शबे-क़द्र

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(शबे क़द्र से अनुप्रेषित)

शबे-क़द्र (अरबी: لَیلَة القَدر) या लैला तुल-क़द्र अर्थात भाग्य की रात मुस्लमानो मे साल की सर्वाधिक फ़ज़ीलत रखने वाली रात है। क़ुरआन और हदीस के प्रकाशन मे यह रात्रि हज़ार महीने से अफ़ज़ल और श्रेष्ठ है। मुस्लमानो के अनुसार इस रात क़ुरान दफ़्ई (सम्पूर्ण क़ुरान) हज़रत मुहम्मद (स) के क़ल्ब (हृदय) पर उतरा है। इसके अलावा यह रात रहमतो के नज़ूल, पापो की क्षमा और पृथ्वी पर स्वर्गदूतो के आगमन की रात है। कुछ शिया हदीसो के अनुसार इस रात लोगो के एक साल के मुक़द्देरात इमाम ज़माना (अ.त.) की सेवा मे प्रस्तुत किए जाते है। अल्लाह ने क़ुरान के सूरा ए क़द्र और सूरा ए दुख़ान दोनो मे शबे-क़द्र का उल्लेख किया है। शबे-क़द्र कौन सी रात है इस संबंध मे कोई सटीक जानकारी नही है, लेकिन बहुत सी हदीसो के अनुसार यह बात निश्चित है कि शबे-क़द्र रमज़ान के पवित्र महीने की रात है और अधिकांश रमज़ान के पवित्र महीने की उन्नीस, इक्कीस या तेइसवीं रात पर संभावना जताते है। जबकि शिया मुस्लमान 23वी और सुन्नी मुस्लमान 27वी रात को शबे क़द्र होने पर ज़ोर देते है। कुछ रिवायतो के आधार पर शबे-क़द्र शाबान (इस्लामी कैलेंडर के आठवे) महीने की पंद्रहवी रात है।

शिया मुस्लमान चौदह मासूमो का अनुसरण करते हुए इन तीनो रातो को शब बेदारी अर्थात रतजगा करके इबादत करते हुए बिताते है। शिया स्रोतो मे शबे-क़द्र के आमाल (कर्म) के शीर्षक से कुछ मख़्सूस आमाल जिनमे मासूर और ग़ैर मासूर दुआए, नमाज़े और दूसरे रीति रीवाज जैसे क़ुरान सर पर उठाना इत्यादि सम्मिलित है।

इसके अलावा रमज़ान की उन्नीसवी और इक्कीसवीं की रात्रि हज़रत अली (अ) के घायल और शहीद होने की याद मे अज़ादारी और मजलिसे भी शबे-क़द्र के आमाल मे आती है।

नामकरण

अरबी शब्दोकोष मे क़द्र भाग्य को कहते है।[१] शबे क़द्र को शबे-क़द्र कहने के विभिन्न कारण बताए गए है। • कुछ का कहना है कि क्योकि मनुष्य के एक साल का भाग्य इस रात मे निर्धारित होता है इसलिए इसे शबे-क़द्र अर्थात भाग्य की रात कहते है।[२] • कुछ लोगो का मानना है कि यदि कोई व्यक्ति इस रात को रतजगा मे बिताए तो वह एक सज्जन व्यक्ति के रूप मे जाना जाता है इसलिए इसे शबे-क़द्र कहते है।[३] • जबकि दूसरे कुछ लोगो का ऐसा कहना है कि इस रात के नामकरण की वजह इस रात की शराफ़त और अज़्मत है।[४] इसलिए शबे-क़द्र को "लैला तुल अज़्मा" और "लैला तुल-शरफ़" से भी याद किया जाता है।[५]

