इमामिया
इमामिया या शिया इसना अशरी, (अरबी: الإمامية) शिया संप्रदाय की सबसे बड़ी शाखा है। शिया इमामीयो के अनुसार, पैगंबर (स) के बाद समाज का नेतृत्व इमाम के पास रहता है और इमाम की नियुक्ति ईश्वर द्वारा की जाती है। शिया इमामी हदीस पर आधारित जैसे हदीसे ग़दीर हज़रत अली (अ) को पैगंबर ए इस्लाम (स.अ.व.व.) का उत्तराधिकारी पहला इमाम मानते है। वे बारह इमामों में विश्वास करते हैं और उनका मानना है कि बारहवें इमाम महदी जीवित और गुप्त हैं। ज़ैदिया और इस्माइलिया दो अन्य शिया संप्रदाय, इमामिया के सभी बारह इमामों पर विश्वास नहीं करते वे इमामों की संख्या को बारह तक सीमित नहीं जानते हैं।
इमामी शिया धर्म के सिद्धांत पांच चीजें हैं। दूसरे मुसलमानों की तरह, वे एकेश्वरवाद (तौहीद), नबूवत और क़यामत को अपने धर्म के सिद्धांतों के रूप में मानते हैं। इनके अलावा, वे इमामत और अद्ल के दो सिद्धांतों में विश्वास करते हैं, जो उन्हें सुन्नी संप्रदाय से अलग करता है। रज्अत इमामिया की ख़ास मान्यताओं में से एक है। इस मान्यता के अनुसार मृतको में से कुछ इमाम महदी (अ) के ज़हूर के बाद दुनिया में लौट आएंगे।
शिया इमामिया जीवन में कई काम करते हैं, जैसे इबादात, लेन-देन और शरियत के अनुसार वुजूहात ए शरिया की अदाएगी। शिया इमामिया अपने फ़िक्ही, एतेक़ादी, नैतिक आदि विचारों के लिए चार स्रोतों, कुरआन, इस्लाम के पैगंबर (स) और बारह इमामों (अ) सुन्नत, अक़्ल और इजमाअ (आम सहमति) का उल्लेख करते हैं। शेख़ तूसी, अल्लामा हिल्ली और शेख़ मुर्तज़ा अंसारी सबसे प्रमुख फ़ुक़्हा में से हैं, और शेख़ मुफ़ीद, ख़्वाजा नसीरूद्दीन तूसी और अल्लामा हिल्ली इमामिया के प्रसिद्ध धर्मशास्त्री (मुतकल्लेमीन) हैं।
907 हिजरी में शाह इस्माइल ने सफ़वी सरकार की स्थापना की और ईरान में इमामिया संप्रदाय को आधिकारिक बना दिया। इस सरकार ने ईरान में इमामी धर्म के विस्तार में बड़ी भूमिका निभाई। इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान, ईरान की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था का नाम है, जिसका गठन उसूले मज़हब और फ़िक्ह ए शिया 12 इमामी के आधार पर किया गया है।
ईदे ग़दीर, इमाम अली (अ.स.) का जन्मदिन, हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) का जन्मदिन और नीम ए शाबान विशेष रूप से शिया इमामियो की सबसे बड़ी ईदे हैं। निर्दोषों के लिए शोक, विशेष रूप से मुहर्रम के महीने में इमाम हुसैन (अ) और उनके साथियों के लिए शोक उनके अन्य महत्वपूर्ण अनुष्ठानों में से एक है। चौदह मासूमीन (अ) के शहादत के दिनो पर विशेष रूप से मोहर्रम के महीने मे इमाम हुसैन (अ) और उनके बावफा असहाब की याद मे अज़ादारी करना उनके अन्य महत्वपूर्ण अनुष्ठानों में से एक है।
