आलमे अम्र
आलमे अम्र या आलमे मुजर्रेदात (अरबीःعالم الأمر) ऐसी दुनिया जिसे पाँच बाहरी इंद्रियों द्वारा नहीं समझा जा सकता है, आलमे ख़ल्क़ के विपरीत है, जिसे पांच इंद्रियों द्वारा समझा जा सकता है। आलमे अम्र के विश्वास की जड़ सूर ए आराफ़ की आयत 54 के अंश "لَا لَهُ الْخَلْقُ وَالْأَمْرُ अला लहू अल-ख़ल्क़ो वल-अम्रो" को माना है।
आलमे अम्र में प्राणियों की अनुभूति को तात्कालिक और समय और स्थान की शर्तों को प्रदान करने की आवश्यकता के बिना माना है; जबकि आलमे ख़ल्क़ मे प्राणियों का बोध धीरे-धीरे और विशिष्ट भौतिक स्थितियों के आधार पर संभव है।
भौतिक की दुनिया के अस्तित्व में कुछ दार्शनिकों के विश्वास के बावजूद, कुछ टिप्पणीकारों का मानना है कि क़ुरआन की कुछ आयतों में, पदार्थ (माद्दा) शब्द का इस्तेमाल भौतिक की दुनिया को संदर्भित करने के लिए किया जाता है; अल्लामा तबताबाई के अनुसार, सूर ए आराफ़ की आयत न 54 के तहत, उक्त आयत में ख़ल्क़ और आदेश का मतलब दो स्वतंत्र दुनिया नहीं है, बल्कि ईश्वर की ख़ल्क़ करने की शक्ति और उसका आदेश है।
परिभाषा
आलमे अम्र एक ऐसी दुनिया है, जो आलमे ख़ल्क़ के विपरीत, इसे पांच इंद्रियों द्वारा नहीं समझा जा सकता है[१] 11वीं चंद्र शताब्दी के शिया दार्शनिक मुल्ला सदरा के अनुसार, परमात्मा ने कई दुनियाएँ बनाईं, जिनमें से सभी को दो दुनियाओं आलमे ख़ल्क़ और आलमे अम्र में संक्षेपित किया जा सकता है। उन्होंने आलम ख़ल्क को यही दुनिया माना और आलमे अम्र को आलमे मुजर्रेदात माना और कहा कि इस दुनिया को केवल आंतरिक इंद्रियों से ही समझा जा सकता है।[२]
मुल्ला हादी सब्ज़ावारी के अनुसार, रहस्यवादियों ने आलमे अम्र शब्द को सूर ए आराफ़[३] की आयत न 54 से लिया है[४] और हुज्जत अल तफ़ासीर नामक किताब मे सूर ए इस्रा की आयत न 85 के अंतर्गत दो दुनिया आलमे ख़ल्क़ और आलमे अम्र की चर्चा की है जिसके अनुसार मनुष्य का शरीर आलमे ख़ल्क़ का और मनुष्य की आत्मा (रूह) आलमे अम्र का उदाहरण है।[५]
विशेषताएँ
आयतुल्लाह नासिर मकारिम शिराज़ी के अनुसार, आलमे ख़ल्क़ के विपरीत जहां प्राणियों की अनुभूति धीरे-धीरे होती है, आलमे अम्र मे प्राणी एक ही बार मे अस्तित्व मे आते है।[६] आयतुल्लाह मकारिम शिराज़ी इस दृष्टिकोण को सूर ए यासीन की आयत न 82 की ओर इशारा करते है जिसके अनुसार परमात्मा जब भी किसी चीज का इरादा करता है तो जैसे ही आदेश करे वह चीज़ अस्तित्व में आ जाती है।[७]
आलमे अम्र मे प्राणी केवल ईश्वर की इच्छा और उसकी आज्ञा से और समय और स्थान जैसी भौतिक परिस्थितियाँ प्रदान करने की आवश्यकता के बिना अस्तित्व में आते हैं; आलमे ख़ल्क़ के विपरीत, इसमें किसी चीज के अस्तित्व का एहसास करने के लिए, विशेष भौतिक परिस्थितियों का अस्तित्व होना चाहिए।[८]
राय
