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सूर ए फ़ातिर

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(35वाँ सूरह से अनुप्रेषित)
सूर ए फ़ातिर
सूर ए फ़ातिर
सूरह की संख्या35
भाग22
मक्की / मदनीमक्की
नाज़िल होने का क्रम43
आयात की संख्या45
शब्दो की संख्या780
अक्षरों की संख्या3228


सूर ए फ़ातिर या मलाएका (अरबी: سورة فاطر) 35वां सूरह है और क़ुरआन के मक्की सूरों में से एक है, जो 22वें अध्याय में स्थित है। चूँकि यह सूरह ईश्वर की स्तुति (हम्दे एलाही) से शुरू होता है, इसलिए इसे हामेदात के सूरों में से एक माना गया है। सूर ए फ़ातिर क़यामत और क़यामत के दिन की स्थितियों, काफ़िरों की परेशानियों और पछतावे के बारे में बात करता है, और लोगों को सांसारिक दिखावे के धोखे और शैतान के प्रलोभन के खिलाफ़ चेतावनी देता है। कुछ दिव्य आशीर्वादों (एलाही नेअमतों) का उल्लेख करना, क़ुरआन पढ़ने पर ज़ोर देना, नमाज़ क़ायम करना और हानिरहित व्यापार के रूप में दान (इंफ़ाक़) देना इस सूरह के अन्य विषय हैं।

ईश्वर के बे नियाज़ी (किसी की आवश्यकता नहीं) और लोगों के ज़रूरतमंद होने (नियाज़मंद) के बारे में 15वीं आयत और 18वीं आयत, जो ईश्वरीय न्याय (अदालत) और क़यामत के दिन सज़ा की गंभीरता को दर्शाती है, सूर ए फ़ातिर की प्रसिद्ध आयतों में से एक है।

इस सूरह को पढ़ने के गुण के बारे में पैग़म्बर (स) से वर्णित हुआ है कि जो कोई भी सूर ए फ़ातिर को पढ़ता है, क़यामत के दिन स्वर्ग के तीन द्वार उसे आमंत्रित करेंगे, ताकि वह उनमें से किसी के माध्यम से प्रवेश कर सके।

परिचय

  • नामकरण

इस सूरह को फ़ातिर और मलाएका कहा गया है, और दोनों नाम इस सूरह की पहली आयत से लिए गए हैं।[] इस आयत में "फ़ातिर" शब्द का अर्थ आसमान और ज़मीन का निर्माता (ख़ालिक़) माना गया है,[] मजमा उल बयान में तरबसी के अनुसार फ़ातिर का अर्थ बिना किसी मिसाल या उदाहरण के निर्माण (ख़ल्क़ और पैदा) करना है।[] कुछ का यह भी मानना है कि फ़ातिर का अर्थ अभिनव रचना है।[] इसके अलावा कुछ ने रचना और आविष्कार माना है।[]

  • नाज़िल होने का स्थान और क्रम

सूर ए फ़ातिर मक्की सूरों में से एक है और नाज़िल होने के क्रम में यह 43वां सूरह है जो पैग़म्बर (स) पर नाज़िल हुआ था। यह सूरह क़ुरआन की वर्तमान व्यवस्था[] में 35वां सूरह है और इसे 22वें भाग में रखा गया है।

  • आयत एवं शब्दों की संख्या

सूर ए फ़ातिर में 45 आयतें, 780 शब्द और 3228 अक्षर हैं। यह सूरह हामेदात के पांच सूरों में से पांचवां और आखिरी सूरह है, जो "अलहम्दोलिल्लाह" (ईश्वर की स्तुति) वाक्य से शुरू होता है। मात्रा के संदर्भ में, सूर ए फ़ातिर मसानी सूरों में से एक है और लगभग एक हिज़्ब (एक अध्याय का एक चौथाई) है।[]

