सूर ए वाक़ेआ

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(सूरए वाक़ेआ से अनुप्रेषित)
सूर ए वाक़ेआ
सूर ए वाक़ेआ
सूरह की संख्या56
भाग27
मक्की / मदनीमक्की
नाज़िल होने का क्रम44
आयात की संख्या96
शब्दो की संख्या370
अक्षरों की संख्या1756


सूर ए वाक़ेआ (अरबी: سورة الواقعة) छप्पनवाँ सूरह और क़ुरआन के मक्की सूरों में से एक, जिसे सत्ताईसवें अध्याय में रखा गया है। "वाक़ेआ" क़यामत के नामों में से एक है और इसका उल्लेख इस सूरह की पहली आयत में किया गया है। सूर ए वाक़ेआ, क़यामत के दिन और उसकी घटनाओं के बारे में बात करता है और क़यामत के दिन के लोगों को तीन समूहों में वर्गीकृत करता है: असहाबे यमीन, असहाबे शेमाल, और साबेक़ून, और प्रत्येक समूह की स्थिति और सज़ा (अज़ाब) और इनाम (सवाब) के बारे में बात करता है। व्याख्याओं में कहा गया है कि तीसरे समूह (साबेक़ून) का मतलब इमाम अली (अ) से है जिन्होंने पैग़म्बर (स) पर विश्वास करने में दूसरों को पीछे छोड़ दिया। इस सूरह को पढ़ने के लिए कई गुणों का उल्लेख किया गया है, जिसमें यह भी शामिल है कि यदि कोई सूर ए वाक़ेआ पढ़ता है, तो लिखा जाएगा कि वह लापरवाहों में से नहीं है।

परिचय

  • नामकरण

इस सूरह को वाक़ेआ कहा जाता है क्योंकि वाक़ेआ शब्द, जो क़यामत के दिन के नामों में से एक है, इस सूरह की पहली आयत में वर्णित हुआ है।[१] उस्मान बिन अफ्फ़ान, अब्दुल्लाह बिन मसऊद की अयादत के लिए उनके पास गया, जिस बीमारी के कारण उनकी मृत्यु हुई थी। उस्मान ने पूछा: आप किस बात से परेशान हैं? उन्होंने कहा: अपने पापों के बारे में, उसने कहा: तुम क्या चाहते हो? उन्होंने कहाः मेरे रब की दया! उसने कहा: यदि आप सहमत हैं, तो क्या हम आपके लिए एक डॉक्टर लाएँ? उन्होंने कहा: डॉक्टर ने मेरी बीमारी का इलाज किया है। उसने कहा: यदि आप चाहें, तो मैं बैतुल माल से आपके लिए उपहार लाने का आदेश दूं। उन्होंने कहा: तुमने उस दिन मुझे नहीं दिया, जब मुझे इसकी आवश्यकता थी, और आज जब मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है तब यह मुझे दे रहे हो?! उसने कहा: कोई समस्या नहीं है यह आप अपनी बेटियों के लिए ले लें। उन्होंने कहा: उन्हें भी इसकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मैंने उन्हें सूर ए वाक़ेआ का पाठ करने का आदेश दिया है, मैंने ईश्वर के पैग़म्बर (स) को यह कहते हुए सुना है: مَن قرأ سورةَ الواقعةِ كلَّ ليلةٍ لم تُصِبْهُ فاقةٌ أبدًا (मन क़रआ सूरत अल वाक़ेआ कुल्ला लैलतिन लम तोसिब्हो फ़ाक़तुन अबदन) जो कोई भी हर रात सूर ए वाक़ेआ पढ़ता है वह कभी ग़रीब नहीं होगा। तफ़सीर नमूना ने इस रिपोर्ट को तफ़सीर मजमा उल बयान से वर्णित करते हुए रूह उल मआनी से हदीस वर्णित की है जिसके अनुसार इस सूरह का एक नाम ग़ेना «غِنی» है।[२]

