अहले क़िबला की तकफ़ीर
- अन्य उपयोगों के लिए (तकफ़ीर (बहुविकल्पी)) देखें।
अहले क़िबला की तकफ़ीर या मुसलमानो की तकफ़ीर (अरबीः تكفير أهل القبلة) का अर्थ है किसी मुसलमान की ओर से दूसरे किसी मुसलमान या समूह की ओर कुफ्र की निसबत देना जिसके परिणाम स्वरूप उनकी हत्या की जाती है अथवा उनकी संपत्ति को ज़ब्त कर लिया जाता है। वहाबीयो ने एकेश्वरवाद (तौहीद), तीर्थयात्रा (ज़ियारत) और तवस्सुल जैसी शिक्षाओं की अपनी विशेष तफ़सीर के कारण अपने विचारो का विरोध करने वाले मुसलमानो विशेष रूप से शियो की तकफ़ीर की है।
अधिकांश इस्लामी विद्वान ज़बान से शहादतैन जारी करने को इस्लाम और कुफ्र की सीमा मानते हैं। और इस्लामी धर्म के अनुयायियों की तकफ़ीर को जायज़ नहीं मानते हैं। हालाँकि, इस्लाम के पूरे इतिहास में कुछ मुसलमानों ने अपने विरोधी धर्मों के अनुयायियों की तकफीर की है। ख़वारिज द्वारा हकमीयत के मामले में इमाम अली (अ) की तकफ़ीर और पहले ख़लीफ़ा (अबू बक्र) के शासनकाल के दौरान अहले-रिद्दा की तकफ़ीर करना अहले क़िबला की तकफ़ीर के पहले उदाहरणों में से है। उसके बाद कमोबेश यही सोच इस्लामी धर्मावलंबियों में पनपी और इसके कारण कई लोग मारे गये। हालांकि तकफीर केवल धर्मों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि कभी-कभी कुछ न्यायविदों ने अपने समुदाय के दार्शनिकों (फलसफ़ीयो) और रहस्यवादियों (ओरफ़ा) की तकफ़ीर की है। इसके अलावा ख़ल्क़े क़ुरआन के फ़ितने में क़ुरआन के ख़लक़ और क़ुरआन के क़दीम होने के नज़रिये वालो ने एक दूसरे की तकफ़ीर की थी और यह दोनो ही सुन्नी थे।
वहाबीवाद के गठन के बाद अहले क़िबला की तकफ़ीर अधिक प्रचलित गई है। इसके अतिरिक्त वहाबी विचारों के प्रभाव में और उनके समर्थन से आईएसआईएस जैसे समूह बनाए गए हैं, जो मुसलमानों विशेषकर शियो की तकफ़ीर करते हैं।
तकफ़ीर के बारे में कई रचनाएँ हैं, जिनमें से अधिकांश इस विचार की आलोचना पर ध्यान केंद्रित करके लिखी गई हैं। इसके अलावा तकफ़ीर के जवाब और तकफ़ीरी समूहो की आलोचना पर सम्मेलन आयोजित किए गए हैं।
महत्व एवं स्थिति
तकफ़ीर एक न्यायशास्त्रीय और विश्वानी (कलामी) मुद्दा है जिसे इस्लाम के इतिहास में हमेशा एक व्यक्ति या मुसलमानों के समूह के प्राण और संपत्ति को जायज़ समझा गया है और उसके परिणाम स्वरूप बहुत से युद्ध हुए हैं और बहुत से लोग मारे गए और बहुत से बेघर हुए।[१] इसके अलावा कुछ इस्लामी धर्मों के अनुयायियों को तकफ़ीर के आरोप के परिणामस्वरूप, उनके कुछ पवित्र स्थानों और इमारतों को भी नष्ट कर दिया गया।[२] हाल की शताब्दियों में, तकफ़ीरी विचारों के प्रसार और इन विचारों के अनुयायियों द्वारा मुसलमानों की तकफ़ीर प्रचलित होने के कारण तकफ़ीर की बहसे अधिक समृद्ध हो गई है और इस संबंध मे बहुत सी रचनाएँ लिखी गई हैं[३] और सम्मेलन आयोजित किए गए हैं।