सामग्री

सूर ए फ़ातिर लोगों को सांसारिक दिखावे के धोखे, फ़ितने और शैतान के प्रलोभनों से सावधान करता है और लोगों को ज़रूरतमंद (फ़क़ीर) और ईरवर को बिनियाज़ कहता है। मनुष्य को अपने आशीर्वाद के संरक्षक (वली ए नेअमत) को जानने और उसके प्रति आभारी होने के लिए, यह सूरह कुछ दिव्य आशीर्वादों (एलाही नेअमतों) का वर्णन करता है,[] जैसे बारिश का आशीर्वाद, पत्नी चुनने का आशीर्वाद, और दो नमकीन और मीठे समुद्र जिनका लोग उपयोग करते हैं।

पुनरुत्थान के मुद्दे और पुनरुत्थान की कुछ परिस्थितियों का उल्लेख करके, यह सूरह काफ़िरों के अफ़सोस और अतीत की भरपाई के लिए इस दुनिया में लौटने की उनकी इच्छा को संदर्भित करता है। इसके अलावा, इस सूरह की आयतों में, बहुदेववादियों और उनके झूठे और कमज़ोर भगवानों का उल्लेख किया गया है, और क़ुरआन का पाठ करना, नमाज़ क़ायम करना, और गुप्त रूप से और खुले तौर पर दान देना (इंफ़ाक़) हानिरहित व्यापार के रूप में पेश किया गया है।[]

अल्लामा तबातबाई ने सूरह का मुख्य उद्देश्य तिन सिद्धांतों, रबूबियत में तौहीद (एकेश्वरवाद) (एक ईश्वर द्वारा सभी अस्तित्व के मामलों का आदेश देना), पैग़म्बर (स) की रेसालत और मआद (क़यामत) को व्यक्त करना माना है।[१०]

सूर ए फ़ातिर की शुरुआती आयतें कूफी लिपि में। आठवीं शताब्दी ईस्वी के अंत से संबंधित (दूसरी हिजरी)

व्याख्या

लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए पैग़म्बर (स) के प्रयास

आठवीं आयत में, ईश्वर पैग़म्बर (स) को संबोधित करते हुए कहता है: "उनकी स्थिति (गुमराह) के लिए अफ़सोस और पछतावे की तीव्रता के कारण अपना जीवन मत खोओ।" इस आयत का अर्थ सूर ए शोअरा की तीसरी आयत के अर्थ के समान है,[११] जिसमें कहा गया है: "शायद आप इस दुःख के कारण खुद को नष्ट (मारना) करना चाहते हैं कि वे ईमान क्यों नहीं ला रहे हैं"।[१२] मकारिम शिराज़ी के अनुसार, यह व्याख्या दर्शाती है कि इस्लाम के पैग़म्बर (स) लोगों के प्रति कितने दयालु थे और अपने मिशन (रेसालत) को पूरा करने में कितने दृढ़ थे।[१३]

हिदायत और गुमराही मनुष्य या ईश्वर पर निर्भर है?

आठवीं आयत में कहा गया है: "ईश्वर जिसे चाहता है गुमराह करता है और जिसकी चाहता है हिदायत करता है।" कोई कल्पना कर सकता है कि इस आयत के अनुसार, मनुष्य को स्वतंत्र इच्छा (इख़्तियार) से वंचित किया गया है; लेकिन, अहवाज़ के लोगों को इमाम हादी (अ) के पत्र के अनुसार, जिसे तबरसी ने किताब अल एहतेजाज में उद्धृत किया है, इस आयत की व्याख्या दो तरीक़ों से की जा सकती है: 1. उस ईश्वर में यह क्षमता है कि वह जिसकी चाहे हिदायत कर दे या जिसे चाहे गुमराह कर दे, लेकिन यदि वह उन्हें इन दोनों में से एक करने के लिए मजबूर करता है, तो फिर सवाब और अज़ाब का अस्तित्व नहीं होगा। 2. ईश्वर की ओर से हिदायत का अर्थ है अवगत कराना है, [अर्थात्, वह बंदों को हिदायत का मार्ग दिखाता है], जैसा कि सूर ए फ़ुस्सेलत की 17वीं आयत में है;[१४] ऐसी अवस्था में, निर्णय अभी भी मनुष्य की ज़िम्मे है।[१५]

