सूर ए क़द्र

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सूर ए क़द्र

सूर ए क़द्र (अरबी: سورة القدر) या इन्ना अंज़लना 30वें पारे का 97वा सूरह है, जो मक्की सूरों में से एक है। इस सूरह का नाम इसकी पहली आयत से लिया गया है, जिसमें क़ुरआन के अवतरण की तरफ़ इशारा किया गया है। सूर ए क़द्र में शबे क़द्र की फज़ीलत और महानता (अज़मत) और शबे क़द्र में फ़रिश्तों के नुज़ूल का वर्णन किया गया है। शिया इस सूरह के मज़ामीन से क़यामत तक मासूम की आवश्यकता और अस्तित्व पर तर्क (इस्तिदलाल) पेश करते हैं।

प्रतिदिन की नमाज़ और कुछ मुसतहब नमाज़ों और शबे क़द्र में एक हज़ार बार पाठ करने की सलाह दी गई है। इस सूरह की महानता (फ़ज़ीलत) के बारे में कहा गया है कि: अनिवार्य (वाजिब) नमाज़ो में प्रिय यह है कि सूर ए हम्द के बाद सूर ए क़द्र या सूर ए तौहीद पाठ किया जाए।

परिचय

नामकरण

इस सूरह का नाम क़द्र इसलिए रखा गया क्योंकि इसकी प्रथम आयत में अल्लाह ने क़ुरआन के शबे क़द्र में नाज़िल होने और इस रात की महत्वता की तरफ़ इशारा किया है। इस सूरह का एक नाम इन्ना अंज़लना भी है क्योंकि यह सूरह «इन्ना अंजलना» शब्दों से शुरू होता है।[१]

नुज़ूल का क्रम और स्थान

सूर ए क़द्र मक्की सूरों में से एक है और पैगंबर (स) पर नुज़ूल के क्रम के अनुसार पच्चीसवाँ सूरह है। वर्तमान क़ुरआन के क्रम के अनुसार इसकी संख्या 97 और यह तीसवें पारे का हिस्सा है।[२] कुछ मुफ़स्सेरीन ने कुछ हदीसों को दलील बनाते हुए यह संभावना दी हैं कि यह सूरह मदीना में नाज़िल हुआ था: जब पैगंबर (स) ने सपने में बनी उमय्या को अपने मिम्बर पर जाते हुए देखा, तो वे बहुत क्रोधित व ग़मगीन हुए, इसलिए सूर ए क़द्र नाज़िल हुआ ताकि पैगंबर (स) को दिलासा दिया जाए।[३]

आयात की संख्या और अन्य विशेषताएं

सूर ए क़द्र में कुल 5 आयतें, 30 शब्द और 114 अक्षर हैं। मात्रा के संदर्भ में, यह मुफ़स्सेलात का मध्य भाग है और इसे छोटे सूरों में माना जाता है।[४]

विषय

सम्पूर्ण रुप से इस सूरह में, शबे क़द्र में क़ुरआन का नुज़ूल, शबे क़द्र (जो एक हज़ार महीनों से बेहतर है) की महानता, फ़रिश्तों का नुज़ूल, आत्मा का आगमन, इंसान का भाग्य लिखा जाना, इस रात के बरकात के बारे मे मतालिब वर्णित हैं।[५] मुफ़स्सेरीन के अनुसार, शबे क़द्र हज़ार रातों से (जिनमें इबादत की जाए) महान है क्योंकि क़ुरआन का उद्देश्य और इसका विशेष ध्यान लोगों को सर्वशक्तिमान ईश्वर के करीब लाना है।

शाने नुज़ूल

इस सूरह के शाने नुज़ूल के सम्बंध में उल्लेख किया गया है कि एक दिन पैगंबर (स) ने अपने साथियों को बनी इस्राईल के एक आदमी की कहानी सुनाई जिसने हजार महीने तक ख़ुदा के मार्ग में युद्ध के कपड़े (अल्लाह के लिए युद्ध किया) पहने हुए था। साथियों ने इस कहानी पर आश्चर्य व्यक्त किया। उसके बाद, अल्लाह ने सूर ए क़द्र को नाज़िल किया और इस रात में इबादत करने को, हज़ार महीने ख़ुदा के मार्ग पर युद्ध करने से, महान घोषित किया।[६]

