इमाम अली रज़ा अलैहिस सलाम
शियों के आठवें इमाम | |
नाम | अली बिन मूसा |
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उपाधि | अबुल हसन (II) |
जन्मदिन | 11 ज़िल क़ादा, वर्ष 148 हिजरी |
इमामत की अवधि | 20 वर्ष, वर्ष 183 हिजरी-वर्ष 203 हिजरी |
शहादत | सफ़र के अंत में, वर्ष 203 हिजरी |
दफ़्न स्थान | मशहद |
जीवन स्थान | मदीना, मर्व |
उपनाम | रज़ा, आलिमे आले मोहम्मद |
पिता | इमाम मूसा काज़िम (अ) |
माता | नजमा ख़ातून |
जीवन साथी | सबीका |
संतान | इमाम जवाद (अ) |
आयु | 55 वर्ष |
शियों के इमाम | |
अमीरुल मोमिनीन (उपनाम) . इमाम हसन मुज्तबा . इमाम हुसैन (अ) . इमाम सज्जाद . इमाम बाक़िर . इमाम सादिक़ . इमाम काज़िम . इमाम रज़ा . इमाम जवाद . इमाम हादी . इमाम हसन अस्करी . इमाम महदी |
अली बिन मूसा बिन जाफ़र (अ.स.) (फ़ारसी: امام رضا علیه السلام), इमाम रज़ा (148-203 हिजरी) के नाम से प्रसिद्ध, शिया इसना अशरी के आठवें इमाम हैं। वर्ष 183 हिजरी से, वह बीस वर्षों तक शिया इमामत के प्रभारी थे, और उनकी इमामत अवधि हारुन अब्बासी, मुहम्मद अमीन और मामून अब्बासी की खिलाफ़त के साथ थी।
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में, इमाम रज़ा (अ.स.) को मामून के आदेश से मदीना से ख़ुरासान में मर्व बुलाया गया और उन्हे मामून का राजकुमार बना दिया गया। इतिहासकार और शिया विद्वान इमाम रज़ा के शासनकाल (राजकुमार बनाये जाने) को उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना मानते हैं और वह कहते हैं कि इमाम को मामून ने ऐसा करने के लिए मजबूर किया था।
इसके बावजूद, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ईरान में इमाम रज़ा (अ.स.) के आगमन का ईरान में शिया के विस्तार पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा; क्योंकि जब उन्होंने ईरान में प्रवेश किया, तो उन्होंने हर शहर में लोगों से मुलाकात की और इमामों की हदीसों के आधार पर उनके सवालों के जवाब दिए। साथ ही, विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के विद्वानों के साथ वाद-विवाद सत्रों में भाग लेने और उन पर अपनी वैज्ञानिक श्रेष्ठता से, शिया इमाम के रूप में उनकी वैज्ञानिक स्थिति लोगों के सामने प्रकट हुई।
ईरान के विभिन्न शहरों और क्षेत्रों में, मस्जिदों और क़दमगाहों जैसी इमारतों का नाम इमाम रज़ा के नाम पर रखा गया है, जो मर्व के रास्ते में उनके ठहरने की जगहें थी, और इसे इमाम रज़ा (अ.स.) के ईरान आने और इस देश में शिया धर्म के प्रसार के प्रभाव का संकेत माना जाता है।
एक प्रसिद्ध हदीस इमाम रज़ा (अ.स.) ने अपनी ईरान यात्रा के दौरान बयान की थी, जिसे सोने की चेन (सिलसिला अल ज़हब) के नाम से जाना जाता है; क्योंकि इसके कथावाचकों की शृंखला में सभी अचूक इमाम है। उन्होंने इस पवित्र हदीस क़ुदसी को नैशाबुर में वहां के विद्वानों के एक समूह को सुनाया था। इस हदीस में एकेश्वरवाद का परिचय ईश्वर के क़िले के रुप में कराया गया है, जो कोई भी इसमें प्रवेश करता है वह सुरक्षित है। फिर इसमें आया है कि निस्संदेह, इसकी कुछ शर्तें हैं और मैं उनमें से एक हूं।
अधिकांश शिया विद्वानों के विचार के अनुसार, इमाम रज़ा (अ.स.) को 55 साल की उम्र में तूस में मामून द्वारा ज़हर दिया गया और उन्हें शहादत के बाद सनाबाद गांव में हारुनिया मक़बरे में दफ़्न किया गया। वह शिया इमामों में एकमात्र इमाम हैं जिन्हें ईरान में दफ़नाया गया है। मशहद में इमाम रज़ा का रौज़ा शियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों में से एक है। उनकी बहन फ़ातिमा मासूमा का रौज़ा भी ईरान में स्थित है, जो रज़वी दरगाह के बाद इस देश की सबसे मशहूर दरगाह मानी जाती है।
इमाम रज़ा (अ) के बारे में बहुत सी किताबें और बहुत सी साहित्यिक कृतियाँ जैसे कविताएँ, उपन्यास और फ़िल्में तैयार की गई हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं: किताब अल-हयात अल-सियासिया लिल इमाम अल-रज़ा (अ.स.), जो सय्यद जाफ़र मुर्तज़ा आमेली द्वारा लिखी गई है; अल-इमाम अल-रज़ा; तारीख़ुन व देरासतुन, यह सय्यद मोहम्मद जवाद फ़ज़्लुल्लाह द्वारा लिखी गई है; किताब हयात अल इमाम अली बिन मूसा अल-रज़ा (अ.स.); देरासतुव व तहलील, यह बाक़िर शरीफ़ क़रशी द्वारा लिखी गई है; हिकमत नामा रज़वी, यह किताब मोहम्मद मोहम्मदी रय शहरी और उनके सहयोगियों द्वारा लिखी गई है; ईरानी कवि हबीबुल्लाह चाइचियान की फ़ारसी कविता "क़ितएई अज़ बहिश्त"; नसीम शुमाल की कविता "बा आले-अली हर केह उफ़ताद वर उफ़ताद" और महमूद फ़र्शचियान की पेंटिंग ज़ामिने आहू।
जीवनी
अली बिन मूसा, जिन्हें इमाम रज़ा (अ.स.) के नाम से जाना जाता है, शिया इसना अशरी के आठवें इमाम हैं।[१] उनके पिता, मूसा बिन जाफ़र (अ.स.), शिया इसना अशरी के सातवें इमाम थे, और उनकी माँ एक कनीज़ थीं जिन्हें नजमा या तुक्तम कहा जाता है।[२]
इमाम रज़ा (अ.स.) के जन्म और शहादत के समय के संबंध में मतभेद हैं।[३] उनमें से कुछ यह है कि उनका जन्म 11 ज़िल-हिज्जा या 11 ज़िल-क़ादा या 11 रबी-उल-अव्वल की तारीख़ में वर्ष 148 हिजरी या 153 हिजरी में हुआ था। और सफ़र महीने के आखिरी दिन या 17 या 21 रमज़ान की तारीख़, या 18 जमादी अल अव्वल की तारीख़ या 23 ज़िल-क़ादा या ज़िल क़ादा के आखिरी दिन वर्ष 202 हिजरी या 203 या 206 हिजरी को शहीद हुए।[४] सय्यद जाफ़र मुर्तज़ा अमेली के अनुसार, अधिकांश विद्वानों और इतिहासकारों का मानना है कि इमाम रज़ा का जन्म 148 हिजरी में मदीना में हुआ था और वह वर्ष 203 हिजरी में शहीद हुए थे।[५]
अपने पिता की शहादत के बाद इमाम रज़ा (अ.स.) शियों के इमाम बने। उनकी इमामत का कार्यकाल बीस साल (वर्ष 183-203 हिजरी) था जो हारुन अब्बासी, मुहम्मद अमीन और मामून की खिलाफ़त के साथ मेल खाता था।[६]