स्थिति और महत्व

शबे-क़द्र इस्लामी संस्कृति में वर्ष की सबसे महत्वपूर्ण रात है।[६] (फारसी से 8) पैगंबर (स.) की हदीस के अनुसार, शबे-क़द्र मुसलमानों के लिए भगवान के उपहारों में से एक ऐसा उपहार है जिससे पहली वाली क़ौमे वंछित थी।[७] क़ुरान करीम मे शबे-क़द्र से संबंधित एक पूरा सूरा जिसे (सूरा ए क़द्र) कहा जाता है।[८] इस सूरे मे शबे-क़द्र के महत्व को हज़ार महीने से अधिक बताया गया है।[९] सूरा ए दुख़ान की पहली से लेकर छटी आयत तक शबे-क़द्र के महत्व और उसमे घटित घनाओ का वर्णन हुआ है।[१०]

इमाम सादिक़ (अ) से एक हदीस मे आया है कि बेहतरीन महीना रमज़ान और रमज़ान का दिल शबे-क़द्र है।[११] इसी प्रकार पैगंबर अकरम (स) ने एक हदीस मे शबे-क़द्र को तमाम रातो का सरदार बताया है।[१२] हदीसी ग्रंथो और धर्मशास्त्रो के अनुसार इन रातो के दिन भी खुद इन रातो की भांति फ़ज़ीलत और अज़मत वाले है।[१३] कुछ हदीसो मे है कि शबे-क़द्र का रहस्य हज़रत फ़ातेमा (अ) है।[१४] और जो कोई आपकी कद़्र और मंज़िलत तक पहुंच गया वह ऐसा है जैसे उसने शबे-क़द्र की कद़्र और मंज़िलत पा लिया।[१५] इमाम अली (अ) की शहादत जैसी बड़ी घटना का इस महीने के अंतिम दस दिनो मे घटने से शिया मुस्लमानो के विश्वासो मे इन रातो के महत्व मे वृदधि हुई है और शिया मुस्लमान इन रातो के आमाल के साथ-साथ हज़रत अली (अ) की शहादत की याद मनाते हुए शब-बेदारी करते है।[१६]

क़ुरान का नाज़िल होना

सूरा ए क़द्र की पहली और सूरा ए दुख़ान की तीसरी आयत के अनुसार क़ुरान शबे-क़द्र मे नाज़िल हुआ है।[१७] मुहम्मद अब्दोह इस बात पर यक़ीन रखते है कि क़ुरान धीरे-धीरे रमज़ान मे नाज़िल हुआ है;[१८] लेकिन अधिकांश टीकाकारो के अनुसार शबे-क़द्र मे सम्पूर्ण कुरान लौहे महफ़ूज़ से बैत उल-मामूर या पैगंबर अकरम (स) के क़ल्ब पर नाज़िल हुआ है जिसे क़ुरान का नुज़ूले दफ़्ई या नुज़ूले इजमाली कहा जाता है।[१९]

भाग्य का निर्धारण

इमाम बाक़िर (अ) सुरा ए दुख़ान की आयत न 4 की व्याख्या मे फ़रमाते है कि आने वाले साल मे प्रत्येक मनुष्य के भाग्या का निर्धारण शबे-क़द्र मे किया जाता है।[२०] इसीलिए कुछ हदीसो मे शबे-क़द्र को साल का आरम्भ कहा गया है।[२१] अल्लामा तबातबाई के अनुसार क़द्र का अर्थ भाग्य और निर्धारण है और अल्लाह तआला मनुष्यो के जीवन, मृत्यु, आजिवीका, सआदत और शक़ावत इसी रात मे निर्धारित करता है।[२२] कुछ हदीसो के अनुसार इमाम अली (अ) और अहले-बैत (अ) की विलायत भी इसी रात को निर्धारित हुई है।[२३]

पापो की क्षमा

इस्लामी स्रोतो के आधार पर शबे-क़द्र अल्लाह की विशेष रहमत के नुज़ूल, पापो की क्षमा, शैतान को ज़ंजीरो मे जकड़ने और मोमेनीन के लिए स्वर्ग के द्वारो को खोलने की रात है।[२४] पैगंबर अकरम (अ) की हदीस मे है कि जो भी शबे-क़द्र को जागते हुए बिताने के साथ-साथ मोमेनीन और क़यामत पर भी विश्वास रखता हो तो उसके सभी को क्षमा कर दिया जाएगा।[२५]

