माता पिता के अधिकार

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माता पिता के अधिकार (फ़ारसी: حق والدین) वे अधिकार हैं जो माता-पिता को अपने बच्चों पर प्राप्त होते हैं। इन अधिकारों का पालन ईश्वर की सबसे महत्वपूर्ण आज्ञाओं में से एक माना जाता है और ईश्वर के अधिकार के बाद बच्चों के कंधों पर यह सबसे बड़ा अधिकार माना गया है।

धार्मिक स्रोतों में, माता-पिता के प्रति दया, सम्मान और आज्ञाकारिता और बच्चों के प्रति माता-पिता के अधिकारों सहित उनकी वित्तीय जरूरतों के प्रावधान पर विचार किया जाता है। क़ुरआन में, माता-पिता के प्रति दयालुता का आदेश देने के बाद, बच्चों को न केवल अपने माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार और थोड़ी सी भी कठोरता से बचने के लिए कहा गया है, बल्कि उनके सामने विनम्र रहने और उनके जीवनकाल के दौरान और उनकी मृत्यु के बाद प्रार्थना (दुआ) करने के लिए भी कहा गया है। मासूमों की हदीसों में, माता-पिता के साथ व्यवहार में अच्छाई को ईश्वर की नज़र में सबसे अच्छे और सबसे प्रिय कार्यों में से एक और शियों की विशिष्ट विशेषताओं में से एक माना गया है।

न्यायशास्त्रीय माता-पिता की आज्ञा के पालन को, जहाँ अवज्ञा से उन्हें हानि पहुँचती है, अनिवार्य (वाजिब) मानते हैं; जब तक वे पाप करने का आदेश न दें। साथ ही उनके फ़तवे के अनुसार, यदि बच्चा सक्षम है तो अपने जरूरतमंद माता-पिता का खर्च उठाना उसके लिए अनिवार्य (वाजिब) है।

माता-पिता के अधिकारों की स्थिति और महत्व

وَاعْبُدُوا اللَّـهَ وَلَا تُشْرِ‌کُوا بِهِ شَیْئًا وَبِالْوَالِدَیْنِ إِحْسَانًا वाअबोदुल्लाहा वला तुशरेकू बेही शैअन व बिल वालेदैने एहसाना

अनुवाद: और ईश्वर की इबादत करो और उसके साथ किसी को शरीक न करो और अपने माता पिता के साथ दया (एहसान) करो।

सूर ए निसा, आयत 36, फ़ौलादवंद द्वारा अनुवादित।

माता-पिता के अधिकार का पालन करना ईश्वर के सबसे महत्वपूर्ण आदेशों में से एक माना गया है[१] और ईश्वर के अधिकार के बाद, इसे बच्चों के कंधों पर सबसे बड़ा अधिकार माना गया है।[२] माता-पिता के प्रति दया और दयालुता, जो माता-पिता के अधिकारों में से एक माना जाता है,[३] क़ुरआन में इस पर कई बार ज़ोर दिया गया है।[४] ईश्वर की इबादत करने के आदेश और ईश्वर के साथ किसा की शरीक करने के निषेध (रोकने)[५] के तुरंत बाद इस आदेश की पुनरावृत्ति को, इस नैतिक और धार्मिक शिक्षा के विशेष महत्व का संकेत माना गया है।[६]

शिया और सुन्नी हदीसी स्रोतों में, माता-पिता की विशेष स्थिति पर भी ज़ोर दिया गया है और एक स्वतंत्र अनुभाग इसके लिए समर्पित है[७] और माता-पिता की अवज्ञा करना हराम और बड़े पापों में से एक है।[८] कुछ अन्य धर्मों की पुस्तकों और अहदे अतीक़ (पुराने नियम) में माता-पिता का सम्मान करने पर ज़ोर दिया गया है।[९]

माता-पिता के क्या अधिकार हैं?