उपनाम और उपाधियाँ
मुख्य लेख: इमाम रज़ा (अ) के उपनामों और उपाधियों की सूची
अली बिन मूसा के लिए, रज़ा, साबिर, रज़ी, वफ़ी और ज़की जैसे उपनामों का उल्लेख किया गया है।[७] फ़ज़्ल बिन हसन तबरसी द्वारा लिखित किताब आलाम अल-वरा में इमाम काज़िम (अ) एक हदीस के आधार पर, आपने उनके बारे में आलिमे आले-मुहम्मद की उपाधि का भी इस्तेमाल किया है।[८] इमाम रज़ा को ज़ामिने आहू,[९] इमाम रऊफ़,[१०] ग़रीब अल-ग़ोरबा,[११] सामिन अल-हुजज (आठवाी हुज्जत),[१२] सामिन अल-आइम्मा (आठवें इमाम) जैसी उपाधियों से भी बुलाया जाता है।[१३]
उनका सबसे प्रसिद्ध उपनाम "रज़ा" है।[१४] सुन्नी विद्वानों में से एक सुयुती (849-911 हिजरी) ने कहा है कि यह उपाधि उन्हें अब्बासी ख़लीफ़ा मामून ने दी थी।[१५] लेकिन चंद्र कैलेंडर की चौथी शताब्दी के शिया मुहद्दिस शेख़ सदूक़ द्वारा उल्लेख की गई एक हदीस के अनुसार, इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) ने इस कथन को ग़लत माना है और अपने पिता को "रज़ा" उपनाम मिलने का कारण यह माना है कि वह आकाश में ईश्वर के ईश्वर होने से प्रसन्न थे, और ज़मीन पर पैग़म्बर की पैग़म्बरी और इमामों की इमामत से ख़ुश थे। इस हदीस में इमाम जवाद से पूछा गया है कि अन्य इमाम भी ऐसे ही थे। तो उनमें से आपके पिता का उपनाम ही "रज़ा" क्यों है? इमाम जवाद ने उत्तर दिया क्योंकि दोस्त और दुश्मन उनसे संतुष्ट थे, और यह बात अन्य किसी भी इमाम पर लागू नहीं होती है।[१६]
इमाम रज़ा की कुन्नियत अबुल हसन थी।[१७] शेख़ सदूक़ द्वारा उल्लेख की गई एक हदीस के अनुसार, इमाम काज़िम (अ.स.) ने उन्हें यह उपनाम दिया था, जो उनका ख़ुद का उपनाम भी था।[१८] उन्हें इमाम काज़िम से अलग करने के लिए, अबुल हसन सानी (द्वितीय) भी कहा जाता था।[१९] इमाम रज़ा की अन्य कुन्नियतें भी थी जैसे अबू अली[२०] और अबू मुहम्मद।[२१]
पत्नी और बच्चे
इमाम रज़ा की पत्नी का नाम सबीका नौबिया[२२] या ख़ैज़ोरान[२३] था जो इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) की माँ थीं।[२४] ऐतिहासिक और हदीस के स्रोतों में, इमाम रज़ा की एक और पत्नी का उल्लेख किया गया है और कहा जाता है कि वह मामून की बेटी थीं।[२५] शेख़ सदूक़ की रिपोर्ट के अनुसार, मामून ने इमाम रज़ा को अपना राजकुमार (वली अहद) बनाने के बाद, अपनी बेटी उम्म हबीब से उनकी शादी की।[२६]
शेख़ सदूक़, शेख़ मुफ़ीद, इब्न शहर आशोब और फ़ज़्ल बिन हसन तबरसी ने लिखा है कि इमाम रज़ा के केवल एक बेटे थे, जो इमाम जवाद थे।[२७] हालांकि, आयान अल-शिया के लेखक सय्यद मोहसिन अमीन आमेली के लेखन के अनुसार, कुछ सूत्रों में, उनके लिए अन्य बच्चों का भी उल्लेख किया गया है।[२८]
कज़्विन शहर में, इमामज़ादे हुसैन के नाम पर एक रौज़ा मौजूद है, जिन्हे 8वीं चंद्र शताब्दी के इतिहासकार मुस्तौफ़ी ने इमाम रज़ा (अ.स.) का पुत्र माना है।[२९] बेशक, किआ गिलानी, एक वंशावलीविद्, ने अपनी वंशावली में उनका वंश जाफ़र तय्यार से मिलाया है।[३०] कुछ स्रोतों में, उन्हें इमाम रज़ा (अ.स.) का भाई भी कहा गया है।[३१]
भाई और बहन
इब्राहिम, शाह चेराग़, हमज़ा, इसहाक़ इमाम रज़ा के भाइयों में से हैं और फ़ातिमा मासूमा और हकीमा इमाम की बहनें हैं।[३२] इमाम रज़ा (अ.स.) की बहनों और भाइयों में, उनमें से सबसे प्रसिद्ध फ़ातिमा मासूमा हैं। शिया विद्वान उनके लिए एक उच्च स्थान के क़ायल हैं और उन्होने उनकी गरिमा और उनकी तीर्थयात्रा के महत्व के बारे में हदीसों का उल्लेख किया हैं।[३३] उन्हें ईरान और क़ुम में दफ़नाया गया है। इमाम रज़ा की दरगाह के बाद, हज़रत मासूमा की दरगाह ईरान में सबसे शानदार और प्रसिद्ध रौज़ों में मानी जाती है।[३४]
इमाम रज़ा (अ.स.) की इमामत पर नस्स
शिया दृष्टिकोण के अनुसार, इमाम ईश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है और उसे पहचानने का एक तरीका नस्स है, यानी पैग़म्बर (स) या पिछला इमाम अपने बाद के इमाम की इमामत की घोषणा करता है।[३५] शिया हदीस की किताबों में इमाम काज़िम (अ.स.) की हदीसें मौजूद हैं जिनमें इमाम रज़ा (अ.स.) की इमामत का स्पष्ट रुप से उल्लेख किया गया है। उदाहरण के लिए, अल काफ़ी,[३६] अल इरशाद,[३७] आलाम अल-वरा[३८] और बेहार अल-अनवार,[३९] जैसी किताबों में इमाम रज़ा की इमामत पर नस्स का एक विशेष खंड है, जिसमें संबंधित हदीसों को एकत्रित किया गया है।
उदाहरण के लिए, शेख़ कुलैनी ने एक हदीस के वर्णन में उल्लेख किया है कि दाऊद अल-रक़्क़ी ने इमाम काज़िम (अ.स.) से उनके बाद के इमाम के बारे में पूछा, और उन्होंने इमाम रज़ा की ओर इशारा किया और कहा: "यह मेरे बाद आपके साहिब (इमाम) है।[४०] शेख़ मुफ़ीद ने भी एक हदीस में, मुहम्मद बिन इसहाक़ से उल्लेख किया है: "मैंने इमाम काज़िम से पूछा, क्या आप मुझे यह नहीं बताएंगे कि मुझे अपना धर्म किससे लेना चाहिए?" वह मुझे ईश्वर के दूत (स) की क़ब्र पर ले गये और उत्तर दिया: मेरे बेटे अली (इमाम रज़ा) से। मेरे बेटे, भगवान ने कहा, मैं पृथ्वी पर एक उत्तराधिकारी रखूंगा[४१] और जब भगवान कोई वादा करता है, तो वह उसे पूरा करता है।"[४२]
इमामत का काल
इमाम रज़ा की इमामत का प्रारंभिक काल अब्बासी ख़लीफ़ा हारुन अल-रशीद की ख़िलाफ़त के साथ मेल खाता है, जिसने इमाम काज़िम की हत्या कर दी थी। शोधकर्ताओं के अनुसार, हारून इमाम काज़िम की हत्या के परिणामों के बारे में अपनी चिंता के कारण इमाम रज़ा को परेशान नहीं करता था, और इसलिए उन्हे अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी और वह तक़य्या नहीं किया करते थे और खुले तौर पर लोगों को अपनी इमामत की ओर बुलाया करते थे।[४३] शेख़ कुलैनी ने किताब अल काफ़ी में एक हदीस का उल्लेख किया है, जिसके अनुसार मुहम्मद बिन सेनान इमाम रज़ा (अ.स.) से कहते हैं कि इमामत के खुले निमंत्रण से आपने खुद को सुर्खियों में ला दिया है और मारे जाने के ख़तरे में डाल दिया है। इमाम रज़ा ने जवाब दिया: "जैसा कि पैग़म्बर (स) ने कहा था, अगर अबू जहल मेरे सिर से एक भी बाल कम कर सके, तो गवाही देना कि मैं पैग़म्बर नहीं हूं, मैं आपको यह भी बताता हूं कि अगर हारून मेरे सिर से एक भी बाल कम कर सके, तो गवाही देना कि मैं एक इमाम नहीं हूं।"[४४]