कुछ टिप्पणीकारों का मानना है कि हिदायत और गुमराही प्रत्येक के दो चरण होते हैं; पहला चरण वैकल्पिक (इख़्तियारी) है और दूसरा चरण मानव नियंत्रण से बाहर है। सामान्य मार्गदर्शन (हिदायत) के बाद जो सभी मनुष्यों को दिया गया है (इन्ना हदैनाहो अल सबीला इम्मा शाकेरन व इम्मा कफ़ूरा),[१६] वे या तो हिदायत का मार्ग चुनते हैं या गुमराही और पथभ्रष्टता का मार्ग चुनते हैं। यदि वे हिदायत चुनते हैं, तो उनकी स्थिति में विशेष हिदायत और दिव्य सफ़लता शामिल होगी (वल लज़ीना एहतदव ज़ादहुम होदा);[१७] लेकिन अगर वे गुमराही चुनते हैं, तो इससे आगे की गलतियाँ और सज़ाएँ होंगी, और यह दूसरी गुमराही ईश्वर का आदेश है और वास्तव में, यह मनुष्य के सही मार्ग से विमुख होने का प्रतिबिम्ब है। अत: ईश्वर के नियंत्रण (इख़्तियार) में गुमराही मानने वाली आयत का अर्थ दूसरी गुमराही है।[१८] इस गुमराही को ज़लालते मजाज़ाती या इज़्लाले मजाज़ाती (दण्डात्मक गुमराही) भी कहा गया है।[१९]

कर्मों की स्वीकृति इमामों के विलायत की स्वीकृति पर निर्भर है

"إِلَيْهِ يَصْعَدُ الْكَلِمُ الطَّيِّبُ وَالْعَمَلُ الصَّالِحُ يَرْفَعُهُ" (एलैहे यस्अदो अल कलेमो अल तय्येबो वल अमलो अल सालेहो यरफ़ओहु) “अनुवाद: शुद्ध शब्द उस तक पहुँचते हैं, और योग्य कार्य उसे उन्नति प्रदान करते हैं”।[२०] इस आयत की व्याख्या में जिन रिवायतों का उल्लेख किया गया है, उन्होंने "अल कलेमा अल तय्यब: अच्छे शब्द" के अर्थ को ईश्वर की एकता, पैग़म्बर (स) की नबूवत, अमीर अल मोमिनीन (अ) और अन्य इमामों की विलायत की गवाही के रूप में माना है। और "वल अमल अल सालेह" का अर्थ इस गवाही पर दिल से विश्वास करना, माना है।[२१] किताब काफ़ी में, शेख़ कुलैनी ने इस आयत के बारे में इमाम सादिक़ (अ) से एक कथन वर्णित किया है, इमाम (अ) ने कहा: "(अमले सालेह का अर्थ) हम अहले बैत (अ) की विलायत है (अपने हाथ से अपनी छाती की ओर इशारा करते हुए)।" इसलिए, जिसके सीने में हमारी विलायत नहीं है, ईश्वर उससे कोई अमल (कार्य) स्वीकार नहीं करेगा।[२२]

मृतकों से तवस्सुल के रोक पर वहाबियों का तर्क

आयत 22 में कहा गया है: "और जीवित और मृत एक जैसे नहीं हैं। परमेश्वर ही है, जो जिसे चाहता है सुनवाता है; और जो क़ब्रों में हैं, उन्हें तुम सुनने वाला नहीं बना सकते।

