ग़ुस्ले मस्से मय्यत
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फ़ुरू ए दीन |
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ग़ुस्ले मस्से मय्यत (अरबी: غسل مس الميت) (मुर्दे को छूने का ग़ुस्ल) ऐसा ग़ुस्ल है जो मुर्दा इंसान के बदन के संपर्क में आने पर अनिवार्य हो जाता है। मय्यत के ठंडे होने के बाद और ग़ुस्ल से पहले मय्यत के संपर्क में आने पर यह ग़ुस्ल अनिवार्य हो जाता है। शिया न्यायविदों के अनुसार, यह ग़ुस्ल अनिवार्य है; लेकिन सुन्नी न्यायविद इसे मुस्तहब मानते हैं। मासूम और शहीद के शरीर को छूने से इस हुक्म से छूट मिलती है।
प्रसिद्ध शिया न्यायविदों के अनुसार, शव को छूने के बाद किया जाने वाला यह ग़ुस्ल वुज़ू के लिए पर्याप्त नहीं है। इसी तरह से, इस बारे में कि शव को छूना हदसे अकबर है या हदसे असग़र दो मत पाये जाते हैं। पहले दृष्टिकोण के अनुसार, मस्जिद में रुकने और रोज़ा रखने जैसी चीज़ों के लिए, मृतक को छूने का ग़ुस्ल करना चाहिए। लेकिन दूसरे मत के अनुसार मृत शरीर को छूने का स्नान केवल उन कार्यों के लिए आवश्यक है जिनमें वुज़ू की आवश्यकता होती है।
संकल्पना और स्थिति
मुर्दे को मस करने का ग़ुस्ल, वह ग़ुस्ल कहलाता है जो मुर्दे के शरीर के संपर्क में आने पर अनिवार्य हो जाता है।[१] इस ग़ुस्ल का ज़िक्र न्यायशास्त्र की किताबों में पवित्रता के अध्याय में किया जाता है।[२]
मय्यत को छूने के ग़ुस्ल का तरीक़ा जनाबत का ग़ुस्ल समेत दूसरे ग़ुस्लों से अलग नहीं है।[३] ग़ुस्ल दो तरह से किया जाता है तरतीबी व इरतेमासी। तरतीबी ग़ुस्ल में नीयत के बाद विधिपूर्वक पहले सिर और गर्दन को धोया जाता है, फिर दाहिनी ओर और फिर शरीर के बाएं हिस्से को। जबकि, इरतेमासी स्नान में, (नीयत करके) पूरे शरीर को पानी में डुबोया जाता है।[४]
दर्शन
मुर्दों को छूने पर ग़ुस्ल करने का फ़लसफ़ा, छूने वाले इंसान की साफ़-सफ़ाई और रूहानी पवित्रता का पालन करना, माना गया है। इमाम रज़ा (अ) द्वारा वर्णित एक हदीस के अनुसार, एक व्यक्ति जो एक मृत व्यक्ति को नहलाता है, उसे मृत शरीर से स्थानांतरित होने वाली अशुद्धियों को साफ़ करने के लिए स्नान करना चाहिए। क्योंकि जब आत्मा शरीर छोड़ती है, तो कीट और संक्रमण शरीर में रह जाते हैं।[५]
न्यायशास्त्रिय आदेश
अधिकांश शिया न्यायविदों के अनुसार, मय्यत को छूने के बाद स्नान करना अनिवार्य है।[६] शिया न्यायविदों के बीच, सय्यद मुर्तज़ा (355-436 हिजरी) को तरफ़ निस्बत दी जाती है कि वह इसे मुस्तहब मानते हैं।[७] इसी तरह से, अल्लामा हिल्ली के अनुसार (648-726 हिजरी), अहले-सुन्नत मृत शरीर को छूने के बाद स्नान करने को अनिवार्य नहीं मानते हैं[८] और उनमें से अधिकांश के अनुसार इस ग़ुस्ल की सिफारिश की गई है अर्थात मुसतहब है।[९]