कुछ मुस्लिम दार्शनिकों ने आलमे ख़ल्क़ के विपरीत आलमे अम्र के बारे में बात की है।[९] फैज़ काशानी ने अल-साफ़ी किताब में भी इस वाक्यांश की व्याख्या की है " لَهُ الْخَلْقُ وَ الْأَمْرُ लहू अल-ख़ल्क़ो वा अल-अम्रो",[१०] उन्होने आलमे ख़ल्क़ और आलमे अम्र के बीच का अंतर समझाया और आलमे ख़ल्क़ को शरीर की दुनिया और आलमे अम्र को आत्माओं की दुनिया के रूप में व्याख्या की है।[११] फैज़ काशानी ने सूर ए फ़लक़ की व्याख्या मे आयत ( من شر ما خلق मिन शर्रे मा ख़ल्क़) का उपयोग किया, जिसका अर्थ है कि बुराई आलमे ख़ल्क़ मे है और आलमे अम्र मे केवल अच्छाई है।[१२]
हालाँकि, तफसीर नमूना में कहा गया है, पवित्र क़ुरआन मे आलमे ख़ल्क़ के लिए भी अम्र शब्द का उपयोग हुआ है; उदाहरण के लिए, सूर ए आराफ़ की आयत न 54 मे आलमे ख़ल्क़ का मुख्य दस्तावेज है, सूर्य, चंद्रमा और सितारों को ईश्वर की आज्ञा के अधीन माना जाता है[१३] अल्लामा तबातबाई ने भी अपनी तफसीर अल मीज़ान मे उल्लिखित आयत की तफसीर मे ऐसी किसी दुनिया के अस्तित्व के बारे मे कोई बात किए बिना केवल ख़ल्क़ और अम्र के बीच मौजूद अंतर और मतभेद को बयान किया है।[१४]
संबंधित लेख
फ़ुटनोट
- ↑ बलाग़ी, हुज्जत अल तफ़ासीर, 1386 हिजरी, भाग 4, पेज 84
- ↑ कलांतरी, चीस्ती आलमे अम्र दर आयात क़ुरआन करीम, पेज 150
- ↑ अला लहुल ख़ल्क़ो वल अम्रो, आगाह बाश के आलमे ख़ल्क़ व अम्र अज़ आन ऊस्त (अनुवाद फ़ौलादमंद)
- ↑ अंसारी शिराज़ी, दुरूस शरह मंज़ूमे, 1387 शम्सी, भाग 2, पेज 335
- ↑ बलाग़ी, हुज्जत अल तफ़ासीर, 1386 हिजरी, भाग 4, पेज 84
- ↑ मकारिम शिराज़ी, तफसीर नमूना, 1374 शम्सी, भाग 6, पेज 207
- ↑ मकारिम शिराज़ी, तफसीर नमूना, 1374 शम्सी, भाग 6, पेज 207
- ↑ बहिश्ती, ताअम्मुली बर आलमे ख़ल्क़ व आलमे अम्र, पेज 17
- ↑ मकारिम शिराज़ी, तफसीर नमूना, 1374 शम्सी, भाग 6, पेज 207
- ↑ सूर ए आराफ़, आयत न 54
- ↑ फ़ैज़ काशानी, तफसीर अल साफ़ी, 1415 हिजरी, भाग 2, पेज 205
- ↑ अल फ़ैज़ अल काशानी, अल तफसीर अल साफ़ी, 1416 हिजरी, भाग 5, पेज 395
- ↑ मकारिम शिराज़ी, तफसीर नमूना, 1374 हिजरी, भाग 6, पेज 207
- ↑ तबातबाई, अल मीज़ान, 1417 हिजरी, भाग 8, पेज 150-153
स्रोत
- क़ुरआन करीम, अनुवाद मुहम्मद महदी फ़ौलादवंद
- अंसारी शिराज़ी, याह्या, दुरूस शरह मंज़ूमे हकीम मुताले हाज़ मुल्ला हादी सब्ज़वारी, भाग 2, क़ुम, मोअस्सेसा बूसतान किताब, 1387 शम्सी
- बलाग़ी, सय्यद अब्दुल हुज्जत, हुज्जत अल तफ़ासीर व बलाग़ अल इकसीर, क़ुम, इंतेशारात हिकमत, 1386 हिजरी
- बहिश्ती, सय्यद मुहम्मद, तअम्मोली बर आलमे ख़ल्क़ व आलमे अम्र, दर मजल्ला गुलिस्तान क़ुरआन, क्रमांक 88, आबान 1380 शम्सी
- तबातबाई, सय्यद मुहम्मद हुसैन, अल मीज़ान फ़ी तफसीर अल क़ुरआन, क़ुम, दफ्तर इंतेशारात इस्लामी, पांचवा संस्करण, 1417 हिजरी
- फ़ैज़ काशानी, मुल्ला मोहसिन, तफसीर अल साफ़ी, तेहरान, इंतेशारात अल सद्र, 1416 हिजरी
- कलांतरी, इब्राहीम व हमरा अलवी, चीस्ती आलमे अम्र दर आयात क़ुरआन करीम, दर मजल्ला पुजूहिशहाए क़ुरआन व हदीस, क्रमांक 1, बहार व ताबिस्तान, 1392 शम्सी
- मकारिम शिराज़ी, नासिर , तफसीर नमूना, तेहरान, दार अल कुतुब अल इस्लामीया, पहला संस्करण, 1374 शम्सी