धार्मिक स्रोतों में, माता-पिता के प्रति दया और सम्मान[१०] और उनकी आज्ञा का पालन करना[११] और उनकी वित्तीय ज़रूरतों को पूरा करना[१२] माता-पिता के अधिकारों में से हैं।

इमाम काज़िम (अ):

एक आदमी ने ईश्वर के पैग़म्बर (स) से पूछा: एक पिता का अपने बच्चे पर क्या अधिकार है? उन्होंने कहा: उन्हें उनके नाम से न बुलाओ और उनके आगे मत चलो और उनके पहले मत बैठो और ऐसा कुछ भी न करो जिससे लोग उसके पिता का अपमान करें।

कुलैनी, अल काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 158।

दया और सम्मान

मुख्य लेख: माता पिता के प्रति दयालुता

माता पिता के प्रति दयालुता (एहसान) और सम्मान (एहतेराम) को माता-पिता के अधिकारों में माना जाता है।[१३] शेख़ हुर्रे आमोली ने अपनी पुस्तक वसाएल में हुक़ूक़े वालेदैन के शीर्षक से एक अनुभाग का उल्लेख किया है और इस अनुभाग में उन्होंने माता-पिता के लिए अच्छाई, उपकार और सम्मान के बारे में हदीसों का उल्लेख किया है।[१४]

मासूमीन की हदीसों में माता-पिता के साथ व्यवहार में दयालुता को भगवान की नज़र में सबसे अच्छे[१५] और सबसे प्रिय कार्यों में से एक[१६] और शियों की विशिष्ट विशेषताओँ में से एक के रूप में प्रस्तुत किया गया है[१७] साथ ही, भगवान की प्रसन्नता और क्रोध उनके बच्चों के प्रति उनकी संतुष्टि और नाराज़गी पर निर्भर करता है,[१८] और उनके प्रति दयालु न होने का कोई बहाना स्वीकार नहीं किया जाता है।[१९]

पैग़म्बर (स) की सीरत के बारे में यह भी कहा गया है कि वह अपनी रेज़ाई माँ (पालक मां) का बहुत सम्मान करते थे[२०] और उन लोगों का भी सम्मान करते थे जो अपने माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करते थे।[२१] इसी आधार पर, मुसलमानों को अपने माता-पिता के प्रति दयालु होने और उनकी देखभाल करने की कठिनाइयों को सहन करने का आदेश दिया गया है[२२] भले ही माता-पिता बहुदेववादी (मुशरिक)[२३] या पापी हों।[२४]

दयालुता के उदाहरण

सूर ए इस्रा की आयत 23 और 24 में माता-पिता के प्रति दयालु होने के आदेश के बाद, इसके कुछ उदाहरणों का उल्लेख किया गया है, जैसे "उफ़" कहने की मनाही और उनके प्रति कम से कम कठोरता।[२५] आयत की निरंतरता में, बच्चों से कहा गया है कि वे न केवल अपने माता-पिता के बूढ़े होने पर उनके साथ दुर्व्यवहार करने से बचें। बल्कि, उन्हें उनके सामने विनम्र होना चाहिए और उनके लिए उनके जीवनकाल के दौरान और उनकी मृत्यु के बाद उन कठिनाइयों के लिए प्रार्थना (दुआ) करनी चाहिए जो उनके माता-पिता ने उनकी वृद्धि और शिक्षा के लिए सहन की हैं।[२६]

हदीसों में माता-पिता के अधिकारों के उदाहरणों का भी उल्लेख किया गया है; उनमें से, बच्चों को उन्हें नाम से नहीं बुलाना चाहिए, उनके आगे नहीं चलना चाहिए, और उनकी ओर पीठ करके नहीं बैठना चाहिए।[२७] इसके अलावा, अगर वे अपने बच्चों को बुलाते हैं, तो उन्हें तुरंत जवाब देना चाहिए, भले ही वह नमाज़ पढ़ रहे हों[२८] और यदि उनका व्यवहार और वाणी उनकी इच्छा के विरुद्ध हो, तो उन्हें भौहें चढ़ाने या उनका अपमान करने से बचना चाहिए।[२९] माता-पिता की गोपनीयता की रक्षा करना[३०] और उन्हें धन्यवाद देना[३१] माता-पिता के प्रति दयालुता के अन्य उदाहरणों में से हैं।

