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"सैफ़ बिन हारिस बिन सरीअ हमदानी": अवतरणों में अंतर

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सैफ़ और उनके चचेरे भाई मालिक बिन अब्दुल्लाह सरीअ अपने गुलाम [[शबीब बिन अब्दुल्लाह नहशली]] के साथ [[इमाम हुसैन (अ.स.)]] के कारवाँ में शामिल हुए। <ref> समावी, अबसार अल-ऐन, 1419 एएच, खंड 1, पृष्ठ 132।</ref> कहा गया है कि ये तीनों लोग [[कूफ़ा]] से इमाम के पास आये थे। <ref> ममक़ानी, तंक़ीह अल-मक़ाल, 1431 एएच, खंड 34, पृष्ठ 273; मुहद्दिसी, फरहंगे आशूरा, 1417 एएच, पेज 236-237, 243।</ref> सुन्नी इतिहासकार मोहम्मद बिन जरीर तबरी (मृत्यु: 310 हिजरी), सैफ़ और मालिक की [[शहादत]] को आशूरा के दिन दोपहर के बाद मानते हैं। तबरी के अनुसार, जब इमाम हुसैन (अ.स.) के साथियों को एहसास हुआ कि दुश्मन की सेना में वृद्धि के कारण जीत संभव नहीं है, तो उन्होने इमाम के लिए अपना जीवन दान करने के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करने का फैसला किया। <ref> तबरी, तारीख़े तबरी, 1967, खंड 5, पृष्ठ 442।</ref>
सैफ़ और उनके चचेरे भाई मालिक बिन अब्दुल्लाह सरीअ अपने गुलाम [[शबीब बिन अब्दुल्लाह नहशली]] के साथ [[इमाम हुसैन (अ.स.)]] के कारवाँ में शामिल हुए। <ref> समावी, अबसार अल-ऐन, 1419 एएच, खंड 1, पृष्ठ 132।</ref> कहा गया है कि ये तीनों लोग [[कूफ़ा]] से इमाम के पास आये थे। <ref> ममक़ानी, तंक़ीह अल-मक़ाल, 1431 एएच, खंड 34, पृष्ठ 273; मुहद्दिसी, फरहंगे आशूरा, 1417 एएच, पेज 236-237, 243।</ref> सुन्नी इतिहासकार मोहम्मद बिन जरीर तबरी (मृत्यु: 310 हिजरी), सैफ़ और मालिक की [[शहादत]] को आशूरा के दिन दोपहर के बाद मानते हैं। तबरी के अनुसार, जब इमाम हुसैन (अ.स.) के साथियों को एहसास हुआ कि दुश्मन की सेना में वृद्धि के कारण जीत संभव नहीं है, तो उन्होने इमाम के लिए अपना जीवन दान करने के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करने का फैसला किया। <ref> तबरी, तारीख़े तबरी, 1967, खंड 5, पृष्ठ 442।</ref>


