मद जुरैर अल-तबरी, अब्दुर रज़्ज़ाक़ बिन हम्माम, मुहम्मद बिन इस्माईल बुख़ारी और इब्ने हनबल ने अलग-अलग कथाकारों की श्रृंखला (रावियो के सिलसिले) में थोड़े बदलाव के साथ इन रिवायतों का उल्लेख किया है।[३]
पैग़म्बर (स) के स्वर्गवास की घोषणा पश्चात कुछ अंसार अपनी स्थिति पर फैसला करने और रसूल के उत्तराधिकार के मुद्दे के बारे में समाधान खोजने के लिए सक़ीफ़ा बनी साएदा में एकत्र हुए। ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार, इस घटना की शुरुआत में ख़ज़रज जनजाति के बुज़ुर्ग साद बिन उबादा ने बीमारी की गंभीरता के कारण अपने बेटे के माध्यम से लोगो से बात की। तर्को का उल्लेख करते हुए उन्होंने अंसार को इस्लाम के पैग़म्बर (स) के उत्तराधिकारी होने का अधिकार देते हुए मामलों के प्रशासन को संभालने के लिए आमंत्रित किया। उपस्थित लोगों ने उनकी बातो का समर्थन करते हुए खुद साद को अपना शासक चुना और इस बात पर जोर दिया कि वे उनकी राय के खिलाफ़ कोई काम नहीं करेंगे।[४] लेकिन उपस्थित लोगों में से कुछ ने मुहाजिरो (अप्रवासियों) की ओर से इस फैसले का विरोध करने और आत्मसमर्पण न करने की आशंका जताते हुए उन्होंने अंसार और मुहाजेरीन दोनो मे से एक एक अमीर चुनने का प्रस्ताव दिया।[५]
इस बैठक की रिपोर्ट और इसकी स्थापना का कारण अबू बक्र बिन अबी क़ुहाफ़ा और उमर बिन खत्ताब तक पहुँची और ये दोनों अबू उबैदा जर्राह के साथ सक़ीफ़ा गए। जब उन्होंने इस सभा में प्रवेश किया, तो अबू बक्र ने उमर के भाषण को रोक कर लोगो को संबोधित करते हुए पैग़म्बर (स) के उत्तराधिकारी के लिए मुहाजिरो की श्रेष्ठता और क़ुरैश की प्राथमिकता साबित कर दी।[६] उपस्थित लोगो मे से कुछ ने इस बात का समर्थन किया और कुछ ने विरोध किया। कुछ लोगो ने उत्तराधिकारी के लिए हज़रत अली (अ) की योग्यता और वफादारी की ओर इशारा करते हुए किसी और के हाथ पर बैअत करने से इंकार कर दिया।[७] लेकिन अंत में अबु बक्र ने इस पद के लिए उमर और अबू उबeदा को योग्य बताया। दोनों (उमर और अबू उबैदा) ने लोगो के समक्ष अबू बक्र के प्रस्ताव से असहमति जताई।[८]
303 हिजरी मे तबरी द्वारा लिखित तारीख़ के अनुसार, उमर इब्ने खत्ताब ने इन क्षणो के बारे में कहा: उस समय, चारों ओर से शोर शराबा होने लगा और किसी कोने से भी स्पष्ट शब्द सुनाई नही दे रहे थे, मुझे डर था कि मतभेद के कारण हमारा काम खराब ना हो जाए। मैंने अबू बक्र से कहा: अपना हाथ बढ़ाओ ताकि मैं तुमसे निष्ठा की प्रतिज्ञा करता हूं; लेकिन मेरे हाथ के अबू बक्र के हाथ में होने से पहले ही साद बिन उबादा के प्रतिद्वंदी बशीर बिन साद ख़ज़रजी ने आगे बढ़कर अबू बक्र के हाथ पर उनके प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा कर ली।[९]
इस घटना के बाद सक़ीफ़ा में मौजूद लोगों की भीड़ ने अबू बक्र के प्रति निष्ठा की शपथ लेना शुरू कर दिया, जहां यह संभावना थी कि लोगों की जल्दबाज़ी के कारण बीमार साद बिन उबादा को अपने हाथों और पैरों से कुचल दिया जाएगा। इस स्थिति ने उमर, साद और क़ैस बिन साद के बीच एक तीव्र संघर्ष का कारण बनी, जो अबू बक्र के हस्तक्षेप से समाप्त हो गया।[१०]
सक़ीफ़ा की बहसे
सकिफ़ा के स्थान पर उपस्थित अंसार और उन अप्रवासियों के बीच कई बातचीत का आदान-प्रदान हुआ, जो बाद में उनके साथ शामिल हो गए, जिनमें से प्रत्येक अपनी बारी में प्रभावशाली था। लेकिन सबसे ज्यादा प्रभाव अबू बक्र और उनके साथियों की बातों से पड़ा। उस तारीख़ को की गई कुछ बातचीत निम्नलिखित लोगों की हैं:
- साद बिन उबादा: उन्होंने मुख्य रूप से बैठक की शुरुआत में और अबू बक्र और उनके साथियों के आने से पहले बात की, निसंदेह बीमारी के कारण अपनी बात बेटे के माध्यम से लोगो तक पहुचाई। उनकी बात के सबसे महत्वपूर्ण शब्द इस प्रकार हैं: अंसार की योग्यता और इतिहास, अन्य मुस्लिम समूहों पर अंसार की श्रेष्ठता, इस्लाम और पैग़म्बर (स) के लिए इस समूह की सेवा, और पैग़म्बर (स) का स्वर्गवास के समय अंसार से संतुष्टि का उल्लेख करना है। इन तर्कों के साथ, उन्होंने अंसार को उत्तराधिकार के अधिक योग्य घोषित किया और उन्हें मामलों को नियंत्रित करने के लिए कार्रवाई करने के लिए आमंत्रित किया, और उन्होंने अंसार से एक अमीर और मुहाजिरो से एक अमीर को चुनने के प्रस्ताव को एक विफलता और पीछे हटना माना है।[११]
- अबू बक्र: उनके शब्द इस सभा के परिणाम को निर्धारित करने वाले थे। कई मौकों पर उन्होंने भाषण दिए जिसका सारांश इस प्रकार है: अंसार पर प्रवासियों का विशेषाधिकार, जिसमें पैग़म्बर (स) के मिशन को स्वीकार करने में अग्रणी, ईमान और खुदा की इबादत, पैग़म्बर (स) के साथ प्रवासीयो की दोस्ती अथवा रिश्तेदारी; इन कारणों से अप्रवासीयो का पैग़म्बर (स) का उत्तराधिकारी होने का तर्क है। अंसार की योग्यता और इतिहास और उनकी योग्यता और मंत्रालय की स्थिति को संभालने की प्राथमिकता है न कि सरकार की।[१२]
- हबाब बिन मुंज़र: उन्होंने सक़ीफ़ा में दो या तीन बार बात की और हर बार उनके तक़रीर में प्रवासियों विशेष रूप से अबू बक्र और उमर के खिलाफ़ उकसाना या धमकियां शामिल थीं।[१३] एक अन्य अवसर पर उन्होंने प्रत्येक जनजाति से एक अमीर का प्रस्ताव रखा।[१४]
- उमर बिन ख़त्ताब: उमर ने अबू बक्र के अधिकांश बातो का समर्थन किया और तर्कों के साथ उन पर ज़ोर दिया। इनमें से कुछ तर्क इस प्रकार हैं: पैग़म्बर (स) के परिवार के उत्तराधिकार का विरोध न करने वाले अरबों की निश्चितता, दो समूहों में से प्रत्येक से दो अमीरों को चुनने की असंभवता, क्योंकि दो तलवारें एक ही म्यान में फिट नहीं हो सकतीं।[१५]
