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सूर ए आला

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(सूरह आला से अनुप्रेषित)
सूर ए आला
सूर ए आला
सूरह की संख्या87
भाग30
मक्की / मदनीमक्की
नाज़िल होने का क्रम8
आयात की संख्या19
शब्दो की संख्या72
अक्षरों की संख्या296


सूर ए आला (अरबी: سورة الأعلى) 87वाँ सूरह है और क़ुरआन के मक्की सूरों में से एक है, जिसे क़ुरआन के तीसवें अध्याय (पारे) में रखा गया है। सूर ए आला का नाम इसकी पहली आयत से लिया गया है और इसका अर्थ "श्रेष्ठ" (बरतर) है। सूरह की शुरुआती आयात में पैग़म्बर (स) को भगवान की महिमा करने के लिए कहा गया है और फिर भगवान की सात विशेषताओं की गणना की गई है और फिर विनम्र विश्वासियों (मोमिनों) और दुष्ट अविश्वासियों (काफ़िरों) और इन दो समूहों के लिए खुशी और दुख के कारणों के बारे में बात की गई है।

इस सूरह को पढ़ने के गुण के बारे में, पैग़म्बर (स) से वर्णित किया गया है कि जो कोई भी इस सूरह को पढ़ेगा, भगवान इब्राहीम, मूसा और मुहम्मद (स) पर नाज़िल प्रत्येक अक्षर के लिए दस अच्छे कर्म देगा। हदीसों में यह भी उल्लेख किया गया है कि पैग़म्बर (स) को यह सूरह बहुत पसंद था।

परिचय

नामकरण

इस कारण सूर ए आला को "आला" कहा जाता है कि यह सूरह उच्च कोटि के भगवान की महिमा के साथ आरम्भ होता है।[] आला का अर्थ है श्रेष्ठ, उच्च और सब से ऊपर।[]

नाज़िल होने का स्थान और क्रम

सूर ए आला मक्की सूरों में से एक है और आठवां सूरह है जो पैग़म्बर (स) पर नाज़िल हुआ था। यह सूरह क़ुरआन की वर्तमान रचना में 87वां सूरह[] है, और यह क़ुरआन के 30वें अध्याय (पारे) में है। तफ़सीर अल-मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई का मानना है कि इस सूरह की 13 आयतें मक्की हैं, लेकिन 14वीं आयत से अंत तक क्योंकि रोज़ा और उससे सम्बंधित अहकाम जैसे ज़काते फ़ितरा, नमाज़े ईद से संबंधित हैं इससे यह पता चलता है कि 14वीं आयत से बाद की आयतें मदीना में नाज़िल हुई हैं क्योंकि रोज़ा मदीना में अनिवार्य हुआ है। वह इस बात पर भी ज़ोर देते हैं कि सूरह को मक्की मानने वाली हदीसें वहीं सूरह के आरम्भ की 13 आयत को बयान करती हैं।[]

निस्संदेह, जिसने अपने आप को [आंतरिक और बाहरी कुरूपता] से शुद्ध कर लिया, वह बच गया (आला: 14)।

आयतों की संख्या और अन्य विशेषताएं

सूर ए आला में 19 आयतें, 72 शब्द और 296 अक्षर हैं और यह मुफ़स्सलात सूरों (छोटी आयतों और अनेक के साथ) में से एक है और मुसब्बेहात सूरों (ईश्वरीय महिमा के साथ आरम्भ) का अंतिम सूरह है।[]

सामग्री

अल-मीज़ान ने इस सूरह को मुख्य रूप से एकेश्वरवाद (तौहीद) और ज़ाते एलाही की उच्च स्थिति पर ज़ोर देने के साथ-साथ पैग़म्बर (स) और उनकी पुष्टि के बारे में ईश्वर के वादों पर ज़ोर दिया है।[] तफ़सीरे नमूना के दृष्टिकोण से, सूर ए आला के दो भाग हैं: पहला भाग, पैग़म्बर (स) के बारे में है जिसमें भगवान की महिमा करने और अपने मिशन को पूरा करने के बारे में निर्देश दिया गया है। साथ ही, इस खंड में भगवान के सात गुणों का उल्लेख किया गया है। दूसरे भाग में, भगवान विनम्र विश्वासियों (मोमिनों) और दुष्ट अविश्वासियों (काफ़िर) के बारे में बात करता है और इन दो समूहों के सुख और दुख के कारकों की व्याख्या करता है।[]


