बक़ीअ का विनाश

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यह लेख बक़ी के विनाश की घटना के बारे में है। विनाश की बरसी के बारे में जानने के लिए विध्वंस दिवस की एंट्री देखें।
बक़ीअ क़ब्रिस्तान विनाश से पहले

बक़ीअ का विनाश, (अरबी: هدم قبور أئمة البقيع) एक ऐसी घटना को संदर्भित करता है जो 1344 हिजरी में मदीना की घेराबंदी के बाद हुई थी, और बक़ी के कब्रिस्तान और उसकी क़ब्रों को मदीना के मुफ्तियों के फ़तवे और सऊदी न्यायाधीश शेख़ अब्दुल्लाह अल-बलीहद द्वारा नष्ट कर दिया गया था; जिनमें चार शिया इमामों: इमाम हसन (अ), इमाम सज्जाद (अ), इमाम बाक़िर (अ) और इमाम सादिक़ (अ) की क़ब्रें भी शामिल थीं। वहाबियों ने दो बार, पहली बार 1220 हिजरी में और दूसरी बार 1344 हिजरी में, मदीना के 15 मुफ्तियों के फ़तवे पर भरोसा करते हुए, क़ब्रों पर निर्माण के सर्वसम्मत निषेध और उन्हें नष्ट करने की आवश्यकता के आधार पर, बक़ीअ के मज़ारों और स्मारकों को नष्ट कर दिया। बक़ी के विनाश पर ईरान, इराक़, पाकिस्तान, पूर्व सोवियत संघ आदि में बहुत से लोगों और विद्वानों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की। मुस्लिम पवित्र स्थानों के विनाश के जवाब में, उस समय की ईरानी सरकार ने एक दिन के सार्वजनिक शोक की घोषणा की, और परिणामस्वरूप, नए स्थापित देश सऊदी अरब को मान्यता देने के काम को तीन साल तक स्थगित कर दिया गया।

विनाश के बाद, बक़ी कब्रिस्तान एक समतल भूमि में बदल गया, लेकिन चार शिया इमामों की क़ब्रों को पत्थरों से चिह्नित किया गया है। शिया विद्वानों और ईरानी सरकार द्वारा बक़ी में दफ़्न इमामों की क़ब्रों पर छतरी बनाने और इसी तरह से क़ब्रों के चारों ओर एक दीवार बनाने के प्रयास सऊदी अरब सरकार के प्रारंभिक समझौते (सहमति) के बावजूद भी, कभी सफल नहीं हुए।

शिया विद्वानों ने बक़ी के विनाश का विरोध करने के अलावा, वहाबीवाद के सिद्धांतों और पवित्र स्थानों के विनाश की आलोचना करते हुए रचनाएँ लिखी हैं; जिनमें सय्यद मोहसिन अमीन द्वारा लिखी गई किताब कश्फ़ अल-इरतीयाब और मुहम्मद जवाद बलाग़ी द्वारा लिखित दावा अल-हुदा शामिल हैं। कहा जाता है कि वहाबी पहला समूह था जिसने अपने धार्मिक विचारों के आधार पर धार्मिक स्थलों को नष्ट किया।

बक़ी क़ब्रिस्तान का स्थान और महत्व

बक़ी, जन्नतुल-बक़ीअ या बक़ी अल-ग़रक़द (इस्लाम के पैगंबर (स)[१] के आगमन से पहले बक़ी का नाम), मदीना में सबसे महत्वपूर्ण मुस्लिम क़ब्रिस्तान था [२] और इस्लामी हदीसों के अनुसार, पैगंबर मुहम्मद (स) के लिए विशेष रुप से तवज्जो व ध्यान का विषय था[३] यह चार मासूम इमामों और बहुत से सहाबा और ताबेईन के दफ़्न का स्थान है।[४] वहाबियों द्वारा 1220 हिजरी और फिर 1344 हिजरी में विनाश से पहले, बक़ी में दफ़्न इमामों और अन्य लोगों की क़ब्रों पर मकबरे बने हुए थे।[५]

