उपनिवेशवाद
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उपनिवेशवाद, जिसका अर्थ है एक देश या राष्ट्र का दूसरे पर जबरन प्रभुत्व स्थापित करना और उसे आश्रित, अधीनस्थ और पिछड़ी अवस्था में रखना। यूरोपीय उपनिवेशवाद उत्तरी अफ्रीका के मुस्लिम देशों पर कब्ज़े के साथ शुरू हुआ और फिर ईरान, इराक़ और भारत के शिया समुदाय सहित अन्य समाजों में फैल गया। शोधकर्ताओ के अनुसार, ईरान कभी आधिकारिक रूप से उपनिवेशवाद का शिकार नहीं हुआ; लेकिन अनुचित व्यापार समझौतों के माध्यम से उस पर औपनिवेशिक शक्तियों का प्रभाव था। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना ने इराक पर कब्ज़ा कर लिया और वहाँ एक कठपुतली सरकार स्थापित की। भारत में, अवध की शिया सरकार को भी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने नष्ट कर दिया था। फ़िलिस्तीन पर कब्ज़ा और इज़राइल की स्थापना को भी उपनिवेशवाद का परिणाम माना जाता है।
उपनिवेशित देशों का विखंडन और उनके आर्थिक संसाधनों पर कब्ज़ा करना उपनिवेशवाद के प्रमुख तरीकों में से माना जाता रहा है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद, औपनिवेशिक शक्तियों ने उसमानिया साम्राज्य को कई टुक्टो मे विभाजित कर दिया और इराक, सीरिया और लेबनान जैसे नए देशों का निर्माण किया। प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा, औपनिवेशिक अनुबंध, सांस्कृतिक और भाषाई परिवर्तन, और स्वदेशी पहचान को कमज़ोर करना औपनिवेशिक तरीकों में शामिल हैं।
मुसलमानों ने उपनिवेशवाद का विभिन्न तरीकों से विरोध किया है। इन तरीकों में इराक और ईरान में शिया विद्वानों द्वारा जारी किए गए फतवे, उपनिवेश-विरोधी संगठनों की स्थापना, सशस्त्र विद्रोह, क्रांतियाँ या अहिंसक स्वतंत्रता आंदोलन शामिल हैं।
उपनिवेशवाद की परिभाषा और इतिहास
राजनीतिक दृष्टि से, उपनिवेशवाद का अर्थ है एक मज़बूत राष्ट्र का एक कमज़ोर राष्ट्र पर सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रभुत्व और उसे गुलाम बनाकर, निचली और पिछड़ी अवस्था में रखना।[१] उपनिवेशवाद का शोषण (दूसरो को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करना) की अवधारणा से गहरा संबंध है।[२] उस्मानिया साम्राज्य का इक़्तेदार प्राप्त करना और यूरोप और एशिया के बीच भूमि मार्गो का समाप्त होना,[३] यूरोपीय चर्च व्यवस्था में पूँजी का संचय, और पूर्व की पौराणिक संपदा पर कब्ज़ा करने की इच्छा, यूरोपीय लोगों के उपनिवेशवाद की ओर मुड़ने के मुख्य कारण माने गए हैं।[४]
ऐसा कहा जाता है कि पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में, आर्थिक उद्देश्यों के अलावा, यूरोपीय लोगों ने इस्लाम के विस्तार का विरोध करने के उद्देश्य से उत्तरी अफ्रीका के मुस्लिम क्षेत्रों में उपनिवेश स्थापित किए।[५] ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार, कई इस्लामी देश और शिया समाज यूरोपीय उपनिवेशवाद से प्रभावित हुए हैं।