स्वर्गदूतो का आगमन

सूरा ए क़द्र की आयत के प्रकाशन मे शबे-क़द्र को स्वर्गदूत और आत्मा का नुज़ूल होता है।[२६] और कुछ हदीसो के अनुसार स्वर्गदूत और आत्मा एक साल के भाग्य को पहुचाने के लिए समय के इमाम के यहां उपस्थित होते है और जो कुछ निर्धारित हुआ है उन्हे इमाम की सेवा मे प्रस्तुत करते है।[२७] इमाम बाक़िर (अ) फ़रमाते हैः शबे-क़द्र को स्वर्गदूत हमारी परिक्रमा करते है इस प्रकार हमे शबे-क़द्र का ज्ञान होता है।[२८] कुछ दूसरी रिवायतो मे शियो के लिए इसी मुद्दे के माध्यम से शियो की हक़्क़ानीयत और आइम्मा ए मासूमीन (अ) की इमामत पर इसतिदलाल करने की शिफ़ारिश हुई है। और वह इस प्रकार कि हर ज़माने मे किसी इमाम का होना आवश्यक है जिस तर इस साल के भाग्य पहुंचाए जाते है।[२९]

शबे-क़द्र का निर्धारण

शबे-क़द्र कौन सी रात है? इस संबंध मे मतभेद पाया जाता है।

इमाम रज़ा (अ.स.) के हरम मे शबे-क़द्र के आमाल का एक दृश्य

शियों का दृष्टिकोण

शिया टीकाकार सूरा ए क़द्र की आयत के ज़ाहिर को दलील मानते हुए इस बात पर विश्वास करते है कि शबे-क़द्र पैगंबर अकरम (स) के समय मे क़ुरआन के नुज़ूल के साथ विशिष्ठ नही है बल्कि शबे-क़द्र प्रत्येक साल दोहराई जाती है। इस बात पर कुछ विश्वासनीय और मुतावातिर हदीसो मे भी बल दिया गया है।[३०] परंतु इसके बावजूद यह सटीक मालूम नही है कि शबे-क़द्र कौनसी रात है और कुरान एंवम हदीस मे भी इस बात पर कोई विवरण नही है। हालांकि बहुत सी हदीसो मे यह बात आई है कि शबे-क़द्र रमज़ान के पवित्र महीने मे मौजूद है।[३१]

शिया हदीसो मे रमज़ान की तीन रातो 19वी, 21वी और 23वी मे जागने पर बहुत अधिक जोर दिया गया है और इन तीनो रातो मे से 23वी रात के संबंध मे दूसरी रातो की तुलना मे शबे-क़द्र होने की अधिक संभावना पाई जाती है।[३२] कुछ हदीसो के अनुसार 19वीं रात मे भाग्य निर्धारित किए जाते है और 21वीं रात को इन भाग्यो की पुष्ठि की जाती है और 23वी रात को इन भाग्यो को निश्चित रूप दिया जाता है।[३३] रमज़ान महीने की 27वी रात और शाबान महीने की पंद्रहवी रात के संबंध मे भी शबे-क़द्र होने की संभावना बताई जाती है।[३४]

सुन्नीयो का दृष्टिकोण

सुन्नीयो का एतेक़ाद है कि हदीसे पैगंबर (स) के अनुसार रमज़ान के पवित्र महीने के अंतिम दस दिनो मे से एक रात शबे-क़द्र है और कुतुबे सेहाह[३५] मे आने वाली हदीसो के अनुसार अधिकांश टीटाकार 27वीं रात को शबे-क़द्र मानते है और इस रात को शब-बेदारी और दुआओ मे बिताते है। कुछ लोगो का कहना है कि जब तक पैगंबर (स) जीवित थे, यह रात हर साल दोहरायी जाती थी लेकिन आपके इस दुनिया से जाने के बाद कोई शबे-क़द्र नही है।[३६] सुन्नीयो मे से कुछ का कहना है कि शबे-क़द्र कोई निर्धारित रात नही हुआ करती बल्कि प्रत्येक वर्ष एक अनिर्धारित रात शबे-क़द्र हुआ करती है उनका कहना है कि बेअसत के साल शबे-क़द्र रमज़ान के पवित्र महीने मे थी लेकिन उसके पश्चात दूसरे वर्षो मे इस बात की संभावना है कि वह किसी दूसरे महीने मे हो।[३७]