अवधारणा और प्रकार
तकफ़ीर का अर्थ है किसी मुसलमान को काफ़िर कहना[४] या अहले किबला की ओर कुफ्र के लिए जिम्मेदार ठहराना।[५] हालांकि कुफ्र को फ़िक्ही कुफ्र और एतेक़ादी कुफ्र में विभाजित किया गया है, और उनमें से प्रत्येक को मुस्लिम कहने के कुछ निश्चित परिणाम होते हैं:
- फ़िक़्ही कुफ्र या स्पष्ट अविश्वास का अर्थ है इस्लाम धर्म को छोड़ना। इसलिए जो मुसलमान फ़िक़्ही काफ़िर हो जाता है उसके साथ काफ़िर वाला व्यवहार किया जाता है।
- एतेक़ादी कुफ्र या आंतरिक अविश्वास का अर्थ आस्था से विमुख होना है, इस्लाम से नहीं, इसलिए जो सलमान एतेक़ादी काफिर हो जाता है उसके साथ मुसलमानो की भांति व्यवहार किया जाता है, ना कि काफ़िर की तरह। जैसे पाखंडी जो देखने मे तो मुसलमान है लेकिन ईमान नहीं रखता है।[६] इमाम खुमैनी के अनुसार, शिया स्रोतो में जो रिवायते विरोधियों के कुफ्र के संबंध मे पाई जाती है यदि उनको स्वीकार कर भी लिया जाए तो वो एतेक़ादी कुफ्र से संबंधित है।[७]
अहले क़िबला की तकफ़ीर पर रोक
इस्लामी स्कूलों के न्यायविदों के फतवे के अनुसार, अहले क़िबाल की तकफीर करना जायज़ नहीं है, बल्कि बिना कारण किसी मुसलमान पर कुफ़्र का आरोप लगाना भी सज़ा देने का आदेश है।[८] न्यायविदों के अनुसार काफ़िर और मुसलमान का अंतर ज़बान पर शहादतैन जारी करना और पुनरूत्थान मे विश्वास है।[९] इसलिए कुछ मामलों में न्यायविदों ने कुछ संप्रदायों की मान्यताओं के गलत होने के बावजूद उनकी तकफ़ीर करने से परहेज किया है।[१०]
तकफ़ीर की पृष्ठभूमि
मुसलमानों के बीच अहले क़िबला की तकफ़ीर करना पहली चंद्र शताब्दी मे पैगंबर (स) के स्वर्गवास के बाद ही शुरू हो गई थी। अबू बक्र की खिलाफत के दौरान, मुसलमानों का एक समूह खिलाफत के विरोधियों को काफिर और धर्मत्यागी कहता था और उनसे युद्ध करते थे। इन युद्धों को रिद्दा के युद्धों के रूप में जाना जाता है।[११] इस्लामी इतिहास के शोधकर्ता रसूल जाफ़रयान (जन्म 1343 शम्सी) के अनुसार अहले रिद्दा मे मालिक बिन नुवैरा जैसे लोग मुसलमान थे और नमाज़ पढ़ते थे, लेकिन अबू बक्र की ख़िलाफ़त को स्वीकार नहीं करते थे और पैगंबर (स) के अहले-बैत का शासन चाहते थे।[१२] इसी कारण उन्होंने तत्कालीन ख़लीफ़ा को ज़कात देने से इनकार कर दिया और इस कारण से उन्हें धर्मत्यागी और काफिर कहा गया और मार दिया गया।[१३]
इमाम अली (अ) के शासनकाल के दौरान ख़वारिज हकमयत स्वीकार करने के कारण इमाम अली (अ) की तकफ़ीर करते थे।[१४] इसी आधार पर मुआविया बिन अबी सुफ़यान से युद्ध जारी रखने मे आप का साथ नही दिया।[१५] और आपके विरूद्ध नहरवान की लड़ाई लड़ी।[१६]