शिया न्यायविदों के फ़तवे के अनुसार, मृत व्यक्ति के शरीर के साथ संपर्क उस समय ग़ुस्ल की बाध्यता का कारण बनता है जब मृत शरीर ठंडा हो चुका हो और शव को नहलाने से पहले उसे छूवा गया है। इसलिए मुर्दे को नहलाने के बाद उसके बदन को छूने से नहाना वाजिब नहीं होता है।[१०]
अपवाद
शिया न्यायविदों के अनुसार, मृतकों को नहलाने की बाध्यता के कुछ अपवाद हैं। इन मामलों में शामिल हैं: किसी मासूम के शरीर को छूना, किसी शहीद के शरीर को छूना जो युद्ध के मैदान में मारा गया हो, और ऐसे किसी शव के शरीर को छूना जिसने हद या क़ेसास जारी होने से पहले ग़ुस्ले मय्यत किया हो। [११] बेशक, कुछ लोगों ने ऐहतेमाल दिया है कि शहीद के शरीर को छूना भी ग़ुस्ल का कारण बनता है। [१२]
संबंधित अहकाम
नय्यत को छूने से संबंधित कुछ नियम इस प्रकार हैं:
- अधिकांश फ़क़ीहों के अनुसार शव को छूने के बाद किया जाने वाला ग़ुस्ल वजू के लिए पर्याप्त नहीं है। इसलिए नमाज़ के लिए ग़ुस्ल के अलावा वुज़ू भी किया जाना चाहिए। [१३] बेशक, आयतुल्लाह सीस्तानी के फ़तवे के अनुसार, वुज़ू के लिए मस्से मय्यत का ग़ुस्ल ठीक वैसे ही काफ़ी है जैसे जनाबत का ग़ुस्ल। [१४]
- अधिकांश तक़लीद अधिकारियों (मरजए तक़लीद) के फ़तवों के अनुसार, मानव शरीर से अलग किए गए हिस्से को छूने से, अगर उसमें हड्डियाँ होती हैं, तो ग़ुस्ल वाजिब होता है। [१५] दूसरी ओर, आयतुल्लाह सीस्तानी का मानना है कि मानव शरीर से अलग किए गए हिस्से को छूने से और चाहे हड्डी और माँस ही क्यों न हो, ग़ुस्ल का कारण नहीं बनता है। [१६]
- कुछ विधिवेत्ताओं के मतानुसार शव को छूने का स्नान केवल उन्हीं कार्यों के लिए अनिवार्य है जिनमें वुज़ू की आवश्यकता होती है। जैसे नमाज़ और क़ुरआन की पंक्तियों को छूना। कुछ लोग मस्से मय्यत को हदसे अकबर मानते हैं। इसलिए पवित्रता से किए जाने वाले सभी कार्यों के लिए यह आवश्यक माना जाता है, जैसे कि नमाज़, तवाफ़, उपवास और मस्जिद में रुकना। [१७] वहीद बेहबहानी से वर्णित है कि फ़ोक़हा के बीच दूसरा मत प्रसिद्ध है। [१८] हालांकि, अधिकांश समकालीन मराजेए तक़लीद ने पहली राय को स्वीकार किया है। [१९]
संबंधित लेख
फ़ुटनोट
- ↑ अली शिया, "अहकामे मय्यत दर फ़िक़हे मज़ाहिबे इस्लामी", पृष्ठ 57।
- ↑ उदाहरण के लिए, तबताबाई यज़दी, अल-उर्वा अल-वुसक़ा, 1419 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 12 देखें।
- ↑ तबताबाई यज़दी, अल-उर्वा अल-वुसक़ा, 1419 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 10।
- ↑ तबताबाई यज़दी, अल-उरवा अल-वुसक़ा, 1419 हिजरी, खंड 1, पेज. 522-524।
- ↑ शेख़ सदूक़, इललुश शरायेअ, 1385 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 300, हदीस 3।
- ↑ आमेली, मिफ्ताह अल-करामा, अल-नशर अल-इस्लामी पब्लिशिंग हाउस, खंड 4, पृष्ठ 312।
