अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम
अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम (अरबीःالصَّلاَةُ خَیْرٌ مِنَ النَّوْمِ) जिसका अर्थ है "नमाज़ नींद से बेहतर है" एक वाक्यांश है जिसे सुन्नी सुबह की अज़ान में हय्या अलल-फलाह के बाद दो बार कहते हैं। अधिकांश सुन्नी न्यायविदों ने कुछ हदीसों का हवाला देते हुए सुबह की नमाज़ में यह वाक्य कहना मुस्तहब माना है। दूसरी ओर, इमामिया न्यायविदो का इस बात पर इज्माअ हैं कि अज़ान के दौरान इसे कहना जायज़ नहीं है, और अगर इसे शरीयत के इरादे से कहा जाता है, तो यह हराम है। उनके अनुसार, अज़ान में इस वाक्य को कहने की वैधता और स्वीकार्यता के लिए कोई शरई सबूत नहीं है।
अज़ान में "अस-सलात खैरुम मिनन-नौम" वाक्यांश कब और किसके द्वारा जोड़ा गया था, इसके बारे में सुन्नी हदीसी स्रोतों में विभिन्न कथन हैं। कुछ कथनों में, यह कहा गया है कि बिलाल ने इसे सुबह की आज़ान में जोड़ा और इसे पैग़म्बर (स) ने स्वीकार कर लिया। कुछ अन्य कथनो में, यह कहा जाता है कि पैग़म्बर (स) ने इसे अबू महज़ूरा को सिखाया था। यह भी कहा जाता है कि पहली बार पैग़म्बर (स) के समय में मस्जिदे-क़ुबा के मुअज़्ज़िन साद बिन आइज़ ने उमर बिन ख़त्ताब की ख़िलाफ़त के दौरान इस विधर्म (बिदअत) को शुरू किया। अल-मौता में मलिक बिन अनस द्वारा सुनाई गई एक रिवायत के अनुसार, यह वाक्य उमर बिन खत्ताब की खिलाफ़त के दौरान और उनकी मंजूरी के साथ आज़ान में जोड़ा गया था।
अज़ान में "अस-सलात खैरुम मिनन-नौम" कहने को तसवीब भी कहा जाता है। न्यायविदों की शब्दावली मे अर्थ है कि जब मुअज़्ज़िन "हय्या अलस-सलात" कहता है; नमाज़ के लिए जल्दी करो", वह लोगों को नमाज़ के लिए बुलाता है, "अल-सलातो खैरुम मिनन-नौम" कहकर एक और वाक्यांश दोहराने के बाद, वह नमाज़ के लिए बुलाता है। बेशक, ऐसा कहा जाता है कि तसवीब का अधिक सामान्य अर्थ होता है, और कुछ लोगों ने तसवीब को अज़ान और इकामत के बीच अस-सलातो, रहेमकोमुल्लाहो, अस-सलात कहने या हय्या अलस-सलात और हय्या अलल-फ़लाह कहना भी तसवीब है।
परिभाषा और स्थिति
अल-सलालो खैरुम मिनन-नौम, जिसका अर्थ है "नमाज़ नींद से बेहतर है", एक वाक्य है जिसे सुन्नी सुबह की आज़ान में "हय्या अलल-फ़लाह" के बाद दो बार कहते हैं[१] सुबह की आज़ान मे इस वाक्य को कहना तसवीब कहा जाता है।[२] तसवीब का अर्थ है नमाज़ के लिए दोबारा बुलाना, कहने का तात्पर्य यह है कि जब मोअज़्ज़िन कहता है "हय्या अलस-सलात; अर्थात नमाज़ के लिए जल्दी करो", वह लोगों को नमाज़ के लिए बुलाता है, "अल-सलातो खैरुम मिनन-नौम" कहकर एक और वाक्यांश को दोहराने के बाद, वह नमाज़ के लिए बुलाता है।[३]
कुछ लोगों ने अज़ान और इक़ामत के बीच "अस-सलातो, रहेमकोमुल्लाह, अस-सलात" कहने को सूचीबद्ध किया है, जो तसवीब के उदाहरणों में शुमार होता है।[४] यह भी कहा जाता है कूफ़ा के कुछ हनफ़ी विद्वान, ने आज़ान और अकामत के बीच दो बार "हय्या अलस-सलात" और "हय्या अलल-फलाह" को एक अन्य प्रकार की तसवीब माना है।[५]