आज्ञाकारिता और गुज़ारा भत्ता

وَقَضَیٰ رَ‌بُّکَ أَلَّا تَعْبُدُوا إِلَّا إِیَّاهُ وَبِالْوَالِدَیْنِ إِحْسَانًا إِمَّا یَبْلُغَنَّ عِندَکَ الْکِبَرَ أَحَدُهُمَا أَوْ کِلَاهُمَا فَلَا تَقُل لَّهُمَا أُفٍّ وَلَا تَنْهَرْ‌هُمَا وَقُل لَّهُمَا قَوْلًا کَرِ‌یمًا وَاخْفِضْ لَهُمَا جَنَاحَ الذُّلِّ مِنَ الرَّ‌حْمَةِ وَقُل رَّ‌بِّ ارْ‌حَمْهُمَا کَمَا رَ‌بَّیَانِی صَغِیرً‌ا (व क़ज़ा रब्बोका अल्ला तअबोदू इल्ला इय्याहो व बिल वालेदैने एहसानन इम्मा यब्लोग़न्ना इन्दका अल केबर अहदोहोमा अव किलाहोमा फ़ला तक़ुल लहोमा उफ़्फ़िन वला तन्हरहोमा व क़ुल लहोमा क़ौलन करीमा वख़्फ़िज़ लहोमा जनाहा अल ज़ुल्ले मिन अल रहमते व क़ुल रब्बिरहमहोमा कमा रब्बयानी सग़ीरा)

अनुवाद: और तुम्हारे रब का आदेश यह है कि तुम उसके अलावा किसी की पूजा (इबादत) न करो और अपने माता पिता के प्रति दया करो, यदि उनमें से एक या दोनों तुम्हारे सामने बुढ़ापे तक पहुँच जाएँ, तो उनसे "उफ़" भी न कहें और उन्हें उत्तेजित न करें और उनसे सभ्य तरीक़े से बात करें। और दयालुता से, उन पर नम्रता के पंख फैलाओ और कहो: "भगवान, उन दोनों पर दया करो, जैसे उन्होंने मुझे बचपन में पाला था।

सूर ए इस्रा, आयत 23-24, फौलादवंद द्वारा अनुवादित।

माता-पिता की आज्ञाकारिता को उनके अधिकारों में से एक माना गया है,[३२] जब तक कि वे बच्चे को शिर्क करने या पाप करने के लिए न कहें।[३३] मासूमीन की हदीसों में, माता-पिता की आज्ञाकारिता को विश्वास (ईमान)[३४] और तर्कसंगत व्यवहार (अक़्ली आमाल)[३५] का संकेत माना गया है।

शिया न्यायविद मिर्ज़ाई क़ुमी के अनुसार, कुछ मामलों में माता-पिता की आज्ञा मानने की बाध्यता पर न्यायविदों द्वारा सहमति (इजमा) व्यक्त की गई है।[३६] वह मुबाह कार्य को करना जायज़ नहीं मानते हैं जिससे माता-पिता संतुष्ट न हों, मगर यह कि वह कार्य न करना बच्चे के लिए हानिकारक हो।[३७]

साहिब जवाहिर, सय्यद मोहसिन हकीम और नासिर मकारिम शिराज़ी जैसे कुछ न्यायविदों का भी मानना है कि माता-पिता की आज्ञा मानने का दायित्व उस स्थान से संबंधित है जहां बच्चे की अवज्ञा उन्हें नुक़सान पहुंचाती है।[३८]