- ↑ आमेली, मिफ्ताह अल-करामा, अल-नशर अल-इस्लामी पब्लिशिंग हाउस, खंड 4, पृष्ठ 313।
- ↑ अल्लामा हिल्ली, तज़किराह अल-फ़ुक़ाहा, 1414 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 134।
- ↑ शेख़ तूसी, अल-ख़ेलाफ़, अल-नशर अल-इस्लामी पब्लिशिंग हाउस, खंड 1, पृष्ठ 223।
- ↑ तबताबाई यज़दी, अल-उरवा अल-वुसक़ा, 1419 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 3।
- ↑ नजफी, जवाहिर अल कलाम, 1362, खंड 5, पृष्ठ 307।
- ↑ तबरेज़ी ग़रवी, अल-तनक़ीह, 1411 हिजरी, खंड 8, पीपी 294-298।
- ↑ तबताबाई यज़दी, अल-उर्वा अल-वुसक़ा, 1419 हिजरी, खंड 2, पेज 9-10।
- ↑ सीस्तानी, तौज़ीहुल मसायल, बी टा, पृष्ठ 103, अंक 518।
- ↑ तबताबाई यज़्दी, अल-उरवा अल-वुसक़ा, 1419 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 5।
- ↑ सीस्तानी, मिन्हाज अल-सालेहिन, 1417 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 116।
- ↑ देखें तबताबेई यज्दी, अल-उर्वा अल-वुसक़ा, 1419 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 11; आमेली, मिफ्ताह अल-करामा, अल-नशर अल-इस्लामी पब्लिशिंग हाउस, खंड 4, पेज 314-317।
- ↑ आमेली, मिफ्ताह अल-करामा, अल-नशर अल-इस्लामी पब्लिशिंग हाउस, खंड 4, पृष्ठ 314।
- ↑ बनी हाशिमी खुमैनी, तौज़ीहुल-मसायल मराजे, 1392, खंड 1, पेज 393-394 को देखें।
स्रोत
- बनी हाशिमी खुमैनी, सैय्यद मोहम्मद हसन, तौज़ीहुल-मसायले मराजे, दफ़तरे इंतेशाराते इस्लामी, 1392।
- तबरेज़ी ग़रवी, मिर्ज़ा अली, अत तंक़ीह फ़ी शरहिल उतवतिल वुसक़ा तक़रीरन ले बहस आयतुल्लाह उज़मा सैयद अबुल-कासिम ख़ूई, दूसरा संस्करण, 1411 हिजरी।
- हुसैनी आमेली, सय्यद मोहम्मद जवाद, मिफ्ताह अल-करामा फ़ी शरहे अल-क़वायद अल्लामा, मोहम्मद बाक़िर खालसी द्वारा शोध, क़ुम, मोअस्सेसा अल-नशर अल-इस्लामी, बी टा।
- सीस्तानी, सैय्यद अली, तौज़ीहुल-मसायल, बी ना, बी ता।
- सीस्तानी, सैय्यद अली, मिन्हाज अल-सालेहिन, क़ुम, दफ़तरे नशरे हज़रत आयतुल्लाह सीस्तानी, 1417 हिजरी।
- शेख़ सदूक़, मुहम्मद बिन अली, इललुश शरायेअ, क़ुम, किताब फ़ुरूशी दावरी, 1385/1966 ई.
- शेख़ तूसी, मुहम्मद बिन हसन, अल-खेलाफ़, अल-नशर अल-इस्लामी फाउंडेशन, बी टा।
- तबताबाई यज़दी, सय्यद मोहम्मद काज़िम, अल-उर्वा अल-वुसक़ा, क़ुम, अल-नशर अल-इस्लामी फाउंडेशन, 1419 हिजरी।
- अल्लामा हिल्ली, हसन बिन यूसुफ़, तज़किरा अल-फ़ुक़हा, क़ुम, आलुल-बैत संस्थान, 1414 हिजरी।
- अली शिया, अली, "अहकामे मय्यत दर फ़िक़हे मज़ाहिबे इस्लामी", मुतालेआते तक़रीबी मज़ाहिबे इस्लामी, संख्या 3, शीतकालीन 2018।
- नजफी, मोहम्मद हसन, जवाहिर अल-कलाम फ़ी शरह शरिया अल-इस्लाम, अब्बास क़ूचानी द्वारा शोधित, बेरूत, दार इहया अल-तुरास अल-अरबी, 7वां संस्करण, 1362।