उफ़ुक़ का अंतर और शबे क़द्र का निर्धारण

प्रत्येक साल केवल एक रात शबे-क़द्र है।[३८] लेकिन विभिन्न देशो के उफ़ुक (क्षितिज) मे अंतर (जैसे ईरान और सऊदी अरब का उफ़ुक़) के कारण विभिन्न देशो मे रमज़ान के पवित्र महीने के शुरूआत मे भी अंतर देखने को मिलता है जिसके परिणाम स्वरूप रमज़ान की जिस रात को भी शबे-क़द्र बताया जाए उसमे भी मतभेद देखने को मिलता है।[३९] इस मामले मे धर्मशास्त्रियो का कहना है कि विभिन्न देशो के उफ़ुक़ मे अतंर का पाया जाना शबे-क़द्र की संख्या पर कोई प्रभाव नही डालता और प्रत्येक देश के नागरिको को चाहिए कि वो शबे-क़द्र और दूसरे दिन जैसे ईद उल-फित्र और ईद उज-अज़्हा इत्यादि को अपने देश के उफ़ुक़ के अनुसार मनाऐं।[४०] आयतुल्लाहिल उज़्मा मकारिम शिराज़ी फ़रमाते है कि रात की हक़ीक़त भूमि के आधे भाग का दूसरे आधे भाग पर पड़ने वाली छाया है, और यह छाया भूमि की चाल के साथ 24 घंटो मे अपना एक चक्कर पूरा करती है।[४१] इसआधार पर संभावना है कि शबे-क़द्र, पृथ्वी की अपने ध्रुव की परिक्रमा पूरा करने की अवधि हो अर्थात वह अधंकार है जो 24 घंटो को अपनी चपेट मे ले लेती है। बस शबे-क़द्र एक देश से आरम्भ होती है और 24 घंटो की अवधि मे पृथ्वी का हर भाग शबे-क़द्र को पा लेता है।[४२]

मासूमीन की सीरत

इमाम अली (अ) ने हदीस मे पैगंबर अकरम (स) से बयान किया है कि पैगंबर (स) रमज़ान के अंतिम दस दिनो मे अपना बिस्तर इकठ्ठा करते थे और एतेकाफ़ के लिए मस्जिद प्रस्थान करते थे और इसके बावजूद के मस्जिद अल-नबी के ऊपर छत भी नही थी वर्षो के दिनो मे भी मस्जिद को नही छोड़ते थे।[४३] इसी प्रकार यह भी आया है कि पैगंबर अकरम (स) शबे-क़द्र की रातो को जागा करते थे और जिन लोगो को नींद आती थी उनके चेहरो पर पानी छिड़कते थे।[४४]

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ) का यह तरीक़ा था कि शबे-क़द्र को सुबह तक इबादत की हाल मे बिताती थी और अपने बच्चो तथा घर वालो को भी जागने और इबादत करने का आग्रह करती थी और दिन के समय सुलाने और कम खाने के माध्यम से रात को नींद से मुकाबला करने का प्रयास करती थी।[४५] चौदह मासूमीन (अ) शबे-क़द्र की रातो को मस्जिद मे शब-बेदारी करना नही छोड़ते थे।[४६] एक हदीस मे आया है कि एक बार शबे-क़द्र के दिनो मे इमाम सादिक़ (अ) बीमार थे उसके बावजूद आप (अ) ने मस्जिद मे जाकर इबादत करने की ख्वाहिश की।[४७]