- अबू उबैदा जर्राह: अंसार को संबोधित एक तक़रीर में उन्होंने उन्हें (अंसार को) अपना धर्म बदलने और मुस्लिम एकता के आधार को बदलने से मना किया।[१६]
- बशीर बिन साद: वह ख़ज़रज और अंसार जनजाति से हैं। उन्होंने कई मौकों पर अबू बक्र और उनके साथियों के तर्कों की पुष्टि की, अल्लाह से डरना और मुस्लिम अधिकार का विरोध न करना जैसे शब्दो के साथ अंसार को प्रवासियों का विरोध करने से रोक दिया।[१७]
- अब्दुर रहमान बिन औफ़: उन्होंने हज़रत अली (अ), अबू बक्र और उमर जैसे लोगों की हैसियत और गुण को याद दिलाया और अंसार को ऐसे महान लोगों की कमी के रूप में पेश किया।[१८]
- ज़ैद बिन अरक़म: वह अंसार से है, उसने सक़ीफा में अबू बक्र और अब्दुर रहमान बिन औफ़ के तर्कों के खिलाफ़ अली (अ) को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिचित कराया, जिसके पास ये सभी विशेषताएं हैं, और अगर निष्ठा की शपथ लेने मे पहल करते तो उनका कोई भी विरोध नही करता।[१९] मुंज़र के शब्दों को किसी अंसार की सहमति की पुष्टि और घोषणा के साथ पूरा किया गया, जिन्होंने चिल्लाकर कहा कि वे केवल अली (अ) के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा करेंगे।[२०]
उपस्थित समूह
सक़ीफ़ा बनी साएदा से संबंधित सुन्नी स्रोतों की अधिकांश रिपोर्टों में इस घटना में सामान्य प्रवासियों और अंसार की उपस्थिति राजनीतिक भागीदारी है,[२१] जबकि कई स्रोतों ने अबू बक्र के प्रति निष्ठा के दो चरणों का उल्लेख किया है, जिसमें प्रतिज्ञा शामिल है सक़ीफ़ा के दिन की निष्ठा और घटना में उपस्थित बाकी लोगों की निष्ठा मदीना शहर, जो सकीफ़ा की घटना के अगले दिन हुआ और इसे निष्ठा की सामान्य प्रतिज्ञा कहा जाता है;[२२]
विलफर्ड फर्डिनेंड मैडलुंग के अनुसार, अप्रवासियों में, केवल अबू बक्र, उमर और अबू उबैदा सक़ीफ़ा बनी साएदा मे मौजूद थे, और इन तीन लोगों के कुछ निजी सहायकों, परिवार के सदस्यों और अनुयायियों के साथ जाने की संभावना भी दिमाग से बाहर नहीं थी। इसी तरह, कुछ शोधकर्ता अबू हुज़ैयफा के मुक्त सेवक की सुरक्षित उपस्थिति का उल्लेख करते हैं, जो सक़ीफ़ा में अबू बक्र के प्रति निष्ठा की शपथ लेने वाले पहले लोगों में से एक थे। हालाँकि प्रथम श्रेणी के विश्वसनीय स्रोतों में से किसी ने भी उनकी उपस्थिति के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। सूत्रों ने इन लोगों के अलावा अन्य अप्रवासियों, यहां तक कि मध्यम या निम्न श्रेणी के साथियों की उपस्थिति का भी उल्लेख नहीं किया है।[२३] कुछ शोधकर्ताओं ने संदर्भ के साथ निर्दिष्ट किया है कि सक़ीफ़ा में मौजूद अप्रवासियों की संख्या बहुत कम थी।[२४]
सूत्रों के अनुसार, सबसे प्रसिद्ध अंसार साद बिन उबादा, उनके बेटे क़ैस, साद के चचेरे भाई और उनके प्रतिद्वंदी बशीर बिन साद, असीद बिन हुज़ैर, साबित बिन क़ैस, बर्रा बिन आज़िब, हबाब बिन मुंज़र सक़ीफ़ा में मौजूद थे।[२५]
इब्ने क़ुतैबा "अगर साद को उनके साथ लड़ने के लिए सहयोगियों मिले होते, तो वह बिना किसी संदेह के लड़े होते"[२६] सक़ीफा मे अंसार की संख्या कम होने की ओर इशारा है।[२७]
सक़ीफ़ा में अंसार के जुटने की प्रेरणा
कुछ विश्लेषकों के अनुसार अंसार का सक़ीफ़ा में इकट्ठा होना रसूले ख़ुदा (स) की वफ़ात पश्चात उनके भविष्य और भाग्य के डर का परिणाम है। विशेष रूप से मक्का की विजय के बाद, वे इस तरह से एक संयुक्त कुरैश मोर्चे के गठन के बारे में चिंतित थे जो भविष्य में उनके विरुद्ध संतुलन स्थापित करे। इस सिद्धांत के समर्थक अंसार द्वारा पैग़म्बर के उत्तराधिकारी के लिए प्रवासियों के एक समूह द्वारा तैयार की गई योजना के बारे में पता लगाने की संभावना पर विचार नहीं करते हैं।[२८]
कुछ अन्य लेखक सक़ीफ़ा के जमावड़े को इन मुद्दों का परिणाम मानते हैं:
- अंसार ने उनके त्याग और इस्लाम के रास्ते में अपने जीवन, संपत्ति और बच्चों को दान करने के कारण इस धर्म को अपने बच्चे के समान मानते थे और वो इसकी रक्षा के लिए खुद से ज्यादा योग्य और दयालु किसी को नहीं मानते थे।
- अंसार का क़ुरैश से प्रतिशोध का डर, इस तथ्य के कारण कि पैग़म्बर (स) के युद्धों में इस जनजाति के अधिकांश नेता अंसार की तलवार से मारे गए थे। इसके अलावा, पैग़म्बर (स) ने उन्हें अपने बाद के शासकों के उत्पीड़न और अत्याचार से अवगत किया था और अंसार को इस स्थिति में धैर्य रखने के लिए कहा था।
- अंसार की यह भावना कि अली (अ) के बारे में पैगम्बर (स) के शब्दों से क़ुरैश पर बोझ नहीं पड़ेगा।[२९]
कुछ अन्य लोगों के अनुसार, अबू बक्र ने आधिकारिक तौर पर मस्जिद में पैग़म्बर (स) के स्वर्गवास की घोषणा की, और मदीना की जनता ने उनके आसपास जमावड़ा करके उनके प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा की। इस प्रवृत्ति ने मदीना में मौजूद अंसार के समूह के दिमाग में अंसार से खलीफ़ा नियुक्त करने की अनुमति के बारे में संदेह पैदा किया और इस विचार का पालन करते हुए सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना का उदय हुआ।[३०]
कुरैश के बुजुर्गो और सहाबीयो की प्रतिक्रिया