दुनिया में शियों की संख्या के कोई सटीक मालूमात नहीं हैं, सामान्य रूप से जब शिया संप्रदाय की जनसंख्या की बात होती है तो उसमें ज़ैदीया और इस्माइलीया शिया संप्रदाय भी शामिल हैं। कुछ आंकड़ों के अनुसार, दुनिया में शियों की जनसंख्या 154 से 200 मिलियन लोगों के बीच है, जो दुनिया के मुसलमानों की 10 से 13% जनसंख्या के बराबर है, और कुछ दूसरे आंकड़ों के अनुसार, 300 मिलियन से अधिक, यानी दुनिया की मुस्लिम आबादी का 19% है। अधिकांश शिया इन चार देशों ईरान, इराक़, पाकिस्तान और भारत मे रहते है जिनकी संख्या 68 से 80 प्रतिशत है।
इमामिया का शब्द और इतिहास
शिया इमामिया की तारीख़ ए पैदाइश के संबंध मे मतभेद पाया जाता है, जिसमे इस्लाम के पैंगबर (स.अ.व.व.) के समय से, सक़ीफ़ा की घटना के पश्चात, उस्मान के हत्याकांड के बाद, और हकीमित की घटना के बाद शियों के जन्म की तारीख के रूप में वर्णित किया गया है।[१] हालांकि की इस्लाम के जन्म के कुछ शताब्दी तक, शिया शब्द का प्रयोग केवल उन लोगों के लिए नहीं किया जाता था जो इमामों के दैवीय नेतृत्व में विश्वास करते थे; बल्कि अहले बैत (अ.स.) से प्रेम करने वाले और जो हज़रत अली (अ.स.) को उस्मान पर प्राथमिकता देता था अली का शिया कहा जाता था।[२] अहले-बैत (अ.स.) के अधिकांश साथी बाद की दो श्रेणियों में थे।[३]
कहा जाता है कि हज़रत अली (अ.स.) के समय से ही शिया आस्था रही है; दूसरे शब्दों में, उनके कुछ अनुयायियों का मानना था कि उन्हें ईश्वर द्वारा इमामत के पद पर नियुक्त किया गया था।[४] हालांकि इस समूह की संख्या बहुत कम थी।[५] इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) के ज़माना ए इमामत मे इमामी शियों की संख्या में वृद्धि हुई, लेकिन यह अभी भी इतनी संख्या मे नही थे जिन्हे एक धार्मिक संप्रदाय का नाम दिय जा सके।[६] उस समय अहले-बैत (अ.स.) के शिया और प्रेमी बड़ी संष्या मे थे, लेकिन कुछ रिवायात मे इलाही अधिकारियों के रूप में मानने वालों की संख्या पचास से कम बताई गई है।[७]
तीसरी चंद्र शताब्दी के अंत से, शिया इमामिया दूसरे शिया संप्रदायों से अलग हो गए थे। इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की शहादत के बाद, शियों का एक समूह जो यह मानता था कि पृथ्वी कभी भी इमाम के बिना बाकी नहीं रह सकती, बारहवें इमाम के अस्तित्व और उनकी ग़ैबत (अनुपस्थिति) में विश्वास करने लगे। यही समूह शिया इमामिया अथवा शिया बारह इमामी के रूप में जाना जाने लगा।[८] उस समय से धीरे-धीरे इस शिया संप्रदाय की संख्या में वृद्धि हुई; इस तरह से शेख़ मुफ़ीद के अनुसार, उनके समय अर्थात 373 हिजरी के दौरान, शिया बारह इमामी दूसरे शिया संप्रदायों की तुलना मे अधिक थे।[९]
विश्वास