माता-पिता के अन्य अधिकारों में उनकी वित्तीय ज़रूरतों को पूरा करना शामिल है।[३९] न्यायविदों के अनुसार, यदि माता-पिता जरूरतमंद हैं, तो बच्चे को उनका भरण-पोषण (नफ़्क़ा) और खर्च, यदि वह सक्षम हैं, देना अनिवार्य है।[४०] इसके अलावा, कुरआन की कुछ आयतों में,[४१] बच्चों को सलाह दी जाती है कि वे अपनी वित्तीय वसीयत में माता-पिता के हिस्से पर विचार करें और अपनी संपत्ति अपने माता-पिता पर खर्च (इंफ़ाक़) करें।[४२]

माता-पिता की मृत्यु के बाद उनके अधिकार

धार्मिक स्रोतों में, बच्चों को अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद उनके लिए दयालुता (एहसान) करने का आदेश दिया गया है[४३] जैसे उनके लिए क़ुरआन पढ़ना, इस्तिग़फ़ार करना और अपने माता-पिता के लिए दुआ करना, सदक़ा देना, उनकी उधारी और अन्य दायित्वों का भुगतान करना, माता-पिता के दोस्तों का सम्मान करना और उनके रिश्तेदारों के साथ संचार और सिल ए रहम करना,[४४] साथ ही माता-पिता की ओर से नमाज़ पढ़ना, रोज़ा रखना और हज करना।[४५]

न्यायशास्त्र की पुस्तकों में पिता की नमाज़ और रोज़े की कज़ा करना उसके बड़े बेटे पर अनिवार्य (वाजिब) माना गया है।[४६] कुछ मराजे ए तक़लीद, जैसे ख़ामेनेई, मकारिम शिराज़ी और नूरी हमदानी ने माँ को भी इस हुक्म के अधीन माना है।[४७] सहीफ़ा ए सज्जादिया में, दुआ के रूप में माता-पिता के प्रति बच्चों के कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है।।[४८]

माता-पिता के अधिकारों के पालन पर ज़ोर देने का कारण

अल्लामा तबातबाई ने बताया है कि क्यों क़ुरआन माता-पिता के प्रति दयालुता पर ज़ोर देता है क्योंकि माता-पिता और बच्चों के बीच भावनात्मक संबंध नई पीढ़ी और पिछली पीढ़ी के बीच एक मज़बूत बंधन का कारण बनता है और परिवार को मज़बूत करता है। सामाजिक संबंधों में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक के रूप में, पारिवारिक स्थिरता मानव समाज की स्थिरता का कारण है।[४९]

इमाम सज्जाद (अ):

एक आदमी पैग़म्बर (स) के पास आया और कहा कि मैंने हर बुरा काम किया है। क्या मेरे लिए पश्चाताप करने और वापस लौटने का कोई रास्ता है? पैग़म्बर (स) ने उत्तर दिया, "क्या आपके माता-पिता में से कोई जीवित है?" उसने कहा मेरे पिता जीवित हैं, पैग़म्बर ने कहा, जाओ और उनके साथ भलाई करो। जब वह आदमी चला गया, तो ईश्वर के पैग़म्बर (स) ने कहा काश उसकी माँ जीवित होती।

कूफ़ी अहवाज़ी, अल ज़ोहद, 1399 हिजरी, पृष्ठ 35।

शिया विद्वान इब्ने मस्कवैह (320-420 हिजरी) ने यह भी विश्लेषण किया कि है धार्मिक शिक्षाओं में माता-पिता के प्रति दयालु होने और उनके अधिकारों का सम्मान करने का आदेश क्यों दिया गया है, लेकिन माता-पिता को अपने बच्चों के संबंध में ऐसा आदेश नहीं दिया गया है। उनका मानना है कि माता-पिता अपने बच्चों को अपने से अलग न समझें। इसलिए जैसे वे स्वयं से प्रेम करते हैं, वैसे ही अपने बच्चों से भी प्रेम करते हैं और उसकी प्रगति को अपनी प्रगति मानते हैं। लेकिन बच्चे अपने माता-पिता के प्रति ऐसा महसूस नहीं करते हैं।[५०]