वहाबी इस आयत द्वारा तर्क देते हैं और कहते हैं कि मृतकों से तवस्सुल करना बातिल है, चाहे वह पैग़म्बरों की आत्माएँ हों या औलिया ए एलाही की। क्योंकि इस आयत के अनुसार, मृत लोग आवाज़ नहीं सुनते हैं और जीवित लोगों की ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकते हैं।[२३] दूसरी ओर, शिया विद्वान और कई सुन्नी और सूफ़ी विद्वान मानते हैं कि मृत लोग बरज़ख़ की दुनिया में बरज़ख़ी जीवन बिताते हैं। इस संदर्भ में कई आयतें हैं।[२४] उनका मानना है कि इस आयत (फ़ातिर की आयत 22) में, जो काफ़िर हिदायत के क़ाबिल नहीं है, उनकी तुलना क़ब्र में लाशों से की गई है, और उनसे बात करना बेकार है।[२५] और आयत का अर्थ है, मृतकों को सुनना पूर्ण (मुतलक़) नहीं है क्योंकि सुन्नियों की प्रामाणिक पुस्तकों में कहा गया है कि पैग़म्बर (स) ने बद्र की लड़ाई के बाद काफिरों के शवों को एक कुएं में फेंकने का आदेश दिया था। फिर उन्हें आवाज़ लगाते हुए कहा: क्या तुमने ईश्वर और उसके ऱसूल ने जो वादा किया था वह सच (हक़) पाया? ईश्वर ने मुझसे जो वादा किया था मैने उसे सच (हक़) पाया। यहां उमर ने विरोध करते हुए कहाः हे ईश्वर के पैग़म्बर! आप उन लाशों से कैसे बात कर रहे हैं जिनमें कोई आत्मा नहीं है?! पैग़म्बर (स) ने कहा: ما أنتم بِأسمع لِما أقول منهم! (मा अन्तुम बेअस्मा लेमा अक़ूल मिन्हुम) तुम उनसे बेहतर मेरी बातें नहीं सुन सकते।[२६]

प्रसिद्ध आयतें

अनुवाद: हे लोगों! तुम (सभी) अल्लाह के मोहताज हो और अल्लाह निःस्वार्थ, प्रशंसनीय है।

इस आयत ने रहस्यवादियों (ओरफ़ा)[२७] और दार्शनिकों (फ़लासेफ़ा) का ध्यान आकर्षित किया है, और दार्शनिकों के एक समूह ने इसे गरीबी (फ़क़र) और संभावना (इम्कान) या इम्कान और वुजूब के प्रसिद्ध प्रमाण का संदर्भ माना है, जिसका उपयोग वाजिब उल वुजूद को सिद्ध करने के लिए किया जाता है।[२८]

इस आयत की व्याख्या में कहा गया है कि बेनियाज़े हक़ीक़ी और क़ायम बिज़्ज़ात, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक है और वही ईश्वर है। सभी मनुष्य, बल्कि सिर से पैर तक सभी प्राणी गरीब और ज़रूरतमंद हैं, और वे उस स्वतंत्र अस्तित्व पर निर्भर हैं कि यदि वे एक पल के लिए भी अलग हो जाएं, तो वे कुछ भी नहीं और खाली हैं।[२९] अगली दो आयतों के साथ यह आयत ईश्वर के बेनियाज़ होने और लोगों की गरीबी की कसौटी को व्यक्त करती है, क्योंकि ईश्वर (अल्लाह) ही पूजा के योग्य एकमात्र ख़ुदा है और लोगों के मामलों का निर्माता और प्रबंधक है, और इस कारण से, वह बेनियाज़े मुत्लक़ है। उसकी समृद्धि (ग़नी होने) का संकेत यह है कि वह लोगों के एक समूह को नष्ट कर सकता है और दूसरे समूह को उसके स्थान पर ला सकता है, और चूँकि वह हमीद है और सभी प्रशंसा और स्तुति के योग्य है, हर नई रचना भी उसकी प्रशंसा करती है, और यह प्रतिस्थापन और नई रचना ईश्वर के लिए कोई कठिन कार्य नहीं है, जिसके पास पूर्ण और अनंत शक्ति है।[३०]

यह भी देखें: इम्काने फ़क़री
अनुवाद: कोई भी पापी दूसरे के पाप का बोझ नहीं उठाएगा।
नस्ख लिपि में सूरह फातिर की आयत 18