शबे क़द्र और फ़ातिमा ज़हरा का सम्बंध

कुछ रिवायत में शबे क़द्र से मुराद हज़रत फ़ातिमा (स) को लिया गया है। लैल (रात) का अर्थ फ़ातिमा और क़द्र का अर्थ अल्लाह और लैलतुत क़द्र का अर्थ हज़रत फ़ातिमा (स) बयान किया गया है।[७]

इमाम सादिक़ (अ) एक रिवायत में फ़रमाते हैं : जो भी फ़ातिमा को इस तरह पहचानता है जिस तरह उन्हें पहचानना चाहिए वह निश्चित रूप से शबे क़द्र को समझेगा, और फ़ातिमा को फ़ातिमा इसलिए कहा जाता है क्योंकि लोग उन्हें जानने और पहचानने से असमर्थ हैं।

इमाम ज़मान (अ) के अस्तित्व पर तर्क

शिया की हदीसों किताबों में, पैगंबर (स), इमाम अली (अ) और इमाम बाक़िर (अ) से यह वर्णन किया गया है कि फ़रिश्ते शबे क़द्र में पैगंबर (स) के जानशीनों, जो हज़रत अली (अ) और उनके ग्यारह पुत्रों हैं, उन पर नाज़िल होते हैं। और शियों से यह चाहते हैं कि इमाम ज़माना के अस्तित्व के बारे में बहस करें। इस लिए कि शबे क़द्र में फ़रिश्तों का नुज़ूल और भाग्य का लिखा जाना सिर्फ़ पैगंबर (स) के समय से सम्बंधित नहीं है बल्कि आने वाले वर्षों के लिए है, इसीलिए पैगंबर (स) के बाद फ़रिश्ते उनके उत्तराधिकारीयों पर नाज़िल होते हैं।[८] इसी तर्क के माध्यम से शिया इमाम ज़माना (अ) के अस्तित्व को साबित करते हैं।[९]

न्यायशास्त्रीय बिंदु सूर ए क़द्र से सम्बंधित

एकता क्षितिज (वहदते उफ़ुक़)

कुछ न्यायविदों का मानना है कि दुनिया में एक बिंदु पर अर्धचंद्र का दिखना अन्य सभी क्षेत्रों के लिए पर्याप्त है क्योंकि शबे क़द्र की केवल एक रात है जिसमें सभी मनुष्यों की नियति लिखी जाती है और यह स्पष्ट है कि ऐसा नहीं हो सकता है कि एक जगह शबे क़द्र हो और दूसरी जगह शबे क़द्र न हो इस आधार पर पूरी दुनिया में क़द्र की एक ही रात आती है। हालाँकि, इसके जवाब में कहा गया है कि यह सूरह सिर्फ़ क़द्र की रात में क़ुरआन के नुज़ूल का वर्णन कर रही है, लेकिन यह शबे क़द्र के कई या एक होने के वर्णन में नहीं है।[१०]

वाजिब नमाज़ो में सूर ए क़द्र का पाठ

इमाम सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं कि: अगर कोई अपनी अनिवार्य (वाजिब) नमाज़ में इस सूरह का पाठ करता है तो हातिफ़े गैबी उसे पुकार कर कहता है। ऐ अल्लाह के बन्दे: अल्लाह ने तुम्हारे सारे पाप माँफ़ कर दिये हैं।[११] अन्य रिवायत में वर्णित हुआ है कि इमाम (अ) फ़रमाते हैं: मुझे आश्चर्य होता है कि कोई अपनी नमाज़ में इस सूरह का पाठ ना करे और उसकी नमाज़ क़बूल हो जाए। अन्य फ़िकही रिवायत में पहली रिकअत में इस सूरह का पाठ और दूसरी रिकअत में सूर ए तौहीद के पाठ को मुस्तहब जाना गया है।

मुस्तहब नमाज़ में सूरह क़द्र का पाठ

कुछ मुस्तहब नमाज़ों में इस सूरह के पाठ की सिफारिश की गई है। जैसे कि:

  • हज़रत पैगंबर (स) की नमाज़: यह दो रकअत नमाज़ है, प्रत्येक रकअत में, सूर ए हम्द का एक बार और इन्ना अंज़लना का पंद्रह बार पाठ किया जाता है।[१२]
  • हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ) की नमाज़: यह दो रकअत नमाज़ है, जिसकी पहली रकअत में सूर ए हम्द का एक बार और इन्ना अंज़लना का सौ बार और दूसरी रकअत में सूर ए हम्द का एक बार और सूर ए तौहीद का सौ बार पाठ किया जाता है।[१३]
  • नमाज़े वहशते क़ब्र: यह दो रकअत नमाज़ है। जिसकी पहली रकअत में, सूर ए हम्द और आयतल कुर्सी का, और दूसरी रकअत में सूर ए हम्द के बाद, दस बार इन्ना अंज़लना का पाठ किया जाता है।[१४]
  • महीने के प्रथम दिन की नमाज़: यह नमाज़ दो रकअत है। जिसकी पहली रकअत में, सूर ए हम्द के बाद, तीर बार सूर ए तौहीद का और दूसरी रकअत में, सूर ए हम्द के बाद, तीस बार इन्ना अंज़लना का पाठ किया जाता है।[१५]

सूर ए क़द्र का पाठ

इमाम तक़ी (अ) से रिवायत वर्णित हुई है कि आपने फ़रमाया कि अगर कोई प्रतिदिन 76 मरतबा सूर ए क़द्र का अलग अलग समय में पाठ करता है तो अल्लाह उसके लिए हज़ार फ़रिश्तों का जन्म करता है ताकि यह फ़रिशते 360 हज़ार वर्षों तक उसके लिए पुण्य लिखें और उसके पापों का क्षमा मांगें।[१६]

प्रतिदिन 76 मरतबा पाठ करने का तरीका इस प्रकार है:

  • सात बार सूर्य उदय और नमाज़े सुबह से पहले
  • दस बार नमाज़ सुबह के बाद
  • दस बार ज़ोहर के समय (ज़ोहर की नाफ़िला पढ़ने से पहले)
  • इक्कईस बार ज़ोहर की नाफ़िला पढ़ने के बाद
  • दस बार नमाज़े अस्र के बाद
  • सात बार नमाज़े इशा के बाद
  • ग्यारह बार सोने से पहले

इसी तरह शबे क़द्र और 23वीं रमज़ान में सूर ए क़द्र के हज़ार बार पाठ करने की सिफ़ारिश की गई है। रिवायत में है कि अगर कोई सात मरतबा, मोमिन की क़ब्र के पास सूर ए क़द्र का पाठ करता है तो अल्लाह उस स्थान पर एक फ़रिश्ता भेजता है ताकि उसी स्थान पर वो फ़रिश्ता अल्लाह की इबादत करे, और अल्लाह उस फ़रिश्ते की इबादत का सवाब, इस सूरह के पाठ करने वाले और उस मुर्दे को देगा जब अल्लाह इस मुर्दे को क़ब्र से निकालेगा तो यह फ़रिश्ता उस मुर्दे के साथ होगा और यह मुर्दा बिना किसी भय के स्वर्ग में दाखिल होगा।[१७]

मोनोग्राफ़ी

पुर्ण क़ुरआन की तफ़सीर में, हालाँकि सूर ए क़द्र की तफ़सीर की जाती है, परन्तु कुछ लेखकों ने इसकी तफ़सीर स्थायी या कुछ सूरओं के संदर्भ में लिखी है। कुछ स्थायी मुफ़स्सेरीन के नाम निम्नलिखित हैं:

गुण (फ़ज़ाएल)

रिवायतों में इस सूरह के पाठ करने की बहुत से महानता वर्णित हुई है। कहा गया है कि बेहतरीन सूरह जिसका वाजिब नमाज़ों में सूर ए हम्द के पश्चात पाठ करना चाहिए सूर ए क़द्र और सूर ए तौहीद हैं।[२३]

इमाम सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं कि: अगर कोई अपनी अनिवार्य (वाजिब) नमाज़ में इस सूरह का पाठ करता है तो हातिफ़ गैबी उसे पुकार कर कहता है। ऐ अल्लाह के बन्दे: अल्लाह ने तुम्हारे सारे पाप माँफ़ कर दिये हैं।[२४]