रिपोर्टों के अनुसार, 1297 हिजरी में बक़ी कब्रिस्तान में शिया इमामों की दरगाह, बैत अल-अहज़ान और कई अन्य मक़बरे बाक़ी थे। [६] महमूद द्वितीय, तुर्क साम्राज्य के सुल्तान के आदेश के अनुसार। इसे 1234 हिजरी में बनाया गया था।ओटोमन साम्राज्य के सुल्तान महमूद द्वितीय के आदेश के अनुसार, इन इमारतों को पहले विनाश के बाद, और वहाबियों से मदीना पर पुनः कब्जा करने से पहले 1234 हिजरी में बनाया गया था।[७]

जैसा कि अब्बास मिर्ज़ा (1168-1212 शम्सी) के बेटे और होसाम अल-सलतनत के नाम से जाने जाने वाले मुराद मिर्ज़ा ने अपनी किताब में लिखा है कि कम से कम 1297 हिजरी तक, बक़ी क़ब्रिस्तान में इमाम हसन (अ), इमाम सज्जाद (अ), इमाम बाक़िर (अ) और इमाम सादिक़ (अ) की क़ब्रों पर, मेहराब के अलावा, हरे रंग की लकड़ी की एक ज़रीह बनी हुई थी और चार शिया इमामों की क़ब्रों के पीछे हज़रत ज़हरा (स) से मंसूब बैत अल-अहज़ान स्थित था।[८] क़शक़ाई क़बीले के कोषाध्यक्ष अयाज़ ख़ान क़श्क़ाई के यात्रा वृत्तांत के अनुसार, जो 1341 हिजरी में लिखा गया था, यानी बाक़ी के पूर्ण विनाश से दो साल पहले, चार शिया इमामों की क़ब्रें एक ही मकबरे में थीं, लेकिन प्रत्येक इमाम की क़ब्र मालूम थी। [९] इसी तरह से अयाज़ खान क़श्क़ाई ने बक़ी क्रब्रिस्तान में पैगंबर (स) के बेटे इब्राहीम और अब्दुल्लाह इब्न जाफ़र तय्यार की क़ब्रों के होने का उल्लेख किया है, और बक़ी के पास एक गली में पैगंबर (स) की बूआ सफ़ीया, आतेक़ा बिन्त अब्दुल मुत्तलिब, उम्मुल-बनीन, हज़रत अब्बास (अ) की मां, और बनी हाशिम परिवार के कई अन्य सदस्यों की क़ब्रों को देखा है।।[१०]

पूर्ण विनाश के बाद

जैसा कि जद्दा में ईरानी सरकार के प्रतिनिधि मुजफ्फ़र आलम ने 21 दिसंबर 1330 को हज स्थायी आयोग को संबोधित एक पत्र में लिखा था, 1344 हिजरी में वहाबियों द्वारा नष्ट किए जाने के बाद बक़ी, [११] एक ऐसा क़ब्रिस्तान है जिसमें इमामों की क़ब्रों की सभी इमारतों को नष्ट कर दिया गया है और बड़े धार्मिक नेताओं की कब्रों को चिह्नित नही किया गया है। [१२] उसी पत्र में, उन्होंने चारों शिया इमामों की कब्रों के चारों ओर लोहे की खिड़कियों वाली दीवार बनाने के लिए सऊदी सरकार की मंजूरी लेने की आवश्यकता पर जोर दिया है।[१३] हालांकि, रसूल जाफेरियान का मानना ​​है कि सऊदी अरब के राजा अब्दुल अजीज़ के साथ तेहरान के विद्वानों में से एक शेख़ अब्दुल रहीम साहिब-ए-फुसुल हैरी (1294-1367 हिजरी) की मुलाकात कारण बनी कि बक़ी के उस हिस्से को जहां चार शिया इमामों की कब्रें स्थित हैं, बाक़ी के अन्य हिस्सों की तरह, समतल नहीं किया गया और कम से कम इमामों (अ) की क़ब्रों का सही स्थान अभी भी ज्ञात है।[१४]

बक़ीअ और अन्य इस्लामी पवित्र स्थानों के विनाश के बाद, ईरान[१५] और अफ़गानिस्तान, [१६] और इसी तरह से नजफ़,[१७] क़ुम, भारत [१८] और पाकिस्तान[१९] के शिया विद्वानों के बक़ीअ की क़ब्रों पर दरगाह के पुनर्निर्माण के प्रयास किये गये, लेकिन उनमें से किसी को कोई नतीजा नहीं निकला, और यहां तक ​​​​कि बक़ी में चार शिया इमामों की क़ब्रों के चारों ओर एक दीवार के निर्माण, साथ ही इसके ऊपर एक छतरी के निर्माण में, इसके बावजूद कि नव स्थापित सऊदी सरकार ने इसकी प्रारंभिक स्वीकृति दे दी थी, कभी सफलता नहीं मिली।[२०] हालांकि राजा फ़हद बिन अब्दुल अजीज़ के शासनकाल के दौरान बक़ीअ क़ब्रिस्तान की दीवार का पुनर्निर्माण किया गया था, और उसके बाद फिर 1418 से 1419 हिजरी के वर्षों में, बक़ी के अंदर के रास्ते पर तीर्थयात्रियों के लिए पत्थर लगाये गए हैं।[२१]

विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार, आज सऊदी अरब की सरकार में "अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुन्कर" नामक एक कार्यालय से जुड़े गए लोग बक़ी के मुख्य द्वार और उसके आस पास तैनात हैं और वह तीर्थयात्रियों को क़ब्रों के पास जाने और उन्हें आशीर्वाद लेने से रोकते हैं।[२२] वर्तमान समय में, बक़ीअ में शिया इमामों के मक़बरे और साथ ही इस्लाम के महान नेताओं की क़ब्रों पर पत्थर के टुकड़ों के अलावा कोई निशान नहीं है। [२३] आज बक़ी की स्थिति पूर्ण विनाश के बाद के शुरुवाती वर्षो की तुलना में अधिक उपयुक्त बताई गई है।[२४]

विनाश कारक घटनाएं

बक़ीअ क़ब्रिस्तान में इमामों की क़ब्र

1220 हिजरी में, डेढ़ साल की घेराबंदी के बाद और मदीना में अकाल के प्रकोप के परिणामस्वरूप वहाबियों ने शहर पर क़ब्जा कर लिया। [२५] उपलब्ध स्रोतों के अनुसार, मदीना के आत्मसमर्पण के बाद, सऊद बिन अब्दुल अजीज़ ने, पैगंबर (स) के रौज़े के ख़जाने की सभी संपत्तियों को ज़ब्त कर लिया और इसी तरह से उसने बक़ी के क़ब्रिस्तान सहित मदीना की सभी मक़बरों और गुंबदों को नष्ट करने का भी आदेश दिया।[२६] तदनुसार, चार शिया इमामों के मक़बरों के साथ-साथ हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) से मंसूब गुंबद, जिसे बैत अल-अहज़ान कहा जाता था, 1220 हिजरी में पहले वहाबी हमले में नष्ट हो गए या गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गए।[२७]

इस घटना के बाद, तुर्क सरकार ने मदीना पर पुन: क़ब्जा करने और उसे वहाबियों से वापस लेने के लिए एक सेना भेजी और ज़िल-हिज्जा 1227 हिजरी में, उसने मदीना की सरकार को वापस ले लिया। तदनुसार, महमूद द्वितीय, 30वें तुर्क सुल्तान ने 1234 हिजरी में मक़बरों के पुनर्निर्माण का आदेश दिया।[२८]

वहाबियों ने एक बार फिर सफ़र 1344 हिजरी में मदीना पर हमला किया।[२९] इस हमले में पैगंबर (स) के दरगाह और धार्मिक स्थलों को नुक़सान पहुंचाया गया। [३०] सात महीने बाद, रमज़ान 1344 हिजरी में, शेख़ अब्दुल्लाह बिन बोलैहद (1284-1359 हिजरी), जो 1343 से 1345 हिजरी तक, मक्का के न्यायाधीश थे, [३१] उन्होंने मदीना में प्रवेश किया और मदीना के मुफ्तियों से फ़तवा लेकर क़ब्रों को नष्ट करने का आदेश दिया।[३२] 1344 हिजरी में 8 शव्वाल के दिन, बक़ी क़ब्रिस्तान के सभी ऐतिहासिक स्मारकों को, बक़ी के मक़बरों सहित, मदीना के मुफ्तियों के फ़तवे पर भरोसा करते हुए, सऊदी न्यायाधीश शेख़ अब्दुल्लाह बोलीहेद के फ़तवे द्वारा नष्ट कर दिया गया था।[३३] मदीना के मुफ्तियों में से 15 [३४] ने उल्लिखित फ़तवे में सर्वसम्मति से क़ब्रों के निर्माण को निषिद्ध मानते हुए इसे नष्ट करने का आदेश दिया गया। [३५] हालांकि, वहाबी मान्यताओं के विपरीत, सुन्नियों और शियों की प्रसिद्द मान्यता के अनुसार, क़ब्रों का निर्माण इस्लामी मान्यताओं के साथ संघर्ष (टकराव) नहीं करता है, और बल्कि धार्मिक बुजुर्गों और मोमिनों की क़ब्रों पर जाने की सिफारिश की गई है। (मुसतहब कहा गया है)[३६] उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार, विनाश के बाद, सऊदी अरब के राजा मलिक अब्दुल अजीज़ ने अब्दुल्लाह बिन बोलेहद को संबोधित 12 शव्वाल 1344 हिजरी के एक पत्र में, इस संबंध में उनके कार्यों की प्रशंसा की है।[३७]

