पाप
पाप (अरबीः گناه) को अल्लाह की अवज्ञा कहा जाता है; यानी जिन कामों को छोड़ने का आदेश दिया गया है, उन्हें करना और जिन कामों को करने का आदेश दिया गया है उन्हें छोड़ देना। पाप को दो प्रकार बड़े पाप और छोटे पाप मे विभाजित किया गया है। बड़े पाप उन पापो को कहा जाता है जिनके बड़ा होने पर कुरआन या हदीस में निर्दिष्ट किया गया है या उनके करने वालों के लिए सजा का वादा दिया गया है; जैसे किसी की नाहक़ हत्या करना, बलात्कार, अनाथ की संपत्ति हड़प करना और ब्याज खाना।
धार्मिक शिक्षाओं में कुछ पापों के विशेष प्रभावो का उल्लेख किया गया है, जिनमें आशीर्वाद (नेमतो) का ख़त्म होना, अपमान और मृत्यु की निकटता आदि का उल्लेख किया जा सकता है।
क़ुरआन की आयतों के अनुसार, तौबा (पश्चाताप), इस्तिग़फ़ार, ईमान और तक़्वा, नेक काम (हसनात) और सदक़ा (दान) देने से गुनाह माफ़ होते हैं। कुछ हदीसों के अनुसार, ईश्वर बीमारी, ग़म या गरीबी के ज़रिए भी बंदों के गुनाह मिटा देता है। क़ुरआन में यह भी आया है कि अगर कोई गुनहगार तौबा कर ले, तो ईश्वर उसके गुनाह माफ़ कर देता है।
शियों की मान्यता के अनुसार चौदह मासूमीन और पैग़म्बर (स) गुनाहो से मासूम होते है।
शब्दार्थ
धार्मिक इस्तेलाह में पाप अल्लाह की अवज्ञा है।[१] दूसरे शब्दों में उन चीजों को करना जिन्हें करने का अल्लाह ने मना किया है और उन चीजों को छोड़ देना जिन्हें अल्लाह ने करने का आदेश दिया है।[२] अरबी में ज़म्ब, मासियत, इस्म, सय्येआ और ख़तिया भी पाप के पर्यायवाची है।[३]
बड़े पाप
क़ुरआन में सबसे बड़े गुनाहों में से एक शिर्क (अल्लाह के साथ साझीदार ठहराना) को बताया गया है, जिसे "बड़ा पाप" और "गुमराही" (ज़लालन बईदा) कहा गया है।[४] सूर ए लोक़मान में इसे "बड़ा अत्याचार (ज़ुल्मे अज़ीम)" बताया गया है।[५] एक और बड़ा गुनाह जिसे क़ुरआन में सबसे बड़ा अत्याचार कहा गया, वह है अल्लाह पर झूठा आरोप लगाना (इफ्तिरा)। कई आयतों में पूछा गया है: उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा जो अल्लाह पर झूठ बोले।[६] यह अल्लाह के नाम पर धर्म में नई बातें गढ़ने (बिद'अत) को भी शामिल करता है, चाहे वह मूल सिद्धांतों (उसूल-ए-दीन) में हो या व्यावहारिक नियमों (फुरू-ए-दीन) में।[७]
इसके अलावा, ज़ुल्म (अत्याचार) को भी सबसे घिनौने गुनाहों में गिना गया है।[८] क़ुरआन की कई आयतों में ज़ालिमों (अत्याचारियों) को नरक की धमकी दी गई है, और उनके लिए इस्तेमाल किए गए शब्द बेहद कड़े हैं। एक और बड़ा गुनाह क़त्ल (हत्या) है।[९] कुरआन की सूर ए मायदा आयत 32 में कहा गया है: "एक व्यक्ति की हत्या पूरी मानवता की हत्या के बराबर है।"[१०]
पाप के प्रकार
बड़े पाप और छोटे पाप