इस शीर्षक पर नमाज़ के बारे में न्यायशास्त्रीय पुस्तकों में चर्चा की गई है[६] और यह शियो और सुन्नियों के बीच धार्मिक बहस में शामिल हो गया है।[७]
इमामिया दृष्टिकोण से अस-सलातो खैरुम मिनन नौम का बिदअत होना
इमामिया न्यायविदो का इस बात पर इज्माअ हैं कि अज़ान मे "अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम" कहना जायज़ नहीं है, और इसे शरई बनाने के इरादे से कहना बिदअत और हराम है।[८] उनका मानना है कि इस वाक्य को कहने की वैधता साबित करने के लिए कोई शरई तर्क नही है।[९] बेशक, इमामिया हदीसो के कुछ स्रोतों में मासूम इमामों की हदीस हैं, जो आज़ान मे तसवीब के जायज़ होने की ओर इशारा करती है,[१०] लेकिन इन रिवायतो को शाज़ कहा गया है[११] और रिवायतो के एक अन्य समूह के साथ जो आज़ान तसवीब की अनुमति को स्पष्ट रूप से अस्वीकार करती हैं,[१२] उनसे विरोधाभास है; इसलिए, न्यायविदों ने उन्हें खारिज कर दिया है और उन्हें तक़य्या के मामलों में लागू किया है।[१३]
ऐसा कहा जाता है कि इमामिया न्यायविदों के बीच इस बात पर कोई मतभेद नहीं है कि यदि तसवीब या "अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम" कहना नमाज़ के समय की याद दिलाने के उद्देश्य से हो या तक़य्या की स्थिति मे हो तो कोई मुश्किल नही है।[१४] यदि इसको कहने से नमाज का समय याद दिलाने या तकय्या की स्थिति के कारण न हो तो इसका जायज़ होने या जायज़ न होने के संबंध मे मतभेद है।[१५] फ़ाज़िल हिंदी[१६] और फ़ैज़ काशानी[१७] जैसे न्यायविदों ने इसे मकरूह माना है, और साहिब जवाहर[१८] और काशिफ़ अल-ग़ेता[१९] ने इसे हराम माना है।
काशिफ़ अल-ग़ेता आज़ान में तसवीब या "अस-सलातो ख़ैरुम मिनन-नौम" कहना को मौलिक रूप से विधर्मी (बिदअत) और ज़ाति रूप से हराम मानते है , और उनका मानना है कि इसकी अनुमति नहीं है।[२०]
सुन्नी दृष्टिकोण से अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम की वैधता
जाने-माने सुन्नी न्यायविदों के अनुसार, सुबह की आज़ान में "हय्या अलल-फलाह" के बाद "अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम" कहना मुस्तहब है।[२१] हालांकि मुहम्मद बिन इद्रीस शाफई ने एक अन्य जगह इसे मुस्तहब माना है और दूसरे स्थान पर इसे मकरूह माना है।[२२] कुछ हनफ़ी न्यायविदों ने भी सुबह की आज़ान समाप्त करने के बाद इसे कहना जायज़ माना है।[२३]
सुन्नी न्यायविदों की प्रसिद्ध राय के अनुसार तसवीब या "अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम" कहना केवल सुबह की आज़ान से मखसूस है।[२४]
सुन्नियों का प्रतीक
पूरे इतिहास में आज़ान मे "अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम" कहना सुन्नियों का एक नारा और प्रतीक माना गया है। इसलिए कि सुन्नी शासकों द्वारा शासित शासन में, इस वाक्य को अज़ान में कहने का आदेश दिया गया था[२५] उदाहरण के लिए, सीरा ए हल्बी नामक पुस्तक में इसका उल्लेख है कि बगदाद में आले-बुयेह के शासन के दौरान आज़ानो मे हय्या अला ख़ैरिल अमल कहा जाता था, 448 हिजरी मे सल्जूक़ीयान के सत्ता में आने से इस वाक्य को आज़ान मे कहने पर प्रतिबंध लग गया और आदेश दिया गया कि इस वाक्य के स्थान पर "अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम" कहा जाए।[२६]