प्रतिक्रियाएँ और परिणाम

विद्वानों की प्रतिक्रिया और उनकी रचनाएं

सय्यद मुहम्मद बहबहानी द्वारा अहमद शाह काजार को उलमा को ओर से लिखे गये पत्र का एक अंश और बक़ी में इमामों की कब्रों को नष्ट करने की वहाबियों की कार्रवाई का विरोध: "देश की जनता अपने प्रिय बादशाह से जो सबसे बड़ी अपेक्षा रखती है वह है धार्मिक कर्मकांडों के आगे झुकना और इस्लामी कुरीतियों को दूर कर धार्मिक पवित्रता को स्वीकार करना ... खून से लथपथ और घायल दिल के साथ, हम शाही उपायों के परिणाम और पवित्र स्थानों के पुननिर्माण और पहुचने वाली क्षति की भरपाई की प्रतीक्षा कर रहे हैं।"

मक्का और मदीना में बक़ी और मुसलमानों के अन्य पवित्र स्थानों का विनाश, और विशेष रूप से बक़ीअ के विनाश पर, हौज़ा इल्मिया नजफ़ और क़ुम के बुज़ुर्गों सय्यद अबुल हसन इसफ़हानी और शेख़ अब्दुल करीम हायरी की प्रतिक्रिया व्यक्त की, जिसके परिणाम स्वरुप हौज़ा की कक्षाओं और बाज़ार वर्गों के बंद का अहवान किया गया। [३८] शेख़ मोहम्मद ख़ालेसी, और सैय्यद हसन मुदार्रिस ने भी बक़ीअ के विनाश पर प्रतिक्रिया व्यक्त की और पवित्र स्थानों की क़ब्रों को नष्ट करने के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ़ निर्णायक कार्रवाई की मांग की।[३९] सय्यद हुसैन तबताबाई क़ुम्मी, जिन्हे आयतुल्लाह क़ुम्मी के नाम से जाना जाता है, जो शिया मरजए तक़लीद में से एक थे, उन्होंने भी कब्रों के विनाश के वर्षों बाद तक, बक़ीअ में इमामों की क़ब्रों के पुननिर्माण की मांग की, और ईरान के विदेश मामलों के मंत्रालय ने उनके अनुरोध पर और उनकी मांगों को पूरा करने के लिये सऊदी सरकार के साथ बातचीत की।[४०]

मुहम्मद हुसैन काशिफ़ अल-ग़ेता ने वहाबी न्यायाधीश अब्दुल्लाह बिन बोलैहेद को संबोधित एक पत्र में एकेश्वरवाद (तौहीद) में शिया विश्वास के स्तर को व्यक्त करते हुए उन्हें एक वैज्ञानिक चर्चा के लिए बुलाया और उनके प्रतिक्रिया न देने को तर्क की कमजोरी मानते है।[४१]

सय्यद मोहसिन अमीन ने इस्लामिक पवित्र स्थानों के विनाश के बाद हेजाज़ (सऊदी अरब) की यात्रा की और वहाबीवाद, उसके इतिहास और उनके कार्यों की व्याख्या करने के लिए कश्फ़ुल-इरतियाब नामक पुस्तक लिखी।[४२] उक्त पुस्तक में वहाबी मान्यताओं और उनके विश्वासों का खंडन करने वाली सामग्री का बयान भी शामिल है। वहाबी आलोचना के इतिहास के शीर्षक के तहत इसका फारसी में अनुवाद किया गया है।[४३] मोहम्मद जवाद बलाग़ी ने अपने ग्रंथ रद्द अल-फ़तवा बेहदम क़ुबूर अल-आइम्मा फ़ी अल-बकी में, पवित्र स्थानों के विनाश के बारे में वहाबियत के मूल सिद्धांतों की आलोचना की।[४४] और दावा अल-हुदा अल-वरा फ़िल-अफ़आफ़ वल-फ़तवा नामक एक अन्य पुस्तक में धन्य क़ब्रों को नष्ट करने के फ़तवे पर प्रतिक्रिया व्यक्त की। [४५] इसी तरह से, बहुत से कवियों ने क़ब्रों के विनाश पर कविता के रूप में अपनी नाराज़गी व्यक्त की है।[४६]