शबे-क़द्र के आमाल

शबे-क़द्र के आमाल
मुश्तरक आमाल
उन्नीसवीं रात
  • सौ बार اَستَغفِرُالله رَبّی و اَتوبُ اِلیه (अस्तग़फ़िरूल्लाहा रब्बी वा अतूबू इलैह) पढ़ना
  • सौ बार اَلّلهمَّ العَن قَتَلَة اَمیرِالمُؤمِنینَ (अल्लाह हुम्मलअन क़ता-लता अमीरिल मोमेनीन) का विर्द करना
  • दुआ ए: اَللّهمَّ اْجْعَلْ فیما تَقْضی وَتُقَدِّرُ مِنَ الاَْمْرِ الْمَحْتُومِ (अल्ला हुम्मज्अल फ़ीमा तक़ज़ी वा तोक़द्देरो मिनल अमरिल महतूम)... पढ़ना
इक्कीसवीं रात
  • रमज़ान के अंतिम दस दिनो से संबंधित दुआओ का पढ़ना
  • दुआ ए:یا مُولِجَ اللَّیلِ فِی النَّهارِ (या मूलेजल लैले फ़िन्नहार...) ...पढ़ना
तेइसवीं रात
  • रमज़ान के अंतिम दस दिनो से संबंधित दुआओ का पढ़ना
  • सूरा ए अंकबूत، सूरा ए रूम और सूरा ए दुख़ान की तिलावत करना
  • हज़ार बार सूरा ए क़द्र पढ़ना
  • दुआ ए जोशन ए कबीर، दुआ ए मकारेमुल अख़लाक़ और दुआ ए इफ़्तेताह पढ़ना
  • रात के शुरूआती और आख़िरी हिस्से मे ग़ुस्ल करना
  • दुआ ए: اَللَّهمَّ امْدُدْ لِی فِی عُمُرِی وَ أَوْسِعْ لِی فِی رِزْقِی... (अल्लाह हुम्मम दुद ली फ़ी उमोरी वा औसे ली फ़ी रिज़्क़ी...) पढ़ना
  • दुआ ए: اَللَّهمَّ اجْعَلْ فِیمَا تَقْضِی وَ فِیمَا تُقَدِّرُ مِنَ الْأَمْرِ الْمَحْتُومِ...(अल्ला हुम्मज्अल फ़ीमा तक़्ज़ी वा फ़ीमा तोक़द्देरो मिनल अम्रिल महतूमे...)पढ़ना
  • दुआ ए: ...یا بَاطِنا فِی ظُهورِه وَ یا ظَاهرا فِی بُطُونِه (या बातेना फ़ी ज़ोहूरेहि वा या ज़ाहेरन फ़ी बोतूनेहि ...) पढ़ना
  • इमाम महदी (अ.त.) की सलामती के लिए दुआ ए फ़रज पढ़ना

रीति रिवाज

शिया मुस्लमान हर साल रमज़ान की 19वी, 21वी और 23वी रात को मस्जिदो, इमाम बारगाहो, आइम्मा ए मासूमीन या इमाम ज़ादो के मज़ारो मे शबे-क़द्र के आमाल अंजाम देते है और इन रातो को सुबह तक शब-बेदारी और इबादत मे बिताते है।[४८] विद्वानो के वाज़ और नसीहत पर आधारित भाषण, नमाज़े जमाअत और सामूहिक रूप से भिन्न-भिन्न प्रकार की दुआए जैसे दुआ ए इफ़्तेताह, दुआ ए अबू-हम्ज़ा सुमाली, दुआ ए जोशने कबीर इत्यादि का पढ़ना और क़ुरआन सरो पर उठाना इन रातो के विशेष रीति रिवाजो मे से है।[४९] इसके अलावा रोज़ेदारो को इफ़्तारी और सहरी देना, अपने मृतको के लिए नज़्र और नियाज़ देना, गरीबो और ज़रूरतमंदो की आवश्यकता पूरी करना और कैदीयो को आज़ाद कराना जैसे काम भी इन रातो मे अंजाम दिए जाते है।[५०] रमज़ान के पवित्र महीने मे ही शियो के पहले इमाम हज़रत अली (अ) की शहादत भी हुई इसलिए अज़ादारी का भी इन रातो मे आयोजन होता है।[५१]