यह आयत ईश्वर के न्याय (अदालत) को बताती है और क़यामत के दिन सज़ा की गंभीरता को भी बताती है, कि कोई भी व्यक्ति दूसरे के पाप का बोझ उठाने को तैयार नहीं है, भले ही वह उससे बहुत प्यार करता हो।[३१] जिसके अनुसार कुफ़्र के नेता पुनरुत्थान उनके कुफ़्र के पाप और उन लोगों के पाप दोनों को वहन करेगा जिन्होंने उन्हें भटका दिया, क्योंकि कभी-कभी एक के साथ (पाप का) कार्य एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा दंडित किया जाता है, और एक पाप का बोझ दो लोगों द्वारा साझा किया जाता है, दोनों वह जो पाप और बुराई की आदेश देता है और वह जो इसे करता है, जैसा कि पैग़म्बर (स) की एक हदीस में है[३२] कि बुरी परंपरा (पाप) का संस्थापक और टेढ़ा रास्ता अपनाने वाला सभी पथभ्रष्टों और उस पाप से संक्रमित लोगों की सजा में भागीदार है।[३३] इसी तरह के विषय का उल्लेख सूर ए नज्म की आयत 38 में भी किया गया है। सूर ए नज्म में ईश्वर ने 17 आयतों के अलावा इब्राहीम और मूसा की किताबों से उद्धरण दिया है, जिनमें से पहली आयत यह है। (أَلَّا تَزِرُ وَازِرَ‌ةٌ وِزْرَ أُخْرَ‌ىٰ अल्ला तज़ेरो वाज़ेरतुन विज़्रा ओख़रा)।[३४]

अनुवाद: ईश्वर के बंदों में केवल बुद्धिमान (उल्मा) ही वे हैं जो उससे डरते हैं।
मुल्ला सद्रा, कुछ रहस्यवादियों के अनुसार:

ईश्वर का भय दो प्रकार का होता है: सज़ा और दण्ड का भय और जलाल और शिकोह (महिमा) का भय। सज़ा का डर हटाने योग्य है और यह दिखावे वाले लोगों के लिए है, और जलाल और शिकोह (महिमा) का डर स्थायी है और यह दिल के लोगों के लिए है... आयत إِنَّما یخْشَی اللهَ مِنْ عِبادِهِ الْعُلَماء (इन्नमा यख़्शल्लाहा मिन एबादेहिल उल्मा) यह दिल के लोगों के डर को व्यक्त करती है।

तफ़सीर अल क़ुरआन अल करीम, अल मुल्ला सद्रा, खंड 3, पृष्ठ 204।

ख़शीअत (डर) का अर्थ ताज़ीम (सम्मान) के साथ डरना है।[३५] तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई का भी मानना है कि उलमा का मतलब वह विद्वान हैं जो ईश्वर के नाम, गुण और कार्यों (अस्मा, सिफ़ात और अफ़आल) को जानते हैं। चूँकि इस ज्ञान (मारेफ़त) के प्रकाश में, उनके हृदय शांत और किसी भी संदेह से मुक्त होते हैं और उनके कार्य उनके शब्दों की पुष्टि करते हैं, इसलिए आयत में ख़शीअत (भय) का अर्थ सच्चा भय है, जिसका संकेत उनकी आंतरिक विनम्रता और बाहरी विनम्रता है।[३६] इस आयत की व्याख्या में, इमाम सज्जाद (अ) से यह वर्णित किया गया है: "ज्ञान (इल्म) और कार्रवाई (अमल) दो क़रीबी दोस्त हैं। जो ईश्वर को जानता है वह उससे डरता है, और यह डर उसे कार्य करने और ईश्वर की आज्ञा का पालन करने के लिए प्रेरित करता है।" ज्ञान के धारक और उनके अनुयायी वे हैं जो ईश्वर को अच्छी तरह से जानते हैं और उसके लिए कार्य करते हैं और उसकी इच्छा करते हैं और उससे प्यार करते हैं, जैसा कि ईश्वर ने कहा है: إِنَّما یخْشَی اللهَ مِنْ عِبادِهِ الْعُلَماء (इन्नमा यख़्शल्लाहा मिन एबादेहिल उल्मा)।[३७] तफ़सीरी पुस्तकों और हदीसों में यह भी उल्लेख किया गया है कि इस आयत में "अल उलमा" का अर्थ अमीर अल मोमिनीन (अ) हैं।[३८] शेख़ कुलैनी ने उसूल काफ़ी में इस आयत की तफ़सीर में इमाम सादिक़ (अ) से रिवायत वर्णित की है कि इमाम (अ) ने कहा: (قَالَ یَعْنِی بِالْعُلَمَاءِ مَنْ صَدَّقَ فِعْلُهُ قَوْلَهُ وَ مَنْ لَمْ یُصَدِّقْ فِعْلُهُ قَوْلَهُ فَلَیْسَ بِعَالِمٍ क़ाला यानी बिल उलमाए मन सद्दक़ा फ़ेअलोहु क़ौलहु व मन लम योसद्दिक़ फ़ेअलोहु क़ौलहु फ़लैसा बे आलेमिन) अनुवाद: विद्वान का अर्थ है ऐसा व्यक्ति जिसके कर्म उसकी बातों की पुष्टि करते हों, और जो व्यक्ति ऐसा न करता हो वह विद्वान नहीं है।[३९] इस आयत में, एक नकली पाठ है, जिसे अबू हनीफा द्वारा उद्धृत खोज़ाई के पाठ के अनुसार, "अल्लाह" शब्द का उच्चारण "ज़म्मा" के साथ किया जाता है और "उलमा" शब्द का उच्चारण "फ़तहा" के साथ किया जाता है। और इसका अर्थ यह है कि ईश्वर विद्वानों से डरता है।[४०]