फ़ुटनोट

  1. ख़ुर्रम शाही, "सूर ए क़द्र", पृष्ठ 1266।
  2. ख़ुर्रम शाही, "सूर ए क़द्र", पृष्ठ 1266।
  3. तबातबाई, अल-मीज़ान, 1390 हिजरी, खंड 20, पृष्ठ 330।
  4. ख़ुर्रमशाही, "सूर ए क़द्र", पृष्ठ 1266।
  5. सफ़वी, "सूर ए क़द्र", पृष्ठ 786।
  6. वाहेदी, असबाबे नुज़ूले क़ुरआन, 1411 हिजरी, पृष्ठ 486।
  7. कूफ़ी, फोरात बिन इब्राहीम, तफ़सीरे कूफ़ी, खंड़ 1, पृष्ठ 581
  8. कूलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 1, पीपी 247-252।
  9. रिज़वानी,मौऊद शनासी व पासुख़ बे शुबहात, 1384, पेज 287-288।
  10. कुम्मी, मबानी मिनहाजुस सालेहीन, 1426 हिजरी, खंड 6, पृष्ठ 231
  11. सदूक़, सवाबुल आमाल व एक़ाबुल आमाल,खंड 1, पृष्ठ 124
  12. कफ़अमी, अल-मिस्बाह, 1405 हिजरी, पृष्ठ 409।
  13. कफ़अमी, अल-मिस्बाह, 1405 हिजरी, पृष्ठ 410।
  14. मजलिसी, ज़ादुल मआद, 1423 हिजरी, पृष्ठ 581।
  15. तूसी, मिस्बाहुल मुतहज्जद, 1411 हिजरी, खंड 2, पृष्ठ 523।
  16. मजलिसी, बिहारुल अनवार, खंड 92, पृष्ठ 329
  17. नूरी, मुस्तरेकुल वसाएल, खंड 2, पृष्ठ 371
  18. मुतह्हरी, मजमू ए आसार, 1389, खंड 28, पृष्ठ 68।
  19. तालेकानी, बरकराने क़द्र, 1377 शम्सी।
  20. हाज शरीफ़ी ख़्वानसारी, तफ़सीरे सूर ए क़द्र, 1388।
  21. सफ़ाई हाएरी, तफ़सीरे सूर ए क़द्र, 1388।
  22. सद्र, तफ़सीरे क़ुरआन, क़द्र, मोअस्सास ए फ़रहंगी तहक़ीक़ाती इमाम मूसा सद्र।
  23. कूलैनी, अल-काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 3, पृष्ठ 315।
  24. सदूक़, सवाबुल आमाल व एक़ाबुल आमाल, 1406 हिजरी, पृष्ठ 124।

स्रोत

  • पवित्र कुरान, मुहम्मद महदी फ़ौलादवंद , द्वारा अनुवादित, तेहरान, दारुल कुरआन अल-करीम, 1418 हिजरी /1376 शम्सी ।
  • ख़ुर्रमशाही, क़ेवामुद्दीन, (सूर ए क़द्र), दर दानिश नाम ए क़ुरआन व क़ुरआन पज़ोहिश, तेहरान, दोस्ताने नाहीद. 1377 शम्सी।
  • रिज़वानी, अली असग़र, मौऊद शनासी व पासुख़ बे शुबहात, क़ुम, प्रकाशक मस्जिदे जमकरान, 1384 शम्सी।
  • सद्र, इमाम मूसा, तफ़सीरे क़ुरआन, क़द्र, तेहरान, मोअस्सास ए फ़रहंगी तहकीकाती इमाम मूसा सद्र, बी ता।
  • सदूक़, मुहम्मद बिन अली, सवाबुल आमाल व एक़ाबुल आमाल, क़ुम, प्रकाशक दारुश शरीफ़ अर रज़ी, 1406 हिजरी।
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  • तूसी, मुहम्मद बिन हसन, मिस्बाहुल मोताहज्जद व सेलाहुल मोताअब्बद, बैरुत, मोअस्सास ए फ़िकहुल शिया, 1411 हिजरी।
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  • कफ़अमी, इब्राहीम बिन अली, अल मिस्बाह लिल कफ़अमी, क़ुम, दार अल रज़ी. 1405 हिजरी।
  • कुलैनी, मुहम्मद बिन याक़ूब, अल काफ़ी, तेहरान, दारुल कुतुब अल इस्लामिया, 1407 हिजरी।
  • मजलिसी, ज़ादुल मआद, बैरूत, मोअस्सास ए आलमी लिल मतबूआत, 1423 हिजरी।
  • मजलिसी, बिहारुल अनवार, बैरूत, मोअस्सास ए अल वफ़ा, 1403 हिजरी।
  • मुतह्हरी, मुर्तज़ा, मजमू ए आसार, तेहरान, इंतेशाराते सद्रा, 1389 शम्सी।
  • वाहेदी, अली बिन अहमद, असबाबे नुज़ूलिल क़ुरआन, बैरूत, दारुल कुतुब अल इल्मिया, 1411 हिजरी।