व्याख्या

पैग़म्बर और क़ुरआन को नहीं भूलना

"سَنُقْرِئُكَ فَلَا تَنسَىٰ: (सनुक़रेओक़ा फ़ला तन्सा) हम आप के लिए बहुत जल्द पढ़ेंगे, ताकि आप भूल न जाएं"।[] इस आयत में, ईश्वर पैग़म्बर (स) को चिंता न करने का आश्वासन देता है कि वह चिंता न करें की ईश्वरीय आयतों को भूल जाएंगे, बल्कि वही जिसने उन्हें भेजा है वह उनका संरक्षक है।[१०] अल्लामा तबातबाई तफ़सीरे अल मीज़ान में लिखते हैं कि "इक़रा" का अर्थ वाचक के पठन को अपने कंट्रोल में लेना इस कार्य से उद्देश्य ग़लती पकडना और सही पाठ करना है; अल्बत्ता, यह इस शब्द का शाब्दिक और प्रथागत अर्थ है, और इस आयत में, इसका मतलब है कि भगवान ने पैग़म्बर (स) को क़ुरआन को सही और अच्छी तरह पढ़ने की ऐसी शक्ति दी है, जैसा कि यह नाज़िल हुआ है, बिना किसी कमी के या विकृति (तहरीफ़) के।[११]

ईद की नमाज़ और ज़काते फ़ितरा

तफ़सीरे मजमा उल-बयान में कहा गया है कि कुछ ने कहा है कि आयत 14 और 15 में शुद्धि (तज़किया) और नमाज़ का अर्थ ज़काते फ़ितरा और ईद की नमाज़ है। लेकिन इस पर आपत्ति व्यक्त की जा सकती है कि यह एक मक्की सूरह है, और उस समय न ज़कात थी और न ही ईद की नमाज़। इसके उत्तर में, यह कहा गया है कि इस सूरह की शुरुआती आयतें मक्की और इसकी अंतिम आयतें 14वीं आयत के बाद से अंत तक मदीना में नाज़िल हुई हैं।[१२]

सय्यद हाशिम बहरानी ने तफ़सीरे अल बुरहान में आयत 14 के तहत लिखा है कि इमाम सादिक़ (अ) वर्णित हुआ है: रोज़ा ज़काते फ़ितरा के भुगतान करने से पूरा होता है, जिस तरह पैग़म्बर (स) पर सलवात और दुरूद भेजने से नमाज़ पूरी होती है। इसलिए जो कोई रोज़ा रखता है लेकिन जानबूझकर ज़काते फ़ितरा का भुगतान नहीं करता है, यह उसके लिए रोज़ा नहीं है, और जो कोई नमाज़ पढ़ता है और पैग़म्बर (स) पर सलवात व दुरूद नहीं भेजता है और जानबूझकर इसे छोड़ देता है, यह उसके लिए नमाज़ नहीं है। ईश्वर, ने नमाज़ से पहले ज़काते फ़ितरा रखा और कहा: «قَدْ أَفْلَحَ مَن تَزَكَّىٰ وَذَكَرَ اسْمَ رَبِّهِ فَصَلَّىٰ» "क़द अफ़लहा मन तज़क्का व ज़करस्मा रब्बेही फ़सल्ला"।[१३]

सूरा ए आला, सलेम गोनाई द्वारा (तुर्की सुलेखक), 2013 ई.