  • नाज़िल होने का स्थान और क्रम

सूर ए वाक़ेआ मक्की सूरों में से एक है और नाज़िल होने के क्रम में यह 44वां सूरह है जो पैग़म्बर (स) पर नाज़िल हुआ था। यह सूरह क़ुरआन की वर्तमान व्यवस्था में छप्पनवाँ सूरह है[३] और यह कुरआन के 27वें अध्याय में है।

  • आयतों एवं शब्दों की संख्या

सूर ए वाक़ेआ में 96 आयतें, 370 शब्द और 1756 अक्षर हैं, और मात्रा के संदर्भ में, यह मुफ़स्सलात सूरों में से एक है और लगभग आधा हिज़्ब है।[४]

सामग्री

सूर ए वाक़ेआ क़यामत की घटना का वर्णन करता है जिसमें लोगों को पुनर्जीवित किया जाएगा। सबसे पहले, वह इसकी कुछ घटनाओं का उल्लेख करता है, जैसे कि पृथ्वी की स्थिति में बदलाव, इसमें भूकंपों की घटना और पहाड़ों का विघटन, और फिर वह लोगों को पूर्व के तीन समूहों में विभाजित करता है, साबेक़ून, असहाबे यमीन और असहाबे शेमाल, और प्रत्येक समूह के अंत की व्याख्या करते हैं। उसके बाद, यह असहाबे शेमाल के खिलाफ़ एक तर्क देता है, जो ईश्वर की प्रभुता, पुनरुत्थान और क़ुरआन से इनकार करते हैं, और अंत में, हालते एह्तेज़ार और मृत्यु के क़रीब होने की याद दिलाता है, और फिर, यह लोगों को तीन समूहों में विभाजित करने की याद दिलाता है: करीबी लोग (साबेक़ून), असहाबे यमीन, और झूठे (असहाबे शेमाल)।[५]

साबेक़ून का अर्थ

मुख्य लेख: साबेक़ून

सूर ए वाक़ेआ की आयत 7 से 10 इस सूरह की प्रसिद्ध आयतों में से हैं जो क़यामत के दिन लोगों को तीन समूहों में विभाजित करती हैं। 10वीं आयत तीसरे समूह का नाम दो बार दोहराती है: "अल साबेक़ून अल साबेक़ून" «السابقون السابقون»। इस आयत के बारे में टिप्पणीकारों के बीच कई चर्चाएँ हुई हैं।[६] सय्यद मुहम्मद हुसैन तबातबाई ने क़ुरआन की अन्य आयतों से निष्कर्ष निकाला है कि पहले साबेक़ून «سابقون» का अर्थ वे हैं जो अच्छे कार्यों में आगे निकल जाते हैं, और दूसरे साबेक़ून «سابقون» का अर्थ वह है जो ईश्वर की क्षमा और दया प्राप्ति में आगे निकल जाते हैं; क्योंकि अच्छे कर्म करने में उत्कृष्टता (जल्दी) से लोग परमेश्वर की क्षमा प्राप्त करने में उत्कृष्टता प्राप्त करते हैं।[७] यह भी कहा गया है कि साबेक़ान का अर्थ, इमाम अली (अ) हैं, जिन्होंने ईश्वर के पैग़म्बर (स) पर विश्वास (ईमान) करने में दूसरों को पीछे छोड़ दिया।[८]

प्रसिद्ध आयतें

मुख्य लेख: सूर ए वाक़ेआ की आयत 79
  • إِنَّهُ لَقُرْآنٌ كَرِيمٌ*فِي كِتَابٍ مَكْنُونٍ*لَا يَمَسُّهُ إِلَّا الْمُطَهَّرُونَ

(इन्नहू ला क़ुरआनुन करीमुन, फ़ी किताबिन मक्नूनिन, ला यमस्सहू इल्लल मुतह्हरून) (आयत 77 से 79)

अनुवाद: वह पवित्र कुरआन है, जो एक सुरक्षित पुस्तक में है, और पवित्र लोगों के अलावा कोई भी इसे छू नहीं सकता है।