कुछ नैतिक पुस्तकों में पापों को छोटे और बड़े में विभाजित किया गया है,[११] जिनकी उत्पत्ति क़ुरआन और हदीसों को दी गई है।[१२] उदाहरण स्वरूप सूरा ए निसा में इसका उल्लेख है: (إِن تَجْتَنِبُوا كَبَائِرَ مَا تُنْہَوْنَ عَنْہُ نُكَفِّرْ عَنكُمْ سَيِّئَاتِكُمْ इन तज्तनेबू कबाएरा मा तुन्हौना अन्हु नोकफ़्फ़िर अन्कुम सय्येआतिकुम) अनुवाद: यदि आप उन बड़े बड़े पापों से परहेज करते हैं जिनसे आपको रोका गया है, तो हम अन्य पापों को छुपा देंगे।[१३] अल्लामा तबताबाई के अनुसार, "सय्येआतिकुम" का अर्थ छोटे पाप है; क्योंकि यह बड़े पाप के मुक़ाबले मे आया है। तो इस आयत के अनुसार पाप बड़े और छोटे में विभाजित होता है।[१४]
अल-उरवा तुल-वुस्क़ा किताब में बड़े पाप को इस प्रकार परिभाषित किया गया है: कि जिसकी व्याख्या कुरआन या हदीस में की गई हो कि यह पाप बड़ा है, या इस पाप के करने वाले व्यक्ति के लिए सजा का वादा किया गया है। या आमतौर पर इसे बड़ा पाप कहा जाता है।[१५]
किसी व्यक्ति को अन्यायपूर्ण तरीके से मारना, बलात्कार, महिला पर आरोप लगाना, अनाथ की संपत्ति हड़पना, ब्याज खाना, नमाज़ छोड़ना, चोरी करना और अल्लाह की दया से निराश होना आदि बड़े पाप है जिनका उल्लेख हदीसों मे हुआ हैं।[१६]
प्रभाव के अनुसार पापों का विभाजन
कुछ हदीसों में पापों को उनके प्रभाव और कार्यों के अनुसार विभाजित किया जाता है। मआनिल अख़बार में इमाम सज्जाद की एक हदीस में पापों को विभिन्न प्रकारों में विभाजित किया गया है। उनमें से कुछ निम्मलिखत हैं:
- वह पाप जो व्यक्ति से नेमतो को छीन लेता है: ग़ुंडागर्दी, अम्र बिल मारूफ को त्यागना, और कुफ़्राने नेमात (ईशनिंदा)।
- वह पाप जो पछतावे का कारक होता हैं: निर्दोष की हत्या, गर्भपात, नमाज़ और ज़कात का परित्याग।
- वह पाप जो दैव्य आपदा आने का कारण बनता है: लोगो का मजाक़ उड़ाना।
- वह पाप जो व्यक्ति के अपमान का कारण बनता हैं: शराब पीना, जुआ खेलना, घमंड करना और दूसरों में दोष खोजना।
- वह पाप जिस के कारण विपत्तियाँ आती हैं: उत्पीड़ितों की मदद ना करना, अम्र बिल मारूफ़ और नही अज़ मुनकर (अच्छाई का आदेश और बुराई से रोकना) त्यागना।
- वह पाप जिससे जल्दी मृत्यु हो जाती है: दया ना करना, बलात्कार और झूठी क़सम खाना।[१७]
भौतिक और आध्यात्मिक प्रभाव
गुनाह एक तरह का "विस्फोट" है, क्योंकि यह फ़ितरत (प्राकृतिक स्वभाव) के रास्ते से बाहर निकलना है। अगर इंसान अपनी फ़ितरत के अनुसार चले, शरीर और आत्मा के हक़ और हद्द को संतुलन में रखे, तो गुनाह में नहीं पड़ेगा। लेकिन जब यह संतुलन टूटता है, तो गुनाह एक विस्फोट की तरह होता है। गुनाह भरी नज़र डालना एक विस्फोट है। गुनाह भरी बात कहना भी ऐसा ही है। उदाहरण के तौर पर, इंसान कभी-कभी अपने अंदर के गुस्से, द्वेष, ईर्ष्या या अन्य नकारात्मक भावनाओं से भर जाता है। फिर वह ऐसी बात कह बैठता है जिसे एक बच्चा भी समझ सकता है कि नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि यह उसके अपने नुक़सान में है। यह ठीक उसी तरह है जैसे ज्वालामुखी (आतिशफ़शान) अनियंत्रित रूप से अंदर से आग उगल देता है।