मोहम्मद जवाद बलाग़ी ने अपनी पुस्तक अल रद्द अल वहाबिया में, इस्लाम के पैगंबर (स), इमाम अली (अ), इमाम सादिक़ (अ) और ... की हदीसों पर भरोसा करते हुए, और इसी तरह से इस्लाम की शुरुआत से ही मुसलमानों के बीच की आम परंपरा (सुन्नत) पर भरोसा करते हुए वहाबी मान्यताओं का खंडन किया और इस पर चर्चा करते हुए और उनके द्वारा उद्धृत हदीसों को उनके उद्देश्य के लिए अप्रासंगिक माना है; क्योंकि, बलाग़ी के अनुसार, वहाबियों द्वारा उद्धृत हदीसों में, क़ब्रों पर दीवारों जैसी इमारतों का निर्माण करने की मनाही है, न कि क़ब्रों को ढकने वाली इमारतों की।[४७]

ऐसा कहा जाता है कि वहाबी पहला समूह था जिसने अपने धार्मिक विचारों के आधार पर धार्मिक नेताओं की दरगाहों को नष्ट कर दिया। हालाँकि, कुछ मामलों में, वहाबियों के अलावा अन्य लोगों ने, बक़ी तीर्थ के ख़जाने में खलीफाओं की निंदा करने वाली पुस्तकों के अस्तित्व पर भरोसा करते हुए, इस क़ब्रिस्तान की कब्रों को नष्ट करने की कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हुए।[४८]

कई शिया न्यायविदों ने बक़ी की बारगाहों के पुनर्निर्माण की आवश्यकता के बारे में एक फ़तवा जारी किया है;[४९] उनमें से, मुहम्मद फ़ाज़िल लंकरानी, ​​नासिर मकरिम शिराज़ी, और लुतफ़ुल्लाह साफ़ी गुलपयेगानी, बक़ी में इमामों की क़ब्रों के पुनर्निर्माण करने के प्रयास को अनिवार्य (वाजिब) या वाजिबे केफ़ाई और सय्यद अली सीस्तानी ने इसे जायज़ मानते हैं।[५०]

जनता और सरकार द्वारा उठाये गये क़दम

बक़ी के विनाश के बाद, पूर्व सोवियत संघ के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले मुसलमानों के साथ-साथ तुर्की, अफ़गानिस्तान, चीन और मंगोलिया के मुसलमानों ने मक्का और मदीना में पवित्र स्थानों के संरक्षण और सुरक्षा के लिए संदेश भेजा।[५१]

1304 शम्सी में, ईरान की सरकार ने एक बयान जारी किया और शनिवार 16 सफ़र 1344 हिजरी को सार्वजनिक शोक के रूप में घोषित किया[५२] और इसी प्रकार से, तेहरान में लोगों ने शोक समारोह आयोजित किये।[५३] कुछ स्रोतों ने तेहरान के सरकारी गेट (दरवाज़ ए दौलत) के आसपास हजारों लोगों के सामाजिक जमावड़े की सूचना दी है, जो वहाबी द्वारा मदीना के पवित्र स्थानों के अपमान के विरोध में आयोजित किया गया था।[५४]