फ़ुटनोट

  1. शाकिर, शबी बरतर अज़ हज़ार माह, पेज 48
  2. तबातबाई, तफ़सीरे अल-मीज़ान, भाग 20, पेज 561
  3. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, भाग 27, पेज 188
  4. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, भाग 27, पेज 188
  5. मजीदी ख़ामने, शबहाए क़द्र दर ईरान, पेज 1
  6. तुरबति, हमराह बा मासूमान दर शबे-क़द्र, पेज 33
  7. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, भाग 27, पेज 190
  8. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, पेज 178
  9. सूरा ए क़द्र, आयत न. 2
  10. सूरा ए दुख़ान, आयत न. 1-6
  11. हुवैज़ी, तफ़सीरे नूर उस-सक़लैन, भाग 5, पेज 915
  12. मजलिसी, बिहार उल-अनवार, भाग 4, पेज 54
  13. शेख़ तूसी, अल-तहज़ीब, भाग 4, हदीस 101, पेज 331
  14. मजलिसी, बिहार उल-अनवार, भाग 25, पेज 97, बे नक़्ल अज़ः आबेदीन ज़ादेह, इमाम व शबे-क़द्र, पेज 64
  15. हसन जादेह, ममद उल-हेमम, बे नक़्ल अज़ः मुतल्लिबी वा सादेक़ी, शबे-क़द्र दर निगाहे मुफ़स्सेरान, पेज 23
  16. मजीदी, ख़ामने, शबहाए क़द्र दर ईरान, पेज 19
  17. शाकिर, शबी ए बरतर अज़ हज़ार माह, पेज 50
  18. अंसारी, नुज़ूले इजमाली ए क़ुरान, पेज 227
  19. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, पेज 182
  20. सय्यद रज़ी, बाज़खानी फ़जाइले शबे-क़द्र, पेज 91
  21. आबेदीन ज़ादेह, इम्तियाज़ात वा आदाबे शबे-क़द्र, पेज 85
  22. तबातबाई, तफ़सीरे अल-मीज़ान, भाग 20, पेज 561
  23. सुदूक़, मआनी उल-अख़्बार, पेज 315, बे नक़्ल अज़ सय्यद रज़ी, बाज़ख़ानी फ़ज़ाइले शबे-क़द्र, पेज 95
  24. सय्यद रज़ी, बाज़ख़ानी फ़ज़ाइले शबे-क़द्र, पेज 94
  25. काशानी, तफ़सीरे मिन्ह जुस-सादेक़ीन, भाग 10, पेज 308
  26. सूरा ए क़द्र, आयत न 4
  27. वफ़ा, शबे-क़द्र अज़ मनज़रे कुरान, पेज 87
  28. वफ़ा, शबे-क़द्र अज़ मनज़रे कुरान, पेज 87
  29. आबेदीन ज़ादेह, इमाम वा शबे-क़द्र, पेज 62
  30. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, भाग 27, पेज 190
  31. तबरसी, मजमा उल-बयान, भाग 10, पेज 786
  32. इत्तफ़ा मशाएख़ोना (फ़ी लैला तिल क़द्र) अला अन्नहा अल-लैला तुस सालेसाते वल इशरूना मिन शहरे रमज़ान, सुदूक़, अल-ख़िसाल, पेज 519
  33. कुलैनी, उसूले काफ़ी, भाग 2, पेद 772
  34. काशानी, मन्ह उस-सादेक़ीन, भाग 4, पेज 274, बे नक़्ल अज़ इफ़्तेख़ारी, दुआ व शबे-क़द्र अज़ मंज़रे मूसा सद्र, पेज 17
  35. मुस्लिम, सहीह मुस्लिम, भाग 8, पेज 65
  36. अल-क़ासेमी, तफ़सीर उल-क़ासेमी, भाग 17, पेज 217
  37. इब्न उल-मिफ़्ताह, अब्दुल्लाह, शरहुल अज़्हार, भाग 1, पेज 57
  38. सूरा ए क़द्र, आयत न 1 शेख़ तूसी, अल-तहज़ीब, भाग 3, पेज 85
  39. मुख़्तारी वा सादेक़ी, रज़ा वा मोहसिन, रूयते हिलाल, भाग 4, पेज 2972
  40. मकारिम शिराज़ी, इस्तिफ़्तीआते जदीद, भाग 3, पेज 103
  41. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, पेज 192
  42. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, पेज 192
  43. मजलिसी, बिहार उल-अनवार, भाग 95, पेज 145, बे नक़्ल अज़ः तरबियती, हमराह बा मासूमान दर शबे-क़द्र, पेज 33
  44. मजलिसी, बिहार उल-अनवार, भाग 97, पेज 109, बे नक़्ल अज़ः शाकिर, बरतर अज़ हज़ार माह, पेज 52
  45. मुस्तदरक उल-वसाइल, भाग 7, पेज 470, बे नक़्ल अज़ः तरबियती, हमराह बा मासूमान दर शबे-क़द्र, पेज 34
  46. तरबियती, हमराह बा मासूमान दर शबे-क़द्र, पेज 32
  47. मजलिसी, बिहार उल-अनवार, भाग 97, पेज 4, बे नक़्ल अज़ः शाकिर, बरतर अज़ हज़ार माह, पेज 52
  48. मजीदी ख़ामने, शबहाए क़द्र दर ईरान, पेज 21
  49. मजीदी ख़ामने, शबहाए क़द्र दर ईरान, पेज 22
  50. मजीदी ख़ामने, शबहाए क़द्र दर ईरान, पेज 22
  51. मजीदी ख़ामने, शबहाए क़द्र दर ईरान, पेज 19