इमाम सादिक़ (अ) की हदीस के अनुसार, जब कोई व्यक्ति पाप करता है तो उसके दिल पर एक काला बिंदु उत्पन्न हो जाता है। यदि वह अपने पाप से पश्चाताप कर, तो काला बिंदु उसके दिल से समाप्त हो जाता है। लेकिन अगर वह बार बार पाप करता है, तो इस काले बिंदु मे वृद्धि होना आरम्भ हो जाती है यहा तक कि यह काला बिंदु उसके पूर्ण हृदय को घेर लेता है। ऐसी स्थिति मे यह व्यक्ति कदापि मुक्ति प्राप्त नही कर सकता।[१८]
इमाम अली (अ) पवित्र क़ुरआन की इस आयत, (وَمَا أَصَابَكُم مِّن مُّصِيبَةٍ فَبِمَا كَسَبَتْ أَيْدِيكُمْ وَيَعْفُو عَن كَثِيرٍ वमा असाबकुम मिम मुसीबतिन फ़बेमा कसाबत एयदीकुम वा याअफ़ू अन कसीरिन) (अनुवादः और तुम तक जो भी विपत्ति पहुचंती है वह तुम्हारे हाथों की कमाई है और वह बहुत सी बातो को क्षमा भी करता है।)[१९] का हवाला देते हुए पापो को मानव जीवन में होने वाली पीड़ाओं और समस्याओं का कारण बताते हैं। यहां तक कि इंसान पर आने वाली एक सामान्य खरोच और जमीन पर गिर पड़ने तक को उसके पापो का कारण बताते है।[२०]
पापों के निवारण के कारण
गुनाहों को मिटाने का पहला कदम "तौबा" (पश्चाताप) है। तौबा की हकीकत गुनाह पर नदामत (पछतावा) और अफ़सोस करना है, जिसमें भविष्य में उस गुनाह को छोड़ने का दृढ़ संकल्प शामिल है।[२१] तौबा के बाद दूसरा महत्वपूर्ण कारक "इस्तिग़फ़ार" (माफी माँगना) है, जिसे क़ुरआन में अल्लाह की माफ़ी का ज़रिया बताया गया है।[२२] इस्तिग़फ़ार का मतलब अल्लाह से माफ़ी माँगना है, जबकि तौबा गुनाह पर पछतावे को कहते हैं। कुरआन की कई आयतों में तौबा और इस्तिग़फ़ार साथ-साथ आए हैं।[२३] इनके अलावा, गुनाहों को मिटाने वाले अन्य कारक हैं: "हसनात"[२४] (अच्छे कर्म) करना, "तक़्वा"[२५] (अल्लाह का डर) रखना, "ईमान और अमल-ए-सालेह"[२६] (विश्वास और अच्छे कार्य), और "सदक़ा" (दान) देना। इस प्रकार, इन तरीकों से इंसान अपने गुनाहों की माफ़ी पा सकता है और अल्लाह की रहमत हासिल कर सकता है।[२७]
मीज़ान उल-हिक्मा किताब में " मुकफ़्फ़ीरात ज़ुनूब" नामक एक खंड है जिसमें कुछ हदीसों का उल्लेख है जिन मे कुछ ऐसे कारणो का उल्लेख किया गया है जिसके कारण पाप समाप्त हो जाते है।[२८] इस किताब के अनुसार गरीबी और हाथ की तंगी, रोग, मुस्कुराहट, उत्पीड़ीतो की फरयाद तक पहुचंना, अधिक सज्दे करना और अधिक सलवात पढ़ना इन्ही कारको मे से है।[२९]
पाप से पश्चाताप
- मूल लेख: तौबा
शिया धर्मशास्त्र के स्रोतों में, पापों से पश्चाताप के दायित्व पर हमेशा जोर दिया गया है और इसके दायित्व को तत्काल माना गया है। शेख़ मुहम्मद हसन नजफी,[३०] सय्यद यज़्दी पापों से पश्चाताप को सबसे महत्वपूर्ण और सबसे अनिवार्य मुद्दा मानते हैं।[३१] क़ुरआन की आयतो के अनुसार, सूरा ए ताहा की आयत 82 मे अल्लाह फरमाता है कि अल्लाह पापी के पश्चाताप को स्वीकार करता है और उसके पापों को क्षमा करता है, चाहे वे कुछ भी हों।[३२]