वाक़ेफ़िया का गठन
एक इतिहासकार, रसूल जाफ़रियान के अनुसार, इमाम काज़िम (अ.स.) की शहादत के बाद, तक़य्या का अस्तित्व होने, इमाम काज़िम (अ.स.) की संपत्ति रखने वाले कुछ लोगों की अवसरवादिता और कुछ झूठी हदीसों के अस्तित्व जैसे कारणों से, शियों के बीच उनके उत्तराधिकारी को लेकर विवाद पैदा हो गया था।[४५] इस बीच, शिया में एक संप्रदाय का गठन हुआ जिसने कहा कि इमाम काज़म (अ.स.) शहीद नहीं हुए हैं और महदी मौऊद हैं। यह समूह वाक़ेफ़िया के नाम से जाना जाने लगा।[४६] बेशक, इमाम काज़िम के अधिकांश साथियों ने इमाम रज़ा की इमामत स्वीकार कर ली थी।[४७]
इमाम रज़ा (अ.स.) का उत्तराधिराकी बनाया जाना
मुख्य लेख: इमाम रज़ा (अ.स.) का उत्तराधिकारी बनना
इमाम रज़ा (अ.स.) की विलायत अहदी को उनके राजनीतिक जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना माना गया है।[४८] यह घटना इस्लाम के इतिहास में विवादास्पद मुद्दों में से एक है, जो राजनीतिक और धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण है (इस पद की शपथ स्वीकार करना इमाम की अचूकता[४९] का खंडन है)।[५०]
शेख़ मुफ़ीद, शिया धर्मशास्त्री और न्यायविद (मृत्यु: 413 हिजरी) के अनुसार, मामून ने इमाम रज़ा को जान से मारने की धमकी देकर अपने उत्तराधिकारी के पद की शपथ स्वीकार करने के लिए मजबूर किया था।[५१] दूसरी ओर, इमाम रज़ा (अ.स.) ने शर्त लगाई कि वह सरकारी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।[५२] इस तरह, इमाम रज़ा को मदीना से मामून की सरकार की राजधानी ख़ुरासान के मर्व शहर में स्थानांतरित कर दिया गया।[५३]
शिया विद्वानों का कहना है कि मामून ने इमाम रज़ा की निगरानी करने के लिए,[५४] अलवियों की क्रांति को ठंडा करने के लिए[५५] और अपनी खिलाफ़त को वैध साबित करने के लिए[५६] उन्हे अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।
7 रमज़ान वर्ष 201 हिजरी में, मामून ने उत्तराधिकारी के पद की शपथ लेने के लिये एक समारोह आयोजित किया और लोगों और सरकारी अधिकारियों ने इमाम के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा ली।[५७] उसके बाद, मामून के आदेश के अनुसार, उपदेशों में इमाम रज़ा का नाम लिया जाने लगा और उनके नाम पर सिक्के ढाले गए।[५८]
ऐसा कहा जाता है कि इमाम रज़ा (अ.स.) पेश आने वाली इस स्थिति का शियों के पक्ष में फायदा उठाया और अहले-बैत (अ.स.) की बहुत सी शिक्षाओं को आम जनता के सामने व्यक्त करने में सक्षम हुए।[५९]
हदीस सिलसिला अल ज़हब
- मुख्य लेख: हदीस सिलसिला अल ज़हब
शेख़ सदूक़ और शेख़ तूसी जैसे हदीस के विद्वानों के अनुसार, इमाम रज़ा ने मर्व की अपनी यात्रा के दौरान, नैशापूर से गुजरते समय, इस शहर के विद्वानों के अनुरोध पर एक पवित्र हदीस क़ुदसी का वर्णन किया था,[६०] जिसे हदीस सिलसिला अल ज़हब (स्वर्ण श्रृंखला) के नाम से जाना जाता है।[६१] यह संभावना दी गई है कि इस हदीस की प्रसिद्धि का कारण यह है कि इसके दस्तावेजों की श्रृंखला (सनद के सिलसिले) में सब भगवान से लेकर सब अचूक है, या ऐसा इसलिए है क्योंकि सामानी शासकों में से एक ने इस हदीस को सोने में लिखा था और आदेश दिया था कि जब वह मर जाये तो इसे उसके साथ क़ब्र में रखा जाये।[६२] यह हदीस सिलसिला अल ज़हब शेख़ सदूक़ के कथन पर आधारित है, जो इस प्रकार है:
اللَّه َ عَزَّ وَ جَلّ یقُولُ: لَا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ حِصْنِی فَمَنْ دَخَلَ حِصْنِی أَمِنَ مِنْ عَذَابِی قَالَ فَلَمَّا مَرَّتِ الرَّاحِلَةُ نَادَانَا بِشُرُوطِهَا وَ أَنَا مِنْ شُرُوطِهَا (अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ला यक़ूलों: ला इलाहा इल्लल्लाहो हिसनी फ़मन दख़ला हिसनी अमिना मिन अज़ाबी क़ाला फ़ लम्मा मर्रत अल राहेलतो नादाना बेशुरुतेहा व अना मिन शुरुतेहा) ... सर्वशक्तिमान ईश्वर कहते हैं: ला इलाहा इल्लल्लाहा मेरा क़िला है। जो कोई मेरे गढ़ में प्रवेश करता है वह मेरे दंड से सुरक्षित रहता है। फिर जब सवारी आगे बढ़ गई, तो इमाम रज़ा (अ.स.) ने कहा: बेशक, उसकी शर्तों के साथ, और मैं उन शर्तों में से एक हूं।[६३]
ईद-उल-फितर की नमाज़
इमाम रज़ा (अ.स.) की ईद-उल-फितर की नमाज़ की कहानी हदीस की किताबों जैसे अल काफ़ी और उयून अख़बार-अल-रज़ा में उल्लेख की गई है।[६४] इस हदीस के अनुसार, इमाम रज़ा के विलायत अहदी स्वीकार करने के बाद, मामून ने उनसे चाहा कि वह ईद-उल-फितर की नमाज़ पढ़ायें; लेकिन उन्होने मामून को वेलायत-अहदी को स्वीकार करने की शर्त, खिलाफ़त के मामलों में हस्तक्षेप न करने की अपनी बात की याद दिलाई, और उन्होने इसे स्वीकार नहीं किया; लेकिन मामून के बार बार आग्रह के बाद, इमाम ने उससे कहा, "तब मैं ईश्वर के दूत (स) और इमाम अली (अ.स.) की तरह प्रार्थना करने जाऊंगा और मामून सहमत हो गए।"[६५]
ईद के दिन की सुबह इमाम रज़ा ने स्नान किया, सफ़ेद पगड़ी पहनी और अपने साथियों के साथ नंगे पैर बाहर आये और तकबीर कहना शुरु की। फिर आपने चलना शुरु किया और लोग उनके साथ आने लगे। हर दस कदम पर वह रुकते थे और तीन बार तकबीर कहते थे। इमाम के इस व्यवहार से पूरा शहर प्रभावित था और रो रहा था। यह ख़बर मामून तक पहुँची। मामून के वज़ीर फ़ज़्ल बिन सहल ने उससे कहा कि अगर रज़ा इस हालत में प्रार्थना स्थल पर पहुंचेगे तो शहर के लोग उनके साथ मिल जाएंगे और आपके खिलाफ़ विद्रोह करेंगे। सलाह यह है कि उन्हे वापस लौटने के लिए कहा जाए। इस प्रकार, मामून ने किसी को इमाम के पास भेजा और उनसे वापस लौटने के लिए कहा। इमाम ने भी अपने जूते पहने और घर लौट आये।[६६]