[६] ऐतिहासिक शोधकर्ताओं के अनुसार, उपनिवेशित देशों में औपनिवेशिक शक्तियों की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्रवाइयों के परिणामस्वरूप, औपनिवेशिक देशों में भौगोलिक क्षेत्रों (कब्जे और विभाजन) प्रादेशिक,[७] सामाजिक-सांस्कृतिक (राष्ट्रीय-धार्मिक मूल्यों का कमजोर होना और बदलती जीवन शैली)[८] और आर्थिक (संसाधनों की लूट और मोनो-उत्पाद प्रणालियों का निर्माण)[९] में कई बदलाव सामने आए हैं।
इस्लामी समाजों में उपनिवेशवाद का विस्तार

शोधकर्ताओ के अनुसार सुबता (वर्तमान उत्तरी मोरक्को का एक शहर) को यूरोपीय लोगों द्वारा उपनिवेशित पहली मुस्लिम बस्ती माना है।[१०] अल्जीरिया, लीबिया, मिस्र और ट्यूनीशिया उन मुस्लिम देशों में शामिल हैं जिन्हें यूरोपीय लोगों ने उपनिवेशित किया था।[११] शिया निवासी क्षेत्रो में, ईरान, इराक़ और अवध (भारत में) भी उपनिवेशवाद से प्रभावित माने जाते हैं।[१२]
ईरान और औपनिवेशिक अनुबंध
ईरान को कभी भी आधिकारिक तौर पर और पूरी तरह से यूरोपीय देशों का उपनिवेश नहीं माना गया है; [संदर्भ वांछित] हालाँकि, शोध से पता चलता है कि 16वीं शताब्दी में उपनिवेशवादियों के पहले समूह के समय से[१३] ईरान में इस्लामी क्रांति की शुरूआत तक,[१४] यह देश हमेशा औपनिवेशिक शक्तियों के प्रभाव में रहा है। जैसा कि कुछ ऐतिहासिक दस्तावेजों और पत्राचार से ज्ञात होता है कि विदेशी एजेंटों के साथ ईरान के कुछ व्यापारिक अनुबंधों को ईरान पर औपनिवेशिक शक्ति के प्रभुत्व के उदाहरण माना गया है।[१५] 20वीं सदी में, मुहम्मद मुसद्दिक़ और अबुल क़ासिम काशानी, लोकप्रिय समर्थन के साथ, ईरानी तेल को ब्रिटिश एजेंटों के नियंत्रण से हटाने और इसका राष्ट्रीयकरण करने में सफ़ल हुए।[१६] हालाँकि, ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका का दबाव और बाधा जारी रही और 18 अगस्त, वर्ष 1953 ई को एक विद्राह के माध्यम से मुसद्दिक़ की सरकार का तख्ता उलट दिया।[१७]
इराक़ पर ब्रिटिश फ़ौज का क़ब्ज़ा
प्रथम विश्व युद्ध (वर्ष 1914 ई) के दौरान इंग्लैंड ने उस्मानिया साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।[१८] कथित तौर पर अंग्रेजों का मानना था कि शिया, अंग्रेजों का साथ देंगे और उसमानियो को इराक से खदेड़ देंगे।[१९] इस धारणा के विपरीत, और इस तथ्य के बावजूद कि इराकी शिया न्यायविद उसमानी शासन से असंतुष्ट थे, उन्होंने ब्रिटेन के विरुद्ध जिहाद का फ़तवा जारी किया, क्योंकि वे इस्लामी भूमि पर ईसाइयों के क़ब्ज़े को हराम मानते थे।[२०] हालाँकि, ब्रिटिश सेनाएँ भारी हथियारों, वायु सेना[२१] और भारत से भेजी गई जनशक्ति पर निर्भर होकर इराक पर नियंत्रण करने में सफ़ल हुऐ।[२२]
भारत में अवध के शिया शासन का तख्तापलट
