मिदाद अल ओलमा अफ़्ज़ल मिन देमा अल शोहदा

मिदाद अल ओलमा अफ़्ज़ल मिन देमा अल शोहदा, यह अरबी भाषा की एक प्रसिद्ध कहावत है जिसका अर्थ है कि विद्वानों के कलम की स्याही शहीदों के खून से श्रेष्ठ है। इस वाक्य का उल्लेख शियों की हदीस की प्राचीन पुस्तकों में नहीं मिलता; हालाँकि, 10वीं शताब्दी ई. में लिखी गई तफ़सीर मंहज अल सादेक़ीन में इसका उल्लेख हदीस के रूप में किया गया है।
शिया हदीस विद्वान अली अकबर गफ़्फ़ारी ने इस वाक्य को हदीस नहीं माना है और कहा है कि यह शेख़ सदूक़ द्वारा इमाम सादिक़ (अ) से वर्णित एक अन्य हदीस की ग़लत व्याख्या का परिणाम है और इसका मतलब यह नहीं है कि एक विद्वान के कलम की स्याही शहीद के खून से बेहतर है; बल्कि मक़सद यह है कि ईश्वरीय आह्वान ज़्यादातर क़लम और स्याही, तर्क और प्रमाण के माध्यम से हुआ है, न कि शहादत और ज़ान क़ुर्बान करने के माध्यम से। इसलिए हदीस का मतलब यह नहीं है कि ओलमा की स्याही शहीद के खून से गुणात्मक रूप से बेहतर या ज़्यादा फ़ज़ीलत वाली है।
इसके विपरीत, अल्लामा मजलिसी और इब्न फ़हद हिल्ली जैसे विद्वान इमाम सादिक़ (अ) से वर्णित एक हदीस का हवाला देते हुए मानते हैं कि विद्वान के क़लम की स्याही शहीद के खून से बेहतर है। इस तर्क के साथ कि विद्वान का कलम दीन की हक़ीक़त और बातिन को कमाल तक पहुंचाता है, जबकि शहीद का खून दीन के ज़ाहिर को कमाल तक पहुंचाता है। इसके अलावा, विद्वान के कलम से लिखी गई चीज़ उसकी मृत्यु के बाद भी उपयोगी रहती है, लेकिन शहीद के खून मे ऐसी कोई विशेषता नहीं पाई जाती।
इस रिवायत और एक दूसरी रिवायत के बीच तआरूज़ के संबंध में, जिसमें यह कहा गया है कि एक अच्छा काम है जो ईश्वर के मार्ग पर शहादत को छोड़कर हर अच्छे काम से श्रेष्ठ है, यह कहा जाता है कि शहादत की श्रेष्ठता के संबंध में हदीसों में, कार्य को ही नहीं माना जाता है; बल्कि, जो इसे करता है, अर्थात् शहीद को माना जाता है; लेकिन "मिदद अल ओलमा ..." वाक्य में, स्वयं कार्य और समाज में इसकी प्रभावशीलता पर चर्चा की गई है।
स्थान
वाक्य "मिदाद अल ओलमा अफ़्ज़ल मिन देमा अल शोहदा" "विद्वानों के कलम की स्याही शहीदों के खून से श्रेष्ठ है" एक प्रसिद्ध कहावत है जिसे बाद के कुछ शिया ने व्याख्यात्मक स्रोतों में हदीस के रूप में वर्णित किया गया है; उदाहरण के लिए, मुल्ला फ़तहुल्लाह काशानी (मृत्यु 988 हिजरी) ने अपनी तफ़सीर मंहज अल सादेक़ीन में कई हदीसों के साथ इस वाक्यांश को शामिल किया।[१] इसे सय्यद अब्दुल हुसैन तय्यब (1893-1991 ईस्वी) द्वारा अपनी तफ़सीर अतयब अल-बयान मे इसे हदीस के रूप मे वर्णित किया है।[२] शिया विद्वानों के बीच इस बात पर कुछ बहस हुई है कि क्या यह वाक्यांश हदीस है या नही? और इसकी व्याख्या के संबंध मे भी मतभेद पाया जाता है।[३]
