आयत ए तब्लीग़

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(आय ए तबलीग़ से अनुप्रेषित)
आयत ए तब्लीग़
आयत का नामआयत ए तब्लीग़
सूरह में उपस्थितसूर ए माएदा
आयत की संख़्या67
पारा6
शाने नुज़ूलअमीरुल मोमिनीन (अ) पैग़म्बर (स) के उत्तराधिकारी
नुज़ूल का स्थानमक्का
विषयएतेक़ादी
अन्यग़दीर की घटना
सम्बंधित आयातआय ए इकमाल और आय ए वेलायत

आयत ए तब्लीग़, (अरबी: آیة التَّبليغ) सूर ए माएदा की 67वीं आयत और पैगंबर (स) पर नाज़िल होने वाली आख़िरी आयत है। इस आयत के अनुसार इस्लाम के पैगंबर (स) लोगों को एक संदेश देने के लिए बाध्य थे, और यदि वह इस संदेश को लोगो तक देने में विफल रहते, तो ऐसा था जैसे उन्होंने रिसालत के मिशन को पूरा नहीं किया।

शिया और कुछ सुन्नियों के दृष्टिकोण से हिजरी के 10 वें वर्ष अलविदाई हज के अवसर पर इस्लामी कैलेंडर के आख़िरी महीने की 18 तारीख़ से कुछ पहले नाज़िल हुई। शिया मान्यता में संदेश का विषय हज़रत अली (अ) की ख़िलाफ़त है जिसे पैगंबर (स) ने आयत के आने के बाद अंजाम दिया।

आयत का पाठ और अनुवाद

يَا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ ۚ وَاللَّـهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ إِنَّ اللَّـهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ

या अय्योहर रसूलो बल्लिग़ मा उंज़िले इलैका मिर्रब्बिका वा इल्लम तफ़्अल फ़मा बल्लग़ता रिसालताहू वल्लाहो यासिमुका मिनन्नासे इन्नल लाहा या याह्दिल कौमल काफ़ेरीना

अनुवादः हे रसूल! जो कुछ तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी ओर उतारा गया है। इसे (लोगों तक) पहुँचा दो और यदि आप ऐसा नहीं करते हैं, (तो यह माना जाएगा) कि आपने उसका कोई संदेश पहुंचाया ही नहीं। और अल्लाह आप को लोगो की षड़यंत्र से बचा लेगा, बेशक अल्लाह काफ़िरों को हिदायत नहीं करता।

शाने नुज़ूल

मुख्य लेख: ग़दीर की घटना

मुफ़स्सेरीन का कहना है कि यह आयत इस्लामी कैलेंडर के आख़िरी महीने ज़िल हिज की 18 तारीख़ को पैगंबर पर ग़दीरे ख़ुम के क्षेत्र मे अंतिम हज से वापसी पर नाज़िल हुई।[१] सुन्नियों के स्रोतों में भी ऐसी कुछ रिवायते हैं जो ग़दीरे ख़ुम में इस आयत के नुज़ूल को बताती है।[२] शिया विद्वान आइम्मा (अ) और कुछ सहाबीयो की रिवायतो पर भरोसा करते हुए, आयत ए तब्लीग़ की शाने नुज़ूल को ग़दीर की घटना और अमीरुल मोमिनीन के उत्तराधिकारी बनाये जाने की घोषणा के रूप में मानते हैं।[३] सुन्नी विद्वान भी आयत ए तब्लीग़ के नुज़ूल को पैगंबर की रिसालत का आरम्भ अथवा इस्लाम पहुचाने के आपके दायित्व के रूप मे भी मानते हैं।[४]

शिया स्रोतों के अनुसार, जिब्राईल (अ) सबसे पहले अंतिम हज मे हज के अवसर पर पैगंबर (स) के पास आए और हज़रत अली (अ) की जानशीनी के लिए लोगों से निष्ठा की शपथ लेने के लिए कहा, लेकिन पैगंबर (स) को क़ुरैश की दुश्मनी और पाखंडता और अमीरल मोमेनीन (अ) से उनके हसद के बारे मे जो ज्ञान था और विभाजन और जाहेलियत की ओर पलटने के ख़तरे को देखते थे इसे ध्यान मे रखते हुए अल्लाह तआला से शांति और सुरक्षा की दुआ की।

