"सैफ़ बिन हारिस बिन सरीअ हमदानी": अवतरणों में अंतर
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सैफ़ और उनके चचेरे भाई मालिक बिन अब्दुल्लाह सरीअ अपने गुलाम [[शबीब बिन अब्दुल्लाह नहशली]] के साथ [[इमाम हुसैन (अ.स.)]] के कारवाँ में शामिल हुए। [16] कहा गया है कि ये तीनों लोग [[कूफ़ा]] से इमाम के पास आये थे। [17] सुन्नी इतिहासकार मोहम्मद बिन जरीर तबरी (मृत्यु: 310 हिजरी), सैफ़ और मालिक की [[शहादत]] को आशूरा के दिन दोपहर के बाद मानते हैं। तबरी के अनुसार, जब इमाम हुसैन (अ.स.) के साथियों को एहसास हुआ कि दुश्मन की सेना में वृद्धि के कारण जीत संभव नहीं है, तो उन्होने इमाम के लिए अपना जीवन दान करने के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करने का फैसला किया। [18] | सैफ़ और उनके चचेरे भाई मालिक बिन अब्दुल्लाह सरीअ अपने गुलाम [[शबीब बिन अब्दुल्लाह नहशली]] के साथ [[इमाम हुसैन (अ.स.)]] के कारवाँ में शामिल हुए। [16] कहा गया है कि ये तीनों लोग [[कूफ़ा]] से इमाम के पास आये थे। [17] सुन्नी इतिहासकार मोहम्मद बिन जरीर तबरी (मृत्यु: 310 हिजरी), सैफ़ और मालिक की [[शहादत]] को आशूरा के दिन दोपहर के बाद मानते हैं। तबरी के अनुसार, जब इमाम हुसैन (अ.स.) के साथियों को एहसास हुआ कि दुश्मन की सेना में वृद्धि के कारण जीत संभव नहीं है, तो उन्होने इमाम के लिए अपना जीवन दान करने के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करने का फैसला किया। [18] | ||
कहा गया है कि सैफ़ बिन हारिस और मालिक ने जब दुश्मन को [[इमाम हुसैन (अ)]] के तम्बू के पास आते देखा, तो आंखों में आंसू लेकर इमाम के पास आए। [20] इमाम ने उनसे पूछा कि वे क्यों रो रहे हैं तो उन्होंने इमाम की स्थिति को देखने और उनकी मदद करने में असमर्थता का उल्लेख किया, जिसके लिए इमाम ने इस समानता के लिए उनकी प्रशंसा और उनके लिए प्रार्थना की। [21] स्रोतों के अनुसार, सैफ़ और मलिक इमाम से बात करने के बाद तेज़ी से जंग के मैदान की ओर गये, जबकि वे युद्ध के लिये एक-दूसरे से आगे निकल रहे थे। [22] और जंग में एक-दूसरे का साथ दे रहे थे। [23] थोड़ी देर के बाद सैफ़ और मलिक ने इमाम हुसैन (अ.स.) का अभिवादन (सलाम) किया, और इमाम ने उनके सलाम का जवाब दिया। [24] | कहा गया है कि सैफ़ बिन हारिस और [[मालिक बिन अब्दुल्लाह]] ने जब दुश्मन को [[इमाम हुसैन (अ)]] के तम्बू के पास आते देखा, तो आंखों में आंसू लेकर इमाम के पास आए। [20] इमाम ने उनसे पूछा कि वे क्यों रो रहे हैं तो उन्होंने इमाम की स्थिति को देखने और उनकी मदद करने में असमर्थता का उल्लेख किया, जिसके लिए इमाम ने इस समानता के लिए उनकी प्रशंसा और उनके लिए प्रार्थना की। [21] स्रोतों के अनुसार, सैफ़ और मलिक इमाम से बात करने के बाद तेज़ी से जंग के मैदान की ओर गये, जबकि वे युद्ध के लिये एक-दूसरे से आगे निकल रहे थे। [22] और जंग में एक-दूसरे का साथ दे रहे थे। [23] थोड़ी देर के बाद सैफ़ और मलिक ने [[इमाम हुसैन (अ.स.)]] का अभिवादन (सलाम) किया, और इमाम ने उनके सलाम का जवाब दिया। [24] | ||
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