अली (अ) ने पैग़म्बर के अहलेबैत, कुछ प्रवासियों और अंसार के साथ अबू बक्र के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा का विरोध किया, एतिहासिक स्रोतो के अनुसार उनमें से कुछ इस प्रकार हैं: अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब, फ़ज़्ल बिन अब्बास, ज़ुबैर बिन अवाम, ख़ालिद बिन सईद, मिक़्दाद बिन अम्र, सलमान फ़ारसी, अबू ज़र गफ़्फ़ारी, अम्मार यासिर, बराअ बिन अज़ब और इब्ने अबी काब है।[३१]
बनी उमय्या उस्मान के इर्द-गिर्द थे और बनी ज़हरा, साद और अब्दुर रहमान इब्ने औफ़ के इर्द-गिर्द थे। वे सभी बड़ी मस्जिद में इकट्ठे हुए थे, जब अबू बक्र और अबू उबैदा उनके पास आए और लोगों ने अबू बक्र के प्रति निष्ठा की शपथ ली थी। उमर ने मस्जिद में इकट्ठा हुए लोगों से कहा: तुम बिखरे हुए समूहों में क्यों इकट्ठे हुए हो? उठो और अबू बक्र के प्रति निष्ठा की शपथ लो, मैंने उनके प्रति निष्ठा की शपथ ली है। उमर के शब्दों के बाद, उस्मान इब्ने अफ़्फ़ान और बनी उमय्या के लोगों ने अबू बक्र के प्रति निष्ठा की शपथ ली। साद और अब्दुर-रहमान और वे लोग जो इन दोनों के समान धर्म के थे, उन्होंने भी ऐसा ही किया।[३२]
इनमे से कुछ सहाबीयो और कुरैश के बुजुर्गों में से कुछ ने पैग़म्बर (स) के उत्तराधिकारी बनने के लिए अबू बक्र की क्षमता की कमी की ओर भी इशारा किया है। इनमें से कुछ बयानों में शामिल हैं:
- फ़ज़ल बिन अब्बास ने अपने भाषण में कुरैश पर लापरवाही और छुपाने का आरोप लगाया और पैग़म्बर के अहले-बैत, विशेष रूप से अली को उत्तराधिकार के अधिक योग्य घोषित किया।[३३]
- सलमान फ़ारसी ने अपनी बातचीत मे मुसलमानों द्वारा सक़ीफ़ा मे निष्ठा की प्रतिज्ञा को गलत बताते हुए निष्ठा की प्रतिज्ञा पैग़म्बर (स) के अहले-बैत का अधिकार माना।[३४]
- अबू ज़र गफ़्फ़ारी घटना के दिन मदीना में नहीं थे और शहर में प्रवेश करने के बाद, उन्हें अबू बक्र के खिलाफ़त के बारे में पता चला। सूत्रों के अनुसार, उसी समय उन्होंने इस घटना के बारे में[३५] और उस्मान बिन अफ्फान के शासनकाल के दौरान भी उन्होंने विशेष रूप से अहले-बैत की वैधता के बारे में पैग़म्बर के उत्तराधिकारी के बारे में बात की।[३६]
- मिक़्दाद बिन अम्र ने सक़ीफ़ा के फ़ैसलों का पालन करने में मुसलमानों के व्यवहार को आश्चर्यजनक बताते हुए इमाम अली (अ) के अधिकार की पुष्टि की।[३७]
- उमर इब्ने ख़त्ताब ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष में एक सार्वजनिक उपदेश में कहा: "अबू बक्र के प्रति निष्ठा एक गलती थी, जो की गई और पारित हो गई, हाँ, यह ऐसा ही था, लेकिन अल्लाह ने उस गलती से लोगों को बुराई से बचाया, हर कोई इस तरह खलीफा चुने, उसे मार डालो।"[३८]
- अबू सुफ़यान जिन्हें पैग़म्बर द्वारा मदीना के बाहर काम करने के लिए भेजा गया था मदीना में प्रवेश करने के पश्चात पैग़म्बर के स्वर्गवास और सक़ीफ़ा मे निष्ठा की प्रतिज्ञा के बारे में जानने के बाद, अली (अ) और अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब की प्रतिक्रिया के बारे में पूछा। इन दोनों लोगो की खानानशीनी के बारे में जानने के पश्चात, उन्होंने कहा: "मैं अल्लाह की कसम खाता हूँ, अगर मैं उनके लिए जीवित रहा, तो मैं उनके पैरों को एक ऊँचे स्थान पर पहुँचाऊँगा।" अपनी बात जारी रखते हुए आगा कहा: "मुझे ऐसी धूल दिखाई दे रही है जिसे खून की बारिश के अलावा कोई भी नहीं बैठा सकता।[३९]" सूत्रों के अनुसार, मदीना में प्रवेश करने पर, अबू सुफियान ने अली (अ) के उत्तराधिकार होने के समर्थन में अश्आर पढ़े और साथ ही अबू बक्र और उमर की निंदा की।[४०]
- मुआविया बिन अबी सुफियान ने सक़ीफ़ा की घटना के वर्षो बाद मुहम्मद बिन अबी बक्र को लिखे एक पत्र में कहा: "... आपके पिता और उमरे उमर पहले व्यक्ति थे जिन्होने अली (अ) के अधिकार को छीना और उनका विरोध किया। इन दोनों ने मिलकर अली (अ) को अपनी निष्ठा की प्रतिज्ञा करने के लिए बुलाया। जब अली (अ) ने मना कर दिया और विरोध किया, तो उन्होंने अन्यायपूर्ण निर्णय लिए और उनके बारे में खतरनाक तरीके से सोचा ताकि परिणामस्वरूप अली उनके प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा करें।[४१]
अली (अ) की प्रतिक्रिया
सक़ीफा के दिन अली (अ) ने अबू बक्र की बैअत नहीं की और उसके बाद इतिहाकारों में बैअत (निष्ठा की प्रतीज्ञा) करने और बैअत के वक्त को लेकर मतभेद है। शिया विद्वान शेख़ मुफ़ीद (मृत्यु 413 हिजरी) के अनुसार, शिया विद्वानों का मानना है कि अली बिन अबी तालिब ने कभी भी अबू बक्र के प्रति निष्ठा (बैअत) नहीं की।[४२]
शुरूआती दिनों में जब सक़ीफ़ा के अपराधियों ने अबू बक्र के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा करने के लिए उन्हे (इमाम अली को) मजबूर करने की कोशिश की, तो अली (अ) ने उन्हें (अपराधियो) को संबोधित किया:
यहाँ! ईश्वर की क़सम, अबू कहाफ़ा के बेटे अबू बक्र ने खिलाफ़त का लबादा पहना था, जबकि वह जानता था कि खिलाफ़त में मेरी स्थिति चक्की से चक्की तक एक पत्थर की धुरी की तरह है, कि ज्ञान की बाढ़ मुझसे बाढ़ की तरह बहती है, और विचार का पक्षी मेरी स्थिति के शिखर तक नहीं पहुँचता। लेकिन मैंने खिलाफ़त को त्याग दिया, और उससे दूर हो गया, और मैंने गहराई से सोचा कि क्या मुझे एक कटे हुए हाथ और बिना किसी सहायक के लड़ना चाहिए, या अंधे अंधेरे के उस क्षेत्र को सहना चाहिए, एक ऐसा स्थान जहाँ बूढ़े थक जाते हैं, युवा बूढ़े हो जाते हैं, और आस्तिक तब तक कठिनाई झेलता है जब तक कि वह सत्य से न मिल जाए!