इन तीन आयतों में क़ुरआन की तीन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार हैं: क़ुरआन की महानता (करीम होने) का अर्थ है ईश्वर की दृष्टि में इसकी उच्च स्थिति और ज्ञान व्यक्त करके लोगों को लाभ पहुंचाना जो इस दुनिया और आख़िरत में खुशी प्रदान करता है, बदलने और परिवर्तन के प्रति प्रतिरक्षा, ग़ैर मुतह्हरून (फ़रिश्तों और मासूमों) के लिए इसकी सच्चाई (हक़ीक़त) की दुर्गमता। दुर उल मंसूर में पैग़म्बर (स) की हदीस में, मुतह्हरून से लेकर मुक़र्रबून की व्याख्या में पैग़म्बर (स) का वर्णन तीसरी विशेषता की पुष्टि करता है।[९]

  • فَلَوْلَا إِذَا بَلَغَتِ الْحُلْقُومَ

(फ़लौला एज़ा बलग़तिल हुल्क़ूम) (आयत 83)

अनुवाद: तो फिर ऐसा क्यों है कि जब प्राण गले तक पहुँच जाता है (तुम्हारे पास उसे वापस लाने की क्षमता नहीं होती)?!

यह आयत उन लोगों को संबोधित है जो क़यामत से इनकार करते हैं और जो क़ुरआन और उन आयतों से इनकार करते हैं जो उन्हें पुनरुत्थान में विश्वास करने के लिए कहती हैं। और आत्मा के गले तक पहुंचने का अर्थ है मृत्यु की निश्चितता और जीवन को बहाल करने और मृत्यु को रोकने में उनकी असमर्थता।[१०] यह आयत वास्तव में आयत 77 से 82 की निरंतरता में है और उन बहुदेववादियों को संबोधित है जो क़ुरआन और उसकी शिक्षाओं को नकारते हैं, इस आयत में और आयत 87 तक वह उनसे कहते हैं कि यदि तुम दावा करते हो कि पुनरुत्थान और परलोक नहीं है तो तुम ठीक कह रहे हो, फिर क्यों जब प्राण मोहतज़र (मरता हुआ व्यक्ति) के गले तक पहुँच जाता है -और हम तुम से अधिक उसके (मोहतज़र) निकट हैं, परन्तु तुम उसे नहीं देखते- तो तुम उसे वापस क्यों नहीं लौटाते हो।

गुण और विशेषताएँ

मुख्य लेख: सूरों के फ़ज़ाइल

सूर ए वाक़ेआ को पढ़ने के बारे में कई गुण और विशेषताओँ का उल्लेख किया गया है: अन्य बातों के अलावा, तफ़सीर मजमा उल बयान में पैग़म्बर (स) से हदीस वर्णित हुई है कि यदि कोई सूर ए वाक़ेआ पढ़ता है, तो यह लिखा जाएगा कि वह लापरवाहों में से नहीं है[११] यह भी है रिवायतों में उल्लेख किया गया है कि अगर कोई सूर ए वाक़ेआ पढ़ता है, वह कभी भी ग़रीबी में नहीं फँसेगा।[१२] इमाम सादिक़ (अ) ने एक हदीस में कहा है कि जो कोई शुक्रवार की रात को सूर ए वाक़ेआ का पाठ करेगा, भगवान उससे प्यार करेगा और उसे सभी लोगों का प्रिय बना देगा। और वह इस दुनिया में कोई ग़रीबी, कठिनाई या मुश्किल नहीं देखता है, और वह इस दुनिया की बुराइयों से सुरक्षित है, और वह क़यामत के दिन अमीर उल मोमिनीन (अ) के साथियों में से एक है।[१३] इमाम सादिक़ (अ) की एक अन्य हदीस के अनुसार, सूर ए वाक़ेआ अमीर उल मोमिनीन (अ) का सूरह है और जो कोई भी इसे पढ़ेगा वह उनके दोस्तों में से एक होगा।[१४] इमाम बाक़िर (अ) से वर्णित कथन में है कि जो कोई भी हर रात सोने से पहले सूर ए वाक़ेआ पढ़ता है, वह क़यामत के दिन ऐसी हालत में ईश्वर से मुलाक़ात करेगा, कि उसका चौदहवीं के चाँद की तरह चमकता होगा।[१५] यह भी मुस्तहब है कि नमाज़े वोतैरा में पढ़ी जाने वाली सौ आयतों के बजाय, एक रक्अत में सूर ए वाक़ेआ और दूसरी रक्अत में सूर ए तौहीद का पाठ करना चाहिए।[१६]