स्रोत

  • इब्न उल-मिफ़्ताह, अब्दुल्लाह, शरहुल अज़्हार, अल-हेजाज़, क़ाहिरा
  • हुवैज़ी, अली बिन जुम्आ, तफ़सीरे नूर उस-सक़लैन, क़ुम, इस्माईलीयान
  • सहीफ़ा ए कामेला सज्जादिया, अनुवादः मोहसिन ग़रवीयान, क़ुम, अल-हादी, 1378 शम्सी
  • तबातबाई, सय्यद मुहम्मद हुसैन, अल-मीज़ान फ़ी तफ़सीर इल क़ुरआन, क़ुम, इस्माईलीयान, 1371 शम्सी
  • तबरसी, फ़ज़्ल बिन हसन, मजमा उल-बयान फ़ी तफ़सीर इल कुरआन, तेहरान, नासिर ख़ुसरो, 1372 शम्सी
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  • फ़राहीद, ख़लील बिन अहमद, किताब उल-ऐन
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  • क़रशी, अली अकबर, क़ामूसे क़ुरान, तेहरान, दार उल-कुतुब उल-इस्लामिया
  • अल-क़ासेमी, मुहम्मद जमालुद्दीन, तफ़सीरे क़ासेमी, बैरूत
  • क़ुमी, शेख अब्बास, मफ़ातीह उल-जनान, ज़ेल ए आमाले शबहाए क़द्र
  • काशानी, मुल्लाह फ़त्हुल्लाह, तफ़सीरे मन्ह उस-सादेक़ीन, तेहारन, इल्मी, 1340 शम्सी
  • कुलैनी, मुहम्मद बिन याक़ूब, उसूले काफ़ी, अनुवादः मुहम्मद बाक़िर कुमरेई, क़ुम, उस्वा, 1375 शम्सी
  • मजलिसी, मुहम्मद बाक़िर, बिहार उल-अनवार, बैरूत, दार ए एहयाइत तुरास अल-अरबी
  • मुस्लिम, सहीह मुस्लिम, दार उल-किताब उल-इल्मिया, बैरूत
  • मकारिम शिराज़ी, नासिर, तफ़सीरे नमूना, तेहरान, दार उल-कुतुब उल-इस्लामिया, 1371 शम्सी
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