18वीं शताब्दी के मध्य (1757-1764 ई) में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध के शिया शासन सहित भारत की स्थानीय सरकारों के साथ युद्ध किया और उन्हें पराजित किया।[२३] तब से, ब्रिटिश कंपनी ने अपने प्रभाव, तोड़फोड़ और क्षेत्र के ज़मींदारों से बड़ी मात्रा में धन उगाही के माध्यम से अवध के शासकों और क्षेत्र के ज़मींदारों के बीच संतुलित संबंधों को बिगाड़ दिया, जिससे विद्रोह हुए। [२४] ब्रिटेन ने अवध सरकार को बड़े ऋण भी दिए और अपनी मांगों के बदले में, शिया भूमि के कुछ हिस्से और उनके विदेशी संबंधों पर नियंत्रण कर लिया, जिससे अवध सरकार एक कठपुतली सरकार में बदल गई।[२५] 1858 ई में, ब्रिटेन ने अवध विद्रोहों को समाप्त करने के बहाने क्षेत्र में शिया शासन को समाप्त कर दिया और इस क्षेत्र को अपने साम्राज्य में मिला लिया।[२६]
फ़िलिस्तीन पर कब्ज़ा
बहुत से विद्वान फ़िलिस्तीन पर कब्ज़ा करने के मुद्दे को उपनिवेशवाद का परिणाम मानते हैं।[२७] इन विद्वानों के अनुसार, प्रथम विश्व युद्ध में उसमानीया साम्राज्य की पराजय और फ़िलिस्तीन पर ब्रिटिश शासनादेश के कारण इज़राइल का जन्म हुआ।[२८] इज़राइल के गठन के तरीके के अलावा, कुछ विश्लेषकों ने फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों में ज़ायोनी शासन को औपनिवेशिक कब्ज़ा का एक उदाहरण माना है।[२९] उन्होंने ग़ज़्ज़ा पट्टी पर प्रभुत्व स्थापित करने और इस क्षेत्र में यहूदी बस्तियाँ बनाने के शासन के प्रयास भी औपनिवेशिक घटना है।[३०]
उपनिवेशवाद से निपटने के तरीक़े
कब्ज़ा करने वालों के विरुद्ध न्यायविदो के फ़तवे
“इराकी लोगों के लिए अपने अधिकारों की माँग करना वाजिब है, और अपनी माँगों को प्राप्त करने के लिए कार्रवाई करते हुए शांति और सुरक्षा बनाए रखना उनका कर्तव्य है, और यदि ब्रिटिश लोग लोगों की माँगों को स्वीकार करने से इनकार करते हैं, तो लोगों के लिए अपनी रक्षा के लिए बल और ताकत का सहारा लेना जायज़ है।”[३१]
बचे हुए दस्तावेज़ों में, ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध इराकी न्यायविदों के संघर्ष के स्पष्ट उदाहरण मौजूद हैं; उदाहरण के लिए, क़ाचार काल में, सय्यद मुहम्मद काज़िम यज़्दी ने इंग्लैंड के विरुद्ध संघर्ष को वाजिब घोषित किया,[३२] मुहम्मद तकी शिराज़ी ने जिहाद का फ़तवा जारी किया,[३३] और मुसलमानों के लिए ब्रिटिश कार्यालयों में नौकरी करना हराम क़रार दिया।[३४] इतिहासकारों के अनुसार, आखुंद खुरासानी[३५] जैसे अधिकारियों और यहाँ तक कि शेख़ अल शरीया इस्फ़हानी ने भी स्पष्ट रूप से ब्रिटिश-विरोधी विद्रोहों का नेतृत्व किया।[३६] इराक के अलावा, ईरान में विदेशी सेनाओं की उपस्थिति के साथ-साथ अधिकारियों की प्रतिक्रिया भी हुई। उदाहरण के लिए, 1329 हिजरी में, जब रूसी सेनाओं ने उत्तरी ईरान पर आक्रमण किया, तो मुहम्मद तक़ी शिराज़ी ने उनका सामना करने की आवश्यकता पर एक फ़तवा जारी किया।[३७] यह फतवा शिया भूमि तक सीमित नहीं था, और उदाहरण के लिए, इतालवी सेनाओं द्वारा लीबिया पर कब्जे और रूसी और ब्रिटिश सेनाओं द्वारा ईरान पर आक्रमण के बाद, सय्यद मुहम्मद काज़िम यज़्दी ने घोषणा की कि आक्रमणकारियों का सामना करना सभी मुसलमानों का कर्तव्य है।[३८]