गुण और विशेषताएं

मुख्य लेख: सूरों के फ़ज़ाइल

तफ़सीर मजमा उल बयान में, पैग़म्बर (स) से वर्णित हुआ है कि जो कोई भी सूर ए फ़ातिर को पढ़ता है, क़यामत के दिन स्वर्ग के तीन द्वार उसे आमंत्रित करेंगे, ताकि वह उनमें से किसी के माध्यम से प्रवेश कर सके।[४१] तफ़सीर नूर अल सक़लैन में भी इमाम सादिक़ (अ) से वर्णित है कि जो कोई भी रात में सूर ए सबा और सूर ए फ़ातिर पढ़ेगा, ईश्वर उसकी हेमायत और रक्षा करेगा और जो कोई भी इसे दिन में पढ़ेगा उसे कोई परेशानी नहीं होगी, और ईश्वर उसे इस दुनिया और आख़िरत में इतनी भलाई (ख़ैर) देगा जो अब तक उसके दिल में कभी नहीं आई थी और उसने इसकी कभी कामना भी नहीं की थी।[४२]

फ़ुटनोट

  1. अली बाबाई, बर्गुज़ीदेह तफ़सीर नमूना, 1382 शम्सी, खंड 4, पृष्ठ 55।
  2. तबरसी, मजमा उल बयान, 1372 शम्सी, खंड 8, पृष्ठ 625।
  3. तबरसी, मजमा उल बयान, 1372 शम्सी, खंड 8, पृष्ठ 231।
  4. क़राअती, तफ़सीर नूर, 1383 शम्सी, खंड 7, पृष्ठ 470।
  5. हुसैनी शाह अब्दुल अज़ीमी, तफ़सीर इस्ना अशरी, 1363 शम्सी, खंड 11, पृष्ठ 9।
  6. मारेफ़त, आमोज़िशे उलूमे क़ुरआन, 1388 शम्सी, खंड 1, पृष्ठ 188।
  7. दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1247।
  8. दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1247।
  9. दानिशनामे क़ुरआन व क़ुरआन पजोही, 1377 शम्सी, खंड 2, पृष्ठ 1247।
  10. तबातबाई, अल मीज़ान, 1393 हिजरी, खंड 17।
  11. तबरसी, मजमा उल बयान, 1372 शम्सी, खंड 8, पृष्ठ 628।
  12. "लअल्लका बाख़ेउन नफ़्सका अल्ला यकूनू मोमेनीना"
  13. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, 1371 शम्सी, खंड 15, पृष्ठ 185।
  14. "व अम्मा समूदियान, हमने उनका मार्गदर्शन किया [लेकिन] उन्होंने मार्गदर्शन के बजाय गुमराही को प्राथमिकता दी।"
  15. बहरानी, अल बुरहान, अनुवाद, खंड 7, पृष्ठ 577।
  16. सूर ए इंसान, आयत 3।
  17. सूर ए मुहम्मद (स), आयत 17।
  18. अल्लामा तबातबाई, तफ़सीर अल मीज़ान का अनुवाद, 1374 शम्सी, खंड 1, पृष्ठ 70-71; खंड 11, 481-483. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, 1380 शम्सी, खंड 1, पृष्ठ 151-152।