एक इतिहासकार, रसूल जाफ़रियान ने इस घटना को मामून और इमाम रज़ा (अ.स.) के बीच ख़राब रिश्ते के कारणों में से एक माना है।[६७]
ईरान में शिया धर्म के प्रसार में इमाम रज़ा का प्रभाव
मुख्य लेख: इमाम रज़ा की मर्व यात्रा
इमाम रज़ा एकमात्र शिया इमाम हैं जिन्हें ईरान में दफ़नाया गया है।[६८] रसूल जाफ़रियान इमाम रज़ा के ईरान आगमन को इस देश में शिया विस्तार के कारकों में से एक मानते हैं। वह शेख़ सदूक़ से वर्णन करते हैं कि इमाम रज़ा (अ.स.) मदीना से मर्व जाते समय, ईरान के हर शहर में जहां वह रुकते थे, लोग उनके पास आते थे और उनसे अपने सवाल पूछते थे, और इमाम रज़ा (अ.स.) ने उन्हें उन हदीसों के आधार पर उत्तर दिया देते थे, जिनके वर्णनकर्ता उनसे पहले के इमाम थे जिनका सिलसिला इमाम अली (अ.स.) और पैग़म्बर (स) तक पहुचता था, और इमामों का यह संदर्भ शिया विचार के विकास के कारकों में से एक था।[६९]
उनके अनुसार, खुरासान में इमाम की उपस्थिति ने लोगों को शिया इमाम के रूप में उनके व्यक्तित्व से अधिक परिचित कराया और इससे शिया प्रशंसकों में दिन ब दिन अधिक रुचि पैदा होने लगी। वह इमाम की वैज्ञानिक स्थिति और उनकी अलवी होने की स्थिति को ईरान में शिया धर्म के विकास में सबसे महत्वपूर्ण कारक मानते हैं।[७०]
इसी तरह से, मामून ने इमाम और उनके विरोधियों के बीच इमामत और पैग़म्बरी के क्षेत्र में जो बहसें और मुनाज़ेरे रखे और उनमें इमाम की भागीदारी और इमाम की श्रेष्ठता ने लोगों के सामने इमाम के वैज्ञानिक चरित्र को दिखाया। इस संदर्भ में सबूतों में से एक शेख़ सदूक़ द्वारा उल्लेख की गई हदीस है, और इसके अनुसार, मामून को सूचित किया गया था कि इमाम रज़ा धार्मिक बैठकें कर रहे थे और लोग उनकी ओर आकर्षित हो रहो हैं, और मामून ने लोगों को इमाम की बैठक से बाहर निकालने का आदेश दिया।[७१]
ईरान के विभिन्न शहरों और क्षेत्रों में, मस्जिदों, स्नानघरों और क़दमगाहों जैसी इमारतों का नाम इमाम रज़ा के नाम पर रखा गया है, यह वह जगहें हैं जो मर्व के रास्ते में इमाम के निवास स्थान रह चुके हैं, और जाफ़रियान इसे इमाम रज़ा (अ.स.) के ईरान आने के प्रभाव का प्रमाण और इस देश में शिया धर्म के विस्तार का कारण मानते हैं।[७२] इन इमारतों में अहवाज़ शहर में इमाम रज़ा मस्जिद, शुश्तर, दिज़फुल, यज़्द, दामग़ान और नैशापूर जैसे विभिन्न शहरों में उनसे मंसूब क़दमगाहें और इसी तरह से नैशापूर में स्नानघर शामिल हैं।[७३] वह लिखते हैं कि हालांकि इनमें से कुछ स्थानों का इमाम रज़ा से संबंध सही नहीं हो सकता है, लेकिन यह ईरान में शिया लोगों की रुचि को दर्शाता है।[७४]
शहादत का तरीक़ा
इमाम रज़ा (अ.स.) का विशेष सलाम اللّهُمَّ صَلِّ عَلَی عَلِی بْنِ مُوسَی الرِّضَا الْمُرْتَضَی الْإِمامِ التَّقِی النَّقِی وَحُجَّتِک عَلَی مَنْ فَوْقَ الْأَرْضِ وَمَنْ تَحْتَ الثَّرَی الصِّدِیقِ الشَّهِیدِ صَلاةً کثِیرَةً تامَّةً زاکیةً مُتَواصِلَةً مُتَواتِرَةً مُتَرادِفَةً کأَفْضَلِ مَا صَلَّیتَ عَلَی أَحَدٍ مِنْ أَوْلِیائِک (अल्लाहुम्मा सल्ले अला अली बिन मूसा अल रज़ा अल मुर्तज़ा अल इमाम अल तक़ी अल नक़ी व हुज्जतेका अला मन फ़ौक़ अल अर्ज़े व मन तहत अल सरा अल सिद्दीक़ अल शहीद सलातन कसीरतन ताम्मतन ज़ाकियतन मुतवासेलतन मुतवातिरतन मुतरादिफ़तन कअफ़ज़ले मा सल्लैता अला अहदिन मिन औलियाइका) हे भगवान, अली बिन मूसा अल-रज़ा पर सलाम भेज, प्यारे इमाम पर, निर्दोष धर्मपरायणता पर, और जो पृथ्वी पर और उसके अधीन सभी लोगों पर तेरी हुज्जत हैं, उस सच्चे शहीद को आशीर्वाद दें; अनेक, पूर्ण, शुद्ध और निरंतर शुभकामनाएँ, एक के बाद एक, तेरे द्वारा तेरे औलिया में से किसी एक को भेजी गई सर्वोत्तम शुभकामनाओं की तरह। इब्न क़ुलूवैह, कामिल अल-ज़ियारात, 1356, पृष्ठ 309।
इमाम रज़ा की शहादत के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण पाये जाते हैं। एक इतिहासकार, सय्यद जाफ़र मुर्तज़ा आमेली (मृत्यु: 1441 हिजरी) ने लिखा है कि शिया विद्वान, कुछ को छोड़कर, इस बात से सहमत हैं कि इमाम रज़ा को मामून के आदेश से शहीद किया गया था। इसी तरह से, बहुत से सुन्नी विद्वानों और इतिहासकारों का मानना है या अधिक संभावना व्यक्त की है कि उनकी प्राकृतिक मृत्यु नहीं हुई है।[७५]
किताब याक़ूबी का इतिहास (तीसरी शताब्दी ईस्वी में लिखी गई) के अनुसार, मामून ने बग़दाद जाने के इरादे से मर्व छोड़ा और इमाम रज़ा, जो उसके राजकुमार थे, को अपने साथ ले गए।[७६] जब वे तूस पहुंचे, तो इमाम रज़ा बीमार पड़ गए और तीन दिन के बाद, नौक़ान नामक गाँव में उनकी वफ़ात हो गई। उन्होंने यह भी लिखा है कि यह कहा गया है कि मामून के सेनापति अली बिन हिशाम ने इमाम को अनार से ज़हर दिया था।[७७] एक सुन्नी इतिहासकार तबरी ने भी अपने इतिहास (लिखित: 303 हिजरी) में बताया है कि इमाम अंगूर खा रहे थे। जब उनकी अचानक वफ़ात हो गई।[७८]
शिया धर्मशास्त्री और न्यायविद् शेख़ मुफ़ीद ने अपनी किताब तसहीह अल-ऐतेक़ाद में इमाम रज़ा की हत्या के बारे में संदेह के साथ बात की है; हालाँकि, उन्होंने उनकी शहादत की संभावना को प्रबल माना है;[७९] लेकिन अपनी अन्य पुस्तक, अल-इरशाद में, उन्होंने एक हदीस का वर्णन किया है जिसके अनुसार मामून के आदेश से इमाम रज़ा को अनार के रस से ज़हर दिया गया था।[८०] शेख़ सदूक़ ने ऐसी हदीसें उल्लेख की है जिनके आधार पर, मामून ने इमाम रज़ा को अंगूर[८१] या अनार[८२] या दोनों[८३] द्वारा ज़हर देकर शहीद किया है। उनकी शहादत को साबित करने के लिए, इस हदीस, ما منّا إلا مقتولٌ شهیدٌ (मा मिन्ना इल्ला मक़तूल शहीद) हम में से सब मक़तूल शहीद हुए हैं,[८४] जो सभी इमामों की शहादत को संदर्भित करता है,[84] से भी दलील दी गई है।[८५]