शिया इमामियो की पांच चीज़े सिद्धान्त है। मुसलमानो के दूसरे संप्रदायो के भांति शिया इमामिया भी तौहीद, नबूवत और क़यामत को अपने धार्मिक सिद्धांतो मे शुमार करते है इसके अलावा और दो सिद्धांत अद्ल और इमामत पर विश्वास रखते है जोकि इनको अहले सुन्नत से अलग करते है।[१०] इनके अनुसार पैगंबर (स.अ.व.व.) के पश्चात इमाम नामी व्यक्ति को उनका स्थान लेकर उनके मिशन को आगे बढ़ाना चाहिए। शिया समुदाय पैगंबर की भांति इमाम का चयन भी अल्लाह की ओर से विश्वास रखते है और कहते है, कि अल्लाह पैगंबर (स) के माध्यम से जनता को इमाम का परिचय कराता है।[११]
बारह इमामो को मानने वाले शिया जो रिवायत पैगंबर से नक़ल हुई है उन रिवायात के अनुसार इस बात पर विश्वास रखते है कि पैगंबर ने अल्लाह के आदेश से इमाम अली (अ.स.) को अपना उत्तराधिकारी और पहला इमाम घोषित किया।[१२] ज़ैदीया, इस्माईलिया और दूसरे शिया संप्रदायो के विपरीत जो इमामो की संख्या बारह तक सीमित नही समझते, शिया इमामिया कुछ हदीसो जैसे हदीसे लौह का हवाला देते हुए केवल बारह इमामो[१३] की इमामत पर विश्वास करते है। जोकि निम्मलिखित है।
- अली बिन अबी तालिब (इमाम अली (अ))
- हसन बिन अली (इमाम हसन (अ))
- हुसैन बिन अली (इमाम हुसैन (अ))
- अली बिन हुसैन (इमाम सज्जाद (अ))
- मुहम्मद बिन अली (इमाम बाक़िर (अ))
- जाफ़र बिन मुहम्मद (इमाम सादिक़ (अ))
- मूसा बिन जाफ़र (इमाम काज़िम (अ))
- अली बिन मूसा (इमाम रज़ा (अ))
- मुहम्मद बिन अली (इमाम मुहम्मद तक़ी (अ))
- अली बिन मुहम्मद (इमाम अली नक़ी (अ))
- हसन बिन अली (इमाम असकरी (अ))
- हुज्जत बिन हसन (इमाम महदी (अ))[१४]
बारह इमामो को मानने वाले शिया संप्रदाय के अनुसार बारहवे इमाम इमाम महदी जीवित है। जो ग़ैबत ए कुबरा (अर्थात जनता की आंखो से ओझल) जीवन व्यतीत कर रहे है। जो एक दिन अल्लाह के आदेश से क़याम करके धरती को अद्ल और इंसाफ से भर देंगे।[१५]
इमामिया अद्ल को भी इमामत की भांति उसूले दीन मे क़रार देते है इसी कारण वंश मोअतज़ेला की तरह इमामिया को भी अदलिया कहा जाता है। अद्ल का अर्थ है कि अल्लाह अपनी कृपा और दया एंवम सवाब को अपने बंदो के ज़ाति अधिकार की बुनियाद पर देता है। और किसी पर भी सूक्ष्म कण के बराबर भी अत्याचार नही करता है।[१६]
रजअत और बदा पर विश्वास रखना शिया इमामिया के विशेष विश्वासो मे से एक है[१७] रज्अत का अर्थ है जिस समय इमामे ज़माना ज़हूर फ़रमाएंगे उस समय कुछ मोमिन और कुछ अहले-बैत (अ.स.) के दुश्मन जो मर चुके होंगे दोबारा जिंदा होंगे तत्पश्चात मोमेनीन इमामे ज़माना (अ.त.फ.श.) के साथ युद्ध करते हुए शहीद होगें जबकि अहले-बैत (अ.स.) के दुश्मनो से आप प्रतिशोध लेंगे।[१८] बदा के सिद्धांत के अनुसार, अल्लाह कभी-कभी पैगंबर और इमाम को उनके हितों के आधार पर कुछ बताता है। लेकिन उसके बाद, कुछ और उसकी जगह ले लेता है।[१९]