"मैं तुमसे ज़्यादा खिलाफ़त का हकदार हूं, मैं तुम्हारे प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा नहीं करूंगा, और तुम मेरी बैअत करने के अधिक योग्य हो। तुमने खिलाफ़त को अंसार से ले लिया, और तुमने रसूले खुदा (स) के साथ अपनी निकटता और रिश्तेदारी के कारण उनका विरोध किया और उनसे कहा: क्योंकि हम पैग़म्बर के निकट और रिश्तेदार हैं, हम आप की तुलना में खिलाफ़त के अधिक योग्य हैं, और उन्होंने आपको इस आधार पर नेतृत्व और इमामत भी दिया। मैं भी आपके साथ उसी विशेषाधिकार और विशेषता के साथ विरोध करता हूं जिसके माध्यम (अर्थात रसूले खुदा (स) के साथ निकटता और रिश्तेदारी) से तुमने अंसार का विरोध किया, अतः यदि तुम अल्लाह से डरते हो, तो निष्पक्षता के द्वार हमारे साथ आएं, और जो अंसार ने आपके लिए स्वीकार किया, आप भी उसे हमारे लिए स्वीकार करो, अन्यथा आपने जानबूझकर अत्याचार किया है।[४३]
कुछ स्रोतों के अनुसार, अली (अ) की अबू बक्र के साथ एक कोमल लेकिन स्पष्ट बहस थी, जिसके दौरान उन्होंने अबू बक्र की सक़ीफा की घटना में उल्लंघन के लिए पैग़म्बर (स) के अहले-बैत के अधिकार की अनदेखी करने की निंदा की। अमीरुल मोमिनीन की दलीलों को स्वीकार कर अबू बक्र परिवर्तित हुआ और एक सीमा तक अली (अ) को उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार किया। परंतु अपने कुछ साथीयो के साथ परामर्श करके अली (अ) को उत्तराधिकारी स्वीकारने से पीछे हट गया।[४४]
अली (अ) ने कई मौकों पर और कई धर्म उपदेशो में सक़ीफ़ा मामले का विरोध किया है और इस्लाम के पैग़म्बर के उत्तराधिकारी होने के अपने अधिकार को याद दिलाया है। खुत्बा ए शक़्शक़ीया उन्ही खुत्बो में से एक है जिसमें उन्होंने इस घटना का उल्लेख किया है। इस धर्म उपदेश (ख़ुत्बा) की शुरुआत में, उन्होंने कहा: "मैं अल्लाह की कसम खाता हूं, अबी कह़ाफ़ा के बेटे (अबू बक्र) ने खिलाफ़त को एक शर्ट की तरह जबरन पहना था, जबकि वह इस बात को भली भाती जानता है कि मैं खिलाफ़त के लिए चक्की की धुरी की तरह हूं, और मुझ से ज्ञान और सदाचार बाढ़ की तरह प्रवाहित होता है, और हवा मे उड़ने वाले पक्षी मेरी हैसियत की ऊंचाई तक नहीं पहुँचते।"[४५]
कुछ अन्य स्रोतों के अनुसार, सक़ीफ़ा की घटना के बाद हज़रत ज़हरा (स) के जीवन मे हज़रत अली (अ) पैग़म्बर की बेटी को सवारी पर सवार करके अंसार के घरो और उनकी बैठको पर ले जाते और पैग़म्बर की बेटी उनसे मदद करने का आग्रह करती तो जवाब मिलता "हे पैग़म्बर की बेटी! हमने अबू बक्र के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा की है, अगर पहले अली आ गए होते तो हम उनसे मुंह नहीं मोड़ते। अली (अ) जवाब मे फ़रमाते: क्या पैग़म्बर (स) को दफन न करके खिलाफ़त के बारे में बहस करता?[४६]
फ़ातिमा ज़हरा (स) की प्रतिक्रिया
- यह भी देखें: हज़रत फ़ातिमा (स) का घर
खिलाफ़त, जिसे पैग़म्बर के जीवन के अंतिम दिनों के दौरान कई लोगों ने अली इब्ने अबी तालिब के अधिकार के रूप में मान्यता दी थी, उनके हाथों से निकल गई और दूसरों के बीच हाथ से हाथ में चली गई, और अली (अ) ने भी फ़ातिमा की मृत्यु के तुरंत बाद निष्ठा की प्रतिज्ञा की, चाहे वह चाहते थे या नहीं।[४७]
सक़ीफ़ा की घटना के बाद फ़ातिमा ज़हरा (स) ने इसका और इसके परिणामों का विरोध किया और इसे पैग़म्बर (स) के आदेशों का उल्लंघन घोषित किया। इन आपत्तियों में हज़रत फ़ातिमा (स) द्वारा अली (अ) से बैअत (निष्ठा की शपथ) लेने और उनके घर की घेराबंदी से संबंधित घटनाओं के दौरान हज़रत की ज़बाने मुबारक से निकले शब्द हैं।[४८] और एक धर्म उपदेश जिसे ख़ुत्बा ए फदकिया कहा जाता है, जो पैग़म्बर (स) की बेटी ने मदीना की मस्जिद में दिया गया।[४९]
ऐतिहासिक रिपोर्टों के अनुसार जब हज़रत ज़हरा (स) ने अपने जीवन के अंतिम दिन गुज़ार रही थी मुहाजिर और अंसार की महिलाए हज़रत फ़ातिमा (स) की अयादत के लिए आई तब भी उन्होने सक़ीफ़ा को पैग़म्बर (स) के आदेशो का उल्लंघन बताते हुए भविष्य मे इस्लाम को होने वाले नुकसान के बारे में अवगत किया।[५०]
मुस्तशरेक़ीन (ओरिएंटलिस्ट) के दृषिटकोण से सक़ीफ़ा
- हेनरी लैमेंस Henri Lamans और त्रिकोण की शक्ति का सिद्धांत: बेल्जियम के एक सिद्धांतकार हेनरी लेमेंस (1862-1937 ई) ने "अबू बक्र, उमर और अबू उबैदा; त्रिकोण की शक्ति " नामक लेख मे दावा किया कि इन तीन लोगों का साझा लक्ष्य और निकट सहयोग पैग़म्बर (स) के जीवनकाल मे शुरू हुआ और उसने अबू बक्र और उमर के खिलाफ़त स्थापित करने की शक्ति दी, और अगर अबू उबैदा की उमर की खिलाफ़त मे मृत्यु न हुई होती तो निश्चित रूप से उमर द्वारा अगला खलीफ़ा नियुक्त होता। एक दावे के बाद, उनका मानना है कि अबू बक्र और उमर की बेटियां आयशा और हफ्सा -जो पैग़म्बर की पत्नियां थीं- ने अपने पतियों को हर कदम और गुप्त विचारों के बारे में अपने पिता को सूचित किया, और ये दोनों (अबू बक्र और उमर) प्रभाव डालने में सफल रहे। पैग़म्बर (स) के कार्य, और इसी तरीके से उन्होंने सत्ता हासिल करने की कोशिश की थी।[५१]