"मिदद अल ओलमा..." वाला वाक्य के हदीस होने से संबंधित बहस
जिन प्राचीन किताबों में “मिदाद अल ओलमा अफ़्ज़ल मिन देमा अल शोहदा” वाक्यांश को उद्धृत किया गया था, उसकी संचरण श्रृंखला (सिलसिला ए सन्द) पर चर्चा नहीं की गई थी और केवल हदीस के रूप में इसका उल्लेख किया गया है।[४] कई विद्वानों ने भी इसे हदीस के रूप में उल्लेख किया है; लेकिन इसके बारे में कोई वैज्ञानिक तर्क (इल्मी बहस) या चर्चा प्रस्तुत नहीं की गई है। उदाहरण के लिए, आयतुल्लाह बुरूजर्दी की ओर एक कथन का हवाला देते हुए कहा गया है कि वो इस वाक्यांश को हदीस मानते थे।[५] दूसरी ओर, मुर्तज़ा मुतह्हरी ने अपनी पुस्तक हेमासा ए हुसैनी में इस वाक्यांश का उल्लेख "वाक्य" के रूप में किया है।[६]
एक अध्ययन में, यह कहा जाता है कि इल्मे हदीस के शोधकर्ता अली अकबर गफ़्फ़ारी इस वाक्यांश की संचरण श्रृंखला और सामग्री के संदर्भ में विस्तार से जांच करने वाले पहले व्यक्ति थे।[७] गफ़्फ़ारी के अनुसार, वाक्यांश "मिदाद अल-ओलमा..." हदीस नहीं है; बल्कि, यह एक अन्य कथन की गलत व्याख्या का परिणाम है। जो शेख़ सदूक़ द्वारा लिखित मन ला यहज़ुर अल-फ़क़ीह और शेख़ सदूक़ की अल-आमाली जैसी पुस्तकों में पाया जाता है।[८] ग़फ़्फ़ारी ने शेख़ सदूक़ से इमाम सादिक़ (अ) से जो रिवायत बयान की है, वह इस प्रकार है: إِذَا كَانَ يَوْمُ اَلْقِيَامَةِ جَمَعَ اَللَّهُ عَزَّ وَ جَلَّ اَلنَّاسَ فِي صَعِيدٍ وَاحِدٍ وَ وُضِعَتِ اَلْمَوَازِينُ فَتُوزَنُ دِمَاءُ اَلشُّهَدَاءِ مَعَ مِدَادِ اَلْعُلَمَاءِ فَيَرْجَحُ مِدَادُ اَلْعُلَمَاءِ عَلَى دِمَاءِ اَلشُّهَدَاءِ (इज़ा काना यौमल क़ियामते जमअल्लाहो अज़्ज़ा व जल्लन्नासा फ़ी सईदिन वाहेदिन व वोज़ेअतिल मवाज़ीनो फ़तुवज़्ज़नो देमा उश शोहादाए मअ मिदादिल ओलमा ए फ़यरजहो मिदादुल ओलमा ए);[९] जब क़यामत का दिन आएगा, तो अल्लाह तआला लोगों को एक ज़मीन पर इकट्ठा करेंगे। और तराजू स्थापित किए जाएँगे, इसलिए शहीदों के ख़ून को विद्वानों के क़लम की स्याही के साथ तौला जाएगा, लेकिन विद्वानों के क़लम की स्याही का वज़न का शहीदों के ख़ून से ज़्यादा होगा।"[१०]
क्या विद्वानों के कलम की स्याही शहीदों के खून से श्रेष्ठ है?