आज़ान मे "अस-सलातो ख़ैरुम मिनन-नौम" कब और किसने ज़्यादा किया
इस बारे में मतभेद है कि कब और किसके द्वारा "अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम" को सुबह की आज़ान में जोड़ा गया था:
उमर की खिलाफत काल मे
सय्यद अली शहरिस्तानी के अनुसार उनकी पुस्तक "अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम फ़िल-आज़ान" में, तीन प्रमुख शिया संप्रदायों, यानी इमामिया, इस्माइलिया और ज़ैदिया के विद्वान इस बात पर जोर देते हैं कि "अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम" उमर बिन खत्ताब की खिलाफत के दौरान और उनके द्वारा अज़ान में जोड़ा गया था।[२७] मालिक बिन अनस ने भी अल-मौता में एक हदीस का उल्लेख किया है, जिसके अनुसार मोअज़्ज़िन सुबह की नमाज़ के बारे में उमर बिन खत्ताब को सूचित करने के लिए गया लेकिन उसने देखा कि उमर सो रहा था तो मोअज़्ज़िन ने "अस-सलातो ख़ैरुम मिनन-नौम" कहा उसके बाद उमर ने इस वाक्य को सुबह की आज़ान में कहने का आदेश दिया।[२८] इसी तरह कुछ दूसरे लोगो का कहना है कि पहला व्यक्ति जिसने आज़ान से हय्या अला-खैरिल अमल को निकलवा कर उसके स्थान पर अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम कहने का आदेश देने वाला उमर बिन खत्ताब था।[२९]
एक अन्य कथन के अनुसार, यह वाक्य पहली बार उमर बिन खत्ताब के खिलाफत के दौरान मस्जिदे-कुबा के मोअज़्ज़िन साद बिन आइज़ द्वारा इस बिदअत की बुनयाद रखी।[३०] जबकि इमाम काज़िम (अ) से सुनाई गई एक हदीस मे आया है कि अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम बनी उमय्या युग के दौरान आज़ान में जोड़ा गया।[३१]
पैग़म्बर (स) के जीवनकाल मे
पैग़म्बर (स) के जीवनकाल के दौरान आज़ान मे इस वाक्य के अलावा, सुन्नी स्रोतों में अलग-अलग और परस्पर विरोधी कथन सुनाए गए हैं। इनमें से कुछ हदीसों में यह वर्णन किया गया है कि एक दिन बिलाल पैग़म्बर (स) को सुबह की नमाज़ के बारे में सूचित करने के लिए उनके पास आए और उन्होने देखा कि पैग़म्बर (स) सो रहे है, जिस पर बिलाल ने ऊंची आवाज़ मे कहना शुरु कियाः "अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम" इसके बाद पैग़म्बर (स) की ओर से सुबह की आज़ान मे इस वाक्य की पुष्टि और आदेश पारित हुआ।[३२] कुछ हदीसों में यह भी कहा गया है कि पैगम्बर (स) ने इसे अबू महज़ूरा को सिखाया था।[३३]
जाफ़र सुब्हानी के अनुसार, सुन्नी स्रोतों में आज़ान के लिए "अल-सलातो ख़ैरुम मिनन-नौम" को कैसे जोड़ा गया, इसकी रिपोर्ट करने वाले हदीसे विरोधाभासी हैं और उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि इसमें इस्तेहबाब और बिदअत अर्थात हराम होने के बारे मे शक और संदेह है इस आधार पर कहा जा सकता है कि इस वाक्य को आज़ान मे कहने से परहेज किया जाना चाहिए ताकि यदि मुस्तहब हो तो उसके छोड़ने पर कोई अज़ाब नही है लेकिन यदि बिदअत और हराम हो तो उसके अंजाम देने पर अज़ाब और सजा होगी।[३४]