ईरानी सरकार ने एक अन्य क़दम उठाते हुए, 11 इसफ़ंद, 1304 को, तीर्थयात्रियों की सुरक्षा के लिए चिंता के आधार पर, हेजाज़ की यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया।[५५] 1 तीर, 1305 को ईरानी सरकार द्वारा जारी एक अन्य आधिकारिक बयान में, बक़ी में धार्मिक बुजुर्गों की क़ब्रों के अपमान को मोमिनीन के दुःख का कारण माना गया था, और सऊदी सरकार के गैर-अनुपालन को याद करते हुए मुसलमानों के विश्वासों (अक़ायद) के प्रति अनादर को ना रोकने के कारण, हेजाज़ की आम सभा में भाग लेने के लिए इब्न सऊद के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया[५६] और इस तरह ईरान सरकार ने सऊदी अरब सरकार को मान्यता देने को स्वीकार नहीं किया। [५७] हालांकि सऊदी अरब की सरकार ने 1307 शम्सी में ईरान सहित इस्लामिक देशों को एक पत्र भेजकर तीर्थयात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदारी स्वीकार की।[५८] ख़ुरदाद 1308 में, ईरान और सऊदी अरब की सरकार के बीच संबंध शुरू हुए[५९] और परिणामस्वरूप हज पर आधिकारिक प्रतिबंध 4 साल बाद हटा लिया गया। [६०]