इसी तरह शिया मरज़ा ए तक़लीद जाफ़र सुब्हानी (जन्म 1308 शम्सी) ने अपनी पुस्तक, "बहूस फ़िल मेलल वन नेहल" में वर्णन किया है कि ख़ल्क़े क़ुरआन के फ़ितने मे भी ख़ल्क़े क़ुरआन को स्वीकारने वाले और क़ुरआन को कदीम स्वीकारने वालो ने एक दूसरे की तकफ़ीर की। जबकि दोनो समूह सुन्नी संप्रदाय से संबंध रखते थे।[१७] इसके बाद से हमेशा मुसलमानों के कुछ समूहो द्वारा कुछ व्यक्ति या समूह की तकफ़ीर होती रही है। हाल की कुछ शताब्दीयो मे सलफ़ी और वहाबी विचार के प्रसार के कारण उनके अनुयायीयो की ओर से दूसरे मुसलमानो विशेषकर शियो की तकफ़ीर हुई है।
उद्देश्य
“ हे अब्दुल वहाब के बेटे! भगवान के लिए, ईश्वर के लिए मैं तुमको मुसलमानों के बारे में बात करने से परहेज करने की सलाह देता हूं... और तुम सार्वजिनक रूप से मुसलमानों की तकफ़ीर करने का अधिकार नहीं रखते; क्योंकि तुम इस उम्मत के एक अंश हो। और मुस्लिम समुदाय को छोड़ने वाले व्यक्ति पर कुफ़्र निस्बत वास्तविकता के करीब है; क्योंकि वह ईमान वालों के मार्ग को छोड़ कर दूसरे मार्ग पर चल पड़ा है।”
मुसलमानों की तकफ़ीर निम्नलिखत विभिन्न उद्देश्यो से की गई है:
- धार्मिक सिद्धांतों की ग़लत फ़हमी और सिद्धांतहीन समझ: ख़वारिज ने आय ए “لَا حُكْمَ إِلَّا لِله (ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह)”(अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के लिए हुक्म नही है) से अपनी विशेष समझ को ध्यान मे रखते हुए सिफ़्फ़ीन की लड़ाई में हकमियत की घटना पर आपत्ति जताई और इमाम अली (अ) की तकफ़ीर की।[१८] इसी प्रकार वहाबीयो ने तौहीद (एकेश्वरवाद), शिर्क (बहुदेववाद), ज़ियारत (तीर्थयात्रा), तबर्रुक (प्रसाद) और तवस्सुल के संबंध मे इस्लामी शिक्षाओं की अपनी विशेष समझ के साथ बहुत से मुसलमानों, विशेषकर शियो की तकफ़ीर करते हैं।[१९] वहाबीवाद के संस्थापक मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब (मृत्यु 1206 हिजरी) दूसरे मुसलमानो विशेषकर शियो की संपत्ति को हलाल और उनकी हत्या को जायज़ समझते है क्योंकि वह ईश्वर तक पहुंचने के लिए वसीले (साधन) की तलाश करते है और अंबिया वा सालेहीन को शफ़ीअ क़रार देते है।[२०]
- अक़ाइद (मान्यताएँ): ख़वारिज उन मुसलमानो की तकफ़ीर करते थे जो बड़े पापो मे लिप्त हो।[२१] वो बड़े पाप मे लिप्त व्यक्ति की तकफ़ीर के लिए "وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللَّـهُ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الْكَافِرُونَ वमल लम याहकुम बेमा अन्ज़लल लाहो फ़ऊलाएका होमुल काफ़ेरून"[२२] से इस्तिदलाल करते थे।[२३] लेकिन मुसलमानों की दृष्टि मे बड़ा पाप करना आस्था (ईमान) से विमुख (खारिज) होना है, इस्लाम से खारिज होना नहीं है, परिणामस्वरूप वह फ़ासिक (पाखंडी) है नाकि काफ़िर।[२४] इसी प्रकार ख़ल्क़े कुरआन के फितना में अबुल हसन अश्अरी[२५] और अहमद इब्ने हंबल[२६] ने ख़ल्क़े क़ुरआन के स्वीकार करने वालो को और मोतज़ेला तथा क़ुरआन के मखलूक़ ना होने (क़दीम) वाले उनकी तकफ़ीर करते थे।[२७] शिया हदीसों मे ग़ुलात (जो लोग मासूम इमामों (अ) के संबंध मे गुलुव या बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते है) को और तफ़वीज़ स्वीकारने वालो (मुफ़व्वेज़ा) को काफ़िर कहा गया है।[२८]