- लियोन कैटानी Leone Caetani का सिद्धांतः इतालवी ओरिएंटलिस्ट लियोन कैटानी ने अपनी किताब तारीखे इस्लाम मे प्रारंभिक चर्चाओं में अबू बक्र और बनी हाशिम के बीच विवाद की गहराई का उल्लेख किया है और पैग़म्बर (स) के स्वर्गवास के कुछ घंटो के बाद सक़ीफ़ा बनी साएदा में अंसार के खिलाफ अबू बकर की खिलाफ़त के दावे पर आश्चर्य व्यक्त किया है। अबू बक्र द्वारा उत्तराधिकार और क़ुरैश का पैग़म्बर (स) का क़बीला होने के नाते अंसार पर प्राथमिकता रखने से संबंधित बयान की जाने वाली रिवायतो को कैटानी ने आम रिवायतो को खारिज करते हुए खिलाफ़त के लिए अली के दावे की संभावित गंभीरता की पुष्टि की है। क्योंकि इस तर्क मे अली (अ) को पैग़म्बर के सबसे करीबी रिश्तेदार होने की पुष्टि करता है। उनकी राय में यदि मुहम्मद (स) अपने लिए एक उत्तराधिकारी चुनते, तो शायद अबू बक्र को किसी और के ऊपर प्राथमिकता देने की संभावना थी, किंतु इसके बावजूद तारीखे इस्लाम के बाद के संस्करणों में से एक में, कैटानी ने लैमेंस के सिद्धांत "अबू बकर, उमर और अबू उबैदा, त्रिकोण की शक्ति " को खिलाफ़त के बारे मे होने वाले मतभेदो मे से सबसे उपयुक्त सिद्धांत कहा है।[५२]
- विलफर्ड फर्डिनेंड मैडलुंग Wilferd Ferdinand Madelung: अपनी किताब पैग़म्बर इस्लाम का उत्तराधिकारी Succession of the Prophet of Islam में इस मुद्दे पर चर्चा की है। अधिकांश इतिहासकारों के विश्वास के विपरीत उसका मानना है कि मुसलमानों के खलीफा को निर्धारित करने के लिए शुरू में सकीफा परिषद की स्थापना नहीं की गई थी और चूंकि पैग़म्बर के उत्तराधिकारी के रूप में इस्लामी समाज में कोई उदाहरण नहीं था, तो अंसार का इस कार्य के लिए एकत्रित होना कुछ समझ मे नही आता।[५३] मैडलुंग का मानना है: अंसार, इस अवधारणा के मद्देनजर कि पैग़म्बर (स) के स्वर्गवास के साथ उनकी निष्ठा भी समाप्त हो गई है और इस्लामी समाज का पतन संभव है, इसलिए प्रवासियों से परामर्श किए बिना, अंसार ने अपने स्वयं के नेताओं में से एक को मदीना शहर के मामलो को अपने हाथों में लेने के लिए चुना।[५४] अंसार की अवधारणा यह थी कि अब मुहाजेरीन के लिए मदीना में रहने का कोई कारण नहीं है और वे अपने शहर मक्का लौट जाएंगे और जो रहना चाहते हैं वे अंसार की सरकार को स्वीकार करेंगे।[५५]
वह इस गंभीर परिकल्पना को सामने रखता है कि केवल अबू बक्र और उमर का मानना था कि पैग़म्बर (स) का उत्तराधिकारी सभी अरबों का शासक है और खिलाफ़त केवल कुरैश के लिए उपयुक्त है।[५६] मैडलुंग का मानना है कि अबू बक्र ने पैग़म्बर (स) के स्वर्गवास से पहले खिलाफत का पद ग्रहण करने का फैसला किया था और इसे हासिल करने के लिए अपने शक्तिशाली विरोधियों को रास्ते से हटाने का फैसला किया।[५७] इन विरोधियों के मुखिया पैग़म्बर (स) के अहले-बेत थे, जिन्हें कुरान में अन्य मुसलमानों की तुलना में उच्च पद दिया गया था।[५८] सक़ीफा बैठक आयोजित करने में अंसार की पहल ने अबू बक्र को अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक उपयुक्त अवसर प्रदान किया। सबसे पहले, उमर और अबू उबैदा को उत्तराधिकार के लिए उम्मीदवारों के रूप में आगे रखा, यह स्पष्ट है कि यह प्रस्ताव गंभीर नहीं था और केवल इसका उद्देश्य भीड़ के बीच एक तर्क पैदा करने के लिए ताकि मामला अंततः उसके पक्ष में समाप्त हो जाए।[५९]
मैडलुंग के अनुसार, सुन्नियों और पश्चिमी विद्वानों का यह तर्क - अली (अ) अबू बक्र और उमर जैसे अन्य सहाबियो की तुलना में अपनी युवावस्था और अनुभवहीनता के कारण गंभीर स्वयंसेवक नहीं थे पूरी तरह से ग़लत है, और अली (अ) का ज़िक्र न होने के लिए अबू बक्र की ओर से अन्य कारण पेश किए गए है।[६०]
शियों के दृष्टिकोण से सक़ीफ़ा की घटना
शियों के अनुसार, सकिफ़ा का जमावड़ा और उसके परिणाम पैग़म्बर (स) के बाद इमाम अली (अ) के उत्तराधिकार के बारे में स्पष्ट निर्देशों का उल्लंघन है। सक़ीफ़ा की वैधता को अस्वीकार करने और पैग़म्बर के उत्तराधिकार के रूप मे अली (अ) की वैधता साबित करने के लिए, शियों ने कुरआन की कुछ आयतों, ऐतिहासिक घटनाओं और परंपराओं की व्याख्या का हवाला दिया है जो कुरआन में भी पाए जाते हैं। सुन्नी स्रोत और उनमें से सबसे महत्वपूर्ण ग़दीर की घटना और उससे संबंधित रिवायते हैं। शियों के अनुसार, ग़दीरे ख़ुम की घटना में पैग़म्बर ने मुसलमानों के लिए अपने मिशन की पूर्ति के रूप में अली (अ) के उत्तराधिकार की घोषणा की।[६१]