इस बात पर विद्वानों में मतभेद है कि क्या विद्वानों के कलम की स्याही शहीदों के खून से श्रेष्ठ है:
विरोधी
मुर्तज़ा मुतह्हरी ने शहीदों के खून पर विद्वानों के कलम की स्याही की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करते हुए विरोध किया कि उन्होंने इस वाक्य पर भरोसा करके कहा कि इस आधार पर शहीद और शहादत का मूल्य कम होता है।[११] अली अकबर गफ़्फ़ारी ने कहा कि यह वाक्य शेख़ सदूक़ की एक रिवायत से लिया गया है, जिसमें यह नहीं बताया गया है कि शहीदों का ख़ून विद्वानों की स्याही से श्रेष्ठ है। गफ़्फ़ारी के अनुसार, "शहीदों के ख़ून पर विद्वानों की स्याही का वज़न" का अर्थ है कि आयतन और वज़न की दृष्टि से, विद्वानों की स्याही शहीदों के ख़ून से ज़्यादा बड़ी और भारी है। इसका तात्पर्य यह है कि अल्लाह का आह्वान शहादत और जीवन के बलिदान से ज़्यादा कलम और स्याही, तर्क और प्रमाण से किया जाता है। इसलिए, यह रिवायत शहीद के ख़ून पर विद्वानों की कलम की गुणात्मक श्रेष्ठता या गुण का संकेत नहीं देती।[१२]
समर्थक
शहीद के खून पर विद्वान के कलम की स्याही की श्रेष्ठता का समर्थन करने वालों में, अल्लामा मजलिसी ने कहा कि विद्वान का कलम दीन की हक़ीक़त को कमाल तक पहुंचाता है। लेकिन शहीद का खून दीन के ज़ाहिर को कमाल तक पहुंचाता है।[१३] इब्न फ़हद हिल्ली ने यह भी लिखा है कि विद्वान के कलम से लिखी गई चीज़ उसकी मृत्यु के बाद भी उपयोगी और शाश्वत रहती है; लेकिन शहीद के खून मे ऐसी कोई विशेषता नहीं होती।[१४] फ़ैज़ काशानी का मानना है कि विद्वान का कलम दीन को गुमराह करने वाली विचार धाराओ से बचाता है जो मनुष्य को नरक में जाने और ईश्वरीय आशीर्वाद से हमेशा के लिए वंचित करने का कारण बनती हैं। लेकिन शहीद का खून इसी दुनिया में दीन के दुशमनो के आक्रमण से लोगो और उनकी संपत्ति की रक्षा करने का एक साधन है।[१५]
दूसरी रिवायतों के साथ असंगतता
यह सवाल किया जाता है कि हदीसों में कहा गया है कि हर नेकी के ऊपर एक नेकी है, सिवाय ईश्वर के मार्ग पर शहादत के,[१६] जबकि वाक्यांश "मिदाद अल ओलमा..." विद्वानो के कलम की स्याही को शहादत से श्रेष्ठ मानता है। जवाब में उन्होंने कहा है कि शहादत से संबंधित हदीसों में, स्वयं कृत्य पर विचार नहीं किया जाता है; बल्कि ऐसा करने वाले को शहीद माना जाता है। इस दृष्टि से शहीद का कार्य किसी भी अन्य कार्य से श्रेष्ठ है। लेकिन "विद्वानों के कलम की स्याही ..." वाक्यांश में, स्वयं कार्रवाई और समाज में इसके परिणाम पर चर्चा की जाती है, और इसका अर्थ यह है कि समाज पर इसके प्रभाव, व्यक्तियों का मार्गदर्शन करने और धर्म की नींव स्थापित करने के संदर्भ में, विद्वानों के कलम की स्याहि शहीदों के खून से अधिक प्रभावी है।[१७]
फ़ुटनोट
- ↑ काशानी, मिनहाज उस सादेक़ीन, 1336 शम्सी, भाग 9, पेज 206।
- ↑ तय्यब, अतयब उल बयान, 1387 शम्सी, भाग 14, पेज 302।
- ↑ देखेः मुताहरी, हमासा हुसैनी, 1390 शम्सी, भाग 2, पेज 226; ग़फ़्फ़ारी, तलखीस मिकबास उल हिदाया, 1360 शम्सी, पेज 247-248।