  19. तबातबाई, तफ़सीर अल मीज़ान, मंशूराते इस्माइलियान, खंड 12, पृष्ठ 214।
  20. सूर ए फ़ातिर, आयत 10।
  21. देखें: बहरानी, अल बुरहान, अनुवाद, खंड 7, पृष्ठ 578।
  22. कुलैनी, अल काफ़ी, खंड 1, पृष्ठ 430, पृष्ठ 85, 1407 हिजरी।
  23. जरीसी, सिल्सिला फ़तावा उल्मा अल बलद अल हराम, 1432 हिजरी, पृष्ठ 456; फ़तवा अल लुज्ना, 1424 हिजरी, पृष्ठ 314।
  24. अमीन, सय्यद महदी, मर्ग व बरज़ख़ अज़ दीदगाहे क़ुरआन व हदीस (तफ़सीर मौज़ूई अल मीज़ान) आस्ताने क़ुद्स रज़वी, प्रकाशन कंपनी, 1389 शम्सी।
  25. कवी दस्त, "मसअला ए तवस्सुल बे अम्वात बा निगाही बे आयत 22 सूर ए मुबारेका फ़ातिर", 1392 शम्सी, पृष्ठ 158-164; मुस्लही, "सेमा ए मौता व राबेत ए आन बा तवस्सुल बे अर्वाहे औलिया ए एलाही", 1392 शम्सी, पृष्ठ 117-118।
  26. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, खंड 18, पृष्ठ 233; बोखारी, सहीह बोखारी, 1401 हिजरी, खंड 5, पृष्ठ 8।
  27. देखें: अमीन, मख़्ज़न अल इरफ़ान, खंड 10, पृष्ठ 342।
  28. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, खंड 18, पृष्ठ 222।
  29. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, खंड 18, पृष्ठ 220।
  30. तबातबाई, अल मीज़ान, 1393 हिजरी, खंड 17, पृष्ठ 33-35।
  31. मकारिम शिराज़ी, तफ़सीर नमूना, खंड 18, पृष्ठ 225।
  32. अल्लामा मजलिसी, बिहार उल अनवार, खंड 74, पृष्ठ 204।
  33. तबातबाई, अल मीज़ान, 1393 हिजरी, खंड 17, पृष्ठ 35 और खंड 12, पृष्ठ 230।
  34. तबातबाई, अल मीज़ान, मंशूराते इस्माइलियान, खंड 19, पृष्ठ 46।
  35. राग़िब इस्फ़हानी, मुफ़रेदात, मकारिम शिराज़ी द्वारा उद्धृत, तफ़सीर नमूना, खंड 18, पृष्ठ 247।
  36. तबातबाई, अल मीज़ान, 1393 हिजरी, खंड 17, पृष्ठ 43।
  37. अरूसी होवैज़ी, तफ़सीर नूर अल सक़लैन, खंड 4, पृष्ठ 359।
  38. देखें: बहरानी, अल बुरहान, अल नाशिर: मोअस्सास ए अल बेअसत, खंड 4, पृष्ठ 545।
  39. कुलैनी, काफ़ी, 1407 हिजरी, खंड 1, पृष्ठ 36।
  40. http://hajij.com/fa/articles/religious-articles-viewpoints/item/2136------2
  41. तबरसी, मजमा उल बयान, खंड 8, पृष्ठ 624।
  42. अरूसी होवैज़ी, तफ़सीर नूर अल सक़लैन, 1415 हिजरी, खंड 4, पृष्ठ 345।