इमाम रज़ा (अ) का मक़बरा
मुख्य लेख: इमाम रज़ा (अ) की मक़बरा
इमाम रज़ा (अ.स.) की शहादत के बाद, मामून ने उन्हें सनाबाद गांव के पास अब्बासी कमांडरों में से एक, हमीद बिन क़हतबा ताई के बगीचे या दारुल अमारा में दफ़्ना किया। इससे पहले, मामून के पिता, अब्बासी ख़लीफ़ा हारून को वहाँ दफ़नाया गया था और इसलिए इसे हारुनिया मक़बरे के रूप में जाना जाता था।[८६] इमाम रज़ा एकमात्र इमाम हैं जिन्हें ईरान में दफ़्न किया गया है।[८७]
लेखको ने लिखा है कि सदियों के दौरान, इमाम रज़ा की क़ब्र खुरासान क्षेत्र के सभी मुसलमानों की पसंदीदा जगह थी, और शियों के अलावा, सुन्नी भी उनकी ज़ियारत के लिये आया करते थे।[८८]
इमाम रज़ा का मक़बरा धीरे-धीरे इस्लामी दुनिया, विशेषकर शियों के तीर्थ स्थलों में से एक बन गया। इमाम रज़ा की तीर्थयात्रा लोगों के जीवन में महत्वपूर्ण मान्यताओं में से एक है। इमाम रज़ा का दफ़्न स्थान मशहद अल-रज़ा के नाम से जाना जाने लगा और आज इसे मशहद शहर कहा जाता है। कहते है कि इमाम रज़ा की तीर्थयात्रा के लिये आने वाले बहुत अधिक ज़ायरीन के कारण, मशहद शहर को दुनिया के दूसरे तीर्थ शहर के रूप में जाना जाता है।[८९]
सहाबी
- मुख्य लेख: इमाम रज़ा (अ) के साथियों की सूची
शेख़ तूसी ने अपनी पुस्तक रेजाल में इमाम रज़ा (अ.स.) के साथियों के रूप में लगभग 320 लोगों का उल्लेख किया है।[९०] कुछ अन्य स्रोतों में, इस संदर्भ में अन्य आंकड़ों का उल्लेख किया गया है।[९१] मुहम्मद महदी नजफ़ ने अपनी पुस्तक अल-जामेओ ले रोवाते असहाब-अल-इमाम-अल-रिज़ा में विभिन्न शिया स्रोतों से 831 लोगों के नाम इमाम रज़ा (अ.स.) के सहाबियों और रावियों रूप में एकत्रित किए हैं।[९२] शेख़ तूसी के अनुसार, उनके कुछ साथियों में यह शामिल हैं:
- यूनुस बिन अब्द अल-रहमान
- सफ़वान बिन यहया
- मुहम्मद बिन अबी उमैर
- अब्दुल्लाह बिन मुग़ीरा
- हसन बिन महबूब
- अहमद बिन अबी नस्र बज़ंती
- हम्माद बिन उस्मान
- अहमद बिन मुहम्मद बिन ईसा अशअरी
- इस्हाक़ बिन मूसा बिन जाफ़र
- इब्राहीम बिन हाशिम क़ुम्मी
- अली बिन महज़ियार अहवाज़ी
- ज़करिया बिन आदम
- ज़करिया बिन इदरीस अशअरी क़ुम्मी
- देबल ख़ोज़ाई
- अली बिन इस्माइल मीसमी
- रयान बिन सल्त[९३]
मुहम्मद बिन उमर कश्शी, चौथी चंद्र शताब्दी में शिया रेजाल शास्त्र के विद्वानों में से एक, इमाम रज़ा (अ.स.) के छह साथियों को इज्माअ के साथियों (असहाबे इजमाअ) में से मानते थे, जो इस प्रकार हैं: यूनुस बिन अब्दुल रहमान, सफ़वान बिन यहया, इब्न अबी उमैर, अब्दुल्लाह बिन मुग़ैरह, हसन बिन महबूब और अहमद बिन अबी नस्र बज़न्ती।[९४]
इमाम रज़ा (अ.स.) से सम्बंधित पुस्तकें
हदीस की किताबों में इमाम रज़ा (अ.स.) से उद्धृत हदीसों के अलावा, कुछ किताबों के लेखन का श्रेय भी उन्हें दिया गया है। हालाँकि, शिया विद्वान उनमें से अधिकांश का श्रेय उन्हें देने की वैधता पर संदेह करते हैं:
- तिब्ब अल-रज़ा या रिसाला ज़हबिया: यह किताब चिकित्सा के क्षेत्र में है। ऐसा कहा जाता है कि तिब्ब अल रज़ा शिया विद्वानों के बीच प्रसिद्ध थी और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया था।[९५]
- साहिफ़ा अल-रज़ा: यह पुस्तक न्यायशास्त्र के क्षेत्र में है। अधिकांश शिया विद्वानों ने इसका श्रेय इमाम रज़ा (अ.स.) को दिए जाने की पुष्टि नहीं की है।[९६]
- अल-फ़िक़्ह अल-रज़वी: सय्यद मोहम्मद जवाद फ़ज़्लुल्लाह के अनुसार, अधिकांश शिया विद्वानों ने इस पुस्तक का श्रेय इमाम रज़ा (अ.स.) को नहीं दिया है। बेशक, इस बीच, मोहम्मद बाक़िर मजलिसी, मोहम्मद तक़ी मजलिसी, बहरुल उलूम, यूसुफ़ बहरानी जिन्हें साहिब-हदायक़ के नाम से जाना जाता है, और मुहद्दिस नूरी जैसे उलमा के समूह इसे इमाम रज़ा द्वारा लिखित मानते हैं।[९७]
- महज़्ज़-उल-इस्लाम वा शरायेए-उद-दीन: यह किताब शेख़ सदूक़ ने फ़ज़्ल बिन शाज़ान से उल्लेख की है; हालाँकि, इसके दस्तावेज़ के वर्णनकर्ताओं के सिक़ह होने की कमी और इसमें ऐसी सामग्री की उपस्थिति के कारण जो मुस्लिम न्यायशास्त्र के विरुद्ध है, उनका कहना है कि इस बात का कोई आश्वासन नहीं है कि यह पुस्तक इमाम रज़ा द्वारा जारी की गई थी।[९८]
वाद-विवाद
रसूल जाफ़रियान के अनुसार, इमाम रज़ा (अ.स.) के काल में, मुसलमानों के बीच धर्म शास्त्र ने बहुत व्यापकता प्राप्त कर ली थी और विभिन्न बौद्धिक समूहों के बीच बहुत से मतभेद पाये जाते थे। अब्बासी ख़लीफ़ा, विशेषकर मामून, इन चर्चाओं में शामिल होते थे। इस कारण से, इमाम रज़ा (अ.स.) से वर्णित कई हदीसें धर्मशास्त्र के क्षेत्र में हैं, जो प्रश्न और उत्तर या बहस के रूप में बयान हुईं है। इन विषयों में इमामत, एकेश्वरवाद, ईश्वर के गुण, पूर्वनियति और विवेक (जब्र व इख़्तेयार) से संबंधित विषय शामिल थे।[९९]
इमाम रज़ा के मर्व आने के बाद से, मामून विभिन्न विद्वानों की उपस्थिति के साथ कई वैज्ञानिक बैठकों का आयोजन किया करता था और इमाम रज़ा को उनमें भाग लेने के लिए कहा करता था।[१००] इन बैठकों में, इमाम रज़ा ने विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के विद्वानों के साथ बहसें की हैं, जिनका पाठ शिया हदीस की पुस्तकों, जैसे कि शेख़ कुलैनी द्वारा लिखित अल काफ़ी, शेख़ सदूक़ द्वारा लिखित अल तौहीद और उयून अख़बार अल-रज़ा और अहमद बिन अली तबरसी द्वारा लिखित अल ऐहतेजाज में मौजूद है। इनमें से कुछ बहसें (मुनाज़ेरात) इस प्रकार हैं:
- एकेश्वरवाद के बारे में बहस;[१०१]
- बदा और ईश्वर की इच्छा के बारे में सुलेमान मरूज़ी के साथ बहस;[१०२]
- ईश्वर शरीर है या नहीं इस पर अबू क़ुरा से बहस।[१०३]
- इस्लाम के पैग़म्बर (स) की नबूवत और पैग़म्बर ईसा की मानव होने के बारे में जासलीक़ ईसाई विद्वान के साथ बहस;[१०४]
- इस्लाम के पैग़म्बर (स) के नबी होने के बारे में रास अल-जालूत के साथ बहस;[१०५]
- पैग़म्बर मूसा, पैग़म्बर ईसा और पैग़म्बर मुहम्मद (स) की नबूवत को साबित करने के बारे में एक पारसी विद्वान के साथ बहस;[१०६]
- ईश्वर के अस्तित्व और उसके गुणों के बारे में इमरान साबी के साथ बहस।[१०७]
शेख़ सदूक़ से उद्धृत किया गया है कि इन बहस सत्रों को आयोजित करने में मामून का उद्देश्य, इमाम रज़ा (अ.स.) को विभिन्न संप्रदायों के बुजुर्गों के साथ टकराव में हराना और उनकी वैज्ञानिक और सामाजिक स्थिति को कमजोर करना था। हालाँकि, जो भी इमाम रज़ा (अ.स.) के साथ बहस करता था, अंततः उनकी वैज्ञानिक स्थिति का इक़रार करता था और उनके तर्कों को स्वीकार किया करता था।[१०८]
सुन्नियों के नज़दीक इमाम का स्थान
इब्न हजर असक़लानी (773-852 हिजरी), एक सुन्नी मुहद्दिस और इतिहासकार, ने इमाम रज़ा (अ.स.) के वंशावली, ज्ञान और इल्म की प्रशंसा की है।[१०९] और उन्होंने कहा है कि जब वह 20 वर्ष से अधिक के नहीं थे, तब वह मस्जिद अल-नबी में फ़तवे दिया करते थे।[११०] चंद्र कैलेंडर के 8वीं शताब्दी के सुन्नियों विद्वानों में से एक याफ़ेई ने इमाम रज़ा (अ.स.) को "जलील" और "मोअज़्ज़म" के रहबर और इमामिया धर्म के बारह इमामों में से एक के रूप में भी उल्लेख किया है, और कहा है कि मामून को बनी हाशिम परिवार के बीच कोई भी खिलाफ़त के लिए उनसे बेहतर और अधिक योग्य नहीं मिला और उसने उनके प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा की।[१११]
रसूल जाफ़रियान के अनुसार, हाकिम नैशापूरी, चौथी चंद्र शताब्दी में, शाफ़ेई धर्म के मुहद्दिस और न्यायविद, उन्होंने इमाम रज़ा (अ.स.) के बारे में "मफ़ाख़िर अल-रज़ा" नामक एक पुस्तक लिखी थी जो इस समय मौजूद नही है और मिट चुकी है और उसके केवल कुछ अंश इब्ने हमज़ा तूसी की किताब अल साक़िब फ़ी अल मनाक़िब में बाक़ी बचे हैं।[११२]
उन्होंने कई सुन्नी विद्वानों का परिचय कराया है जो 6वीं शताब्दी तक 8वें इमाम के दर्शन के लिये आए थे। उनमें, हिजरी की तीसरी और चौथी शताब्दी के एक प्रसिद्ध सुन्नी मुहद्दिस, अबू बक्र मुहम्मद बिन खुज़ैमा, नैशापूर के विद्वानों में से एक, अबू अली सक़फ़ी, मुहद्दिस और रेजाल शास्त्र के विद्वान अबू हातिम मुहम्मद बिन हब्बान बस्ती (मृत्यु: 354 हिजरी), प्रसिद्ध हदीसकार हाकिम नैशापूरी (321-405 हिजरी), एक प्रमुख ईरानी इतिहासकार अबुल फ़ज़्ल बैहक़ी (470-385 हिजरी), और पाँचवीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध विद्वान और आरिफ़ इमाम मुहम्मद ग़ज़ाली शामिल हैं।[११३]
इमाम रज़ा की तीर्थयात्रा के बारे में भी सुन्नी विद्वानों की कुछ रिपोर्टों का उल्लेख किया गया हैं। उदाहरण के लिए, हिजरी की तीसरी और चौथी शताब्दी में एक सुन्नी विद्वान इब्न हिब्बान ने कहा कि मैं कई बार मशहद में अली इब्न मूसा की क़ब्र पर जाता था और हज़रत से तवस्सुल करके मेरी समस्याएं हल हो जाती थीं।[११४] इब्न हजर असक़लानी ने यह भी उल्लेख किया है कि हिजरी की तीसरी और चौथी शताब्दी में सुन्नी न्यायविद, टिप्पणीकार और हदीसकार अबू बक्र मुहम्मद बिन खुज़ैमा और नैशापूर के विद्वानों में से एक अबू अली सक़फ़ी, अन्य सुन्नियों के साथ, इमाम रज़ा (अ.स.) की क़ब्र की ज़ियारत करने गए थे। इस कहानी के वर्णनकर्ता ने इब्न हजर को बताया: "अबू बक्र बिन खुज़ैमा इस क़ब्र का सम्मान करने और विनम्रतापूर्वक शोक मनाने के लिए इतने समर्पित थे कि हम आश्चर्यचकित रह गये थे।"[११५]
कलात्मक एवं सांस्कृतिक कार्य
कविता, उपन्यास, फ़िल्म, पेंटिंग आदि के रूप में इमाम रज़ा (अ.स.) के बारे में कला के विभिन्न कार्यों का निर्माण किया गया है:
साहित्यिक कार्य
इमाम रज़ा (अ) के बारे में बहुत सी कविताएँ लिखी गई हैं।[११६] फ़ारसी कविता में मदायेह रज़वी पुस्तक के लेखकों के अनुसार, पाँचवीं चंद्र शताब्दी के कवियों में से एक सनाई ग़ज़नवी पहले कवि हैं जिन्होंने इमाम रज़ा (अ.स.) की प्रशंसा में एक फ़ारसी कविता लिखी है। और यदि इस बारे में उनसे पहले कोई कविता थी, तो वह या तो खो गई है या उपलब्ध नहीं है।[११७] निम्नलिखित कविता उन्हीं की है:
دین را حرمی است در خراسان دشوار تو را به محشر آسان از معجزهای شرع احم از حجتهای دین یزدان همواره رهش مسیر حاجت پیوسته درش مشیر غفران چون کعبه پر آدمی ز هر جای چون عرش پر از فرشته هزمان هم فر فرشته کرده جلوه هم روح وصی درو به جولان از رفعت او حریم، مشهد از هیبت او شریف، بنیان از دور شده قرار زیرا نزدیک بمانده دیده حیران از حرمت زائران راهش فردوس فدای هر بیابان قرآن نه درو و او اولوالامر دعوی نه و با بزرگ برهان ایمان نه و رستگار از او خلق توبه نه و عذرهای عصیان از خاتم انبیا درو تن از سید اوصیا درو جان آن بقعه شده به پیش فردوس آن تربه به روضه کرده رضوان از جمله شرطهای توحید از حاصل اصلهای ایمان زین معنی زاد در مدینه این دعوی کرده در خراسان [११८]
उनके अनुसार, तैमूरी शासन और सफ़वी शासन के समय तक इमाम रज़ा (अ) के बारे में बहुत कम कविताएँ थीं। लेकिन सफ़वी काल के बाद से इसमें वृद्धि हुई है।[११९] फ़ारसी कविता में मदायेह रज़वी नामक पुस्तक में इमाम रज़ा (अ.स.) की प्रशंसा में ग़ज़नवी सनाई से लेकर आधुनिक युग तक के 72 फ़ारसी भाषा के कवियों [१२०] के क़सीदे एकत्रित किए गए हैं।[१२१] इनमें हबीबुल्लाह चाइचियान जिनका तख़ल्लुस हस्सान है, का क़सीदा क़ितआई अज़ बहिश्त "बहिश्त का एक टुकड़ा"[१२२] और मशरूता काल के धर्म गुरु और कवि नसीम शुमाल का क़सीदा "हर केह बा आले-अली दर उफ़ताद वरउफ़ताद" आठवें इमाम के बारे में कहे गये क़सीदों में शामिल है।[१२३] स्वर्ग का एक टुकड़ा (क़ितआई अज़ बहिश्त) इस प्रकार है:[१२४]