नबियों और स्वर्गीय पुस्तकों की संख्या

सूर ए आला की अंतिम आयतों से पता चलता है कि इब्राहीम और मूसा (अ) के पास भी एक ईश्वरीय किताब थी। अबूज़र एक रिवायत में बयान करते हैं: मैंने पैग़म्बर से पूछा कि कितने पैग़म्बर थे? उन्होंने कहा: 1 लाख 24 हज़ार। फिर पैग़म्बर (स) ने कहा, हे अबूज़र, चार अरबी पैग़म्बर थे: हूद, सालेह, शोएब और आपके पैग़म्बर। मैंने कहा, ऐ ईश्वर के रसूल, भगवान ने कितनी किताबें नाज़िल कीं? उन्होंने कहा: 104 किताबें। आदम पर दस किताबें, शीस पर पचास किताबें, इदरीस पर तीस किताबें और वह पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने क़लम से लिखा, और इब्राहीम पर दस किताबें, साथ ही मूसा पर तौरेत, ईसा पर इंजील, और दाऊद पर ज़ुबूर और फ़ुरक़ान (क़ुरआन) को इस्लाम के पैग़म्बर (स) पर नाज़िल किया।[१४] एक रिवायत में, अबूज़र के पूछने पर कि हज़रत इब्राहीम की किताबों (सहीफ़ों) में क्या था, पैग़म्बर (स) ने फ़रमाया कि उन सब में ज़्यादातर नसीहतें और उपदेश थे। उनमें से एक यह भी था: ऐ वह शासक जो घमंड और गर्व की मदहोशी में मस्त है! मैंने तुझे इसलिए नहीं बनाया कि तू दुनिया को (अपने पास) जमा करे। बल्कि मैंने तुझे इसलिए बनाया है ताकि तू किसी ज़ुल्म झेलने वाले की मेरे दरबार में फ़रियाद न पहुँचने दे, क्योंकि मैं मज़लूम की दुआ को (कभी) नहीं लौटाता, भले ही वह काफ़िर ही क्यों न हो। उस समझदार व्यक्ति पर जिसकी अक्ल का लगाम उसके हाथ से न निकली हो (यानी जो अपनी बुद्धि पर काबू रखता हो), ज़रूरी है कि वह अपने लिए कुछ समय निर्धारित करे: एक समय वह जब वह अपने पालनहार से रू-ब-रू होकर दिल की बात कहे (इबादत करे)।एक समय वह जब वह अपना हिसाब-किताब करे (आत्ममंथन करे)। और एक हिस्सा अपने समय का वह उन चीज़ों के बारे में सोचने में लगाए जो ईश्वर ने उसके साथ की हैं (उसकी नेअमतों को याद करे)। और एक हिस्सा अपने समय का वह हलाल चीज़ों से फायदा उठाने के लिए खाली रखे, क्योंकि यह समय दूसरे समय की मददगार है और दिल की खुशी और तरोताज़गी का कारण है। समझदार व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने समय पर नज़र रखे और अपनी आत्मा की देखभाल करे, और अपनी ज़बान पर कंट्रोल रखे। क्योंकि जो कोई भी अपनी बातचीत को अपने अमल का हिस्सा समझेगा (उसका हिसाब करेगा), वह उन्हीं बातों में कम बोलेगा जो उसके लिए फायदेमंद हों। समझदार व्यक्ति के लिए ज़रूरी है कि वह तीन चीज़ों की तलाश करे: अपनी जीविका (जीवन) का सुधार (हलाल रोज़ी), या आख़िरत के दिन के लिए ज़रूरी सामान (नेकियाँ) इकट्ठा करना, या हराम के बिना (हलाल तरीके़ से) जीवन के सुखों का आनंद लेना।[१५]