जिब्राईल (अ) दूसरी बार मस्जिद ए ख़ीफ़ के मक़ाम पर पैगंबर (स) पर नाज़िल हुए और आपसे दूसरी बार इसी संदेश को लोगो तक पहुंचाने का तक़ाज़ा किया लेकिन इस बार भी जिब्राईल लोगो से शांति और सुरक्षा की ज़मानत के बिना नाज़िल हुए।

जिब्राईल (अ) तीसरी बार मक्का और मदीना के बीच मे इसी संदेश के साथ नाज़िल हुए और वही आदेश दोहराया। जिसके जवाब मे रसूल अल्लाह ने फ़रमायाः मुझे इस बात का भय है कि लोग अली की उत्तराधिकारी के आदेश को झूठ समझे और मुझे झुठला दे और मेरी बात को ना मानें।

अंतिम बार जिब्राईल (अ) ग़दीरे ख़ुम के मक़ाम पर नाज़िल हुए इलाही आदेश की तकरार के साथ लोगो से शांति और सुरक्षा की खुशख़बरी भी साथ लाए और पाखंडियो की ओर से किसी भी प्रकार के नुकसान न पहुंचने की खुश ख़बरी भी सुनाई।[५]

दूसरी संभावनाए

इस आयत के नुज़ूल मे अन्य संभावनाओं का भी उल्लेख किया गया है जिनकी सुन्नी और शिया विद्वानों ने आलोचना की है:

मक्का मे आयत का आना

कुछ सुन्नी विद्वानो का कहना है कि यह आयत मक्के मे पैगंबर की रिसालत के प्रारम्भिक दिनो मे नाज़िल हुई है और इसके नुज़ूल का उद्देश्य मुशरेकीन और कुफ्फार को धार्मिक तत्थ पहुंचाना था। कुछ रिवायतो के अनुसार दुश्मन के षडयंत्र से सुरक्षित रखने के लिए रसूल अल्लाह की सुरक्षा पर गार्ड नियुक्त किए गए लेकिन इस आयत के आने के बाद उन लोगो को हटा दिया और फ़रमाया अल्लाह तआला मुझे दुश्मनो के षडयंत्र से सुरक्षित रखेगा इसके अलावा धार्मिक तत्थो को बिना किसी भय के मुशरेकीन और कुफ़्फ़ार तक पहुंचाने पर बाध्य हुए।[६]

टिप्पणी इस दृष्टिकोण के खंडन मे कहा गया है कि मुफ़स्सेरीन इस बात पर सहमत है कि सूर ए माएदा मदीने मे नाज़िल हुई[७] और अब्दुल्लाह बिन उमर की रिवायत के अनुसार नाज़िल होने वाला सूरह सूर ए माएदा है।[८] इस कथन के अनुसार आयत मदीने मे नाज़िल हुई है और कई वर्षो तक किसी भी सूरे मे सम्मिलित नही हुई जिसकी अकेले ही तिलावत की जाती रही है। या उसको अलग करके रखा गया है। और अकेले तिलावत करने वाला कथन सही नही है।[९]

इस से हट कर जो रिवायत पैगंबर की मक्के मे प्राण की सुरक्षा के संबंध मे आई है कुछ विचारको ने इसे हदीस ए ग़रीब और मुनकर बताया है।[१०]

अहले किताब के लिए इब्लाग़

जैसा कि कुछ ने लिखा है कि यह आयत मदीना मे नाज़िल हुई है[११] और इसका उद्देश्य रसूल अल्लाह को बाध्य करना था कि वह बिना किसी भय के अहले किताब को वही के तत्थों को पहुंचाए[१२] मुहम्मद बिन यूसुफ़ अबु हय्यान के अनुसार रसूल अल्लाह को इस आयत के माध्यम से कहा गया कि वह संगसार और क़ेसास के आदेश को यहूदियों और ईसाइयों तक पहुंचाए क्यो कि तौरेत और इंजील में इस दैवीय आदेश को उन्होने विकृत किया है।[१३]