स्रोत

  • पवित्र क़ुरआन, मुहम्मद मेहदी फ़ौलादवंद द्वारा अनुवादित, तेहरान, दार उल कुरआन अल करीम, 1418 हिजरी, 1376 शम्सी।
  • अमीन इस्फ़हानी, सय्यदा नुसरत, मख़्ज़न अल इरफ़ान दर तफ़सीर क़ुरआन, तेहरान, नहज़ते ज़नाने मुसलमान, 1361 शम्सी।
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  • बहरानी, सय्यद हाशिम, अल बुरहान, रज़ा नाज़िमयान, अली गंजियान और सादिक़ खूरशा द्वारा अनुवादित, तेहरान, किताब सुब्ह, नेहादे किताबखानेहाए उमूमी किश्वर, 1388 शम्सी।
  • बोखारी, सहीह बोखारी, 1401 हिजरी, दार उल फ़िक्र।
  • जरीसी, खालिद बिन अब्दुर्रहमान, सिलसिला फ़तावा उलमा अल बलद अल हराम, किस्म अल अक़ीदा, अध्याय 8, रेयाज़, मकतबा मलिक फ़हद अल वतनिया 11वां संस्करण, 1432 हिजरी, 2011 ईस्वी।
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  • सद्रुद्दीन शिराज़ी, मुहम्मद बिन इब्राहिम, तफ़सीर अल कुरआन अल करीम, क़ुम, दूसरा संस्करण, नशर ए बीदार, 1366 शम्सी।
  • तबातबाई, सय्यद मुहम्मद हुसैन, अल मीज़ान फ़ी तफ़सीर अल कुरआन, सय्यद मुहम्मद बाक़िर मूसवी हमदानी द्वारा अनुवादित, क़ुम, दफ़्तरे इंतेशाराते इस्लामी जामिया मुदर्रेसीन हौज़ ए इल्मिया क़ुम, पांचवां संस्करण, 1374 शम्सी।
  • तबातबाई, सय्यद मुहम्मद हुसैन, अल मीज़ान फ़ी तफ़सीर अल कुरआन, बेरूत मोअस्सास ए आलमी, दूसरा संस्करण, 1393 हिजरी।
  • तबरसी, फ़ज़्ल बिन हसन, मजमा उल बयान फ़ी तफ़सीर अल क़ुरआन, फ़ज़्लुल्लाह यज़्दी तबताबाई और हाशिम रसूली द्वारा संपादित, तेहरान, नासिर खोस्रो, तीसरा संस्करण, 1372 शम्सी।
  • अरूसी होवैज़ी, अब्दे अली बिन जुमा, तफ़सीर नूर अल सक़लैन, शोध: सय्यद हाशिम रसूली महल्लाती, क़ुम, इंतेशाराते इस्माइलियान, अध्याय 4, 1415 हिजरी।
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  • क़वी दस्त, करीमा, मसअला ए तवस्सुल बे अम्वात बा निगाही बे आय ए 22 सूर ए मुबारेका फ़ातिर, सेराजे मुनीर, तीसरे वर्ष, वसंत 1392 शम्सी, संख्या 9।
  • कुलैनी, मुहम्मद बिन याक़ूब, अल काफ़ी, शोधकर्ता: अली अकबर ग़फ़्फ़ारी और मुहम्मद आखुंदी, तेहरान, दार उल कुतुब अल इस्लामी, चौथा संस्करण, 1407 हिजरी।
  • फ़तावा अल लुज्ना अल दाएमा लिल बोहूस अल इल्मिया व अल इफ़्ताअ, अल मोहक़्क़िक़: अहमद बिन अब्दुर्रज्ज़ाक़ अल दोवैश, दार उल मोअय्यद लिल नशर व अल तौज़ीअ, रेयाज़, 1424 हिजरी।
  • मारेफ़त, मुहम्मद हादी, मुक़द्दमा ए बर उलूमे क़ुरआन: तर्जुमा अल तम्हीद फ़ी उलूमे क़ुरआन, जवाद ईरवानी, क़ुम, इंतेशाराते अल तम्हीद, 1388 शम्सी।
  • मुस्लही, सादिक़, समाअ मौता व राबेता आन बा तवस्सुल बे अरवाहे औलिया ए एलाही, सेराज मुनीर, वसंत 1392 शम्सी, वर्ष 3, अंक 9।
  • मकारिम शिराज़ी, नासिर, तफ़सीर नमूना, तेहरान, दार उल कुतुब अल इस्लामिया, पहला संस्करण, 1380 शम्सी।