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1308 हिजरी, बक़ीअ क़ब्रिस्तान में इमामों का मज़ार
1308 हिजरी, बक़ीअ क़ब्रिस्तान में इमामों का मज़ार

हसन बिन अली बिन अबी तालिब (अ) इमाम हसन मुज्तबा (3-50 हिजरी) के नाम से प्रसिद्ध, शियों के दूसरे इमाम थे, वह दस साल (40-50 हिजरी) तक इमामत के पद पर और लगभग 7 महीने तक मुसलमानों के ख़लीफा रहे। अहले सुन्नत उन्हें राशिदीन ख़लीफाओं का आख़िरी ख़लीफ़ा मानते हैं।

हसन बिन अली, इमाम अली (अ) और फ़ातेमा ज़हरा (स) की पहली संतान और पैगंबर (स) के पहले पोते हैं। ऐतिहासिक रिपोर्टों के अनुसार, पैगंबर (स) ने उनके लिए "हसन" नाम चुना और वह उन्हें बहुत प्यार करते थे। वह अपने जीवन के सात वर्षों तक पैगंबर (स) के साथ थे और बैअते रिज़वान (रिज़वान निष्ठा की प्रतिज्ञा) और नजरान के ईसाइयों के साथ मुबाहेला में उपस्थित थे।

शिया और सुन्नी स्रोतों में इमाम हसन (अ) के गुणों का उल्लेख है। वह असहाबे केसा में से एक है जिनके बारे में आयत ततहीर नाज़िल हुई और शिया उन्हें मासूम (पाप से पवित्र) मानते हैं। आयत इतआम, आयत मवद्दत, और आयत मुबाहेला भी उनके, उनके माता-पिता और उनके भाई के बारे में नाज़िल हुई। उन्होने दो बार अपनी सारी संपत्ति और तीन बार आधी संपत्ति अल्लाह की राह में जरूरतमंदों को दे दी। इन परोपकारों के कारण, उन्हे "करीमे अहले-बैत" कहा गया है। उन्होने 20 या 25 बार पैदल हज किये हैं।

पहली और दूसरी खिलाफ़त के दौरान उनके जीवन के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। दूसरे खलीफ़ा के आदेश पर वह तीसरा ख़लीफा नियुक्त करने के लिए छह सदस्यीय परिषद में साक्षी के रूप में उपस्थित हुए। तीसरे ख़लीफा के काल में कुछ युद्धों में उनके भाग लेने की भी सूचना मिलती है। उस्मान की खिलाफ़त के विरोध मेंं होने वाले विद्रोह में, उन्होंने इमाम अली (अ) के आदेश पर ख़लीफा के घर की रक्षा की। इमाम अली (अ) की खिलाफ़त के दौरान वह उनके साथ कूफा गये और जमल और सिफ़्फीन की लड़ाई में उनकी सेना के कमांडरों में से एक थे।

इमाम अली (अ) की शहादत के बाद हसन बिन अली 21 रमज़ान 40 हिजरी को इमामत के पद पर पहुंचे और उसी दिन चालीस हजार से अधिक लोगों ने खिलाफ़त के लिए उनके प्रति निष्ठा की शपथ (बैअत) ली। मुआविया ने उनकी खिलाफ़त को स्वीकार नहीं किया और सीरिया से एक सेना के साथ इराक़ का रुख़ किया। इमाम हसन (अ) ने उबैदुल्लाह बिन अब्बास के नेतृत्व में एक सेना मुआविया की ओर भेजी और वह स्वयं एक अन्य समूह के साथ साबात चले गए। मुआविया ने इमाम हसन (अ) के सैनिकों के बीच अफ़वाह फैलाकर शांति स्थापित करने की कोशिश की।

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