"मौन उपवास": अवतरणों में अंतर
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न्यायविद उपवास के इरादे के बिना मौन को स्वीकार्य मानते हैं, भले ही इसमें पूरा दिन शामिल हो।[12] | न्यायविद उपवास के इरादे के बिना मौन को स्वीकार्य मानते हैं, भले ही इसमें पूरा दिन शामिल हो।[12] | ||
===अहले-सुन्नत का दृष्टिकोण=== | |||
सुन्नी न्यायविदों ने इस संदर्भ में पैग़म्बर (स) की हदीसों का हवाला देते हुए मौन व्रत को हराम माना है [13] उदाहरण के लिए, सुन्नी हनफ़ियों के इमाम अबू हनीफ़ा (मृत्यु 150 हिजरी), [14] ज़मखशरी। (मृत्यु 538 हिजरी), सुन्नी टिप्पणीकारों में से एक [15] और इब्न क़ुदामा (मृत्यु 620 हिजरी) [16] उन विद्वानों में से हैं जिन्होंने मौन उपवास के हराम होने का उल्लेख किया है। | |||
१९:२९, २१ अगस्त २०२४ का अवतरण
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मौन उपवास, (ख़ामोशी का रोज़ा) एक कार्य है जिसमें एक व्यक्ति ईश्वर के क़रीब होने और उपवास के इरादे से दिन का कुछ हिस्सा या पूरे दिन कुछ नहीं बोलता है। शिया और सुन्नी न्यायविदों के अनुसार, मौन उपवास वर्जित (हराम) है। बेशक, अगर कोई शख्स रोज़े की नियत के बिना ख़ामोश रहे, चाहे वह पूरे दिन ही क्यों न हो, तो यह हराम नहीं है। ऐसा कहा जाता है कि मौन व्रत रखना बनी इसराईल के बीच आम बात थी; लेकिन इस्लाम में इसे खारिज कर दिया गया है।
मौन व्रत की संकल्पना एवं पृष्ठभूमि
मौन व्रत एक ऐसा कार्य है जिसमें व्यक्ति ईश्वर के क़रीब हो जाने के इरादे और उपवास के इरादे से सुबह से लेकर रात तक या दिन के कुछ समय तक कुछ नहीं बोलता है।[1] शिया न्यायविदों ने मौन उपवास और दिन के दौरान उपवास के इरादे के बिना मौन रहने के नियम के बारे में बात की है।[2]
शिया विद्वानों में से एक अल्लामा मजलिसी (मृत्यु: 1110 हिजरी) का मानना है कि बनी इसराईल के बीच मौन व्रत रखना स्वीकार्य था और इसे बनी इसराइल के उपासकों के बीच तपस्या की शर्तों में से एक माना जाता था। लेकिन इस्लाम में इसे निरस्त कर दिया गया है। [3] कुछ लोगों ने सूरह मरियम की आयत 26 का भी उपयोग किया है और कहा है कि मौन व्रत इसराईलियों के बीच वैध था। लेकिन इस्लाम ने इसकी मनाही की है।[4]
कुछ हदीसों में, मौन व्रत की व्याख्या "ज़म" के रूप में की गई है।[5] "ज़म" ऊंटों को रास्ता दिखाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली लगाम थी, और बनी इज़राइल के भक्त अपने मुंह में कुछ इसी तरह की चीज़ं डाल लेते थे ताकि वे दिन के दौरान बात न कर सकें।[6]
मौन व्रत का हराम होना
शिया न्यायशास्त्र[7] में भी और सुन्नी न्यायशास्त्र[8] में भी दोनों में मौन व्रत वर्जित (हराम) है।
शिया दृष्टिकोण
शिया न्यायविदों ने मौन व्रत को निषिद्ध व्रतों (हराम रोज़ों) की श्रेणी में रखा है। [9] मौन व्रत के हराम होने का कारण पैग़म्बर (स) और मासूम इमामों (अ) द्वारा जारी की गई बहुत सी हदीसें हैं, जो इस कार्य की निंदा करती हैं।[10] फ़ाज़िल लंकरानी (1386 शम्सी) एक शिया न्यायविद हैं जो मानते हैं कि जो चीजें उपवास करने वाले व्यक्ति के लिए अनिवार्य या निषिद्ध हैं, उन्हें इस्लामी शरिया में परिभाषित किया गया है और मौन उन चीजों में से एक नहीं है। इसलिए ऐसा करना नवप्रवर्तन और हराम है।[11]
न्यायविद उपवास के इरादे के बिना मौन को स्वीकार्य मानते हैं, भले ही इसमें पूरा दिन शामिल हो।[12]
अहले-सुन्नत का दृष्टिकोण
सुन्नी न्यायविदों ने इस संदर्भ में पैग़म्बर (स) की हदीसों का हवाला देते हुए मौन व्रत को हराम माना है [13] उदाहरण के लिए, सुन्नी हनफ़ियों के इमाम अबू हनीफ़ा (मृत्यु 150 हिजरी), [14] ज़मखशरी। (मृत्यु 538 हिजरी), सुन्नी टिप्पणीकारों में से एक [15] और इब्न क़ुदामा (मृत्यु 620 हिजरी) [16] उन विद्वानों में से हैं जिन्होंने मौन उपवास के हराम होने का उल्लेख किया है।