उनका तर्क है कि इससे पहली और बाद वाली आयत भी अहले किताब से संबंधित है और इस आयत का विषय भी इससे पहली और बाद वाली आयतो से भिन्न नही होना चाहिए।

टिप्पणी ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार बनी कुरैज़ा और ख़ैबर की जंग सहित मुसलमानों और यहूदियों के बीच युद्ध के बाद यहूदियों का ग़ुरूर और शक्ति टूट गई थी और उनके ठिकानों पर कब्जा करने और कुछ का मदीना से निर्वासन के साथ उनका प्रभाव कम हो गया था।[१४] जबकि हेजाज़ के ईसाई विशेष रूप से मदीना में इतने शक्तिशाली नही थे और मुसलमानों के साथ मुबाहेला में आमने सामने हुए थे[१५] जिसे ईसाइयों के अनुरोध पर भी ख़ारिज कर दिया गया था।

इसलिए पैगंबर और मुसलमानों की शक्ति को देखते हुए रसूल अल्लाह के जीवन के अंतिम वर्षों में यहूदियों और ईसाइयों के बारे में चिंता करने का कोई कारण नहीं था कि वे उन्हें धर्म की सच्चाई बताने में भय पैदा करें। इसके अलावा उपरोक्त आयत विषय के लिहाज़ से पहली और बाद वाली आयतो से भिन्न नही बल्कि संगत है। क्योंकि पहली और बाद वाली आयते यहूदियों और ईसाइयों की निंदा में हैं क्योकि वह इस प्रकार विचार करते थे कि रसूल अल्लाह की मृत्यु के साथ मुस्लिम सत्ता का युग बीत जाएगा और उन्हे दुबारा प्रभाव और प्रभुत्व के लिए एक और आधार प्रदान होगा। लेकिन यह आयत ए तब्लीग़ पैगंबर के बाद इस्लामी उम्मा के नेतृत्व का निर्धारण करने के बारे में है, उनके विचार की अमान्यता का खुलासा किया गया, और यह मामला आयत ए इकमाल से संगत है जो हज़रत अली (अ) की विलायत की घोषणा के बाद नाज़िल हुई।[१६]

आयत के महत्ववूर्ण बिंदू

मिशन का महत्व

यह आयत संदेश के महान महत्व और संवेदनशीलता को इंगित करती है; क्योंकि यह स्पष्ट है कि यदि संदेश नहीं पहुँचाया गया तो रिसालत का कोई काम अंजाम नहीं दिया। मानो संदेश का महत्व और मूल्य वही है जो नबूव्वत और रिसालत के समान है। और यह तसव्वुर नही किया जा सकता कि संदेश तौहीद, नबूव्वत, क़यामत की भांति एतेक़ादी अथवा नमाज़, रोज़े, हज के समान फ़िक्ही अहकाम से संबंधित हो क्योकि सूर ए माएदा आख़िरी सूरों मे से है जोकि नाज़िल हुआ है। इन सभी चीज़ो के अहकाम इससे पहल रसूल अल्लाह पर नाज़िल हो चुके थे और लोगो तक पहुंचा भी दिया था। बस यह कहा जा सकता है कि रसूल अल्लाह के जीवन के अंतिम दिनो मे एक ऐसी चीज़ का मरहला आ चुका था जोकि अत्यधिक महत्वपूर्ण और लोगो के लिए नई होने के साथ साथ खुद रिसालत के लिए पूरा करने वाले की हैसियत रखती थी और वह चीज रसूल अल्लाह के निधन के पश्चात इस्लामी उम्मत का नेतृत्व के अलावा कुछ नही था। इमाम धर्म का संरक्षक और समाज के मामलों के पर्यवेक्षक और योजनाकार होता हैं। और शिया और सुन्नी रिवायते भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि सूर ए माएदा की आयत 67 इमाम अली (अ) की विलायत के बारे में नाज़िल हुई है।[१७]