मुहम्मद रज़ा मुज़फ़्फ़र ने विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं से संबंधित 17 मुतावातिर या प्रसिद्ध रिवायतो का वर्णन किया है, जिसमें पैग़म्बर ने स्पष्ट रूप से या विडंबनापूर्ण रूप से उनके बाद अली (अ) के उत्तराधिकार का उल्लेख किया है। इंज़ारे अशीरा (जनजाति को चेतावनी देने) की घटना, ग़दीर की घटना, अक़्दे उखूवत (भाईचारे का समझौता), ख़ंदक़ और खैबर की लड़ाई, और खासेफुन नाअलैन, हदीस मदीनातुल इल्म, वेसायत, और "इन्ना अलीयन मिन्नी वा अना मिन अली, वा होवा वलीयुन कुल्ला मोमेनिन बादी" जैसी हदीसें उनमें हैं।[६२] आय ए विलायत, आय ए ततहीर, आय ए मुबाहेला भी वह आयतें हैं शिया धर्मशास्त्रियों ने जिनका हवाला देते हुए पैग़म्बर (स) के बाद इमाम अली (अ) के उत्तराधिकार को साबित करने के लिए बयान किया है।[६३]
परिणाम
कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि पैग़म्बर (स) के स्वर्गवास के बाद की कई ऐतिहासिक घटनाएं सक़ीफ़ा की घटना का परिणाम हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण घटनाएँ निम्नलिखित हैं:
- हज़रत फ़ातिमा (स) के घर पर हमलाः अबू बक्र की खिलाफ़त के समर्थको के अनुसार साक़ीफा बनी साएदा की घटना और इमाम अली (अ) सहित कुछ सहाबीयो द्वारा अबू बक्र के प्रति निष्ठा की शपथ लेने से मना करने के बाद हज़रत अली (अ) से बैयत लेने हज़रत फ़ातिमा के घर पर हमला किया।[६४] शियों के अनुसार हज़रत फ़ातिमा इस घटना में घायल होने के परिणामस्वरूप शहीद हो गई।[६५]
- फ़दक की ज़ब्तीः कुछ ऐतिहासिक विश्लेषकों का मानना है कि सक़ीफ़ा के बाद फ़ातिमा (स) से फ़दक ज़ब्त करने का उद्देश्य अहल-बैत के साथ आर्थिक संघर्ष करना था। इस कार्रवाई ने पहले खलीफा की सरकार की नींव को मजबूत किया और पैग़म्बर (स) के परिवार को लड़ने और विरोध करने से रोका।[६६]
- कर्बला की घटनाः कुछ लोगों के अनुसार सक़ीफ़ा में पैग़म्बर के उत्तराधिकार के मार्ग में बदलाव के कारण खलीफा का चयन किसी भी कानून का पालन नहीं करने के कारण हुआ। इसलिए, मुसलमानो के ख़लीफ़ा ने अंसार और कुरैश के कुछ लोगों के बीच, एक दिन पहले खल़ीफ़ा की वसीयत, एक दिन छह सदस्यीय परिषद और एक दिन मुआविया और यज़ीद के प्रति निष्ठा ली। यज़ीद कर्बला की घटना का कारण बना।[६७] शिया विद्वान सय्यद मोहम्मद हुसैन तेहरानी (1345-1416 हिजरी) ने अली (अ) के बारे में क़ाज़ी अबी बक्र बिन अबी कुरैय्या की कविया की पक्ति و اَریتکم ان الحسین اصیب فی یوم السقیفة वा अरीतकुम इन्नल हुसैना ओसीबा फ़ी यौमिस सक़ीफ़ा" की व्याख्या मे कहा यदि उन्होंने अली की खिलाफत को हड़प नहीं लिया होता, तो हरमला का तीर अली असगर के गले तक नहीं पहुंचता।[६८] इसके अलावा एक दूसरे शिया विद्वान मुहम्मद हुसैन ग़रवी इस्फहानी (1296-1361 हिजरी) ने एक कविता में इस विषय को व्यक्त किया है:
जिसका अनुवाद इस प्रकार हैः हरमला ने तीर नहीं चलाया, बल्कि जो उसका कारण बना है उसने तीर चलाया, एक तीर सकीफा से निकला जिसका धनुष खलीफा के हाथ में था और यह तीर किसी बच्चे के गले पर नहीं लगा बल्कि पैग़म्बर (स) और दीन के दिल मे धंस गया।[६९]
सक़ीफ़ा और इज्मा
- मुख्य लेखः इज्माअ (आम सहमती का सिद्धांत)
सुन्नियों के अनुसार अहकाम को प्राप्त करने के स्रोतों में से एक इज्मा है, जिसे सक़ीफ़ा की घटना मे अबू बक्र के चयन की वैधता के कारणों में से एक कारण शुमार किया गया है।[७०]
कुछ शिया विद्वानों के विश्वास के अनुसार, सुन्नियों ने अबू बक्र की संप्रभुता और खिलाफ़त को वैध बनाने के लिए उम्मत के इज्मा (उम्मत की आम सहमति) पर भरोसा किया।[७१] वो इमामते आम्मा और इमामते ख़ास्सा मे सार्वजनिक रूप से लोगों की आम सहमति को सही समझते है। और यह शियों के अक़ीदा ए इस्मत जिसमे इमाम का मासूम होना शर्त है के विपरीत है।[७२] इन शोधकर्ताओं के अनुसार, आम सहमति (इज्माअ) का विचार सक़ीफ़ा की घटना और अबू बक्र की खिलाफ़त के खिलाफ़ एक प्रतिक्रिया है और इसे अन्य शिक्षाओं जैसे इमामते आम्मा और न्यायशास्त्र के मुद्दों में प्रथागत बनाना इस विश्वास को बढ़ावा देने के लिए है।[७३]
मोनोग्राफ़ी
सक़ीफ़ा की घटना का उल्लेख इस्लामी ऐतिहासिक स्रोतों में मिलता है, तारिख तबरी, तारिख़ याकूबी आदि पुस्तकों में इस घटना का उल्लेख किया गया है और इसके विवरण का उल्लेख किया गया है। विद्वानों ने विश्लेषण के साथ-साथ इस मुद्दे को भी विशेष रूप से संबोधित किया है, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
- अल-सक़ीफ़ाः तीसरी शताब्दी हिजरी मे जीवन व्यतीत करने वाले अबीसालेह अल-सलिल इब्न अहमद इब्न ईसा द्वारा लिखित है।
- अल-सक़ीफ़ा बा बैयते अबी बक्रः मुहम्मद बिन उमर वाक़्दी (130-207 हिजरी) द्वारा लिखित।
- अल-सक़ीफ़ाः अबी मख़्नफ़ लूत बिन यहया बिन सईद (मृत्यु 157 हिजरी) द्वारा लिखित।