آمدم ای شاه پناهم بده خط امانی ز گناهم بده ای حرمت ملجأ درماندگان دور مران از در و راهم بده ای گل بیخار گلستان عشق قرب مکانی چو گیاهم بده لایق وصل تو که من نیستم اِذن به یک لحظه نگاهم بده ای که حَریمت بهمَثَل، کهرباست شوق و سبکخیزی کاهم بده تا که ز عشق تو گدازم چو شمع گرمی جانسوز به آهم بده لشکر شیطان به کمین من است بیکسم ای شاه، پناهم بده از صف مژگان نگهی کن به من با نظری یار و سپاهم بده در شب اول که به قبرم نهند نور بدان شام سیاهم بده آنچه صلاح است برای «حسان» از تو اگر هم که نخواهم بده
इमाम रज़ा (अ.स.) के बारे में उपन्यास भी लिखे गए हैं, जिनमें से कुछ यह हैं: सय्यद अली शुजाई द्वारा बे बुलंदाए आन रेदा; उक़यानूस् मशरिक़, माजिद पूर वली कलेश्तरी द्वारा; और राज़े आन बूये शगुफ़्त, फ़रीबा कल्होर द्वारा लिखित।[१२५]
फिल्म और टेलीविजन कार्य
इमाम रज़ा (अ.स.) पर केन्द्रित कुछ वृत्तचित्र और नाटकीय फ़िल्म और टेलीविज़न कार्य इस प्रकार हैं:[१२६]
- परविज़ किमियावी द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री फिल्म या ज़ामिन आहू, जो 1350 शम्सी में बनाई गई थी: इस काम में, किमियावी ने इमाम रज़ा (अ.स.) की दरगाह की तीर्थयात्रा के दिन की भावना और मनोदशा को चित्रित करने की कोशिश की थी।[१२७] सिनेमा निर्देशक मजीद मजीदी ने इस फिल्म को 8वें इमाम (अ) के बारे में बनाई गई वृत्तचित्र उत्कृष्ट कृतियों में से एक माना है।[१२८]
- महदी फ़ख़ीम ज़ादेह द्वारा निर्देशित टेलीविज़न श्रृंखला वेलायते इश्क़, इमाम रज़ा (अ.स.) से संबंधित दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण श्रृंखला मानी जाती है। यह फ़िल्म, जो 1376 शम्सी में बनी थी, इसमें मदीना से मर्व तक इमाम रज़ा (अ.स.) की इमामत और उनकी शहादत के इतिहास को दिखाया गया है।[१२९]
- 1384 शम्सी में निर्मित मजीद मजीदी द्वारा रेज़ा ए रेज़वान डॉक्यूमेंट्री, एक ऐसी फ़िल्म है जो तीर्थयात्रियों की सेवा करने के लिए इमाम रज़ा (अ.स.) के तीर्थ सेवकों के जुनून को बयान करती है।[१३०]
- 1386 शम्सी में रसूल सद्र आमेली द्वारा बनाई गई फिल्म 'हर शब तंहाई', जिसकी कहानी इमाम रज़ा (अ.स.) की दरगाह में घटित होती है, पहली फिल्मों में से एक है जिसके प्रमुख भाग इमाम रज़ा (अ.स.) की दरगाह में फिल्माए गए थे। यह फ़िल्म तीर्थयात्रा के बाद एक उदास और परेशान महिला के अंदर होने वाले सकारात्मक बदलाव की कहानी बताती है।[१३१]
- 1386 शम्सी में रसूल सद्र आमेली द्वारा निर्देशित फिल्म हर शब तंहाई, हथकड़ी पहने एक आरोपी की इमाम रज़ा (अ.स.) की दरगाह पर जाने की इच्छा का वर्णन करती है।[१३२]
- 1388 शम्सी में मेहदी करीमपुर द्वारा बनाई गई फिल्म रूज़े हशतुम, इमाम रज़ा (अ.स.) के बारे में अन्य फ़िल्मों में से एक है जिसे ईरान के विभिन्न टीवी चैनलों पर प्रसारित किया गया है।[१३३]
- 1388 शम्सी में सादिक़ कर्मेयार द्वारा निर्देशित फिल्म ज़ियारत, परेशान लोगों के जीवन की कहानी है, जिनकी आर्थिक समस्याएं मशहद में आने और इमाम रज़ा (अ.स.) की दरगाह पर जाने से हल हो जाती हैं।[१३४]
- हमीद नेमतुल्लाह की टीवी फिल्म "बिया अज़ गुज़श्ते हर्फ़ बेज़नीम" तीन बुजुर्ग महिलाओं के नज़रिए से इमाम रज़ा के रौज़ा की यात्रा का वर्णन है।[१३५]
- बेहरोज़ शोएबी द्वारा निर्देशित फ़िल्म बिदूने क़रारे कबली, यह फिल्म एक तीर्थयात्रा के बारे में है जो बिना सोचे या पहले से तैयारी के कहानी के मुख्य पात्र के साथ घटित होती है और उसमें और उसके ऑटिज्म से पीड़ित बेटे में सकारात्मक बदलाव लाती है।[१३६]
ज़ामिने आहू पेंटिंग
महमूद फ़र्शचियान की पेंटिंग एक ज़ामिने आहू में, एक हिरण के लिए इमाम अली रज़ा (अ) के गारंटी लेने की कहानी को दर्शाया गया है। कुछ समाचार एजेंसियों की रिपोर्ट के अनुसार, यह पेंटिंग दो संस्करणों में बनाई गई थी: एक 1358 शम्सी में और दूसरी 1389 शम्सी में, जिसे आस्तान कुद्स रज़वी को तोहफ़े में दिया गया था।[१३७]
इमाम रज़ा (अ) विश्व कांग्रेस
इमाम रज़ा (अ) की विश्व कांग्रेस सम्मेलनों की एक श्रृंखला है जो इमामों, विशेष रूप से इमाम रज़ा (अ) के बारे में आयोजित की जाती है।[१३८] इनमें से पहला सम्मेलन 1363 शम्सी में आयोजित किया गया था।[१३९] इस कांग्रेस के गठन का उद्देश्य अचूक इमामों, विशेषकर इमाम रज़ा (अ.स.) को पहचानने और पहचनवाने के क्षेत्र में एक वैज्ञानिक, सांस्कृतिक और अनुसंधान आंदोलन की शुरुआत है।[१४०]
इमाम रज़ा अंतर्राष्ट्रीय महोत्सव
इमाम रज़ा इंटरनेशनल कल्चरल एंड आर्टिस्टिक फाउंडेशन के अनुसार, इमाम रज़ा (अ) का अंतर्राष्ट्रीय महोत्सव हर साल, गरिमा दशक (दहे करामत) की शुरुआत के साथ, ईरान के प्रांतों के साथ-साथ कुछ अन्य देशों में, ईरान के संस्कृति और इस्लामी मार्गदर्शन मंत्रालय द्वारा आयोजित किया जाता है। यह महोत्सव एक वैज्ञानिक, अनुसंधान, सांस्कृतिक और कलात्मक दृष्टिकोण रखता है और इन क्षेत्रों में कार्यों को प्रस्तुत करने का आह्वान करके, उनमें से चुने हुए लोगों (श्रेष्ठ) को परिचित कराता है।[१४१]
इस उत्सव के अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम इस्लामिक संस्कृति और संचार संगठन के फोकस और विदेशों से संबंधित सांस्कृतिक संस्थानों, विशेष रूप से अहले-बैत विश्व परिषद, अल-मुस्तफा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय और विदेशों में स्कूल केंद्रों के सहयोग से विदेशों में किए जाते हैं।[१४२]