- मज़हबी तअस्सुब (धार्मिक पूर्वाग्रह): ऐतिहासिक रिपोर्टों के अनुसार इस्लामी धर्मों के कुछ अनुयायी एक-दूसरे की तकफीर करते थे। उदाहरण के लिए, चंद्र कैलेंडर की 8वीं शताब्दी में, सुन्नी धर्मों के अनुयायी इब्ने तैमीया के व्यवहार के कारण हंबलीयो की तकफ़ीर करते थे, और दूसरी ओर इब्ने हातिम हंबली ने हंबलीयो के अलावा सभी मुसलमानों की तकफ़ीर करते थे।[२९] इसी प्रकार यह तकफ़ीर सुन्नीयो की ओर से शियो के लिए और शियो की ओर से सुन्नी के लिए भी की जाती थी। वहाबी मुफ़्ती इब्ने जिबरीन शियो को तहरीफ़े क़ुरआन, अधिकांश सहाबा को काफ़िर मानने, सुन्नीयो को नजिस और काफ़िर मानने तथा अली (अ) और अली की संतान के बारे मे ग़ुलुव करने के कारण काफ़िर सझते थे।[३०] हालांकि शिया इस तरह की मान्यता (अक़ीदा) नहीं रखते हैं। और अधिकांश शिया और सुन्नी न्यायविदों का मानना है कि अन्य धर्मों के अनुयायी काफिर नहीं हैं[३१] और यदि कुछ किताबो मे ऐसी बात आई है तो उसकी व्याख्या कुफ्रे एतेक़ादी से होगी।[३२]
- इरफ़ानी और फ़लसफ़ी (रहस्यमय और दार्शनिक) विषय: कुछ मुस्लिम विद्वानों ने दार्शनिकों और रहस्यवादियों की तखफीर की है। जैसे कि ग़ज़ाली ने अपनी पुस्तक तहाफ़्त अल-फ़लासेफ़ा मे दार्शनिकों की तकफ़ीर की है।[३३] इसके अलावा, सय्यद मुहम्मद बाक़िर ख़ुनसारी (मृत्यु 1313 हिजरी) के अनुसार न्यायविदों के एक समूह ने मुल्ला सदरा के कुछ मतालिब जोकि जाहिरी तौर पर शरीयत के अनुकूल नही थे, के कारण उनकी तकफ़ीर कर दी थी।[३४]
इसी तरह अपने अस्तित्व के लिए सरकारों का देशद्रोह और इस्लाम के दुश्मनों की साजिशे तकफ़ीर के विचार के प्रसार के अन्य कारण माना गया है।[३५]
परिणाम
अहले-क़िबला की तकफ़ीर के कुछ निम्नलिखित परिणामों का उल्लेख किया गया है:
- मुसलमानों की हत्या: इस्लाम के इतिहास में, तकफ़ीर के अपराध में हमेशा बहुत से मुसलमानों को मार डाला गया।
- ऐतिहासिक स्मारकों और धार्मिक इमारतों का विनाश: वहाबीयो ने मुसलमानो के पवित्र और ऐतिहासिक स्थलो जैसे इमामो के हरम को शिर्क का बहाना देकर नष्ट कर दिया।
- दुनिया में इस्लाम का हिंसक चेहरा दिखाना: इस्लाम के नाम पर तकफ़ीरी समूहों के प्रदर्शन ने इस्लाम के विरोधियों को इस धर्म को हिंसक धर्म कहने पर मजबूर कर दिया।[३६]
इसके अलावा, इस्लामी सरकारों के ख़िलाफ़ सशस्त्र विद्रोह और उन्हें कमज़ोर करना और तकफ़ीरीयो की कैद मे आने वाली मुसलमान महिलाओ को हलाल समझना तकफ़ीर के अन्य परिणामो मे से एक है।[३७]
तकफ़ीरी समूहों का गठन