घोषणा के संबंध मे पैगंबर (स) की चिंता

विषय की संवेदनशीलता के कारण रसूल अल्लाह (स) संदेश देने के बारे में चिंतित थे, लेकिन अल्लाह ने "वल्लाहो यासेमोका मिनन्नास" के वादे के साथ उनकी चिंताओं को दूर कर दिया। रसूल अल्लाह को अपने प्राणो की चिंता नही थी अगर चिंता थी तो इस बात की कही संदेश पहुंचाने से पहले उन्हें मार ना डाले, या पाखंडी लोग उन्हे अस्वीकार करें और निंदा करें। बस आयत ए तब्लीग़ की शाने नुज़ूल अहले किताब और मुशरेकीन ए क़ुरैश से संबंधित नही है इससे स्पष्ट होता है कि आयत मे "नास" से मुराद इस्लामी समाज में पाखंडी लोग है।[१८] अमीरुल मोमेनीन को अपने उत्तराधिकारी के रूप में पेश करते समय पैगंबर (स) उनके विरोध और व्यवधान के बारे में चिंतित थे, क्योंकि:

  • पाखंडी इस्लामी समाज के मुखिया के रूप में पैगंबर के उत्तराधिकारी के लालची थे, और सांसारिक नेमतो को प्राप्त करने को आपकी उत्तराधिकारी की प्राप्ति मे देखते थे। और इमाम अली (अ) का उत्तराधिकारी बनना उनकी इच्छाओ के विरूद्ध था।[१९]
  • हज़रत अली एक निर्णायक और अनम्य व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते थे।[२०]
  • पिछले युद्धों में जिन नव-मुसलमानों के रिश्तेदार अली (अ) द्वारा मारे गए थे, उनके दिलों में उनके प्रति द्वेष था।

रसूल अल्लाह (स) के निधन के समय अली (अ) की आयु 33 वर्ष थी। एक ऐसा समाज जिसमे मनसब पर पहुचने के लिए आयु का अधिक होना महत्वपूर्ण मानदंड हो वहा पर आपके नेतृत्व को स्वीकार करना इतना सरल मामला नही था। यह बात जंगे तबूक में जब पैगंबर (स) ने हज़रत अली (अ) को मदीना में अपने स्थान पर रखा, या अपने जीवन के अंतिम क्षणों में ओसामा बिन ज़ैद को सेनापति नियुक्त किया था तो जाहिर हुई।[२१]

आयत का अंतिम भाग

आयत का अंतिम वाक्य (इन्नल्लाहा ला याहदियल क़ौम अल काफ़ेरीन) (अनुवाद: हाँ, अल्लाह काफिरो का मार्गदर्शन नहीं करता) आयत के विषय से संबंधित है और इंगित करती है कि इस आयत में नास शब्द से मुराद जिद्दी काफ़िर हैं जोकि पैगंबर को तब्लीग़ और इमाम अली (अ) की विलायत को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। अल्लामा सैयद मुहम्मद हुसैन तबातबाई की व्याख्या के अनुसार, यह वाक्य (इन्नल्लाहा ला याहदियल क़ौम अल काफ़ेरीन) वास्तव में पहले वाले वाक्य की तफ़सीर है (वल्लाहो यासिमुका मिनन्नास) जिसका अर्थ है पैगंबर और इस्लाम धर्म को खतरों से बचाना।[२२]