अवाए लुल-मक़ालात, तस्ही उल-एतेक़ाद, तजरीद उल-एतेक़ाद और कश्फ़ुल-मुराद शिया इमामीयो के प्रसिद्ध धर्मशास्त्र (कलामी किताबे) है।[२०] शेख़ मुफ़ीद (336 या 338-413 हिजरी), शेख़ तूसी (385-460 हिजरी), ख़्वाजा नसीरूद्दीन तूसी (597-672 हिजरी) और अल्लामा हिल्ली (648-726 हिजरी) सबसे प्रमुख इमामी धर्मशास्त्रियों में से हैं।[२१]
इमामिया और दूसरे शिया संप्रदायों के बीच अंतर
ज़ैदिया और इस्माइलिया अन्य शिया संप्रदाय इमामिया की तरह सभी बारह इमामों को स्वीकार नहीं करते हैं। वे इमामों की संख्या को बारह तक सीमित नहीं करते हैं। ज़ैदिया का मानना है कि पैगंबर ने केवल तीन लोगों की इमामत इमाम अली (अ), इमाम हसन (अ) और इमाम हुसैन (अ) को निर्दिष्ट किया।[२२] उनके बाद, किसी भी समय, अगर हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की नस्ल से एक तपस्वी (ज़ाहिद), बहादुर और उदार (सख़ावतमंद) व्यक्ति सही ढंग से क़याम करता है, तो वह इमाम है।[२३] ज़ैद बिन अली, यहया बिन ज़ैद, मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन हसन (नफ़्से ज़किया), इब्राहीम बिन अब्दुल्लाह और शहीद फ़ख़ ज़ैदीयो के इमाम है।[२४]
इस्माइलिया इमामिया के दूसरे इमाम इमाम हसन मुज्तबा (अ) की इमामत को स्वीकार नही करते है।[२५] इमामिया के दूसरे इमामो की इमामत को केवल इमाम सादिक़ (अ) तक ही स्वीकार करते है।[२६] यह शिया संप्रदाय इमाम सादिक़ की इमामत के पश्चात उनके बेटे इस्माइल और उनके बेटे मुहम्मद की इमामत को स्वीकार करते है।[२७] इस्माइली संप्रदाय के अनुसार, इमामत की अलग-अलग अवधि होती है और प्रत्येक अवधि में सात इमाम नेतृत्व करते हैं।[२८]
अहकाम
इमामिया संप्रदाय में अन्य इस्लामी संप्रदायो की तरह जीवन के महत्वपूर्ण मामले जैसे इबादात, मामलात अर्थात लेन-देन, शरिया शुल्क का भुगतान (वाजिबाते शरिया की अदाएगी) जैसे ख़ुम्स और ज़कात, शादी और मीरास का विभाजन से संबंधित शरीयत के विभिन्न नियमों पर चर्चा की जाती है।[२९] इमामिया इन अहकाम को कुरआन, सुन्नत, इज्मा और अक़्ल (बुद्धि) के माध्यम से हासिल करते है जिन्हे इस्तेलाह मे अदिल्ला ए अरबा कहते है।[३०]
शराए उल-इस्लाम, अल-लुम्आ तुत-दमिश्क़िया, शरह लुम्आ, जवाहिर उल-कलाम, मकासिब और अल-उर्वा तुल-वुस्क़ा शियो की प्रसिद्ध फ़िक़्ही किताबों मे से है।[३१] शेख़ तूसी, मुहक़्क़िक़ हिल्ली, अल्लामा हिल्ली, शहीद अव्वल, शहीद सानी, काशिफ उल-ग़िता, मिर्ज़ा क़ुम्मी और शेख अंसारी इस संप्रदाय के महत्वपूर्ण और प्रमुख धर्मशास्त्रीयो मे से है।[३२]
मरजा ए तक़लीद
आज कल शरई अहकाम को मराजा ए तक़लीद तौज़ीह उल-मसाइल नामक किताबों में बयान करते है।[३३]