पिछली शताब्दी मे वहाबीवाद और आईएसआईएस जैसे दूसरे समूह जो वहाबीवाद के समर्थन और उससे प्रभावित होकर बने थे उन्होने मुसलमानों की तकफ़ीर की है और उनके नरसंहार के अलावा उनकी संपत्ति को ज़ब्त करने का कदम उठाया है।[३८] यह लोग उन आयतो को मुसलमानो पर लागू करते है जो वास्त मे बहुदेववादियों और काफिरों के बारे में उतरी है।[३९] जबकि मुस्लिम विद्वानों ने इस कार्य का विरोध करते है और कहते है केवल धर्म का आवश्यक खंडन अर्थात तौहीद और नबूवत का खंडन करना ही किसी मुस्लमान के कुफ्र का कारण बनता है।[४०] वो भी ऐसा खंडन तोकि जानबूझ कर किया जाए और जिसकी कोई तावील ना हो सकती हो।[४१]
अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन
2014 में (इस्लामी विद्वानो की दृष्टि से चरमपंथियों और तकफ़ीरी धाराओ की अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन) के शीषर्क अंतर्गत मरजा ए तक़लीद आयतुल्लाह मकारिम शिराज़ी के नेतृत्व में क़ुम में एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में 80 देशों के शिया और सुन्नी विद्वान उपस्थित थे।[४२] इस सम्मेलन में भेजे गए 830 लेख "कुंगर ए जहानी जिरयानहाए इफ़राती वा तकफ़ीरी" शीर्षक के तहत 10 खंडों में प्रकाशित किए गए हैं। साथ ही इसका स्थायी सचिवालय ने विभिन्न भाषाओं में 40 पुस्तकें प्रकाशित की हैं और फ़ारसी और अरबी भाषाओं में इस्लामिक उम्माह पत्रिका लॉन्च की है।[४३]
मोनोग्राफ़ी
तकफ़ीर के संबंध मे इसके जवाब के रूप मे बहुत सी पुस्तके लिखी गई है। किताब (किताब शनासी तकफीर) मे अरबी और फ़ारसी के 528 रचनाओ को परिचित कराया गया है उनमे से 235 किताबे है और 240 लेख तथा 49 थीसिस है और उनमे से चार किताबे विशेष अंक के रूप मे है।[४४]
- दार अल-तक़रीब इराक़ के संस्थापक शेख फ़ुआद काज़िम मिक़दादी की पुस्तक "आरा ए उलमा ए मुस्लेमीन वा फ़तावाहुम फ़ी तहरीमे तकफ़ीरे इत्तेबाइल मतज़ाहिब अल इस्लामीया" है। इस पुस्तक में इस्लामी धर्मों के अनुयायीयो की तकफ़ीर के निषेध को लेकर शिया और सुन्नी विद्वानों के फतवे बयान किए गए है। तेहरान के मजमा अल-सक़लैन अल-इल्मी ने इस पुस्तक को 1428 हिजरी में प्रकाशित किया।[४५]
- हुसैन अहमद अल-खशिन द्वारा "अल-इस्लाम वल उनुफ़ क़राअते फ़िज़ ज़ाहिरतित तकफ़ीर" इस किताब मे इस्लाम के दृष्टिकोण से तकफीर और हिंसा के मुद्दे का विश्लेषण किया है और तकफ़ीर के सिद्धांतों और मानदंडों, इसकी उत्पत्ति और प्रकारों के साथ-साथ तकफ़ीरीयो की विशेषताओ को बयान किया गया है। इस किताब का 244 पर आधारित "इस्लाम व ख़ुशूनतः निगाही नो बे पदीदे ए तकफीर" शीर्षक से 2011 में फारसी भाषा मे अनुवाद हुआ है।[४६]
- बिंदु सूची का आयटम
संबंधित लेख
फ़ुटनोट
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स्रोत
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