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इमामे जुमा नमाज़े जुमा के पेश नमाज़ को कहते है। धर्मशास्त्रीयो के फ़तवे के आधार पर अदालत, हलाल ज़ादा होना, ईमान, बालिग़ होना और पुरूष होना नमाज़े जुमा की इमामत की महत्वपूर्ण शर्ते है। इतिहास के अध्ययन से साबित होता है कि पैगंबरे इस्लाम (स) और इमाम अली (अ) स्वंय जुमे की नमाज़ पढ़ाया करते थे अन्यथा किसी व्यक्ति को नमाज़े जुमा पढ़ाने के लिए नियुक्त करते थे।
इस्लामी सरकारों मे जुमा की इमामत सरकारी पद होता था। इसलिए शासक स्वयं जुमे की नमाज़ पढ़ाते थे या इमामे जुमा नियुक्त करते थे। उदाहरण स्वरूप उमवी, अब्बासी, उस्मानी और सफ़वी शासन काल में आइम्मा ए जुमा शासकों द्वारा नियुक्त किए जाते थे।
इस्लामी गणतंत्र ईरान में सर्वोच्च नेता द्वारा नियुक्त व्यक्तियो पर आधारित "आइम्मा ए जुमा की नीति परिषद" शहरों की नमाज़े जुमा का प्रबंधन करती है।
इमामे जुमा नमाज़े जुमा के पेश नमाज़ को कहते है। नमाज़े जुमा दो रकअत है जोकि जुमे के दिन ज़ोहर की नमाज़ के स्थान पर जमाअत के साथ पढ़ी जाती है। शिया धर्मशास्त्रियो के अनुसार इमाम की उपस्थिति मे या उनकी अनुमति से या उनके उत्तराधिकारी की अनुमति से वाजिब है। इमाम ज़माना (अ) की अनुपस्थिति मे नमाज़े जुमा के वाजिब होने के संबंध मे धर्मशास्त्रियो मे मदभेद पाया जाता है।
समकालीन इतिहासकार रसूल जाफ़रयान के अनुसार, जुमे की इमामत हमेशा एक सरकारी पद रहा है। इस्लाम की शुरुआत में, जुमे की नमाज़ पैगंबर (स), इमाम अली (अ) की इमामत मे अदा होती थी या उनकी इमामत मे अदा होती थी जो व्यक्ति उनकी ओर से नियुक्त होता था।
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