- ↑ देखेः काशानी, मिन्हाज उस सादेक़ीन, 1336 शम्सी, भाग 9, पेज 206; तय्यब, अतयब उल बयान, 1387 शम्सी, भाग 14, पेज 302।
- ↑ हुसैनी तहरानी, मतलउ उल अनवार, 1431 हिजरी, भाग 3, पेज 396।
- ↑ मुताहरी, हमासा हुसैनी, 1390 शम्सी, भाग 2, पेज 226।
- ↑ जदी, एतेबारसंजी सन्दी व दलाली हदीस, पेज 199।
- ↑ देखेः ग़फ़्फ़ारी, तलखीस मिकबास उल हिदाया, 1360 शम्सी, पेज 247।
- ↑ सदूक़, मन ला यहज़ुर अल फ़क़ीह, 1404 हिजरी, भाग 4, पेज 398; शेख सदूक़, आमाली, 1376 शम्सी, पेज 168।
- ↑ बलाग़ी व गफ़्फ़ारी, तरजुमा व मत्न मन ला यहज़ुर अल फ़क़ीह, 1367 शम्सी, भाग 6, पेज 345।
- ↑ मुताहरी, हेमासा हुसैनी, 1390 शम्सी, भाग 2, पेज 226।
- ↑ देखेः ग़फ़्फ़ारी, तलखीस मिकबास उल हिदाया, 1360 शम्सी, पेज 247; फ़त्ताही जादेह, मबानी व रविशहाए नकद हदीस, 1389 शम्सी, पेज 52।
- ↑ मजलिसी, रौज़ातुल मुत्तक़ीन, 1406 हिजरी, भाग 13, पेज 108।
- ↑ इब्ने फ़हद हिल्ली, इद्दतु अल दाई, 1407 हिजरी, पेज 77।
- ↑ फ़ैज़ काशानी, अल वाफ़ी, 1406 हिजरी, भाग 1, पेज 145।
- ↑ फ़ौक़ा कुल्ले ज़ी बिर्रिन हत्ता यकतलर रजोलो फ़ी सबी लिल्लाह--- ( कुलैनी, अल काफ़ी, 1363 शम्सी, भाग 2, पेज 349)।
- ↑ पासुख बे नामेहा, दर मजल्ला पासदारे इस्लाम, 1 दय, 1364 शम्सी, पेज 62।
स्रोत
- पासुख बे नामेहा, दर मजल्ला पासदारे इस्लाम, क्रमांक 49, प्रविष्ठ की तारीख 1 दय, 1364 शम्सी।
- इब्न फहद हिल्ली, अहमद बिन मुहम्मद, इद्दत अल दाई व नेजाह अल साई, दार अल कुतुब अल इस्लामी, 1407 हिजरी।
- काशानी, फ़त्हुल्लाह, मिंहाज अल सादेक़ीन फ़ी इलज़ाम अल मुखालेफ़ीन, तेहरान, मुहम्मद हसन इल्मी की किताब की दुकान, 1336 शम्सी।
- कुलैनी, मुहम्मद बिन याकूब, अल काफ़ी, तेहरान, दार अल कुतुब अल इस्लामिया, 1363 शम्सी।
- गफ़्फ़ारी, अली अकबर, तलखीस मिकबास अल हिदाया, नशरे सदूक़, 1360 शम्सी।
- जद्दी, हुसैन और अन्य, ऐतेबारसंजी सन्दी व दलाली हदीस (यरजह मेदाद अल ओलमा अला देमा ए अल शोहदा), अज़ मनाबे फ़रीक़ैन, हदीस व अंदेशे पत्रिका में, क्रमांक 29, 1399 शम्सी।
- तय्यब, सय्यद अब्दुल हुसैन, अतयब अल बयान फ़ी तफ़सीर अल क़ुरआन, तेहरान, इस्लाम प्रकाशन, 1378 शम्सी।
- फ़त्ताही ज़ादेह, फत़्हीया, मबानी व रविशहाए नक़द हदीस दर कुतुब अरबा, क़ुम, क़ुम विश्वविद्यालय, 1389 शम्सी।
- फ़ैज़ काशानी, मुहम्मद मोहसिन बिन शाह मुर्तज़ा, अल वाफ़ी, इस्फ़हान, किताब खाना इमाम अमीरुल मोमेनीन अली (अ), 1406 हिजरी।
- मजलिसी, मुहम्मद तक़ी, रौज़ा अल मुत्तक़ीन फ़ी शरह मन ला यहज़ुर अल फ़क़ीह, क़ुम, मोअस्सेसा फ़रहंगी इस्लामी कोशांबूर, 1406 हिजरी।
- मुताहरी, मुर्तज़ा, हमासा हुसैनी, तेहरान, सदरा प्रकाशन, 1390 शम्सी।
- शेख सदूक़, मुहम्मद बिन अली, अल अमाली, तेहरान, किताबची, छठा संस्करण, 1376 शम्सी।
- शेख सदूक़, मुहम्मद बिन अली, मन ला यहज़ुर अल फ़क़ीह, तस्हीह अली अकबर गफ़्फ़ारी, क़ुम, इस्लामिक प्रकाशन कार्यालय, दूसरा संस्करण, 1413 हिजरी।