इतिहासकारों के अनुसार, कुछ ईरानी और इराकी मौलवियों ने भी इस्लामिक मूवमेंट सोसाइटी, सीक्रेट नजफ़ पार्टी और सीक्रेट काज़मैन पार्टी जैसे उपनिवेश-विरोधी समूहों की स्थापना की।[३९]
औपनिवेशिक अनुबंधों का विरोध
जैसा कि क़ाचार युग के ऐतिहासिक विवरणों से संकेत मिलता है, उस काल के कुछ बुद्धिजीवी उपनिवेशवाद की अवधारणा और उसके प्रभावों, विशेष रूप से भारत में अवगत थे।[४०] इन मुद्दों के आलोक में, शिया धर्मगुरुओं ने इनमें से कई अनुबंधों का विरोध किया, जिनमें रॉयटर रियायत (सड़कों, रेलमार्गों, बाँधों का निर्माण और ईरान की खदानों, जंगलों और रीति-रिवाजों का दोहन) और रेजी रियायत (तंबाकू पर एकाधिकार) शामिल हैं।[४१] तंबाकू आंदोलन में प्रभावशाली घटनाओं में सय्यद जमालुद्दीन असदाबादी के संघर्ष और मिर्ज़ा शिराज़ी का फ़तवा शामिल हैं।[४२]
कठपुतली सरकारों को उखाड़ फेंकने के प्रयास
वर्ष 1932 ई में मुहम्मद हुसैन नाईनी, सय्यद अबुल हसन इस्फ़हानी, महदी ख़ालेसी और सय्यद हसन सद्र जैसे विद्वानों ने रज़ा फ़ैसल के शासन को ब्रिटिश कठपुतली मानकर उसका विरोध किया।[४३] इसके अलावा, 1941 ई मे फ़ैसल शासक बनने के बाद, उनके विरुद्ध एक विद्रोह हुआ और सय्यद अबुल-हसन इस्फ़हानी, मुहम्मद हुसैन काशिफ़ ग़ेता और अब्दुल करीम जज़ायरी सहित कुछ शिया न्यायविदों ने इस विद्रोह के समर्थन में जिहाद का फ़तवा जारी किया।[४४]
अहिंसक क्रांति और स्वतंत्रता =

इतिहासकारों के अनुसार, 19वीं शताब्दी में भारतीयों ने हिंसक संघर्ष के माध्यम से उपनिवेशवाद से लड़ने का प्रयास किया; लेकिन अंग्रेजों ने इस विद्रोह को दबा दिया।[४५] इसके बाद, 20वीं शताब्दी में गांधीजी के अहिंसक नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन फलीभूत हुआ।[४६] बेशक, इसी बीच, भारतीय मुसलमानों ने भी स्वतंत्रता की मांग की और अपनी पार्टी गतिविधियों के माध्यम से पाकिस्तान देश का गठन किया।[४७]
कुछ विद्वानों ने गांधीजी की अहिंसा की तुलना ईरान की इस्लामी क्रांति में इमाम ख़ुमैनी के तरीकों से की है।[४८] अपने कई भाषणों और लेखों में, इमाम खुमैनी ने उपनिवेशवाद को राष्ट्रीय धन की लूट, आर्थिक निर्भरता, स्वदेशी संस्कृति और मूल्यों के विनाश, यहूदी-विरोध और धार्मिक विभाजन का कारण माना है।[४९] वे पहलवी वंश को उपनिवेशवादियों की कठपुतली मानते थे;[५०] लेकिन विद्वानों के अनुसार, इमाम खुमैनी अपने संघर्ष के तरीके में सशस्त्र आंदोलनों में विश्वास नहीं करते थे।[५१]
उपनिवेशवाद के तरीके
क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा या विभाजन
उपनिवेशवाद के शुरुआती रूपों में से एक किसी क्षेत्र पर विजय प्राप्त करना रहा है।[५२] उदाहरण के लिए, पुर्तगाली उपनिवेशवादियों ने 16वीं शताब्दी में होर्मुज और बहरैन जैसे द्वीपों पर कब्ज़ा कर लिया।[५३] यह भी बताया गया है कि 20वीं शताब्दी की शुरुआत तक, अफ्रीका का 90% हिस्सा औपनिवेशिक शासन के अधीन था।[५४] यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने उसमानिया साम्राज्य पर कब्ज़ा किया और फिर उसे विभाजित करके इराक़, सीरिया और लेबनान जैसे नए देशों का निर्माण किया।