- सक़ीफ़ा वा इख़्तेलाफ दर ताईने ख़लीफ़ाः सहाब बिन मुहम्मद ज़मान तफ़रशी द्वारा लिखित और 1334 में तेहरान से छपी।
- सक़ीफ़ाः अबी ईसा अल-वर्राक़ की रचना है।[७४]
- अल-सक़ीफ़ाः मुहम्मद रज़ा मुज़फ़्फ़र द्वारा लिखित।
- जानशीनी ए मुहम्मद: विलफर्ड मैडलुंग
- सक़ीफ़ाः पैग़म्बर (स) के स्वर्गवास के बाद सरकार के गठन की जांच, लेखक: मुर्तजा अस्करी।
- अल-सक़ीफ़ा वल ख़िलाफ़ाः अब्दुल फ़त्ताह अब्दुल मक़सूद द्वारा लिखित।
- अल-सक़ीफ़ा वा फ़दकः अहमद बिन अब्दुल अज़ीज़ जोहरी बसरी द्वारा लिखित।
- मोअतमेरुस सक़ीफ़ाः इस्लाम के राजनीतिक इतिहास में खतरनाक दुर्घटना का विषयगत अध्ययन: बाकिर शरीफ़ क़रशी।
- मोअतमेरूस सक़ीफ़ा नज़्रतुन जदीदा फ़ी तारीख ए इस्लामीः सय्यद मुहम्मद तीजानी समावी।
- ना गुफ़्तेहाए अज़ सक़ीफ़ा (रूइ कर्दहा, पयामदहा वा वाक्नुशहा) नजमुद्दीन तब्सी द्वारा लिखित।
फ़ुटनोट
- ↑ याक़ूत हमवी, मोजम उल-बुलदान, दारे सादिर, भाग 3, पेज 228-229
- ↑ रजबी दवानी, तहलील वाकेया ए सक़ीफ़ा बनी साएदा बा रूईकर्द बे नहजुल बलागा, 1393 शम्सी, पेज 80
- ↑ मैडलुंग, जानशीनी ए मुहम्मद, 1377 शम्सी, पेज 47
- ↑ इब्ने क़तीबा, अल-इमामा वस सियासा, 1410 हिजरी, भाग 1, पेज 22
- ↑ इब्ने क़तीबा, अल-इमामा वस सियासा, 1410 हिजरी, भाग 1, पेज 22
- ↑ इब्ने असीर, अल-कामिल फ़ी तारीख़, दारे सादिर, भाग 2, पेज 327
- ↑ इब्ने असीर, अल-कामिल फ़ी तारीख़, दारे सादिर, भाग 2, पेज 325
- ↑ तबरी, तारीख़ उल-उमम वल मुलूक, 1387 हिजरी, भाग 3, पेज 206
- ↑ तबरी, तारीख़ उल-उमम वल मुलूक, 1387 हिजरी, भाग 3, पेज 206
- ↑ इब्ने क़तीबा, अल-इमामा वस सियासा, 1410 हिजरी, भाग 1, पेज 27
- ↑ इब्ने क़तीबा, अल-इमामा वस सियासा, 1410 हिजरी, भाग 1, पेज 22
- ↑ तबरी, तारीख़ उल-उमम वल मुलूक, 1387 हिजरी, भाग 3, पेज 202
- ↑ इब्ने क़तीबा, अल-इमामा वस सियासा, 1410 हिजरी, भाग 1, पेज 25
- ↑ ज़मख़्शरी, अल-फ़ाइक़ फ़ी गरीब इल हदीस, दार उल कुतुब उल-इल्मिया, भाग 3, पेज 73
- ↑ इब्ने क़तीबा, अल-इमामा वस सियासा, 1410 हिजरी, भाग 1, पेज 5
- ↑ याक़ूबी, तारीख़े याक़ूबी, दारे सादिर, भाग 2, पेज 123
- ↑ तबरी, तारीख़ उल-उमम वल मुलूक, 1387 हिजरी, भाग 3, पेज 202
- ↑ याक़ूबी, तारीख़े याक़ूबी, दारे सादिर, भाग 2, पेज 123
- ↑ याक़ूबी, तारीख़े याक़ूबी, दारे सादिर, भाग 2, पेज 123
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- ↑ मैयर वा दिगरान, बर- रसी ए तासीरे ऐज़ामे लशकरे उसामा बर चेगूनगी ए मुशारकते सियासी नुखबेगान मुहाजिर वा अंसार दर सक़ीफ़ा, पेज 155
- ↑ बैज़ून, रफतार शनासी इमामे अली (अ), 1379 शम्सी, पेज 29-30
- ↑ मुज़फ़्फ़र, अल-सक़ीफ़ा, 1415 हिजरी, पेज 95-97
- ↑ इब्ने कसीर, अल-बिदाया वन निहाया, 1408 हिजरी, भाग 5, पेज 265
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- ↑ इब्ने क़ुतैबा, अल इमामत व अल सियासत, 1990 ईस्वी, खंड 1, पृष्ठ 28।
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- ↑ जोहरी बसरी, अल-सक़ीफ़ा वा फ़दक, मकतबातुन नबावीया अल-हदीसा, पेज 42
- ↑ जोहरी बसरी, अल-सक़ीफ़ा वा फ़दक, मकतबातुन नबावीया अल-हदीसा, पेज 42
- ↑ याक़ूबी, तारीख़े याक़ूबी, दारे सादिर, भाग 2, पेज 171
- ↑ असकरी, सक़ीफ़ाः बर रसी नहवे शकल गीरी हकूमत पस अज़ रेहलते पयामबर, 1387 शम्सी, पेज 76
- ↑ तबरी, तारीख़ उल-उमम वल मुलूक, 1387 हिजरी, भाग 3, पेज 205; बलाज़री, अनसाब उल-अशराफ़, मोअस्सेसा ए आलमी लिल मतबूआत, भाग 1, पेज 581; मुक़द्देसी, अल-बदा वा तारीख, मकतबातुस सक़ाफ़ा अल-दीनी, भाग 5, पेज 190
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- ↑ इब्ने अबिल हदीद, शरह नहजुल बलागा, मकतब आयतुल्लाह मरअशी नजफी, भाग 6, पेज 17
- ↑ नस्र बिन मुज़ाहिम, वकअतो सिफ़्फ़ीन, मकतब आयतुल्लाह मरअशी अल-नजफी, पेज 119-120
- ↑ शेख मुफ़ीद, अल-फुसूल अलमुख्तारोह, 1413 हिजरी, पेज 56
- ↑ इब्ने अबिल हदीद, शरह नहजुल बलागा, मकतब आयतुल्लाह मरअशी नजफी, भाग 6, पेज 11
- ↑ देखेः तबरसी, अल-एहतेजाज, नश्रुल मुर्तजा, भाग 1, पेज 115-130
- ↑ इब्ने अबिल हदीद, शरह नहजुल बलागा, मकतब आयतुल्लाह मरअशी नजफी, भाग 1, पेज 15
- ↑ इब्ने क़तीबा, अल-इमामा वस सियासा, 1410 हिजरी, भाग 1, पेज 29-30; इब्ने अबिल हदीद, शरह नहजुल बलागा, मकतब आयतुल्लाह मरअशी नजफी, भाग 6, पेज 13
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- ↑ इब्ने क़तीबा, अल-इमामा वस सियासा, 1410 हिजरी, भाग 1, पेज 75
- ↑ तेजानी, मोअतमेरुल सक़ीफ़ा, 1424 हिजरी, भाग 1, पेज 75
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- ↑ लैमेंस, त्रिकोण शक्ति, अबू बक्र, उमर, अबू उबैदा, पेज 126, बे नक़ल अज़ मैडलुंग, जानशीनी ए मुहम्मद, 1377 शम्सी, पेज 15
- ↑ देखेः मैडलुंग, जानशीनी ए मुहम्मद, 1377 शम्सी, पेज 17-18