  [[इमाम हुसैन (अ)]] के साथ जाबिरी क़बीले के दो युवा की बातचीत
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  (इमाम हुसैन) ने उनसे कहाः भाई के पुत्रों, तुम क्यों रो रहे हो? भगवान की क़सम, मुझे आशा है कि आप जल्द ही ख़ुश हो जाएंगे। उन्होंने कहाः ईश्वर हमें आप के ऊपर फ़िदा कर दे, हम अपने लिए नहीं रो रहे हैं, हम आपके लिए रो रहे हैं, हम देख रहे हैं कि आप उनके बीच घिर चुके हैं और हम आपकी रक्षा करने में सक्षम नहीं है। (इमाम) ने कहाः भाई के बेटों, ईश्वर इस दुःख और अपनी जान से, मेरे इस समर्थन के बदले में आपको धर्मपरायण लोगों को सर्वोत्तम पुरस्कार दे।" <ref> पायंदेह, तारिख़े तबरी का अनुवाद, 1375, खंड 7, पृष्ठ 3047।</ref>
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कहा गया है कि सैफ़ बिन हारिस और [[मालिक बिन अब्दुल्लाह]] ने जब दुश्मन को [[इमाम हुसैन (अ)]] के तम्बू के पास आते देखा, तो आंखों में आंसू लेकर इमाम के पास आए। <ref> मुहद्देसी, फरहंगे आशूरा, 1417 एएच, पेज 236-237, 397।</ref> इमाम ने उनसे पूछा कि वे क्यों रो रहे हैं तो उन्होंने इमाम की स्थिति को देखने और उनकी मदद करने में असमर्थता का उल्लेख किया, जिसके लिए इमाम ने इस समानता के लिए उनकी प्रशंसा और उनके लिए प्रार्थना की। <ref> अबी मख़नफ़, वक़आ अल-तफ़, 1417 एएच, पृष्ठ 235; तबरी, तारीख़े तबरी, 1967, खंड 5, पृष्ठ 443।</ref> स्रोतों के अनुसार, सैफ़ और मलिक इमाम से बात करने के बाद तेज़ी से जंग के मैदान की ओर गये, जबकि वे युद्ध के लिये एक-दूसरे से आगे निकल रहे थे। <ref> समावी, अबसार अल-ऐन, 1419 एएच, खंड 1, पृष्ठ 133।</ref> और जंग में एक-दूसरे का साथ दे रहे थे। <ref> ममक़ानी, तंक़ीह अल-मक़ाल, 1431 एएच, खंड 34, पीपी 273-274।</ref> थोड़ी देर के बाद सैफ़ और मलिक ने इमाम हुसैन (अ.स.) का अभिवादन (सलाम) किया, और इमाम ने उनके सलाम का जवाब दिया। <ref> अबी मख़नफ़, वक़आ अल-तफ़, 1417 एएच, पृष्ठ 235; तबरी, तारीख़ तबरी, 1967, खंड 5, पृष्ठ 443।</ref>
कहा गया है कि सैफ़ बिन हारिस और [[मालिक बिन अब्दुल्लाह]] ने जब दुश्मन को [[इमाम हुसैन (अ)]] के तम्बू के पास आते देखा, तो आंखों में आंसू लेकर इमाम के पास आए। <ref> मुहद्देसी, फरहंगे आशूरा, 1417 एएच, पेज 236-237, 397।</ref> इमाम ने उनसे पूछा कि वे क्यों रो रहे हैं तो उन्होंने इमाम की स्थिति को देखने और उनकी मदद करने में असमर्थता का उल्लेख किया, जिसके लिए इमाम ने इस समानता के लिए उनकी प्रशंसा और उनके लिए प्रार्थना की। <ref> अबी मख़नफ़, वक़आ अल-तफ़, 1417 एएच, पृष्ठ 235; तबरी, तारीख़े तबरी, 1967, खंड 5, पृष्ठ 443।</ref> स्रोतों के अनुसार, सैफ़ और मलिक इमाम से बात करने के बाद तेज़ी से जंग के मैदान की ओर गये, जबकि वे युद्ध के लिये एक-दूसरे से आगे निकल रहे थे। <ref> समावी, अबसार अल-ऐन, 1419 एएच, खंड 1, पृष्ठ 133।</ref> और जंग में एक-दूसरे का साथ दे रहे थे। <ref> ममक़ानी, तंक़ीह अल-मक़ाल, 1431 एएच, खंड 34, पीपी 273-274।</ref> थोड़ी देर के बाद सैफ़ और मलिक ने इमाम हुसैन (अ.स.) का अभिवादन (सलाम) किया, और इमाम ने उनके सलाम का जवाब दिया। <ref> अबी मख़नफ़, वक़आ अल-तफ़, 1417 एएच, पृष्ठ 235; तबरी, तारीख़ तबरी, 1967, खंड 5, पृष्ठ 443।</ref>


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