मरजा ए तक़लीद ऐसा मुजतहिद व्यक्ति है कि जिसका दूसरे अनुसरण करते हैं; अर्थात्, अपने धार्मिक कार्यों को फ़क़्ही के फतवे के आधार पर अंजाम देते है और शरई वुजूहात (ख़ुम्स और ज़कात इत्यादि) खुद उनको या उनके प्रतिनिधियों को भुगतान करते हैं।[३४]
धार्मिक अनुष्ठान
ईद उल-फ़ित्र, ईद उल-अज़्हा, ईदे मबअस और मीलादे पैंग़बर (स.अ.व.व.) जिसे सभी मुसलमान मनाते है, के अलावा ईदे ग़दीर, पैंग़बर (स.अ.व.व.), हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (अ) और दूसरे इमामों (अ.स.) के जन्मदिन और 15 शाबान इमामी शियों की सबसे महत्वपूर्ण ईदे हैं।[३५]
इमामिया संप्रदाय मे उपरोक्त सभी ईदो के विशेष आमाल है जैसे ईद उल-अज़्हा के आमाल मे ग़ुस्ल करना, ईद की नमाज़ पढ़ना, क़ुर्बानी करना, इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारत और दुआ-ए नुदबा पढ़ना मुसतहब है।[३६]
शिया अहले-बैत से अपनी मुहब्बत का इज़्हार करने के लिए साल के कुछ दिनो मे अज़ादारी करते है।[३७] अज़ादारी के यह अनुष्ठान हज़रत (इमाम हुसैन) (अ.स.) और आपके बावफ़ा साथीयो की शहादत के अवसर पर मोहर्रम अल हराम के पहले अशरे मे अंजाम पाते है। इसके अलावा सफ़र के अंतिम दस दिनो मे अरबईन और अय्यामे फ़ातिमिया मे भी अज़ादारी का आयोजन होता है। पैग़ंबर (स.अ.व.व.) और अहले-बैत (अ.स.) की ज़ियारत इमामी शियों के सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक संस्कारों में से एक है।[३८] वे इमाम ज़ादो और अन्य बड़ों और धार्मिक विद्वानों के मक़बरो की ज़ियारत को भी महत्वपूर्ण मानते हैं।[३९] शिया हदीस मे दुआ और मुनाजात पर भी विशेष ध्यान दिया गया है इसी को ध्यान मे रखते हुए विभिन्न किताबों मे कई प्रकार की दुआए, ज़ियारते इमामों और कुछ विद्वानों की जबानी बयान की गई है।[४०] कुछ प्रसिद्ध दुआए और मुनाजात इस प्रकार है। दुआ ए कुमैल[४१] दुआ ए अरफ़ा[४२], दुआ ए नुदबा[४३] , मुनाजाते शाबानिया[४४] , दुआ ए तवस्सुल[४५], ज़ियारते आशूरा[४६], ज़ियारते जामेआ ए कबीरा[४७] और ज़ियारते अमीनुल्लाह।[४८]
शिया इमामीया शिक्षा के स्रोत
शिया अपने एतेक़ादी, फ़िक्ही, अख़लाक़ी और संज्ञानात्मक सांस्कृतिक अध्ययन को चार स्रोतो से लेते है।[४९]
- कुरआन
विस्तृत लेखः क़ुरआन
शिया इमामी क़ुरआन को सबसे महत्वपूर्ण और प्रथम स्रोत मानते है। शियो के यहा क़ुरआन का महत्व इतना अधिक है कि जहा पर भी कोई रिवायत क़ुरआन की किसी भी आयत से टकराए तो उसे मोतबर नही समझते है।[५०] अल-तमहीद के अनुसार सभी शिया क़ुरआन को सही और कामिल समझते है।[५१]
- सुन्नत
विस्तृत लेखः सुन्नत