निर्दोषता और पापों से दूरी
- मूल लेख: इस्मत
धार्मिक इस्तेलाह मे निर्दोषता (इस्मत) एक ऐसी अवस्था है जिसके होते हुए व्यक्ति पापों का दोषी नहीं होता है।[३३] धार्मिक शिक्षाओं में, ऐसे व्यक्ति को निर्दोष (मासूम) कहा जाता है।[३४] शियों का मानना है कि निर्दोष पापों के अपराध से अवगत होने के कारण अपने इरादे और इख़्तियार से पापों का त्याग करता है।[३५] उनके अनुसार, पैगंबर, 12 मासूम इमाम और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ) इस्मत के मक़ाम पर हैं।[३६]
फ़ुटनोट
- ↑ क़राअती, गुनाह शनासी, 1377 शम्सी, पेज 7
- ↑ सज्जादी, फ़रहंगे मआरिफ़े इस्लामी, 1362 शम्सी, भाग 2, पेज 429
- ↑ देखेः क़राअती, गुनाह शनासी, 1377 शम्सी, पेज 7
- ↑ सूर ए निसा, आयत 48, 116।
- ↑ सूर ए लोक़मान, आयत 13।
- ↑ सूर ए अनआम, आयात 93, 21, 157, सूर ए आराफ़, आयत 37, सूर ए यूनुस, आयत 17, सूर ए कहफ़, आयत 15, सूर ए अनकबूत, आयत 68, सूर ए ज़ोमर, आयत 32, सूर ए सफ़, आयत 7, सूर ए निसा, आयत 50 सूर ए हूद, आयत 18।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान,खंड 8, पृष्ठ 112।
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान,खंड 7, पृष्ठ 44।
- ↑ सूर ए फ़ुरक़ान, आयत 68, सूर ए माएदा, आयत 29, सूर ए इस्रा, आयत 33।
- ↑ सूर ए माएदा, आयत 32।
- ↑ देखेः दस्तेग़ैब, गुनाहाने कबीरा, 1375 शम्सी, भाग 1, पेज 31 क़राअती, गुनाह शनासी, 1377 शम्सी, पेज 13-15
- ↑ क़राअती, गुनाह शनासी, 1377 शम्सी, पेज 13
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- ↑ देखेः तबातबाई, अल-मीज़ान, 1417 हिजरी, भाग 4, पेज 323
- ↑ यज़्दी, अल-उरवातुल वुस्क़ा, 1428 हिजरी, भाग 1, पेज 681
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- ↑ सूर ए हूद, आयत 114, सूर ए क़सस, आयत 54।
- ↑ सूर ए अंफ़ाल, आयत 29, सूर ए नूह, आयत 3 और 4, सूर ए हदीद, आयत 28।
- ↑ सूर ए अहक़ाफ़, आयत 31।
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- ↑ देखेः मुहम्मद रय शहरी, मीज़ान उल-हिक्मा, 1379 शम्सी, भाग 4, पेज 1906-1913
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- ↑ मिस्बाह यज़्दी, आमूज़िशे अकाइद, 1378 शम्सी, भाग 2, पेज 31
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- ↑ मिस्बाह यज़्दी, आमूज़िशे अकाइद, 1378 शम्सी, भाग 2, पेज 31
- ↑ मिस्बाह यज़्दी, आमूज़िशे अकाइद, 1378 शम्सी, भाग 2, पेज 30-31
स्रोत
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- यज़्दी, सय्यद मुहम्मद काज़िम, अल-उरवा तुल-वुस्क़ा, क़ुम, इंतेशाराते मदरसा इमाम अली इब्ने अबी तालिब (अ), पहला प्रकाशन, 1428 हिजरी