फ़ुटनोट

  1. दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, 1376 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1254।
  2. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, 1374 शम्सी, खंड 23, पृष्ठ 195-196। आलूसी, रूह अल मआनी, खंड 14, पृष्ठ 128।
  3. मारेफ़त, आमोज़िशे उलूमे क़ुरआन, 1371 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 166।
  4. दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, 1376 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1254।
  5. तबातबाई, अल मीज़ान, 1417 हिजरी, खंड 19, पृष्ठ 115।
  6. तबातबाई, अल मीज़ान, 1417 हिजरी, खंड 19, पृष्ठ 117।
  7. तबातबाई, अल मीज़ान, 1417 हिजरी, खंड 19, पृष्ठ 117।
  8. तबातबाई, अल मीज़ान, 1417 हिजरी, खंड 19, पृष्ठ 117; सियूती, दुर उल मंसूर: खंड 6, पृष्ठ 154।
  9. तबातबाई, अल मीज़ान, 1394 हिजरी, खंड 19, पृष्ठ 137।
  10. तबातबाई, अल मीज़ान, 1394 हिजरी, खंड 197, पृष्ठ 138।
  11. तबरसी, मजमा उल बयान, 1372 शम्सी, खंड 9, पृष्ठ 321।
  12. तबरसी, मजमा उल बयान, 1372 शम्सी, खंड 9, पृष्ठ 321।
  13. बहरानी, अल बुरहान फ़ी तफ़सीर अल कुरआन, प्रकाशक: मोअस्सास ए अल बेअसत, खंड 5, पृष्ठ 249।
  14. शेख़ सदूक़, सवाब उल आमाल, 1406 हिजरी, पृष्ठ 117।
  15. अल अरूसी अल होवैज़ी, शेख अब्दुल अली, तफ़सीर नूर अल सक़लैन, खंड 5, पृष्ठ 20।
  16. क़ुमी, मफ़ातीह उल जिनान, तअक़ीबाते नमाज़े ईशा।

स्रोत

  • पवित्र क़ुरआन, मुहम्मद महदी फ़ौलादवंद द्वारा अनुवादित, तेहरान, दार उल कुरआन अल करीम, 1418 हिजरी, 1376 शम्सी।
  • दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, बहाउद्दीन खुर्रमशाही द्वारा प्रयास से, तेहरान, दोस्तन नाहिद, 1377 शम्सी।
  • सियूती, जलालुद्दीन, दुर उल मंसूर, बेरूत, लेबनान।
  • शेख़ सदूक़, मुहम्मद बिन अली, सवाब उल आमाल व एक़ाब उल आमाल, क़ुम, दार अल शरीफ़ रज़ी, 1406 हिजरी।
  • तबातबाई, सय्यद मुहम्मद हुसैन, अल मीज़ान फ़ी तफ़सीर अल कुरआन, क़ुम, इंतेशाराते इस्लामी, 1417 हिजरी।
  • तबरसी, फ़ज़्ल बिन हसन, मजमा उल बयान फ़ी तफ़सीर अल कुरआन, तेहरान, नासिर खोस्रो, 1372 शम्सी।
  • मारेफ़त, मुहम्मद हादी, आमोज़िशे उलूमे क़ुरआन, [अप्रकाशित], मरकज़े चाप व नशर साज़माने तब्लीग़ाते इस्लामी, पहला संस्करण, 1371 शम्सी।