संबंधित लेख

फ़ुटनोट

  1. देखे, क़ुम्मी, तफ़सीर ए क़ुम्मी, 1413 हिजरी, भाग 1, पेज 179; अय्याशी, तफ़सीर ए अय्याशी, 1380 क़, भाग 1, पेज 332।
  2. देखे, सुयूती, अद्दुर उल मंसूर, 1414 हिजरी, भाग 3, पेज 298; आलूसी, रूह उल मआनी, 1405 हिजरी, भाग 6, पेज 194।
  3. कुलैनी, अल काफी, 1401 हिजरी, भाग 1, पेज 290; तबरसी, अल एहतेजाज, 1401 हिजरी, भाग 1, पेज 57; अबुल फुतूह राज़ी, रौज़ उल जेनान वा रूह उल जेनान, 1383-1387 श, भाग 4, पेज 275-281।
  4. देखें, तबरी, जामे उल बयान, 1422 हिजरी, भाग 8, पेज 567-569; सआलेबी, जवाहिर उल हसान, 1416 हिजरी, भाग 1, पेज 443; सुयूती, अद्दुर उल मंसूर, 1414 हिजरी, भाग 2, पेज 228; अबू हय्यान, तफ़सीर ए बहर उल मोहीत, 1993ई, भाग 3, पेज 529।
  5. तबरसी, आलाम उल वर्आ, 1417 हिजरी, भाग 1, पेज 261
  6. देखे, तबरी, जामे उल बयान, 1422 हिजरी, भाग 8, पेज 567-569; सआलेबी, जवाहिर उल हसान, 1416 हिजरी, भाग 1, पेज 443; सुयूती, अद्दुर उल मंसूर, 1414 हिजरी, भाग 2, पेज 228।
  7. इब्ने अतिया, अल मोहर्रिर उल वजीज़, 1422 हिजरी, भाग 5, पेज 5; क़ुरतुबी, अल जामे उल अहकाम उल क़ुरआन, 1965ई, भाग 3, पेज 30।
  8. तिर्मिज़ी, अल जामे उल सहीह, 1408 हिजरी, भाग 5, पेज 261 नक़्ल अज़ अब्दुल्लाह बिन उमर।
  9. इब्ने आशूर, तफ़सीर उत तहरीर, 1984 ई, भाग 6, पेज 256।
  10. इब्ने कसीर, तफ़सीर उल कुरआन उल अज़ीम, दार उल क़लम, भाग 2, पेज 132।
  11. अबू हय्यान, तफ़सीर उल बहर उल मोहीत, 1983 ई, भाग 3, पेज 529।
  12. तबरी, जामे उल बयान, 1422 हिजरी, भाग 4, खंड 6, पेज 198; फ़ख्रे राज़ी, अल तफ़सीर उल कबीर, दार अल एहया तुरास, भाग 12, पेज 401।
  13. अबू हय्यान, तफ़सीर उल बहर उल मोहीत, 1983 ई, भाग 3, पेज 529।
  14. अहज़ाब, आयत 26-27; हश्र, आयत 2-4।
  15. आले इमरान, आयत 61।
  16. तबरसी, आलामुल वरा, 1417 हिजरी, भाग 3, पेज 264; हुवैज़ी, 1383 श, भाग 1, पेज 587-590।
  17. तबातबाई, मुहम्मद हुसैन, अल मीज़ान, भाग 6, पेज 44, नश्ररे आलमी बेरूत, 1390 हिजरी
  18. तबातबाई, अल मीज़ान, भाग 6, पेज 47।
  19. अय्याशी, तफ़सीर उल अय्याशी, 1380 हिजरी, भाग 2, पेज 97-99।
  20. अबुल फुतूह राज़ी, रौज़ उल जिनान, 1382-1387श, भाग 4, पेज 276।
  21. तबरी, तारीख अल तबरी, 1387 हिजरी, भाग 3, पेज 187।
  22. तबातबाई, अल मीज़ान, भाग 6, पेज 52।

स्रोत

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  • इब्ने आशूर, मुहम्मद ताहिर, तफ़सीर उत तहरीर वत तनवीर, ट्यूनेशिया, 1984 ई।
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  • तबरी, मुहम्मद बिन जुरैर, तारीख उत तिबरि (तारीख उल उमम वल ममलूक), तहक़ीक़ मुहम्मद अबुल फ़ज़्ल इब्राहीम, बैरूत, रवा इत तुरास अल अरबी, 1387 हिजरी।
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  • कुलैनी, मुहम्मद बिन याकूब, अल काफी, बे कोशिश अली अकबर ग़फ़्फ़ारी, बैरूत, दार उत तआरुफ़, 1401 हिजरी।
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  • क़ुम्मी, अली इब्ने इब्राहीम, तफ़सीर उल क़ुम्मी, बैरूत, मोअस्सेसा तुल आलमी लिल प्रकाशन, 1412 क / 1991 ई।