संबंधित लेख

फ़ुटनोट

  1. जाफ़रियान, आसारे इस्लामी मक्का एंड मदीना, 2013, पृष्ठ 322।
  2. जाफ़रियान, आसारे इस्लामी मक्का एंड मदीना, 2013, पृष्ठ 322।
  3. जाफ़रियान, आसारे इस्लामी मक्का एंड मदीना, 2013, पृष्ठ 328।
  4. जाफ़रियान, आसारे इस्लामी मक्का एंड मदीना, 2013, पृष्ठ 322।
  5. जाफ़रियान, आसारे इस्लामी मक्का एंड मदीना, 2013, पृष्ठ 330।
  6. होसाम अल-सल्तनह, दलिल अल-अनाम, 1374, पृष्ठ 152।
  7. जाफ़रियन, पंजाह सफ़रनामा ए हज काजारी, 2009, खंड 3, पृष्ठ 196।
  8. होसाम अल-सल्तनह, दलिल अल-अनाम, 1374, पृष्ठ 152।
  9. अयाज़ खान कशकाई, सफ़रनामा ए हाज अयाज़ खान कशकाई, 2009, पृष्ठ 455।
  10. अयाज़ खान कशकाई, सफ़रनामा ए हाज अयाज़ खान कशकाई, 2009, पृष्ठ 455।
  11. काज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पृष्ठ 41।
  12. काज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पेज 95-96.
  13. काज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पेज 95-96.
  14. जाफ़रियान, "क्या हुआ कि वहाबी वर्चस्व के बाद, बाकी के इमामों की कब्रों का चेहरा बरकरार रहा?", खबर ऑनलाइन साइट।
  15. देखें: काज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पेज 158-95।
  16. काज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पेज 153-154.
  17. देखें: काज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पेज 63, 65, 133।
  18. काज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पेज 167-168.
  19. काज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पेज 156-158.
  20. काज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पेज 159; इन्हें भी देखें: काज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पेज 158-95।
  21. जाफरियान, आसारे इस्लामी मक्का एंड मदीना, 2013, पृष्ठ 332।
  22. जाफ़रियान, सफ़ा कारवां के साथ, 2003, पेज 135-137.
  23. जाफरियान, आसारे इस्लामी मक्का एंड मदीना, 2013, पृष्ठ 333।
  24. जाफरियान, आसारे इस्लामी मक्का एंड मदीना, 2013, पृष्ठ 332।
  25. जबरती, अजायबुल आसार, दार अल-जील, खंड 3, पृष्ठ 91।
  26. ग़ालिब, मिन अख़बार अल-हिजाज़ वल-नज्द, 1395 हिजरी, पृष्ठ 104, माजरी, अल-बक़ी किस्सा अल-तदमीर, 1411 हिजरी, पृष्ठ 84; जबरती, अजायबुल आसार, दार अल-जील, खंड 3, पृष्ठ 91।
  27. जबरती, अजायबुल आसार, दार अल-जील, खंड 3, पृष्ठ 91।
  28. जाफ़रियन, पंजाह सफ़रनामा ए हज काजारी, 2009, खंड 3, पृष्ठ 196।
  29. माजरी, अल-बक़ी क़िस्सा अल-तदमीर, 1411 हिजरी, पेज 113-139; अमीनी, बकी अल-ग़रक़द, 2006, पृष्ठ 49।
  30. माजरी, अल-बक़ी क़िस्सा अल-तदमीर, 1411 हिजरी, पेज 113-139; अमीनी, बकी अल-ग़रक़द, 2006, पृष्ठ 49।
  31. ज़रकली, अल आलाम, 2002, खंड 4, पृष्ठ 91
  32. अल-बलाग़ी, अल-रद्द अला अल-वहाबियह, 1419 हिजरी, पेज. 41-39; माजरी, अल-बक़ी क़िस्सा अल-तदमीर, 1411 हिजरी, पेज 113-139; अमीनी, बक़ी अल-ग़रक़द, 2006, पृष्ठ 49।
  33. माजरी, अल-बक़ी क़िस्सा अल-तदमीर, 1411 हिजरी, पेज 113-139; अमीनी, बक़ी अल-ग़रक़द, 2006, पृष्ठ 49; नजमी, इमामों के श्राइन का इतिहास, 2006, पी. 51।
  34. अल-बलाग़ी, अल-रद्द अला अल-वहाबियह, 1419 हिजरी, पृष्ठ 45।
  35. अल-बलाग़ी, अल-रद्द अला अल-वहाबियह, 1419 हिजरी, पृष्ठ 40।
  36. मदनी, अल-तारीख अल-अमीन, 1418 हिजरी, पेज 431-450; अमीनी, बक़ी अल-ग़रक़द, 2006, पृष्ठ 12।
  37. अल-असाफ़, "अब्दुल्ला इब्न सुलेमान अल-बलीहाद.. अल-काज़ी वल मुसतशार फ़ी ज़मन अल तासीस"।
  38. अमीनी, बक़ी अल-ग़रक़द, 2006, पृष्ठ 53; क़ाज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पृष्ठ 49।
  39. क़ाज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पृष्ठ 54।
  40. क़ाज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पेज 148 और 151.
  41. मोख्तारी, "अल्लामा शेख मोहम्मद हुसैन काशिफ अल-गीता के तीन दस्तावेज़", पृष्ठ 217।
  42. मुहम्मद अली, मोअजम अल मोवल्लेफ़ात अल इस्लामिया फ़िल-रद्द अलल फ़िरक़ा अल-वहबियह, 1430 हिजरी, पेज 375-376।
  43. मुहम्मद अली, मोअजम अल मोवल्लेफ़ात अल इस्लामिया फ़िल-रद्द अलल फ़िरक़ा अल-वहबियह, 1430 हिजरी, पेज 375-376।
  44. अल-रिफाई, मोजम मा कतब फिल हज, 1427 हिजरी, पृष्ठ 171।
  45. मुहम्मद अली, मोअजम अल मोवल्लेफ़ात अल इस्लामिया फ़िल-रद्द अलल फ़िरक़ा अल-वहबियह, 1430 हिजरी, पेज 480।
  46. मदनी, अल-तारीख अल-अमीन, 1418 हिजरी, पेज 366-368; अमिनी, बकी अल-ग़रक़द, 2006, पेज 341-335।
  47. अल-बलाग़ी, अल-रद्द अली अल-वहाबियह, 1419 हिजरी, पेज 69-72।
  48. जाफेरियान, सफ़विया धर्म के क्षेत्र में..., 1379, खंड 2, पेज 783 और 842।
  49. अमीनी, बक़ी अल-ग़रक़द, 2006, पृष्ठ 55।
  50. क़ाज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पृष्ठ 160।
  51. क़ाज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पेज 55-56; अमिनी, बक़ी अल-ग़रक़द, 2006, पेज 52-53।
  52. मक्की, मुदर्रिसे क़हमरमाने आज़ाद, 1359, खंड 2, पृष्ठ 682; क़ाज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पृष्ठ 49-50.
  53. क़ाज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पृष्ठ 50।
  54. क़ाज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पीपी. 51-50.
  55. क़ाज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पृष्ठ 72।
  56. क़ाज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पेज 73-75.
  57. मोहक़्क़िक़, ईरान और सऊदी अरब के बीच संबंधों के दस्तावेज़, 1379, पृष्ठ 61।
  58. "हज के मुद्दे पर ईरान और सऊदी अरब के बीच संबंधों का ऐतिहासिक अध्ययन", पृष्ठ 18।
  59. क़ाज़ी अस्कर, तख़रीब व बाज़साज़ी ए बक़ी, 2006, पृष्ठ 77।
  60. "हज के मुद्दे पर ईरान और सऊदी अरब के बीच संबंधों का ऐतिहासिक अध्ययन", पृष्ठ 17।


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