माता के अधिकार पर विशेष ध्यान

हदीसों में माँ पर विशेष ध्यान देने पर ज़ोर दिया गया है[५१] और माँ का अधिक अधिकार माना गया है;[५२] इस हद तक कि माँ के अधिकार को पूरा करना असंभव माना गया है।[५३] पैग़म्बर (स) की एक हदीस में, यह कहा गया है कि माँ के प्रति दयालुता पिछले पापों का प्रायश्चित है।[५४]

सूर ए अहक़ाफ़ की 15वीं आयत में माता-पिता की दयालुता का आदेश देने और उसके दर्शन (फ़लसफ़े) को व्यक्त करने के बाद केवल माँ के प्रयासों का ही उल्लेख किया गया है। मुस्लिम विद्वानों के अनुसार, यह मुद्दा माँ के अधिकार और उसके प्रति एक बड़े आदेश पर ज़ोर देता है।[५५] इमाम सज्जाद (अ) ने रेसाला अल हुक़ूक़ में गर्भावस्था के दौरान और उसके बाद बच्चे के बचपन के दौरान माँ द्वारा सहन की जाने वाली कठिनाइयों की ओर इशारा किया है और विशेष रूप से बच्चे को माँ के प्रयासों की सराहना करने का आदेश दिया है।[५६]