- ↑ मैडलुंग, जानशीनी ए मुहम्मद, 1377 शम्सी, पेज 51
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- ↑ मैडलुंग, जानशीनी ए मुहम्मद, 1377 शम्सी, पेज 62
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- ↑ देखेः इब्ने अब्दुर बह, अल-अक़्दुल फ़रीद, दार उल-कुतुब उल-इल्मीया, भाग 5, पेज 13
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- ↑ असकरी, सक़ीफ़ाः बर रसी नहवे शकल गीरी हकूमत पस अज़ रेहलते पयामबर, 1387 शम्सी, पेज 115
- ↑ दाऊदी वा रुसतम निज़ाद, आशूरा, रीशेहा, अंग़ीज़ेहा, रूईदादहा, पयामदहा, 1388 शम्सी, पेज 126
- ↑ तेहरानी, इमाम शनासी, 1416 हिजरी, भाग 8, पेज 67
- ↑ बे नक़ल अज़ः दाऊदी वा रुसतम निज़ाद, आशूरा, रीशेहा, अंग़ीज़ेहा, रूईदादहा, पयामदहा, 1388 शम्सी, पेज 126
- ↑ हुसैनी ख़ुरासानी, बाज़कावी दलील ए इज्मा, 1385, पेज 19-57
- ↑ हुसैनी ख़ुरासानी, बाज़कावी दलील ए इज्मा, 1385, पेज 19-57
- ↑ हुसैनी ख़ुरासानी, बाज़कावी दलील ए इज्मा, 1385, पेज 19-57
- ↑ हुसैनी ख़ुरासानी, बाज़कावी दलील ए इज्मा, 1385, पेज 19-57
- ↑ आग़ा बुज़ुर्ग तेहरानी, अल-ज़रीया, दार उल अज़्वा, भाग 12, पेज 205-206
- ज़र्रीन कूब, बामदादे इस्लाम, 1369 शम्सी, पेज 71
स्रोत
- आग़ा बुज़ुर्ग तेहरानी, मुहम्मद मोहसिन, अल-ज़रीआ एला तसानीफ अल-शिया, गिर्द आवारंदेः अहमद बिन मुहम्मद हुसैनी, बैरूत, दार उल अज़्वा
- इब्ने अबिल हदीद, अब्दुल हमीद बिन हैबातुल्लाह, शरह नहजुल बलागा, शोधकर्ताः इब्राहीम, मुहम्मद अबुल फ़ज़्ल, क़ुम, मकतबा आयतुल्लाह मरअशी अल नजफी
- इब्ने असीर, अली बिन मुहम्मद, अल-कामिल फ़ी तारीख, बैरूत, दारे सादिर
- इब्ने अब्दुर बह, अहमद, अल अक़्दुल फरीद, दार उल कुतुब उल इल्मीया
- इब्ने कसीर, इस्माईल बिन उमर, अल बिदाया वन निहाया, शोधः अली शीरी, बैरूत, दार ए एहयाइत तुरास अल अरबी, 1408 हिजरी
- इब्ने क़तीबा, अब्दुल्लाह बिन मुस्लिम, अल-इमाम वस सियासा, शोधः अली शीरी, बैरूत, दार उल अज़्वा, 1410 हिजरी
- अरबेली, अली बिन ईसा, कशफुल गुम्मा फी मारफतिल आइम्मा, शोधः सय्यद हाशिम रसूली महल्लाती, तबरेज, मकतब बनी हशिमी, 1381 हिजरी
- बलाजरी, अहमद बिन याह्या, अनसाब उल अशराफ, शोधकर्ताः मुहम्मद बाकिर महमूदी, अहसान अब्बास, अब्दुल अज़ीज दूरी, मुहम्मद हमीदुल्लाह, बैरूत, मोअस्सेसा ए अल आलमी लिल मुतबूआत
- बैज़ून, इब्राहीम, रफतार शनासी इमाम अली (अ), अनुवादः अली असगर मुहम्मदी सीतजानी, तेहरान, दफतरे नश्रे फरहंगे इस्लामी, 1379 शम्सी
- तेहरानी, सय्यद मुहम्मद हुसैन, इमाम शनासी, मशहद, अल्लामा तबातबाई, तीसरा प्रकाशन, 1426 हिजरी
- तेजानी, मुहम्मद, मोतमेरुल सक़ीफ़ा, लंदन, मोअस्सेसा ए फज़्र, 1424 हिजरी
- जोहरी बसरी, अहमद बिन अब्दुल अज़ीज़, अल सक़ीफ़ा वल फ़दक, शोधकर्ताः मुहम्मद हादी अमीनी, तेहरान, मकतब नैनवी अल हदीसी
- हमवी, याक़ूत बिन अब्दुल्लाह, मोजम उल बुलदान, बैरूत, दार सादिर, 1995 ई
- ज़र्रीन कूब, अब्दुल हुसैन, बामदादे इस्लाम, तेहरान, अमीर कबीर, 1369 शम्सी
- ज़मख़्शरी, महमूद बिन उमर, अल-फ़ाईक़ फ़ी ग़रीबइल हदीस, दार उल कुतुब उल इल्मीया, बैरूत, मनशूराते मुहम्मद अली बैजून
- शेख मुफ़ीद, मुहम्मद बिन मुहम्मद, अल-फ़ुसूल अल-मुख़्तारोह, संशोधनः अली मीर शरीफी, कुम, कुंगरा ए शेख मुफीद, 1413 हिजरी
- तबरसी, अहमद बिन अली, अल-एहतेजाज, संशोधनकर्ताः मूसवी खिरसान, मुहम्मद बाकिर, मशहद, नश्रुल मुर्तजा
- तबरी इमामी, मुहम्मद बिन जुरैर, दला ए लुल इमामा, कुम, मोअस्सेसा ए बेसत, 1413 हिजरी
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- असकरी, मुर्तजा, सक़ीफ़ा, बर रसी नहवे शकल गीरी हुकूमत पस अज़ रहलते पयामबर, बे कोशिशः महदी दश्ती, क़ुम, दानिश कदे उसूले दीन, 1387 शम्सी
- मैडलुंग, वैल्फर्ड, जानशीनी ए हजरत मुहम्मद (स), अनुवादकः अहमद नेमाई, मुहम्मद जवाद महदवी, जवाद क़ासमी, हैदर रजा ज़ाबित, मशहद, बुनयादे पुजूहिश हाए इस्लामी आस्ताने क़ुद्से रजवी, 1377 शम्सी
- मुज़फ़्फ़र, मुहम्मद रज़ा, अल-सक़ीफ़ा, मुकद्दमा महमूद मुज़फ़्फ़र, कुम, मोअस्सेसा ए अंसारीयान लित तबाअते वन नश्र, 1415 हिजरी
- मईर, ज़ीबा वा हुसैन मुफ़तखेरी, सादिक आइना वंद, अली रजब लू, बर रसी तासीरे एज़ामे लशकरे उसामा बर चेगूनगी मुशारकते सियासी नुखबेगान मुहाजिर वा अंसार दर सक़ीफ़ा वा तसबीते खिलाफत, मुतालेआते तारीखे इस्लाम, क्रमांक 17, पांचवा साल, ताबिस्तान 1392 शम्सी
- मिनक़री, नस्र बिन मुजाहिम, वक़्अतो सिफ़्फ़ीन, कुम, मकतब आयतुल्लाह मरअशी अल- नजफी, 1404 हिजरी
- नीर तबरेज़ी, दीवान ए आतिशकदे, किताब फरोशी हातिफ, तबरेज, 1319 शम्सी
- याकूबी, अहमद बिन इस्हाक़, तारीखे याक़ूबी, बैरूत, दारे सादिर
- मुक़द्दसी, मुताहर बिन ताहिर, अल-बदा वत तारीख, मकतब अल-सक़ाफ़ा अल-दीनी