आख़िरत का स्थिर और शाश्वत होना

यह ध्यान में आ सकता है कि आख़िरत स्थिर और शाश्वत है, तो उसने इसकी तुलना इस दुनिया से क्यों की और कहा, والْاخرةُ خيْرٌ وَابْقى (वल आख़िरते ख़ैरुन व अबक़ा) अनुवाद: हालांकि [दुनिया] परलोक बेहतर और अधिक स्थिर है। उत्तर यह है कि हालांकि आख़िरत की दुनिया ऐसी है कि इसमें स्थिर और शाश्वत है, लेकिन क्योंकि पिछली आयत (بَلْ تُؤْثِرُونَ الْحَيَاةَ الدُّنْيَا) (बल तूसेरूनल हयातद दुनिया) में, यह दुनिया को पहले रखने और आख़िरत पर उस को प्राथमिकता देने के बारे में थी; इसमें आख़िरत की प्रधानता का उल्लेख है और उसकी प्रधानता उसे संसार से उत्तम और स्थिर मानने के लिए पर्याप्त है।[१६]

  • व्याख्यात्मक बिंदु

मुल्ला सद्रा ने आयत की तफ्सीर (व्याख्या) में कहा है कि ज्ञान आत्मा की पूर्णता है और कर्म (अमल) शरीर की पूर्णता है। और जिस प्रकार आत्मा का तत्व (सार/जौहर) शरीर के तत्व से अधिक महान है, उसी आधार पर आत्मिक आनंद और उसकी पूर्णताएँ (जिसका वास्तविक स्वरूप आख़िरत में प्रकट होगा) शारीरिक आनंदों से अधिक श्रेष्ठ और मधुर हैं। और ईश्वर की पहचान (मारेफ़त) की छाया में जो आनन्द और प्रसन्नता प्राप्त होती है (जो सभी ज्ञान का आधार है), वह दुनियावी सुखों से प्राप्त होने वाली प्रसन्नता से बेहतर है। और जो व्यक्ति दुनिया को आख़िरत पर प्राथमिकता देता है, वह आख़िरत के आध्यात्मिक आनंदों की वास्तविकता को बिल्कुल नहीं समझता है। क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान के आनंद से अनजान होना ही दुनिया को चुनने और उसे आख़िरत पर तरजीह देने का कारण है। और इस ज्ञान के आनंद की अनुभूति उसी व्यक्ति को प्राप्त होती है जो दुनिया में ईश्वर की पहचान (मारेफ़त) हासिल करने में सफल हो गया हो।[१७]

प्रसिद्ध आयात

إِنَّهُ يَعْلَمُ الْجَهْرَ وَمَا يَخْفَىٰ
व इन्नहू यालमुल जहरा वमा यख़फ़ा



वह (परमेश्वर) खुले और छिपे हुए को जानता है।

इस आयत की व्याख्या में, यह कहा गया है कि ईश्वर के लिए खुला और छिपा हुआ एक समान है; क्योंकि जो कुछ भी मौजूद है, चाहे दृश्य या अदृश्य, उसकी रचना है।[१८] मुल्ला सद्रा यह भी लिखते हैं कि यह आयत ईश्वर के ज्ञान को सिद्ध करती है और ईश्वर को अज्ञानता और अपूर्णता से दूर करती है।[१९] अल्लामा तबातबाई, क़ुरआन की आयतों पर आधारित, जहर को कुछ ऐसा मानते हैं जो आंखों और कानों के लिए पूरी तरह से स्पष्ट और ध्यान देने योग्य है। «وما یخفی» (वमा यख़फ़ा) को इसके विपरीत मानते हैं।[२०]