सम्बंधित लेख

फ़ुटनोट

  1. सिपाहे पासदारान, मआरिफ़े कुरआन, 1378 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 78।
  2. रशीद रज़ा, तफ़सीर अल मनार, 1414 हिजरी, खंड 8, पृष्ठ 186; फ़ज़्लुल्लाह, मिन वही अल कुरआन, 1419 हिजरी, खंड 7, पृष्ठ 259।
  3. अबू अल सऊद, तफ़सीर अबी अल सऊद, 1983 ईस्वी, खंड 3, पृष्ठ 198।
  4. सूर ए अनकबूत, आयत 8 को देखें; सूर ए अहक़ाफ़, आयत 15।
  5. सूर ए बक़रा, आयत 83; सूर ए निसा, आयत 36; सूर ए अनआम, आयत 151; सूर ए इस्रा, आयत 23।
  6. शाह अब्दुल अज़ीमी, तफ़सीर इसना अशअरी, 1363 शम्सी, खंड 7, पृष्ठ 355।
  7. उदाहरण के लिए देखें, कुलैनी, अल काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 157; मजलिसी, बिहार अल अनवार, 1403 हिजरी, खंड 71, पृष्ठ 22; बोख़ारी, सहीह बोख़ारी, 1422 हिजरी, खंड 8, पृष्ठ 2; मुस्लिम बिन हज्जाज, सहीह मुस्लिम, खंड 8, पृ.1।
  8. कुलैनी, अल काफी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 278; बोख़ारी, सहीह बोख़ारी, 1422 हिजरी, खंड 8, पृष्ठ 4।
  9. बाइबिल, सफ़रे लावियान, अध्याय 19, पद 3; सफ़रे खुरूज, अध्याय 20, पद 12; सफ़रे तस्निया, अध्याय 5, श्लोक 16।
  10. अबू अल सऊद, तफ़सीर अबू अल सऊद, 1983 ईस्वी, खंड 3, पृष्ठ 198।
  11. अब्बास नेजाद, रवान शनासी व उलूमे तरबियती, 1384 शम्सी, पृष्ठ 81।
  12. अब्बास नेजाद, रवान शनासी व उलूमे तरबियती, 1384 शम्सी, पृष्ठ 81।
  13. अबू अल सऊद, तफ़सीर अबू अल सऊद, 1983 ईस्वी, खंड 3, पृष्ठ 198; अब्बास नेजाद, रवान शनासी व उलूमे तरबियती, 1384 शम्सी, पृष्ठ 81।
  14. शेख़ हुर्रे आमोली, वसाएल अल शिया, 1409 हिजरी, खंड 21, पृष्ठ 505।
  15. कुलैनी, अल-काफी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 158।
  16. बोखारी, सहीह बोखारी, 1422 हिजरी, खंड 8, पृष्ठ 2।
  17. कुलैनी, अल-काफी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 74।
  18. तिर्मिज़ी, सुनन अल तिर्मिज़ी, 1403 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 207; कुलैनी, अल-काफी, 1407 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 428।
  19. कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 162।
  20. अबू दाऊद, सुनन अबू दाऊद, 1410 हिजरी, खंड 2, पृ. 507-508।
  21. कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 161।
  22. कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 162; शेख सदूक, मन ला याहज़रोहुल फ़क़ीह, 1413 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 407 और 408।
  23. बोखारी, सहीह बोखारी, 1422 हिजरी, खंड 8, पृष्ठ 4।
  24. कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 162।
  25. फ़ख़्रे राज़ी, मफ़ातीह अल ग़ैब, 1420 हिजरी, खंड 20, पृष्ठ 324।
  26. सूर ए इस्रा, आयत 23-24।
  27. कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 158-159; शेख़ सदूक, मन ला याहज़रोहुल अल फ़क़ीह, 1413 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 372; बोखारी, अल-अदब अल-मुफ़रद, 1409 हिजरी, पृष्ठ 30।
  28. मजलिसी, बिहार अल अनवार, 1403 हिजरी, खंड 71, पृष्ठ 37।
  29. कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 349; शेख़ तूसी, अल तिब्यान, दार अल एहिया अल तोरास, खंड 6, पृष्ठ 467।
  30. देखें कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 6, पृष्ठ 503; शेख़ सदूक़, मन ला याहज़रो अल फ़कीह, 1413 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 372।
  31. शेख़ सदूक़, उयून अख़्बार अल-रज़ा (अ), 1378 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 258।
  32. अब्बास नेजाद, रवान शनासी व उलूमे तरबियती, 1384 शम्सी, पृष्ठ 81।
  33. सूर ए अनकबूत, आयत 8; सूर ए लुक़मान, आयत 13-14; अब्बास नेजाद, रवान शनासी व उलूमे तरबियती, 1384 शम्सी, पृष्ठ 81।
  34. कुलैनी, अल-काफी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 158।
  35. कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 22।
  36. मिर्ज़ाई क़ुमी, जामेअ अल शतात, 1413 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 240।
  37. मिर्ज़ाई क़ुमी, जामेअ अल शतात, 1413 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 240।
  38. नजफ़ी, जवाहिर अल कलाम, 1404 हिजरी, खंड 21, पृष्ठ 23; हकीम, मुस्तमसिक अल उर्वा अल वुस्क़ा, 1416 हिजरी, खंड 7, पृष्ठ 169; मकारिम शिराज़ी, इस्तिफ़ताआत जदीद, 1427 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 494।
  39. अब्बास नेजाद, रवान शनासी व उलूमे तरबियती, 1384 शम्सी, पृष्ठ 81।
  40. उदाहरण के लिए देखें: इमाम खुमैनी, नेजात अल एबाद, 1422 हिजरी, पृष्ठ 382; साफ़ी गुलपायेगानी, जामेअ अल अहकाम, 1417 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 104।
  41. सूर ए बक़रा, आयत 180 और 215।
  42. शेख़ तूसी, अल तिब्यान, दार अल एहिया अल तोरास, खंड 2, पृष्ठ 108।
  43. कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 159 और 163।
  44. देखें कुलैनी, अल-काफी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृ. 159 और 163; तबरसी, मजमा अल बयान, 1382 शम्सी, खंड 6, पृष्ठ 632।
  45. कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 159, हदीस 7।
  46. मोहक़्क़िक़ हिल्ली, शराए अल इस्लाम, 1408 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 19।
  47. बनी हाशमी, तौज़ीह अल मसाएल अल मराजेअ, 1424 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 761 और 162; खामेनेई, अज्वबा अल इस्तिफ़ताआत, 1424 हिजरी, पृष्ठ 110।
  48. इमाम सज्जाद (अ), सहीफ़ा सज्जादिया, 1376 शम्सी, पृष्ठ 116-118।
  49. तबातबाई, अल मीज़ान, 1417 हिजरी, खंड 7, पृष्ठ 374 और खंड 13, पृष्ठ 80।
  50. मस्कवैह, तहज़ीब अल अख्लाक़, 1426 हिजरी, पृष्ठ 233।
  51. कुलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 159-160।
  52. हकीम नैशापुरी, दार अल मारेफ़ा, खंड 4, पृष्ठ 150।
  53. इब्ने अबी जुम्हूरी, अवाली अल लआली, 1405 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 269।
  54. कुलैनी, अल काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 162।
  55. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीरे नमूना, 1373 शम्सी, खंड 17, पृष्ठ 40; इब्ने मफ़्लह, अल आदाब अल शरिया व अल मन्ह अल मरईया, 1424 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 338।
  56. शेख़ सदूक़, मन ला याहज़रो अल फ़कीह, 1413 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 621।