[५५] यह प्रक्रिया दूसरे विश्व युद्ध के बाद इज़राइल की स्थापना के साथ जारी रही।[५६] क़ाचार ईरान में, इंग्लैंड ने भारत पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने और फ्रांस और रूस के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए फ़ार्स की खाड़ी के द्वीपों पर आक्रमण किया, और फिर पेरिस की संधि के माध्यम से अफ़गानिस्तान को ईरान से अलग कर दिया।[५७]
बदलती स्वदेशी संस्कृति

उपनिवेशित क्षेत्रों में सांस्कृतिक परिवर्तन को औपनिवेशिक प्रभुत्व के तरीकों में से एक माना गया है।[५८] यह भी कहा जाता है कि अराजकता को बढ़ावा देना, स्वदेशी मूल्यों का कमजोर होना और नैतिक मूल्यों की व्यवस्था में परिवर्तन उपनिवेशवादियों द्वारा किए गए सांस्कृतिक परिवर्तन के उदाहरण हैं।[५९] उदाहरण के लिए, भारत में अंग्रेज़ हिंदी भाषा को स्थापित करना चाहते थे, और बदले में मुसलमान उर्दू भाषा को स्थापित करना चाहते थे; इसी कारण भारत के मुसलमानों ने उर्दू भाषा को बढ़ावा देने के लिए संस्थाएँ स्थापित कीं।[६०] फ़्रांस ने लेबनान और सीरिया में भी फ़्रांसीसी भाषा का प्रसार करने और इसके अलावा, इन क्षेत्रों में यूरोपीय जीवन शैली को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया।[६१]
आर्थिक उपनिवेशवाद
आर्थिक उपनिवेशवाद के तरीकों में संसाधनों की लूट और व्यापारियों पर कर लगाना शामिल है।[६२] उदाहरण के लिए, फ़ार्स की खाड़ी के द्वीपों के उपनिवेशवादियों का लक्ष्य फ़ार्स की खाड़ी के व्यापारियों से कर वसूलना, हिंद महासागर के नौवहन पर प्रभुत्व स्थापित करना और मोती से होने वाली आय को नियंत्रित करना बताया गया है।[६३] इसके अलावा, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, रूस और इंग्लैंड ने उत्तरी और दक्षिणी ईरान पर कब्ज़ा कर लिया और इन क्षेत्रों के आर्थिक, वाणिज्यिक और सैन्य हितों पर कब्ज़ा कर लिया।[६४]
उपनिवेशवाद के अप्रत्यक्ष तरीकों का भी उल्लेख किया गया है, जैसे एकल-फसल कृषि, उपनिवेश की उत्पादन प्रणाली की औपनिवेशिक देश पर निर्भरता और विकास प्रणाली का थोपना।[६५] उदाहरण के लिए, शोधकर्ताओं के अनुसार, क़ाजार युग के दौरान विदेशी अनुबंधों ने ईरान को एक अर्ध-औपनिवेशिक राज्य में बदल दिया, इसका कारण यह था कि कच्चे माल का निर्यात तेज़ी से बढ़ रहा था और ईरानी उत्पादों का निर्यात घट रहा था।[६६] इसके अलावा, भारत और बांग्लादेश में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की पहली कार्रवाइयों में से एक नीति स्थानीय उद्योग और कृषि को नष्ट करना और स्थानीय आबादी को कच्चा माल बेचने के लिए मजबूर करना था।[६७] कहा जाता है कि इस नीति के कारण बड़े अकाल पड़े, उदाहरण के लिए, केवल 1880 और 1920 के बीच, इन कृत्रिम अकालों के परिणामस्वरूप दस करोड़ से अधिक भारतीय मारे गए।[६८]
फ़ुटनोट
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