इमामिया, इस्लाम के दूसरे संप्रदायो की भांति पैगंबर अकरम (स) की सुन्नत अर्थात करनी और कथनी को हुज्जत समझते है।[५२] शिया कुछ हदीस जैसे हदीसे सक़लैन और हदीसे सफ़ीना इत्यादि जिनमे अहले-बैत (अ.स.) की ओर रुजूअ और उनका पालन करने के आदेश का उल्लेख करते हुए अहले-बैत (अ.स.) की सुन्नत को भी अपनी शिक्षाओ को मुख्य स्रोतो मे से एक मानते है।[५३] इसी महत्व को देखते हुए शिया पैगंबर (स) और अहले-बैत (अ.स.) की हदीसों को संकलित करने और उनके संरक्षण पर अधिक ध्यान देते हैं।[५४]
शिया इमामियो की महत्वपूर्ण किताबे उसूले काफ़ी, तहज़ीब उल-अहकाम, अल-इस्तिबसार, मन-ला याहज़ुर अल-फ़क़ीह जो कुतुब ए अरबआ (चार किताबे) अथवा उसूले अरबा के नाम से प्रसिद्ध है[५५] अल-वाफ़ी, बिहार उल-अनवार, वसाइल उश-शिया[५६] मुस्तदरकुल वसाएल, मीज़ान अल-हिक्मा, जामेअ अहादीसे शिया, अल-हयात और आसार उस-सादेक़ीन शियो की अन्य हदीसी किताबे है।[५७]
शिया प्रत्येक हदीस को प्रमाणिक (मोतबर) नही मानते है। क्योकि उनके यहा हदीस को लिखने के कई मानदंड है, उनमे से क़ुरआन के ख़िलाफ़ नही होना, रावीयो का भरोसे मंद और हदीस का मुतावातिर होना इत्यादि और इस कार्य के लिए दिराया और रिजाल नामक शास्त्रों से लाभ उठाया जाता है।[५८]
- अक़्ल (बुद्धि)
विस्तृत लेख: अक़्ल
न्यायशास्त्र के सिद्धांतों (इल्मे उसूल) के प्रसिद्ध विद्वान बुद्धि को किताब और सुन्नत की तुलना में एक मुस्तक़िल दलील मानते हैं।[५९] लेकिन अख़बारी संप्रदाय अक़्ल को मुस्तक़िल दलील नही मानता। शिया अक़्ल को शरीयत का स्रोत मानते हैं, और वे कुछ फ़िक्ही, उसूली क़ाएदो और शरई अहकाम को अक़्ल से साबित करते है। [60]
- इज्माअ
विस्तृत लेख: इज्माअ
इज़्माअ (आम सहमति) का अर्थ है किसी शरई हुक्म पर तमाम फ़ुक़्हा की सहमति को कहा जाता है। सुन्नी संप्रदाय मे इज्मा का विशेष महत्व है वो इसको मुस्तक़िल दलील मानते है। इसके विपरीत शिया संप्रदाय मे इज्मा का कोई विशेष महत्व नही है क्योकि वो इसको मुस्तक़िल दलील नही मानते है बल्कि यह सुन्नत को कश्फ़ करने का एक मार्ग है इस आधार पर यदि इज्मा (आम सहमति) से मासूम का क़ौल (कथन) का पता चले तो इस इज्मा (आम सहमति) का महत्व है अन्यथा खुद इज्मा की कोई हैसियत नही है।[६०] इल्मे उसूल मे इज्मा के कई प्रकार बताए गए है।
फ़ुटनोट
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- ↑ जाफ़रयान, तारीख ए तशय्यो दर ईरान अज़ आग़ाज़ ता तलूअ ए दौलत ए सफ़वी, 1390 शम्सी, पेज 22, 27
- ↑ फ़य्याज़, पैदाइश वा गुस्तरिश ए तशय्यो, 1382 शम्सी, पेज 61
- ↑ जाफ़रयान, तारीख ए तशय्यो दर ईरान अज़ आग़ाज़ ता तलूअ ए दौलत ए सफ़वी, 1390 शम्सी, पेज 29, 30
- ↑ फ़य्याज़, पैदाइश वा गुस्तरिश ए तशय्यो, 1382 शम्सी, पेज 61
- ↑ फ़य्याज़, पैदाइश वा गुस्तरिश ए तशय्यो, 1382 शम्सी, पेज 63-65
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स्रोत
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