स्रोत

  • कुरआन करीम।
  • बाइबिल।
  • अबू अल-सऊद, मुहम्मद बिन मुहम्मद, तफ़सीर अबी अल सऊद, बेरूत, दार अल एहिया अल तोरास अल-अरबी, पहला संस्करण, 1983 ईस्वी।
  • अबू दाऊद, सुलेमान बिन अश्अस, सुनन अबू दाऊद, सईद मुहम्मद लहाम द्वारा मुद्रित, बेरूत, 1410 हिजरी।
  • इब्ने अबी जम्हूर, मुहम्मद बिन ज़ैनुद्दीन, अवाली अल लआली अल अज़ीज़िया फ़ी अल अहादीस अल-दीनीया, शोधकर्ता और सुधारक: मुज्तबा इराकी, क़ुम, दार सय्यद अल शोहदा पब्लिशिंग हाउस, पहला संस्करण, 1405 हिजरी।
  • इब्ने शाअबा हर्रानी, हसन बिन अली, तोहफ़ अल उक़ूल अन आले अल रसूल (स), शोधकर्ता और सुधारक: गफ़्फ़ारी, अली अकबर, क़ुम, दफ़्तरे इंतेशाराते इस्लामी, दूसरा संस्करण, 1404 हिजरी।
  • इमाम खुमैनी, रूहुल्लाह, नेजात अल एबाद, मोअस्सास ए तंज़ीम व नशरे आसारे इमाम खुमैनी, तेहरान, पहला संस्करण, 1422 हिजरी।
  • इमाम सज्जाद (अ), अली बिन अल-हुसैन, साहीफ़ा सज्जादिया, क़ुम, दफ़्तरे नशर अल-हादी, पहला संस्करण, 1376 शम्सी।
  • बोखारी, मुहम्मद बिन इस्माइल, सहीह बोखारी, शोधकर्ता: मुहम्मद ज़ुहैर, दमिश्क़, दार तौक अल नेजात, पहला संस्करण, 1422 हिजरी।
  • बोखारी, मुहम्मद बिन इस्माइल, अल अदब अल मुफ़रद, शोधकर्ता: मुहम्मद फ़ोआद अब्दुल बाकी, बेरूत, दार अल बशाएर अल इस्लामिया, तीसरा संस्करण, 1409 हिजरी।
  • बनी हाशमी खुमैनी, सय्यद मुहम्मद हुसैन, तौज़ीहुल मसाएल मराजेअ, क़ुम, दफ़्तरे इंतेशाराते इस्लामी, 8वां संस्करण, 1424 हिजरी।
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