فَذَكِّرْ إِنْ نَفَعَتِ الذِّكْرَ
फ़ज़क्किर इन नफ़अतिल ज़िक्रा



तो आप स्मरण दिलाते रहें, यदि स्मरण दिलाना लाभदायक हो

कुछ टीकाकारों ने सूर ए आला की आयत 8 से 10 के संदर्भ का उपयोग यह दर्शाने के लिए किया है कि पैग़म्बर (स) पर ईश्वरीय वही का अवतरण लोगों को याद दिलाने के लिए है, और स्मरण (याद दिलाने) की शर्त है कि व्यक्ति सीख लेने वाला (सलाह स्वीकार करने वाला) हो, और पैग़म्बर उन लोगों के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं जो सलाह स्वीकार नहीं करते। और यह कि केवल ईश्वर से डरने वाले लोग ही स्मरण (याद दिलाने) को स्वीकार करते हैं "سَيَذَّكَّرُ مَنْ يَخْشى‌" (वही याद रखेगा जो डरता है)। और ईश्वर से डरने वाले लोगों को सलाह देना आसान है "سَيَذَّكَّرُ مَنْ يَخْشى‌" (सयज़्ज़किर मन यख़्शा)।[२१] सद्र अल मुतअल्लेहीन (मुल्ला सद्रा), आयत की व्याख्या में, मानते हैं कि भले ही आयत "फ़ ज़क्किर इन नफ़अतिल ज़िक्रा" (तो आप स्मरण दिलाते रहें, यदि स्मरण दिलाना लाभदायक हो) के शाब्दिक अर्थ से ऐसा प्रतीत होता है कि पैग़म्बर के स्मरण दिलाने में लाभ और उपयोगिता होनी चाहिए, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है, क्योंकि पैग़म्बर (स) को आदेश है कि वे उपदेश दें और स्मरण दिलाएं; ठीक उसी तरह जैसे सूरज सब पर चमकता है, चाहे पिंड उसकी किरणों को स्वीकार करें या न करें। लोग भी पैगंबरी अस्तित्व के सूरज की रोशनी के सामने हैं: कुछ चंद्रमा की तरह हैं जिनमें स्वीकार करने की उच्च क्षमता है, कुछ चिकने और पॉलिश किए हुए पिंडों की तरह हैं, और कुछ अंधेरे और अशुद्ध पिंडों की तरह हैं। आयत "फ ज़क्किर इन नफअतिल ज़िक्रा" का अर्थ यह है कि पैग़म्बर के स्मरण और उपदेश के सामने, कुछ आत्माएँ (गुनाहों के कारण) अपने दिलों पर मुहर लग जाने के कारण सत्य और ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता नहीं रखती हैं।[२२]

गुण और विशेषताएं

मुख्य लेख: सूरों के फ़ज़ाएल

मजमा उल बयान तफ़सीर में, पैग़म्बर (स) से यह वर्णित किया गया है कि जो कोई भी इस सूरह को पढ़ता है, भगवान इब्राहीम, मूसा और मुहम्मद (स) पर नाज़िल किए गए प्रत्येक अक्षर के लिए दस अच्छे कर्म देगा। अमीरुल मोमिनीन अली (अ) से यह भी वर्णित हुआ है कि पैग़म्बर (स) को यह सूरह बहुत पसंद था।[२३] और मिकाईल (फ़रिश्ता) पहले थे जिन्होंने "सुब्हाना रब्बियल आला" (मेरा परम पालनहार सर्वोच्च है) कहा।[२४] इब्ने अब्बास से रिवायत है कि जब भी पैग़म्बर (स) सूर ए आला पढ़ते थे, तो "सुब्हाना रब्बियल आला" (मेरा परम पालनहार सर्वोच्च है) कहते थे।<[२५] यह इमाम सादिक़ (अ) से भी वर्णित है कि जो कोई भी अपनी अपनी वाजिब नमाज़ में या नाफ़ेला नमाज़ में सूर ए आला का पाठ करता है तो क़यामत के दिन, उससे यह कहा जाऐगा कि वह परमेश्वर की इच्छा और विधान से स्वर्ग के किसी भी द्वार से प्रवेश कर सरता है।[२६]