कुछ सुन्नी विद्वानों ने यह भी कहा है कि "अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम" वाक्य को पैग़म्बर (स) द्वारा आज़ान में शामिल नहीं किया गया था और इसे उनके स्वर्गवास के बाद इस बिदअत को जोड़ा गया।[३५]
मोनोग्राफ़ी
आज़ान में "अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम" वाक्य और इसकी अवैधता के बारे में कुछ रचनाएँ लिखी गई हैं, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
- सय्यद अली शहरिस्तानी द्वारा अरबी में लिखी गई पुस्तक "अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम फ़िल-आज़ान"। यह पुस्तक 1433 हिजरी में बगदाद में "अल-राफ़िद" प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई थी।[३६]
- मसअला, अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम" नामक पुस्तक अहले-बैत (अ) की विश्व असेंबली के सवाल व जवाब वाली समिति द्वारा लिखी गई थी और इसे चौबीसवे खंड में "फ़ि-रेहाबे अहलुल-बैत (अ)" के नाम से अहले-बैत (अ) की विश्व सभा द्वारा संकलित और प्रकाशित किया गया था।[३७] इस पुस्तक का फ़ारसी भाषा में भी अनुवाद किया गया है।
फ़ुटनोट
- ↑ जम्ई अज़ नवीसंदेगान, अल मौसूअतुल फ़िक्हियतिल कुवैतिया, 1404 हिजरी, भाग 2, पेज 360 और भाग 11, पेज 176; सरिख्सी, अल मबसूत, दार उल-मारफ़ा, भाग 1, पेज 130
- ↑ जम्ई अज़ नवीसंदेगान, अल मौसूअतुल फ़िक्हियतिल कुवैतिया, 1404 हिजरी, भाग 2, पेज 360
- ↑ ज़ुबैदी, ताज उल-उरूस, तस्वीब शब्द के अंतर्गत
- ↑ देखेः इब्न मंज़ूर, लेसान उल-अरब, तस्वीब शब्द के अंतर्गत
- ↑ जम्ई अज़ नवीसंदेगान, अल मौसूअतुल फ़िक्हियतिल कुवैतिया, 1404 हिजरी, भाग 2, पेज 361
- ↑ देखेः इब्न रुश्द, बिदायतुल मुजतहिद, 1425 हिजरी, भाग 1, पेज 89; बहरानी, अल-हदाऐकुन नाज़ेरा, मोअस्सेसा अल नशर अल-इस्लामी, भाग 7, पेज 418
- ↑ देखेः अल्लामा हिल्ली, नहजुल हक व कश्फ उस सिद्क़, 1982 ई, पेज 351
- ↑ शेख तूसी, अल-खिलाख़ मोअस्सेसा अल नशर अल इस्लाममी, भाग 1, पेज 287; नजफी, जवाहिर अल-कलाम, 1362 शम्सी, भाग 9, पेज 113
- ↑ सय्यद मुर्तज़ा, मसाइल अल नासिरयात, 1417 हिजरी, पेज 184; शेख तूसी, अल-खिलाफ़, मोअस्सेसा अल नशर अल इस्लामी, भाग 1, पेज 287
- ↑ देखेः हुर्रे आमोली, वसाइल अल-शिया, 1416 हिजरी, भाग 5, पेज 427
- ↑ शहीद सानी, मसालिक अल-इफहाम, 1413 हिजरी, भाग 1, पेज 190
- ↑ देखेः हुर्रे आमोली, वसाइल अल-शिया, 1416 हिजरी, भाग 5, पेज 426
- ↑ शहीद सानी, मसालिक अल-इफहाम, 1413 हिजरी, भाग 1, पेज 190; नजफी, जवाहिर अल-कलाम, 1362 शम्सी, भाग 9, पेज 116; जम्ई अज़ नवीसंदेगान, अल मौसूअतुल फ़िक्हियतिल कुवैतिया, 1404 हिजरी, भाग 8, पेज 11
- ↑ बहरानी, अल-हदाऐकुन नाज़ेरा, मोअस्सेसा अल नशर अल-इस्लामी, भाग 7, पेज 421; जम्ई अज़ नवीसंदेगान, अल मौसूअतुल फ़िक्हियतिल कुवैतिया, 1404 हिजरी, भाग 8, पेज 111