ग्रंथ सूची
- मुख्य लेख: इमाम रज़ा (अ) के बारे में पुस्तकों की सूची
इमाम रज़ा (अ.स.) के बारे में बहुत सी किताबें फ़ारसी, अरबी और अंग्रेजी जैसी विभिन्न भाषाओं में लिखी गई हैं, जो ग्रंथ सूची पुस्तकों में शामिल हैं, जैसे अली अकबर इलाही ख़ुरासानी द्वारा किताब नामा इमाम रज़ा (अ.स.), सलमान हबीबी द्वारा लिखित किताब शेनासी इमाम रज़ा (अ.स.), और हादी रब्बानी द्वारा लिखित गुज़ीदा किताब शेनासी इमाम रज़ा (अ.स.) को एकत्रित और प्रस्तुत किया गया है।
इमाम रज़ा (अ) की ग्रंथ सूची में सोलह अध्यायों में एक हज़ार से अधिक पुस्तकों का उल्लेख किया गया है। चौदहवें अध्याय में उर्दू, तुर्की, जर्मन, अंग्रेजी, फ्रेंच और थाई जैसी विदेशी भाषाओं से अनुवादित पुस्तकों का परिचय दिया गया है।[१४३] इमाम रज़ा (अ.स.) के बारे में कुछ स्वतंत्र पुस्तकें इस प्रकार हैं:
- मुसनद अल-इमाम अल-रज़ा अबी अल-हसन अली बिन मूसा (अ): इस किताब में, हदीस के विद्वानों और इमामों के साथियों से विभिन्न पुस्तकों में इमाम रज़ा (अ.स.) के बारे में जो कुछ बताया गया है, उसे अज़ीज़ुल्लाह ओतारेदी द्वारा संकलित किया गया है। इस पुस्तक की कुछ सामग्री इस प्रकार है: इमाम रज़ा की उपाधियाँ, उनकी इमामत, उनका व्यावहारिक जीवन, नैतिक गुण, मदीना से खुरासान तक इमाम रज़ा (अ.स.) की यात्रा, उनकी तीर्थयात्रा के गुण, उनके नाम बच्चे और भाई, इमाम का परिवार और साथी, और वह चमत्कार जो उनके रौज़े में घटित हुए है।[१४४]
- अल हयात अल सियासी इमाम अल-रज़ा (अ.स.), सय्यद जाफ़र मुर्तज़ा आमेली द्वारा लिखित: "आठवें इमाम का राजनीतिक जीवन" शीर्षक वाली इस पुस्तक का फ़ारसी में अनुवाद सय्यद ख़लील ख़लीलियान द्वारा किया गया है;
- अल-इमाम अल-रज़ा (अ), तारीख़ व देरासा; सय्यद मोहम्मद जवाद फ़ज़लुल्लाह द्वारा: "तहलीली अज़ ज़िन्दगानी इमाम रज़ा (अ.स.)" शीर्षक वाली इस पुस्तक का फ़ारसी में अनुवाद मोहम्मद सादिक़ आरिफ़ द्वारा किया गया था;
- हयात अल इमाम अली बिन मूसा अल-रज़ा (अ.स.); तहलील व देसारा, बाक़िर शरीफ़ क़रशी द्वारा: इस अरबी किताब का सय्यद मोहम्मद सालेही द्वारा "पिजोहिशी दक़ीक़ दर ज़िन्दगानी इमाम अली बिन मूसा अल-रज़ा (अ)" शीर्षक के साथ फ़ारसी में अनुवाद किया गया है, और इसका अंग्रेजी में अनुवाद जासिम रशीद ने किया है।
- अल-इमाम अल-रज़ा (अ.स.) इंदा अहल अल-सुन्नत: यह पुस्तक मोहम्मद मोहसिन तबसी द्वारा लिखी गई है और इसका फ़ारसी, अंग्रेजी और उर्दू में अनुवाद किया गया है।
- हिकमत नामा रज़वी, शोधकर्ताओं के एक समूह के सहयोग से, मोहम्मद मोहम्मदी रयशहरी द्वारा चार खंडों में है;
- फ़राज़ हाई अज़ ज़िन्दगानी इमाम रज़ा (अ), मोहम्मद रज़ा हकीमी द्वारा लिखित, जिसका अंग्रेजी, रूसी, तुर्की और मलय भाषाओं में अनुवाद किया गया है।[१४५]
- सहीफ़ा रज़विया जामेआ, सय्यद मोहम्मद बाक़िर अबतही द्वारा लिखित, जिसका अंग्रेजी, उर्दू और तुर्की में अनुवाद किया गया है;[१४६]
- सीरए इल्मी व अमली इमाम रज़ा (अ.स.), अब्बास अली ज़ारेई सब्ज़वारी द्वारा लिखित;
- दानिश नामा इमाम रज़ा (अ.स.), जिसे अल-मुस्तफ़ा इंटरनेशनल युनिवर्सिटी, संस्कृति और इस्लामी मार्गदर्शन मंत्रालय और इमाम रज़ा (अ) अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक और कलात्मक फाउंडेशन जैसे तीन संस्थानों के सहयोग से दो खंडों में प्रकाशित किया गया है।[१४७]
फ़ुटनोट
- ↑ आमेली, अल हयात अल सियासिया लिल इमाम अल-रज़ा, 1403 हिजरी, पृष्ठ 139।
- ↑ सदूक़, उयूंन अख़बार अल-रज़ा (अ), 1378 एएच, खंड 1, पृष्ठ 14, 16। तबरसी, आलाम अल वरा, खंड 2, पृ. 40
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- ↑ उदाहरण के लिए, ओतारुदी, मुसनद अल-इमाम अल-रज़ा, 1413 एएच, पृष्ठ 509 देखें; क़रशी, हयात अल-इमाम अली बिन मूसा अल-रज़ा, 1380, खंड 2, पृ. 186-86।
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- ↑ देखें तूसी, रिजाल अल-तूसी, 1415 एएच, पृ. 370-351।
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- ↑ फ़ज़लुल्लाह, इमाम रज़ा (अ.स.) के जीवन का विश्लेषण, 1382 शम्सी, पृष्ठ 196, 197
- ↑ फ़ज़लुल्लाह, इमाम रज़ा (अ.स.) के जीवन का विश्लेषण, 1382 शम्सी, पृष्ठ 187।
- ↑ फ़ज़लुल्लाह, इमाम रज़ा (अ.स.) के जीवन का विश्लेषण, 1382 शम्सी, पृष्ठ 197, 198
- ↑ जाफ़रियान, हयाते फिकरी व सियासी इमामाने शिया, 1382 शम्सी, पृ. 450
- ↑ जाफ़रियान, हयाते फिकरी व सियासी इमामाने शिया, 1382 शम्सी, पृष्ठ 442।
- ↑ सदूक़, उयून अख़बार अल-रज़ा, 1378 एएच, खंड 1, पृ. 131-133; सदूक़, तौहीद, 1398 एएच, पृ. 252-250; कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 एएच, खंड 1, पृ. 78-79; तबरसी, अल-इहतेजाज, 1403 एएच, खंड 2, पीपी 396-397।
- ↑ तबरसी, अल-इहतेजाज, 1403 एएच, खंड 2, पीपी. 401-404; सदूक़, तौहीद, 1398 एएच, 441-454; सदूक़, उयून अख़बार अल-रज़ा,, 1378 एएच, खंड 1, पृ. 179-191।
- ↑ कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 एएच, खंड 1, पृ. 131-130; सदूक़, तौहीद, 1398 एएच, पृ. 111-110; तबरसी, अल-इहतेजाज, 1403 एएच, खंड 2, पीपी. 405-408।
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- ↑ सदूक़, तौहीद, 1398 एएच, पृ. 417-441; सदूक़, उयून अख़बार अल-रज़ा, 1378 एएच, खंड 1, पृ. 154-175; तबरसी, अल-इहतजाज, 1403 एएच, खंड 2, पृ. 415-425।
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- ↑ सदूक़, तौहीद, 1398 एएच, पृ. 417-441; सदूक़, उयून अख़बार अल-रज़ा, 1378 एएच, खंड 1, पृ. 154-175; तबरसी, अल-इहतजाज, 1403 एएच, खंड 2, पृ. 415-425।
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