पिछला सूरह:
सूर ए तारिक़
सूर ए आला
मक्की सूरेमदनी सूरे
अगला सूरह:
सूर ए ग़ाशिया

1.फ़ातिहा 2.बक़रा 3.आले इमरान 4.निसा 5.मायदा 6.अनआम 7.आराफ़ 8.अंफ़ाल 9.तौबा 10.यूनुस 11.हूद 12.यूसुफ़ 13.रअद 14.इब्राहीम 15.हिज्र 16.नहल 17.इसरा 18.कहफ़ 19.मरियम 20.ताहा 21.अम्बिया 22.हज 23.मोमिनून 24.नूर 25.फ़ुरक़ान 26.शोअरा 27.नमल 28.क़सस 29.अंकबूत 30.रूम 31.लुक़मान 32.सजदा 33.अहज़ाब 34.सबा 35.फ़ातिर 36.यासीन 37.साफ़्फ़ात 38.साद 39.ज़ोमर 40.ग़ाफ़िर 41.फ़ुस्सेलत 42.शूरा 43.ज़ुख़रुफ़ 44.दोख़ान 45.जासिया 46.अहक़ाफ़ 47.मुहम्मद 48.फ़त्ह 49.होजरात 50.क़ाफ़ 51.ज़ारियात 52.तूर 53.नज्म 54.क़मर 55.रहमान 56.वाक़ेआ 57.हदीद 58.मुजादेला 59.हश्र 60.मुमतहेना 61.सफ़ 62.जुमा 63.मुनाफ़ेक़ून 64.तग़ाबुन 65.तलाक़ 66.तहरीम 67.मुल्क 68.क़लम 69.हाक़्क़ा 70.मआरिज 71.नूह 72.जिन्न 73.मुज़म्मिल 74.मुदस्सिर 75.क़यामत 76.इंसान 77.मुर्सलात 78.नबा 79.नाज़ेआत 80.अबस 81.तकवीर 82.इंफ़ेतार 83.मुतफ़्फ़ेफ़ीन 84.इंशेक़ाक़ 85.बुरूज 86.तारिक़ 87.आला 88.ग़ाशिया 89.फ़ज्र 90.बलद 91.शम्स 92.लैल 93.ज़ोहा 94.शरह 95.तीन 96.अलक़ 97.क़द्र 98.बय्यना 99.ज़िलज़ाल 100.आदियात 101.क़ारेआ 102.तकासुर 103.अस्र 104.हुमज़ा 105.फ़ील 106.क़ुरैश 107.माऊन 108.कौसर 109.काफ़ेरून 110.नस्र 111.मसद 112.इख़्लास 113.फ़लक़ 114.नास


फ़ुटनोट

  1. दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पज़ोही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1263।
  2. देहख़ुदा, लोग़तनामे, 'आला' शब्द के अंतर्गत।
  3. मारफ़त, आमोज़िशे उलूमे क़ुरआन, 1371 शम्सी, खंड 1, पृष्ठ 166।
  4. तबातबाई, अल-मीज़ान, खंड 20, पृष्ठ 264।
  5. दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पज़ोही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1263।
  6. तबातबाई, अल-मीज़ान, खंड 20, पृष्ठ 261।
  7. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, 1366 शम्सी, खंड 26, पृष्ठ 380।
  8. ख़ामागर, मुहम्मद, साख़्तार-ए सूरा-यी कु़रआन-ए करीम, तहय्ये मुअस्सेसा -ए फ़रहंगी-ए कु़रआन वा 'इतरत-ए नूर अल-सक़लैन, क़ुम:नशर नशरा, भाग 1, 1392 शम्सी
  9. सूर ए आला, आयत 6।
  10. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, 1366 शम्सी, खंड 26, पृष्ठ 393।
  11. तबातबाई, अल-मीज़ान, 1974 शम्सी, खंड 20, पृष्ठ 266।
  12. तबरसी, मजमा उल-बयान, 1372 शम्सी, खंड 10, पृष्ठ 722।
  13. बहरानी, अल-बुरहान, 1417 हिजरी, खंड 5, पृष्ठ 637।
  14. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, 1366 शम्सी, खंड 26, पृष्ठ 405।
  15. शेख़ सदूक़, अल ख़ेसाल, 1362 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 525।
  16. तबातबाई, अल-मीज़ान, खंड 20, पृष्ठ 270।
  17. अल मुल्ला सद्रा, तफ़सीर अल क़ुरआन, 1366 शम्सी, खंड 7, पृष्ठ 397।
  18. फ़ज़लुल्लाह, मिन वही अल-कुरान, 1419 हिजरी, खंड 24, पृष्ठ 209।
  19. मुल्ला सद्रा, तफ़सीर अल-क़ुरान अल-करीम, 1366 शम्सी, खंड 7, पृष्ठ 376।
  20. तबातबाई, अल-मीज़ान, खंड 20, पृष्ठ 267।
  21. क़राअती, तफ़सीरे नूर, 1383 शम्सी, खंड 10, पृष्ठ 455।
  22. अल मुल्ला सद्रा, तफ़सीर अल क़ुरआन अल करीम, 1366 शम्सी, खंड 7, पृष्ठ 381।
  23. तबरसी, मजमा उल-बयान, 1372 शम्सी, खंड 10, पृष्ठ 717।
  24. तबरसी, मजमा अल बयान, 1372 शम्सी, खंड 10, पृष्ठ 717।
  25. तबरसी, मजमा अल बयान, 1372 शम्सी, खंड 10, पृष्ठ 326।
  26. हुवैज़ी, अब्दुल अली, तफ़सीर नूर अल-सक़लैन, खंड 5, पृष्ठ 553, अली बाबाई, बरगुज़ीदेह तफ़सीरे नमूना, 1387 शम्सी, खंड 5, पृष्ठ 475।