- ↑ जम्ई अज़ नवीसंदेगान, अल मौसूअतुल फ़िक्हियतिल कुवैतिया, 1404 हिजरी, भाग 8, पेज 111
- ↑ फ़ाज़िल हिंदी, कश्फ अललेसाम, मोअस्सेसा अल नशर इस्लामी, भाग 3, पेज 385
- ↑ फ़ैज़ काशानी, मफ़ाति हुश-शराए, 1401 हिजरी, भाग 1, पेज 118
- ↑ नजफी, जवाहिर अल-कलाम, 1362 शम्सी, भाग 9, पेज 116
- ↑ काशेफ़ुल-ग़ेता, कश्फ़ उल-ग़ेता, 1422 हिजरी, भाग 3, पेज 146
- ↑ काशेफ़ुल-ग़ेता, कश्फ़ उल-ग़ेता, 1422 हिजरी, भाग 3, पेज 146
- ↑ इब्ने रुश्द, बिदायातुल मुज्तहिद, 1425 हिजरी, भाग 1, पेज 89
- ↑ शेख तूसी, अल-खिलाख़ मोअस्सेसा अल नशर अल इस्लाममी, भाग 1, पेज 286
- ↑ जम्ई अज़ नवीसंदेगान, अल मौसूअतुल फ़िक्हियतिल कुवैतिया, 1404 हिजरी, भाग 2, पेज 360
- ↑ देखेः सरख्सी, अल-मबसूत, दार उल-मारफ़ा, भाग 1, पेज 130; शौकानी, नैलुल औतार, 1413 हिजरी, भाग 2, पेज 46; शरबीनी, मुगनी उल-मोहताज, दार एहया अल-तुरास अल-रबी, भाग 1, पेज 136
- ↑ शहरिस्तानी, अल-आज़ान बैनल असालते वत-तहरीफ़, 1426 हिजरी, पेज 343
- ↑ हल्बि, अल-सीरतुल हल्बिया, दार उल-कुतुब अल-इल्मीया, भाग 2, पेज 136
- ↑ शहरिस्तानी, अस-सलात खैरुम मिनन नौम, पेज 150
- ↑ मालिक बिन अनस, अल-मौता, 1406 हिजरी, भाग 1, पेज 72
- ↑ याह्या बिन हुसैन, अल-अहकाम (फ़िक़्ह अल-मज़हब अल-जैदी), 1410 हिजरी, भाग 1, पेज 84
- ↑ अब्दुर रज़्ज़ाक़, अल-मुनसिफ़, 1403 हिजरी, भाग 1, पेज 474
- ↑ नूरी, मुस्तदरक अल-वसाइल, मोअस्सेसा आले अल-बैत (अ), भाग 4, पेज 44
- ↑ देखेः इब्ने माजा, सुनन इब्ने माजा, दार एहा अल-कुतुब अल-अरबी, भाग 1, पेज 237; दारमी, सुनन दारमी, 1412 हिजरी, भाग 2, पेज 762
- ↑ देखेः बयहशी, अल-सुनन अल-कुबरा, 1424 हिजरी, भाग 1, पेज 622
- ↑ सुब्हानी, सीमाए अकाइद शिया, 1386 शम्सी, पेज 385
- ↑ देखेः खारज़मी, जामेअ अल-मसानीद, 1419 हिजरी, भाग 1, पेज 296; इब्ने हज़्म अल-महल्ला, दार उल-फिक्र, भाग 2, पेज 194; अब्दुर रज़्ज़ाक़, अल-मुनसिफ, 1403 हिजरी, भाग 1, पेज 474
- ↑ शहरिस्तानी, अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम फ़िल आज़ान, 1433 हिजरी, पेज 302
- ↑ मजमअ जहानी अहलेबैत (अ), मसअला, अस-सलातो खैरुम मिनन-नौम, 1426 हिजरी, पेज 4
स्रोत
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- ख़ारिज़्मी, मुहम्मद बिन महमूद, जामेअ अल-मसानीद, बैरूत, दार उल कुतुब अल-इल्मीया, 1419 हिजरी
- दारमी, अब्दुल्लाह बिन अब्दुर रहमान, सुनन दारमी, सऊदी अरबी, दार अल-मुगना, 1412 हिजरी
- ज़ुबैदी, मुर्तज़ा, ताज उल-उरूस मिन जवाहिरल क़ामूस, बैरूत, दार उल-फिक्र
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- नजफ़ी, मुहम्मद हसन, जवाहिर अल-कलाम बैरुत, दार एहया अल-तुरास अल-अरबी, सातवां संसकरण 1362 शम्सी
- नूरी, हुसैन, मुस्तदरक अल-वसाइल व मुसतंबित अल-मसाइल, क़ुम, मोअस्सेसा आले अल-बैत (अ)
- याह्या बिन हुसैन, अल-अहकाम फिल हलाले वल हराम (फ़िक़्ह अल-मजहब अल-जैदीया) 1410 हिजरी