स्रोत

  • पवित्र कुरान, मोहम्मद मेहदी फौलादवंद द्वारा अनुवादित, तेहरान, दार अल-कुरान अल-करीम, 1418 हिजरी/1376 शम्सी।
  • बहरानी, सय्यद हाशिम, अल-बुरहान फ़ी तफ़सीर अल-कुरान, क़ुम, अल-बास फाउंडेशन, पहला संस्करण, 1417 हिजरी।
  • हुवैज़ी, तफ़सीर नूर अल-सक़लैन, क़ुम, इस्माइलियान, चौथा संस्करण 1415 हिजरी।
  • दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पज़ोही, खंड 2, बहाउद्दीन ख़ुर्रमशाही द्वारा, तेहरान: दोस्ताने-नाहिद, 1377 शम्सी।
  • तबातबाई, सय्यद मोहम्मद हुसैन, अल-मीज़ान फ़ी तफ़सीर अल-कुरान, बैरूत, प्रकाशन के लिए अल-अलामी फाउंडेशन, दूसरा संस्करण, 1974 ईस्वी।
  • तबरसी, फ़ज़ल बिन हसन, मजमा उल-बयान फ़ी तफ़सीर अल-क़ुरान, मोहम्मद जवाद बलाग़ी द्वारा शोध और परिचय, तेहरान, नासिर खोस्रो प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 1372 शम्सी।
  • अलीबाबाई, अहमद, बरगुज़ीदेह तफ़सीरे नमूना, तेहरान, दार अल-किताब अल-इस्लामिया, 1387 शम्सी।
  • फ़ज़लुल्लाह, सय्यद मोहम्मद हुसैन, तफसीर मिन वही अल-कुरान, बैरूत, दार अल-मेलाक लिलप् तबाआ व अल-नशर, दूसरा संस्करण, 1419 हिजरी।
  • मकारिम शिराज़ी, नासिर, तफ़सीरे नमूना, तेहरान, दार अल-किताब अल-इस्लामिया, 1366 शम्सी।
  • मारफ़त, मोहम्मद हादी, आमोज़िशे उलूमे क़ुरआन, [अप्रकाशित], इस्लामी प्रचार संगठन का प्रकाशन केंद्र, पहला संस्करण, 1371 शम्सी।
  • मुल्ला सद्रा, मुहम्मद बिन इब्राहीम, तफ़सीर अल-क़ुरान अल-करीम, मुहम्मद ख़्वाजवी द्वारा शोधित, क़ुम, बीदार प्रकाशन, दूसरा संस्करण, 1366 शम्सी (नूर कंप्यूटर संस्करण)।